विनोद कुमार शुक्ल
मूल निवास का तिलिस्म, स्किट्जोफ्रिनिया[1] और ‘क्रांतिकारी’ कविता
गिरिराज किराडू
(यह निबंध विनोद कुमार शुक्ल की चार कविताओं का पठन करता है. वैसे चारों एक ही पठन के भाग हैं लेकिन पहले को स्वतन्त्र भी पढ़ा जा सकता है. – गिरिराज किराडू)
१.
पानी गिर रहा है
पानी गिर रहा है
बरसात की जगह –
जहाँ मैं रह रहा हूँ
बरसात का मेरा घर
बरसात की मेरी सड़क
बार बार भीगते हुए
बरसात का मूल निवासी .
अरी! बरसात की गीली चिड़िया
पंख फड़फड़ा
शाखा पर भीगते बैठी रह
अभी आकाश बरसात का है
पानी के बंद होते ही
बरसात से सब कुछ होगा निर्वासित
मैं भी!
अपने मूल निवास का यही तिलिस्म है.
विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता पानी गिरने का एक अति परिचित विवरण है– पानी गिरे और सब कुछ बरसातमय हो जाये– जब तक कि इस कविता के दृश्य में एक अन्यदेशीय पद ‘मूल निवासी’ नहीं आता. बाद में ‘मूल निवासी’ से अर्थगत तादात्म्य रखने वाला एक और पद ‘निर्वासित’ आता है और अंतिम पंक्ति में ‘मूल निवास’ के साथ साथ एक और अन्यदेशीय पद ‘तिलिस्म’. यदि इस कविता से इन तीन अन्यदेशी तत्वों (‘प्रवासियों’) को निर्वासित कर दिया जाय तो यह कविता अपने कवित्व से वंचित एक बंजर हो जायेगी. ‘मूल निवास’ और ‘निर्वासित’ दोनों अर्थों से भरे (लोडेड) प्रत्यय हैं उनके संयोग से जो कथा कही जाती रही है वह कोई और ही कथा है.
‘निर्वासन’ बीसवीं शताब्दी को परिभाषित करने वाली संघटनाओं में से एक था और मूल निवासों की ओर लौटना– यह क्रिया उस शताब्दी के प्रमुख व्यंजकों में से एक. विनोद कुमार शुक्ल की कविता में उपस्थित दृश्य सामग्री में मूल निवासों का, उनसे विस्थापन और उनकी ओर लौटने का कोई सादृश्य नहीं– ये दोनों पद इस कविता के दृश्य में आ कर एक तरह का अर्थ–संघर्ष उसमें उत्पन्न कर देते हैं. जितना वे अपने गुरुत्व से इस दृश्य के उपलब्ध ‘अर्थ’ को विचलित, अनुकूलित और नियंत्रित करने का यत्न करते हैं उतना ही यत्न यह दृश्य भी उनके उपलब्ध अर्थ/अर्थों को विस्थापित करने का करता है. ‘मूल निवास’ और ‘निर्वासन’ को इस कविता में वैसे नहीं पढ़ा जा सकता जैसे अन्यत्र, उनसे वही कथा नहीं कही जा सकती जैसी अन्यत्र.
पानी गिर रहा है और कविता का आख्याता मनुष्य जहाँ रहता है, जिस घर में रहता है वह उसका मूल निवास नहीं है, बल्कि गिर रहे पानी ने भीगी हुई चीजों का जो एक नया, टेम्परॅरि देश बनाया है वह उसका मूल निवास है, वह अपने घर, अपने भूगोल का नहीं ‘बरसात का मूल निवासी’ है. यह मूल निवास के मूल, उपलब्ध अर्थ का विस्थापन है – मूल निवास टेम्परॅरि नहीं हो सकते. वे ‘शाश्वत’ होते हैं, स्थायी – (अस्थायी तो प्रवास होते हैं!) उनकी ओर लौटना सदैव संभव है. और जो टेम्परॅरि है उससे कैसा निर्वासन? किंतु इस कविता में यही होता है: जो टेम्परॅरि है वही मूल है और उसका समापन निर्वासन है. कविता मूल निवास, अन्यदेश और निर्वासन की भूचित्रात्मक, भावात्मक, नैतिक हॉयरार्की को अस्थिर कर देती है और विनोद कुमार शुक्ल घर–वापसी और लौटने की क्रियाओं से विमोहित जिस भाषा (हिन्दी) में लिखते हैं उसकी नॉस्टेलजिक नैतिकता अचंभित हो कर सोचती है– घर किस दिशा में है?
मिलान कुंदेरा जिनके छोटे–से मातृदेश, तत्कालीन ‘कम्यूनिस्ट’ चेकोस्लोवाकिया, पर पाँच लाख सैनिकों के साथ सोवियत रूस ने 1968 में त्रासद ढंग से कब्जा कर लिया था, 1975 से फ्राँस में रह रहे हैं और मूल निवास और निर्वासन की उस कथा को बहुत नज़दीकी और पीड़ा से जानते लिखते रहे हैं जिसे यह कविता नहीं कहती. रूसी सेना 1989 तक चेकोस्लोवाकिया में रही पर उसकी वापसी के बाद भी कुंदेरा घर नहीं लौटे. पिछले कई बरसों से फ्राँस के ‘नागरिक’ और अब एक अधिक गहरे अर्थ में फ्रेंच हो चुके (उनके पिछले कुछ उपन्यास फ्रेंच में लिखे गये हैं) कुंदेरा के 2002 में प्रकाशित फ्रेंच उपन्यास इग्नोरेंस (अंग्रेजी अनुवादः लिंडा अशर/ फेबर के सहयोग से पेंग्विन) में नॉस्टेल्जिया पूरे उपन्यास का मूल है– एक तरह से उसका कृतित्व. कुंदेरा नॉस्टेल्जिया को एक सर्वथा नये, कल्पनाशील अनुभव/गल्प में बदल देते हैं. नॉस्टेल्जिया के ग्रीक उद्गम nostos (=return) और algos (=suffering) को फिर से सक्रिय करते हुए वे इसे ‘लौटने की एक अतृप्त कामना’ की तरह पढ़ते है और होमर के महाकाव्य ओडिसी का एक नया पाठ ‘नॉस्टेल्जिया के आदिकाव्य’ की तरह करते हैं. इस महाकाव्य का नायक ओडिसस दस बरस तक ट्रॉय का युद्ध लड़ता है, युद्ध समाप्त होने पर वह अपने मातृदेश इथाका लौटने की कोशिश करता है (अपनी पत्नी पेनेलोप के पास) लेकिन अगले दस और बरस नहीं लौट पाता; इनमें से अंतिम सात बरस वह केलिप्सो के बंदी और प्रेमी की तरह बिताता है. कुंदेरा लिखते हैं
Homer glorified nostalgia with a laurel wreath and thereby laid out a moral hierarchy of emotions. Penelope stands at its summit, very high above Calypso.
