गौरव गुप्ता की कविताएँ
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1.
छूटना
मैं उदास इसलिए नहीं रहा कि
मुझे प्रेम नहीं मिला
मैं उदास इसलिए रहा कि मैंने
जिसको भी दिया प्रेम
लगा कम ही दिया
किसी का माथा चूमते वक़्त लगा कि
उसके होंठों को चूमना छूट गया
किसी के होंठ चूमते वक़्त लगा
शायद घड़ी भर और वक़्त मिलता तो,
चूम लेता उसकी आंखें,
सोख लेता उसका दुःख
जो उसके आँखों के नीचे जमा बैठा था.
किसी से जब सब कुछ कहा
लगा कि चुप्प रहकर साथ चलना छूट गया
किसी के साथ घण्टों चुप्प बैठा तो
उसके कांधे पर सिर रख
‘मैं तुम्हारे गहन प्रेम में हूँ’ कहना छूट गया.
इस तरह हर बार प्रेम करते वक़्त
कुछ न कुछ छूटता रहा
और हर बार उसके दूर चले जाने पर लगता रहा
जितना भी किया प्रेम, कम ही तो किया
जिसे भी दिया प्रेम, कम ही तो दिया.
२
मैं कवि था
मैं गड्ढे में धकेल दिया गया
पर मैंने कहा विश्वास करो
मैं छ्ला गया
पर मैंने कहा प्रेम करो
जब कोई जा रहा था
मैंने उसके लौटने का इंतज़ार किया
बहुत अंधेरे दिनों में
मैंने रौशनी की तलाश की
पीड़ा के क्षणों में मैंने
कविताएँ लिखीं
जब सुख के क्षण थे
मैंने उसे फोन लगाया
पर कोई उत्तर नहीं पाया
उसके बन्द दरवाज़े से हर बार
चुपचाप लौट आया.
सबने पूछा-
पूरी जिंदगी तुमने क्या किया
मैं कवि था
सिवाय इन सब के
आखिर मैं कर भी क्या सकता था?
3
एक ही शहर में
बहुत बड़ी नहीं थी दिल्ली
यहाँ एक छोर से दूसरी छोर को लांघ सकने के लिए पर्याप्त सवारियां भी थीं
एक दूसरे से टकरा जाने की पर्याप्त सम्भावनाएं भी.
मेरी आँखें ढूंढ़ती रहती थी उसे
जैसे ढूंढता है कोई बच्चा
खोया हुआ सिक्का
तड़पता हुआ, बेचैन सा
डबडबायी आँखों से.
कई बार बेवजह भटका हूँ मैं ताकि
मिल जाए कहीं वो
डीटीसी बस की आखिरी सीट पर बैठी
या मेट्रो की लेडीज कम्पार्टमेंट में चढ़ते हुए
या किसी शांत दुपहर में अकेली
इंडियन कॉफी हाउस की छत पर
या दिल्ली की सड़कों पर गुलमोहर चुनते हुए
और, एक रोज मिलना हुआ
दो विपरीत दिशाओं में आती जाती मेट्रो के गेट पर खड़े थे हम दोनों.
नहीं, वह उदास नहीं थी
शाम ऑफिस से लौट रही थी शायद,
मेट्रो की भीड़ में खड़ी अपनी जगह बनाते हुए
किसी लेडीज कम्पार्टमेंट में नहीं,
पुरुषों की भीड़ के बीच
हाथ में काला बैग, पानी की बोतल से गला तर कर रही थी.
वह मुझे देखी
उसकी पुतलियों में हलचल हुई
पर उसके होंठ चुप रहे
उसके बाल खुले और आज़ाद थे,
गर्दन पर पसीने से चिपके हुए
उसकी आँखें थकी हुई थीं
और पहले से ज्यादा सुंदर.
दरवाज़ा बंद होते ही
मेट्रो ने रफ्तार पकड़ लिया था…
एक दूसरे को एकटक देखते हुए
हमलोग एक दूसरे से दूर जा रहे थे.
