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Home » भँवर: नवनीत नीरव

भँवर: नवनीत नीरव

2021 में प्रकाशित अपने पहले कहानी संग्रह ‘दुखान्तिका’ से चर्चा में आये नवनीत नीरव शिल्प की सुगढ़ता के लिए प्रशंसित हैं. प्रस्तुत कहानी ‘भँवर’ भी कसी हुई है और अंत तक दिलचस्पी बनाये रखती है.

by arun dev
November 26, 2022
in कथा
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भँवर: नवनीत नीरव
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भँवर

नवनीत नीरव

आसमान में चाँद पूरा है. दूर किसी घड़ियाल ने बारह घंटे बजाए हैं – ‘टनSS – टनSS – टनSS ….!’ वह अंग्रेज़ विलियम का रूप धरे छड़ी-हैट संभालता और ‘बाय द स्लीपी लगून…’ गुनगुनाता पुराने डाकबंगले से बाहर निकलता है. बूटों तले रौंदी जा रही सूखी पत्तियों की चरमराहट से अंदाजा होता है कि वह नहर किनारे पुराने अस्तबल तक गया है. कुछ देर वह अस्तबल की एकमात्र नाद का मुआयना करता है. फिर अंग्रेज़ विलियम से एक धवल अरबी घोड़े में बदल जाता है. पलक झपकते ही बिजली की गति से सैटर्न ऑर्चर्ड की ओर दौड़ लगा देता है. पीछे रह जाते हैं धूल के गुबार और खाली खेतों में उसकी खुरों के निशान. सैटर्न ऑर्चर्ड यानी देसी आमों का पुराना बाग.

अंग्रेजों के जमाने का. अब तो उसके अवशेष तक शेष नहीं. उस जगह रुककर वह ज़ोर से हिनहिनाता है. उसके कई चक्कर लगाता है. धीमे-धीमे चलता नहर की पगडंडी पर आ खड़ा होता है. जहाँ से एक देसी झबरे कुत्ते का रूप धरकर पुल की तरफ सिर उठाकर रोता हुआ चलता है-  ओऊँऊँSS. रुदन से नीचे नहर के पानी में हलचल सी मचती है. जैसे कोई भँवर बन रहा हो. सीखचों वाला पुराना फाटक कर्कश ध्वनि के साथ खुलता है. नहर से एक बूड़ा निकलता है. भावरहित-ठंडे चेहरे वाला, बदन पर गीले चिपचिपे कपड़े पहने बूड़ा. कुछ देर सड़क के किनारे खड़े होकर वह मुसाफ़िरों से घरघराती नकियाई आवाज़ में खैनी माँगता है– ‘एँ बाँबूँ! खैनी दों…!’ चाँद के पूरब की ओर सरकते ही वह भैंसा बनकर सड़क पर दौड़ता है- …धपड़- धपड़- धपड़-…! गाँव के सामने से गुजरते हुए वह अपना सिर गाँव की तरफ करके ज़ोर-ज़ोर से हँकड़ता है– बाँ-बाँ. उसके मुँह से दूधिया फ़ेन निकलता रहता है. वह दौड़ता हुआ गाँव के मठिया तक आता है… और पोखर में ज़ोर से कूदता है – ‘धड़ाम…! पोखर का जल उछलकर बाहर घाटों पर फैल जाता है. पेड़ पर सोयी चिड़ियाँ डरकर चीख़ने लगती हैं. टिटिहरी का झुंड हर दिशाओं में उड़ जाता है.

अलसुबह अभी हल्का धुंधलका था. सूरज सरकंडों के झुरमुटों के पीछे से झाँकने की कोशिश में था. सड़क पर की दुकानें अभी खुली नहीं थीं. गाँव से सड़क की तरफ आती पगडंडी पर इक्का-दुक्का लोग थे. कुछ गंभीर से चेहरे प्रतीक्षालय में बैठे किसी के इंतजार में थे.

एक मिनी बस पड़ाव पर आकर रुकी. वे लोग फुर्ती से बस में चढ़े. किसी को थामकर नीचे लाया गया. प्रतीक्षालय की बेंच पर उसे लिटा दिया गया.

‘आँखें खोलिए गनेशी पंडित!’ एक बुजुर्ग ने धीमे स्वर में कहा.

