ग़ालिब की शुरुआती शायरी पर एक अधूरी नज़र सच्चिदानंद सिंह |
अरब प्रायद्वीप से ईरान होते हुए ग़ज़ल भारत पहुंची. सदियों तक फ़ारसी हमारे मुसलमान शासकों की राजभाषा रही और उन्हीं दिनों भारत में फ़ारसी ग़ज़ल लिखने का चलन जनमा. अठारहवीं सदी से उर्दू में गज़लें लिखीं जाती रहीं हैं मगर उन्नीसवीं सदी के मध्य तक उर्दू ग़ज़ल अपने इस्तिआरा (रूपक) ईरान में खोजती रही थी.
अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के उत्तर भारत में, शाहों और सामंतों के प्रश्रय में पनपी, फ़ारसी परम्पराओं को हिन्दुस्तानी में उतारती, ग़ज़ल का जो रूमानी सह आध्यात्मिक रूप विकसित हुआ था वह उर्दू की क्लासिकी ग़ज़ल कहलाया. क्लासिकी ग़ज़ल को सामंतशाही से अलग नहीं किया जा सकता और 1857 में एकसाथ दोनों का अंत हो गया.
यूँ तो नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ देहलवी आखिरी क्लासिकी ग़ज़लगो माने जाते हैं पर दाग़ (1831-1905) का लेखन काल मुख्यतः 1857 के बाद का है. वहीं मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 के बाद बस दो ग़ज़लें लिखीं.
ग़ालिब की ग़ज़लों में फ़ारसीयत कूट कूट कर भरी थी. फ़ारसी भाषा, छंद, फ़ारसी कवि-प्रसिद्धियों के साथ-साथ फ़ारसी ग़ज़ल के रूमानी बिम्बों में रहस्यवादी अभिव्यक्ति डालने की परम्परा भी उन्होंने कायम रखी. ग़ालिब ने शुरू से, चौदह-पन्द्रह की उम्र से, अपनी ग़ज़लों को इस तरह लिखा कि वे ख़ुदा और महबूब-ए-मजाजी दोनों से मुराद रहें. लाजिम था कि उनकी ग़ज़लें दुरूह थीं; और नौजवान ग़ालिब की पहचान एक मुश्किल-पसंद शायर के रूप में हो गयी.
समय के साथ, माना जाता है, ग़ालिब की ग़ज़लें कम दुरूह हुईं. मगर उनके दीवान में 82 गज़लें ऐसी हैं जो उन्होंने उन्नीस के होने के पहले लिख दीं थीं. दीवान (अर्शी द्वारा संपादित दीवान) में कुल 234 गज़लें मिलतीं हैं. कालिदास गुप्त ‘रज़ा’ ने उनके काल-निर्णय का श्रमसाध्य कार्य किया है. रज़ा के अनुसार अपनी प्रकाशित गज़लों के 35% से अधिक ग़ालिब ने उन्नीस के होने तक लिख दिए थे. रज़ा के काल निर्णय के अनुसार, चौबीस की उम्र तक यानी 1821 तक लिखीं 136 ग़ज़लें दीवान में संकलित हैं. शुरुआती शायरी में इन्हीं ग़ज़लों की चर्चा है.
ग़ालिब ने स्वयं लिख रखा है कि वे बस मुश्किल लिख सकते हैं वरना लिख पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है.
मुश्किल है ज़बस कलाम मेरा ऐ दिल
सुन सुन के उसे सुखनवरान-ए-कामिल
आसाँ कहने की करते हैं फ़र्माइश
गोयम मुश्किल व-गर-न गोयम मुश्किल
‘मुश्किल’ शब्द कुछ स्पष्टीकरण खोजता है. एक ही बात किसी के लिए दुःसाध्य हो सकती है, किसी और के लिए सरल और स्पष्ट. ग़ालिब अपने को सामान्य से अलग मानते थे, वंश में ही नहीं, मेधा, प्रतिभा और ज्ञान में भी. युवा ग़ालिब ने अपने शे’र भी सामान्य जन के लिए नहीं लिखे थे. जन साधारण की पसंद को ग़ालिब ने हेय दृष्टि से देखा था– एक विद्वान के दृष्टिकोण से और एक कुलीन के दृष्टिकोण से भी(1).
यह एक रोचक विडंबना है कि जनसाधारण की रुचि, और समझ से वितृष्णा रखते हुए तरुण ग़ालिब ने ऐसा काव्य रचा जो सामान्य जनों की रुचि से भिन्न, और उनकी समझ के परे था; और फिर यह शिकायत भी की कि लोग उनकी शायरी को ‘बेमानी’ (निरर्थक) बताते हैं!
उनकी कुछ शुरुआती ग़ज़लों को देख यह लग सकता है कि ग़ालिब शायद चुन-चुन कर दुर्बोध शब्द लाते थे, अपने शे’रों में कुंडलित संरचना डालते थे और असामान्य भावों का विस्तार करते हुए लिखते थे. जैसे वे जान-बूझ कर कुछ अबोधगम्य लिखना चाहते हों. प्रायः ऐसी प्रवृत्ति रचनाकार की अपरिपक्वता दर्शाती है- उसकी यह समझ कि पाठक या श्रोता जितने चकित (त्रस्त?) होंगे रचनाकार उतना ही श्रेष्ठ गिना जाएगा. क्या ग़ालिब ने भी यही सोचा था? कह पाना मुश्किल है.
किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि अरबो-फ़ारसी सांस्कृतिक परम्पराओं के जितने सन्दर्भ उनकी शुरुआती ग़ज़लों में मिलते हैं उतने बाद की ग़ज़लों में नहीं मिलते. हम तीन ऐसे पारिभाषिक शब्द लेते हैं जो उर्दू में अरबी और फ़ारसी ग़ज़लों की दुनिया से आये हैं:
अंक़ा, हुमा, और सुवेदा या सुवैदा.