उस रोज
दिल्ली की सड़कों पर चलते हुए महसूस हुआ,
दिल्ली में खो जाने के लिए पर्याप्त जगहें भी हैं.
किसी भीड़ में उसका मेरे पास से बेखबर गुजर जाने के लिए पर्याप्त भीड़,
पल भर में किसी के आंखों के सामने से ओझल हो जाने लिए पर्याप्त रफ्तार,
उसका नाम पुकारूँ और उसके न सुन सकने के लिए पर्याप्त शोर.
एक ही शहर में रहते हुए
हम दो अलग अलग शहर के लोग थे.
4
मैं बचा रहूँगा तुममें
तुम भले ही
दरवाज़ा बन्द कर दो
खिड़कियों के काँच को पर्दे से ढंक दो
मेरे भेजे उपहार को म्युनिसिपालिटी के कूड़ेदान में डाल आओ
चिट्ठियों को सर्दियों के अलाव में ताप जाओ
अपने शरीर से रगड़ कर साफ कर दो मेरे चुम्बन के निशान
इन सब के बावजूद मैं लौटता रहूँगा तुम तक
बार-बार
नींद का स्वप्न बन
सिवाय गहरी नींद से उठ जाने के तुम्हारे पास कोई तरकीब नहीं है मुझसे दूर चले जाने की
और तुम असहाय महसूस करोगी उस क्षण किसी स्लिप पैरालिसिस की रोगी की तरह
तुम्हारी जिंदगी में मेरी उपस्थिति के सभी निशान
मिटा देने के बाद भी
मैं बचा रहूँगा तुममें
जैसे बचा रह जाता है सड़कों पर, वहाँ गुजरे यात्रियों के पैरों के निशान
मेरे होंठों ने चखे है तुम्हारी आत्मा का स्वाद
वहाँ नहीं पहुंचता दुनिया की किसी साबुन का झाग
घण्टों सावर के नीचे बिताने की कोशिशें तुम्हारी होंगी नाकाम
तुम भले ही
मेरी आवाजें व्हाट्सअप नोट्स से डिलीट कर दो
मेरी तस्वीरें फोन गैलेरी से ख़ाली कर दो
तुम्हारी आँखें अब भी मेरी तस्वीरों को पहचानने से नहीं कर सकती इनकार
मैं गूंजता रहूँगा तुम्हारी उदासियों में,
तुम्हारी आत्मा ने सोखी हैं मेरी आवाजें
मैं पड़ा रहूँगा तुम्हारे मन के रिसाइकिल बिन में
रिस्टोर की इच्छा से लबालब.
मृत्यु सबकुछ खत्म कर सकती है सिवाय कहानियों के
और मैं वह कहानी हूँ
जिसे तुमने अपनी नींद में भी दोहराया है.
5
अलविदा
जब भी
अलविदा लिखने के लिए लिखा ‘अ’
हाथ काँपने लगें
“अ” के अकेलेपन को हर बार बदलकर “आ” किया
और पूरा किया वाक्य “आ जाओ”
पर
तुम कभी नहीं आयी
और
मैं कभी नहीं लिख सका अलविदा.
6
चुप्पी
अगर
उग आया है शिकायतों का पहाड़
तो किसी ज्वालामुखी की तरह उसे फट पड़ने की जगह दो
अगर बातों का बादल घुमड़ रहा है मन के ऊपर
तो बरस जाने दो
मैं था
मैं हूँ
मैं रहूँगा
पर चुप्प मत रहो, मेरी दोस्त
शिकायतों की आग जलायेगी मेरी चमड़ी
पर मैं तब भी जीवित रहूँगा
बातों की बारिश में भीग बीमार पडूंगा
पर हृदय धड़कता रहेगा
पर तुम्हारी चुप्पी,
तुम्हारी चुप्पी किसी नुकीले चाकू की तरह धसती चली जाती है मन पर
रिसता रहता है खून धीमे धीमे
और मैं मर रहा होता हूँ
मेरी इस मृत्यु यात्रा को स्थगित करो, मेरी दोस्त
मुझे आवाज़ दो
चुप्प मत रहो.