दो-तीन प्रयासों के बाद गनेशी ने आँखें खोलीं. मलिन चेहरा. कातर आँखें. बेतरह बरस चुकी आँखों में जलबिंदु अब शेष नहीं. होठ हिले. फुसफुसाती सी आवाज़ निकली,

‘कैसे हुआ यह सब?

कुछ क्षण चुप्पी छा गई .

‘मिर्गी का दौरा पड़ा था. सबने होश में लाने की कोशिश की. परंतु…! ‘ उस युवक की बात अधूरी रह गई.

चार बेटियों पर कुन्दन, गनेशी पंडित का इकलौता बेटा था. अभी चौबीस का नहीं हुआ था. जवान लड़के के मिर्गी जैसी बीमारी के क़िस्से बनते. उस रात घर में पुरुष सदस्य नहीं होने के बावजूद, पड़ोसी तक को खबर नहीं की गई. बचाने के जो भी प्रयास हुए उसे कुन्दन की माँ और बहनों ने किया.

गाँव में कोई डॉक्टर भी तो नहीं है.

लोगबाग गनेशी पंडित को टांग कर घर लाये. शव दालान से बाहर रखा हुआ था. गनेशी पंडित पछाड़ खाकर गिर पड़े. उसकी मृत्यु को चौबीस घंटे से अधिक हो चुके थे. परंतु गनेशी पंडित के लिए तो संताप-विलाप के कुछ पल ही बीते थे. माहौल ‘अतिशीघ्र अंतिम संस्कार करने’ जैसी फुसफुसाहटों से भर गया था. तैयारियाँ पूरी की जा चुकी थीं. लम्बवत होती परछाइयों के बीच बूढ़े पिता ने जवान बेटे को मुखाग्नि दी. दिन धीरे-धीरे ही सही सरक गया.

आहर किनारे पीपल पर श्राद्ध का घट लटक गया. गनेशी पंडित सुबह-सवेरे गोतिया-पट्टीदारों के साथ बेटे को पानी देते. शेष दिवस दालन के एक कोने की खाट पर बैठे स्मृतियों के टूटे सिरे जोड़ते-दुहराते. कब किस वक्त क्या घटा? मसलन जीवन की पहली स्मृति, जो उनके ज़ेहन में अब तक सांस ले रही है. पिता और पहली पत्नी की मृत्यु याद आते ही उनके मुख मण्डल पर पीड़ा की रेखाएँ सघन हो उठतीं. किन्तु कुन्दन के जाने का दुख अपरंपार था. ताज़ा-ताज़ा और नुकीला भी.

हर शाम दालान में परिचितों और मित्रों का जमावड़ा था. लोग उनके दुख में भागीदार बनने आते.

“जब कोई अपना चला जाता है, तो मन मानने को तैयार ही नहीं होता कि वह चला गया है. लगता है कि वह कहीं आस पास ही है. अभी लौटकर आ जाएगा.”

किसी बुजुर्ग ने गहरी सांस भरते हुए कहा.

“हाँ बाबा! बात तो सही है आपकी…. लेकिन यह इसलिए होता है क्योंकि हम इस सच को मान नहीं पाते कि वह जा चुका है.”

अपेक्षाकृत युवा व्यक्ति ने बुजुर्ग की बातों पर प्रतिक्रिया दी. बुजुर्ग ने अजीब सी नजरों से उस व्यक्ति को देखा. कुछ सोचते हुए चुप रहे , फिर बोल उठे

“चला जा चुका है? ऐसा नहीं कह सकते…जवान मृतक की आत्मा इस दुनिया और उस दुनिया के बीच किसी जगह पर ठहर जाती है बाबू…’ कहते-कहते उनकी नजर गनेशी पंडित की तरफ पड़ी और न जाने क्यों उन्होंने बात अधूरी छोड़ दी.

गनेशी पंडित जीवन के प्रति विश्वास-अविश्वास के बीच अब उस जगह पर खड़े थे जहाँ परिस्थितिजन्य कोई भी निर्णय सीधे-सीधे उनके अस्तित्व को प्रभावित कर सकता था…सकारात्मक रूप से तो नहीं ही.