Calypso, ah, Calypso! She loved Odysseus. They lived together for seven years. We do not know how long Odysseus shared Penelope’s bed, but certainly not so long as that. And yet we extol Penelope’s pain and sneer at Calypso’s tears.[1]
कुंदेरा स्वकीया मूल और परकीया अन्य में आरोपित जिस नैतिक हॉयरार्की को होमर के महाकाव्य के पात्रों में, महाकाव्य, नायकत्व और युद्धों की लॉर्जर दैन लाईफ कथा में, मिथकीय में पढ़ते हैं वह उस सारे घमासान से दूर सड़क, चिड़िया और पेड़ के रोजमर्रा पर पानी गिरने के एक ‘साधारण’ दृश्य में, पन्द्रह बहुत छोटी काव्य पंक्तियों से बनी एक अन्यदेशीय, हिन्दी कविता में चुपचाप, बारिश थमने की तरह उलट दी जाती है.
हमने कविता में जिन तीन अन्यदेशीय तत्वों को पहचाना था उनमें से ‘तिलिस्म’ को, निश्चय ही जानबूझकर नहीं, हम भूल गये. तिलिस्म शब्द का उद्गम ग्रीक है और उसके प्रचलित अर्थ – रहस्य या कोई जादुई जगह या वह चीज़ जिसे किसी कोड़ से उत्तीर्ण करना होता है. लेकिन सुहैल अहमद खान[2]तिलिस्म के प्रतीकात्मक अभिप्रायों का अध्ययन करते हुए यह प्रस्तावित करते हैं कि न सिर्फ यह संसार खुद एक तिलिस्म है ऐसा मानने की, इस सेंसिबिलिटी की एक परंपरा रही है बल्कि कहा जा सकता है कि तिलिस्म = संसार है. इस तरह देखने पर ‘अपने मूल निवास का तिलिस्म’ यही है कि मूल निवास खुद एक तिलिस्म है, और जैसा अशोक वाजपेयी[3]संकलन की भूमिका में कहते हैं, ‘जहाँ हम रहते हैं (क्या) वहीं तिलिस्म है?’
२.
हिरन तेज दौड़ता है
हिरन तेज दौड़ता है
कुलांचें भी भरता है
जैसे जंगल के सींकचों के अंदर.
पक्षी उतनी दूर नहीं जाता होगा
जितनी दूर वह जा सकता होगा
हिमालय उतना ऊंचा नहीं है
वह कुछ और ऊंचा हो सकता था.
समुद्र कुछ छोटा, कुछ कम गहरा है.
एक लंबी नदी, कुछ कम लंबी है.
तारे और हो सकते थे, कम हैं.
वह एक हवा है जो सब जगह है,
सब जगह का भी एक सीकचा है.
और यह वही हवा है
न उसमें कोई जोड़ है
और न उसमें कोई उठान है.
यह कविता – हिरन तेज दौड़ता है – कुल १८ बेहद छोटी काव्य पंक्तियों से बनी हुई है. ऊपर पहली पन्द्रह उद्धृत हैं. शेष तीन पंक्तियाँ जिनमें कुल १५ बेहद छोटे शब्द हैं (प्रत्येक में पाँच) के बारे में अटकल लगाने की कोशिश की जाये.
हिरन जो पहला ‘एनिमेटेड ऑब्जेक्ट’ है कविता में वह तेज दौड़ता है, कुलांचे भरता है ‘जैसे’ जंगल के ‘सीकचों’ के अंदर. हम स्वछंदता और परिसीमन (कैद) के एक दृश्य के सामने हैं. जंगल जिसे हम अक्सर ‘स्वछंदता’, ‘प्राकृतिक’, ‘आदिम’ के संकेतक की तरह जानते हैं, वह खुद एक बड़ी–सी कैद है. कविता आगे इस तर्क का विस्तार करती है. पक्षी जो कविता का दूसरा ‘एनिमेटेड ऑब्जेक्ट’ है उसकी उड़ान की एक सीमा है; समुद्र और हिमालय और नदी और तारे सबके होने की एक ‘सीमा’ है: वे जितने हैं उससे ज्यादा हो सकते थे. सिर्फ एक हवा है जो ‘सब जगह है’ लेकिन ‘सब जगह’ का भी एक ‘सीकचा’ है. कविता कहना चाहती है कि ‘सब जगह’, समूची कायनात एक ‘कैद’ है. समूची कायनात को, जीवन को, देह को ‘कैद’ मानने की सेंसिबिलिटी सदैव से रही है. एक तरह की दार्शनिक/मेटाफिजिकल/धार्मिक/पोयटिक संवेदना रही है जो काया और संसार को कैद/बंधन की तरह कल्पित करती है और काया तथा संसार से ‘मुक्ति’ को जीवन का उद्देश्य मानती है. यह कविता यह कहने के बाद कि सब जगह का एक सीकचा है, समूची कायनात एक कैद है यह कहने लगती है कि
और यह वही हवा है
न उसमें कोई जोड़ है
और न उसमें कोई उठान है.
इसके बाद समापन करती हुई तीन और पंक्तियाँ आनी हैं. एक ‘तार्किक’ समापन यह हो सकता है:
१.
हवा का भी एक सीकचा है
या यह कि:
२.
