गंगूबाई हंगल सघन आवेगमयी स्वर-उजास की विशुद्धतम सुर-शिखर पंकज पराशर |
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की परंपरा में यदि कोई मुसलमान गायक-वादक हुआ, मसलन उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ, उस्ताद रज़ब अली खाँ, उस्ताद बरकत अली खाँ, उस्ताद अल्लारक्खा खाँ, उस्ताद मुनव्वर अली खाँ, उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ, उस्ताद अमीर खाँ, उस्ताद फैयाज खाँ, उस्ताद विलायत खाँ इत्यादि का नाम लेने या लिखने से पहले आदर के साथ ‘उस्ताद’ जरूर लगाया जाता है. गायक-वादक अगर हिंदू समुदाय से आता हो, तो उनके नाम से पहले आवश्यक रूप से ‘पंडित’ लगाया जाता है. मसलन पंडित भीमसेन जोशी, पंडित रविशंकर, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित जसराज, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित शिव कुमार शर्मा, पंडित विश्वमोहन भट्ट इत्यादि, लेकिन बकौल गंगूबाई हंगल, ‘केसरबाई तथा मोगुबाई जैसी संगीत विदुषियाँ केवल बाई ही रह जाती हैं!’
ज़िंदगी की शाम में कुछ इसी तरह की तक़लीफ का इज़हार बनारस घराने की मशहूर गायिका रसूलनबाई ने भी किया था. अपने नाम के साथ जब वे ‘बाई’ का तख़ल्लुस सुनतीं, तो उनका दर्द छलक ही आता,
‘बाकी सब बाई तो ‘देवी’ बन गई, एक मैं ही ‘बाई’ की बाई रह गई!’’
ज़ाहिर है, उनमें जीवन और स्त्री होने से मिले दुःख, पीडा़, यातना और संत्रास थे और वे इन्हीं के सम्मिश्रण से बनी थीं. उनकी आवाज़ भी इसी से बनी थी. रसूलन बाई और गंगूबाई हंगल की आवाज़ में जिंदगी का दर्द था, लेकिन उनमें कटुता नहीं आई. क्योंकि उनमें ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था थी. यही कारण है कि गंगूबाई ने अपनी आवाज से भक्ति संगीत को नई ऊँचाइयाँ दे सकीं. ‘उस्ताद’ और ‘पंडित’ गायन-वादन की कला में कलाकार की निपुणता, गहन साधना से हासिल संगीत में उनकी महारत के प्रति सम्मान और सामाजिक स्वीकृति को व्यक्त करने का पैमाना है. कलाकार यदि स्त्री हो और वर्ण-व्यवस्था के क्रम में यदि निचले पायदान पर हो, तो अनेक लोगों का ध्यान कला से अधिक उसकी जाति पर जाता है. भारतीय सामाजिक व्यवस्था का यह सच उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से स्वतंत्रता मिलने तक तो था ही, कुछ हद तक आज भी है. पिछड़े और दलित समुदाय से आने वाली स्त्रियों हो, आम घरेलू स्त्री हो या कामकाजी स्त्री, कलाकार हो या किसी अन्य पेशा में, उसे ‘दोहरा अभिशाप’ झेलना ही पड़ता है. ‘किराना घराना’ की मशहूर गायिका गंगूबाई हंगल की सांगीतिक यात्रा भी इन तमाम बाधाओं से गुज़रने के बाद ही मंज़िल तक पहुँच सकी.
गंगूबाई हंगल का परिवार कर्नाटक के धारवाड़ में रहता था. इस शहर के जिस इलाके में वे लोग रहते थे, उसे शुक्रवार पेठ कहा जाता है, जो मूलतः ब्राह्मण बहुल क्षेत्र था. इसी इलाके में 05 मार्च, 1913 को अंबाबाई और चिक्कुराव नादिगर के पुत्री के रूप गांधारी (गंगूबाई हंगल का बचपन में यही नाम था) का जन्म हुआ. धारवाड़ के इसी इलाके में स्थित अपने घर में सोते-जागते गांधारी का बचपन गुज़रा. उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक उन दिनों जातिवाद और पितृसत्ता बहुत प्रबल थी और इसका असर धारवाड़ में भी था. गंगूबाई जिस केवट जाति से आती थीं, उस जाति के लोगों का ब्राह्मणों के घर में उन दिनों प्रवेश निषेध था. कन्नड़ में बोल कर लिखवायी गयी आत्मकथा ‘नन्ना बदुकिना हादु‘ (मेरे जीवन का संगीत) में अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए गंगूबाई बताती हैं,
‘मुझे याद है कि बचपन में किस प्रकार मुझे धिक्कारित होना पड़ा था. जब मैं एक ब्राह्मण पड़ोसी के बग़ीचे से आम तोड़ती हुई पकड़ी गई थी. उन्हें आपत्ति इससे नहीं थी कि मैंने उनके बाग़ से आम तोड़ लिये, बल्कि आपत्ति इस बात से अधिक थी कि एक क्षुद्र जाति की लड़की की उनके बग़ीचे में घुसने की आख़िर हिम्मत कैसे हुई?’[1]
पर जब समय बदला और बग़ीचे से कच्चे आम तोड़ने वाली अंबाबाई की वह मामूली लड़की गांधारी आगे चलकर पद्म विभूषण विदुषी गंगूबाई हंगल के नाम से संपूर्ण भारत में जानी जाने लगीं, तो जिनके बग़ीचे से आम तोड़ने में गंगूबाई ज़लील हुई थीं, वही लोग उन्हें अपने घर पर दावत में बुलाने लगे. आदर करने लगे और धारवाड़ से गंगूबाई की अस्मिता को जोड़ कर देखने में गर्व का अनुभव करने लगे.
इस संदर्भ में एक और प्रसंग का ज़िक्र करते हुए गंगूबाई अपनी आत्मकथा में लिखती हैं,
‘एक बार गर्मी की किसी दोपहर एक वृद्ध ब्राह्मण हमारे घर पधारे और पीने का पानी माँगा. माँ दुविधा में पड़ीं, पानी दें कि न दें. हम तो ब्राह्मण नहीं हैं, निचली जाति से हैं. माँ की हिचकिचाहट देख ब्राह्मण महोदय कलयुग को कोसने लगे कि क्या जमाना आ गया है, लोग पानी तक नहीं पिलाते. तो जब माँ ने अपनी दुविधा उनके सामने रक्खी, उन विप्रदेव ने कहा, ‘देवि, जल तो जाति से परे है और आपके घर की सुघराई देख कौन कहेगा कि आप ब्राह्मण नहीं हैं? पानी पिलाईये.’ तब उन ब्राह्मण की बातों से माँ ने बढ़कर थोड़े से गुड़ के साथ उन्हें पानी दिया. तृप्त ब्राह्मण देव आशीर्वाद देते हुए विदा हुए और माँ ने सोचा, ‘उद्गम स्थान पर गंगा हमेशा ही पवित्र होती हैं.’[2]
गंगूबाई की माँ अंबाबाई जिस शुक्रवार पेठ इलाके में रहती थी, वह ब्राह्मण बहुल इलाका था और ब्राह्मणों के भीतर की जड़ता, अहं और परंपरा प्रियता को वह प्रतिदिन देखती थीं. इस प्रवृत्ति को अनावृत्त करते हुए कन्नड़ भाषा के सुप्रसिद्ध कथाकार यू. आर. अनंतमूर्ति ने ब्राह्मणों की बस्ती ‘अग्रहार’ के पूरे वातावरण का बहुत प्रामाणिक ढंग से वर्णन अपने उपन्यास ‘संस्कार’ में किया है. यह उपन्यास उस समय लिखा गया था, जब देश स्वतंत्र होने वाला था, लेकिन भारतीय समाज एक साथ कई युगों में जी रहा था. परंपरा व आधुनिकता, आस्था- अनास्था, पाप पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, लोक और शास्त्र, जाति और वर्ण को लेकर द्वंद्व लगातार चल रहे थे. अनंतमूर्ति जिस दौर के समाज की सचाई को अपने उपन्यास में चित्रित कर रहे थे, गंगूबाई उसी दौर के समाज की इन सचाइयों को शुक्रवार पेठ में रोज़ देखते-भोगते हुए जी रही थीं.