पर गनेशी पंडित बिलकुल चुप थे जैसे इन सबसे निर्लिप्त हों… अंतस में टीस की लहरें उठती रहीं. वे जानबूझकर  उन स्मृतियों को दोहराते, जिनमें उन्होंने अनायास-सायास किसी को चोट पहुंचाई हो. जवार के आसपास के गांवों में दो सौ से ज्यादा परिवारों के वे एकमात्र पुरोहित थे. कर्मकांड को उन्होंने जीवन पद्धति बना लिया था. जिसे बिना विचलन वे निभाते रहे थे. हालाँकि कुन्दन को इन सबमें रुचि न थी. वह आज़ाद ख़यालों वाला लड़का था. उसके अपने सपने थे. जिसमें कम से कम पुरोहिताई की जगह तो नहीं बनी थी. उसकी पढ़ाई बस पूरी होने ही वाली ही थी.

दालान की बतकही में असमय गुजर गए लोगों का भी जिक्र होता. असमय काल-कवलित  होने वाले गाँव में कई थे. कुन्दन एकमात्र न था. एक थे कोइलरी वाले बालेश्वर सिंह. दशकों पहले जिनका बड़ा बेटा नदी में डूब गया था. बातों के सिर पैर न होने वाली बात बतकही करने वालों पर भी लागू होती है. बातें करते हुए उन्हें स्थिति-परिस्थिति तक का भान नहीं होता. वे हर सीमा का अतिक्रमण करते हैं. बालेश्वर सिंह की बात चलते ही लोगों ने तसल्ली से उस घटना की एक-एक परतें उधेड़नी शुरू की.

‘उस घटना को याद करके मन कांप उठता है. वह बरसाती शाम नहीं भूलती.‘ कहते हुए किसी का गला भर आया.

‘कोई दस-बारह साल का तो रहा होगा पवन. है न!’ एक बुजुर्ग बोले.

‘पवन’ नाम सुनते ही गनेशी पंडित के चेहरे के भाव बदलने लगे. भीषण पीड़ा के बीच भी वे कोई भाव छुपा लेना चाहते थे. पवन का डूबना महज़ हादसा नहीं था! उन्होंने आँखें मूँद लीं. पूरा दृश्य सजीव हो उठा.

उस दुपहरी कुछ बालक नदी किनारे पीपल तले किस्सागोई में लगे थे. सुगना उस उम्र के बच्चों का हीरो था. उस दिन फिर उसकी कथा दुहराई जा रही थी

“सुगना क्रांतिकारियों का मुखबिर था. सन बयालीस की उस डरावनी रात में छाती पर बंधे पत्थर सहित वह नहर के फाटकों में गुम हो गया. अंग्रेज़ अधिकारी विलियम सिगार के साथ कोई अंग्रेजी गीत गुनगुनाता रहा. सुगना की खैनी खाने की आखिरी इच्छा भी नहीं सुनी गई. उसकी शहादत आसपास के गाँवों में जंगल के आग जैसी फैल गयी. लोग रोष से भर उठे. उनका गुस्सा उबाल मारने लगा. देखते-देखते क्रोधित ग्रामीणों की भीड़ ने विलियम के डाकबंगले में आग लगा दी. अपने कुत्ते और घोड़े सहित विलियम आग मे भस्म हो गया. वे सब आजतक रातों में भटकते हैं…और सुगना बूड़ा बन गया.

‘सुगना की योजना थी खैनी लेने के बहाने से किसी अंग्रेज़ को दबोचकर नहर में छलांग लगाने की. जान तो अब जानी ही थी. सो एक किस्सा तमाम करके ही सही….’ कोई बोला था.

“लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. विलियम बड़ा सरकस आदमी था.” दूसरे ने कहा.

‘तभी तो रात-बिरात यदि बूड़ा बने सुगना को कोई खैनी देता है तो उसे लेकर नहर में कूद जाता है.’ किसी ने वर्तमान किवदंती से सुगना की घटना को जोड़ा.

किस्सों के पैर नहीं होते. जिधर चाहे दौड़ लगा देते हैं.

सुगना के किस्से के साथ ‘बूड़ा बनाने’ का खेल शुरू हुआ.

‘चल पवन को बूड़ा बनाते हैं.‘

बूड़ा यानी जो पानी में डूब गया हो. पवन अभी नदी में था. सभी ने आपसी सलाह मशविरा से पवन की ओर कंकड़ फेंकना शुरू किया. ताकि वह ज्यादा समय पानी में रहे. पानी में तैरता पवन जब-जब सिर बाहर निकालता, कुछ कंकर उसकी ओर उछलते. वह फुर्ती से लंबी डुबकी लगा देता. खेल की शुरुआत मस्ती से हुई, अमूमन जैसी होती है. फिर लुका-छिपी के खेल जैसा चलने लगा. पवन के सिर को निशाना बनाने के मौके ढूंढते लड़कों को अब इस कृत्य में मजा आने लगा था. खेल देर तक खिंचने लगा. बताते हैं कि आखिरी कुछ कंकर बाल गनेशी ने उछाले थे. अचानक पवन का ऊपर नीचे जाना बंद हो गया. अब पानी की सतह शांत थी.