7
इसलिए लिखता हूँ कविताएँ
एक
मैं वहाँ नहीं हूँ जहाँ मुझे ठीक ठीक होना चाहिए.
यह सोचते-सोचते एक सूची बनाता हूँ. और पाता हूँ मैं कई जरूरी जगहों पर नहीं हूँ. जैसे मुझे पिता के पास होना चाहिए वे थके हुए हैं. मुझे माँ के पास होना चाहिए वे रसोईघर में सदियों से पड़ी हैं.
मुझे प्रेमिका के पास होना चाहिए वह अकेली अनजान शहर में है
मुझे दोस्तों के पास होना चाहिए वे इंतज़ार में है
इस तरह सूची बढ़ती जाती है
और एक छोटे कमरे से लेकर संसार तक फैल जाती है
मैं इन जगहों पर एक वक्त में कभी नहीं हो पाता हूँ
इसलिए लिखता हूँ कविताएँ
और हर जरूरी जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हूँ.
दो
बहुत बोलने की इच्छा के समय बिल्कुल चुप्प रह जाना चाहता हूँ.
बहुत बेचैनी को भाग कर नहीं, किसी पार्क की बेंच पर बैठकर महसूस करता हूँ.
खुद को भीड़ से साबूत बाहर निकाल लाता हूँ, और अपने एकांत में चाय की घूँट लगाता हूँ.
बुरे समय में कहता हूँ, गुजर जाएगा. और सबसे अच्छे समय को बांध कर नहीं रखना चाहता.
जीवन कितना सुंदर है इस बात को प्रेम करके महसूस करता हूँ.
कुछ खूबसूरत शब्दों को सिंदूरी शाम के वक़्त हथेलियों में ले उछालता हूँ.
लिखता हूँ वो सब कुछ,जिसे कहने का दूसरा खूबसूरत जरिया ढूंढ नहीं पाया.
8
याद
मुझे
दिन, तारीख़, साल याद नहीं
याद है बस इतना
जब हम मिले थे
सर्दियों की धूप खिली थी.
और
जब तुम गयी
आसमां में अंधेरा छाया रहा देर तक
रात भर बारिश हुई थी,उस रोज़
बस इतना याद है.
9
अवसाद के दिन और उसके बाद
उनींदीं आंखों में
जैसे किसी ने राख मल दी हो
एक लंबी नींद जैसे सदियों पुरानी बात लगती है.
इन दिनों
जैसे सीने को धर दबोचा है
किसी भेड़िए के पंजे ने
गर्दन पर लटकती रहती है हर वक्त एक अदृश्य तलवार
वक़्त-ब-वक़्त गला सूखने लगता है
पुकारना चाहता हूँ मदद के लिए जोर से
गले से निकलती है
घिघियाती बिल्ली सी आवाज़
एक युद्ध जैसे हर वक्त लड़ रहा हूँ मैं
मेरा कमरा मेरा बंकर जान पड़ता है
बाहर से भागकर छिप जाता हूँ
अब मैं यहाँ हर हमले से सुरक्षित हूँ
दिमाग में बजती रहती है हर वक्त
मधुमक्खी की भिनभिनाहट
दरवाज़े पर टांग दिया है एक नोट-
‘यहाँ अब कोई नहीं रहता’
मेज़ पर दवाइयों की ढेर है
शराब से गटकता हूँ गोली
और नींद का इंतज़ार करता हूँ
पहला विश्वास प्रेमिका पर किया,
फिर दवाइयों पर,
फिर दुआओं पर,
पर वही धोखा हर बार की तरह.
