अंतरिक्ष भर बेचैनी
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तुम व्यग्रता की खदान हो.
यह निराकार तत्व प्रभाव में किसी पारस की तरह है. जो अपने स्पर्श से तुम्हारी अन्य धातुओं, तत्वों को भी व्यग्रता में तब्दील कर देता है. या जैसे यह किसी मणि की तरह तुम्हारे मस्तक में है. भीतर बसी कस्तूरी, जिसकी खोज में तुम व्याकुल भटकते हो. इस आकुलता को उलीचना महासागर को उलीचना है. यह असंभव काम है. बेचैनी को बाहर कर दो तब भी वह भीतर बची रह जाती है और प्रजनन करती है. अशेष बनी रहती है. यों भी तुम्हारे लिए तो हर चीज़ किसी न किसी बेचैनी का प्रतिरूप है. तुम देखते हो हवा व्याकुल है. आकाश को भी व्यग्र करती हुई. अग्नि अपनी विक्षुब्धता में धधक रही है. पानी की विकलता रास्ते की करवटों और पत्थरों से संसर्ग में अभिव्यक्त है. यह पृथ्वी व्यग्र होकर घूमती चली जा रही है. पंचतत्वों की समस्त बेचैनियाँ तुम्हारे मनोजगत में बस गई हैं.
कौन-सी शांत चीज़ है जो तुम्हें अशांत नहीं करती. कौन सी अशांत चीज़ है जो तुम्हारी बेक़रारी को हज़ार गुना नहीं बढ़ाती. चर-अचर में ऐसा क्या है जिसे तुम अपनी बेकली की परिधि में नहीं समेट लेते? समुद्र में चलती नमक की चक्की की लोककथा की तरह, तुम्हारे भीतर कभी न रुकनेवाली कोई चक्की चल रही है जो हर चीज़, हर दृश्य, प्रत्येक स्वप्न, प्रत्येक संवेदना को पीसकर बेचैनी में बदल देती है. यह तुम्हारे जीवद्रव्य का अविभाज्य अंश है. कोशा कोशा में व्याप्त. यही तुम्हारे शब्दों में उदासी की तरह चमकती है. जो तुम्हारे क़रीब जाएगा, तुम्हारे शब्दों से सहवास करेगा तो यह उसके गुणसूत्रों में भी अंतरित हो जाती है. तुम आपादमस्तक व्यग्रता से निर्मित हो. तुम्हारी बेचैनी आकाश में समुद्र की छाया है. उसकी नीलिमा. साहित्य की यह आकुल परंपरा है. तुम्हारी व्याकुलता अंतरिक्ष की तरह है, रोज़ अपना परिक्षेत्र बढ़ाती. ख़ुद को विस्तारित करती.
असीम होती हई.
यह बेचैनी कोई विशाल चुंबक है. केवल उत्तर दिशा की तरफ़ नहीं, दसों दिशाओं की तरफ़ आकर्षित. इस की कोई निश्चित दिशा नहीं, यह चहुँओर है. सर्वव्यापी. सर्वग्रासी. इसका एक चुंबकीय बल है. तुम प्यास बुझाने के लिए, ज़रा से पानी के लिए भी अपना किंचित उत्खनन करते हो तो पानी का नहीं व्यग्रता का फ़व्वारा फूट पड़ता है. तुम्हारे भीतर बेचैनियाँ खदबदाती हैं. तुम्हारी राह में बेचैनियों की ‘माइंस’ बिखरी पड़ी हैं. तुम एक क़दम भी बढ़ाते हो, वे धमाके के साथ फट पड़ती हैं. दरअसल, तुम आकुलताओं से भरी एक विस्फोटक गेंद की तरह हो. लुढ़कती. उछलती. टप्पे खाती. या कमरे के किसी कोने में, बिस्तर में शांत पड़ी हुई. कभी दीवार से सटकर. कभी कोहनियों के सहारे किसी टेबल पर. मानो तुम बताते हो कि हर लेखक, हर कलाकार ऐसी संरचना की तरह हो सकता है जो कुछ विस्फोटक, कुछ शोरा, कुछ सल्फ़र अपने भीतर लेकर चलता है. जिस पर उसका कोई वश नहीं. वह स्वयं को स्वयं के ही विस्फोट में उड़ाता है. तुम इसका व्यग्र उदाहरण हो.

(दो)
बेचैनी मात्र दैहिकता, भौतिकता से प्रसूत नहीं होती. वह किसी गतिहीन प्रसन्नता या संतुष्टि से भी हो सकती है. यह अपने संसार को कुछ करुणा, कुछ असहायता या कामना के साथ देखने से, उसमें अपनी और सबकी दारुण, हास्यास्पद, निरीह उपस्थिति के संज्ञान से निर्मित होती चलती है. उन सपनों से भी जो जागने पर टूट-फूट जाते हैं. या जागते हुए पीछा करते रहते हैं. धूल से, तारों की रोशनी से, आँसुओं से, यातनाओं के रास्तों से गुज़रते हुए. या उनके बारे में सोचते हुए. यह इतनी साकार प्रतीत हो सकती है कि तुम उसे अपने भीतर और बाहर रिसते हुए देखते हो. यह हृदय को हथेलियों के बीच रखकर भींचते रहने से भी प्रसवित होती है. एक क्षण में, एक कण में और आशा की दुराशा से भरे मन में. और उन अभावों से जो तुम्हें स्पंदित और जीवित रहने का ठीक अनुभव नहीं होने देते. यह अकुलाहट जो दूसरों को ख़ामोशी में दिख सकती है. या लड़खड़ाहट में, बड़बड़ाहट में, हकलाहट में. जीवन के उजाड़ भूदृश्यों के रंगीन विन्यास में. किसी कसक, टीस और आकांक्षा से टपकती हुई. उस आवास से, उस हृदय से, उस संबंध से रिसती हुई जिसे परित्यक्त कर दिया गया है.
क्षुब्धताओं भरी मेरी यह शब्दावली, यह पांडुलिपि कौन प्रकाशित करेगा. कर भी दे तो कौन पढ़ेगा. पढ़ भी ले तो कौन इसके साथ बेकली का समय बिताएगा. यह सुंदर है लेकिन व्यर्थ है. शायद असंगत भी. मैं इन्हीं सब वजहों से अपनी इस मुमकिन किताब से प्यार करता हूँ. इसकी उपयोगिता इस मायने में ज़रूर हो सकती है कि इसने व्यग्रता के साथ अपनी गृहस्थी बसा ली है. लेखकीय जीवन की विडंबनाओं भरी कसमसाहट की किताब.
यह रात के गहराते वक़्त में फैलता धुआँ है. घड़ी में तीन बज रहे हैं. समय को नापने, जानने का कोई ऐसा तरीक़ा नहीं है जो यंत्रों से संभव हो. यांत्रिकता पर निर्भर समय छलावा है. समय हमारी सक्रियता, निष्क्रियता या गतिविधि में बेहतर जाना जा सकता है. इनका माप भी अलग-अलग आएगा. जो समय को घड़ियों से, धूप-छाया और पंचांगों से जानते हैं वे गणितज्ञ हैं. यांत्रिकता की अकादेमी के अनुयायी. ये सब केवल समय को विभाजित कर सकते हैं. नियमों से. गणना से. जीवन का समय गणित नहीं है. क्योंकि जीवन गणित नहीं है. वैसे भी समय हमारे भीतर अलग तरह से बीतता है. और बाहर कुछ अलग ढंग से. वह बेचैनियों से, संवेदनाओं से बेहतर मापा जा सकता है. देखे और अदेखे सपनों से भी. और इससे कि कितने स्वप्न चरितार्थ हुए, कितने बरबाद. हमारे जीवन की कुल गति समय की गति है. तेज़. धीमी. संतुलित. या असंतुलित. या बिना काँटों की घड़ी जिसका पेंडुलम भर दोलन कर रहा है. अथवा कोई बंद घड़ी.
