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Home » सॉरी! गौतम दा : संतोष दीक्षित

सॉरी! गौतम दा : संतोष दीक्षित

संतोष दीक्षित अभी कथाकार नहीं हुए थे. संयोग ऐसा बना कि उन्हें ‘पार’ फिल्म में गौतम घोष द्वारा एक छोटी-सी भूमिका ऑफर की गई. क्या है, पूरा प्रसंग आइये जानते हैं.

by arun dev
June 10, 2025
in संस्मरण
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सॉरी! गौतम दा : संतोष दीक्षित
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सॉरी ! गौतम दा

संतोष दीक्षित

 

मित्रा साहब का पूरा नाम द्वारिका नाथ मित्रा था. उन्होंने  लंदन से चार्टर्ड अकाउंटेंट की डिग्री ली थी. सुनने में आया था कि अपनी आखिरी नौकरी में वह कुमारडुबी इंजीनियरिंग वर्क्स धनबाद के मैनेजिंग डायरेक्टर भी रह चुके थे. वह काफी पढ़े लिखे और प्रोग्रेसिव सोच के व्यक्ति थे. उन्होंने पहली बार मेरे अंदर एक लेखक की तलाश की थी और कहा था कि अगर आप कोशिश करें तो आप बन सकते हैं. हम सुबह से रात तक एक साथ बैठ पीते और गपशप करते रहते थे. उनके संबंध कलाकारों, लेखकों से लेकर डॉक्टर कुरियन वर्गीज और पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली तक से थे.

यह वर्ष 1983 के मध्य का समय रहा होगा. जसीडीह में मेरी पहली पोस्टिंग थी. यह खूबसूरत पठारी इलाका आज के देवघर जिले में पड़ता है. तब जिला दुमका हुआ करता था. मैं वहाँ एक तेज तर्रार पशु चिकित्सा पदाधिकारी के रूप में जाना जाता था. मेरा आवास जसीडीह के प्रतिष्ठित मित्रा-गार्डन में था. अंदर एक क्रम से बने चार खूबसूरत कॉटेजों में से एक में जहाँ आस-पास पर्यटक भी ठहरते थे. मित्रा-गार्डन बहुत लंबे चौड़े रकबे में फैला एक विशाल आवासीय परिसर था. इसके बीच में जापान के पैगोडा स्थापत्य से मिलती-जुलती एक कोठी थी जिसके ऊपरी हिस्से में कांच से निर्मित कमरे थे जो ग्लास हाउस के रूप में विख्यात था. कोठी के अगल बगल तरह-तरह के वृक्ष और पौधों से सुसज्जित बगीचे थे. एक तो अकेला खूबसूरत गुलाब गार्डन ही था जिसमें तमाम रंगों के गुलाबों के दुर्लभ पौधे थे. एक छोटा-सा चिड़ियाघर भी बीच में बना था. स्विमिंग पूल, लायब्रेरी के साथ एक कोने में गौशाला और पोल्ट्री फार्म.

मेरा अस्पताल यहाँ से बमुश्किल 500 मीटर की दूरी पर था. मैं यहाँ मित्रा साहब के बागान में, उन्हीं के अनुरोध पर रहने आया था. खाली समय में यहाँ के जानवरों का इलाज भी कर देता था. यहाँ रहने की यही एकमात्र शर्त थी.

एक सुबह शांत दिखने वाले मित्रा-गार्डन में थोड़ी हलचल दिखाई दी. मुझे लगा कलकत्ते से घूमने- फिरने वाले यात्री आए होंगे. ऐसे यात्री बराबर आते रहते थे. उनके भोजन आदि की व्यवस्था के लिए एक पूर्ण कालिक रसोइया और कई नौकर-चाकर मित्रा-गार्डन में मौजूद रहते. रसोइया यद्यपि बिहारी था लेकिन बांग्ला स्वाद के अनुरूप खाना बहुत अच्छा बनाता था. स्वयं मित्रा साहेब भी कुछ महीनों के अंतराल पर यहाँ आते रहते. उनके साथ भी लोग आते और सप्ताह दो सप्ताह अवश्य रहकर जाते. कोलकाता के निवासियों के लिए यह एक तरह से हवा पानी बदलने का काम चलाऊ हिल स्टेशन था. जाड़े में काफी टूरिस्ट आते. मित्रा साहेब की वजह से ही इस स्टेशन पर हावड़ा दिल्ली एयर कंडीशन एक्सप्रेस (डीलक्स) रुकने लगी थी. इसकी एक अलग दिलचस्प कहानी है.