रोशनी चुभती है
अंधेरा डराता है
भीड़ पसन्द नहीं मुझे
अकेलापन काटने दौड़ता है
अपने ही दिल की आवाज़ सुनता हूँ,
नसों में दौड़ते खून को महसूस करता हूँ.
न जाने वो कौन है जो मुझे बार-बार घसीटता है मृत्यु के दरवाज़े पर
उससे अपना हाथ छुड़ा मैं भागता फिरता हूँ
आईने के सामने घण्टों बैठ चिल्लाता हूँ
मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ
पर यह सब कुछ कहाँ खो जाता है?
और मैं हर बार बिस्तर पकड़ लेता हूँ
अवसाद के बाद
एक उजला दिन
उग आया तेज़ तूफ़ान और बरसात के बाद
शहद जैसी मीठी धूप
तलुओं पर चिपक गयी
मैं मुस्कुराता रहा
ख़ुद पर देर तक
अब ठहरने लगा हूँ
अंदर और बाहर
जब रोशनी अंदर हो
तो बाहर का अंधेरा डराता नहीं
मेरे छोटे कमरे का आयतन
मेरा दम नहीं घोटता
अब जोर से साँस भरता हूँ.
फोन की अनजान घण्टी
मेरे चेहरे का रंग नहीं बदलती
अब भीड़ में जोर की प्यास नहीं लगती
कंठ नहीं सूखता
अब अपनी ही चुप्पी चुभती नहीं
छाती का पहाड़ पिघलने लगा है
पुराने ख़तों को देर तक पढ़ता हूँ
अब पुरानी स्मृतियां से समयानुसार लौट आता हूँ.
बुरी स्मृतियों को कह देता हूँ-
मैं व्यस्त हूँ…
अब वे मेरे कमरे में जबरदस्ती नहीं घुसते.
अब लिखता हूँ…
मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ,मैं ठीक हूँ.
और ताज्जुब की बात है
ये शब्द अब खोते नहीं
गूंजते रहते हैं मेरे ही अंदर
एक मीठी धुन की तरह
और,
मेरी छाती में
बोगनबेलिया का सुगंध भर रहा होता है.
गौरव गुप्ता तुम्हारे लिए’ शीर्षक से कविता संग्रह प्रकाशित. |
अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं गौरव
निसंदेह यह अनोखा कवि है , शुरू की तीन कविताओं में मुझे वे मुहावरे और बिंब दिखे जो मुक्तिबोध की कविताओं में विषय के प्रति वांछित आवेग और बेचैनी से आते थे । एक टर्म है ” व्याकुल उदासीनता ” , मुझे इस कवि के भीतर वही भाव देखने को मिले हैं । गतिमान समय की समग्रता को ईमानदारी और संवेदना के साथ इस कवि ने एक नई शैली के अनुशासन के साथ ग्राह्य किया है । इस कवि के परिचय और उसके रेखांकन को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं । आपके इस महत्वपूर्ण उपक्रम के लिए आपको बधाई देता हूं ।
प्रिय अरुण जी, आप जिस तरह लगातार नायाब चीज़ें ढूँढ ढूँढ कर हमलोगों को पढ़वा रहे हैं उसके लिए सदैव आपका कृतज्ञ रहूँगा।इस मुश्किल समय में आप बहुत सहूलियत दे रहे हैं जिसके लिए हिन्दी समाज आपका ऋणी रहेगा।शुभकामनाओं के साथ।
अच्छी कविताएं 🌿 गहन संवेदना की वैयक्तिक कविताएं 🌿
इनमें वह पीड़ा जनित वह आवेग है जो कविता के पास व्यग्रता से ले जाता है। आरंभ की सात-आठ कविताएँ अधिक प्रखर हैं। भाषा अपना काम करती है, ये साक्ष्य हैं। बधाई और शुभकामनाएँ।
आज की सुबह समालोचन पर प्रेम कविताएँ पढ़ते हुए बीती।गौरव गुप्ता के दिल से लिखी गयी इन कविताओं में प्रेम की सघन अनुभूतियों की विरल अभिव्यक्ति है। इतनी सहज एवं भावपूर्ण व्यंजना से भरी ये कविताएँ हमें सम्मोहित कर एक अलग संसार में ले जाती है।कवि एवं समालोचन को बधाई एवं शुभकामनाएँ !
