• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सौंदर्य, गरिमा और प्रतिरोध : महेश मिश्र

सौंदर्य, गरिमा और प्रतिरोध : महेश मिश्र

इसाबेल अयेंदे के उपन्यास ईवा लूना का स्पेनिश से अंग्रेज़ी अनुवाद 1988 में हुआ और शीघ्र ही इसने अपनी एक वैश्विक पहचान बना ली. इसकी चर्चा कर रहे हैं, महेश मिश्र.

by arun dev
August 19, 2025
in समीक्षा
A A
सौंदर्य, गरिमा और प्रतिरोध : महेश मिश्र
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

ईवा लूना
सौंदर्य, गरिमा और प्रतिरोध

महेश मिश्र

मेरा नाम ईवा है, जिसका अर्थ है “जीवन.” इस वाक्य से उपन्यास ईवा लूना आरम्भ होता है और पाठक तत्काल अनुभव करता है कि यह केवल एक आत्म-कथात्मक प्रस्तावना नहीं है, बल्कि जीवन को ही कथा का केन्द्रीय पात्र बनाने की घोषणा है. यह उद्घाटन वाक्य अत्यन्त आकर्षक और आत्म-विश्वास से भरा हुआ है. मानो लेखिका स्वयं कह रही हों कि कथा का हर मोड़ जीवन की पुनर्पुष्टि करेगा, उसकी जटिलताओं, पीड़ाओं और चमत्कारों के बीच से भी. इसाबेल अयेंदे की पहली ही पंक्ति एक निमंत्रण है. जीवन को उसके समस्त आयामों में जीने और समझने का.

लातिन अमेरिकी साहित्य ने बीसवीं शताब्दी में विश्व साहित्य को एक नई दृष्टि, एक नया सौंदर्य और एक नया प्रतिरोध-बोध दिया. गाब्रिएल गार्सिया मार्केस, मारियो वर्गास लोसा और जुलियो कोर्टाज़ार के साथ जिस पीढ़ी ने विश्व के पाठकों की चेतना को हिला दिया, उसमें इसाबेल अयेंदे का नाम भी विशिष्ट आदर के साथ लिया जाता है. ईवा लूना (1987) अयेंदे का वह उपन्यास है जिसमें वे व्यक्तिगत और राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों और नारीवादी संवेदना, इन सबको मिलाकर चलती हैं. और यह मेलजोल किसी ज़बरदस्ती का परिणाम नहीं होता, बल्कि कलात्मक ढंग से, सहज रूप से, जीवन के अनिवार्य हिस्सों की तरह होता है. ईवा की कथा एक अनाथ, संघर्षरत बच्ची की कथा है जो धीरे-धीरे अपनी आवाज़ पाती है. यह आवाज़ केवल उसके निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि एक पूरे समाज की व्यथा, उसकी आकांक्षाएँ, और उसकी राजनीति को अपने भीतर समेट लेती है.

ईवा का जीवन कल्पना और किस्से-कहानियों से गहराई से जुड़ा है. वह कहानियाँ गढ़ती है, सुनाती है, और उन्हीं से अपनी पहचान बनाती है. यह कथा-निर्माण की शक्ति ही उसे जीने का सहारा देती है. लातिनी अमेरिकी साहित्य की परम्परा में जहाँ ‘मैजिकल रियलिज़्म’ ने यथार्थ और कल्पना की सीमाओं को धुंधला कर दिया है, वहाँ ईवा की कहानी इस परम्परा का एक नया विस्तार है. गाब्रिएल गार्सिया मार्केस के एकांत के सौ वर्ष (One Hundred Years of Solitude) में जैसे मकोंडो गाँव एक जीवित पात्र बन जाता है, वैसे ही ईवा लूना में ईवा की कल्पनाशक्ति स्वयं जीवन का पर्याय बन जाती है.
ईवा लूना का संसार पुरुष सत्ता से भरा है, लेकिन वह उसमें अपनी जगह बना लेती है. यह वही नारीवादी ऊर्जा है जो अयेंदे की लगभग हर रचना में दिखाई देती है. वह स्त्री के संघर्ष को केवल निजी त्रासदी के रूप में नहीं दिखातीं, बल्कि उसे राजनीतिक यथार्थ से जोड़ देती हैं. ईवा की आँखों से पाठक एक पूरे देश की सामाजिक संरचना को देखता है— तानाशाही, दमन, वर्ग-भेद, और साथ ही विद्रोह और प्रेम की आकांक्षा. इसीलिए उपन्यास केवल ‘व्यक्तिगत कथा’ नहीं रह जाता, बल्कि राजनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण हो उठता है.