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में कुल, जाति या गोत्र को बताने वाला उपनाम या कुलनाम स्त्री को अविवाहित रहने तक उसके पिता के वंश से प्राप्त होता है और विवाह के बाद पति के वंश से. पर गंगूबाई हंगल का मामला ज़रा अलग था. इसके बारे में अपनी आत्मकथा में वे लिखती हैं,
‘मेरी परदादी का नाम था गंगव्वा. हमारे पुरखे हंगल के रहने वाले थे, सो हमारा तखल्लुस हंगल हुआ. हमारे दादा नारगुंड की छोटी-सी रियासत में मुंसिफ थे. उस ज़माने में पुणे से पेशवा राजा सरकार चलाया करते थे, तो नारगुंड के राजा श्री बाबा साहेब के साथ हमारे परदादा भी अंग्रेज-विरोधी बग़ावत में शरीक़ हुए. जब बरतानवी सिपाहियों ने उनका पीछा किया, तो वे अनजानी जगह को छू-मंतर हो गए. फिर बाद में उनका कोई पता नहीं लगा. इसके बाद परदादी गंगव्वा ने घोड़े की जीन कसी और नारगुंड से हंगल आ पहुँचीं और यहीं अपना ठिकाना किया. छुटपन में परदादी की यह साहस-गाथा सुन कर मैं रोमांचित हो गयी थी. तब मैं सात बरस की ही थी और तुरत-तुरत मेरा दाखिला विद्यालय में हुआ था. कन्नड़ के नामी कवि श्री डी. आर. बेंद्रे हमारे गुरुओं में से एक थे. बेंद्रे गुरूजी से बाद की ज़िंदगी में भी मेरा लंबा जुड़ाव रहा.’[3]
सिर्फ उपनाम ही नहीं, गंगूबाई के नाम का क़िस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है. उनके बचपन का नाम गांधारी था और वे इसी नाम से विख्यात हो रही थीं, लेकिन उनके संगीत को जनता तक पहुँचाने का जिम्मा जिस संगीत कंपनी ने लिया, उसके अधिकारियों का कहना था कि उस ज़माने का श्रोता वर्ग सिर्फ नाचने-गानेवाली बाइयों के ही रिकॉर्ड ख़रीदता है. इसलिए संगीत कंपनी के उन अधिकारियों ने गांधारी हंगल-जैसे प्यारे नाम को बदलकर एक चलताऊ नाम गंगूबाई हंगल कर दिया.[4]स्त्रियों के लिए गाना उस दौर में कितना मुश्किल हुआ करता था, इसको बयान करते हुए एक स्थान पर गंगूबाई ने कहा कि बचपन में जातिगत टिप्पणियों का सामना करने की तो आदत हो गई थी, पर जब गाना शुरू किया तो लोग इस पेशे को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते थे. जिसके कारण लोगों की एक और हिकारत भरी टिप्पणी से सामना करना पड़ा. धारवाड़ के लोग ‘गानेवाली’ कहकर ताना दिया करते थे.
गंगूबाई के परिवार में भूख और निर्धनता का साम्राज्य था. इसलिए उन पर भद्दी जातीय टिप्पणियाँ की जातीं. उन दिनों केवल पुरुष ही गाते-बजाते थे और जो पुरुष गायकी से जुड़े हुए थे, उन्हें भी अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था. संगीत सीखने के लिए जब वे अपनी गली से गुजरतीं, तो अपने घरों से झाँक-झाँक कर लोग उन्हें देखते और कहते, ‘देखो, देखो गाने वाली जा रही है’. अपनी गली के लोगों से मुँह से ऐसे ताने सुनना बड़ा तकलीफदेह होता, लेकिन धीरे-धीरे उनको यह सब सुनने की आदत-सी हो गई थी. कहीं से भोजन का निमंत्रण मिलने पर उनके सहपाठियों को तो घर के अंदर, पर गंगूबाई को बरामदे में बैठाकर भोजन कराया जाता था. इस तरह के भेदभाव और अपमान को झेलते हुए गंगूबाई ने अपनी लगन से सबका मुंह बंद कर दिया. जब वे सिर्फ 12 साल की थीं, तो सन् 1924 में बेलगाम में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ. जिसकी अध्यक्षता स्वयं महात्मा गाँधी कर रहे थे. गंगूबाई के स्कूल के एक मास्टर साहब इस अवसर पर गाने के लिए कुछ लड़कियों को स्वागत गान सिखाने लगे. यद्यपि नारायणराव हुइलगोल ने इस मौके के लिए एक विशेष गीत ‘उदयावगाली नम्मा चेलुवा कन्नडा नाडु’रचा था, पर गंगूबाई ने स्वागत गान के रूप में वही गाना गाया, जो उन्हें स्कूल के मास्टर ने सिखाया था. गाँधी जी ने गंगूबाई के गाने की बहुत प्रशंसा की. इधर गंगूबाई महात्मा गाँधी को इतने क़रीब से देखकर इस कदर रोमांचित थी, जैसे उनके हाथ कारूँ का ख़जाना लग गया हो! उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की दुआ तो उन्हें मिल ही चुकी थी. अब गाँधी जी की प्रशंसा और आशीर्वाद भी उन्हें मिल गया था. आगे चलकर गंगूबाई के गुरू बनने वाले पंडित रामभाऊ कुंडगोलकर उर्फ सवाई गंधर्व भी इस अवसर पर उपस्थित थे और उन्होंने वहाँ गाया भी था. गंगूबाई ने यहीं पहली बार मैसूर के सुप्रसिद्ध वीणा वादक पंडित शेषन्ना को देखा था.[5]अपनी पचहत्तरवीं सालगिरह पर इस प्रसंग को याद करते हुए गंगूबाई ने बताया था कि इस कार्यक्रम के दौरान उन्हें एक बात का डर लगातार बना रहा कि शायद उन्हें खाना सबसे अलग हटकर खाने को कहा जाएगा. पर गाँधी जी की उपस्थिति के कारण शायद ऐसा नहीं कहा गया.
जाति और लिंग दोनों की बाधाओं को पार करना गंगूबाई के लिए आसान नहीं था, लेकिन स्वतंत्र भारत में ख़याल गायकी के क्षेत्र में उन्होंने जो अपनी पहचान बनायी, उसमें उनकी कद-काठी और रूप ने भी साथ नहीं दिया. छोटे कद की गंगूबाई की आवाज़ इतनी वज़नदार और ठहरी हुई थी कि एक-एक स्वर और कान पर हाथ रखकर खींची गई तान आसमान को भेद देते थे. गंगूबाई की माँ अंबाबाई और दादी कमलाबाई दोनों अपने ज़माने में कर्नाटक संगीत की चर्चित गायिका थीं. अंबाबाई कर्नाटक संगीत में पारंगत थी. संगीत के बड़े-बड़े महारथी उनका संगीत सुनने के लिए आते थे. किराना घराने के उस्ताद अब्दुल करीम खाँ ने उनका संगीत सुनकर कहा था कि उन्हें लग रहा है जैसे वे तंजौर में हैं. इसी सांगीतिक माहौल में पलती हुई गंगूबाई में संगीत के प्रति जन्मजात लगाव पैदा हो गया था. बचपन के दिनों में वह भी ग्रामाफोन पर उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का गायन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थी और उस आवाज़ की नकल करने की कोशिश करती थी. बाद में गंगूबाई ने कर्नाटक संगीत की जगह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली और ‘किराना घराना‘ की शैली को अपनाया. अपनी माँ के बारे में गंगूबाई लिखती हैं,
‘मेरी माँ कर्नाटक शैली में शास्त्रीय बंदिशें, भक्ति और रोमांटिक गीत गाती थीं. माँ को अक्सर मैं घर पर और शादियों के जलसों में गाते हुए सुना करती थी. वे जवाडी (रोमानी) गीत गाती थी और इन गीतों के बोल में छुपे हुए सूक्ष्म अर्थ खींच लाती थीं. रेनेबेन्नूर के श्री शामाचार्य और हरपनहल्ली के इमाम साहेब उनके गुरु थे. किराना घराने के संस्थापक महान गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब माँ द्वारा गायी गयी श्री त्यागराज (कर्नाटक संगीत की त्रिमूर्तियों में से एक) की रचनाओं के प्रशंसक थे. खास करके माँ जिस स्वर-लिपि व्यवस्था का इस्तेमाल करती थीं, वह उनको बहुत रुचता था. एक बार जब खाँ साहब हमारे घर पधारे, तो मैंने भी उनके सामने गाया. मेरे गाने की तारीफ़ करते हुए खाँ साहब ने मेरी पीठ ठोंकते हुए फरमाया, ‘गला अच्छा है, बेटी. खूब खाना और खूब गाना.’ मेरे लिया यह उनका आशीष था. [6]
शुक्रवार पेठ स्कूल के रास्ते में किनारे की एक दुकान पर वह अक्सर हिंदुस्तानी संगीत के रिकार्ड सुनती थीं. इनमें उनकी ख़ास पसंद थीं ज़ोहराबाई आगरेवाली के रिकार्ड. वहाँ एक हारमोनियम बजाने वाले थे श्री श्रीपादराव तमहंकर, जो उन लोगों के क़रीबी थे. हारमोनियम की मरम्मत का काम करने के अलावा वे अपनी दुकान में ग्रामोफोन रिकार्ड भी बेचा करते थे. गंगूबाई सब कुछ उनके यहाँ घंटों-घंटों तक ग्रामोफोन रिकार्ड सुना करती थीं. ख़ास करके ‘अनबन जिया में मिला’ उन्हें बेहद पसंद था. उन्होंने इसे इतनी बार सुना कि यह गीत उनके दिल पर नक्श हो गया.’[7] गंगूबाई में संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था और यह उस समय दिखाई पड़ता था, जब अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थीं. गायक के आवाज़ की नकल करने की कोशिश किया करती थीं. गंगूबाई और उनकी माँ अंबाबाई दोनों की इच्छा थी कि उन्हें उत्तर भारतीय हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखना चाहिए. बेटी में संगीत की प्रतिभा को देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ माँ ने कर्नाटक संगीत के प्रति अपने लगाव को दूर रख दिया और यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच. कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना घराना के उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ संगीत सीखे. जयपुर घराने के नामी संगीतकार श्री भास्कर बुवा बाखले उन दिनों धारवाड़ में संगीत पढ़ाया करते थे. उनकी कृपा से वहाँ हिंदुस्तानी संगीत लोगों में काफी पसंद किया जाने लगा और जब उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और उनके भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ ने इस इलाके में गाना और सिखाना शुरू किया, तो किराना घराने की गायकी की धाक जमती चली गई.