(तीन)
रेस्तराँ में अपनी टेबल पर बैठा हुआ मैं पड़ोस की टेबल की ओर देखता हूँ, सुनता हूँ. ‘होता है शब ओ रोज़ तमाशा मिरे आगे’- ‘‘यह शनिवार की रात है. मुझे गीत गाना है और उतना नशा करना है कि देह को नहीं, मेरी बेचैनी को चैन मिले. संगीत और मद्य मिलकर, विगत का भार मेरे झुके हुए कंधों से उठा सकते हैं. कुछ देर के लिए ही सही. मैं अच्छा गायक नहीं हूँ लेकिन मदिरा संगीत हेतु उत्प्रेरणा होगी. वह अपना काम करेगी. मेरे दोनों फेफड़ों को गिटार की तरह बजा सकेगी. लगता है मदिरा किसी संगीतज्ञ का आविष्कार है ताकि किसी अनाश्वस्ति में हम अपना आविष्कार कर सकें. हमारे हो सकने का कोई सुरीला अनुसंधान. मुझे थोड़ी वाइन और दो. कुछ और द्रव्य. आज मैं जीवित हूँ. कल कुछ मर जाऊँगा. परसों थोड़ा और. यही क्रम चलना है. रोज़ मरना है.’’ क्या सप्ताहांत की रात में यह दुनिया शराबियों का खेल है? अंत में झगड़ा होना है. काफ़ी रात हो गई है, अब मैं अपने घर की तरफ़ जाता हूँ. घर? घर कहाँ है? कहाँ है लेखक का आवास? व्यग्रता के शिकार लेखक का घर कहाँ हो सकता है? बेकली का कमरा.
एक बेचैन जगह.
ओ मेरे मानस पुत्र! तुम भी लेखक हो, मेरा ही अंश हो और स्वायत्त. चलो, तुम मेरे साथ चलो. कुछ दूर तक चलो. इन पुरानी सीढ़ियों से. तुमसे मैं कुछ कह सकता हूँ. तुमसे कुछ सुन सकता हूँ. तुमसे उतनी आग तो ले ही सकता हूँ कि सिगरेट सुलगाई जा सके. ऐसी हिंसक, मादक शनिवारों की रातों पर सुंदर गद्य लिखना मुमकिन है. लिखो. लघु पत्रिकाओं में यह छप सकता है. क्या अभी लघु पत्रिकाएँ हैं? प्रचलन के प्रतिवाद में किसी आंदोलन की तरह हैं? वे कविताएँ छापती हैं. लेकिन मैं कविता नहीं लिख सकता. कविताओं के टुकड़े लिख सकता हूँ. छोटे-छोटे इंदराज. मैं इतनी रात में कहाँ जाऊँगा. मेरा कोई घर नहीं. कोई दोस्त नहीं. फिलहाल मुझे किताबों में दिलचस्पी नहीं. जीवन में है क्योंकि जीवन जीना मजबूरी है. जीना है तो जीवन में रुचि लेना होगी. वरना जीवन की दिलचस्पी तो आप में है ही. दोनों स्थितियों में आप मर नहीं सकते. यही जीवन की मुश्किल और अच्छाई है.
यदि किराये का ध्वस्त कमरा कोई घर कहला सकता है तो वह मेरे पास है. मेरी रातें लिखते रहने में बीत जाती हैं. अचानक कोई तूफ़ान सा उठता है और मैं पन्नों पर न जाने क्या लिखता रहता हूँ. अजीब हस्तलिपि. एक बवंडर. उस लिपि को कोई बमुश्किल पढ़ सकेगा. मेरा काम तो लिखना है. साहित्य क्या है? एक कला जो विचार की जीवन संगिनी हो गई है. ऐसा अनुभवजन्य संज्ञान, ऐसी अनुभूति जो यथार्थ से संयुक्त है लेकिन इन सबसे निष्कलंकित है. सारे मानवीय उपक्रम, सारी कलाएँ, गतिशील हैं. यात्रिक हैं. लैम्प पोस्ट की कमज़ोर रोशनी से प्रकाशित एक सँकरे रास्ते पर चलना, जीवन के दर्रे में चलना है. प्रकाशमान लेकिन धुँधला. घिरा हुआ.

(चार)
ऊब की भी एक गरिमा होती है. अभावग्रस्त लेखक उसे प्रेरणा की तरह भी ग्रहण कर सकता है. लेकिन अमीरी में ऊब एक असुविधा हो जाती है. जैसे शारीरिक यातना. विपन्न संसार के लिए ऊब ताक़त भी बन सकती है. यह काली चाय अभिरुचि नहीं, मेरी आर्थिक सीमा है. एक ही देश में दो देशों के बीच खिंची हुई सीमा रेखा. मेरे बचपन ने, अकेलेपन ने, औपचारिक शिक्षा के अभाव ने और किसी भीड़ का हिस्सा बन सकने की मेरी असमर्थता ने मुझे वह बना दिया है जो और जैसा मैं अभी हूँ. ये इतने सारे काग़ज़, ये पन्ने इसी तरह के वृतांतों से भरे हैं. जीवन के हालातों ने मेरी सहजवृत्तियों, इच्छाओं का नियोजन कर लिया है. या इसका उलटा कह दो. लेकिन मैं समाज और राज्य की अपेक्षाओं से समायोजन नहीं करता. मैं अपनी इच्छाओं के भी पार निकल जाता हूँ. मैं किसी के कब्ज़े में नहीं हूँ. मैं किसी की आकांक्षापूर्ति का साधन नहीं. इसलिए मेरा कोई दोस्त नहीं. प्रेम संबंध नहीं. ये तमाम रिश्ते प्रत्याशा करते हैं. कोई संबंध अपेक्षाविहीन नहीं. तुम मेरे क़रीब इसलिए हो और मैं तुम्हारी तरफ़ इसलिए आ रहा हूँ क्योंकि तुम्हें मैंने ही बनाया है. मेरी प्रतिकृति. तुम मैं हूँ. मैं तुम हो. मगर हम अलग-अलग भी हैं. तुम मेरी छाया नहीं हो. मुझसे उत्पन्न हो लेकिन स्वाधीन. हम एक-दूसरे के प्रति अनावश्यक उत्तरदायी नहीं. हम संबंधों से विवश जवाबदार नहीं हैं. बस, मैं तुमसे अपना अधूरापन दूर करता हूँ, विस्तृत होता हूँ और वीरान होने से बच जाता हूँ. तुम पर विश्वास नहीं करूँगा तो किस पर? लो, यह पांडुलिपि लो. देखो, पढ़ो, बताओ.
प्रकाशित करा सकते हो तो कराओ.
मनुष्य के पास एक विकसित मस्तिष्क है. उसे जीवित रहने के लिए एक विकसित संभ्रम चाहिए. विकसित कल्पनाशीलता. विकसित होते स्वप्न. जीवित होने का अहसास जीवन को अधिक कठिन बनाता है. मैं रात में लिखता हूँ. सो जाएँगें तो रात की आवाज़ें दिन में नहीं सुनाई देंगी. रात के दृश्य दिन में नहीं दिख सकते. मेरे जैसे लेखक के लिए रात नेमत है. रात की बेचैनी का कोई मुक़ाबला नहीं. मैं किसी व्यग्रता के वशीकरण में लिखता हूँ. विचारों की रफ़्तार इतनी ज़्यादा है कि लिखने की कोई भी गति पीछे छूट जाती है. काग़ज़ मेरी कलम की निब की घसीट को जैसे-तैसे सहता है. उस रफ़्तार में मेरी अशांति और विकलता की गति भी शामिल है. पता नहीं क्या लिखता हूँ. उसे वापस पढ़ने या देखने का वक़्त मेरे पास नहीं है. मैं अपने भीतर की किसी बाध्यता से संचालित लेखक हूँ. कोई विकलता है. बेक़रारी. मुझे अभी और लिखते जाना है.