हवा भी एक सीकचा है
हमारे द्वारा अनुमानित, ‘तार्किक’ समापन कविता को एक ‘संगति’ देते हुए लगते हैं. लेकिन खुद कविता के सरंचनात्मक तर्क से अधिक ‘संगत’ होगा हमारा अनुमान यदि समापन इस तरह हो:
३.
हवा भी एक सीकचा है
जहाँ नहीं हो सकती वह
वहाँ नहीं है यह हवा
विनोद कुमार शुक्ल की अन्य कथन भंगिमाओं का प्रयोग करते हुए समापन की एक सम्भावना यह भी हो सकती है:
४.
हवा का भी एक सीकचा है के
सीकचे में हवा तेज दौड़ती है
कुलांचे भरती है
या यह कि
५.
सब जगह का एक सीकचा है के
सीकचे में हवा का सीकचा है
हवा नहीं हैं
इस बात की सम्भावना कितने प्रतिशत है कि इस कविता के आखिरी १५ शब्दों में तीन ‘जेल’, ‘नेल्सन’ और ‘मंडेला’ हो सकते हैं?
जेल से बाहर की साँस
कोई नहीं ले रहा है
जेल में नेल्सन मंडेला है
इस समापन में सीकचा=जेल है और जिस कायनात में ‘जेल से बाहर की साँस कोई नहीं ले रहा’, जो कायनात खुद एक सीकचा=जेल है उस कायनात में नेल्सन मंडेला जेल में है. क्या यह समापन एक ‘संगत’ समापन है? सीकचा=जेल इस कविता को एक ऐसे पाठ में बदलता है जिसमें स्वच्छंदता=आज़ादी और परिसीमन=अधीनता हैं.
‘नेल्सन मंडेला’ इस कविता का तीसरा ‘एनिमेटेड ऑब्जेक्ट’ है.
यदि कोई भी जेल से बाहर की साँस नहीं ले रहा तो नेल्सन मंडेला और शेष ‘आज़ाद’ मनुष्यता में क्या फ़र्क है? हिरन और पक्षी और समुद्र और हिमालय और लंबी नदी और तारों और हवा के ‘नैसर्गिक’ में दो ‘साभ्यतिक’ संकेतकों ‘नेल्सन मंडेला’ और ‘जेल’ का प्रवेश इस कविता को ‘नैसर्गिक’ और ‘साभ्यतिक’ के रोमांटिक जक्स्टापोजिशन की कविता नहीं बना देता जिसमें स्वछंदता=आजादी=नैसर्गिक है और सीकचा=जेल=साभ्यतिक है?
क्या इस कविता को ऐसे पाठ की तरह पढ़ा जा सकता है जो महज एक व्यक्तिवाचक (‘नेल्सन मंडेला’) को इन्सर्ट करके आज़ादी और अधीनता के नैसर्गिक-साभ्यतिक युग्म को सत्ता और प्रतिरोध, अपार्थीड और सत्याग्रह के युग्म में परिवर्तित या विस्तृत करने की महत्वाकांक्षा करता है? ‘नेल्सन मंडेला’ कविता के दूसरे ‘एनिमेटेड ऑब्जेक्ट्स’ और मनुष्येतर संकेतकों से बहुत भिन्न एक संकेतक है. वह संकेतनों की एक विस्तृत, जटिल श्रृंखला है जिसे उस श्रृंखला से विच्छिन्न नहीं किया जा सकता, जिसे किसी और संकेतक से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता. इन आखिरी तीन पंक्तियों को किसी भी और तरीके, किसी भिन्न संकेतक के साथ लिखा जा सकता है?
१.
जेल से बाहर की साँस
कोई नहीं ले रहा है
जेल में कैदी है
२.
जेल से बाहर की साँस
कोई नहीं ले रहा है
जेल में शेर है
३.
जेल से बाहर की साँस
कोई नहीं ले रहा है
जेल में मोहनदास करमचंद गाँधी है
४.
जेल से बाहर की साँस
कोई नहीं ले रहा है
जेल में सद्दाम हुसैन है
५.
जेल से बाहर की साँस
कोई नहीं ले रहा है
जेल में वसुदेव देवकी है
इनमें से प्रत्येक समापन एक दूसरा समापन है और कविता को एक दूसरी कविता बना सकता है. ‘सद्दाम हुसैन’, ‘वसुदेव देवकी’, ‘मोहनदास करमचंद गाँधी’ के साथ यह कविता विभिन्न आख्यान-कालों में लगभगउसी अन्विति की ओर जा सकती है लेकिन सिर्फ लगभग ही. ‘शेर’ और ‘कैदी’ जैसे ‘जेनेरिक’ संकेतक इसे उस पारिस्थितिकी (Context) से वंचित कर देंगे जो उसे ये वास्तविक लेकिन आनुमानिक व्यक्तिवाचक संकेतक प्रदान कर सकते हैं. इन व्यक्तिवाचकों के अभाव में वह आज़ादी और अधीनता के एक ‘समयातीत’(Decontextualized) निष्पादन में बदल जायेगी. नेल्सन मंडेला को यदि ‘सद्दाम हुसैन’ या ‘मोहनदास करमचंद गाँधी’ या ‘वसुदेव देवकी’ से प्रतिस्थापित कर दिया जाये तो पारिस्थितिकी=आख्यान-देश/आख्यान-काल बदल जाने के कारण समूची कविता का ‘अर्थ’ बिलकुल बदल जायेगा.
किन्तु ‘नेल्सन मंडेला’ से संकेतित परिस्थिति(अपॉर्थीड, प्रतिरोध, संघर्ष, मंडेला की जीवन गाथा आदि) सब कविता में अनुपस्थित है. कविता के अपने शब्द-क्षेत्र में परिस्थिति (Context) की यह अनुपस्थिति क्या इस ‘लोडेड’ संकेतक को उसके समयबद्ध संकेतों से मुक्त करने के लिए है? क्या यह कविता को एक ‘तात्कालिक’ राजनितिक पाठ में विसर्जित होने से बचाने के लिए, उसे एक ‘सार्वकालिक’ ‘वृहत्तर’ में उपलब्ध करने के लिए है? यदि ऐसा है तो इस कविता में ‘नेल्सन मंडेला’ जैसे सदैव अप्रतिस्थापनीय संकेतक की उपस्थिति संगत और सुविचारित न होकर रेंडम और आर्बिट्रेरी है? और यदि यह ऐसी है तो इसके यहाँ होने का अभिप्राय या औचित्य ही क्या है?
