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समालोचन

Home » रोज़ : अज्ञेय

रोज़ : अज्ञेय

1934 में अज्ञेय की कहानी ‘गैंग्रीन’ प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक बाद में स्वयं लेखक ने बदलकर ‘रोज़’ कर दिया. उस समय अज्ञेय मात्र 23 वर्ष के थे. हिंदी कथा-साहित्य में यह प्रेमचंद का युग था. ‘रोज़’ अपने समय से कहीं आगे की कहानी सिद्ध हुई आज भी नई लगती है. इस कहानी की उदासी पाठक के मन से उतरती ही नहीं. आधुनिक हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों में इसे रखा जाता है. कवि-लेखक कुमार अम्बुज के साथ आइए, इसका पुनर्पाठ करें.

by arun dev
September 6, 2025
in कथा
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रोज़ : अज्ञेय
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नैत्‍य की नीरसता
कुमार अम्‍बुज

अज्ञेय की कहानी ‘रोज़’ मेरे लिए हिंदी की उन कुछ श्रेष्‍ठतम कहानियों में से है, जो उदास करती हैं, तकलीफ़ पहुँचाती हैं लेकिन खु़शी देती हैं. एक तकलीफ़ भरी प्रसन्‍नता जो किसी सच्‍ची और गहरी सर्जनात्मकता से प्रसूत होती है और पीछा करती है. यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि अज्ञेय की इस कहानी से मैं उस तरह संपृक्‍त और संतृप्त हो सका, जितनी उनकी बहुत कम कहानियों से. यह कहानी मेरी शिराओं में पैठ गई है.

नैत्‍य या बँधी-बँधाई दिनचर्या से अधिक ‘उदासी और ऊब’ पैदा करनेवाली कोई अन्‍य बात नहीं हो सकती. यह ‘रूटीन’ है जो नवोन्‍मेष को खत्‍म करता है, अवसादग्रस्‍तता की तरफ़ ले जाता है, जीवन को स्‍थगन में डालता है, उत्‍साह को ध्‍वस्‍त कर देता है. फिर व्यक्तित्व की ऐसी परछाईं की निर्मिति करता है जो हमारी वास्तविकता से कहीं अधिक विशाल, सघन और धूसर होती है. फिर वही प्रच्छाया हमारी नियंता बनने लगती है.

नित्‍यता की चोट से उद्भूत इस उदास परछाईं का यह अद्वितीय, मार्मिक और गहरे तक धँस जानेवाला चलचित्र है. संक्षिप्त वातावरण और सीमित भूगोल में विन्‍यस्‍त यह कथा जीवनचर्या और गतिविधियों से आकंठ भरी है. इसकी यह व्याप्ति इसके कथा-क्षेत्रफल को लाँघ जाती है. इसे पढ़ने के बाद दोपहर, सूना आँगन, घड़ी के घंटे, रात का आकाश, चंद्रमा, तारों, चीड़ के वृक्ष, अख़बार का पुराना टुकड़ा, बरतन घिसने-माँजने की आवाज़ों जैसी अनगिन चीजों का एक वृहत संबंध कुछ नयी तरह से, अप्रत्याशित परिप्रेक्ष्य के साथ बन जाता है. वह हमारे चेतन-अवचेतन में जगह बना लेता है. जैसे एक बार में ही उनसे हमारा गहरा परिचय और प्राचीन रिश्ता निकल आया हो. सबसे ज्‍़यादा कथा नायिका मालती हमें घेरती है जो तत्कालीन समय-समाज की उन तमाम युवतियों का प्रतिनिधित्व करती सी जान पड़ती है, जो आर्थिक रूप से सुखी हैं लेकिन रोज़मर्रा की ऊब और अकेलेपन में कै़द हैं. वह इस महाद्वीप की, बीसवीं सदी के आरंभिक दौर में मध्‍यवर्गीय विवाहिता के जीवन का रूपक बन जाती है. वह एकल परिवार और समाज से प्रगल्‍भ दूरी की उस दशा को वर्णित करती है जो समाज में बस शुरू होने को ही है.