पंडित सवाई गंधर्व के गुरु थे उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, जिनकी गायन शैली उन्हें बहुत पसंद थी. अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षाओं के बारे में एक बार गंगूबाई ने कहा था कि मेरे गुरुजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है, उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो. ताकि श्रोता राग की हर बारीकी के महत्व को समझ सके.[8]इस संदर्भ में एक बार गंगूबाई ने कहा था कि मैं रागों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने और इसे धीरे-धीरे खोलने की हिमायती हूँ, ताकि श्रोता उत्सुकता से अगले चरण का इंतज़ार करे. किराना घराने की परंपरा को बरकरार रखने वाली गंगूबाई इस घराने और इससे जुड़ी शैली की शुद्धता के साथ जीवन के अंत तक किसी तरह का समझौता करने के पक्ष में नहीं रहीं. किराना घराने की ख़ास शैली, तानों और मुरकियों का चमत्कारी इस्तेमाल और एक दमदार गहरी आवाज़. गंगूबाई को सुनना संगीत के एक विरल अनुभव से गुज़रना जैसा होता था. उनकी आवाज़ में एक मर्दाना मोटापन था, लेकिन वही उनकी गायकी का जादू बन गया. आवाज़ की ऐसी अप्रतिम लयकारी कहीं और देखने को नहीं मिलती. उनके गाये हर राग की अपनी एक अलग छटा थी, एक अलग मुकाम था. वे गाती थीं तो एक ऐसे अनिर्वचनीय समय को संबोधित रहती थीं, जिसकी थाह पाना मुश्किल रहता है.
हुबली के ‘कृष्णाचार्य संगीत अकादमी‘ में उनकी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्रारम्भ हुई. इस दौर को याद करते हुए गंगूबाई कहती हैं, ‘स्कूल की पढ़ाई से ज्यादा मेरी माँ को मेरी संगीत की तालीम की फ़िक्र थी. उन्होंने सोचा कि हुबली में रहने से मेरी संगीत की तालीम ज्यादा आसानी से जारी रह सकेगी. सन् 1924 से लेकर 1932 तक मैं धारवाड़ से हुबली आती-जाती रही. आख़िर में घर वालों ने मेरी संगीत की तालीम के लिहाज से हुबली में बसने का फैसला किया. इसी हिसाब से हमने हुबली के गणेश पेठ इलाके में किराये पर एक घर लिया. धारवाड़ में मुझे भास्कर बुवा बाखले, श्री पित्रे (जो पेशे से वकील थे) और मास्टर कृष्णराव को सुनने का सौभाग्य हासिल था. अलावा इसके मैंने हीराबाई बड़ौदकर और खाँ साहब अब्दुल करीम खाँ का गायन भी सुना. मुझे याद है, एक बार तो हीराबाई बड़ौदकर हमारे साथ हफ्ते भर ठहरी भी थीं. हुबली में घर ले लिया, तो नतीजे में मेरी शुरुआती पढ़ाई ख़तम हो गई. अभी मैं पाँचवीं में ही थी, तो प्रश्न उठा कि अब आगे क्या होगा? तो गुरू की खोज शुरू हुई. माँ ने कर्नाटक शैली में गाना बंद कर दिया, ताकि उनकी गायकी की शैली से कहीं मैं प्रभावित न हो जाऊँ. 12 साल कर्नाटक संगीत में महारत हासिल करने में समय लगाने वाली मेरी माँ ने सोचिये, कितनी बड़ी कुर्बानी दी! और तो और, अब उन्होंने संगीत सम्मेलनों में गाने का न्योता भी स्वीकारना भी बंद कर दिया.’[9] हुबली में बसे हुए दो साल बीत चुके, तो ख़ाली वक़्त बितान के लिए गंगूबाई ने राजस्थान से धारवाड़ आये शामलाल और प्रतापलाल से कथक सीखना शुरू किया. मगर उनका झुकाव चूँकि गायन की तरफ़ था, इसलिए नृत्य करने में उनका मन रम नहीं रहा था. इधर उनकी माँ अंबाबाई का मन था कि गांधारी सब कुछ छोड़ कर अपने आपको हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखने में झोंक दे, सो कथक, ठुमरी वग़ैरह का सिलसिला जल्दी ही बंद हो गया और उन्होंने एकाग्र होकर संगीत सीखने पर ध्यान लगाया.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के बेहतर प्रशिक्षण के लिए 13 साल की गाँधारी को अंबाबाई उस वक़्त के चर्चित गुरुओं में से एक एच. कृष्णाचार्य के पास लेकर गई. कृष्णाचार्य हुलगुरु किन्नारी के नामचीन उस्ताद थे और हुबली के ही रहने वाले थे. उन्होंने खुद ही ‘किन्नारी’ नामक एक बाजा बनाया था. इन्हीं कृष्णाचार्य हुलगुरु के निर्देशन में एक ही वर्ष में गंगूबाई ने साठ गाने सीख लिए. लेकिन इसी बीच एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी. बकौल गंगूबाई, ‘मेरी संगीत-कक्षाओं के दौरान माँ मेरे बगल में बैठतीं. कभी-कभी खाँसी का वक्फ़ा आता और मेरा ताल के साथ सम पर लौटना मुश्किल हो जाता. माँ पीठ पर थपकियाँ देकर ताल पकड़ने में मेरी मदद किया करती थी. बचपन में मुझे सुलाने के लिए माँ सर पर थपकियाँ देती थी, ये थपकियाँ वैसी ही थीं. ये मेरी रहनुमाई करने वाली फरिश्ता थीं. एक बार माँ ने कृष्णाचार्य से कहा कि ‘गंगू ताल को पकड़ने में थोड़ी कमजोर है. कृपा करके इसकी ताल पर थोड़ा और ध्यान दीजिए.’ इस गुज़ारिश का कृष्णाचार्य बुरा मान गए. दूसरे उनकी सेहत भी गिर गयी थी, नतीज़े में उन्होंने मुझे पढ़ाना बंद कर दिया और ज़िद करने लगे कि पढ़ाने की एक साल की फीस एक सौ बीस रूपये उन्हें तत्काल दी जाए. बेचारी माँ ने अपनी पाँच तोले (लगभग छप्पन ग्राम) वजन की सोने की चूड़ियों की पेशकश की, पर उन साहब की ज़िद कि नकद रूपये अदा किये जाएँ. मुझे उस घटना की याद से बहुत ही दुःख होता है. सोने की चूड़ियाँ बेचकर सिर्फ सौ रूपये हासिल हुए और यही रूपये गुरु-दक्षिणा की थाली में सजा कर कृष्णाचार्य के सम्मुख पेश किये गये. उन्होंने रूपये गिने और बीस रूपये कम पाकर न सिर्फ दक्षिणा लेने से इनकार किया, बल्कि बेइज्जत करते हुए रूपये वापस कर दिये. माँ ने कसम खाई कि मरने से पहले उनका बीस रूपये का कर्ज़ उतार देंगी. तब से आज के दिन तक इस घटना के दुःख की अमिट छाप मेरे मन पर टंकी हुई है. एक और बात मुझे भुलाए नहीं भूलती. घर पर जब मैं रियाज़ करती, तो सीढ़ियों के ऊपर रहने वाले मेरे पड़ोसी टीन का एक खाली डिब्बा जोर-शोर से पीटते हुए उपद्रव मचाने लगते, ताकि मेरे रियाज़ में खलल पड़े.’[10]
केवट जाति की एक देवदासी की पुत्री होने के कारण गंगूबाई को जातिगत अपमान के अलावा संगीत सीखने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा. इस प्रसंग को खोलते हुए वे कहती हैं,
‘कृष्णाचार्य हुलगुरु से संगीत सीखना बंद करने के बाद एक बार फिर दत्तोपंत देसाई सवाई गंधर्व के पास अर्जी लेकर पहुँचे कि वे मुझे शिष्या स्वीकार करें. जब कभी भी वे हुबली या कुंडगोल में हों और नाटक-मंडली की जिम्मेदारियों से खाली हों, तो मुझे तालीम दिया करें. इसके बाद गुरु जी तैयार हुए और हमारे घर पर गुरुदक्षिणा के साथ औपचारिक रूप से गंडा-बंधन संस्कार संपन्न हुआ. मैंने ‘गुरु बिन कैसे गुण गावे’ से शुरू किया. इस तरह किराना घराने ने मुझे बेटी की तरह गोद लिया और मैं ज्ञान की देवी शारदा की शरण में प्रवेश पा गयी. पूरिया और पूरिया धनाश्री के बाद राग यमन का नंबर आया. गुरु जी ने मुझे उषा काल में षडज रियाज (मंद्र सप्तक के सुरों के अभ्यास) की सीख दी. वे मुझे किसी राग का एक या दो सुर सिखाते और बारंबार इसको दोहराने के लिए कहते. जो वो एक दिन सिखाते, उसका अभ्यास मुझे हफ्ते भर तक करना होता. कभी-कभार वही चीज़ बार-बार गाते हुए मैं उकता जाती और भुनभुनाने लगती, लेकिन माँ मुझे सांत्वना देते हुए उत्साहित किया करतीं. वे कहतीं कि कठिन अभ्यास से आवाज़ प्रशिक्षित होगी. उनकी इस बात की सच्चाई का भान मुझे बाद में जाकर हुआ. छोटे मौसा रामन्ना अभ्यास में मेरी मदद के लिए तबले पर संगत किया करते थे. जहाँ-जहाँ मुझे प्रस्तुति देनी होती थी, मैं उनके साथ जाती. वे मेरे संरक्षक थे और मेरी बहुत मदद किया करते थे.’[11]
गंगूबाई के जीवन में असली मोड़ इसी दौर में आया. गंगूबाई देवदासी-प्रथा की शिकार माँ की बेटी थीं और ख़ुद भी इसकी शिकार थी. मंदिरों में देवताओं और देवियों की सेवा के लिए युवतियों की नियुक्ति की जाती थी, जिन्हें देवदासी कहा जाता था. इनका देवताओं से बाकायदा विवाह होता था और ये मंदिरों में ही रहती थीं, पर मंदिर के पुजारियों, मंदिर के संरक्षकों के द्वारा देवदासियों का यौन शोषण भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है.