इस कविता का शीर्षक हिरन तेज दौड़ता है क्यूँ है?
३.
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह
रबर की चप्पल पहिनकर मैं पिछड़ गया
यह दो पंक्तियाँ एक अर्थगत सम्बन्ध से जुडी हुई हैं. पहली पंक्ति का कर्ता ‘वह’ कुछ पहन कर चला जाता है, दूसरी पंक्ति का कर्ता ‘मैं’ कुछ पहनकर पिछड़ जाता है. ‘चला गया’ और ‘पिछड़ गया’: इन दो क्रियाओं की अर्थगत पारस्परिकता एवं ‘नया गरम कोट पहिनकर’ और ‘रबर की चप्पल पहिनकर’ की अर्थगत पारस्परिकता, ‘वह’ और ‘मैं’ की पारस्परिकता के विवरण हैं.
वह…… नया गरम कोट पहिनकर……(विचार की तरह) ……. चला गया
मैं ……. रबर की चप्पल पहिनकर …………………………….पिछड़ गया
जो पिछड़ गया वह रबर की चप्पल पहिनकर पिछड़ गया, जो चला गया वह नया गरम कोट पहिनकर चला गया. जो चला गया वह कहाँ चला गया? क्या उसे चले जाने का विकल्प इसलिए हासिल है कि उसने नया गरम कोट पहिना है? जिसने रबर की चप्पल पहिनी है उसे क्या इसलिए पिछड़ जाना है कि उसने रबर की चप्पल पहिनी है? क्या रबर की चप्पल विचार की तरह नहीं पहिनी जा सकती? क्या विचार नए गरम कोट की तरह ही पहिना जा सकता है? क्या प्रत्येक विचार इसी तरह पहिना जा सकता है? क्या विचार पहन लेने पर (दृश्य से) चला जाना होता है? क्या रबर की चप्पल पहिन लेने पर पिछड़ ही जाना होता है?
वाक्यभंग के विनोद कुमार के काव्यशास्त्र में‘मानक संरचना’ वाले दो वाक्यों की यह पारस्परिकता और उनके बीच एक ‘अर्थगत’, ऋजु संबंध एक विशेष घटना है. लेकिन इस अर्थगत पारस्परिकता का मानो यहीं समापन हो जाता है; कविता की शेष पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
जाड़े में उतरे हुए कपड़े का सुबह छः बजे का वक्त
सुबह छः बजे का वक्त, सुबह छः बजे की तरह.
पेड़ के नीचे आदमी था.
कुहरे में आदमी के धब्बे के अंदर आदमी था.
पेड़ का धब्बा बिल्कुल पेड़ के धब्बे की तरह था.
दाहिने रद्दी नस्ल के घोड़े का धब्बा,
रद्दी नस्ल के घोड़े की तरह था.
घोड़ा भूखा था तो
उसके लिये कुहरा हवा में घास की तरह उगा था.
और कई मकान, कई पेड़, कई सड़कें इत्यादि कोई घोड़ा नहीं था.
अकेला एक घोड़ा था. मैं घोड़ा नहीं था
लेकिन हाँफते हुए मेरी साँस हूबहू कुहरे की नस्ल की थी.
यदि एक ही जगह पेड़ के नीचे खड़ा हुआ आदमी वह मालिक आदमी था
तो उसके लिए
मैं दौड़ता हुआ, जूते पहिने हुए था जिसमें घोड़े की तरह नाल ठुकी हुई थी.
पहली दो पंक्तियों से, उनमें निर्मित हो रही पारस्परिकता और उनके‘अर्थ’ से शेष पंक्तियों का क्या संबंध है? क्या यह ‘दृश्य’ उस ‘मैं’ के इर्द–गिर्द का दृश्य है जो ‘रबर की चप्पल पहिने’ ‘पिछड़ गया’ था? यदि हाँ तो भी इस पूरे दृश्य का उस ‘आदमी’ से क्या संबंध है जो ‘नया गरम कोट विचार की तरह पहिनकर चला गया’? क्या कोई संबंध है भी?
खुद इस दृश्य में वस्तुओं की पारस्परिकता कैसी है? ‘जाड़े में उतरे हुए कपड़े’, ‘सुबह छः बजे का वक्त’, ‘पेड़ के नीचे आदमी’, ‘कुहरे में आदमी के धब्बे के अंदर आदमी’, ‘रद्दी नस्ल के घोड़े का धब्बा’, ‘भूखा घोड़ा’, ‘हवा में घास की तरह उगा कुहरा’, ‘मकान’, ‘सड़कें’, ‘हूबहू कुहरे की नस्ल की साँस’, ‘मालिक आदमी’, ‘जूता पहिने हुए मैं’, ‘घोड़े की तरह ठुकी नाल’ – यह सब संकेत सामग्री मिलकर जो ‘दृश्य’ बनाती है उस दृश्य के विभिन्न टुकड़ों का, इस सामग्री का परस्पर संबंध कुछ ‘अवास्तव’ संयोजनों पर निर्भर हैः ‘मैं’ घोड़ा नहीं था लेकिन ‘मैं’ ने जो जूते पहिने थे उनमें ‘घोड़े की तरह नाल ठुकी थी’; मैं की ‘साँस हूबहू कुहरे की नस्ल की थी’ और नस्ल घोड़े की भी थी जो ‘रद्दी’ थी; ‘रद्दी’ नस्ल वाला यह घोड़ा अगर ‘भूखा था’ तो ‘कुहरा हवा में घास की तरह उगा था’, जो आदमी पेड़ के नीचे खड़ा था वह यदि ‘मालिक आदमी था’ तो मैं उसके लिये दौड़ रहा था. इस ‘अवास्तव’ दृश्य से जो आदमी ‘विचार’ की तरह कुछ पहिनकर चला गया उसका संबंध का क्या इतना भर है कि उसके ‘विचार की तरह नया गरम कोट’ पहनने की इसके अलावा कोई वजह नहीं थी कि यह सुबह जाड़े की कुहरे वाली सुबह थी?