अँधेरे में देर तक रहने के बाद प्रकाश राहत भरी ख़ुशी देता है लेकिन चकाचौंध भी पैदा करता है. मैं शायद एक ऐसे युग में हूँ जब ईश्वर जनता का विश्वास खोता जा रहा है. यह एक राजनीतिक वाक्य भी हो सकता है लेकिन इसे आप एक बेचैन लेखक का वाक्य मानें. जो कारण विश्वास के होते हैं, एक दिन वे ही कारण अविश्वास के बन जाते हैं. लेकिन यह आशा अभी प्रश्नवाचक है- क्या मनुष्यता ईश्वर की जगह ले सकती है? कुछ लोग सामाजिक न्याय और समानता के लिए संकल्पित हैं. कुछ सौंदर्यबोध पर आसक्त. अनेक विज्ञान और उसकी उपलब्धियों पर और कुछ धार्मिकता में और अधिक लिथड़ते हुए. सब अपने विचारों, क्रियाओं की पुष्टि संसार के कोने-कोने में बिखरे समान गुणधर्मी उदाहरणों से करते हैं. किसी नयी माया की खोज में. कोई नयी भाषा. कोई नयी बेचैनी. मैं लिखता हूँ और लिखे काग़ज़ को तोड़-मोड़कर, बेतरतीब गोला बनाकर एक तरफ़ पटक देता हूँ. जैसे मेरा अपना यह जीवन. इन स्थितियों के बीच झूलते हुए सोचता हूँ कि धर्म अंतत: एक भ्रम है.
हम सभ्यता के रूप में भी गहरे असंतोष के साथ
और सांत्वनाविहीन होकर अग्रसर होते रहते हैं.
वाक़ई अग्रसर? किधर?
यह लड़की किसी उज्ज्वल स्पर्श की कामना में अकेलेपन का गीत गुनगुना रही है. यह एकाकी है और उदास है. कि मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही रहना है. हर चीज़ अपूर्ण है. कोई भी सुंदर दृश्य, जैसे सूर्योदय या सूर्यास्त ऐसा नहीं कि अगले दिन और अधिक सुंदर न हो सके. या बाद में कभी. सुंदरता के प्रतिमान रोज़ नये हो जाते हैं. हमेशा बेहतरी की गुंजाइश दुनिया के अस्तित्व का सार है. हवा का नया झोंका, कोई अदेखा मैदान, विशाल पत्थर, नयी दूब और एक छोटा सा झरना यही बताता है. रात तरह-तरह से हृदय पर गिरती है, हर बार एक नयी तरह से. और यह सुबह कंपित सूखे अधरों पर, निद्रालु पलकों पर थरथराती है.
(पाँच)
वस्तुओं की तरह सभ्यता में भी सड़न पैदा हो सकती है. हम कई बार बिना यह समझे जीते चले जाते हैं कि यह जीवन किस तरह जीना चाहिए. हर बात को, हर चीज़ को, हर सुंदरता और भयानकता को किसी परिभाषा में बंद कर देते हैं. फिर परिभाषाओं के लिए लड़ते हैं. जीवन नियम नहीं समझता, न ही परिभाषा. वह अपने ढंग से समझाता है कि गुरुत्वाकर्षण केवल भारी, भौतिक वस्तुओं में ही नहीं होता. वह अवसाद, प्रेम, मुस्कराहट जैसी अनगिन भंगिमाओं में भी होता है. बहरहाल, मुझे और भी अनेक चीज़ें चाहिए. एक कप कॉफ़ी, सिगरेट और सपने. ये मेरे एक जीवन के लिए पर्याप्त हैं. बल्कि संसार भर के लिए, सुंदरता और गरिमा के लिए भी.
मेरे भीतर बेचैनी की अक्षय अफ़ीम है. इस से अधिक मादकता नहीं चाहिए. मैं सोचता रहता हूँ कि स्वप्नशीलता और वास्तविकता में क्या कोई विरोध है. क्या ये कभी दोनों सहकर्मी हो सकते हैं? तब तक मैं दोनों का मिश्रण तैयार करता हूँ. अच्छा या बुरा कुछ नहीं. तमाम तकलीफ़ों के बावजूद दुनिया में रहता हूँ. कठोर, घबराया या उदास. लेकिन पलायन नहीं कर सकता. आत्महत्या जीवन का अक्षम्य अनादर है. देख रहा हूँ कि दुखी लोग ठीक से इकट्ठा नहीं हो पाते. इसलिए अकेले-अकेले अपना-अपना दुख उठाते रहते हैं. कचरे की तरह धारा के साथ बहते हुए. मेरा ग़ुस्सा और सहानुभूति उनके लिए है. नर्क और स्वर्ग मेरे भीतर हैं. लेकिन आप असंगत होने को दैवीय मान लेंगे तो मुश्किलें हैं. इकट्ठा लड़ोगे नहीं तो कहूँगा कि जाओ, मरो. इसी दलदल में रहो.
शांत स्थल भी मुझे अशांत कर देते हैं. मानो मैं ख़ुद का ही गला घोंट रहा हूँ. लेखक के मनोविकार लाइलाज होते हैं. लेकिन वे नहीं रहेंगे तो लेखक भी नहीं रहेगा. सारी ऋतुएँ मेरे बिना भी आती हैं, चली जाती हैं. या मैं उनकी परवाह नहीं कर पाता. क्या सपने देखने की मेरी क्षमता ख़त्म हो रही है? यही मृत्यु है. सोचते हुए मेरी श्वास अवरुद्ध हो रही है. क्या यह सोचने-विचारने के अस्थमा का दौरा है. ईश्वर! तुम कहाँ हो? यदि कहीं नहीं हो तो भी बताओ कि कहाँ हो? बच्चों में. अंधविश्वासी प्रार्थनाओं में. कोमल इच्छाओं में. उन्मुक्त हँसी में. कहाँ हो? कोई उत्तर नहीं. कोई समाधान नहीं. मैं पवित्र घंटियों की सुरीली आवाज़ों से पीछा छुड़ाकर अपनी बेचैनी की जीवंत राह पर चला आया हूँ.
(छह)
ईर्ष्या का कोई अंत नहीं. क्योंकि तुम हमेशा वह होना चाहते हो जो तुम नहीं हो सके, लेकिन वह कोई दूसरा हो गया है. उसे देखकर तुम्हें लगता है वह बेहतर है. इसी वक़्त वह दूसरा भी यही सब सोचकर तुमसे ईर्ष्या कर रहा है. हर व्यक्ति अपने गुणों से ही नहीं, अपने अवगुणों से भी किसी को ईर्ष्यालु बना सकता है. कई बार तो अपने आधे टूटे दाँत से, एक उभरे हुए मस्से से. या अपनी प्रखर अश्लीलता से. अपनी उदासी से. बेचैनी से. धन से. संताप से. हज़ारों पक्ष हैं जो तुम्हें दुखी या सुखी नहीं, ईर्ष्यालु बना सकते हैं. मैं विचारों के इस झंझावात में अपनी गली से उतनी तेज़ी से गुज़रता हूँ जैसे कोई धावक अपने ट्रैक पर.