दोपहर बाद जब अस्पताल की ड्यूटी समाप्त कर डेरे पर लौटा, हमेशा परेशान हाल में दिखने वाले यहाँ के मैनेजर अरुण राय खूब मुसकुराते हुए नजर आए. करीब आने पर वह गोपनीयता की तमाम औपचारिकताओं का पालन करते हुए मेरे करीब आ कान में फुसफुसा उठे—

“पाता है, यहाँ शूटिंग होने वाली है. जानते हैं कौन-कौन आए हैं, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी और ओम पुरी वगैरह. बहुत सारे लोग हैं. पूरी यूनिट है.”

कोठी में कलाकार लोग ठहरे हैं, बाकी के लोग गौशाला के पास की तीन मंजिला भवन में. यह स्टाफ लोगों के रहने के लिए बना था, मगर दो-तीन कमरों को छोड़ पूरी बिल्डिंग खाली ही पड़ी रहती. मित्रा- गार्डन का यह बदहाली का दौर था.

उसी रात अरुण बाबू मुझे कलाकारों से मिलाने कोठी के ऊपरी तल्ले पर ले गए. मित्रा साहेब की अनुपस्थिति में मैं स्वयं को कोठी का एक तरह से मालिक ही समझता था. यह अधिकार स्वयं मित्रा साहब ने मुझे दे रखा था और इसकी जानकारी यहाँ के सारे काम-काज करने वालों को थी. यह उनकी अनुपस्थिति में मेरे लिए एक जिम्मेदारी की तरह से भी थी. मैं अपने इस फर्ज को समझता था. तो उसी अधिकार भाव से मैं भीतर घुसता गया यह देखने कि कलाकारों को कोई दिक्कत तो नहीं. अचानक से एक कमरे में प्रवेश करते ही एक स्त्री-स्वर ने टोक दिया-

“कहाँ घुसे चले आ रहे हैं ? बाहर निकलिए. प्लीज निकलिए बाहर!”

मैं अचानक से ठिठक पड़ा. देखा,  सामने पलंग पर लाल-पीले, ढीले-ढाले कपड़ों में शबाना आजमी बैठी थीं.

“बाहर निकलिए. कौन हैं आप?”  शबाना जी फिर से चीख पड़ीं. मैं पीछे की ओर मुड़ा कि तब तक पीछे से आ रहे अरुण बाबू सामने आ गए-

“अरे. अरे. यह क्या कर रही हैं आप! हमारे डॉक्टर साहब हैं . यहीं रहते हैं, कैंपस में. साहब के मित्र हैं.”

“ठीक है, मगर किसी के कमरे में नॉक कर आना चाहिए.”

मैंने हाथ जोड़ उन्हें नमस्ते किया और दरवाजा खुला रहने के कारण अचानक प्रवेश कर आने को लेकर माफी मांगी. फिर उनके प्रति दो चार प्रशंसात्मक वाक्य कह निकल गया.

 

Naseeruddin Shah and Shabana Azmi in Paar.

मुझे नसीर साहब से मिलने और उनसे बात करने की इच्छा थी, क्योंकि इसके पहले अंकुर और आक्रोश जैसी फिल्में देख चुका था. लेकिन वह दरवाजा हमेशा बंद किए रहते थे. कभी दिखते भी तो कोठी के बालकनी पर, सिर पर हाथ रख बैठे गहरी सोच में डूबे दूर से दिखते. उन्होंने अपने चरित्र के अनुरूप बाल बहुत छोटे करवा रखे थे. मिलते भी तो बहुत संक्षिप्त जवाब के साथ अपने में खोए रहते.

अगले दिन सुबह जब मैं सोकर उठा और बाहर बरामदे में आया, कॉटेज के सामने के संपर्क पथ पर ओमपुरी साहब खूब तेजी से चहलकदमी करते दिखे मुझे. नजर मिलते ही पूछ बैठे-

 “चाय मिल सकती है क्या डॉक्टर साहब!”  मुझे मेरा मुँह मांगा इनाम मिल गया. मैं झट उन्हें कमरे में बिठा चाय बनाने लगा. उन दिनों कोलकाता से प्रकाशित टेलीग्राफ अखबार मंगवाता था. ओमपुरी जी उसे में खोये रहे. मेरी बनी चाय पी और तारीफ भी की, जबकि मैं मन ही मन शर्मिंदा हो रहा था. दरअसल उन दिनों मैं लिप्टन टाइगर का दीवाना था. क्या कड़कदार मूंछों वाला विज्ञापन छपता था उसका जो मेरे नये रोजगारशुदा कुंआरे मन को बहुत ही भाता था.