क्या यह दृश्य संकेतनों का एक ‘खेल’ है?
या यह भाषा की स्किट्जोफ्रिनिक अवस्था है जिसमें शब्द और अर्थ की संगति, वाक्य संरचना की संगति, वाक्यों की क्रमिक संगति अनुपस्थित है. कुछ इस तरह कि इसे एक ‘कूट व्याख्या’/’चिकित्सा’ द्वारा ही एक ‘सामान्य’, संगत विवरण में पुनरूप्लब्ध किया जा सकता है. क्या यह पुनरूप्लब्धि संभव है?
इस स्किट्जोफ्रिनियाका शीर्षक वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह क्यूँ है?
पहले वाक्य में ‘विचार की तरह’ = ?
‘वह’ या ‘नया गरम कोट’?
इस पहले वाक्य का अन्वय दो तरह से संभव हैः‘वह चला गया विचार की तरह, नया गरम कोट पहिनकर’ और ‘वह नये गरम कोट को विचार की तरह पहिनकर चला गया’. दोनों बार ‘अर्थ’ कुछ बदल जायेगा. लेकिन महत्वपूर्ण यह भी है कि इस वाक्य में ‘विचार’=?
इस वाक्य में विचार क्या इस तरह है जैसे मैं अपने दिन भर के किये धरे पर विचार कर रहा था में या इस तरह जैसे कोसल में विचारों की कमी है में. अगर ‘विचार’ एक नये गरम कोट की तरह है तो यह निश्चय ही बहुत आरामदायी, गरमास पहुँचाने वाला विचार होगा. लेकिन उसे पहनने वाला दृश्य से बाहर चला जायेगा. ‘रबर की चप्पल पहिनकर’ पिछड़ जाने वाला मैं ही क्या वह ‘मैं’ भी है जो घोड़ा नहीं है और जो बाद में ‘जूता पहिने हुए’ है. बाद के दो ‘मैं’ भी एक ही हैं या भिन्न? क्या इस कविता, इस स्किट्जोफ्रिनिक पाठ का ‘अर्थ’/’व्याख्या/’चिकित्सा’, उसकी ‘सामान्य’ पुनरूप्लब्धि इस प्रकार संभव हैः
जिसके पास ‘विचार’ है, वह दृश्य(=‘यथार्थ’?) से बाहर है. जिसके पास ‘विचार’ नहीं है, जो विचार से ‘वंचित’ है वह अपने मालिक आदमी के आगे उसी तरह दौड़ता रहता है जैसे एक रद्दी नस्ल का भूखा घोड़ा.
जैसे ही हम इस स्किट्जोफ्रिनिक भाषा पर एक व्याख्या/चिकित्सा आरोपित करते हैं वह ‘अदृश्य’ हो जाती है क्योंकि इस भाषा में ‘सुबह छः बजे का वक्त’, ‘सुबह छः बजे के वक्त की तरह है’; ‘पेड़ का धब्बा बिल्कुल पेड़ की तरह है’. यह श्लेष और उत्प्रेक्षा के संक्रमण से, ‘दो अर्थ के भय’ से सुरक्षित(immune) भाषा है; इसका ‘काव्यत्व’ इसके स्किट्जोफ्रिनिक होने में ही है?
४.
लगभग जयहिंद
रौबदार आदमी ने दो सोने के दाँतों की जँभाई ली.
मुझे भी जँभाई आने लगी.
एक आलीशान आश्चर्य की चर्चा हुई.
यह एक किस्सा है जो ‘रौबदार आदमी’ के ‘दो सोने के दाँतों की जँभाई लेने’ से शुरू होता है, ‘मुझे भी जँभाई’ आने लगती है और तभी चर्चा होती है एक ‘आलीशान आश्चर्य’ की.
उसमें भी विस्थापित टिपरिया होटल में
मेरा छोटा भाई तश्तरी प्याले धो रहा था.
मैंने उसे दो लात लगाई और ठीक बाएं मुड़कर
ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल से
सट कर चलता चला गया –
रिश्तेदार मुझे दबाकर चलता था.
तीन पंक्तियों तक कायम वाक्यगत सम्बन्ध टूट जाता है. ‘उसमें भी’ को पिछले वाक्य से संबद्ध करने पर यह ‘अर्थ’ बनता है कि जो ‘आलीशान चर्चा’ हुई ‘उसमें भी’ विस्थापित होटल टिपरिया में मेरा छोटा भाई तश्तरी प्याले धो रहा था’. लेकिन इसका अन्वय इस तरह भी हो सकता है कि जो ‘आलीशान चर्चा’ हुई उसमें भी विस्थापित मेरा छोटा भाई टिपरिया होटल में तश्तरी प्याले धो रहा था. ‘विस्थापित’ खुद एक विस्थापित संकेतक (Transferred Epithet) बन जाता है बल्कि एक तरह का मुक्त संकेतक जो अपने अर्थगत सहसंयोजनों (Semantic/Diachronic Associations) से भी विस्थापित हो जाता है.
खड़े खड़े मैं घसीटा गया.
थक कर नीचे बैठते ही
दीवाल और ऊंची हो जाती थी.
छलांग लगाने की मेहनत की तरह.
फिर जीवित दिखने के लिए
इधर उधर हिलते हुए
थोड़ी बहुत कोशिश
छलांग लगाने की
जिसमें खास खास लोगों के लिए
दीवाल के बीच चार कीलों से ठुंका
अपना ही इकतीस साल पुराना
कपडे पहिने हुए
मात्र छलांग लगता हुआ एक फोटो ही.
फोटो में बांये हाथ से
कमीज की जेब दबाये हुए!
फोटो में अठन्नी थी
या फोटो में बचत की आठ आने की स्थिरता!