इनमे से कोई गुप्त या गुह्य शब्द नहीं है– फ़ारसी शायरी में इनके प्रयोग सदियों से होते रहे हैं. ग़ालिब जिनके लिए लिखते थे– अभिजात्य या आलिम– वे इन शब्दों से कभी अपरिचित नहीं रहे होंगे. फ़ारसी उनकी प्रथम भाषा नहीं तो द्वितीय भाषा अवश्य थी. लेकिन उस हलके के बाहर शायद ही कोई इन शब्दों के विषय में शब्दार्थ से अधिक जानता हो.
ग़ालिब ने उनका प्रयोग अपने शे’रों में ‘मज़मून’(2) को विस्तार देने में किया है जो निश्चित ही सामान्य श्रोता या पाठक के लिए दुरूह रहा होगा.
यह विचारणीय है कि 1821 के बाद, यानी 24 की उम्र के बाद, ग़ालिब ने इनके प्रयोग नहीं किये हैं.
अंक़ा
फ़ारसी साहित्यिक परम्परा में एक काल्पनिक पक्षी है सिमुर्ग या सिमोर्ग. पहलवी में यह ‘सेन्मुर्व’ था और अवेस्तन में ‘मुर्यो सयेनो’. शब्द-व्युत्पत्ति के विचार से यह संस्कृत के ‘श्येन’ से मेल खाता है. ईरान के मिथकों में और प्राचीन साहित्य में सिमोर्ग का उल्लेख बार-बार आया है. अरबी परम्परा में इसका समतुल्य अंक़ा कहलाया. और ग़ज़ल के आलम में अंक़ा की सबसे जबरदस्त खासियत रही है उसका ‘नहीं होना’! यानी जब भी हम अंक़ा को पकड़ने जाएँ वह वहाँ नहीं मिलेगा.
युवा ग़ालिब ने, अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप, उन्नीस से चौबीस की उम्र तक अंक़ा का प्रयोग किया था. दीवान में शामिल ग़ालिब की ग़ज़लों में अंक़ा तीन बार दिखता है. उन्नीस की उम्र का लिखा यह शे’र:
आगही दाम-ए-शनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दआ अंक़ा है अपने आलम-ए तक़रीर का
आगही: प्रज्ञा, अभिज्ञता
दाम: जाल
शनीदन: सुन पाना, आज्ञा-पालन, समझ पाना
मुद्दआ: इच्छा, तात्पर्य, उद्देश्य
तक़रीर: कथन
शब्दानुवाद होगा,
श्रवण-पाश को प्रज्ञा चाहे जिस तरह बिछाए
मेरे कथन के जगत का अभिप्राय अंक़ा है
स्पष्ट अर्थ है, आप चाहे जितनी कोशिश कर लें मेरा अभिप्राय अंक़ा की तरह आप की पहुँच के बाहर रहेगा. मेरी शायरी के मर्म तक आप न पहुँच पाएंगे. थोड़ा आगे यदि बढ़ जाएँ तो ग़ालिब शायद यह कह रहे हैं कि मेरे कथन अदृश्य के रहस्य हैं, ऐसे कुछ नहीं जिसे हर कोई समझ ले. आप कोशिश कर लें मगर आप के हाथ कुछ नहीं लगने को. (क्योंकि मैं मुश्किलपसंद शायर हूँ और बस मुश्किल बयानी कर सकता हूँ.)
अपनी बात नहीं समझे जाने का दुखड़ा उन्होंने पचपन की उम्र में भी रोया, मगर किस तरह?
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और
दूसरा शे’र, जिसमे अंक़ा आया है:
मैं अदम से भी परे हूँ वरना ग़ाफ़िल बार‐हा
मेरी आह-ए आतिशीं से बाल-ए अंक़ा जल गया
अदम: अनस्तित्व
गाफ़िल: अनजान, बेखबर, लापरवाह
बार-हा: एक से अधिक बार
आह-ए आतिशीं: जलती हुई आहें
बाल-ए अंक़ा: अंक़ा के डैने
अर्थ स्पष्ट है. अंक़ा को कोई देख-पकड़ नहीं पाता है, पर मैं ऐसा हूँ, अनस्तित्व के भी परे, कि मेरे जलते निःश्वास से अंक़ा के डैने कई बार जल गए.
अंक़ा स्वयं अवास्तविक है, स्पष्टतः अस्तित्व के दायरे के बाहर की चीज. शायर भी वहीं रहा करता था और उसकी जलती आहों से अंक़ा के डैने बार-बार जले थे. किंतु पहले मिसरे में ‘वरना’ भी है. शायद ग़ालिब कह रहे हैं कि वे अनस्तित्व के दायरे से भी बाहर थे अन्यथा अंक़ा (जो अस्तित्व के दायरे के बाहर है) के डैने कई बार जल जाते.