विलेज़ वॉयस लिटरेरी सप्लीमेंट (Village Voice Literary Supplement) ने जब ईवा लूना को “Elegant, mischievous” कहा और यह जोड़ा कि अयेंदे भाषा की संभावना और शक्ति से असम्भव को अपरिहार्य-सा बना ले जाती हैं, तो यह महज़ प्रशंसा नहीं थी, बल्कि इस उपन्यास की सटीक व्याख्या भी थी. सचमुच, उनकी भाषा में एक खिलंदड़ापन है, एक चपलता है, लेकिन साथ ही गरिमा भी है. यही मेल उसे ‘एलिगेंट’ और ‘मिस्चीवियस’ बनाता है.

अगर हम इसे व्यापक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो ईवा लूना जैसे पात्र का जन्म किसी भी परम्परा में असाधारण माना जाएगा. वह जेन ऑयर (Jane Eyre) की तरह अपने भीतर आग लिए हुए है, लेकिन उसकी आग केवल व्यक्तिगत मुक्ति की नहीं, बल्कि सामूहिक मुक्ति की भी आकांक्षा है. वह आना करेनिना ( Anna Karenina) की तरह प्रेम और सामाजिक बन्धनों के बीच झूलती है, किन्तु ईवा का संघर्ष उसे तोड़ता नहीं, बल्कि गढ़ता है. ईवा की शक्ति उसका ‘कथाकार’ होना है. वह अपनी कल्पना से संसार को नया रूप देती है. यही उसे विशिष्ट बनाता है.

अयेंदे के यहाँ भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, वह जीवन को गढ़ने वाली शक्ति है. ईवा कहानियों के सहारे जीवित रहती है और इन्हीं कहानियों से वह दूसरों को भी प्रभावित करती है. यहाँ जीवन और कला का विभाजन मिट जाता है.

इस उपन्यास की एक और विशेषता उसका राजनीतिक सन्दर्भ है. लातिनी अमेरिकी तानाशाही और विद्रोह की पृष्ठभूमि में रची गई यह कथा केवल कल्पना का खेल नहीं है. यह उस इतिहास का हिस्सा है जिसमें असंख्य लोग दमन के शिकार हुए, और असंख्य ने विद्रोह का साहस दिखाया. ईवा की व्यक्तिगत कथा इस ऐतिहासिक यथार्थ से अलग नहीं है. और शायद सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ईवा लूना जीवन को ‘अफर्म’ करती है. वह पीड़ा को नकारती नहीं, लेकिन उसके भीतर से जीवन की जिजीविषा निकालती है. यही कारण है कि यह उपन्यास केवल एक चरित्र की यात्रा नहीं रह जाता, बल्कि पाठक के लिए भी जीवन को पुनः देखने का आमंत्रण बन जाता है.

इसाबेल अयेंदे की उदारता, जीवन के प्रति उनकी खुली दृष्टि, यही उन्हें विशिष्ट बनाती है. आज जब हम जीवन को अक्सर तात्कालिक उपभोग और सतही उत्तेजनाओं तक सीमित कर देते हैं, तब अयेंदे का यह आग्रह कि जीवन कहानियों में, स्मृतियों में, संघर्ष और प्रेम में जीवित है, हमें भीतर तक छू लेता है. ईवा लूना इसलिए महज़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव है. जीवन की उस शक्ति का जो भाषा और कथा के सहारे असम्भव को सम्भव बना देती है.