‘अरे वह डूब गया!‘ कोई चिल्लाया.

मुसकुराते चेहरों पर हवाईयां उड़ने लगी थीं. सभी बच्चे थे, सो जान छोड़कर भागे. किसी के मन में उसे बचाने का ख्याल भी नहीं आया. न ही किसी बड़े से मदद लेने का विचार ही. भयभीत गनेशी ने भी भागते लड़कों के पीछे बेतहाशा दौड़ लगा दी. भागकर चुपचाप वे अपने कमरे में दुबक गए. घंटों चौकी के नीचे छुपे रहे.

साँझ को सारा गाँव नदी किनारे खड़ा था. पड़ोसी गाँव के तैराक घंटों पवन को ढूंढते रहे. अंत में बालेश्वर सिंह खुद नदी में उतरे थे. दूसरी डुबकी में  बाल पकड़ में आये. खींचने पर समूचा शरीर. बेटे की लाश गोद में लेकर वे जिन गलियों से गुज़रे, उस शाम वहाँ चूल्हा नहीं जला.

‘भैरों भैंसा का श्राप लगा था बालेश्वर सिंह को.’

‘कौन भैरों….जो रात को नहर से मठिया तक दौड़ता है,?’ किसी ने चौंककर पूछा.

‘भैरों काली माँ पर चढ़ाया हुआ भैंसा था’‘ बातों का रुख बदल गया था. गनेशी कहीं और लीन थे.

‘उस दिन भैरों के पीछे-पीछे दौड़ने वालों में मैं भी तो था…बालेश्वर सिंह के साथ. बड़े पाप का छोटा भागीदार! नहीं-नहीं!!’ वे बेचैन हो उठे थे.

शाम का ढलता अंधेरा दालान के अंदर उतर आया था. सामने दीवार पर लालटेन की परछाइयाँ आकार लेने लगी थीं. सघन और काली. कुछ-कुछ भैरों भैंसे की आकृति जैसी. कोई पुरानी याद… पवन के डूबने के कुछ साल पहले की. आज भी चंद लोगों के मन में उसकी यादें शेष थीं.

जब तक वह गाँव की गलियों में घूमता, बिलकुल शांत रहता. बच्चे उसकी पीठ पर चढ़ते, उसके साथ खेलते. उन्हें लिए वह मस्ती में गाँव की गलियों में टहलता रहता. पर गाँव से बाहर निकलते ही वह अगियाबैताल हो जाता. लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मारता. अधमरा कर देता. इस बात की चर्चा गाँव भर में थी. लोगों के लिए यह खबर उतनी ही अप्रत्याशित थी जितना कि उसका व्यवहार. परंतु क्या सभी के साथ ऐसा होता था …?? गाँव के एक टोले में दबी ज़बान यह बात चलती कि कुछ जमींदार किसानों और नेटुओं-कसाइयों के बीच भैरों को लेकर साँठ-गाँठ हुई है.

उस दिन खबर यही उड़ी कि ब्लॉक ऑफिस से गाँव लौटते सरपंच नकछेदी सिंह को रास्ते में दौड़ा लिया था भैरों ने. कारण की पड़ताल किसी ने की नहीं. या उसकी आवश्यकता नहीं पड़ी. कुछ लोगों की बातों पर पूरे गाँव को भरोसा था.

‘अरे! भैंसा ही तो है. देवी माँ को नहीं चढ़ाया होता तो कब का कसाई के यहाँ कट गया होगा.’ गनेशी पंडित के पिता उस पंचायत में बोले थे.

‘देवी को चढ़ा है तो क्या हम मरते रहें?’ बड़े किसान बालेश्वर सिंह बोल पड़े थे.

पंचायत में गाँव की समस्या ‘भैरों’ को लेकर बहुत सी बातें हुईं. फिर चंद लोगों ने मिलकर एक फैसला लिया था.