ग़ालिब के शे’र प्रायः इसी तरह एक से अधिक अभिप्राय रखते हैं. और अंत में, यह शे’र किसे संबोधित किया जा रहा है? यदि माशूक़ा को तो यह एक शोख चेतावनी भी हो सकती है-
मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए हैरत आबाद-ए तमन्ना है
जिसे कहते हैं नाला वो उसी आलम का अंक़ा है
फ़ज़ा-ए हैरत: आश्चर्य का विस्तार
आबाद-ए तमन्ना: लालसा से आबाद
नाला: विलाप
आलम: विश्व
मेरा अस्तित्व विस्मय का विस्तार है जिसमे तृष्णा बसी हुई है
जिसे विलाप कहते हैं वह उसी विश्व का अंक़ा है
निश्चित ही यह एक मुश्किल शे’र है, विचार नितांत अमूर्त. यदि ‘उसी विश्व’ की जगह ‘उस विश्व’ रहता तो शायद एक तात्पर्य यह रहता कि उस विश्व में विलाप नहीं दिखता, विश्व विस्मय से भरा है, उत्कंठा उसमें बसती हैं पर विलाप का नामो निशाँ नहीं है– लोग जानते हैं कि विलाप कुछ होता है लेकिन किसी ने कभी विलाप को देखा नहीं. किंतु ‘उस विश्व’ नहीं है, ‘उसी विश्व’ है. और तब तात्पर्य हो सकता है कि इस विश्व में जिसे हम विलाप कहते हैं वह उस विश्व का अंक़ा है- मेरे अस्तित्व के विश्व का, जो बस विस्मय का विस्तार है जिसमें उत्कंठा बसी हुई है.
ग़ालिब ने दीवान के लिए शे’रों का चयन करते समय काफी निर्ममता दिखायी थी. खैराबादी की बात मान कर उन्होंने अपने ‘मुश्किल’ शे’र हटा दिए थे. तो ग़ालिब के अनुसार यह शे’र मुश्किल नहीं रहा होगा. संयोग कुछ ऐसा है कि उनके किसी मित्र/शिष्य ने इस शे’र के अर्थ भी उनसे नहीं पूछे. हम कभी ठीक-ठीक नहीं जान सकेंगे कि उनका क्या अभिप्राय था. पर एक बात अवश्य है कि इसका पहला मिसरा कुछ इस तरह रचा गया है कि एक बार पढ़ने पर देर तक हमारे अंतर्मन में मंडराता रहता है.
ये तीनो शे’र जिन ग़ज़लों से लिए गए हैं उन्हें ग़ालिब ने 1816 में लिखा था. 1821 की लिखी ग़ज़ल के एक शे’र में भी अंक़ा आया था लेकिन ग़ालिब ने उस शे’र को दीवान में प्रकाशित नहीं होने दिया:
वहशत कहाँ कि बे-ख़ुदी इंशा करे कोई
हस्ती को लफ़्ज़-ए मानी-ए अंक़ा करे कोई
वहशत: विक्षिप्तता
बे-ख़ुदी: अचेतन
इंशा: कहना/ लिखना
लफ़्ज़-ए मानी-ए अंक़ा: शब्द जिसका अर्थ अंक़ा हो
ऐसी विक्षिप्तता कहाँ कि कोई अचेतन की लिखे अस्तित्व को एक ऐसा शब्द बना दे जिसका अर्थ अंक़ा हो
शायर ऐसा जुनून खोज रहा है जो उसे अचेतन में डूबा दे, उसका अस्तित्व अंक़ा हो जाए, जिसकी खासियत है उसका नहीं होना. निश्चित ही यह शे’र पिछले अंक़ा शे’र की अपेक्षा सुग्राह्य लगता है. हम नहीं जान पाएंगे कि क्या सोच ग़ालिब ने पिछले शे’र को अपने दीवान में रहने दिया और इसे दीवान में जगह नहीं दी. (ऐसे उदाहरण और भी मिलेंगे.)
इन चार शे’रों के अलावा अपनी उर्दू शायरी में ग़ालिब ने बस एक बार और अंक़ा का प्रयोग किया है जब उन्होंने 1829 में कलकत्ते में डली (सुपारी) के ऊपर अपनी तत्काल रचित मसनवी कही थी.
हुमा
हुमा भी एक काल्पनिक पक्षी है. फ़ारसी परम्परा में हुमा किसी व्यक्ति को अकूत संपत्ति और वैभव देता है. फ़ारसी कवियों की मान्यता थी कि हुमा की छाया भी यदि किसी पर पड़ जाए तो वह राजा बनता है. अंक़ा अरबी परम्परा का है और भारत में अपेक्षाकृत अनसुना रहा. फ़ारसी परम्परा से आए हुमा के प्रयोग अधिक देखे गए हैं. गुरु गोविन्द सिंह जी ने आलमगीर को लिखे अपने ज़फ़रनामा (विजय-पत्र) के सोलहवें पद में लिखा है, ज़फ़रनामा, (16):
हुमा रा कसे सा-एह आयद ब-ज़ेर
बार-ओ-दस्त दरद न ज़ाग-ओ-दलेर
(“उद्धत कौव्वा उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता जिसकी रक्षा हुमा कर रहा हो”.)
हुमा प्रयोग करते हुए ग़ालिब ने 1816 में यह शे’र लिखा था, मुशायरों में शायद पढ़ा भी हो, पर अपने दीवान में इसे उन्होंने प्रकाशित नहीं होने दिया था:
यक-बख़्त औज नज़्र-ए सुबुक-बारी-ए असद
सर पर वबाल-ए साया-ए बाल-ए हुमा न मांग
बख़्त: सौभाग्य, समृद्धि
औज: शीर्ष
नज़्र: भेंट, अर्पण
सुबुक-बारी: भार-रहित, बेफिक्री, लापरवाही
वबाल: बोझ
असद ने अपनी बेफिक्री भेंट की है, जो हर तरह से उत्कृष्ट, सौभाग्य के शीर्ष पर है; अब अपने सर पर हुमा की छाया का बोझ मत मांगो. बेफिक्री का वजन छाया से भी कम है, हुमा की छाया का तो बहुत अधिक वजन है- ताज का.
ग़ालिब ने इस ग़ज़ल में नौ शे’र लिखे थे. प्रकाशित दीवान में बस दो रहने दिए, वे हैं:
गर तुझ को है यक़ीन-ए इजाबत दुआ न मांग
यानी बग़ैर-ए यक दिल-ए बे-मुद्दआ न मांग
(यदि यह विश्वास है कि (ईश्वर ने तुम्हें) स्वीकार कर लिया है तो कुछ मन मांगो, यानी निष्काम हृदय के सिवा कुछ न मांगो.)