इस उपन्यास का काल्पनिक लैटिन अमेरिकी देश बीसवीं शताब्दी की तानाशाहियों, जनविद्रोहों और क्रांतिकारी आंदोलनों की स्मृति जगाता है. इतिहास की धूल में दबे इन अनुभवों को अयेंदे पुनर्कथन के रूप में नहीं लातीं, बल्कि एक जीवित सांस्कृतिक और भावनात्मक दस्तावेज़ की तरह सामने लाती हैं. उपन्यास की राजनीतिक पृष्ठभूमि हमें बार–बार यह याद दिलाती है कि सत्ता कभी केवल एक व्यक्ति का वर्चस्व नहीं होती; यह भाषा, प्रतीक, अनुष्ठानों और सामूहिक स्मृतियों की गहराई तक फैली एक संरचना है. इसीलिए अयेंदे के यहाँ तानाशाह केवल एक नाम नहीं, बल्कि सत्ता के समूचे मनोविज्ञान का प्रतिनिधि है.

तानाशाह द बेनिफैक्टर (The Benefactor) को लोग देवता की तरह पूजते हैं जो कृपा और डर एक ही साथ जनता पर बरसाता है (offering blessings and warnings in the same breath) और यही सत्ता का द्वैध स्वर है: दया की आड़ में भय की फसल. अयेंदे सत्ता की सतही हिंसा तक अपनी दृष्टि को सीमित नहीं रखतीं; वे दिखाती हैं कि कैसे भाषा ही डर का उपकरण बन जाती है, कैसे आशीर्वाद और धमकी एक ही वाक्य में घुल-मिल जाते हैं. सत्ता का यह रूप केवल शासन नहीं करता, बल्कि नागरिकों की आत्मा तक में प्रवेश कर जाता है.

इसी पृष्ठभूमि में उपन्यास का एक प्रमुख पात्र ह्यूबर्टो नारंजो (Huberto Naranjo) सामने आता है. वह इस राजनीतिक परिदृश्य का सबसे जटिल और मानवीय रूप है. बचपन से अनाथ, आवारा, हाशिए पर पला ह्यूबर्टो गुरिल्ला दस्ते से जुड़ता है. हम देखते हैं कि यह केवल एक व्यक्ति का जीवन-वृत्तांत नहीं है, बल्कि उस पूरे समाज का रूपक है, जिसे व्यवस्था ने दरकिनार कर दिया था. ह्यूबर्टो जंगल में जाता है, जहाँ कठोरता और हिंसा का शासन है, लेकिन इसी कठोरता के बीच उसमें कोमलता का जन्म होता है. यही उसकी असाधारणता है कि उसका चरित्र हिंसक संघर्ष के बीच भी प्रेम और समर्पण को सम्भव कर पाता है. उसका प्रेम शब्दों से नहीं, बल्कि कर्म से प्रकट होता है. ईवा लूना के साथ उसका संबंध इस तथ्य की पुष्टि करता है कि सत्ता और राजनीति के भीतरी अंधकार के बावजूद मनुष्य का हृदय अभी भी सहानुभूति और दया के लिए खुला रह सकता है. ईवा से उसका प्रेम उसे राजनीतिक संघर्ष से अलग नहीं करता, बल्कि और गहरा बनाता है और साथ ही मानवीय भी. ईवा और ह्यूबर्टो का संबंध यहाँ केवल व्यक्तिगत प्रेमकथा नहीं है. यह इस बात का प्रतीक है कि राजनीति और निजी जीवन कभी अलग नहीं होते. प्रेम का अनुभव हमें यह सिखाता है कि मनुष्य को साधारण नहीं समझा जा सकता; हर चेहरा, हर स्पर्श, हर स्मृति एक व्यापक सामाजिक कथा से जुड़ी होती है. इस दृष्टि से देखा जाए तो ईवा और ह्यूबर्टो का रिश्ता सार्त्र की उस धारणा को याद दिलाता है कि “the personal is always political.” और यही वह स्थान है जहाँ भौतिक परिस्थितियाँ भावनाओं में द्वंद्व पैदा करती हैं. जहाँ बंदूक और आलिंगन सह-अस्तित्व में रहते हैं.