मेरा सोचना, लिखना, पढ़ना क्या महज़ एक भ्रम है. या आस्था. या कोई श्रद्धा. एक दीवानापन जो पागलपन की प्रजाति का है. कोई स्थायी ज्वर? मैं मेहराबों के बीच, पत्थरों के स्थापत्य से, इमारतों, सड़कों की प्राचीनता और वैभव में से गुज़रता हूँ और उनकी पीड़ा से. जैसे अपने समूचे पर्यावरण से. और पाता हूँ कि मैं कुछ भी नहीं हूँ. मेरी परछाईं किसी रोशनी में नहीं बनती. एक पुल से झाँकते हुए संशय, यथार्थ, सत्य और कल्पना को नदी में एक साथ बहते हुए देखता हूँ. अब मैं नये तरीक़े से पूर्ण, अकेला और प्रांजल रह जाता हूँ. व्यग्रता मेरे साथ रहती है. वह मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाती. रात्रि में देखे गए सपनों के सहारे अचरज से भरा मैं अपने शहर की गलियों की धूल फाँकता हूँ. एक बार फिर मुझे कोई नहीं पहचानता. इस तरह मैं हूँ. धूप में. समुद्र के किनारे. हवा की शीतलता में. अपने होने का अनुभव करता हुआ. आदिम. और प्राकृतिक. पानी के ठीक ऊपर उड़ते ये पक्षी. उनका छोटा-सा आकाश और अपनी धुन. एक चंचल मादकता.
हर दुख को क्या किसी संगीत में ढाला जा सकता है? शिकायतों को, घबराहट को, रात में उठते तूफ़ान को, दिन की नीरवता को, कार्यालय के वित्तीय हिसाब किताब को, अपने को न समझे जा सकनेवाली झुँझलाहट को. क्या मैं अब भी उतना बच्चा बना रह सकता हूँ जो न केवल सपने देखता हो बल्कि उनमें यक़ीन भी करता हो. मुझमें कोई बीमारी ऐसी नहीं है जो श्रेष्ठिवर्ग में, अमीरों में या निष्क्रिय शरीरों में होती है. ख़ाली और ताक़तवर लोगों में होती है. मैं दुख उठाता हूँ और सपने देखता हूँ. सपने देखता हूँ और दुख उठाता हूँ. बेचैनी का यही जीवनचक्र है. लेखक की यह विकलता जीवन साथी है.
यही नाड़ी का स्पंदन है.
जब आप भौतिक चीज़ों की अवहेलना करने लगते हैं, उन्हें छोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं तो लोग कहते हैं कि यह मृत्यु की तरफ़ जाना है. लेकिन कुछ अल्पसंख्यक इसे जीवन की तरफ़ जाना कहते हैं. यह विचित्र विमर्श चलता रहता है. शवयात्रा में भी लोग इसी तरह चिंतातुर रहते हैं. किसी और के लिए नहीं. अपनी अनश्वरता के लिए. मैं सबसे पीछे चलता हूँ. उनकी तरफ़ पीठ करता हूँ तो सबसे आगे हो जाता हूँ.
मैं नश्वर हूँ.

(सात)
यह पत्थर की किताब है.
एक कला. पत्थर का शिल्प. एक धरोहर. एक विशेषण. व्यथित हृदय का पत्थर. अपने यथार्थ का शिल्प. मैं यहाँ बैठा हूँ. ‘‘मेरी आँखों से उष्ण आँसू बहते हैं. शायद ये माँ के आँसू हैं जो उसकी आँखों से नहीं बह सके थे. लगता है मेरी सारी संवेदनाओं की गंगोत्री वहाँ है जहाँ स्मृतियाँ पवित्र और धुँधली होकर रहती हैं. अपारदर्शी और अपठनीय. जब माँ और फिर पिता नहीं रहे, तब मेरा दिमाग़ उनकी स्मृतियों को सँजोने लायक़ उम्र में नहीं था.’’- सुनो, यह आदमी वे सब बातें कह रहा है जो मैं अपनी डायरी में लिख चुका हूँ. शहर में यत्र तत्र ऐसे कई लोग हैं जो मेरी दैनंदिनी में लिखी बातें बुदबुदाते हैं. या इस जीवन में कई लोगों की डायरी के शब्द आपस में इतने अधिक मिलते-जुलते हैं जितने उनके संत्रास और उनकी क्षुब्धताओं की देहयष्टियाँ. मानो मुसीबतों ने उनके चेहरे भी यकसाँ कर दिए हैं. क्या ऐसे सभी जन की निजी डायरियाँ केवल व्यथाओं का बयान हैं. इन तकलीफ़ों का शब्दकोश भी एक-सा है. सीमित और दग्ध. मैं गलियों में भटकता हूँ और अपने ही प्रतिरूपों से जा टकराता हूँ. ये सब मेरी डायरियों में से निकले पात्र हैं. इस रेस्त्राँ में भी ये अलग-अलग कोनों में बैठे हैं. मेरी ही प्रविष्टियों को संवादों की तरह दोहराते हुए.
हर श्रेष्ठ और संतुष्ट कर देनेवाला आनंद उन्हीं क्रियाओं से मिलता है जिन्हें बुराई के अंतर्गत रख दिया गया है. मनुष्य जीवन कठिन है, वह नैतिकताओं के पाश में बँधा है. लेकिन सारे मनुष्य अथक आनंद की खोज में रहते हैं यानी बुराइयों की खोज में. इस समाज में हर बात, हर चेष्टा अश्लीलता के किसी प्रकार में वर्गीकृत है. प्रेम सहिष्णुता का अभिनय करते हुए असहिष्णुता में बदल जाता है. समाज में उदारता दुर्लभ हो रही है. तुम लेखक हो या कवि लेकिन कोई आप्त वाक्य मत बोलो. किसी को सलाह मत दो. यह जीवन पर आघात को आमंत्रित करना होगा. एक दिन इतना ही प्रेम बचता है कि सारे चुंबन नकली हो जाते हैं. और जब हम एकदम सच बोलते हैं तो वह एकदम झूठ होता है. यह नियति दुखद है लेकिन इस सभ्यता में यह विश्व व्यापी है. तुम अपराध बोध में मत फँसो. वैसे भी यह अपराध नहीं, जीवन शैली है. यह जीवन एक शैतान बच्चे की शैतानी है. कुछ लोग उस बच्चे को ईश्वर कहकर ध्यान भटकाते हैं. या अपने जीवन का उपाार्जन करते हैं. यह आदर्शों के गिरने का दृश्य है. इसी में से गुज़रकर कई लोग शानदार, सफल कलाकार बन जाते हैं. बाक़ी साधारण कलाकार ठोस चीज़ों के सहारे खड़े रहते हैं.
सर्जना में अनेक यौगिक हैं.
वे तत्व भी जो प्रकृति में नहीं पाए जाते.
संसार की यही सबसे बड़ी रासायनिक क्रिया है.
मेरे और जीवन के बीच में अकसर एक पारदर्शी, पतले काँच की दीवार बन जाती है. हम एक-दूसरे को देख सकते हैं लेकिन छू नहीं सकते. इस वंचना से लड़ना पड़ता है. यह आसान नहीं है लेकिन प्रयास अनवरत है. उस तरफ़ देखता हूँ कि भूखे, निर्धन, वंचित आदमियों की भीड़ बढ़ती जा रही है लेकिन वे चमत्कार चाहते हैं, प्रतिरोध नहीं. वे सोचते हैं कि अच्छा आदमी अच्छा है और बुरा आदमी बुरा नहीं है, उसमें भी कोई अच्छाई होगी जो एक दिन बाहर भी दिखेगी. क्या सर्वसत्तावाद में, तानाशाही में रहने की यह कोई प्रविधि हो सकती है? भले ही भूखे रहकर. सोचता हूँ. पीड़ा से दुख नहीं होता, उसे महसूस करने से होता है. इतनी मुश्किलें हैं कि मैं एक नहीं रह जाता. अनेक हो जाता हूँ. मैं सिरदर्द से परेशान हूँ और समूचा अंतरिक्ष मेरे सिरदर्द में शामिल है.