रौबदार आदमी के जँभाई लेने से शुरू हुआ यह ‘‘नैरेटिव’’ ‘ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल’ के एक तरफ पहुँच कर रुका हुआ है और ‘मैं’ ‘जीवित दिखने के लिए’ इधर उधर हिलने की और थोड़ी बहुत कोशिश छलांग लगाने की कर रहा है. ‘ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल’ के अर्थगत सहसंयोजन सक्रिय होने लगते हैं कि दीवाल के बीचों बीच ‘चार कीलों से ठुंका’, ‘अपना ही इकतीस साल पुराना’, ‘कपडे पहिने हुए’, ‘मात्र छलांग लगता हुआ’, एक फोटो ‘नैरेटिव’ में प्रवेश करता है जिसमें ‘मैं’ ‘बांये हाथ से कमीज की जेब दबाये हुए’ है और पूर्णविराम की जगह एक विस्मयादिबोधक (!) है. लेकिन उससे पहले इस फोटो के ‘वर्णन’ में आये सांख्यिकीय (चार कीलें/इकतीस साल) और अन्य निश्चयवाचक (‘कपडे पहिने हुए’, ‘मात्र’ छलांग लगाता हुआ, ‘बायें’ हाथ से कमीज की जेब दबाये हुए) फोटो के वर्णन को इस पाठ के अब तक के प्रवाह में एक अप्रत्याशित और ‘विलक्षण’ सटीकता प्रदान करते हैं जो एक ही साथ सांख्यिकीय, दृश्यात्मक और क्रियात्मक सटीकता है, खुद पाठ की निरंतर विस्थापनशील गतिकी के बरक्स. लेकिन इस सटीकता का क्या अभिप्राय है? क्या यह एक आवारा, असंबद्ध, पूरी तरह ‘रैंडम’ सटीकता है?
और सामने चहल पहल करती आबादी
आठ बजे रात को चली गई
मैं वहीं रहा वाला मज़ाक करता हुआ
हंसोड़ दोस्त, ब्राह्मण पारा की
गंभीर मोटी दीवाल से
पलस्तर उखाड़ता, भागता हुआ
चौखड़िया पारा जायेगा या मसान गंज.
पलस्तर के उखड़ने से
मुझे गुदगुदी होती थी.
इंटें उखाड़ेगा तो हंस दूंगा.
‘ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटे दीवाल’ के संभावित अर्थगत (प्रतीकात्मक?) सहसंयोजनों, उसकी ‘गंभीर’ डायक्रोनिक छायाओं के बरक्स ‘‘नैरेटिव’’ में आता है ‘हंसोड़ दोस्त’ और ‘गुदगुदी’.
जैसे हंसना एक गोरिल्ला उदासी होकर
एक जबरदस्त तोड़फोड़ की कार्रवाई की तरह ठहाका मारना
जिसमें ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल की जगह
समतल मैदान वाला खेलकूद वाला मज़ाक करता हुआ
हंसोड़ दोस्त –
‘ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल’ को ‘नैरेटिव’ में ‘समतल मैदान वाला खेलकूद वाला मज़ाक’ विस्थापित कर चुका है और ‘चौखड़िया पारा’ या ‘मसान गंज’ के समान्तर संकेतों के साथ ‘गोरिल्ला उदासी’ और ‘जबरदस्त तोड़फोड़ की कार्रवाई’ जैसे ‘ठहाके’ के नए संकेतन भी हैं. क्या इस सब ‘हंसी-मज़ाक’ को ‘ब्राह्मण पारा’ के डायक्रोनिक, ‘सामाजिक’, कांटेक्सचुअल अर्थों के साथ ‘एक गोरिल्ला कार्रवाई’ की तरह पढ़ा जा सकता है? लेकिन इससे पहले कि यह अर्थ संगति ‘फोटो में बचत के आठ आने की स्थिरता’ की तरह स्थिर हो सके, ‘नैरेटिव’ आगे (?) बढ़ जाता है:
चर्चा ने मुझे इस तरह उखाड़ा
कि मेरी पूरी बांह की कमीज़ उस दीवाल पर फैली थी
कमीज़ की दोनों कलाई पर कीलें ठुकी थीं
आराम करने के पहले
जिस कील पर मैं कपडे टांगता था.
वह भविष्य नहीं था.
निश्चय ही हमारा भविष्य नमस्कार हो गया.
जाते वक्त जयहिंद था
लगभग जयहिंद
सरासर जयहिंद
एक राजनैतिक नमस्कार भाई साहब!
खुदा हाफिज सैयद गुफरान अहमद!!
हरबार धक्कामुक्की में अदब के साथ मुस्कुरा कर
पट्टे वाली चड्डी पहने हुए मैं अलग हुआ.
‘कमीज़’ और ‘कील’ प्रसंगों के आवर्तन के बाद हम इस ‘नैरेटिव’ के ‘शीर्षक’ के सम्मुख हैं:
लगभग जयहिंद
‘भविष्य’ और ‘नमस्कार’ के ‘लगभग’ अव्याप्त, अंतर्संबंधों के पठन में एक ‘पहले’ का ‘लगभग जयहिंद’ ‘अब’ के ‘राजनैतिक नमस्कार’ में रिड्यूस हो जायेगा. एक ‘नागरिक संबोधन’ के पराभव (=एक दूसरे को ‘लगभग’ ही सही पर ‘जयहिंद’ कह कर संबोधित करने वाले नागरिक अब एक राजनैतिक नमस्कार करते हैं ‘भाई साहब’ को और राजनैतिक ‘खुदा हाफिज’ करते हैं सैयद गुफरान अहमद को) में.
एक ‘लगभग’ संगति के बाद ‘मैं’ सटीक ‘पट्टे वाली’ चड्डी पहिने हुए अलग होगा और
कंधे पर तौलिया हो गई.
जँभाई हो गई.
सुबह सुबह नहाना हो गया
साबुन की एक बट्टी हो गई.
बायें नहानघर हो गया
दाहिने पेशाबघर होगा.
चड्डी में पत्नी की फटी पुरानी साड़ी की
मजबूत किनारे के नाड़े में गठान लगाता हुआ
परिवार हो गया.
या एक लंबी कीमत दिमाग में नाड़े की तरह पडी हुई
जिसकी गठान खोलने या तोड़ने की कोशिश में
मेरी हर चाल कानून की गिरफ्त में थी.
सोचते ही विचार कमीज़ और पतलून पहिन कर खड़ा हो गया
हाय! मैं चड्डी पहिनकर अलग हुआ?