यहीं अयेंदे हमें एक अन्य मूल्यवान बोध भी देती हैं. वह कहती हैं कि व्यक्तियों से ठोस और प्रत्यक्ष रूप से जुड़कर ही कोई वृहद अमूर्त जनता से गहरा प्रेम कर सकता है. ईवा के प्रति ह्यूबर्टो की कोमलता उसे जनता की ओर से विमुख नहीं करती, बल्कि उसे उनकी पीड़ा और संघर्ष के प्रति अधिक सजग बनाती है. और उसका यह द्वंद्व उसे एक विशुद्ध राजनीतिक प्राणी के बजाय एक जीवित, सांस लेता मनुष्य बनाता है. वह न तो केवल नायक है, न ही केवल योद्धा. कृति में हमें यह दार्शनिक बेचैनी भी मिलती है कि क्या हिंसा वास्तव में न्याय दिला सकती है? क्या विद्रोह के बिना स्वतंत्रता सम्भव है? और क्या प्रेम, जो व्यक्तिगत है, सामूहिक न्याय की राह में बाधा है या प्रेरणा? ये प्रश्न पात्रों के जीवन से उठते हैं और पाठक को सीधे उन असमंजसों में धकेल देते हैं, जिनसे लातिनी अमेरिका का पूरा राजनीतिक इतिहास भरा पड़ा है.

अयेंदे का बड़ा योगदान यह है कि वह पात्रों के माध्यम से सत्ता की जटिलताओं को उजागर करती हैं. ईवा लूना में तानाशाह का रूपक हमें सत्ता की अमानवीयता का चेहरा दिखाता है, लेकिन ह्यूबर्टो का पात्र हमें बताता है कि राजनीतिक संघर्ष की जड़ें कितनी गहराई तक मानवीय भावनाओं से जुड़ी होती हैं. सत्ता और विद्रोह दोनों ही मनुष्य की ज़रूरतों, भय और प्रेम से जन्म लेते हैं. अयेंदे यहाँ लैटिन अमेरिका के इतिहास को भी एक नए परिप्रेक्ष्य से देखती हैं. बीसवीं शताब्दी के दौरान अर्जेंटीना, चिली, पेरू, निकारागुआ और कोलम्बिया में उठे गुरिल्ला आंदोलनों ने हमें यह दिखाया कि कैसे ‘जनता’ का प्रेम और नफ़रत राजनीतिक संरचनाओं को पलट सकती है. ह्यूबर्टो इन्हीं जन-आंदोलनों का प्रतिनिधि है… एक ऐसा व्यक्ति जो हाशिए से उठकर सत्ता को चुनौती देता है. लेकिन अयेंदे उसे केवल एक आदर्श क्रांतिकारी के रूप में नहीं लिखतीं; वह उसे त्रुटियों, कमज़ोरियों और असमंजसों वाला मनुष्य बनाकर प्रस्तुत करती हैं. यही यथार्थवाद उनके साहित्य को सार्वभौमिक बना देता है.