1 छूटना
इस कविता में प्रेम देने और लेने का विस्तार किया गया है । कुछ कुछ कुमार अंबुज की कहानी माँ की याद दिला गया । मुझे इतनी समझ नहीं है कि क्या लिखा जाये । इतना तो लिख ही देना चाहिये कि कवि गौरव गुप्ता ने दोस्ती को प्रेम में बदलने के लिये टूटकर लिखा है । प्रेम की परिणति कार्यान्वयन तक न पहुँचे तो कोरी लफ़्फ़ाज़ी है । प्रेम की अंतिम अवस्था करुणा है । यहाँ पहुँचकर व्यक्ति जीव और अजीव के लिये, समूचे अस्तित्व के लिये प्रेममय हो जाता है । हम बता भर दे रहे हैं । घर के बर्तन धोते समय कोमलता छलकती है । फ़र्श पर पोंछा लगाना हो, डस्टिंग करनी हो या अख़बार पढ़ना; ऐसे सभी कार्य उन्हें सजीव मानकर करेंगे तो जीवन सँवर जायेगा ।
2 मैं कवि था
प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, आपने भूमिका में प्रतिरोध लिखा । प्रतिशोध से शतांश पीछे । जहाँ कटुता नगण्य रह गयी । फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पुस्तक सारे सुखन हमारे पढ़ी हुई है और मेरे पुस्तक संग्रह में है । उन्होंने देश से मोहब्बत की । सच को सच कहा । दुख झेला । शब्द कवि की ताक़त है ।
विश्वास में प्रेम की मिठास है । धकेला जाना नसमझी है । फिर से उठ खड़े होना आशा को ज़िंदा रखता है । आशा विश्वास में बदलकर अंतिम लक्ष्य की तरफ़ ले जाती है । मैं इसे मुक्ति नाम दूँगा । यह मेरा दृढ़ प्रतीति है । ‘अँधेरे में रोशनी की कविताएँ लिखीं ‘ बख़ूबी लिखा । एक प्रतिष्ठा प्राप्त कवि अपनी एक कवयित्री मित्र को तवज्जो देते हैं । जबकि उनके लेखन में ऐसा तत्व निहित नहीं है कि उल्लेख किया जाये । बहरहाल, तीन बार फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजी । मैं निष्ठुर नहीं हूँ । 2 मैं कवि था
प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, आपने भूमिका में प्रतिरोध लिखा । प्रतिशोध से शतांश पीछे । जहाँ कटुता नगण्य रह गयी । फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पुस्तक सारे सुखन हमारे पढ़ी हुई है और मेरे पुस्तक संग्रह में है । उन्होंने देश से मोहब्बत की । सच को सच कहा । ‘अँधेरे में रोशनी की कविताएँ लिखीं ‘ बख़ूबी लिखा । एक प्रतिष्ठा प्राप्त कवि अपनी एक कवयित्री मित्र को तवज्जो देते हैं । जबकि उनके लेखन में ऐसा तत्व निहित नहीं है कि उल्लेख किया जाये । बहरहाल, तीन बार फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजी । मैं निष्ठुर नहीं हूँ ।