अगले दिन भी ओम पुरी जी हाजिर थे. उनके साथ अनिल चटर्जी भी थे. मैं अब तक ग्रीन लेवल का एक छोटा पैकेट ले आया था. पुरी जी के दिलचस्पी चाय के साथ-साथ अखबार में भी थी. आते ही पिछले दिनों का अखबार देर तक पढ़ते रहते. दो कप चाय पीये. बोलते वह भी बहुत कम. अब तक अरुण बाबू से यह जानकारी मिल चुकी थी की यूनिट के लोग देर से चाय बनाते थे. खाना भी बहुत साधारण होता था. बहुत कम पैसे में बन रही थी फिल्म. इतने सारे कलाकार बहुत ही काम सुविधाओं के साथ पूरी निष्ठा से काम कर रहे थे. फिल्मी दुनिया की चकाचौंध के बारे में जो सुना था, उसके विपरीत एक अजूबा दृश्य देख रहा था यहाँ.

रात्रि में मित्रा गार्डन के छत के टेरेस पर खूब गपशप होती. दूसरी रात्रि को ही शबाना आजमी ने वी.सी.पी.पर उस समय संभवतः रीलिज भी नहीं हुई जावेद अख्तर की लिखी फिल्म ‘बेताब’ दिखलाई थी. यह वी.सी.पी.पर फिल्म देखने का मेरा पहला अनुभव था. उस समय तक इसका उतना प्रसार नहीं हुआ था. बेताब फिल्म पर काफी चर्चा हुई थी और हम सबो ने एक मत से इसके सुपर हिट होने की घोषणा की थी. बाद में सन्नी देओल और अमृता सिंह की यह जोड़ी सुपरहिट हुई भी. उन दिनों शबाना जी जावेद अख्तर के प्रेम में पूरी तरह से डूबी हुई थीं. सो उनकी प्रशंसा सुन उनके चेहरे की चमक बढ़ जाती थी. शबाना जी के साथ उनकी एक खूबसूरत-सी हेयर ड्रेसर भी आई थी जिनसे नसीर साहब खूब गुफ्तगू करते रहते थे

इस बीच फिल्म के निर्देशक गौतम घोष से मुलाकात हो चुकी थी. घुंघराले बाल और उन दिनों प्रचलित फ्रेंच कट दाढ़ी-मूंछ रखने वाले गौतम दा अत्यंत ही विनम्र और अपने काम के प्रति समर्पित निदेशक थे. शूटिंग के समय उनकी पत्नी और छह साल की बेटी भी हमेशा साथ रहती. उन दिनों कुछ लिखता नहीं था लेकिन पढ़ता खूब था. मित्रा-गार्डन में एक समृद्ध लाइब्रेरी थी जिसमें अंग्रेजी बांग्ला के अलावे हिंदी का भी अनूदित साहित्य प्रचुर मात्रा में था. गौतम दा के हाथ में जो स्क्रिप्ट की टाइप की हुई प्रति रहती, उसे पढ़ कर देखा. कुछ मज़ा नहीं आया. शूटिंग के भी चार-पांच शॉट देखें. बहुत छोटे-छोटे शॉट्स. वह सब बड़े बेजान से लगते. तब नहीं जानता था कि फिल्म निर्माण की कला टुकड़ों में फिल्माई गई कतरन के एडिटिंग और डबिंग के सर्वश्रेष्ठ संयोजन पर काफी निर्भर करती है.

फिल्म की अधिकांश शूटिंग मित्रा-गार्डन से बाहर और वहाँ से लगभग चार किलोमीटर दक्षिण अजय नदी के किनारे बसे एक गांव कोयरीडीह में हो रही थी साथ ही पास के मकान और आसपास का पूरा इलाके का वाह्य परिदृश्य भी जरूरत के अनुसार कैमरे की फोकस में था. विशेषकर जसीडीह से चकाई, सिमुलतला की ओर जाने वाली सड़क और जसीडीह थाना जो एक टीले पर बने भवन में स्थित था. इन सब जगहों पर शूटिंग देखने वालों की भीड़ लगी रहती.

एक दिन फिल्म के निर्देशक गौतम घोष ने मुझे भी इस फिल्म में एक छोटा रोल निभाने को कहा. दृश्य था कि जमींदार के पुत्र की हत्या के बाद जब नसीर और शबाना, जो की फिल्म में पति-पत्नी बने थे, इलाके से भागते हैं तो बीच राह में मुझे उन्हें अपनी मोटरसाइकिल पर लिफ्ट देते हुए कुछ दूर छोड़ना था. थोड़े संवाद भी थे.