कथा में अनेक जीवन प्रसंग हैं जो नितांत सामान्य से हैं लेकिन लक्ष्यवेधी हैं. एक शिशु है, उसका गिरना-मुस्‍कराना-रोना है, प्रच्‍छन्‍न स्‍मृति है, घरेलू व्‍यस्‍तताएँ हैं, मच्‍छर हैं, अँगीठी है, गैंग्रीन है, नल है, किशोरवस्‍था की यादें हैं, दिनचर्या की अनेक आहटें हैं, सुनाई देते हुए समय गुज़रने के घंटे हैं, रोज़ यों ही रात ग्यारह बज जाने की थकानमयी वेदना है, प्रकृति का संगीत है लेकिन एक घुटी हुई चीख़ है जो हर चीज़ में समाई है. सामाजिक संबंधों की अनुपस्थिति है. यह एक ऐसे नये होते समाज की ध्वनि और छाया है जहाँ मनुष्‍य का एकाकी होना किसी अव्‍यक्‍त शाप की तरह फलीभूत है. यह उस अकेलेपन को पकड़ती है जो बदलती सामाजिक-आर्थिक व्‍यवस्‍था में, भारतीय उपमहाद्वीप में भी रिसकर आ रहा है. इस संभावित आगत को, ‘एलिएनेशन’ को अज्ञेय संवेदनशील सर्जक की तरह, रचनात्‍मकता में संभव कर देते हैं. इस मायने में यह एक आधुनिक कहानी भी है.

इसके संवाद, अनकहे वाक्‍य, मन में सोचे गए अथवा अप्रकट कथन, कहानी को कला की उस ऊँचाई तक ले जाते हैं जहाँ से सर्जनात्‍मकता की अदेखी ताक़त दिखने लगती है. और अंत में जब कथानायक रात के भोजन के बाद, आँगन में चारपाई पर लेटा आसमान ताक रहा है, जब पूर्णिमा है और आकाश अनभ्र है, प्रकृति को अनुभव करते हुए विचारमग्‍न है, वहाँ से कहानी में वह आवेग पूरित उद्वेग, चोटिल और अधूरेपन से भरी पूर्णता आने लगती है जो किसी भी रचना को ‘क्‍लासिकी’ में तबदील कर देती है. नैत्‍य की उदासी, निरर्थकता और ऊब की यह शामिल विडंबना, अवसादी और कातर वाक्‍यों में निसृत होती है जिसकी चरम अभिव्यक्ति इन शब्दों में अनुभव की जा सकती है- ‘मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्‍द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के सौंदर्य के लिए रुकने को तैयार नहीं था.’ यहॉं गद्य में ऐसा विजुअल लिखित है जिसे किसी दृश्‍य में, शूट करना कठिन होगा लेकिन प्रत्‍येक पाठक इसे अपने मन में, आँखों के आगे अपनी तरह से घटित होते देख सकता है. यह चाक्षुसता उपलब्धि है.

दरअसल, कहानी विधा में ऐसा कथ्य साधने के लिए, जो आकांक्षी संरचना, भाषा और शिल्‍प का साधन चाहिए, वह बहुत सादगी से लेकिन बल के साथ ‘रोज़’ में व्‍यक्‍त हुआ है. अनेक स्‍थलों पर सामान्‍य भाषा विन्यास या विचार-संकुलता में भी एक ऐसा वाक्‍य दीप्त हो जाता है जो कभी नहीं भूलने देता कि यह कथा अकेलेपन की उकताहट भरी छाया और निष्‍फल, निरुद्देश्‍य दिनचर्या की व्‍यथा से सिंचित है. इसमें शुभाकांक्षाएँ और चिंताएँ इस क़दर घुल-मिल गई हैं कि उनको पृथक करना आसान नहीं-

”इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज़ ही गिर पड़ता है…….माँ, युवती माँ, यह तुम्‍हारे हृदय को क्‍या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्‍चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो- और यह अभी, जब तुम्‍हारा सारा जीवन तुम्‍हारे आगे है.”