लगता है सपनों का संसार कभी मुमकिन नहीं क्योंकि करोड़ों लोगों के पास अपने-अपने सपने हैं. एक-दूसरे से पर्याप्त अलग. प्राय: एक-दूसरे के विरुद्ध. इतने सारे, इतनी तरह के सपने एक साथ मिलकर एक दुनिया नहीं बना सकते जब तक कि उनके सपने एक न हो जाएँ. और यह आसान नहीं. समस्याएँ जीवित रहने की इच्छा और बेचैनियों से जुड़ी हैं. मैं खिड़की से बाहर अँधेरे की तरफ़ देखता हूँ. अनायास बीत गया प्रेम, गुज़र चुके दिन, बिला गईं चीज़ें प्रकाशित होने लगती हैं. फिर देखता हूँ कि वे वर्तमान का ही कोई रूप हैं. उनका ही नया प्रतिबिंब. फिर अपनी ही छवि से याद आता है कि यह खिड़की तो अँधेरे में रखा एक दर्पण है.
(आठ)
मैं सदैव अपनी इस प्रिय गली का बाशिंदा बना रहूँगा. मेरी अपनी संवेदनाओं का अनुचर और उन क्षणों का जब वे प्रस्फुटित होती हैं. लैम्प पोस्टों, अंधकार में डूबे पेड़ों, स्याह खिड़कियों को देख-देखकर रातें नहीं बिताई जा सकतीं. आशय रहित या उद्देश्यहीन शब्दों की तरह जीवन नहीं जिया जा सकता. यदि मैं इस जीवन के वाक्य में हूँ तो फिर मेरा एक अर्थ भी हो. देखता हूँ कि निर्धनता ने नहीं, अमीरी ने सब तरफ़ विद्रूप रच दिया है. सौंदर्यबोध यहाँ तक आ गया है कि भोजन के टेबल पर चटक रंग के जूते रखे जा सकते हैं. हर अवसर के अनुकूल उनके पास परिधान हैं. वे दिन में कई बार कपड़े बदल सकते हैं. और एक कश में सारी ख़ुशियाँ खींचकर अपनी छाती में भर सकते हैं. क्या ये सब अपनी-अपनी इच्छाओं के प्रेत हैं? नशे में आकंठ डूबे. पैसे का नशा. नशे का नशा. मेरे पास सपने देखने का नशा है, जैसे कोई कर्तव्य. सपनों से डूबी हुई रात में इतनी लंबी अनिद्रा कि लगता है अब कभी नया दिन नहीं आएगा. न ही कोई ख़ुशी. मैं एक साथ अनुकूल और प्रतिकूल ख़यालों को शरण देता हूँ. अनेक सुंदर, असुंदर चीजें, विचार और नाना प्रकार की इच्छाएँ मेरे भीतर अधिकार संपन्न नागरिकों की तरह रहते हैं.
मुझे मेरे दुस्वप्न, जो इस संसार के ही हैं, कमरे की दीवारों पर चलचित्रों की तरह दिखने लगे हैं. सिनेमा चल रहा है या मनोरोग. गुज़र गए हादसों और आनेवाले हादसों का समवेत. कोई असमाप्य धारावाहिक है. रोज़ एक नई किस्त. यह कमरा मायाघर है. मेरे कपड़े मृतकों के हैं. मेरे जूते, मेरा कोट मृतकों का है. क्या मेरी आँखें, चेहरा और हाथ-पैर भी मृतकों के हैं? जीवन में इतनी मुसीबत भयोत्पादक है. यह दुर्दशा अमीबाकार है. संक्रामक है. निराकार है लेकिन मुझे देखो तो जान लोगे कि यह साकार है. मैं इसे ख़ुद में और अपने चारों तरफ़ भी देख सकता हूँ. वहाँ भी जहाँ तुम नहीं देख सकते. मैं अँधेरे में देख सकता हूँ. मैं लेखक हूँ. भीतर से ही मुझ पर आक्रमण है. किसी ऑटो-इम्यून बीमारी ने मुझे और समाज को ग्रस लिया है. अब सपनों के टूटने की आवाज़ें भी सुनायी देने लगी हैं. यह रात भीषण है. आकाश का रंग बदल रहा है. बादलों ने नीलिमा को ढँक लिया है. घूमते हुए मेघों की व्यग्रता देखी जा सकती है. जैसे जीवन की. अज्ञात को ज्ञात बनाना भाषा से परे है. अभिव्यक्ति असफल लेकिन अनिवार्य कोशिश है. संप्रेषणीयता दुतरफ़ा मामला भी है. मुझ पर ख़ुद का ही बुख़ार चढ़ आया है. और हर उस चीज़ का जिसके क़रीब से मैं गुज़रकर आया हूँ. हर शै एक धमकी में बदल रही है. शांति की आकांक्षा एक टूटते हुए तारे की तरह है.
स्याह अवसाद आसमान में भर रहा है.
जैसे यह धुआँ. यह कोहरा.
मैं जिन परिस्थितियों से घिरा हूँ उनमें कोई मरता नहीं है, भुगतता है. दुख उठाता है. मानो पूरे दिन का भार उठाता है. मानो पूरी रात का उद्वेग भरा संताप उठाता है. कभी लगता है कि मैं अपने बिना ही रह रहा हूँ. इस कमरे में, गलियों में, शहर में, भीतर बाहर झरती धूल में, सब कुछ के ग़ुबार में. तथाकथित किसी ईश्वर की सौतेली संतान की तरह. या नाजायज़. यातना भोगती इस रात में क्षुब्ध. मेरी कोई मुखाकृति नहीं रह गई है. मेरी कोई तस्वीर नहीं खींची जा सकती. न बेचैनी की, न बुद्धिमत्ता की, न मूर्खता की. लेकिन मेरे सभी सहकर्मियों के पास मुखाकृति है. उनके साथ मेरा यह ग्रुप फोटो साक्ष्य है. इसे देखते हुए भी एक सवाल उठता है- मैं कौन हूँ? बाहर सड़क से उठती आवाज़ों को भी काटा जा रहा है, जैसे चाकू से. वातावरण की साँसें थम गईं हैं. माँ के आँसुओं के बाद यह हुआ कि अब दुख में बहते किसी के भी आँसू मेरी आँखों से बहने लगते हैं. लिखते-पढ़ते हुए ठीक इसी समय बीत गए क्षण का नॉस्टेल्जिया भी मुझे रुला देता है. चुप्पियों का अंधकार और सघन होता जा रहा है.
ओह, मेरे प्यारे शहर. प्यारे लिस्बन!