शूटिंग के नाम से ही मेरे होश फना. जाने कितने लोगों के सामने फिल्म में काम करना होगा! बापऽ रे… उन दिनों इस इलाके में मेरी अच्छी प्रैक्टिस थी और काफी लोग जानने वाले थे. इलाके के कई बड़े लोग जब मुझसे शूटिंग दिखा देने या कलाकारों से मिलवा देने की पैरवी करते, मैं हंसकर व्यंग्य करता उनको टाल देता. कई ऐसे लोगों को जिन्हें टाल पाना संभव न होता, मित्रा-गार्डन के अंदर एंट्री दिलवा देता. उन दिनों गेट पर ताला जड़ा रहता था और गोरखा दरबान हमेशा मुस्तैद रहते. यह मित्रा-गार्डन की एक पुरानी व्यवस्था थी लेकिन शूटिंग के कारण इन दोनों विशेष मुस्तैदी बरती जा रही थी.

उन दिनों अकेला रहता था. दिन में अस्पताल का एक कर्मचारी मेरे क्वार्टर में खाना बनाता और हम दोनों खाते. रात का खाना अक्सर बाहर हो जाता है या फिर कोठी में ही. देवघर टावर के पास एक सिंधी होटल था जहाँ मांसाहारी खाना भी मिल जाता था. अक्सर शाम को वहीं खाता. एक शाम सिंधी होटल के मालिक का युवा स्मार्ट लड़का काउंटर की ड्यूटी पर अकेला था. दिन में तो वह अक्सर रहता लेकिन पिताजी के साथ. उसके अनुरोध पर मैं उसे मित्रा-गार्डन में दो दिन एंट्री दिला दी थी. खुद ले जाकर ओम पुरी, उत्पल दत्त, अनिल चटर्जी, डॉक्टर मोहन आगासे आदि कलाकारों से मिलवा चुका था. उस शाम उसने खूब प्रेम से मुझे नॉनवेज खिलाया और पैसे भी नहीं देने लिए.

ऐसी स्थिति में मेरे लिए शूटिंग करने का निर्णय ले पानी में थोड़ी धुकधुकी लग रही थी, यद्यपि कि मैं हाँ कह चुका था. मेरे पास उन दिनों नई राजदूत मोटरसाइकिल थी. शुरू में तो उसी से शूटिंग होनी तय थी लेकिन शूटिंग के दो दिन पहले एक ब्लू कलर की यामाहा मोटरसाइकिल पता नहीं कैसे वहाँ आ गई. यामाहा का यह मॉडल बिल्कुल नया था और डबल साइलेंसर वाला था. संभवतः प्रचार करने के खयाल से डीलर ने अपनी ओर से अनुरोध कर भेजा होगा. मुझे इस बाइक को घुमा-फिरा कर चला लेने की प्रैक्टिस करने को कहा गया लेकिन कयामत का वह दिन आने से एक दिन पहले ही मैंने पल्ले झाड़ लिए—

“मुझसे नहीं हो पाएगा इतने लोगों की भीड़ के सामने यह सब कर पाना. यह संभव नहीं मुझसे.”

इसके पीछे मूल भावना यही थी कि लोग क्या कहेंगे या मेरे बारे में क्या सोचेंगे कि यह डॉक्टर भी पगला गया है फिल्म के चक्कर में!

तब मुझे गौतम घोष नामक शख्सियत के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था. ना ही इस फिल्म की अहमियत का कुछ भान था. मुझे तो लग रहा था कि एक निहायत शुष्क-सी कोई समानांतर फिल्म बन रही है और हो सकता है कि इसे स्क्रीन भी नसीब ना हो सके. या फिर नसीब हो भी तो एक-आध हफ्ते में उतर जाए. मैं तब ऐसी फिल्में देखना पसंद करता था और गोविंद निहलाणी, श्याम बेनेगल, अवतार कृष्ण कौल आदि की फिल्में देख चुका था. जबकि गौतम घोष, उनके बारे में वहाँ के मैनेजर अरुण राय ने यही बताया कि कभी वह भी मित्रा गार्डन में मैनेजरी कर चुके हैं. उन दोनों मित्रा साहेब की चलती थी. वह कोलकाता के प्रसिद्ध बर्ड्स इंडिया लिमिटेड कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर रह चुके थे. इस कंपनी में अमिताभ बच्चन भी बतौर असिस्टेंट मैनेजर काम करते थे. उनके नए वर्ष की ग्रीटिंग कार्ड कई बार मित्रा साहेब के पास आते देखा था. मित्रा साहेब की कोलकाता के बालीगंज सर्कुलर रोड में भी एक बड़ी कोठी थी जहाँ बाद में मेरा भी जाना हुआ था. उनके बड़े लड़के बंगाल लैंप में चार्टर अकाउंटेंट थे.