क्या! सौम्य भुखमरी थी
कि खानसामा खाना अच्छा बनाता था.
मैं नागरिक हो गया.
या अनिमंत्रित रह गया.
दिमाग के पिछवाड़े की दीवाल फांद कर
कचहरी के पिछवाड़े के घूरे में उतरकर
जिंदगी दफ्तरी उपस्थिति हो गई.
हाय! हाय! आँखों को बांधी गयी पट्टियों की
बनी हुई पट्टे वाली चड्डी में
कचहरी का न्यायाधीश नाड़े डालता हुआ बैठा था.
और ऊपर की खिडकी से चमकीला बिल्ला लगाये
अर्दली मुझे घूरता था,
क्या मैं दुमंजिले से नंगा दिखता था !!
चड्डी में पत्नी की साड़ी के नाड़े से परिवार हुआ और नाड़े की गठान से दिमाग की गठान हुई और दिमाग की गठान को खोलने या तोड़ने की कोशिश में मैं की हर चाल कानून की गिरफ्त में आ गयी और सौम्य भुखमरी वाला यह मैं नागरिक हो गया. आप इसे दिमाग (व्यक्ति), परिवार और परंपरा की गठान की तरह पढते हुए व्यवस्था की गठान तक जा सकते हैं. और नाड़ा न्यायाधीश के हाथ में पा सकते हैं और अब यहाँ आ कर अवतरण चिन्हों से मुक्ति भी पा सकते हैं.
अर्दली ने मुझको कचहरी के घूरे से
पुराने कार्बन कागज, शासन सेवार्थ लिफाफे
पुरानी सरकारी टिकटें ढूंढते देख लिया था.
इसी कार्बन कागज़ से
मेरे छोटे भाई की शक्ल
मुझसे मिलती जुलती थी.
कार्बन कागज से रौबदार आदमी का लड़का
हूबहू रौबदार आदमी हो गया.
लेकिन मैं अपने बाप की तरह नहीं था.
मैं अपने दुश्मन की तरह नहीं था.
मैं संविधान भूल गया था.
न्यायाधीश की नाक बहुत लंबी थी.
मेरी नाक बेढंगी थी,
क्या शक्ल थी,
खाना खाने के बाद पान के ठेले वाली दृष्टि.
या भूख लगने के बाद जँभाई वाली दृष्टि.
मेहनत हुई तो आँखों की जगह खुराफाती दृष्टि
नुकीली तेज
अपने को ही आँखों की जगह चुभ रही थी.
अर्दली के, व्यवस्था के कार्बन कागज से सब एक जैसे हैं. व्यक्तित्वहीन नागरिक. रौबदार आदमी का बेटा हूबहू रौबदार आदमी जैसा, मैं की शक्ल उसके छोटे भाई से मिलती जुलती. लेकिन मैं अपने बाप की तरह नहीं था, दुश्मन की तरह नहीं था क्योंक मैं संविधान भूल गया था? क्या न्यायाधीश की नाक भी इसी वजह बहुत लंबी थी और मैं की बेढंगी? लेकिन उसके बाद उसकी दृष्टि?
विनोद कुमार शुक्ल की वाक्य-रचना, वाक्य में अर्धविराम, पूर्णविराम, विस्मयादिबोधक, प्रश्नवाचक आदि क्रम और संगति प्रदान करने वाले साइन-पोस्टों की पोजिशन अक्सर स्किट्जोफ्रिनिक है:
या एक लंबी कीमत दिमाग में नाड़े की तरह पडी हुई
जिसकी गठान खोलने या तोड़ने की कोशिश में
मेरी हर चाल कानून की गिरफ्त में थी.
सोचते ही विचार कमीज़ और पतलून पहिन कर खड़ा हो गया
हाय! मैं चड्डी पहिनकर अलग हुआ?
क्या! सौम्य भुखमरी थी
कि खानसामा खाना अच्छा बनाता था.
न्यायाधीश की नाक बहुत लंबी थी.
मेरी नाक बेढंगी थी,
क्या शक्ल थी,
खाना खाने के बाद पान के ठेले वाली दृष्टि.
या भूख लगने के बाद जँभाई वाली दृष्टि.
मेहनत हुई तो आँखों की जगह खुराफाती दृष्टि
नुकीली तेज
अपने को ही आँखों की जगह चुभ रही थी.
विनोद कुमार शुक्ल ऐसे विरल आधुनिक कवि हैं जिनकी सब कवितायें शीर्षकहीन हैं[4]. उनकी सब कविताओं के शीर्षक मुद्रण/प्रकाशन की रूढ़ि/विवशता है. सब कविताओं की पहली पंक्ति शीर्षक की तरह मुद्रित रहती है. शीर्षक पाठ पर स्वयं लेखक की तरफ से एक अर्थमूलक आरोपण होता है, उसके एक पठन विशेष की ओर पाठक को अग्रसर, उत्प्रेरित करता हुआ. वह पाठ की संगति का स्व-प्रमाणन, उस पर एक ऑथोरियल मुहर होता है. विनोद कुमार शुक्ल की सब कविताओं की शीर्षकहीनता उस मुहर, उस स्व-प्रमाणन और खुद पाठ में उपस्थित सुपरिभाष्य ‘संगति’ के अभाव का, उसके संभावित स्किट्जोफ्रिनिया का संकेत है.
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(संकेतन–समूह)
१. रौबदार आदमी/जँभाई/ मैं/ छोटा भाई/ विस्थापित टिपरिया होटल
२. ब्राह्मण पारा/रिश्तेदार/हंसोड़ दोस्त/चौखाडिया पारा/मसान गंज
३. मैं/फोटो/कमीज़/बाँह/दीवार/कील/भविष्य
४. भविष्य/नमस्कार/लगभग जयहिंद/भाई साहब/सैयद अहमद गुफरान
५. चड्डी/तौलिया/जँभाई/नाड़ा/पत्नी/साड़ी/गठान/परिवार
६. सौम्य भुखमरी/खानसामा/नागरिक/कचहरी/न्यायाधीश/अर्दली/कार्बन/रौबदार
आदमी/रौबदार आदमी का बेटा/मैं/छोटा भाई/संविधान
इन समूहों को ‘निजी’, ‘पारिवारिक’, ‘सामाजिक’, ‘नागरिक’, ‘राजनैतिक’, ‘व्यवस्थापरक’ आदि में श्रेणीकृत किया जा सकता है लेकिन इनमें से कोई भी श्रेणी ‘शुद्ध’ नहीं है क्योंकि ‘मैं’ की ‘पट्टे वाली चड्डी’ कानून की ‘आँखों को बाँधी गई पट्टियों की बनी हुई पट्टे वाली’ चड्डी हो जाती है जिसे न्यायाधीश पहनता है और शायद मैं वाला नाड़ा ही उसमें डालता है.