(नौ)
क्या मुझमें कोई सामाजिक, राजनीतिक विचार, दृष्टिकोण नहीं रह गया है. क्या मैं अजीब ढंग से राष्ट्रवादी हो रहा हूँ. इतना समस्याग्रस्त कि केवल भाषा ही मेरी राष्ट्रीयता रह गई है. मैं भाषा में भाषा नहीं लिखता, ख़ुद को लिखता हूँ. मेरी निगाह में कोई ख़राब रचना या घटिया भाषा लिखता है तो मेरे भीतर उसके प्रति ख़ास तरह की विरक्ति और वितृष्णा का शामिल भाव आने लगता है. एक शब्द, भाषा, संरचना भी एक व्यक्ति की तरह है. अपने आप में संपूर्ण. अच्छा वाक्य हवा का झोंका बनकर आकाश में बादलों को छितराकर उसे सुंदर और शांत बना सकता है. कोई बहुत सधे ढंग से व्याकरण और भाषायी नियमों के साथ बात करता है तो वह सच्चे अर्थों में रचनात्मक नहीं हो सकता. संदेहास्पद हो सकता है. व्याकरण में जो अपवाद और उल्लंघन हैं, वे रचनाकार के लिए अधिक उपयोगी हैं. कला सिद्धांतों को धता बताते हुए कुछ असंगत और अनर्गल प्रयास कहीं अधिक कला के क़रीब होगा. वाक्यों की आँतों में जाकर अर्थ देखना सर्जना का हिस्सा है. नियमों, सिद्धांतों की तानाशाही किसी अरबपति, सेनापति, विश्व विजेता की आकांक्षा की तरह ही है.
एक समय, बचपन में हम जिन इच्छाओं के वशीभूत हो जाते हैं, बाद में पता चलता है कि वे सब अनैतिक थीं. हमारे हृदय और आत्मा के चीथड़े इन इच्छाओं के रूपक हैं. जीवन बेस्वाद हो जाता है और बना ही रहता है. कामनाओं, इच्छाओं, सपनों का अभाव एक तरह की सर्जनात्मक अनुर्वरता में बदल जाता है. यह कार्यालय जिसमें मैं काम करता हूँ बिना किसी आदर्श, बिना किसी दर्शन के काम करता है. मैं कब्ज़ा जमाने के ख़िलाफ़ सोचता हूँ. यदि कोई किसी को आधिपत्य में न ले तो दुनिया अपने आप सुंदर हो सकती है. हालाँकि सुंदरता को भी कुछ पूर्णता चाहिए. प्रेम की, विचार की, हार्दिकता की. प्रकृति की. किसी ख़याल में गुम हो जाने की.
क्या कोई जगह, दृश्य, कोई शरण ऐसी है जहाँ शांति हो. मैं नहीं जानता लेकिन इस विशाल संसार में वह कहीं तो निश्चित ही होगी. या किसी तरह ज़रूरर संभव होगी. क्या वहाँ जाकर भी मैं शांति पा सकूँगा या अपनी बेचैनियों से उस जगह को भी अशांत कर दूँगा. या हर जगह ‘कुछ नहीं और कुछ नहीं के बीच’ की कोई जगह है. नो मैन्स लैंड. मुझे कोई नहीं बचा सकता. मेरे अस्तित्व से कोई मुझे कैसे बचा सकता है. भाराकर्षण की इस पृथ्वी पर मैं भारहीन कैसे रह सकता हूँ. मृत्यु और जीवन के बीच वह क्या है जो दरअसल मैं चाहता हूँ. मैं नहीं जानता. मैं बस अपनी व्यग्रता को, उत्कंठा को जानता हूँ जिसे कोई और नहीं जानता. इच्छाओं की अनंत गहराई में कुछ चमकता है. यह सब लिखना, अंतत: एक मानवीय संकट की किताब लिखना है. सिगरेट के गहरे कश का धुआँ मेरी बेकली के साथ संयुक्त होता है. दोनों के अपने निकोटीन हैं. राहत देते हुए. नष्ट करते हुए.
मेरे जहाज़ का कोई बंदरगाह नहीं है. मैं कहीं नहीं के तट पर पहुँचता हूँ. एक अदृश्य गह्वर में भटकता हूँ. अपनी भाषा को अपनी व्यग्र भाषा में पुकारता हुआ. उसी में विचरता. उसी को समर्पित. अपने अंतर्विरोधों के साथ. इस कहीं नहीं की शाम में सूर्य ढल रहा है. रात आ रही है, मेरी प्रिय जगह. मेरा प्रिय आवास. अब मैं अपने कमरे के तड़के हुए दर्पण में ख़ुद को विभाजित होते हुए ख़ुद देख सकता हूँ. अपने अणुओं, परमाणुओं के विखंडन का साक्षी हो सकता हूँ. तारों के बीच यात्रा कर सकता हूँ. मृत्यु ने जीवन को मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया है. क्या मृत्यु जीवन की विजय है?
(दस)
मुझे माँ की याद आती है. और इस सर्द रात में अपने अद्वितीय अकेलेपन की. संसार में अनाश्रित और अपरिचित रह जाने की. क्या मुझे एक लोरी चाहिए? माँ की लोरी, जो अनिद्रा की रामबाण चिकित्सा है. मैं अचेत नहीं हूँ. दुख से बेहोश नहीं हूँ. मैं अनिद्रा का मारा हूँ. माँ!
जिन्होंने सपनों को ही जीवन जीने की कला बना लिया है, उन्हें भौतिक दुखों की अवहेलना करना सीखना पड़ेगा. और दैहिक सुखों की. दुख में भी सुख की खोज इस तरह करना कि उस सुख का आनंद भी उठाया जा सके. यह आत्म प्रवंचना है या कोई दुर्लभ प्राप्ति. या अमर बेचैनी का संतोष. यह उदासी में थक कर, उदासी की छाँह में ही सो जाना है. सब कुछ जटिल है. अव्याख्येय है. कल्पना को यथार्थ बनाना है. निराकार को साकार. और साकार को निराकार. मैं ऐसा कर सकता हूँ. मैं लेखक हूँ.
एक उपेक्षित मिथक.
मैं कलानिर्मिति के लिए नहीं लिखता. मैं प्रकाशित होने के लिए नहीं लिखता. मैं बस, लिखता हूँ. अपनी भटकन के लिए. अपनी बेचैन आत्मा के लिए. अपने अभ्यांतर को समक्ष करने के लिए. अपने स्वप्न को वाणी देने के लिए. अव्यक्त को अभिव्यक्त करने की आफ़त के लिए. अपने को छीलता हुआ. अपना ही स्थापत्य बनाता हुआ, ध्वस्त करता हुआ. एक कोमल शाम में कविताओं का संधान करता हुआ.
कहीं कोई सहायता, सांत्वना नहीं मिलती. अँगूठी में लगे पत्थर भी बढ़ते हुए अँधेरे से भयग्रस्त हो जाते हैं और उनसे रक्तस्राव होने लगता है. काली परछाइयाँ घेर लेती हैं. मैं जानता हूँ मेरी सभी संपत्तियाँ मेरी नहीं है, सिवाय मेरे दुखों के. उन्हें कोई नहीं लेता, कोई नहीं लूटता. अब यह मैं हूँ, जैसे यही वीरान गली, जैसे इन मकानों की नमक खाई दीवारें और उनका उखड़ा हुआ पलस्तर. अपनी इस जर्जरता में और एकांतिकता में कोई जितना जीवित और सुंदर हो सकता है, उतना मैं हूँ. कबाड़ का साम्राज्य इतना है कि सभी ज़रूरी चीज़ों का जीवन उसमें गुम हो जाता है. फिर खोजने पर भी नहीं मिलता. उनकी जगह कुछ दूसरी चीज़ें मिल जाती हैं. यही जीवन है. मुझमें सभी युगों के दुख आकर रहते हैं. उनके साथ मैं अपने दुख भी उठाता हूँ. अनेक युगों की बेचैनियाँ मेरे साथ निवास करती हैं और मेरी अपनी भी. मैं व्यग्रताओं का प्रतिनिधि हूँ. उनका प्रवक्ता. भोक्ता. संवाददाता. ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्ट करता हुआ. इन बेचैनियों में समुद्र की लहरों की फुसफुसाहट है और उनका गर्जन. आकाश का अवकाश है और नक्षत्रों की गतिशील रेलमपेल. आलोड़न.