आता है दाग़-ए हसरत-ए दिल का शुमार याद
मुझ से मिरे गुना का हिसाब ऐ ख़ुदा न मांग
(मुझे अपने हृदय की अनेक इच्छाओं के दाग याद आते रहते हैं, हे ईश्वर मुझसे मेरे पाप गिनने को मत कहो.)
यद्यपि इन दोनों शे’रों के भी एक से अधिक निर्वचन हो सकते हैं (और हुए हैं) किंतु इनकी सादगी स्पष्ट है. यह सादगी तरुण ग़ालिब की ग़ज़लों में कम दिखती है.
हुमा प्रयुक्त होता, 1816 का ही एक और शे’र:
वो बे-दिमाग़-ए मिन्नत-ए इक़बाल हूँ कि मैं
वहशत ब दाग़-ए साया-ए बाल-ए हुमा करूँ
बे-दिमाग़: असंतुष्ट, अप्रसन्न
मिन्नत: अनुनय, विनती
इक़बाल: सौभाग्य
सौभाग्य के अनुनय-विनय से मैं इतना अप्रसन्न हूँ कि हुमा के पंखों की छाया को भी दाग समझते हुए उससे भय खाता हूँ. क्यों? यह स्पष्ट नहीं है. क्या मेरी खुद्दारी मुझे हुमा का भी कर्ज़दार नहीं होने देती?
इस ग़ज़ल में भी नौ शे’र थे किंतु ग़ालिब ने बस एक को अपने प्रकाशित दीवान में जगह दी:
लूँ वाम बख़्त-ए ख़ुफ़्ता से यक ख़्वाब-ए ख़ुश वले
ग़ालिब ये ख़ौफ़ है कि कहाँ से अदा करूँ
वाम: मांगना, उधार लेना
बख़्त-ए ख़ुफ़्ता: सोया हुआ भाग्य
लूँ मांग सोए भाग्य से सपना ख़ुशी भरा
है डर यही कि फिर उसे कैसे चुकाउंगा
“ख़्वाब-ए ख़ुश” के दो अर्थ होते हैं- अच्छी नींद और सुहाना सपना. जिसकी किस्मत सोई हो वह विपन्नता या दुश्चिंता से अनिद्रा की स्थिति में ही रहेगा. और किस्मत जब स्वयं सोई हुई हो तो उससे नींद, अच्छी नींद के सिवा और क्या मांगा ही जा सकता है? (एक टीकाकार ने तो यहाँ तक लिख दिया कि पहले मिसरे में हर्फ़ ‘ख़े’ का प्रयोग शायद ग़ालिब ने चार बार इस लिए कर दिया है जिस से आप को नींद आने लगे.) वहीँ दूसरे मिसरे में शायर के तखल्लुस की बाबत यह भी कहा गया है कि ग़ालिब का शाब्दिक अर्थ (ग़ालिबन= शायद, संभवतः) भी यहाँ बखूबी बैठता है.
1816 में लिखा एक और शे’र जिसमे हुमा प्रयुक्त है:
वुसअत-ए मशरब नियाज़-ए कुलफ़त-ए वहशत असद
यक-बयाबाँ साया-ए बाल-ए हुमा हो जाइये
वुसअत: विस्तार, सुविधा
मशरब: पानी पीने का स्थान
नियाज़: प्रार्थना, याचना, दान
कुलफ़त: अफ़सोस, संताप
उन्माद के संताप का कृपा-दान पी सकने के स्थान का विस्तार (है)
पूरी मरूभूमि पर हुमा के पंखों की छाया हो जाइए
मरूभूमि में ‘पी सकने के स्थान’ (मरुद्वीप) कम हैं. उन्माद के संताप से उनका विस्तार होता है. और धूप से तपते पूरे रेगिस्तान को छाया में ला सकते हैं, ऐसी वैसी छाया में नहीं, हुमा के पंखों की छाया में! शब्दार्थ कुछ स्पष्ट होते हैं, वैसे वुसअत, मश्राब, नियाज़, वहशत .. सभी बहु-अर्थी शब्द हैं इसलिए शब्दार्थ पर भी शंका बनी रहती है. किंतु भाव? टीकाकारों से भी बहुत मदद नहीं मिलती. शायद ऐसे ही शे’रों को सुन आग़ा जान ऐश ने कहा होगा कि अपने शे’र या तो ग़ालिब ख़ुद समझते होंगे या फिर उन्हें ख़ुदा समझता होगा.
ग़ालिब ने चार शे’र कहे थे जिनमे हुमा प्रयुक्त हुआ. उनमे से तीन को ग़ालिब ने प्रकाशित दीवान में नहीं शुमार किया. 1821 में कहा गया यह शे’र दीवान में संकलित किया गया अकेला शे’र है जिसमे हुमा आया है:
जो हुआ ग़रक़ा-ए मय बख़्त-ए रसा रखता है
सर से गुज़्रे पे भी है बाल-ए हुमा मौज-ए शराब
ग़रक़ा-ए मय: शराब में गर्क
बख़्त-ए रसा: सफल भाग्य
रिन्दाना शे’र है. जो शराब में गर्क हुआ उसका भी भाग्य सफल है, यदि शराब की लहर सर पर चढ़ आये तो वह हुमा का पंख है. हद से अधिक पी लेने पर पीने वाला राजा के समान हो जाता है; न कोई फ़िक्र न कोई परवाह, सोच-विचार की कैद से मुक्त. इस लिए शराब का सर चढना हुमा के साये से कम नहीं है.