सन् 1929 में जब वह सोलह बरस की हुईं, तो पढ़े-लिखे और पेशे से वकील गुरुराव कोऊलागी के साथ ‘अंगवस्त्र’ के रूप में रहने के लिए जाना पड़ा. जिसका मतलब होता है, उच्च जाति के पुरुषों द्वारा ग्रहण किया गया एक अतिरिक्त वस्त्र. उनका जन्म जिस केवट जाति में हुआ था, वहाँ की स्त्रियाँ गाने-बजाने में निपुण होती थीं, पर उन्हें ‘अंगवस्त्र’ कहा जाता था. ये महिलाएँ उच्च जाति के पुरुषों द्वारा अपनायी जाती थी और पत्नियों की भाँति ही रहती थीं. उनकी संतान को जन्म भी देती, पर उन्हें पत्नी का दर्जा कभी नहीं दिया जाता था. जैसे ग्वालियर के महाराजा जियाजी राव सिंधिया ने दरबारी गायिका चंद्रभागा देवी के साथ पत्नी के तरह व्यवहार किया, संतानें हुईं, लेकिन उन्हें दर्ज़ा कभी पत्नी का नहीं दिया. केवट जाति से होने के बावज़ूद गंगूबाई और उनकी माँ, अंबाबाई तथा दादी कमलाबाई दोनों का ही विवाह उच्च कोटि के ब्राह्मणों के साथ हुआ था, फिर भी उन्हें नीच कोटि का शूद्र माना जाता था. गंगूबाई को स्वीकार करने से पहले गुरुराव कोऊलागी की एक शादी हो चुकी थी, लेकिन पहली पत्नी का निधन हो गया था. चूँकि उनके पति गुरुराव को उनका गाना पसंद था. उनके रियाज़ में खलल न पड़े, इसलिए ससुराल के बजाए उन्हें अपनी माँ के साथ मायके में रहने की अनुमति मिल गई. गुरुराव कोऊलागी पेशे से वकील थे, लेकिन उन्होंने वकालत नहीं की. व्यापार करना शुरू किया, तो लाभ क्या कमाते, उल्टे पूँजी भी गँवा बैठे. अब उनकी और उनके परिवार दोनों की ज़िम्मेदारी गंगूबाई के कंधों पर आ गई. संगीत के कार्यक्रमों से वह जो भी कमातीं, वह पति गुरुराव के हाथों पर रख देती थीं. संगीत सीखते हुए लगातार उनका ध्यान आर्थिक तंगियों पर लगा रहता. गंगूबाई कहती हैं,
‘मेरे पति पर उनके परिवार वाले दबाव बनाने लगे कि वे अपनी बड़ी बहन की बेटी से शादी कर लें. मैंने अपने पति को माता-पिता की बात का मान रखने के लिए समझाया और इस शादी के लिए रज़ामंदी दे दी. इस रज़ामंदी ने मुझे इनके माँ-पिता का प्यारा बना दिया और वे अक्सर मुझे बुलावा भेजते कि हमसे मिलने घर आओ. मेरे पति ने संगीत साधना करने के लिए खूब प्रोत्साहित किया. पिताजी जब भी रनबेन्नूर से हुबली आते, तो अक्सर मुझे तानपूरे पर रियाज करता पाते. मुझे चिढ़ाते हुए मज़ाक-मज़ाक में कहते, ‘बहुत हुआ आ आ आ. बंद करो और ई तानपूरे को दूर हटाओ.’[12]
बीस साल की होते-होते गंगूबाई तीन बच्चों दो बेटे बाबूराव और नारायण तथा बेटी कृष्णा की माँ बन गई और गुरुराव कोऊलागी की जल्दी मृत्यु हो जाने के कारण विधवा भी बहुत जल्दी हो गईं.
हुबली में जब उनका परिवार जम गया और घर की देखभाल के लिए बार-बार धारवाड़ आने-जाने में दिक्कत होने लगी, तो सन् 1957 अंततः घर बेच दिया. हंगल परिवार ने जिन दसोई कुलकर्णी के हाथों धारवाड़ का मकान बेचा था, वे लोग उस घर में सन् 1980 तक रहे. उसके बाद कई वर्षों तक घर बंद और उपेक्षित पड़ा रहा. बंद पड़े हुए मकान के कुछ हिस्से ढह गए. सन् 2005 की भारी बारिश में इस मकान को और अधिक नुकसान पहुँचा. छत के कुछ हिस्से और दीवार ढह गए. सन् 2007 में कर्नाटक सरकार ने गंगूबाई के घर को अपने क़ब्जे में लिया और इस घर का जीर्णोद्धार करके इसमें एक संग्रहालय स्थापित करने का फैसला किया. 95 साल की उम्र में नये ढंग से सजे-सजाए बचपन के घर में जब गंगूबाई लौटी, तो उसी बेकरारी और बेचैनी से अपने घर के चारों ओर अपनी मनचाही जगहों को याद किया, जहाँ उनका बचपन बीता था. घर के प्रवेश द्वार पर लगा हुआ तुलसी का पौधा और बीच घर में स्थित वह खंभा जहाँ बैठकर वह घंटों अपने संगीत का रियाज़ किया करती थी.[13]
कर्नाटक सरकार के प्रयास से संग्रहालय में तब्दील उस घर का दौरा करने के बाद संगीत रसिक अरुंधति गोयल ने तफ़सील से आँखों देखा हाल बयान करते हुए लिखा है,
‘गंगूबाई हंगल के घर के बाहर ही लगे नामपट्ट पर लिखा था-‘गंगोत्री’, डॉ. गंगूबाई हंगल की जन्मभूमि’. घर के छोटे से बरामदे में कोकम सुखाने के लिए रखा गया था. घर के प्रवेश द्वार की ओर बढ़कर मैंने देर तक दरवाजा खटखटाया और कुछ समय बाद एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने दरवाजा खोलते हुए मुझे शाम पाँच बजे फिर से आने के लिए कहा, लेकिन थोड़ा-सा अनुरोध और कुछ मीठी बातें करने पर उन्होंने मुझे अंदर आने की अनुमति दे ही दी. भीतर प्रवेश करते ही उन्होंने घर की सारी बत्तियाँ जला दी, जिससे पूरा घर प्रकाशमय हो उठा. एक पतले से दलान, जिसमें डॉ. गंगूबाई हंगल की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगाई गयी थीं, से गुजरते हुए वे मुझे मुख्य घर तक ले गए. जो शायद कभी घर का बैठक कक्ष हुआ करता था, अब संग्रहालय में परिवर्तित किया गया था. यह पूरा संग्रहालय परिवार की सबसे प्रख्यात बालिका को समर्पित किया गया था. इस संग्रहालय के बीचों-बीच एक तस्वीर है, जिसमें गंगूबाई हंगल अपने संगीत वाद्यों के साथ गाते हुए नज़र आती हैं. यहाँ पर चारों ओर आपको उन्हीं की तस्वीरें दिखाई देती हैं. इस कक्ष के एक दीवार पर उनकी दादी से लेकर उनके माता-पिता तथा उनके पति और बच्चों तक पूरे परिवार की तस्वीरे हैं.’[14]
कर्नाटक राज्य का धारवाड़ शहर, जहाँ से सिर्फ़ गंगूबाई हंगल ही नहीं, संगीत के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त और भी अनेक गायक निकले. मसलन मल्लिकार्जुन मंसूर, पंडित भीमसेन जोशी, रमाकांत जोशी, पंडित सवाई गंधर्व, वासवराज राजगुरु-जैसे संगीत के महारथियों का जनक धारवाड़ शहर को ही माना जाता है. मध्य प्रदेश के देवास शहर में बस चुके कुमार गंधर्व भी मूलतः कर्नाटक के बेलगाम के निवासी थे, जो धारवाड़ से बहुत दूर नहीं है. धारवाड़ का पूरा वातावरण इस प्रकार का है कि संगीत के उस्ताद और श्रोता संगीतमय वातावरण का निर्माण कर उभरते हुए संगीतकारों को खिलने और अपनी महक चारों ओर बिखेरने के लिए उचित मंच प्रदान करते हैं. मराठी कविता के जनक माने जाने वाले केशवसुत उर्फ श्रीकृष्ण जी केशव दामले पाँच वर्षों तक धारवाड़ में रहे और सुप्रसिद्ध हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायक भास्कर बुवा बाखले ने सात-आठ वर्षों तक अपने शागिर्दों को धारवाड़ में संगीत की तालीम दी थी. उत्तर भारत के अनेक गायकों का धारवाड़ आना-जाना लगा रहता था, जिनमें सन् 1912 में उस्ताद रहमत खाँ के दौरे को विशेष रूप से याद किया जा सकता है. उस्ताद रहमत खाँ जब धारवाड़ आये, तो यहाँ के माहौल से बेहद मुतास्सिर हुए और यहीं रहने का फैसला किया. सन् 1931 में उन्होंने यहाँ ‘भारतीय संगीत विद्यालय’ शुरू किया था, जो आज तक न केवल कामयाबी से चल रहा है, बल्कि संगीत प्रेमियों को धारवाड़ की ओर आकर्षित भी कर रहा है. सन् 1895 में धारवाड़ में ‘मित्र समाज’ नाम का एक सामाजिक क्लब स्थापित किया गया था, जिससे निकल कर कुछ लोगों ने ‘आर्ट्स सर्कल’ नाम से एक अलग संस्था बनायी. जाने-माने कलाकारों में उस्ताद हद्दू खाँ, अल्लाउदीन खाँ, किराना घराना के उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, ग्वालियर घराने के पंडित कृष्णा राव, पंडित कृष्ण पुलांबिकर, बेलगाम के रामकृष्ण वज़े, बाल गंधर्व, सवाई गंधर्व, गोविंदराव तांबे, मुगभाई कुर्दीकर, हीराबाई बड़ौदकरके अलावा चर्चित तबला वादक अहमद जान थिरकवा, नारायणराव व्यास, भीमसेन जोशी, मल्लिकार्जुन मंसूर, बासवराज राजगुरु और गंगूबाई हंगल ने इस शहर के ‘आर्ट्स सर्कल’ में अनेक बार अपनी कला का प्रदर्शन किया.[15]