क्या सर्जकों पर, अँधेरे में गुमी हुई आशाओं को शब्दों की रोशनी में खोजने का कोई कार्यभार है. एक व्यक्ति की विडंबना यह हो सकती है कि जो वह है, वह वह नहीं हो सका. एक बार फिर यह सब मेरे मन में उमड़ रहा है और मैं समुद्र के किनारे, बारीक़ रेत में अपनी उद्विग्नता के साथ चल रहा हूँ. जैसे किसी दिन की, किसी रात की खाई में. सारी यात्राएँ एक दिन समाप्त होती हैं. मैंने वह सब भी देखा जो नहीं देखा. और वह भी जो देखना शेष है. यात्राओं में मेरी रुचि नहीं रह गई है. मैं इस क़दर ऊहापोह में हूँ कि अपने शहर तो पहुँच जाता हूँ मगर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता. मैं रात्रि का, सितारों का, ख़ाली आकाश का, ब्रह्मांड का नागरिक हूँ. अपनी कल्पनाओं के साम्राज्य का एकल निवासी हूँ. मुझे प्रेम और आशा का अद्वैत चाहिए. दिन उग रहा है. दिनारंभ की आवाज़ें हैं. मेरी अनिश्चितताएँ अभी धुंध में लिपटी हैं. उन पर सूर्यप्रभा गिरने लगी है. मैं अकेला हूँ और असंपृक्त हूँ. जो सोचने से रह जाता है, उसकी भी विकल आवाज़ें मेरे भीतर हैं. इन्हीं में मेरा अस्तित्व है.
जो मैं पढ़ता हूँ, लिखता हूँ, करता हूँ- ये सब मेरी प्रच्छायाएँ हैं. छाया की उपछायाएँ. इनमें भूले हुए वृक्ष, झरते हुए फूल, उड़ती हुईं पत्तियाँ हैं. सरसराहट. चरमराहट. अज्ञात से अज्ञात की तरफ़ उनकी यात्रा. या ज्ञात से ज्ञात की ओर. या कोई असंतुलित समीकरण. और मेरे सपनों की काली-उजली छायाप्रतियाँ. यहीं अपने किसी अनचीन्हे अंश को खोजना है. जीवन के नाट्य में दर्शक भी नाटक का हिस्सा बने रहते हैं. हमारे नृत्य और गायन में भी. अभिनय और त्रासदी में. प्रसन्नता और अवसाद में. हमारे रुदन में. वे सब देखते है और हमारे नाटक को अपने ऊपर से गुज़रने देते हैं. केवल मैं पेसोआ नहीं हूँ. तुम अकेले पेसोआ नहीं हो. अनेक पेसोआ हैं.
उनके नाम अलग हैं.
कई बार प्रिय जगह का प्रिय कोना, पानी का किनारा, गली का एकांत, नाई की दुकान भी आपको सहज और उन्मुक्त नहीं कर पाते. ज़माना ऐसा हो गया है कि एक उदास ख़बर पूरे जीवन पर फैल जाती है. अब मैं इन जगहों पर नहीं दिखूँगा. लोग एक दिन पूछ सकते हैं- ‘वह कहाँ गया.’ हम जितने लोगों का जीवन अपने भीतर जीते हैं, वे सब हमसे और हमारे बारे में सवाल कर सकते हैं. वे अदृश्य हमें प्रेम करते हैं और हमें उनकी तरफ़ से पश्चाताप भी करना पड़ सकता है. यह निजी और सामूहिक तौर पर जवाबदारी है. ऐसी क्रिया जो आस्था, आडंबर और ईश्वर के बग़ैर भी पवित्र और विश्वसनीय है.
मैं अपने पीछे केवल शब्द छोड़कर जा रहा हूँ.
मेरी बेचैनियों की यह पांडुलिपि.
व्यग्रता की उदास पुस्तक.
(आभार- ग़ालिब के शेर की एक पंक्ति हेतु.)
सन्दर्भ
Movie- Disquiet, 2010
Director- Joao Botelho
लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं. किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com |
अत्यंत विचरोत्तेजक आलेख जिसमे भाषा, दर्शन और विचारों को अद्भुत कलात्मकता से पिरोया गया है.
This luminous prose explores,and explores feelingly,sensitively intriguing universe of Pessoa.
Could it have been a mere coincidence that Pessoa’s first published creative prose was entitled ‘ In the Forest of Estrangement.’ I don’t reckon Pessoa who was perpetually multiple would have been content with one forest and one estrangement.For him it was always a case of several forests and several estrangements.
Pessoa articulates his overwhelming sense of disquiet in words which are hauntingly,achingly beautiful.
Did this sense of disquiet ever leave Pessoa or it found a permanent,safe,secure and faithful residence in Pessoa’s mind ?
So much in Pessoa is open-ended.Perhaps he wanted to educate his readers in the art of reflection.
In Pessoa we find bodily inertia transforming into feverish mental activity.Because this activity is feverish the
direction or directions it will take cannot be predicted.But Pessoa would have shunned predictability in any case.
Does title of Paz’s article on Pessoa published in 1962 ‘ Unknown to himself ‘ need to be revisited ? Had Pessoa not known himself,could he have written ‘ To pretend is to know yourself’?
Pessoa could see so much,sense so much,perceive so much,feel so much that in the end everything must have become easy for him like Ghalib who wrote – ‘ दर्द का हद से गुजरना तो है आसा होना…’
What was pain for Pessoa ? It illuminated and expanded his universe which,in any case,was overflowing with wonders.Pain must have added a different hue to this colourful universe making it more complete.
Pessoa’s pains,diseases,anxieties,sense of futility,sense of wonder were,like Pessoa himself,a little larger than the entire universe.
KumarJi’s article brings to the fore all the anguish…and also the enchantment we find in Pessoa’s literature.Superb piece.