Schizophrenic experience is an experience of isolated, disconnected, discontinuous material signifiers which fail to link up into a coherent sequence.[5]
(Schizophrenics) escape coding, scramble the codes, and flee in all directions… [6]
फ्रॉयड मानते थे कि स्किट्जोफ्रिनिक सब्जेक्ट में ईगो का अभाव होता है और वह अपने वैयक्तीकरण की इडिपल प्रक्रिया से नहीं गुजरता– वे दो मूलभूत तत्व, प्रक्रियाएँ जिनके बिना फ्रायडीय मनोविश्लेषण मुमकिन नहीं.
दिल्यूज़ और ग्वात्री[7]स्किट्जोफ्रिनिक सब्जेक्ट और पूंजी में समानता देखते हैं: दोनों में डिकोड करने की, कोड से बचने की, किसी भी दिशा में, किसी भी सिस्टम में प्रवेश करने की क्षमता होती है. पूंजीवाद और स्किट्जोफ्रिनिया का सम्बन्ध उनके अनुसार यह है:
Capitalism produces schizos the same way it produces Prell shampoo or Ford cars but the schizos are not salable…[8].
Schizophrenia is the exterior limit of capitalism itself or the conclusion of its deepest tendency, but that capitalism only functions on condition that it inhibit this tendency, or that it push back or displace this limit…Hence schizophrenia is not the identity of capitalism, but on the contrary its difference, its divergence, and its death.[9]
इसके विपरीत लाकाँनियन मॉडल से बरामद फ्रेडरिक जेमेसन के स्किट्जोफ्रिनिक सब्जेक्ट में ‘संगति’ का अभाव ‘विश्रृंखलता’, ‘अराजकता’ और ‘भ्रम’ में परिणत होता है[10]. जेमेसन इस विश्रृंखलता को उत्तर आधुनिकता से और उत्तर आधुनिकता को लेट कैपिटलिज्म से जोड़ते हैं. स्किट्जोफ्रिनिया और उत्तर आधुनिकता दोनों को वे ऐसी सांस्कृतिक ‘शक्तियों’ की तरह पढते हैं जिनमें ‘संगति’ का अभाव एक ‘भ्रमपूर्ण’, ‘अराजक’ अवस्था में और अंततः राजनैतिक अकर्मकता में फलित होता है.
लेकिन दिल्यूज़ और ग्वात्री ‘स्किट्जोफ्रिनिक प्रक्रिया’ में एक ‘क्रान्तिकारी’, सबवर्सिव क्षमता देखते हैं.
The schizophrenic deliberately seeks out the very limit of capitalism: he is its inherent tendency brought to fulfillment, its surplus product, its proletariat, and its exterminating angel.[11]
The schizo is not revolutionary, but the schizophrenic process – in terms of which the schizo is merely the interruption or continuation in the void – is the potential for revolution.[12]
यह ‘नैरेटिव’ और इसका कर्ता ‘मैं’ अलग अलग संकेतन समूहों/श्रंखलाओं में ‘संगति’ नहीं बिठा पाते लेकिन वे उन अलग अलग श्रंखलाओं में घुसपैठ कर सकते हैं, अपनी ‘गोरिल्ला उदासी से’ उनके विरूद्ध ‘जबरदस्त तोड़फोड़ की कार्रवाई की तरह ठहाका’ लगा सकते हैं और इसलिए बावजूद इसके कि वे बिखरे हुए, ‘एब्सर्ड’ और किसी राजनैतिक प्रोग्राम के लिए ‘अक्षम’ और ‘पराजित’ नजर आते हैं उनमें अपनी असंगति और विश्रृंखलता के ही कारण पूरी संकेतन व्यवस्था को खंडित कर सकने की सम्भावना और क्षमता है[13].
शायद इसी अर्थ में यह कविता, और एक कवि के रूप में विनोद कुमार शुक्ल, ‘क्रांतिकारी’ कवि हैं.
पुनश्चः
यह तकनीकी प्रश्न पूछा जा सकता है कि पूंजीवाद जिस तरह स्किट्जोफ्रिनिया को उत्पादित करता है क्या वैसे ही ‘भारत–जैसा’ लोकतंत्र करता है? इस प्रश्न के दो संभव उत्तर सूझते हैं:
१) ‘भारत–जैसा’ लोकतंत्र एक अर्ध-पूंजीवादी सरंचना रहा है और अधिक वैसा हो रहा है. यह कविता 1971 में पहचान सीरीज में प्रकाशित हुई थी. तब के ‘अधिक–समाजवादी’ लोकतंत्र और स्किट्जोफ्रिनिक सबजेक्ट का अध्ययन किसी और अवसर पर.
२) विनोद कुमार शुक्ल की कविता में सबजेक्ट (कर्ता)= नागरिक है और वह हमें यही बताती है कि ‘भारत–जैसा’ लोकतंत्र स्किट्जोफ्रिनिया उत्पादित करता है. कैसे करता है उसे समझने की दिशा में यह निबंध एक छोटा–सा प्रयास है.
(इस आलेख के कुछ अंश इस माध्यम में प्रकाशित हो चुके हैं. अविकल यहाँ प्रस्तुत है.)
‘स्टोरीटेल’ में हेड, हिंदी स्ट्रीमिंग और पब्लिशिंग मैनेजर (हिंदी, कन्नड़, तेलुगु)
rajkiradoo@gmail.com
पुनर्पाठ मांगता एक जरूरी आलेख.