धारवाड़ के सांगीतिक इतिहास को याद करें और उस दौर के अँगरेज अधिकारी क्लेमेंट की याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है. क्लेमेंट दरअसल हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बहुत बड़ा क़द्रदान था. वह धारवाड़ शहर के लोगों को संगीत समारोह का आयोजन करने के लिए प्रोत्साहित किया करता था और अक्सर अपने प्रभाव और संपर्कों का इस्तेमाल करके बहुत सारे गायकों-वादकों को धारवाड़ बुलाता भी रहता था. अपने समय में उसने उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के बेटे, मुंजी खाँ और बुर्जी खाँ, बंदे अली खाँ, बीनकार फैयाज खाँ को बुलाकर बेहतरीन कार्यक्रम करवाया था. उन्नीसवीं सदी में संगीत की जो धारा धारवाड़ में शुरू हुई थी, वह आज एक बड़ी नदी का रूप धारण करके संगीत-गंगा के रूप में प्रवाहित हो रही है. आज यहाँ दुनिया भर से संगीत सीखने के इच्छुक लोग आते हैं. जिसे देखते हुए यह कहना शायद ग़ैर-मुनासिब नहीं होगा कि धारवाड़ के हर घर से किसी-न-किसी व्यक्ति साहित्य अथवा संगीत से जरूर कोई-न-कोई रिश्ता है. संगीत में डूबे इस धारवाड़ शहर से किसी भी क़द्रदान को जर्मनी के लाइपत्सिग (Leipzig) शहर की याद आ जाती है, जो शहर सैकड़ों सालों से संगीत की विरासत को बहुत करीन से संभालता आ रहा है![16]
जर्मनी का यह शहर लाइपत्सिग लंबे समय से आधुनिक और शास्त्रीय दोनों प्रकार के संगीत का एक प्रमुख केंद्र रहा है. विशेष रूप से ‘डार्क अल्टरनेटिव म्यूजिक’ और ‘डार्क वेब’ शैली के संगीत के लिए इस शहर को विशेष रूप से जाना जाता है. ‘द ओपर लाइपत्सिग’ को जर्मनी के सबसे प्रमुख ओपेरा हाउसों में से एक माना जाता है. लाइपत्सिग को संगीत और रंगमंच विश्वविद्यालय ‘फेलिक्स मेंडेलसोहन बार्थोल्डी’ के लिए भी जाना जाता है. सन् 1743 में स्थापित ‘लाइपत्सिग गेवांडहॉस ऑर्केस्ट्रा’ को दुनिया का सबसे पुराना सिंफनी ऑर्केस्ट्रा माना जाता है. कई कर्णप्रिय और यादगार संगीत की रचना करने वाले जोहान सेबेस्टियन बाख इसी शहर में रहते थे और इसी शहर में रहकर फ्रेडरिक शिलर ने अपनी कविता ‘ओड टू जॉय’ लिखी थी[17]
लाइपत्सिग के बारे में सोचते हुए बारहा कर्नाटक के शहर धारवाड़ की याद आती रही और धारवाड़ की सांगीतिक विरासत और परंपरा को देखने के बाद जर्मनी के लाइपत्सिग शहर की याद न आये, ऐसा कैसे हो सकता है!
गंगूबाई हिंदुस्तानी संगीत की ख़याल परंपरा और किराना घराने की गायिका थीं. ख़याल गायकी का वह एक ऐसा वटवृक्ष थीं, जिसकी छाया में संगीत की पीढ़ियाँ पलती और बढ़ती रही हैं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में आज ख़याल को ऊँचा स्थान प्राप्त है. ख़याल गायकी की शुरुआत कब से हुई इसके बारे में पक्के तौर पर हम कुछ नहीं कह सकते. ‘ख़याल’ दरअसल एक विदेशज शब्द है, जिसका मतलब होता है तसव्वुर या ‘कल्पना’ है और अगर आप ख़याल सुनेंगे, तो पाएँगे कि यह ध्रुपद से अधिक गीतात्मक है. मगर यह संदेह का विषय है कि क्या इसका संगीतात्मक रूप भी विदेशी है? संगीत के जानकारों की राय है कि असल में इसकी जड़ें प्राचीन भारतीय रूपक आलापों में है और तेरहवीं सदी के अमीर खुसरो ने भी इसे प्रोत्साहन दिया था. पंद्रहवीं सदी के सुलतान मोहम्मद शर्खी को ख़याल को प्रोत्साहित करने का श्रेय दिया जाता, बावज़ूद इसके इसे अठारहवीं सदी के उस्ताद नियामत खाँ, सदारंग और अदारंग के हाथों परिपक्वता मिली थी.
आज ख़याल जिस रूप में गाया जाता है, इसकी दो विविधताएँ हैं–धीमी लय विलंबित ख़याल और तेज या द्रुत ख़याल. रूप में ये दोनों एक समान हैं औरइनके दो अनुभाग होते हैं- स्थायी और अंतरा. विलंबित को धीमी लय में गाया जाता है और द्रुत को तेज लय से.तकनीक की दृष्टि से प्रतिपादन ध्रुपद की तुलना में कम महत्त्वपूर्ण है.अधिक कोमल गमक और अलंकरण होते हैं. दोनों प्रकार के ख्यालों के दो अनुभाग होते हैं. स्थायी और अंतरा स्थाई अधिकांशत: निम्न और मध्यम सप्तक तक सीमित रहती है. अंतरा सामान्यत: मध्यम और ऊपरी सप्तकों में चलता है. स्थायी और अंतरा मिलकर एक गीत, रचना या बंदिश बनाते हैं,जिसे हम ‘चीज़’ कहते हैं. एक समग्र कृति के रूप में यह राग के उस सार को उद्घाटित करता है, जिसमें इसे स्थापित किया जाता है. ध्रुपद की वाणियों की तुलना में ख़याल में घराने होते हैं.[18]
चूँकि गंगूबाई ने गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार पूरी निष्ठा से संगीत सीखा था, इसलिए गंगूबाई शास्त्रीय गायन में मिलावट की घोर विरोधी थीं. उन्होंने आजीवन किराना घराने की शुद्धता का पालन किया. यद्यपि वे सैकड़ों राग अधिकारपूर्वक गाती थीं, पर उन्हें भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पुरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस रागों के कारण सर्वाधिक प्रशंसा और प्रसिद्धि मिली. अपने काम के प्रति उनका समर्पण इतना अधिक था कि कई बार कार्यक्रम के समय उनका बच्चा रोने लगता था; पर वे बलपूर्वक उधर से ध्यान हटा लेती थीं. उन्होंने कई कलाकारों के साथ मिलकर आकाशवाणी की चयन पद्धति का प्रबल विरोध किया. इसलिए आकाशवाणी ने कई वर्षों तक उनके कार्यक्रमों का बहिष्कार किया, बावज़ूद इसके गंगूबाई ने आकाशवाणी के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया.[19] आकाशवाणी के बारे में अपनी आत्मकथा में गंगूबाई ने दो प्रसंगों को दिलचस्प ढंग से बयान किया है,
‘जब मैं पहली बार आकाशवाणी के कार्यक्रम में भाग लेने गई थी, तो प्रसारण के निर्धारित समय के पहले ही मैं रेडियो स्टेशन पहुँच गई. उन दिनों आमतौर पर कार्यक्रमों के रिकार्ड नहीं बजाए जाते थे, ‘सीधे’ प्रसारित होते थे. इंतज़ार वाले कमरे में मैं इंतज़ार करती रही. किसी ने मेरी तरफ तवज्जो नहीं दिया. निर्धारित वक़्त से कुछ पहले एक संगीत-निरीक्षक महोदय आवाज़ लगाते हुए प्रकट हुए, ‘गंगूबाई हंगल कहाँ हैं?’ जब मैं स्टूडियो में घुसी तो उन सज्जन ने मुझसे देरी का कारण पूछा, जबकि असल मुझे तो इंतज़ार करते-करते आधे घंटे से भी अधिक समय हो चुका था. मैंने तानपुरा उठाया और गाना शुरू कर दिया. स्टेशन निदेशक ने अपने घर पर मेरा कार्यक्रम सुनकर ड्यूटी अफसर को फोन मिलाया और कार से स्टूडियो आ गए. उन्हें मेरा कार्यक्रम बेहद पसंद आया था. उन्होंने मेरे गायन की तारीफ़ की. आकाशवाणी के फैशनपरस्त माहौल में हुबली की देहाती-जैसी दिखती महिला एकदम उलट छवि की लग रही थी.’[20]
सन् 1936 से गंगूबाई ने आकाशवाणी में गाना शुरू किया था. शुरू-शुरू में उन्हें अंशकालिक कलाकार के तौर पर पचास रूपये मिलते थे,, जो बाद में 75 रूपये हो गया, पर इससे उनके और रामन्ना के हुबली आने-जाने और होटल में रुकने का खर्च भी नहीं निकल पाता था. पर वह चूँकि सस्ती का ज़माना था और रेडियो कार्यक्रमों के साथ-साथ दूसरे कार्यक्रम भी होते थे, जिनसे उन्हें तकरीबन सवा सौ रूपये मिल जाते थे. तबले और सारंगी के संगतकारों को दस-दस रूपये देने के बाद भी उनके पास एक सौ पाँच रूपये बच जाते थे. सस्ती के उस ज़माने में यह रकम भी काफी हुआ करती थी.