वह जेठ की चिचिलाती दुपहरी थी. सूरज की ओर ताकने पर आँखों के सामने अंधेरा छा जाता. नदी की तली में मिट्टी की पपड़ियाँ  दिखती और खेतों में लंबी-लंबी दरारें. बधार में हवा सांप की मानिंद सरसराती. अचानक गाँव के पूरब से शोर उठा. कुछ ही पलों में भैरों नदी किनारे भागता दिखा. उसकी पीठ के ताज़े ज़ख्म से खून रिस रहा था. नथुनों से उजला फेन निकल रहा था. पीछे-पीछे भाले, बरछी और लाठियाँ लिए भागते लोग. बच्चे-जवान और अधेड़ लोग. लोगों में दस साल के गनेशी पंडित भी थे. भैरों नदी के तल पर पड़ी सूखी पपड़ियों को सरपट रौंदता उस पार खेतों में निकल गया. उसके पीछे उड़ी धूल को चीरती भीड़ दौड़ रही थी, जैसे कोई उन्मादी जत्था हो. सबसे आगे दौड़ रहे बालेश्वर सिंह ने सरपट भागते भैंसे की पीठ को निशाना करके भाला फेंका.

खच्च… भाले की नोक उसकी पीठ में धँस गई.

बाँआआSS… भैरों की डहकार से पूरा इलाका थर्रा उठा. अचानक भीड़ ठिठक गयी. भागते बालेश्वर सिंह भी… जो हुआ शायद वैसी उनकी मंशा कभी नहीं थी.

पर भैरों रुका नहीं. पीठ में धँसे भाले संग भैरों डकारता भागता चला गया. अब भीड़ में खलबली थी. अफ़सोस के साथ आरोप प्रत्यारोप. बताते हैं दस कोस दूर वह एक बड़े तालाब के किनारे पर गिरा. वहाँ के अहीरों ने उसकी पीठ में धँसे भाले को निकाला था. उसे पानी पिलाया था. घाव से रिसते खून को रोकने की हरसंभव कोशिश की थी. परंतु बहुत देर हो चुकी थी. भैरों मर गया. जिन रास्तों से वह गुजरा था, वहाँ के गाँवों में इस गाँव के प्रति अब केवल घृणा थी.

उस वक़्त यह खेल जैसा था… हो हल्ले के साथ भैंसे को दौड़ाना. ढेला-पत्थर फेंकना. गाँव में चर्चा थी कि बालेश्वर सिंह को निर्दोष भैरों का श्राप लगेगा!

कुन्दन का असमय जाना किसका श्राप है! गनेशी पंडित जड़वत बैठे थे.

श्राद्ध तक वे दालान में बेसुध ही रहे. जैसे-तैसे कर्मकांडों का निर्वहन हुआ.

श्राद्ध का पिंड बनाते वक्त पुरोहित उनके कान में धीरे से फुसफुसाए-

अनजाने में हुए पापों के लिए प्रायश्चित का आचरण करें जजमान!

‘किससे…? भैरों से… या..!’ वे बुदबुदाए.

श्राद्ध के बाद के दिनों में वे दिनभर पुत्र शोक से बिंधे जार-जार कलपते. रात को शिवालय में नंगे बदन खड़े बड़बड़ाते

“हे ईश्वर! किस कर्म की सजा दी. जवान बेटे को मुखाग्नि! कैसा अनर्थ!” कहते-कहते वे मूर्छित हो जाते.

अलसुबह पूजा के लिए आती स्त्रियाँ उन्हें फर्श पर गिरा देख चीख पड़तीं. लोगबाग उन्हें घर लाते.

उस रात चाँदनी छिटकी थी. गनेशी का मन बेचैन था. दूर घड़ियाल ने रात के बारह बजाए. मटमैली धोती लपेट वे बाहर निकल आए. हर तरफ सन्नाटा था. शिवालय को बाहर से प्रणाम किया.

धीरे कदमों से वे बढ़ चले. हल्की हवा बह रही थी. राह के दोनों ओर लगे कास फूल सोने की तरह दमक रहे थे. पर उन्हें कुन्दन की स्मृतियाँ घेर लेतीं. इस रास्ते अनगिनत बार पिता-पुत्र साथ गुजरे होंगे. आज वे अकेले थे.

धीमे-धीमे वे गाँव की मठिया की तरफ चले आए थे. सड़क से अपनी बाईं ओर उन्होंने मठिया की तरफ नजर डाली. यज्ञशाला में अंधेरा पसरा था. उसके बाहर हनुमान जी के चबूतरे पर एक दीया हल्की पीली लौ के साथ टिमटिमा रहा था. सड़क के दूसरी तरफ पाकड़ का पुराना पेड़ खामोशी से खड़ा था. पोखर के जल  में उसकी परछाईं झलक रही थी. वे पोखर में उतरे. धीरे-धीरे अंदर की ओर सरकते हुए कमर भर पानी में खड़े हुए. हाथ में जल लेकर इष्टदेव का स्मरण किया. जल पोखर में छोड़ कानों पर हाथ रखकर कोई मंत्र बुदबुदाए. सहसा उन्हें कोई आवाज़ सी आती महसूस हुई. दूर किसी के भागने की आवाज़ थी. आवाज़ शनैः-शनैः समीप आती लगी

‘धपड़-धपड़-धपड़!’

वे पोखर के जल से बाहर निकल आए थे. आवाज अब आकृति का रूप ले रही थी.

वे फुसफुसाए – ‘भैरों!’

चाँदनी में भैरों की आकृति स्पष्ट थी. पर वह अकेला नहीं था. उसकी पीठ पर दो परिचित आकृतियों को देख वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए. भैरों ने हुंकार भरी. वे सचेत हुए. आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी. हाथ जोड़कर पुकारा

‘क्षमा भैरों!

द्रुत गति से आते भैरों ने गनेशी पंडित को सींगों से पोखर की ओर उछाल दिया

‘भड़ाक!

वे कुछ क्षण हवा में रहे. पोखर में समाते हुए उन्होंने बस इतना देखा कि दोनों आकृतियों के साथ भैरों सीधा पोखर में कूद पड़ा

‘धड़ाम.‘ मानो कोई जलजला आया हो.

पोखर का चाँद ज़ोर से हिला. देर तक हिलता रहा…!

अब भँवर के पास नया किस्सा है.

नवनीत नीरव
15 अक्टूबर 1985

कहानी संग्रह: दुखान्तिका, अन्तिका प्रकाशन से 2021 में प्रकाशित
कविता संग्रह: ‘मन गीला नहीं होता’ हिन्दयुग्म प्रकाशन से 2013 में प्रकाशित.

navnitnirav@gmail.com

Tags: 20222022 कथानवनीत नीरवभँवर
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Comments 3

  1. प्रचण्ड प्रवीर says:
    2 months ago

    अच्छी कहानी! नवनीत जी को बधाई

    Reply
  2. ललन चतुर्वेदी says:
    2 months ago

    नवनीतजी,,यह कहानी बहुत अच्छी बन पड़ी है। यह ग्राम्य परिवेश की कथा है जिसमें स्वाभाविक रूप से दार्शनिक पुट भी है तथापि मनुष्य- मन के भटकन की कहानी है। दुख के क्षणों में मन विभिन्न कोठे पर भटकने लगता है। गनेशी भी यही सोच रहा है। फिर भी, कहना चाहूँगा हर बार सुकर्म या कुकर्म क्रमश: शुभ या अशुभ फलदायी नहीं होता। हालांकि इसकी स्थापना आपका उदेश्य भी नहीं है। आपने मनुष्य मन के अंतर्द्वंद्व को बखूबी प्रस्तुत कर दिया है और इस दृष्टि से कहानी सफल है। आरंभ में ही आपने एक नया प्रयोग कर दिया है जो समकालीन शैली से भिन्न कुछ हद तक पौराणिक मिथक जैसा लगता है। (मैंने बतौर पाठक इसे देखा है और ऐसा समझा है।असहमति और विमर्श की गुंजाइश तो सदैव बनती है)
    ललन चतुर्वेदी

    Reply
  3. गौतम says:
    2 months ago

    हर कर्म की अपनी एक ऊर्जा होती हैं …. वह अपना वृत पूरा करती ही है। इंसान तो एक जनम को ही देख पाते हैं इसलिए कह देते हैं कि बुरे के साथ बुरा कहाँ होता है। लेकिन हमारा वेदान्त -उपनिषद ऐसे दृष्टांतों से भरा पड़ा है जहां असंख्य जन्म इसलिए लेने पड़ते हैं कि कर्मों का खाता निल करना होता है। कोई कोई विरला ही बुद्ध , नानक , कबीर की तरह इन कर्मों के बंधन को तोड़ जन्म-मरण के चक्र से बाहर चला जाता है।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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