जब मालती घर में लाये आमों को पुराने अख़बार से निकालने के बाद, अख़बार के टुकड़े को संलग्‍नता से, दोनों तरफ़ पढ़ती है तो उस अभाव को व्यंजित और रेखांकित करती है कि वहाँ उस घर में रोज़मर्रा के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है जो मनुष्‍य को किसी भी कला, रंजन और सर्जनात्‍मकता से जोड़ने हेतु प्रेरित कर सके. यह छोटा-सा कारुणिक दृश्‍य टीस की तरह उठकर पूरी कहानी में फैल जाता है. स्‍पष्‍ट है कि नायिका संभवत: इसी वजह से कहीं अधिक यांत्रिक, उदासीन, रूखी और कुछ कठोर सी होती जा रही है. उसकी आयुसुलभ चंचलता, आशा और प्रसन्‍नता किसी पाताल में गिर रही है. मालती के भीतर जीवन की, ललक भरी चेष्‍टाएँ उठती हैं और फिर असफल होकर उन चेष्‍टाओं के तंतु टूट जाते हैं. वे सब चीज़ें यकायक किसी खाई में लुढ़क जाती हैं. उसकी यह स्थिति नायक को सोचने पर विवश करती है-

”……पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा किसी अजनबी से भी नहीं होना चाहिए….”

नॉस्‍टेल्जिया के सूत्र यहाँ हैं लेकिन उन्हें वर्तमान की विडंबनाओं के समक्ष रख दिया है. आमने-सामने. चौथे दशक तक की आधुनिक कहानी-कला की विकसित तरकीबें यहाँ देखी जा सकती हैं किंतु उनका निर्वाह, संवेदनात्‍मक प्रवाह और करुणामयी आभा इस कहानी को अनन्यता प्रदान कर देती है. इसका एक नूतन संस्‍करण बन जाता है : जीवन से भरपूर लेकिन अपनी सार्थकता खोजता हुआ. विडंबनाबोध से भरा. बेचैन. और उदास.

आज आठ दशक बाद, यदि इस कहानी में, बाल की खाल निकालने की तरह कुछ कमी देखूँ तो वह इसके संपादन में कहीं हो सकती है. कहानी का प्रारंभ है-

‘दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उस वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्‍य, अस्‍पृश्‍य, किन्‍तु फिर भी बोझल और प्रकम्‍पमय और घना-सा फैल रहा था.’

इस प्रारंभिक भूमिका में वह सब प्रभावी वक्‍तव्‍य की तरह आ जाता है जो कहानी आगे कहनेवाली है, जिसे वह प्रखर और सघन तरीक़े से कहती भी है. संवादों में, विवरण में, संकेतों में और उस पूरे वायुमंडल में, जिसमें यह कहानी अपनी यात्रा करती है, इसी भावना और परिस्थिति को कुशलता के साथ, उत्सुक बनाते हुए व्यथित करती है. और धीरे-धीरे कलागत रूप से यही सब सिद्ध करती चलती जाती है. बिना कोई अन्य दावा किए. मुश्किल यह पेश आती है कि प्रारंभ में कहे गए इन वाक्‍यों को कथाकार बीच-बीच में और तीन बार लगभग दोहरा देते हैं जिनका आशय ठीक वही है जो पूर्व में व्‍यक्‍त, आरंभिक वाक्‍यों का है. जैसे वे पाठक पर और अपने ही बेहतरीन कथा-कौशल पर कुछ अविश्‍वासी हैं. हो सकता है कि बलाघात का यह कोई तरीक़ा रहा हो लेकिन मेरे ख़याल से इस पुनरावृति से, कहानी में अनावश्‍यक व्‍यतिक्रम पैदा होता है, जबकि इसके बिना भी कहानी वह सब अभिव्‍यक्‍त करने में समर्थ है, जो अंतत: उसका उद्देश्‍य और हासिल है. आज उन पंक्तियों को अलग करते हुए इसे पढ़ता हूँ तो मुझे यह अधिक सुगठित, और ज्‍़यादा प्रभावशाली लगती है.

कहानी में कोई हल नहीं है लेकिन वह पाठक को विचार संलग्न कर देती है कि परिवार में, घर में इस तरह का वातावरण अपेक्षित नहीं. यह हूक के साथ एक व्यग्र इच्छा उठाती है कि काश, किसी तरह उदासी की यह साँवली छाया दूर हो. इसमें अपनी तरह का स्‍त्रीविमर्श भी शामिल हो जाता है. कहानी का समूचा पर्यावरण हार्दिकता और चोटिलता से व्‍याप्‍त है. इसे पढ़कर विस्‍मृत करना आसान नहीं.