ऐसे ही एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । मेरी टिप्पणी को पढ़ा तक नहीं । तोहमत लगा दी । विज्ञान व्रत लिखते हैं
जुगनू ही दीवाने निकले अँधियारा झुठलाने निकले ऊँचे लोग सयाने निकले महलों में तहख़ाने निकले वो तो सबकी ही ज़द में था किसके ठीक निशाने निकले आहों का अंदाज नया था लेकिन ज़ख़्म पुराने निकले जिनको पकड़ा हाथ समझकर वो केवल दस्ताने निकले
अच्छी कविताएं। गौरव को पहले भी पढ़ा हूँ।निरंतर अच्छा लिख रहे हैं।
3 एक ही शहर में
दिल्ली मुसाफ़िरों का महानगर है । मेट्रो इस शहर की नयी पहचान । कवि मेट्रो स्टेशन पर ही छला गया । ‘चंद रिश्तों के हम खिलौने हैं
वरना सब जानते हैं कौन यहाँ किसका है’ । गौरव जी वही हुआ जो होना था । रेल ही नहीं छूटी मानो ज़िंदगी छूट गयी हो । यार न दिखता तो अच्छा था । नये ज़ख़्म दे गया । खुले हुए काले बाल और मिनरल वाटर की बोतल लेकर दोस्त दिखा और छूट गया । ज़िंदगी रूठ गयी । चलती का नाम गाड़ी है । अपन भी रुख्सत कर जाएँगे । ग़म न करो ।
व्याकरण एवं वर्तनी की कुछ भूलें हैं शायद. कवि और संपादक दोनों से गुज़ारिश है कि सुधार लें. समालोचन जैसे स्तरीय प्लैटफॉर्म पर यह ठीक नहीं.
एक अज़ीब तरह की मर्दाना ज़बर्दस्ती है इन कविताओं में। जैसे ‘मैं बचा रहूंगा तुममे’ कविता को ही देख लें। पूरी प्रक्रिया क्या है। आखिर प्रेमिका प्रेमी के हर निशान, हर याद क्यों मिटाना चाहती है? तिस पर प्रेमी कवि की जिद है कि – “तुम भले ही
दरवाज़ा बन्द कर दो
खिड़कियों के काँच को पर्दे से ढंक दो
मेरे भेजें उपहार को म्युनिसिपालिटी के कूड़ेदान में डाल आओ
चिट्ठियों को सर्दियों के अलाव में ताप जाओ
अपने शरीर से रगड़ कर साफ कर दो मेरे चुम्बन के निशान
इन सब के बावजूद मैं लौटता रहूँगा तुम तक
बार-बार
नींद का स्वप्न बन
सिवाय गहरी नींद से उठ जाने के तुम्हारे पास कोई तरकीब नहीं है मुझसे दूर चले जाने की
और कविता के आखिर में कवि का मर्द प्रेमिका की नींद हराम करके उसे पैरालिसिस रोगी की तरह मजबूर कर देता है। वह कहता भी है – “और तुम असहाय महसूस करोगी उस क्षण किसी स्लिप पैरालिसिस के रोगी की तरह”
यहां मैंने सिर्फ़ एक कविता का उदाहरण दिया है जबकि उनकी अधिकांश कविताओं में ऐसी पंक्तियां हैं। गौरव गुप्ता अपनी प्रेम कविताओं में खुद को महान प्रेमी, और त्याग का देवता बनाने की कवायद करते हैं लेकिन उनकी लैंगिक राजनीति उन्हें पूरी तरह से उघाड़कर रख देती है।
मेरा कमेंट थोड़ा सख्त हो सकता है लेकिन युवा कवि गौरव को अपनी लैंगिक समझ और जीवन पर काम करने की ज़रूरत है.