महान साहित्यकारों में एक फरनांदो पेसोआ के बारे में कुमार अंबुज की यह रचना वाक़ई विचार की सघनता और भाषा के सौन्दर्य का यह सांद्र रसायन है, जैसा कि आपने टिप्पणी में कहा ही है। कुमार अंबुज के इन दिनों जितने भी लेख आए हैं, वे गूढ़, गहरे और चिंतनशील तो हैं ही, उनके भीतर एक गहरी नैतिक आभा और नए संघर्षों को जन्मदेने वाली चेतना का गहरा उद्वेग है। आज हम जिस वैचारिक और चारित्रिक कचरे के ढ़ेर पर बैठे हैं और कलाओं, साहित्य आदि से लेकर धर्म, समाज और राजनीति में जब ज़ोरदार बांग देकर अचानक मसीहा बन जाने की क़ाबलियत रखने लगे हैं, इस तरह के लेख ऐसी द्युति लेकिर आते हैं, जो निविड़ अंधकार में कुछ दिखाने की कोशिश करते हैं। कहाँ तो इस धरती के संवेदनशील साहित्यकारों ने इस संसार को एक नन्हे से कोमल आकाश का एक टुकड़ा भर बनाने का स्वप्न देखा था और कहाँ आज हम उस महान् स्वप्न की आत्मा के पिंजर को उठाए फिरते हैं और नाना प्रकार के घृणास्पद रक्त में डुबो रहे हैं।
यह लेख हिन्दी साहित्य का एक अद्भुत टुकड़ा है, जहाँ “अनेक सुंदर, असुंदर चीजें, विचार और नाना प्रकार की इच्छाएँ मेरे भीतर अधिकार संपन्न नागरिकों की तरह उपस्थित हैं”, “क्या सर्जकों पर, अँधेरे में गुमी हुई आशाओं को शब्दों की रोशनी में खोजने का कोई कार्यभार है?”, “एक व्यक्ति की विडंबना यह हो सकती है कि जो वह है, वह वह नहीं हो सका”, “पीड़ा से दु:ख नहीं होता, उसे महसूस करने से होता है”, “निर्धनता ने नहीं, अमीरी ने सब तरफ विद्रूप रच दिया है”, “भूखे निर्धन वंचित लोगों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है, लेकिन वे चमत्कार चाहते हैं, प्रतिरोध नहीं”, “यह जीवन एक शैतान बच्चे की शैतानी है” , “रात तरह-तरह से हृदय पर गिरती है” जैसे कितने ही सुंदर और हृदयहारी हीरक विचार, सूक्तिकण और अँधेरे में ढिबरी से टिमटिमाते रूपक इस अद्भुत लेख में हैं। मैं इस लेख को एक ही सांस में “व्यग्रता के वशीकरण” में पढ़ गया और अब अपने आपको आपका और कुमार अंबुज जी का कृतज्ञ समझ रहा हूँ।
पेसोआ रचनात्मक ऊर्जा की ज्वालामुखी प्रतीत होते हैं। वह ऐसा लेखक है, जिसने स्वयं को ही एक साहित्यिक सभ्यता में परिवर्तित कर दिया। उसकी चेतना बहुस्तरीय बौद्धिक रचनाशीलता में जीती है। एक नहीं, अनेक ‘मैं’। जैसे एक ही आत्मा ने एक ही जीवन में अनेक देहें धारण कर ली हों। यह एक अद्भुत करिश्मा है। ‘हेतेरोनिम्स’ का उनका प्रयोग केवल शैलीगत खेल नहीं, अस्तित्ववादी चुनौती है स्वयं के ‘स्व’ को। यह वह कवि है, जो स्वयं को लिखता है, मिटाता है और फिर नए नाम से दुबारा लिखता है। यह उसकी शाश्वत पुनर्रचना है। कुमार अंबुज बहुत ही नफ़ासत से उसकी कविता की आत्मा की उस गूंज को शब्दबद्ध करने में क़ामयाब रहे हैं, जो भाषा से पहले पैदा होती है और भाषा के बाद भी जीवित रहती है। वह व्यक्ति के भीतर के अंतरालों को व्यक्त करता है, जहाँ मौन, संदेह और अकेलापन मिलकर कविता बनते हैं।
हम जब विश्व के वैचारिक सिद्धांतों के इतिहास को पढ़ते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि पेसोआ की बौद्धिकता में बेनेडिक्ट स्पिनोज़ा की निस्पृहता तो है ही, उसकी कविता में नीत्शे की अग्नि भी है। कुमार अंबुज जहाँ कहते हैं, “भूखे निर्धन वंचित लोगों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है, लेकिन वे चमत्कार चाहते हैं, प्रतिरोध नहीं।” वहाँ अचानक मुझे स्पिनोज़ा याद आ जाते हैं। स्पिनोज़ा का कहना था कि अधिकार की मात्रा शक्ति के अनुपात में होती है : “हर मनुष्य को उतना ही अधिकार प्राप्त है, जितनी कि उसके पास शक्ति है।” स्पिनोज़ा एक जगह पूछने के बहाने कहते हैं, “निरंकुशतापूर्ण राज्य में जो ग़ुलामी, बर्बरता और सूनापन छाए रहते हैं, उन्हें क्या आप शांति कहेंगे? ऐसी शांति से अधिक अपमानजनक और कुछ नहीं हो सकता।” हालांकि इस लेख में ये शब्द आए अवश्य नहीं हैं; लेकिन इस पूरे लेख में देखा जाए तो प्रतिध्वनियाँ यही हैं।
पेसोआ की अपनी प्रतिभा है और कुमार अंबुज की अपनी। पेसोआ के शब्द जीवन से नहीं, अस्तित्व की धुंध से उपजते हैं। ठोस ही नहीं, गहरे और घायल करने वाले भी। लेकिन मुझे लगता है कि कुमार अंबुज को भी पढ़ना आत्मा के नक्शे पर एक गूढ़ और गहन यात्रा करना है, जहाँ पाठक खोकर ही पा सकता है। पेसोआ की तरह कुमार अंबुज का यह लेख भी जैसे आत्मा की कोई गाथा है। पेसोआ की कविता की तरह छिपी हुई, दहकती हुई लौ यहाँ भी मौजूद है। पेसोआ के बारे में उनके इस लेख ने जैसे अर्जेंटीना के चामत्कारिक और प्रभावशाली लेखकों में से एक बोर्हेस की याद दिला दी है। बोर्हेस भी महज कथाकार नहीं, दर्शन, भाषा, समय, पहचान और यथार्थ के सबसे जटिल सवालों को साहित्य की झीनी-झीनी चदरिया में लपेट लेने वाले एक साहित्यिक रहस्य थे। बोर्हेस ने अक्सर काल्पनिक पुस्तकों, लेखकों और ग्रंथों की रचनाएँ कीं, जिनका कोई यथार्थ में अस्तित्व नहीं।
यह जो शृंखला है, हिंदी में मेरे जानते अलग तरह का पहला लेखन है। सिनेमा पर कुंवर नारायण और विष्णु खरे की थोड़ी लिखत मेरी स्मृति है, पर वह कला का विमर्श है। यह जो है, सरहदों से परे मनुष्य जीवन और उसकी जटिलताओं में जाने-रहने और दो अनुषंगों के बीच उसे समझने-समझाने का विलक्षण किंतु विनम्र प्रयास है। यहां हम सिनेमा और साहित्य के बीच उस जगह पर पहुंचते हैं, जहां हमारे जीवन के बुनियादी प्रश्न खड़े हैं।
कवि यहां गद्य लिख रहे हैं, किंतु भीतर कहीं कवितामय एक आत्मीय संवाद का प्रकाश सदैव उपस्थित हैं। इस लेखमाला के पुस्तक बन जाने की प्रतीक्षा है।
Sha Ha Dat
कमाल और बेमिसाल। वैसे तो मैं कुमार अंबुज सर की लेखनी और इस लेख-सीरीज का मद्दाह हूं। मगर इस लेख को पढ़कर यही दो शब्द मेरे दिमाग़ में सबसे पहले आए। कुमार अंबुज के इन लेखों को हर किसी को पढ़ना चाहिए। फिर समालोचन तो फिर है ही नायाब, जो ऐसे मोती निकालकर लाती है, जैसे मुर्गी कूड़े के पहाड़ में से दाना चुनती है।
ये पढ़कर इक अलग सी बेचैनी से तआर्रूफ़ हुआ।एक होकर ७० से ज़ियादा वजूद को अपने अंदर समेटे पेसोआ के बारे में कुमार अम्बुज साहब के इस फ़िक्रअंगेज़ मज़मून को पढ़कर लगा कि वाक़ई ये भी ख़ुदशनासी का इक तरीक़ा हो सकता है।ये भी महसूस हुआ जैसा कि पेसोआ ख़ुद कहते थे कि ज़िंदगी से नज़र चुराने का सबसे ख़ुशगवार ज़रिया अदब है।ज़बरदस्त मज़मून! इसे कई बार पढ़ना होगा।कुमार अम्बुज साहब का और समालोचन का बहुत शुक्रिया!