सुवेदा या सुवैदा
अगला पारिभाषिक शब्द है सुवेदा. ‘सुवेदा’ शब्द ‘सौदा’ का एक रूप है, अरबी में इसका अर्थ है कालिमा. तिब्बिया पद्धति के अनुसार हमारा स्वास्थ्य जिन विशिष्ट दैहिक तत्वों के सुव्यवस्थित रहने पर निर्भर है उनमें चार अख़लात भी हैं, चार शारीरिक द्रव: रक्त, कफ, पित्त और सौदा यहाँ सौदा को काला पित्त माना गया है. ग़ज़ल की फ़ारसी परम्परा में सुवेदा को मनुष्य के दिल पर स्थित एक तिल बताया गया है. यह क्या है या क्यों है इस पर कुछ ठोस जानकारी नहीं मिलती, बस इशारे मिलते हैं कि यह कोई बहुत महत्वपूर्ण चीज है जिसके अनेक आध्यात्मिक आयाम हैं. कुछ सूफी परंपराओं में सुवेदा (नक़्श-ए सुवेदा) को भ्रूमध्य के बीच स्थित तीसरी आँख भी बताया गया है. एक फ़ारसी अंग्रेजी शब्दकोश में इसे मनुष्य का पहला पाप भी कहा गया है. अपने एक अप्रकाशित शे’र में ग़ालिब ने इसे मजनूँ के उन्माद के रूप में रखा है, एक और अप्रकाशित शे’र में ग़ालिब ने इसकी तुलना रंगने के पहले ज़मीन तैयार करने के लिए लगाए जाते रंग से की है. कुछ प्रकाशित शेरों में इसका उपयोग गूढ़, रहस्यवादी अर्थों में किया गया है और कलकत्ते की तत्काल रचित मसनवी में ग़ालिब ने डली (सुपाड़ी) को सुवेदा बताया है. सब देखने पर यही लगता है कि यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि सुवेदा क्या है.
ग़ालिब ने 1821 के बाद सुवेदा के प्रयोग नहीं किये. तबतक वे सात बार इसके प्रयोग कर चुके थे, पाँच बार 1816 में (एक अप्रकाशित) और दो दफे 1821 में (एक अप्रकाशित).
मत मर्दुमक-ए दीदा में समझो ये निगाहें
हैं जमा सुवैदा-ए दिल-ए चश्म में आहें
मर्दुमक-ए दीदा: आँख की पुतली
सुवैदा-ए दिल-ए चश्म: आँख के दिल का सुवैदा
आँख की पुतली को दृष्टि के हृदय का सुवैदा बताते हुए ग़ालिब कह रहे हैं इस पुतली में मेरी निगाहें नहीं, मेरी आहें जमा हैं. शे’र कतई मुश्किल नहीं है और पुतली को आँख का सुवैदा बताना एक ख़ास लुत्फ़ भी देता है.
दीवान में यह एक फ़र्द के रूप में आया है, किंतु ग़ालिब के लिखते वक़्त यह एक ग़ज़ल का अंग हुआ करता था. उस ग़ज़ल के तीन शेर उपलब्ध हैं (सिर्फ़ पहला शे’र दीवान में शुमार है), अन्य शे’र, जिन्हें दीवान में जगह नहीं मिली:
किस दिल पे है अज़्म-ए सफ़-ए मिझ़गान-ए ख़ुद-आरा
आईने के पा-याब से उतरी हैं सिपाहें
अज़्म: निश्चय
सफ़: कतार
मिझ़गान: पपनी (बरौनी)
ख़ुद-आरा: स्व-सज्जित
पा-याब: जहाँ नदी पार की जा सके
सिपाहें: सेना
स्व-सज्जित पपनियों की कतारों ने किस दिल की सोची?
दर्पण के मार्ग से सेना उतरी है
नए उपमान हैं, आँखों की तुलना शस्त्रों से होती रही है, पपनियों की कतार की सेना से तुलना नयी है. कुछ को शायद आनंदित भी करे, लेकिन कुछ को खोदा पहाड़ तो निकली चुहिया वाले भाव से भी भर दे. कोई आश्चर्य नहीं कि ग़ालिब ने इसे प्रकाशित दीवान में नहीं रखा.
इसी ग़ज़ल का अगला शे’र है:
दैर‐ओ‐हरम आईना-ए तकरार-ए तमन्ना
वा-मांदगी-ए शौक़ तराशे है पनाहें
दैर‐ओ‐हरम: मंदिर और काबा
तकरार-ए तमन्ना: इच्छाओं का ज़ोर
मांदगी-ए शौक़: इच्छाओं की थकान
पनाहें: शरण स्थली, शिविर
दैर का अर्थ सूफी या ईसाई मठ या मंदिर कुछ भी हो सकता है. हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में मंदिर जँचता है और तब, मंदिर या काबा दोनों हमारी कामनाओं की पुनरावृत्ति के बिम्ब भर बन जाते हैं- हमारी उत्कंठा (उत्ताप?) की शिथिलता के द्वारा तराशे हुए आश्रय (पनाह). प्रेम के उत्ताप में हम (माशूका को खोजते?) मंदिर से काबा तक जाते हैं, हम थक जाते हैं पर अपना प्रेम नहीं पाते हैं और ये मंदिर और मस्जिद बस हमारे क्लांत शरीर के शरणस्थल होते हैं– शिविर भर. ‘तकरार’ शब्द बहु-अर्थी है- आग्रह या ज़िद हो सकता है, यह मतभेद या विवाद भी हो सकता है. अनेक सार्थक निर्वचन संभव हैं और सभी गूढ़.