इस पूरे परिप्रेक्ष्य को पढ़ते हुए हमें दॉस्तोएव्स्की और एदुआर्दो गालेआनो की छवियाँ दिखाई देती हैं. दॉस्तोएव्स्की हमें मनुष्य के भीतर के द्वंद्व की गहराई दिखाते हैं; और गालेआनो इतिहास के हाशिये पर छूट गई स्मृतियों को सँजोते हैं. अयेंदे इन सबको जोड़कर एक स्त्री दृष्टि से, एक स्मृति और संवेदना की भूमि से, लैटिन अमेरिकी अनुभव को फिर से रचती हैं. इसलिए कहा जा सकता है कि ईवा लूना केवल सत्ता और विद्रोह की कथा नहीं है. यह इस बात की घोषणा है कि राजनीतिक इतिहास केवल शासकों की गाथा नहीं होता, बल्कि उन चेहरों की कहानी भी है जो जंगलों में, गलियों में, और अपने प्रेम में, इतिहास को आकार देते हैं. उपन्यास इस सत्य का भी मूर्त प्रमाण है कि राजनीति के सबसे अंधेरे क्षणों में भी प्रेम और मानवीयता नष्ट नहीं होते, बल्कि वे ही क्रांति का असली आधार बनते हैं.

अयेंदे की भाषा में एक ऐसी उदारता और गहराई है, जो स्त्री स्वर को न केवल प्रामाणिक बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से विश्वसनीय बनाती है. उनका गद्य समृद्ध और लगभग जादुई है, पर यह जादू किसी काल्पनिक पलायन का साधन नहीं, बल्कि यथार्थ की सबसे कठोर परिस्थितियों में भी प्रतिरोध बनता है. मैजिकल रियलिज़्म यहाँ केवल सौंदर्यात्मक प्रभाव के लिए नहीं है, बल्कि यह उन अदृश्य तंतुओं को पकड़ने का माध्यम है जिनके सहारे स्त्रियाँ और हाशिये के लोग अपने जीवन को अर्थ देते हैं. ईवा का स्वर किसी बने-बनाए कठोर साँचे में नहीं बँधता. वह कभी कथाकार है, कभी पात्र, कभी प्रेमिका, कभी विद्रोही, तो कभी एक गहरी करुणा से भरी हुई स्त्री— जो दूसरों के दुःख को अपना बना लेती है. उसकी यह बहुवचनात्मकता ही अयेंदे की शैली को विशिष्ट बनाता है. करुणा उसके भीतर स्थायी तत्व है, जो उसे जीवन की हिंसक और अंधेरी परिस्थितियों से लड़ने की नैतिक शक्ति देती है.

स्त्री–पुरुष संबंधों का विस्तृत स्पेक्ट्रम वे अपने लेखन में खोल देती हैं. यह केवल प्रेम और देह तक सीमित नहीं, बल्कि सत्ता, राजनीति और सामाजिक संरचना तक फैला है. ईवा का ह्यूबर्टो से संवाद इसका सशक्त उदाहरण है. वह देखती है कि जिस क्रांति का सपना ह्यूबर्टो लिए हुए है, उसमें स्त्रियों के लिए समानता का कोई ठोस स्थान नहीं है:

“For Naranjo, and others like him, ‘the people’ seemed to be composed exclusively of men… His revolution would not change my fate in any fundamental way.”

यह उद्धरण स्पष्ट करता है कि राजनीतिक क्रांतियाँ भी अक्सर स्त्रियों को उनके ऐतिहासिक पराधीनता से मुक्त नहीं करतीं. यहाँ वे यह दिखाती हैं कि स्त्री की मुक्ति केवल राजनीतिक घोषणाओं से संभव नहीं, बल्कि उनकी अपनी जिजीविषा, इच्छाशक्ति और निर्णय की क्षमता से संभव हो सकती है.

ईवा का यह स्वर लैटिन अमेरिकी समाज की पारंपरिक पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देता है. वह अपने जीवन की कहानियों को बुनते हुए दिखाती है कि स्त्रियाँ केवल घटनाओं की गवाह या शिकार नहीं हैं, बल्कि वे इतिहास की सक्रिय रचनाकार भी हो सकती हैं. इसी अर्थ में अयेंदे का स्त्री स्वर किसी एक पात्र का स्वर नहीं, बल्कि पूरी लैटिन अमेरिकी स्त्रियों की सामूहिक गूँज है.