गौरव के साथ सोचता हूँ कि आज से अस्‍सी बरस पहले, 1934 में जब हिन्‍दी कहानी युवतर थी, इस कहानी ने पूरी विधा को ही एक नयी भाषा, वर्णनक्षमता की अपूर्व कला, मनोविज्ञान की चहल-पहल और हृदय को प्रकंपित करनेवाली ध्वनि दे दी. 

 

pinterest से आभार सहित

 

रोज़
अज्ञेय

 

दुपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किंतु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली. मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझाई हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गई. उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए भीतर की ओर चली. मैं भी उसके पीछे हो लिया.

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, “वे यहाँ नहीं है?’’
‘‘अभी आए नहीं, दफ़्तर में हैं. थोड़ी देर में आ जाएँगे. कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं.’’

‘‘कब के गए हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं…’’

मैं “हूँ” कह कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं. मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा.

मालती एक पंखा उठा लाई, और मुझे हवा करने लगी. मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए.’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो. यहाँ तो…’’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो.’’

वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुँह’ करके उठी और भीतर चली गई.

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा—यह क्या है…यह कैसी छाया-सी इस घर पर छाई हुई है…

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किंतु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर संबंध सख्य का ही रहा है. हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छंदता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बंधनों में नहीं घिरा…

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ. जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है. इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किंतु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छाई हुई है…और विशेषतया मालती पर…

मालती बच्चे को लेकर लौट आई और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गई. मैंने अपनी कुर्सी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं.’’
मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आजा,’’ “पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ…’’

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी…
काफ़ी देर मौन रहा. थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किंतु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की…यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ…चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गई? या अब मुझे दूर—इस विशेष अंतर पर—रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छंदता अब तो नहीं हो सकती…पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई—’’
उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’

यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किंतु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण. इसलिए मैंने अपनी बात दुहराई नहीं, चुप बैठ रहा. मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा. वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किंतु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं. फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तंतु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो…वैसे जैसे बहुत देर से प्रयोग में न लाए हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जंतु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए…

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाए. मैंने मालती की ओर देखा; पर वह हिली नहीं. जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाए गए, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गई.

वे, यानी मालती के पति आए. मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था. परिचय हुआ. मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गई, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…

मालती के पति का नाम है महेश्वर. वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेंसरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं. प्रातःकाल सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दुपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने…उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्ख़े, वही दवाइयाँ. वह स्वयं उकताए हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गर्मी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आई. मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?’’
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’ पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

महेश्वर खाना आरंभ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आएगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा.’’

मालती टोककर बोली, ‘‘ऊँहू, मेरे लिए तो यह नई बात नहीं है…रोज़ ही ऐसा होता है…’’
मालती बच्चे को गोद में लिए हुए थी. बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था.

मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’
मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है.’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुपकर.’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया. और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले.’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गई.

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे. महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिंताजनक केस आए हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा…दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है…थोड़ी ही देर में वह चले गए. मालती किवाड़ बंद कर आई और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ.’’
वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किंतु चली गई. मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शांत हो गया.

दूर…शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के. एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लंबी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है ‘‘तीन बज गए…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य संपन्न हो गया हो…
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गई, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो…’’

‘‘बहुत था.’’
‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था.’’ मैंने हँसकर कहा.

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं’ मुझे आए पंद्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाए थे वही अभी बरती जा रही है…”
मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीं है?’’

‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए.’’
‘‘बर्तन भी तुम्हीं माँजती हो?’’

‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आई.
मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गई थीं?’’

‘‘आज पानी ही नहीं है, बर्तन कैसे मँजेंगे?’’
‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’

‘‘रोज़ ही होता है…कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बर्तन मँजेंगे.’’
‘‘चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा. मेरे पास कोई उत्तर नहीं था; पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा. मैंने उसे दे दिया.

थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’

मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’
‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’

‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है.’’
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गई. मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा.

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किंतु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे—हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…

मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें.

‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी. वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’
‘‘पैदल.’’

‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की.’’
‘‘आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ.’’

‘‘ऐसे ही आए हो?’’
‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर. मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ.’’

‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गई फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ.’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं थका.’’

‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’
‘‘और तुम क्या करोगी?”

‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे.’’
मैंने कहा, ‘‘वाह!’’ क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं…

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गई, टिटी को साथ लेकर. तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा…मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बर्तनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा…

एकाएक वह एक स्वर टूट गया—मौन हो गया. इससे मेरी तंद्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गई थी…वही तीन बजे वाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में. मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यंत्रवत्—वह भी थके हुए यंत्र के से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गए…’’ मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यंत्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यंत्रवत् विश्रांत स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया…न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गई.

तब छ: कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आए हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिए हुए मेरा कुली. मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा. मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है.’’
मैंने पूछा’’ गैंग्रीन कैसे हो गया.’’

‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’
मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’

बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी…’’
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गई, बोली, ‘‘हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’

महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’
‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’

महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिए. मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं, डाक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़्याल ही नहीं होता. पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी.’’
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा…टिप, टिप, टिप, टिप,-टिप-टिप, टिप…

मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गई. खनखनाहट से हमने जाना, बर्तन धोए जाने लगे हैं…
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला. महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा.

महेश्वर बोले…‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी.’’
मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गर्मी तो बहुत होती है?’’

‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाए? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे.’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘आज तो बाहर ही सोएँगे. आपके आने का इतना लाभ ही होगा.’’

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था. महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ’’, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिए.

अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गए और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किंतु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता या, और फिर एकदम चुप हो जाता था…और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…
मालती बर्तन धो चुकी थी. जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना.’’

‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए.’’

मालती ने भीतर जाकर आम उठाए और अपने आँचल में डाल लिए. जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अख़बार का टुकड़ा था. मालती चलती-चलती संध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी…वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लंबी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी.

मुझे एकाएक याद आया…बहुत दिनों की बात थी…जब हम अभी स्कूल में भर्ती हुए ही थे. जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना. मुझे याद आया…कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था.

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा. मालती ने चुपचाप क़िताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पड़ने देती. जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘क़िताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया…‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ, मैं प्रश्न पूछूँगा, तो चुप खड़ी रही. पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘क़िताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी.’’

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है. इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गई है, कितनी शांत, और एक अख़बार के टुकड़े को तरसती है… यह क्या, यह…

तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी!’’
‘‘बस, अभी बनाती हूँ.’’

पर अब की बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गई, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गई, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…

और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे.

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गए थे और टिटी सो गया था. मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गई थी. वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था. एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरंत ही लेट गया.
मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए.’’

वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आए हैं.’’ किंतु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया…थका तो मैं भी हूँ.’’
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं.

तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी.
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में—यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं; लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा.

पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था.

मैंने देखा…उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यंत शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यंत शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चंद्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…

मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष…गर्मी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष…धीरे-धीरे गा रहे हों…कोई राग जो कोमल है, किंतु करुण नहीं, अशांतिमय है, किंतु उद्वेगमय नहीं…

मैंने देखा…प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुंदर दीखते हैं…

मैंने देखा…दिन-भर की तपन, अशांति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोए जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्ष रूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं…

पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने…महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बर्तन गर्म पानी से धो रही थी, और कह रही थी… ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है.’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजने वाले हैं,’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं…मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चंद्रमा की चंद्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था…

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा. महेश्वर ने चौंककर कहा…‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आई, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गई बेचारे के.’’
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया.

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है.’’
एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा…मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला…‘‘माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो…और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!’’