गंगूबाई का स्टेज़ पर पहला कार्यक्रम बांबे (अब मुंबई) के ‘बांबे म्यूजिकल सर्किल’ में हुआ, जहाँ उस वक़्त की मशहूर गायिका और अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनबाई ने उन्हें कलकत्ते (अब कोलकाता) में हो रहे एक संगीत सम्मेलन में भाग लेने को कहा. जद्दनबाई के कहने पर जब गंगूबाई हंगल कलकत्ता पहुँची, तो वहाँ संगीत सम्मेलन के आयोजकों को उन्हें देखकर यह यक़ीन ही नहीं हुआ कि यह दुबली-पतली लड़की ढंग से कुछ गा भी पाएँगी! रामपुर घराने के बड़े कलावंत निसार हुसैन खाँ साहब ने गंगूबाई से कहा कि आयोजक आपकी निरी सादगी देख घबराए हुए हैं. निसार हुसैन खाँ साहब ने बताया कि उनके साथ भी ऐसा ही हुआ था. इस बात को सुनकर गंगूबाई थोड़ी आश्वस्त हुईं, तो खाँ साहब ने उनसे कहा कि गाओ और मुझे सुनाओ. इस पूर्वाभ्यास गायन ने उन्हें अपने संगतकारों से परिचित करा दिया. मंच पर प्रस्तुति के लिए अनुमति देने से पहले आयोजकों ने संगीत सम्मेलन से एक रात पहले उन्हें गाकर सुनाने के लिए कहा और उनका गाना सुनकर संतुष्ट होने के बाद ही अगले दिन संगीत सम्मेलन में उन्हें गाने की अनुमति मिल पायी. लब्बोलुआब यह कि पंडित सवाई गंधर्व की विनीत और सादादिल शिष्या गंगूबाई हंगल ने जब अपना गायन पेश किया, तो आयोजक परम संतुष्ट भए! यह वही संगीत सम्मेलन था, जिसके बाद गंगूबाई ने अपने जीवन में फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. कलकत्ता के इस संगीत सम्मेलन में जब उनका गायन समाप्त हुआ, तो त्रिपुरा के महाराज ने तत्काल बतौर इनाम उन्हें एक स्वर्णमुद्रा दी थी.[21]
कलकत्ता के इस संगीत सम्मेलन में भाग लेने के लिए गंगूबाई बहुत उदास मनःस्थिति में हुबली से रवाना हुई थी. क्योंकि जिस माँ ने बेटी के लिए कर्नाटक संगीत में अपने करियर को तिलांजलि दे दी और गंगूबाई को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलवाने के लिए लाखों के बोल सहे थे, वह माँ बेटी की कामयाबी को देखने के लिए अब इस दुनिया में नहीं थी. इस संगीत सम्मेलन में गंगूबाई बार-बार माँ अंबाबाई को याद कर ही थीं. वह जब अच्छा गाती थीं, तो उनकी माँ अंबाबाई पीछे से आतीं और उनके कंधे पर हाथ रखकर शाबाशी देती थीं. पर अब गायन की समाप्ति के बाद ऐसी शाबाशी कौन देगा? कलकत्ता में अपना गाना ख़त्म करने के बाद गंगूबाई यही सोच रही थी कि किसी ने बिल्कुल माँ अंबाबाई की तरह उनके कंधे पर आकर धीरे से हाथ रखा. गंगूबाई ने चौंक कर पीछे देखा, तो फिल्मी दुनिया के मशहूर गायक कुंदन लाल सहगल (के.एल. सहगल) कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘बहुत ही सुरीली आवाज़ है!’[22]
सन् 1932 में माँ की मृत्यु के बाद गंगूबाई की क्या दशा हो गई थी, इसको ख़ुद उन्हीं की ज़ुबानी सुनिये,
‘माँ को पेट का अल्सर था. देर से वे ऑपरेशन के लिए गयीं. इस बीमारी से जूझते हुए उनका देहांत हुआ. अब मैं अनाथ थी. पिताजी उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए, पर माँ की मौत से लगे भारी धक्के से वे उबर नहीं सके. साल भर के भीतर वे भी हमें छोड़कर चले गए. परिवार में एक ख़ालीपन का बोध पैठ गया था. दुःख की इस विषम घड़ी में रामन्ना मेरे लिए हिम्मत का स्रोत थे. माँ की पहली बरसी के मौके पर पर दत्तोपंत ने जो मदद की थी, उसे मैं बहुत आदर से याद करती हूँ. हमारे पास रस्म के मुताबिक़ सुमंगली को देने के लिए साड़ी नहीं थी, पैसा नहीं था, तब उस मौके पर दत्तोपंत ने ही साड़ी का इंतज़ाम किया था. मानो मेरी माँ को आने वाली मृत्यु का बोध हो गया था. दो बरस पहले माँ मेरे गुरू पंडित सवाई गंधर्व के बेटे के उपनयन संस्कार में नरसोवावाड़ी गयी थी. उस समय वहाँ मौजूद पुरोहित ने माँ को छोड़ और सबका नाम लिया. माँ ने इसे अपशकुन की तरह लिया और दो बरसों के भीतर चल बसीं. दत्तोपंत और रामन्ना ने मुझे संगीत-साधना के पथ पर वापस लाने की कोशिश की. सुर मिले हुए तानपूरे के साथ दत्तोपंत और रामन्ना तबला लेकर मेरे साथ बैठते और मुझसे गाने को कहते, पर माँ की स्मृतियों से बिंधी और दुःख में डूबी हुई मैं गा नहीं पा रही थी. मेरा मन-मिजाज पूरी तरह तबाह था.’[23]
पर गंगूबाई के जीवन की परीक्षा जैसे यहीं ख़त्म नहीं हुई. पचास का दशक शुरू होते ही उनकी आवाज़ का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा था. तभी पता चला कि उनके गले में टॉसिंल्स हो गये हैं, जिसकी वज़ह से उनके गले का ऑपरेशन कराना पड़ा. ऑपरेशन सफल रहा और टॉसिंल्स की बीमारी से तो उन्हें मुक्ति मिल गयी, लेकिन इस ऑपरेशन का एक बुरा नतीज़ा यह रहा कि उनकी आवाज़ पुरुषों की तरह भारी हो गई. एक गायिका, जिसकी आवाज़ ही उसकी पूँजी होती है, उसके लिए तो यह भारी धक्के के समान था, पर हिम्मती गंगूबाई इससे निराश होने की जगह इसी भारी आवाज़ में रियाज़ करने लगी. कठिन रियाज़ की वज़ह से उनके सुर-ताल इतने के पक्के थे कि संगीत रसिकों ने उन्हें इस भारी आवाज़ के साथ भी अपना लिया.