गौतम घोष निश्चित रूप से मेरे इस इंकार से व्यथित हुए होंगे. उन्होंने यह प्रस्ताव महज इस नाते दिया था कि मैं जो उनके सभी कलाकारों का इतना खयाल रख रहा था तो बतौर मेमोरी वह मुझे भी शूट कर लें. बाद में उन्होंने जमींदार उत्पल दत्त के बैठक में जो की मित्रा-गार्डन के उस कोठी का भी बैठका था, मुझे बिठाकर शूटिंग की थी. केवल एक यादगार के रूप में फिल्म में उपस्थित रहने के लिए.

संतोष दीक्षित, पत्नी रेमी अवस्थी, छोटा भाई चंदन और मित्रा साहब.

जब यह फिल्म रिलीज हुई, मेरे लिए इसे देख पाना एक स्तब्ध करने वाला अनुभव था. अब तक यह भी जान चुका था कि इसे कई अवार्ड मिल चुके हैं. फिल्म का वह दृश्य, जहाँ मुझे होना था जब पर्दे पर आया, मुझे लगा कि यह दृश्य कहीं ज्यादा अपीलिंग है और पार्श्व में बजता ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ गीत एक अलग आयरनी रच रहा था. तब गौतम दा की सराहना किये बिना मैं रह नहीं पा रहा था. लेकिन उस समय तो लगभग रोना ही आ गया जब पाया कि जमींदार के बैठके वाले उस दृश्य में मैं कहीं नहीं दिख रहा था. शायद एडिट किया जा चुका था. उसमें मेरे साथ अन्य कई अधिकारी व गणमान्य लोग भी बिठाये गए थे. तब एक बार लगा कि गौतम दा ने हमें बच्चों की तरह बहला दिया होगा. बचपन में फोटो खिंचवाने की जिद करता तो चाचा बिना कैमरे का शटर खोले क्लिक कर देते-

“चलो खिसको, हो गया फोटो.”

फिल्म अकेले ही देखी थी. सोचा था अगर मैं ठीक-ठाक दिखा और पहचाना जा सकने लायक रहा तो पत्नी को भी फिल्म दिखाने लाऊंगा और चौंका दूंगा. तब नई-नई शादी हुई थी और इस बारे में उसे अभी तक कुछ बताया नहीं था. लेकिन तब पत्नी को लेकर मुझे उसकी पसंद की फिल्म ‘उमराव जान अदा’ देखने जाना पड़ा. यह मेरी अपनी बेवकूफी का नतीजा था. सिनेमा के प्रति मेरे अंदर के सामंती संकोच और एक  झिझक के कारण आज यह सब लिखते हुए यही सोच रहा हूँ कि आज क्या मैं वही हूँ जो लगभग अड़तीस साल पूर्व था? आज अकेले बैठे कभी यह सोचता रहता हूं कि काश आज इस तरह की बनने वाली किसी शानदार फिल्म की शूटिंग के साथ उसी तरह से इमोशनली जुड़ पाता.

आज गौतम दा से एक बार फिर सॉरी कहने को जी चाहता है.


संतोष दीक्षित
08 दिसम्बर 1958,

कहानी संग्रह’ आखेट’ (1997), ‘शहर में लछमिनियाँ’ (2001), ‘ललस’ (2004), ‘ईश्वर का जासूस’ (2008) एवं ‘भूप में सीधी सड़क’ (2014)
तीन व्यंग्य संग्रह एवं व्यंग्य कहानियों का एक संग्रह ‘बुलडोजर और दीमक’ तथा चयनित व्यंग्य 2022 में प्रकाशित.
उपन्यास ‘केलिडोस्कोप’ 2010 में, ‘घर बदर’ वर्ष 2020, बगलगीर 2022 एवं ‘बैल को आँख 2023 में प्रकाशित.बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान से सम्मानित.
 
Tags: पारसंतोष दीक्षित
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Comments 1

  1. अरुण नारायण says:
    1 day ago

    संतोष जी ने बहुत बेजोड़ अनुभव साझा किया है।

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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