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुंब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गई है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गई है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गई है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं. इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…

इतनी देर में, पूर्ववत् शांति हो गई थी. महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे. टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी. मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है. मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किंतु क्या चंद्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा. ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कंपन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गए…

___________________________

सच्चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन ‘अज्ञेय’
(7 मार्च, 1911- 4 अप्रैल, 1987), कुशीनगर  

संपादक : ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’ ‘दिनमान साप्ताहिक’, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेज़ी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया.
कविता-संग्रह : ‘भग्नदूत’, ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम्’, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’, ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, ‘महावृक्ष के नीचे’, ‘नदी की बाँक पर छाया’, ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स’ (अंग्रेज़ी में).
कहानी-संग्रह: ‘विपथगा’, ‘परम्परा’, ‘कोठरी की बात’, ‘शरणार्थी’, ‘जयदोल’.
उपन्यास:‘शेखर : एक जीवनी’ (प्रथम भाग और द्वितीय भाग), ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’.
यात्रा वृत्तान्त: ‘अरे यायावर रहेगा याद?’, ‘एक बूँद सहसा उछली’.
निबन्ध-संग्रह:‘सबरंग’, ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य’, ‘आलवाल’.
आलोचना: ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘भवन्ती’, ‘अद्यतन’.
संस्मरण:‘स्मृति लेखा’; डायरियाँ—‘भवन्ती’, ‘अन्तरा’ और ‘शाश्वती’.
विचार-गद्य:‘संवत्सर’; नाटक—‘उत्तरप्रियदर्शी’.
सम्पादित ग्रन्थ:‘तार सप्तक’, ‘दूसरा सप्तक’, ‘तीसरा सप्तक’ (कविता-संग्रह) के साथ कई अन्य पुस्तकों का सम्पादन. आदि आदि

सम्मान : 1964 में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ और 1978 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’.

 

कुमार अम्‍बुज
13 अप्रैल 1957, ग्राम मँगवार, ज़‍िला गुना

लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं.  किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित.

ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com

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Comments 9

  1. Khudeja khan says:
    2 months ago

    अवसाद ग्रस्त शब्द चित्र ‘रोज़’।
    युवा दम्पत्ति और शिशु तीनों मिलकर भी जीवन की हार्दिक पूर्णता से वंचित हैं।
    उत्साहरहित दिनचर्या में कहीं कोई आनंदयम ऊर्जा नहीं।
    रिक्तिता की व्याप्ति स्वाभाविक जीवन गति को बाधित कर, अभिव्यक्ति को जड़ कर देती है। सामान्य हंसी ठिठोली भी लुप्त होकर यंत्रवत समय को नापने में निकल जाती है।
    उस अदृश्य नैराश्य की छाया में पाठक को घेरने वाली कहानी, पात्रों की नीरसता को अनुभूत करने लगती है।

    Reply
  2. संजय व्यास says:
    2 months ago

    मैं इस कहानी को गैंग्रीन की तरह ही जानता था।
    कुमार अंबुज जी का हर आलेख मैं पर्याप्त संलग्नता से पढ़ता हूं। भाषिक सौंदर्य के साथ अधिकतम अर्थोपलब्धि आपके आलेखों की विशेषता रहती है।
    ‘ प्रच्छन्न स्मृतियां ‘ – इतने भर से कितना सुंदर, कितना अधिक कह दिया है अंबुज जी ने।
    आभार।

    Reply
  3. Sawai Singh Shekhawat says:
    2 months ago

    जीवन के रूटीन अवसाद को उसी गहरी सांद्रता से व्यक्त करती अज्ञेय की चर्चित कहानी।अंबुज जी ने उसका विरल पाठ किया है।उनका यह कहना कि ‘रोज़’ का पहला पैरे की कहानी में कोई दरकार नहीं है।सौ फ़ीसदी सच है।इस पैरे को निकाल देने पर अब भी कहानी पर कोई असर नहीं पड़ता।