(ग़ालिब ने 1849 में कहे एक शे’र में स्पष्ट किया है कि लोगों ने ‘ख्वाहिश’ को ‘परस्तिश’ मान लिया है:
ख्वाहिश को अहमकों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए बेदाद-गर को मैं
और तब मंदिर या काबा हमारी इच्छाओं की पूर्ती के माध्यम बन जाते हैं.
पता नहीं क्यों ग़ालिब ने इसे क्यों अपने दीवान में आने नहीं दिया. ऐसा ही एक और शे’र है, 1821 का:
है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हम ने दश्त-ए इम्काँ को एक नक़्श-ए पा पाया
दश्त: रेगिस्तान
इम्काँ: संभावनाएं
नक़्श-ए पा: पदचिह्न
या खुदा, मेरी कामनाओं का अगला कदम कहाँ है? सम्भावनाओं के इस मरुस्थल को मैंने एक बस एक पदचिह्न पाया.
“आलम-ए इमकाँ” – सम्भावनाओं से भरा संसार का प्रयोग शायरों ने किया है (मीर ने भी); “दश्त-ए इमकाँ” (सम्भावनाओं का मरुस्थल) का, कहा जाता है, शायरी में शायद यह पहला प्रयोग है. यह ग़ालिब का अपना नज़रिया दिखाता है– जिसे संसार कहते हैं, वह निस्सार है. इच्छाएं अंतहीन हैं, उनके सामने सभी संभावनाएं भी कम पड़ जाती हैं– जैसे वे ऊसर, बंजर जमीन की संभावनाएं हों. और दुनिया की विस्तीर्णता भी एक डेग से अधिक नहीं लगती. एक टीकाकार नईम सोचता है, जब ग़ालिब कहता है कि दुनिया एक “नक्श-ए पा” है तब वह यह तो नहीं कहना चाहता कि कोई यहाँ चल चुका है– कोई परम पुरुष इसे नाप चुका है? जो यहाँ रुका नहीं बस अपना एक पद चिह्न छोड़ आगे निकल गया. तब यह पद-चिह्न उसके वैभव, उसकी श्री की पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं है. यहाँ चल कर वह कहाँ गया? शायद और अनेक विश्व हैं जिन पर एक आवरण पड़ा हुआ है. एक अन्य टीकाकार ज्ञानचंद को उस पदचिह्न से भगवान के वामन अवतार स्मरण हो गया था.
विश्व का सबकुछ ही नहीं, वह सब भी जिसकी कल्पना की जा सके, वह सब एक पदचिह्न बन कर रह गया है. उस पदचिह्न को पार कर हमें अभी और कौन विश्व जीतने को रह गया है? शायद हमारा अन्तरस्थ विश्व, प्रेम और करुणा का.
एक विचारणीय प्रश्न है, ग़ालिब ने इन शेरों को कह कर अपने दीवान में इन्हें प्रकाशित क्यों नहीं होने दिया? उपरोक्त दोनों शेर काव्य और कलात्मकता के विचार से दीवान में आये किसी शेर से कम नहीं हैं. क्या उनके विचार इन शेरों को कहने के बाद किन्तु उनके प्रकाशन के पहले बदल गए थे? ऐसा नहीं लगता. आज़ाद के अनुसार, ग़ालिब का दीवान बहुत बड़ा था और जो उन्होंने प्रकाशित किया वह बस एक चयन (इंतिख़ाब) था.
ग़ालिब के मित्र और शुभेच्छु मौलवी फज़ल-ए हक़ ख़ैराबादी और शहर के कोतवाल मिर्ज़ा खाँ, जिनसे ग़ालिब की साहित्यिक चर्चाएं होती रहतीं थीं, ने मिलकर मिर्ज़ा से वे अशआर दीवान में प्रकाशित न होने दिए जो बहुत गूढ़ थीं और जिन्हें पढ़ कर पाठक कह बैठता कि इसे वे ख़ुद समझते होंगे या ख़ुदा समझता होगा.
सुवेदा का प्रयोग करता हुआ, 1816 का एक और शे’र:
दिल-आशुफ़्तगाँ ख़ाल-ए कुंज-ए दहन के
सुवैदा में सैर-ए अदम देखते हैं
आशुफ़्ता: अन्यमनस्क, विचलित, व्यग्र
ख़ाल: तिल
कुंज-ए दहन: मुँह का कोना
सैर-ए अदम: अनस्तित्व का दृश्य
जिनके दिल (माशूका के) मुँह के कोने पर के तिल को देख व्यग्र हो उठते हैं, वे सुवेदा में अनस्तित्व के दृश्य देखते हैं. वहीं इसे एक और रूप में पढ़ा जा सकता है, जिनके दिल (माशूका के) मुँह के कोने पर के तिल रूपी सुवेदा को देख व्यग्र हो उठते हैं वे अनस्तित्व के दृश्य देखते हैं.
एक टीकाकार के अनुसार मुशायरे में पहले मिसरे को पढ़ कर जब ग़ालिब, जैसा रिवाज है, थोड़ी देर रुके होंगे, और सुनने वालों की उत्सुकता बेतरह जग गयी होगी. वे शायद सोचने लगे हों “व्यग्र दिल वाले लोग मुँह के कोने पर स्थित तिल को देख कर” …
शायद हुस्न या सितम की मार खाते नज़र आयेंगे.
लेकिन यहाँ अचानक, बिना किसी चेतावनी के आशिक़ अस्तित्व को ही नकारने की सोच पड़ता है. निश्चित ही कुछ लोगों को यह ‘ताज़ा ख़याली’ बहुत लुभायी होगी. मगर इसे भी नहीं नकारा जा सकता है कि कुछ शायद इसके लिए तैयार नहीं रहे हों और ठगे गए महसूस कर रहे हों.