गंगूबाई की माँ अंबाबाई के निधन से कुछ महीने पहले ग्रामोफोन कंपनी एच.एम.वी. (हिज मास्टर्स वायस) के नुमाइंदे नयी प्रतिभाओं की खोज में हुबली आये थे. ग्रामोफोन कंपनी ने अंबाबाई और उनकी बेटी गंगूबाई के साथ कुछ गाने गाने का अनुबंध किया था, लेकिन बदक़िस्मती से गाना रिकार्ड कराने से पहले ही अंबाबाई का निधन हो गया. अग़र गंगूबाई की तरह अंबाबाई के गीत भी रिकॉर्ड रिकार्ड हो जाते, वे रिकॉर्ड आज भारतीय संगीत रसिकों के लिए बहुत मूल्यवान निधि होती. अंबाबाई के निधन हो जाने के बाद गंगूबाई माँ के बिना रिकार्डिंग के लिए दत्तोपंत और रामन्ना के साथ हुबली से बंबई पहुँची. गंगूबाई कहती हैं, ‘मेरे पास बंबई जाने लायक ढंग के कपड़े-लत्ते भी नहीं थे. गुरू जी पूना में थे, सो, उनसे मिलने के लिए हम पूना रुक गए. मैंने अपनी पसंद के गाने गुरूजी के सामने गाये. पुराने परिचित एक सज्जन चिंतोपंत गुराव ने मेरी ओर नजर फेर कर तंज़ किया, ‘पूना-बंबई में नयी आयी लगती हो.’ साफ़-साफ़ यह तंज़ मेरे साधारण कपड़ों और वैसे ही तौर-तरीकों को लेकर था. जवाब में सिर्फ ‘हाँ’ कहते हुए मैं हँसी. लोगों के किसी तीख़े तंज़ पर भी हँसना और कभी-कभार ख़ुद पर हँसना बाद में मेरे स्वभाव की विशेषताओं में शामिल हो गया.’[24]
अपने कई साथी कलाकारों के बारे में गंगूबाई ने कुछ रोचक प्रसंगों का वर्णन किया है. मसलन कुमार गंधर्व के बारे में वे कहती हैं, ‘कुमार छुटपन से ही उस्ताद गायकों की नकल करने में माहिर था. एक दिन बंद कमरे के भीतर वह पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की शैली में गा रहा था. नकल इतनी अद्भुत थी कि आयोजकों में से एक जन आये और दरवाज़ा खटखटाने लगे, ‘पंडित जी, अभी मंच पर आने की आपकी बारी नहीं है.’ कुमार ने दरवाज़ा खोलते हुए फरमाया, ‘पंडित जी तो यहाँ नहीं हैं.’ अब वे सज्जन तो गड़बड़ा गये और इधर हमारे हँसी के फव्वारे छूट पड़े.
गया में दूसरी बार 1943 के एक संगीत सम्मेलन में मैंने हिस्सा लिया. मुझे इस सम्मेलन का एक दिलचस्प वाकया याद पड़ता है. उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ, दिलीपचंद्र वेदी, बड़े गुलाम अली खाँ साहब जैसे नामचीन उस्ताद इस सम्मेलन में शिरकत रहे थे. मुझे अपनी प्रस्तुति के लिए सिर्फ पंद्रह मिनट ही मिले थे. गाने के लिए इतने कम वक़्त मिलने से मैं इतनी निराश थी कि मेरी आँखों से आँसू छलक पड़े. बगल में बैठे उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ ने मुझे ढांढस बँधाते हुए कहा, ‘इतना काहे घबरा रही हो? पंद्रह मिनट में तुम श्रोताओं पर अपने गायन का जादू डाल सकती हो.’ वहाँ मैंने राग बसंत में ‘पिया संग’ बंदिश गायी. मेरे साथ वॉयलिन पर पंडित वी. सी. जोग साहब थे. श्रोता मुग्ध हुए. अगली शाम को चाय-पार्टी थी. मुझसे गाने को कहा गया पर मेरा मन नहीं था. तब बड़े गुलाम अली खाँ साहब ने कहा, ‘तुम भी गाओ बेटी, फिर हम भी गायेंगे.’ मैंने तानपुरा लिया और विस्तार से राग शुद्ध कल्याण गाया. श्रोताओं की प्रसन्नता ने मुझमें भी खुशी भर दी. यों गया संगीत सम्मेलन की सुहानी यादें आज भी मेरी स्मृति में सुरक्षित हैं.’[25]
उनके साथी कलाकारों ने भी इसी तरह उन्हें अपनी स्मृतियों में सुरक्षित रखा. उनके सहज नारीत्व और सुघड़ गृहिणी रूप में बारे में सुप्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर कहते हैं,
‘जिस गायिका ने मुझसे हद से ज़्यादा प्रभावित किया है, जिन पर मुझे अत्यंत श्रद्धा है, वह हैं श्रीमती गंगूबाई हंगल. एक बार मैं हुबली में उनके घर पर मिलने गया. मेरे साथ उस्ताद अल्लारक्खा खाँ भी थे. देखता क्या हूँ कि ठेठ मराठी शैली में साड़ी पहने गंगूबाई हमारे खाना बना रही हैं. गोभी की सब्जी और रोटी. उनके इस रूप को देखकर कौन कहेगा कि वे उच्चतम शिल्पी हैं? कैसा विनयशील व्यवहार. इतनी बड़ी गायिका और सीधी-सादी ग्रामीण औरत की तरह वे चौके में हमारे लिए खाना बना रही थीं. उस दिन उनके चेहरे पर अद्भुत चमक थी. हमने जब उनके खाने की तारीफ़ की, तो विनय से दोहरी हो गईं.’[26]
‘किराना घराना’ के उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के शागिर्द पंडित सवाई गंधर्व से संगीत सीखने वालों में गंगूबाई के साथ महान गायक पंडित भीमसेन जोशी भी थे. भीमसेन जोशी, गंगूबाई को अपनी बड़ी बहन मानते थे. जब उन्हें भारत रत्न अवार्ड मिला,तो गंगूबाई हंगल ने कहा कि वहइस सम्मान के वास्तविक हक़दार थे और अपने मुँहबोले भाई को मिले सम्मान से वह बहुत ख़ुश थीं. पंडित भीमसेन जोशी ने उनसे कहा, ‘बई, असली ‘किराना घराना‘ तो तुम्हारा है, मेरी तो किराने की दुकान है!‘
जब शास्त्रीय गायिका सिद्धेश्वरी देवी बीमार हुईं और उन्हें लकवा मार गया, तो मिज़ाजपुर्सी के लिए गंगूबाई हंगल उनसे मिलने गईं. उन्होंने पूछा कि आपको किसी चीज की जरूरत तो नहीं? इस पर सिद्धेश्वरी देवी ने कहा कि मुझे राग भैरवी सुनाओ. गंगूबाई हंगल ने राग भैरवी शुरू किया. भैरवी सुनते हुए सिद्धेश्वरी देवी की आँखों से आँसू बहने लगे. क्या हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की इन दो दिग्गज गायिकाओं का यह किस्सा भर है? क्या यह किस्सा अपने समय के मर्म को नहीं बताता? क्या यह किस्सा अपने समय की गायिकाओं के बीच एक रागात्मक संबंध को चुपचाप अभिव्यक्त नहीं करता? क्या यह एक के प्रति दूसरे के सम्मान का ही सुर नहीं है? क्या यह उस समय की परतों के नीचे दबे मानवीय मूल्यों का बखान नहीं है? इस एक किस्से में कितने अनगिनत किस्से छिपे हैं. क्या हम इस छोटे से किस्से में उस समय के छिपे हुए और किस्सों को पढ़ सकते हैं? क्या गंगूबाई हंगल के गाने को सुनकर सिद्धेश्वरी देवी की आँखों में आए आँसू सिर्फ मृत्यु की तरफ सरकती एक गायिका का दर्द ही है? आखिर क्या कारण है कि सिद्धेश्वरी देवी उनसे राग भैरवी को ही गाने का कहती हैं? यह राग ही क्यों?