समय, समाज जीवन के संवेदनशील पहलू को निबद्ध करते हुए। एक एक शब्द खनकते हुए से।
कविताई फॉर्म सुदृढ़ है कवि के पास। बहुत बधाई।
4 मैं बचा रहूँगा तुममें
गौरव जी गुप्ता आप उठ खड़े होवो । अपना अस्तित्व बचाये रखने वालों की दुनिया क़द्र करती है । हे तुलसीदास साँप को रस्सी समझकर रोशनदान से पत्नी के कक्ष में मत जा घुसो । करारा उपालंभ मिलेगा । अपनी क़ाबिलियत साबित करो । रामचरितमानस लिख डालो । सोलहवीं शताब्दी का ग्रंथ उत्तर भारत के घर-घर में पढ़ा जाता है । मानस का प्रभाव इतना है है रामलीला में मुसलमान पात्र राम और लक्ष्मण बनते हैं । कई मुसलमान राम, लक्ष्मण, सीता और भरत-शत्रुघ्न के शृंगार के वस्त्र बनाते हैं । एक-दूसरे से मिलते हुए राम-राम का अभिवादन करते हैं ।
अच्छी कविताएँ
बहुत अच्छी कविताएं हैं। गौरव जी को जितना उनकी पोस्ट के माध्यम से जानता हूँ और समझता हूँ कि जीवन के प्रति उनकी दृष्टि कितनी उदार है, उन सभी भावों का निचोड़ हैं ये कविताएं।
मुझे लगता है प्रेम की गहराई दिन ब दिन कम होती जा रही है ।
ये केवल प्रेम कविताएँ नहीं हैंबल्कि इस बहाने अपने महानगरीय समय को पहचानने और परिभाषित करने की एक कोशिश है,पहल भी।यह किसी भी कवि से पहली अपेक्षा यूँ भी रहती है।
तमाम तरह की हर पल आती जाती और घटती जाती चुनौतियों के बावजूद इस कवि में जबरदस्त आत्मविश्वास है।अनुभवों की वह जमीनी ऊष्मा और उदासी भी जो हमारे जीने की स्वाभाविक शर्तों की पहचान कराती है।
यहाँ केवल प्रेम नहीं है,एक उत्तरदायी जीवन और उसकी सजगताएं भी हैं।
गौरव की संवेदनाएं ही नहीं उनका बिम्ब संसार भी बेहद तरोताज़ा और सटीक है ।कहीं कहीं यह सटीकता चूकी भी है ।शायद उनका ध्यान कभी इस पर जाए।
तथापि वे अपनी इन कविताओं के लिए शुभकामना के योग्य हैं।
बहुत प्रेम और अर्थबोध में डूबी कविताएँ, अलविदा में तो कवि ने शब्दों के माध्यम से अद्भुत कौतुक पैदा करते हुए छोटे से विन्यास के प्रसार में कविता को उत्कर्ष दिया है !
छूटना कविता में कवि ने प्रेम में छूट गई क्रियाओं, चीजों के जिक्र के साथ प्रेम में छोड़ देने की विविधा प्रसंग को उठाते हुए अनेक पक्ष छुए है!
प्रेम को नए तेवर और नयी शब्दावली में पढ़ने का अपना सुख है। एकदम टटका छुअन है इन कविताओं में। गौरव को बधाई।
यादवेन्द्र
प्रेम का जो निजी, एकांतिक और अव्याख्येय संसार है, गौरव की कविताओं से उसका संपर्क सूत्र हासिल हो रहता है. प्रेम में रचे और बुने तर्कों, युक्तियों की स्मृति को लिखना भी एक कविता ही होती है पर इन्होंने ऐसी गद्य पंक्तियां निरूपित की है कि छूटे हुए प्रेम के प्रति फिर से एक आस्था जगती है और एक अर्थ में वह कुछ कुछ लोकोन्मुख भी होते जाता है.
बढ़िया कविताएं.
कवितामें तृप्ती है । वह तो कविता कर्म कभी तृप्तका कर्म नहीं बल्की इन कवितामें पर्याप्त तृप्तता है इसी लिए !
कविताओं में अनुभूति की ताजगी और जबरदस्त आवेग है।
बावजूद इसके कविताएं गलदश्रु भावुकता से मुक्त हैं।
कविता में सूचना प्रौद्योगिकी की कुछ शब्दावलियों के सर्जनात्मक प्रयोग से हिंदी की काव्यभाषा समृद्ध हुई है।
साधुवाद।
A powerful expression of the human predicament in our times !