1816 के ही इस शेर में इश्क़ के जुनून ने आशिक़ को हज़ारों दिल दिए मगर उसका खून काला कर दिया क्योंकि उसके खून का हर बूँद सुवेदा में बदल गया था:
हज़ारों दिल दिये जोश-ए जुनून-ए इश्क़ ने मुझ को
सिया हो कर सुवैदा हो गया हर क़तरा ख़ूँ तन में
‘सौदा’ के अरबी और फ़ारसी में भिन्न अर्थ हैं. अरबी सौदा का अर्थ कालिमा है, फ़ारसी सौदा से खरीद-फ़रोख्त की बात होती है. उर्दू में सौदा के अर्थ अरबी और फ़ारसी दोनों मूलों से आते हैं; किंतु कालिमा से अधिक ‘विक्षिप्तता’ के बोध में. सुवेदा, जैसा कहा गया है, सौदा का रूप है. शे’र में पुरजोर लुत्फ़ है. इश्क़ के जुनून में आशिक़ को हजारों दिल हो गए– जो ज़रूरी था क्योंकि एक दिल पर बस एक सुवेदा होता है और आशिक़ के रक्त का हर क़तरा सुवेदा हो गया था, क्योंकि अशिक़ का रक्त सियाह यानी काला यानी सौदा (काला या पागल) हो गया था. क्योंकि अपने इश्क़ के जुनून में आशिक़ विक्षिप्त हो गया था!
1816 का ही एक और शे’र:
हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए ख़याल में
गुल-दस्ता-ए निगाह सुवैदा कहें जिसे
तिरी बज़्म-ए ख़याल: एक तात्पर्य होगा, मेरे ख़यालों में तुम्हारी जो महफ़िल है, एक और हो सकता है तुम्हारी महफ़िल जो ख़यालों पर हो. विचार गोष्ठी? पर माशूक़ा कब से विचार गोष्ठी आयोजित करने लगी? तब शे’र में तिरी बज़्म-ए ख़याल का तात्पर्य आशिक़ का दिल ही हो सकता है जहाँ माशूक़ा की ख़याली महफ़िल लगी रहती है. इस दिल में जिसे सुवेदा कहते हैं वह माशूक़ा की गुलदस्ते के समान निगाहें हैं.
और जिस ग़ज़ल का यह शे’र है, उसका मक़ता:
ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
यानी 1816 में भी ग़ालिब ऐसे शे’र कह देते थे जिनपर न फ़ारसी लुग़त हावी होती थी न इज़ाफ़त या अत्फ़ देखने को मिलते थे. उपरोक्त शे’र में वाइज़ को छोड़ और कोई शब्द नहीं है जो बोल-चाल की हिंदी का न हों.
यह शे’र 1821 का है:
आशुफ़्तगी ने नक़्श-ए सुवैदा किया दुरुस्त
ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सर्माया दूद था
आशुफ़्तगी: अन्यमनस्कता, व्यग्रता
सर्माया: पूंजी, माल
दूद: धुँवा
प्रकट अर्थ है कि व्यग्रता ने सुवैदा को साफ़ किया तो पता चला कि दाग धुँवा का बना था. लेकिन दुरुस्त करने को साफ करना समझना बहुत सही नहीं हो. और सुवैदा के तिल के धुँवा से बनने का क्या अभिप्राय?
शे’र जटिल है. ग़ालिब के भाव स्पष्ट नहीं होते हैं. या तो वे समझें या ख़ुदा. एक टीकाकार के अनुसार, व्यग्रता ने सुवेदा को सम्पूर्ण (दुरुस्त) किया. और चूंके व्यग्रता स्वयं धुंवे की तरह है– आती है जाती है, जब तक रहती है मन काला कर देती है– इससे पहले मिसरे की बात संपुष्ट होती है सभी दाग धुंवे के बने होते हैं. इस स्पष्टीकरण पर भी आपत्ति हो सकती है. पर उनमें नहीं जाकर, बस यह मानते हुए कि अभिप्राय स्पष्ट नहीं हैं, हम आगे बढ़ते हैं.
सुवेदा प्रयुक्त हुआ यह शे’र ग़ालिब ने 1821 में लिखा था पर अपने दीवान में प्रकाशित नहीं होने दिया:
किस क़दर ख़ाक हुआ है दिल-ए मज्नूँ या रब
नक़्श-ए हर ज़र्रा सुवैदा-ए बयाबाँ निकला
मजनूँ का दिल इस कद्र ख़ाक हुआ कि रेत का हर ज़र्रा मरुस्थल का सुवेदा बन गया. (मजनूँ मरुस्थल में भटकता था. मरुस्थल उसका घर हो चुका था और इसी सन्दर्भ पर ग़ालिब ने 1821 में ही एक और शे’र कहा है:
हर यक मकान को है मकीं से शरफ़ असद
मज्नूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है
मकान का वैभव रहने वाले से है, मजनूँ के मरने से जंगल उदास है.)
सुवेदा पर यह आखिरी शे’र 1816 का कहा एक अप्रकाशित शे’र है:
किया यक-सर गुदाज़-ए दिल नियाज़-ए जोशिश-ए हसरत
सुवैदा नुस्ख़ा-ए ता-बंदी-ए दाग़-ए तमन्ना है
यक-सर: पूरी तरह से
गुदाज़-ए दिल: दिल की नरमी
नियाज़-ए जोशिश-ए हसरत: आकांक्षाओं के कोलाहल की याचना
ता-बंदी: रंगने के पहले ‘ज़मीन’ तैयार करने के लिए रंग की पहली परत
आकांक्षाओं के कोलाहल की याचना के चलते दिल पूरी तरह नरम होकर पिघल गया. और सुवेदा कामनाओं के धब्बे के लिए ता-बंदी का साधन बन गया. पिघला सुवेदा भी काले रंग का होगा. काली ज़मीन पर कोई रंग नहीं खिलेगा. तो क्या पिघले सुवेदा ने कामनाओं के धब्बे को छुपा दिया?