कहते हैं राग भैरवी अलसुबह का राग है. कोई विरल गायक या गायिका होती है, जो इस राग में छिपे उजाले को अपने सुर लगाने के तरीके से प्रकट कर देता है. जब गंगूबाई हंगल सिद्धेश्वरी देवी के सामने राग भैरवी गा रही थीं, तो क्या उस राग से फूटती कोमल किरनें सिद्धेश्वरी को डूबने से थाम रही थी? क्या यह आवाज उन्हें मृत्यु के भय से थोड़ी देर के लिए ही सही मुक्त कर रही थीं? यह होता है, और संगीत में बहुधा होता है कि कोई राग, सुर लगाने का तरीका, एक सुर से दूसरे सुर तक जाने का तरीका इतना अनूठा होता है कि उससे जो असर पैदा होता है, वह किसी भी जादू से कम नहीं होता. वह इतनी ताकत रखता है कि आप सब कुछ भूल जाते हैं.यहाँ तक कि अपने अस्तित्व को भी. यह संगीत का जादू है! गंगूबाई हंगल से ज्यादा यह कौन जान सकता है कि गाना सिर्फ रियाज नहीं आता. उसके लिए जीवन से रस लेना पड़ता है. जीवन में दुःख और त्रास सहना पड़ता है. और तब गाने में और आवाज. में वह तासीर पैदा होती है, जो सीने को चीर कक रख देती है. सिद्धेश्वरी देवी के सामने वही आवाज़ थी. गंगूबाई हंगल की वही आवाज़, जो रियाज़ से निखरी तो थी, लेकिन उसकी तासीर जीवन से बनी थी. जीवन के दुःख से, जीवन की पीड़ा से और जीवन की यातना से बनी थी.[27]
किराना घराने की परंपरा को एकदम शुद्धतम रूप में बरकार रखने की हिमायती गंगूबाई ने इस घराने की गायन शैली से जुड़ी शुद्धता के साथ किसी तरह का समझौता किए जाने के पक्ष में कभी नहीं रहीं. समय के साथ शुद्धता को लेकर उनका आग्रह इतना बढ़ता चला गया कि सन् 1945 तक तो गंगूबाई ख़याल, भजन तथा ठुमरियों पर आधारित देश भर के अलग-अलग शहरों में कई सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ देती रहीं, लेकिन इसके बाद उन्होंने उप-शास्त्रीय शैली में गाना एकदम बंद कर दिया. इसलिए सन् 1945 तक की गंगूबाई की गायकी का एक अलग रूप है और सन् 1945 के बाद की गंगूबाई की स्वर-यात्रा बिल्कुल अलग है! सन् 1945 से पहले वे ऑल इण्डिया रेडियोकी एकनियमित आवाज़ तो थी ही, इसके अलावा वे भारत के कई उत्सवों-महोत्सवों में गाने के लिए बुलाई जाती थीं. ख़ास करके बंबई के गणेशोत्सव में. माँ की मौत के सदमे से उबरने के बाद गंगूबाई को दूसरा बड़ा सदमा लगा था बेटी कृष्णा मौत से. बेटी के बारे में बात करते हुए गंगूबाई कहती हैं,
‘मेरे बिटिया कृष्णा छुटपन से ही यात्राओं में मेरे साथ रहती आई है और कार्यक्रमों में मुझे स्वरों से सहारा भी देती रही है. जब वह एकदम नादान थी, तब से उसे मुझे अपने साथ ले जाना होता था. क्योंकि उसे अक्सर पेट दर्द की शिकायत रहती थी. दर्द जल्दी ही ठीक हो जाता था, इसलिए मैंने इलाज के बारे में बहुत नहीं सोचा. जब मेरी माँ भी पेट दर्द की तकलीफ से गुजरीं और अंततः उसका शिकार हो गईं, तब से मैं कृष्णा के पेट दर्द के बारे में काफी चिंतित रहने लगी. रोज़मर्रा की चीजों के बारे में भी मैं चिंतित हो जाती हूँ. इसी कारण मैं हमेशा कृष्णा को साथ लिवा जाती थी. डर लगता कि कहीं मेरे गैर-हाजिरी में उसका पेट दर्द न उभर जाये. यों उसने संगीत कार्यक्रमों में मुझे काफी सुना और यह उसके लिए एक तरह का प्रशिक्षण था. तो इसलिए अब मुझे उसे औपचारिक रूप से पढ़ाना नहीं पड़ा. जैसे मैंने छुटपन में अपनी माँ से संगीत दीक्षा ली, उसी तरह कृष्णा ने भी छुटपन से ही मुझसे संगीत ग्रहण किया.’[28]
हरदम साथ रहने के कारण कृष्णा से उन्हें बहुत अधिक लगाव था. सन् 2004 में जब कैंसर हो जाने के कारण कृष्णा की मृत्यु हो गई, तो गंगूबाई इस सदमे से बिल्कुल टूट गई. इस घटना के बाद उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया. मंच पर भी गायन में उनका साथ देने वाली ‘संगतकार’ कृष्णा की मौत जैसे उनकी सांगीतिक यात्रा के मौत की भी सूचना थी. गंगूबाई को खुद अस्थि मज्जा कैंसर था और 2003 में वे इस बीमारी को मात देकर इससे उबर चुकी थीं. बेटी कृष्णा ने इस दौरान उनकी माँ गंगूबाई की बहुत सेवा की थी. अपने शुभचिंतकों और मित्रों के बहुत अनुरोध पर साल 2006 में गंगूबाई ने अपने संगीत के सफ़र की 75वीं वर्षगाँठ मनाते हुए अपनी अंतिम सार्वजनिक प्रस्तुति दी थी. 21 जुलाई, 2009 को 96 वर्ष की अवस्था में दिल का दौरा पड़ने के कारण विदुषी गंगूबाई हंगल का देहावसान हो गया.
गले के ऑपरेशन के बाद गंगूबाई की आवाज़ में जो एक मर्दाना मोटापन आ गया था, आगे चलकर वही उनकी गायकी का जादू बन गया. आवाज़ की ऐसी अप्रतिम लयकारी कहीं और देखने को नहीं मिलती. उनके गाए हर राग की अपनी एक अलग छटा थी, एक अलग मुकाम था. वो गाती थीं तो एक ऐसे अनिर्वचनीय समय को संबोधित रहती थीं जिसकी थाह पाना मुश्किल रहता है. किराना घराने की ख़ास शैली, तानों और मुरकियों का चमत्कारी इस्तेमाल और एक दमदार गहरी आवाज़. गंगूबाई को सुनना संगीत के एक विरल अनुभव से गुज़रना जैसा था. गंगूबाई हमेशा सादगी और प्रचार से दूर जीवन जीती रहीं और महिमा-मंडन और यश कीर्ति से कोसों आगे थीं. अपने रचना धर्म के प्रति उनकी लगन की मिसाल देखिए कि वे 94 साल की उम्र तक गाती रहीं. गंगूबाई की राग बागेश्री में गाई बंदिश में उनकी महान् गायकी की झलक दिखती है. यूँ किराना घराने की दूसरी पसंदीदा बंदिशें और राग में उनका कोई सानी न था. विदुषी गंगूबाई हंगल, पंडित सवाई गंधर्व के दूसरे योग्य शिष्य पंडित भीमसेन जोशी के साथ किराना घराने की एक ऐसी स्तंभ थीं, जिससे आती आलाप और तानों की आवाज़ ने हिंदुस्तानी संगीत के आसमान को हमेशा गुंजाए और रोमांच में हमेशा प्रकंपित रखा.
अपनी आँखें दान कर देने की घोषणा के साथ इस दुनिया से जाने वाली गंगूबाई हंगल अपने जीवन में एक खरे मानदंड, एक विरल नैतिकता के साथ रहीं और यही चट्टानी प्रयत्न उन्होंने अपनी गायकी में हासिल किया. गंगूबाई हमेशा अपनी बुलंद ठोस आवाज़ के साथ आज भी हमारी दुनिया में उपस्थित हैं! राग भैरवी, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पुरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस-जैसे रागों को अपनी आवाज़ से सजाने वाली गंगूबाई हंगल ने जीवन की अनेक बाधाओं को पार करके अपनी गायिकी को उस मुकाम तक पहुँचाया, जहाँ से उनके पिछले कल को कोई नहीं देखता, देखता है तो केवल उनकी प्रतिभा को. उनकी गायकी की शुद्धता को और किराना घराने की गायकी की ऊँचाई को. गंगूबाई की स्वर-साधना को कर्नाटक सरकार और भारत सरकार की अनेक संस्थाओं ने अनेक पुरस्कारों और सम्मान से नवाज़ा. वर्ष 1962 में उन्हें कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार दिया गया, तो 1971 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया. 1973 में संगीत नाटक अकादेमी ने पुरस्कृत किया और इसी संस्था ने 1996 में अपनी सदस्यता प्रदान की. 1997 में दीनानाथ प्रतिष्ठान का पुरस्कार, 1998 में मणिक रत्न पुरस्कार तथा वर्ष 2002 में भारत सरकार ने पद्मविभूषण सम्मान से सम्मनित किया.
तकरीबन पचास अधिक पुरस्कार प्राप्त करने वाली विदुषी गंगूबाई हंगल कई वर्षों तक कर्नाटक विश्वविद्यालय में संगीत की प्राचार्या भी रहीं. कला और संगीत में अपनी काबिलियत के दम पर महज़ पाँचवीं पास गंगूबाई को चार विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की और भारतीय संगीत में वे शायद अकेली ऐसी कलाकार थीं, जो नौ प्रधानमंत्रियों और पाँच राष्ट्रपतियों के हाथों के सम्मानित हुईं. उनकी स्वर-यात्रा इस बात का प्रमाण है कि यदि हौसला, हिम्मत, सहनशक्ति और दृढ़ संकल्प हो, तो समाज चाहे आपको जो नाम दे, आप ‘विदुषी डॉ गंगूबाई हंगल’ के नाम से जाने जा सकते हैं!
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संदर्भ
[1] http://podcast.hindyugm.com/2011/06/blog-post_05.html
[2] http://vatsanurag.blogspot.com/2013/05/blog-post.html
[3] वही
[4] http://www.udanti.com/2009/08/blog-post_5361.html
[5] http://vatsanurag.blogspot.com/2013/05/blog-post.html
[6] वही
[7] वही
[8] http://www.udanti.com/2009/08/blog-post_5361.html
[9] http://vatsanurag.blogspot.com/2013/05/blog-post.html
[10] वही
[11] वही
[12] वही
[13] https://www.deccanherald.com/content/63413/museum-memories.html
[14] https://www.inditales.com/hindi/dr-gangubai-hangal-hubballi-dharwad
[15] https://www.speakingtree.in/blog/hindustani-music-in-dharwad
[16] https://www.inditales.com/hindi/dr-gangubai-hangal-hubballi-dharwad
[17] https://www.britannica.com/place/Leipzig-Germany
[18] http://ccrtindia.gov.in/hn/music_hindustaniclassicalmusic.php
[19] https://vskjaipur.org
[20] http://vatsanurag.blogspot.com/2013/05/blog-post.html
[21] https://hindi.thebetterindia.com/12153/gangubai-hangal-hindustani-classical-music-padma-bhushan/
[22] वही
[23] वही
[24] http://vatsanurag.blogspot.com/2013/05/blog-post.html
[25] वही
[26] महिला संगीत अंक (संगीत पत्रिका), जनवरी-फरवरी 1986, पृ.170
[27] व्यास, रवींद्रः https://hindi.webdunia.com
[28] http://vatsanurag.blogspot.com/2013/05/blog-post.htm
पंकज पराशर |