अंततः ईवा लूना का सबसे गहरा विश्वास यह है कि कहानियाँ केवल व्यक्तिगत स्मृति का संचय नहीं होतीं, बल्कि वे प्रतिरोध का सबसे प्रभावी हथियार हैं. ईवा का यह कथन कि “You are the sum total of your stories”. केवल आत्मकथात्मक उद्घोषणा नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध की ध्वनि भी है. जब मनुष्य को उसकी भौतिक सत्ता से, उसके राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है, तब भी उसके पास उसकी कहानियाँ रहती हैं, और उन कहानियों में उसकी स्वतंत्रता और उसकी गरिमा संरक्षित रहती है. अयेंदे इस विचार को सीधे–सीधे अपने अनुभव से जोड़ती हैं. तानाशाही, सैन्य शासन और दमन के लंबे दौर में जब लोगों की आवाज़ कुचलने की कोशिश की गई, तब कथाएँ— लोककथाएँ, स्मृतियाँ, और व्यक्तिगत अनुभव, एक ऐसी शरणस्थली बन गईं जहाँ प्रतिरोध जीवित रह सका. इसी संदर्भ में वे लिखती हैं:

“The dictatorship thought it could silence the people, but silence has its own voice.”

यानी, चुप्पी भी बोलती है, और उसका स्वर कभी मिटाया नहीं जा सकता.

उपन्यास में ईवा की कथा–वाचकता इस प्रतिरोध का प्रत्यक्ष रूप है. वह अनाथ है, उपेक्षित है, लेकिन उसके पास कहानियाँ हैं. उसका जीवन बार–बार शोषण और उत्पीड़न के घेरे में आता है, पर हर बार वह कथा–शक्ति के सहारे उस घेरे को तोड़कर बाहर निकलती है. ईवा केवल कहानियाँ नहीं सुनाती, बल्कि जिन लोगों से उसका जीवन टकराता है, उनके दुख–सुख को अपनी कथा में समेटकर उन्हें अमर कर देती है. इस तरह कथा एक सामूहिक स्मृति बन जाती है, जो सत्ता की हिंसा को चुनौती देती है.

अयेंदे का यह आग्रह कि साहित्य विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता है, आज भी उतना ही प्रासंगिक है. साहित्य हमें स्मरण की शक्ति देता है, और स्मरण स्वयं एक राजनीतिक क्रिया है. जब राज्य या सत्ता हमें यह भूलने पर मजबूर करती है कि हमारे साथ क्या हुआ, तब साहित्य उस विस्मृति के विरुद्ध खड़ा होता है. यह हमें हमारी चोटों को पहचानने, उन्हें शब्द देने और उन्हें साझा करने की क्षमता देता है. इसी प्रक्रिया में पुनः सृजन की संभावना छिपी होती है.

इस दृष्टि से Eva Luna केवल एक उपन्यास नहीं, बल्कि प्रतिरोध का घोषणापत्र है. इसमें प्रेम और कथा आपस में ऐसे गुँथे हुए हैं कि वे व्यक्तिगत मुक्ति के साथ–साथ सामूहिक स्वतंत्रता का स्वप्न भी गढ़ते हैं. ईवा का प्रेम केवल एक व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं है; उसमें उन सबके लिए करुणा है जो हाशिये पर धकेल दिए गए हैं. इसी करुणा के साथ वह अपनी कहानियाँ कहती है— ऐसी कहानियाँ जो प्रेम से जन्म लेती हैं लेकिन प्रतिरोध में खिलती हैं. आलेन्दे स्वयं चिली के राजनीतिक उथल-पुथल, निर्वासन और तानाशाही की त्रासदियों से गुज़रीं. उन्होंने जो खोया, वही उनके लेखन की धड़कन बन गया. Eva Luna इसी व्यक्तिगत और राजनीतिक अनुभव का रूपांतरण है—जहाँ एक स्त्री की कथा, पूरे महाद्वीप की कथा बन जाती है. पाठक जब इस उपन्यास से गुजरता है, तो वह केवल एक स्त्री की कथा नहीं पढ़ता, बल्कि जीवन और स्मृति को नए सिरे से पहचानता है. यह अनुभव हमें यह याद दिलाता है कि साहित्य कभी केवल सौंदर्य का खेल नहीं होता, वह मानव गरिमा और प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम होता है.