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सन्दर्भ
(1) मुहम्मद सादिक़, अ हिस्ट्री ऑफ उर्दू लिटरेचर, ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस नई दिल्ली (1984); पृष्ठ 246-247
(2) अरबो-फ़ारसी परम्परा में इल्म-ए बदी (कविता की विद्या) शब्दों के अभिप्राय का विस्तार खोजता रहा है, मुख्यतः तश्बीह (उपमा) और इस्तिआरा (रूपक) के माध्यम से. इस्तिआरा (रूपक या मेटाफ़र) में अर्थ शब्द का नहीं बल्कि उस मज़मून का होता है, जिसके लिए शब्द को रखा गया है. मोटे तौर पर मान सकते हैं कि इस्तिआरा बनाना मज़मून आफ़रीनी है, जो शायर का प्रमुख गुण, कर्तव्य था. किंतु अचानक प्रकट हुए नए इस्तिआरा स्वीकार नहीं किये जाते थे – शायर से यह अपेक्षा रहती थी कि वह स्थापित रूपकों में क्रमिक विकास लाते हुए अभिप्राय को विस्तार दे. (यहाँ उस्ताद के ‘इस्लाह’ (सुधार) की, जो फ़ारसी और उर्दू शायरों का अभिन्न अंग था, अहमियत प्रकट होती है.)
(3) फ़र्द: शे’र जो अकेला प्रस्तुत किया गया हो, किसी ग़ज़ल के अंग के रूप में नहीं. ग़ालिब ने अनेक फ़र्द कहे हैं पर अनेक शे’र जो उनके दीवान में फ़र्द के रूप में दीखते हैं उनमे से कुछ किसी ग़ज़ल के भाग थे जिसके अन्य शे’रों को ग़ालिब ने अनुपयुक्त समझ प्रकाशन के समय दीवान में शुमार नहीं किया.
(4) गुलाम हुसैन आज़ाद, आब-ए-हयात, लखनऊ (1982); प्रिचेट और फ़ारूक़ी के अनुवाद से, नई दिल्ली (2001): पृष्ठ 405-406.
सच्चिदानंद सिंह
जन्म: १९५२, ग्राम- तेलाड़ी, ज़िला- पलामू, झारखंड
स्कूली शिक्षा: नेतरहाट विद्यालय, झारखंड
उच्च शिक्षा: सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली
ग़ालिब साहित्य में गहन रुचि के साथ बैंकर व मर्चेंट बैंकर रहे. वर्तमान में कृषिकर्म-रत.
दो वर्षों से कहानियाँ लिख रहे हैं. जनवरी 2018 में पहले कथा संग्रह “ब्रह्मभोज” का प्रकाशन. (प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली)
sacha_singh@yahoo.com
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इसी तरह के विवेचन को पढ़ सुनकर किंचित आश्चर्य होता है कि लोग कितने महत्वपूर्ण कामों में क्रियाशील हैं । और यह भी कि हमारी जानकारियां कितनी कम हैं । बहुत गंभीर जानकारियां हैं इस लेख में जिनकी कभी कोई अवधारणा हमारे मन में नहीं आती ।
मज़ा आ गया । मेरे पूर्वज पश्चिमी पंजाब के मुलतान ज़िले से आये थे । मेरे लाल जी (पिता जी) को उर्दू, हिन्दी, अंग्रेज़ी, पश्तो और फ़ारसी भाषा आती थी । गणित में अव्वल थे । भारत में आकर 1968-69 में पंजाबी भाषा सीख ली । उनसे कई शब्द सुनने को मिल जाते ।
ग़ालिब को समझना कठिन है । सच्चिदानंद सिंह के गहन अध्ययन की बदौलत और समालोचन पर प्रकाशित करने की कारण अंक पढ़ने को मिल गया । कुछ शब्द हैं जिन्हें पहले सुना-जाना था । बेमिसाल ।
बहुत सार्थक आलेख। उर्दू एवं फारसी गज़लों की प्रकृति एवं गालिब के कठिन शेरों को समझने में इससे मदद मिलती है।
हिन्दुस्तानी शायरी की इस परंपरा पर इतना सुस्पष्ट आलेख पहली बार पढ़ा. अपनी परंपरा के बारे में हम कितना कम जानते है. जिस हिंदी को हम अपनी भाषा कहते और मानते हैं, उसकी परंपरा के बारे में क्या जानते हैं. हिंदी कविता की जो भाषिक परंपरा अमीर ख़ुसरो से शुरू हुई थी, उसे ही हिंदी वाले कितना स्वीकार करते हैं? ‘तुर्क हिन्दुस्तानियम मैं हिन्दवी गोयम जवाबे’ कितने गर्व से कहता है वह तुर्क! अब तो हिंदी कविता का सारा विवेचन या तो धार्मिक पाखंड की शरण में कैद हो गया है या फिर आज मार्क्सवाद-कलावाद के सिरकटे विवरणों में. सिंह साहब ने जिस आत्मीयता के साथ कविता के भीतर जाकर ग़ालिब के मन की परतें खोली हैं, उससे हमें अपने आग्रहों के प्रति चेतावनी मिलनी ही चाहिए. ऐसे आलेख समालोचन ही छाप सकता है.
वाह। सुचिंतित, सुनियोजित और गंभीर आलेख। ग़ालिब को समझने में सहायक। सच्चिदानंद जी को बहुत बहुत बधाई।
जिन्हें वाकई पता होता है वो सरल भाषा में समझा देते हैं। सच्चिदानंद जी को सचमुच पता है।