    Reply
  4. अजित कुमार राय कन्नौज says:
    2 months ago

    अज्ञेय असाध्य वीणा के साधक हैं। वे कविता और कहानी दोनों ही विधाओं में प्रयोगधर्मी हैं। अनुभव का अन्त:स्वर यदि उनके काव्यार्थ की सान्द्रता में गुम्फित है तो अमूर्त को छाया चित्रों से मूर्त करने का लाघव उनके कथा साहित्य का आन्तरिक वैशिष्ट्य है। वे परम्परा के निषेध के स्थान पर उसे युगानुरूप मोड़ देने में सिद्ध हस्त हैं। शब्दों के सूक्ष्म अर्थ – संवेदनों की उन्हें गहरी पहचान है। उनके लेखन में एक कास्मिक विजन आद्योपांत अनुस्यूत है। वे भारतीय आधुनिकता के अग्रदूत हैं और उनकी नवोन्मेषी चेतना प्रगतिशील धारा से अधिक गतिशील है। इस क्षिप्रगतिक प्रगति के ठहराव या गतिज ऊर्जा को अपनी ललित निबन्धात्मक शिल्प में कुमार अम्बुज ने अल्पतमांक बिन्दु तक मापा है और एक प्रकार से उसका पुनः सृजन किया है। कुमार अम्बुज इन दिनों अच्छा लिख रहे हैं और उनके लेखन की पोटेंशी बढ़ती जा रही है।

    Reply
  5. अनुजा says:
    2 months ago

    अज्ञेय की कहानियां मैंने कम पढ़ीं है, कविताएं और उपन्यास पढ़े हैं। उनके कथा समग्र से कहानियां पढ़ रही हूं। पहली ही कहानी अमरवल्लरी इतनी सुंदर बन पड़ी है कि क्या कहूं। उनकी रचनाओं में कथा धीमी गति से चलती है, पर पाठक को लपेटती चलती है। चाँदनी रात के मैं सौंदर्य से उनका गहन प्रेम है। नदी के द्वीप की याद आ गई, रेखा और भुवन का वार्तालाप।
    अज्ञेय अद्भुत हैं, अपनी रचनाओं में बिखरी चाँदनी की तरह….!

    Reply
  6. Dinesh Pathak says:
    2 months ago

    Excellent

    Reply
  7. डॉ जया आनंद says:
    2 months ago

    ‘रोज ‘ अज्ञेय की इस कहानी को पढ़ते हुए मन में टीस बनी रहती है,.कुमार अंबुज के शब्दों में कहानी को और भी गहराई से समझने का अवसर मिला।

    Reply
  8. अनिल राय says:
    1 month ago

    कुमार अंबुज कवि के रूप में तो प्रतिष्ठित हैं ही , उनके आलोचनात्मक गद्य ने भी प्रशंसक पाठकों की एक पूरी दुनिया बनाई है । किसी भी विषय पर लिखे हुए उनके गद्य में मौजूद काव्यात्मकता के एक ख़ास सौन्दर्य ने उनके अपने पाठक बनाए हैं । मैं भी उनके पाठकों से एक हूं ।

    पर , अब यह उनकी एक सीमा बन चिंता पैदा करने लगी है । कई जगहों पर यत्नपूर्वक निर्मित की गई यह काव्यात्मक गद्य – संरचना खीझ पैदा करने लगी है । इस प्रतिभाशाली कवि – आलोचक को अब इस जोख़िम को पहचानना होगा । इसका सबसे ख़राब पक्ष यह है कि एक बेहद अर्थवान और विचारपूर्ण अंतर्वस्तु भाषा की इस रसात्मक आभा में खो जाती है और पाठक को कुछ अन्य – अन्य संदर्भों को रचती लेखनुमा कविता पढ़ने के आनन्द से संतोष कर जाना पड़ता है ।

    अज्ञेय की इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानी के मनोसामाजिक अर्थ – सौन्दर्य को कुमार अम्बुज ने अपने इसी छविबहुल भाषा – प्रयोग से स्थगित कर दिया है । व्यक्ति – मन के यथार्थ को नई बनती गम्भीर समाजशास्त्रीय संरचनाओं में खोजने की कोशिशों का एक छोटा – सा भी संकेत उनके इस लेख के प्रति एक संतोष दे सकता था , पर अफ़सोस …. !

    Reply
  9. Sadashiv Shrotriya says:
    1 month ago

    साहित्य में शाश्वतता का आवश्यक तत्व उसे जिस किस्म की अमरता दे देता है उसका एक अच्छा उदाहरण है यह कहानी ।

    सदाशिव श्रोत्रिय

    Reply

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