 

महेश मिश्र
भारतीय तथा वैश्विक सांस्कृतिक मामलों के जानकार हैं.
साहित्य में रुचि और गति.

सम्प्रति:  भारतीय सूचना सेवा में कार्यरत 
maheshmishra321@gmail.com

Tags: 2025Eva LunaIsabel Allendeमहेश मिश्र
ShareTweetSend
Previous Post

पराधीनता का उत्तराधिकार : माधव हाड़ा

Related Posts

महाकवि अश्वघोष का बुद्धचरित : चंद्रभूषण से महेश मिश्र की बातचीत
बातचीत

महाकवि अश्वघोष का बुद्धचरित : चंद्रभूषण से महेश मिश्र की बातचीत

इंडस ब्लूज़ : नरेश गोस्वामी
फ़िल्म

इंडस ब्लूज़ : नरेश गोस्वामी

विटामिन ज़िन्दगी : रवि रंजन
समीक्षा

विटामिन ज़िन्दगी : रवि रंजन

Comments 2

  1. कुमार अम्बुज says:
    14 hours ago

    आलेंदे की पुस्तक के बहाने यह विचारोत्तेजक लेख, साहित्य के मूल्यों को भी अपने दायरे में लेता है। पठनशील महेश मिश्रा ने इधर किताबों पर लिखना शुरूकिया है जो समीक्षा के प्रचलित घेरों को अतिक्रमित कर रहा है। ‘समालोचन’ की प्रस्तुति भी रेखांकन योग्य है। यह शृंखला चलती रहे।
    स्वागतेय!

    Reply
  2. रोहिणी अग्रवाल says:
    10 hours ago

    वैश्विक स्तर पर स्त्री-लेखन सत्ता, समाज और व्यक्ति के मनोविज्ञान को जिस स्वप्नदर्शी, आत्मपरक और संवेदनशील वैचारिकता के साथ विश्लेषित कर रहा है, वह यथार्थ की अदृश्य परतों को प्रत्यक्ष करके जीवन को नई दृष्टि से देखने का आह्वान है।
    इजाबेल अलेंदे की कुछ कहानियाँ पढ़ी हैं। वे हमेशा छुपे हुए सत्य का उद्घाटन कर भीतर बेचैनी पैदा करती हैं। महेश मिश्र ने कथा-मर्म की गहराई में उतर कर जिस तरह ईवा लूना के जरिए जिंदगी की विडंबनाओं और व्याकुलताओं पर विचार किया है, वह सराहनीय है। जाने क्यों यह सब पढ़ते हुए मुझे शिवेंद्र के उपन्यास ‘चंचला चोर’ की याद आती रही। फैंटेसी, जादुई यथार्थवाद और लोककथा के मेल से बुना मेटा फिक्शन आज के संश्लिष्ट समय को विजनरी आँख के साथ पुनर्सृजित कर रहा है।
    बहरहाल इतने सारगर्भित समीक्षात्मक आलेख ने उपन्यास पढ़ने की ललक बढ़ा दी है।
    समालोचन को बधाई और आग्रह कि ऐसी चुनिंदा कृतियों से हमें परिचित कराते रहें।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक