मेरे ज्ञानरंजनहीरालाल नागर |
ज्ञानरंजन-जी, यही नाम है, (साठोत्तरी) हिन्दी कहानी के बेताज़ बादशाह का. यह कहने की गुस्ताख़ी न करता, मगर जब से होश संभाला है, उनके बारे में कुछ जानने-समझने का काम शुरू किया है, बस! एक ही बात घर करती गई है कि ज्ञानरंजन सबसे अव्वल, अलबेले और भिन्न कथाकार हैं. संपादक के रूप में उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती. उनकी कार्यप्रणाली सबसे जुदा है. उनके सोचने-समझने का तौर-तरीका भी सबके जैसा नहीं. हालांकि उनका रास्ता बहुत सीधा और सरल नहीं रहा. उन्हें भी ऊबड़-खाबड़ मार्ग से गुजरना पड़ा. उनकी जीवन पगडंडी निरापद और निर्विघ्न नहीं थी, पर वे सब जगह संतुलन बनाकर चले.
उनकी शिक्षा भी गुरुकुल जैसी नहीं थी. मगर जो भी पढ़ा-लिखा उसमें एक लयबद्धता थी. बचपन से वे आज़ाद ख्यालों के इंसान रहे, मगर आत्मानुशासन में रहकर उन्होंने खुद को निर्मित किया. उनमें लोगों को सूत्रबद्ध करने का कौशल अजब, पर किसी पर उन्होंने अपने विचार नहीं थोपे. वे अंगुली पकड़कर एक रास्ते पर लाकर छोड़ देते, बाकी का रास्ता साथ आने वाले को खुद तय करना पड़ता.
कला-साहित्य को लेकर उनकी अपनी समझ है, उसे चुनौती नहीं दी जा सकती. उन्होंने लिखना शुरू किया और समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां छपनी आरम्भ हुईं तो लोग देखते रह गए. और हैरत में पड़ गए. उनके अंदाजेबयां ने उस समय के कथाकारों को गहरे सोच में डाल दिया. ‘लोहा मानने’ और ‘दांतों तले अंगुली दबाने’ जैसे मुहावरों ने लोगों के सामने संकट खड़ा कर दिया. नस-नस को एक नई लय और तरंग में मदहोश करने वाली भाषा उन दिनांे ज्ञानरंजन की कहानियों से होकर आ रही थी. इस लेखन को सुधी आलोचक एक चमत्कार की तरह देख रहे थे. कहानियों में अभिव्यक्ति की ताज़गी और निर्भयता का सामंजस्य चकित करने वाला था.
ज्ञानजी के लिए वह समय बेहद उत्तेजक और फ़ानूशी था. शोहरत प्यार और दोस्ती के उनके वे सबसे गर्म दिन थे. पुराने मूल्यों और विरासत में मिली आदतों को यह उनके हवन करने का समय था. उन्होंने इस समय को एक अंगुली में गोवर्धन पर्वत की तरह थामकर रखा. मध्यवर्गीय जीवन के गुरूर को खंड-खंड किया और अपने खूब-सम्मोहन से भर दिया. उन्होंने अपनी मानाभिमान की गरिमा को बचाये रखा और सादे तथा शाही इंसान की तरह अपने मित्रों दोस्तों, चाहने वालों को गले लगाया. अपनी घनिष्ठता को हमेशा छाती से चिपटाकर रखा कि उन्हें बाहर की हवा भी नहीं लगने दी.
उनसे मेरी पहली भेंट उनके घर-जबलपुर वाले पुराने-763, अग्रवाल कालोनी आवास पर हुई. सम्भवतः यह 1985 का वर्ष और गर्मियों के दिन थे. साथ में सागर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और उन दिनों के चर्चित आलोचक डॉ. वीरेन्द्र मोहन थे. ज्ञान जी से मिलने का कार्यक्रम वीरेन्द्र मोहन जी के यहां बना. और बिना किसी पूर्व सूचना के हम जबलपुर पहुंच गए. ज्ञानजी जैसे हमारे आने का इंतजार कर ही रहे थे. उन्होंने बड़ी आत्मीयता से हमें लिया. मैं तो उनके लिए बिल्कुल अनजान था. पर उन्होंने और सुनयना जी ने इसका आभास तक नहीं होने दिया. पूरे दो दिन हम लोग उनके साथ रहे. घर किराये का था. छोटा मगर सुरुचिपूर्ण. सुनयना दी से एक सम्मानजनक रिश्ता बना. इतना स्नेह और सम्मान मेरे लिए बहुत था.
उन दिनों मैं साहित्य का क ख ग सीखने की ओर उन्मुख था. साहित्य ज्ञान की ‘पहल’ पाठशाला में दाखिला पाना मेरी खुशनसीबी थी. ‘पहल’ मेरी जिंदगी में एक खूबसूरत सपने की तरह आयी. उस समय के चर्चित कवि शैलेन्द्र चैहान उन दिनों इलाहाबाद में पोस्टेड थे. उनका पहला कविता संग्रह ‘एक रुपये बीस पैसे के लिए’ अभी छपकर आया ही था. मुझ पर लहर (प्रकाश जैन) कल्पना (बद्रीविशाल पित्ती), साक्षात्कार (सोमदत्त) आदि का प्रभाव था. कवि शैलेन्द्र चैहान ने ‘पहल’ की भरपूर प्रशंसा की और यह कहा कि नए रचनाकारों को ‘पहल’ पत्रिका अवश्य पढ़नी चाहिए. यह वर्ष 1977 के आसपास की बात थी. मैं उन दिनों श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) के बर्फीले इलाके में पोस्टेड था. वहां पहुंचकर ज्ञानजी को पत्र लिखकर ‘पहल’ भेजने को कहा. 10 दिन के अंदर ज्ञानजी का पत्र मिला और ‘पहल’ का अंक भी, जिसे पाकर मेरा रोम-रोम खिल उठा. आत्मीयता से उत्फुल्ल भाषा और मार्क्सवादी विचार की लहलहाहट ने मेरे भीतर एक नई चेतना का विस्तार किया. इसके बाद तो ज्ञानजी हमेशा के लिए मेरे अपने हो गए. सुनयना जी मेरी सुनयना दीदी बन गई, और उनसे बहन का पक्का रिश्ता बन गया.
मेरा प्रवेश ‘पहल’ परिवार के स्थायी सदस्य की तरह नहीं, एक विश्वसनीय कार्यकर्ता की तरह हुआ. ज्ञानजी ने एक साथ हजारों पाठकों, लेखकों और शुभचिन्तकों को उचित सम्मान देते हुए अपना बनाया. ज्ञानजी ने अपने रचनाकार पाठकों को रचने, संवारने और विचार सम्पन्न करने का कार्य बहुत तेजी के साथ किया, और वे एक-एक कर समाज और जीवन की तहों में उतरते चले गए. यह ज्ञान जी के व्यक्तित्व का जादू था, और ‘पहल’ की वैचारिकी का तिलिस्म. जो एक बार इसके साथ जुड़ा, वह जुड़ता चला गया. युवा लेखकों की रचनात्मक उड़ान ने ‘पहल’ को गतिशील बनाया और ज्ञानजी को अत्यंत प्रिय व बहसतलब संपादक. यह साहित्यिक पत्रकारिता के स्वर्णिम युग की शुरूआत थी. ‘पहल’ के साथ पत्र-पत्रिकाओं की एक समानांतर दुनिया चल पड़ी. इस तरह मार्क्सवादी विचारों की करीब आधा दर्जन पत्र-पत्रिकाओं से मेरे पढ़ने-लिखने का गम्भीर वास्ता बना. यह ‘पहल’ द्वारा पैदा की गई समझ का विस्तार था.
अब जहां भी जाता, ‘पहल’ भी जाती. जहां ‘पहल’ जाती, वहां ज्ञानजी स्वतः चले आते. शुरूआत जम्मू-कश्मीर के बर्फीले इलाके में उसकी उपस्थिति से हुई थी, वह अम्बाला छावनी जाकर पुख्ता हुई और फिर मेरे असम प्रवास ने इसे अत्यंत समृद्ध और दृढ़ किया.
मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि मैं एक कवि, कहानीकार, या आलोचक बनने की ओर अग्रसर हुआ, बल्कि यह कि मुझे साहित्य की मूल चेतना ने कितना झंझावाती बनाया. यहां तक कि जब श्री लंका में शान्तिरक्षक सेना के साथ था, लिट्टे के साथ खूनी संघर्ष चल रहा था-‘पहल’ ने वहां पहुंचकर मेरे ऊहापोह को स्थिर किया. एक तो वहां समय मिलता ही नहीं था, मगर थोड़ा-बहुत जो भी वक्त मिलता ‘पहल’ पढ़ने में व्यतीत हो जाता. वहां न मुझे जंगल की भयावहता हतोत्साहित कर पाई और न सोने की चमक ने ललचाया. सैनिकों ने वहां अपने लिए न जाने क्या-क्या खरीदा- सोना-चांदी, टी.वी., लकदक कपड़े, लेकिन इनके आकर्षण से दूरी बनाए रखने का कार्य मेरे पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति ने बड़ी जिम्मेदारी के साथ निभाया. ड्यूटी के समय कभी ‘पहल’ साथ होती थी तो कभी साक्षात्कार (सं. सोमदत्त). मुझे इंसान बनाये रखने में ‘पहल’ के योगदान को कैसे भूल सकता था. यही वजह है कि जब कोटा (राजस्थान) पोस्टिंग हुई तो वहां सीधे-सीधे लेखकों की दुनिया से रूबरू हुआ. कोटा के नाटककार व एक्टिविस्ट शिवराम से परिचय हुआ. और मेरी दिनचर्या पठन-पाठन के शगल में तब्दील हो गई. कोटा में साहित्य के मर्म को समझने की ओर प्रवृत्त हुआ और लिखने का कार्य भी संभाला. यहां रहते हुए अनेक लेखकों से मुलाकात हुई. अनेक साहित्यिक सेमिनारों में हिस्सा लेने का मौका मिला. प्रगतिशील लेखन क्या होता है- यदि ‘पहल’ न होती तो मैं कैसे जान पाता.
बहरहाल, इसके केन्द्र में ज्ञानरंजन थे. ‘पहल’ थी और ‘पहल’ का वह परिवार जो देश के वैज्ञानिक विकास में सन्नद्ध था.
सन् 1992 में कोटा से दिल्ली पहुंचना हुआ. यहां का साहित्यिक माहौल अजब था. ‘पहल’ के पठन-पाठन से समकालीन कविता के मूर्धन्य कवियों तथा हिन्दी कथा-साहित्य के अग्रज कथाकारों के नाम जुबान तो थे ही. राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन, गंगाप्रसाद विमल, मन्नू भंडारी, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती- आदि सब दूर होते हुए भी दूर नहीं थे.
दिल्ली आकर कुछ आत्मबोध हुआ. भ्रम में पड़े रहने वाले अपने भीतर के रचनाकार को बाहर निकालने का सऊर आया. पढ़ने-लिखने की शक्ति को संतुलित रखने का अवसर मिला. क्योंकि मेरे पहलू में ‘पहल’ थी और सामने ज्ञानरंजन. वे दिल्ली आए और मुझे ‘पहल’ का कार्यभार सौंप कर चले गए. उन्होंने मुझे ‘पहल’ का दिल्ली प्रतिनिधि बनाया. और मैं ‘पहल’ का होलटाइमर बन गया. यह मेरी कूव्वत पर निर्भर था कि मैं कितना समय अपने लिए देता और कितना ‘पहल’ के लिए. वे एक बार सादतपुर पहुंचे. दोपहर का भोजन घर पर ही हुआ और शाम तक परिवार के साथ रहे. ज्ञानरंजन जी सादतपुर में हैं- यह सुनकर ही लोगों में गाशिप शुरू हो गयी. यह सबको मालूम है कि ज्ञानजी अपने मित्रों का पूरा साथ देते हैं. शुभचिन्तकों को वो अकेलापन महसूस नहीं करने देते.
101, आधारताल वाले निवास पर एक बार नहीं, कई बार जाना हुआ. जब मां जीवित थीं, ‘पहल’ के काम से आठ-दस दिन घर रहा. इस तरह प्रेम और विश्वास की नींव मजबूत होती चली गई. इससे मेरी क्षमताएं बहाल हुईं. यह उनकी खूबी है कि वे युवा लेखकों की क्षमताओं को बहुत शीघ्र पहचान लेते हैं और उन्हें ‘पहल’ में छपने के लिए आमंत्रित करते हैं. उन्होंने इस तरह धारदार युवा लेखकों की पीढ़ियां तैयार की. फिर वे हमेशा के लिए ‘पहल’ के मुरीद बन जाते. ‘पहल’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दी कविता का सर्वश्रेष्ठ दिया. युवा आलोचना को ठोंक-पीटकर नुकीला बनाया. कहानियों का सर्वोत्तम समय ‘पहल’ के जरिये ही हिन्दी कथा साहित्य को उपलब्ध हुआ.
हिन्दी गद्य का यथार्थवादी चेहरा ‘पहल’ में संवरकर आया. दिल्ली प्रतिनिधि होने के नाते ‘पहल’ की प्रतियां पहुंचाने का कार्य मेरे कंधों पर आया तो मैं बेझिझक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंच जाता. वहां बुक सेंटर में प्रतियाँ रखता और उस समय के मेधावी, तेजतर्रार युवा कवि-मित्रों से मिलता. पंकज चतुर्वेदी, कृष्णमोहन झा, अरुण देव, पंकज पराशर आदि से भेंट करके ही लौटता. ‘पहल’ कहो या ज्ञानरंजन के प्रभामंडल से सब प्रभावित थे- उन दिनों. जे.एन.यू. में मैं सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पांडेय से मिलता और उनसे बात करता. कभी-कभी केदार जी से भेंट होती. ‘पहल’ ने ही मुझे डाॅ. नामवर सिंह के घर जाने और उनसे बात करने का साहस पैदा किया. ‘पहल’ ने मुझे समकालीन लेखक की जानकारियों से लैस किया और मैं लेखकों की शिनाख़्त कर पाया.
सन् 2013 में मेरा उपन्यास ‘डेक पर अंधेरा’ छपा. ज्ञान जी के प्रति अपने प्रेम और सम्मान को प्रगट करने के लिए ही यह उपन्यास उन्हें समर्पित किया. लेकिन इससे मेरा नुकसान ही हुआ. उन्होंने पहल में इसकी समीक्षा छापने से इनकार कर दिया. इसका मुझे रंज है और हमेशा रहेगा. पर, ज्ञान जी इन चीजों की परवाह नहीं करते. वे किसी और मिट्टी के बने हैं. इस तरह उन्होंने अपने बेहद करीबी और आत्मीय लोगों को निराश भी किया है.
गांधीवादी विचारों की विरासत उन्हें पिता से मिली, मगर वे धुर मार्क्सवादी बने. वे सहनशील भी हैं, मगर जब कभी उग्र हो उठते हैं. उग्रता उनके स्वभाव में बनी रहती है. इसलिए उन्हें ‘एंग्री यंगमैन’ भी कहा गया. उनकी प्रतिक्रिया तीव्र होती है और उत्तेजित हो जाते हैं. समझौता पस्ती उनके स्वभाव में नहीं है.
ज्ञानजी में यशलोलुपता लेशमात्र की भी नहीं हैं, मगर ‘चाह’ उनके लिए शिथिल पड़ने वाली चीज नहीं. कई पत्र-पत्रिकाएं उन पर अंक निकालने की जिद करती हैं, और वे मना कर देते हैं. वे अपनी प्रशंसा से बचने के रास्ते निकालते हैं.
ज्ञानजी हमेशा बड़े लक्ष्य लेकर आगे बढ़े हैं और उन्हें सफलता मिली है. कार्य के प्रति उनकी निष्ठा देखते ही बनती है. कोई त्रासदी या हादसा ही उनका रास्ता रोके, तो भी वे नहीं मानते. पहनावे और रहन-सहन में साधारण दिखने वाले ज्ञानजी अंदर से बहुत मज़बूत हैं. उनमें लेखन, संपादन और चेतना की लौ-हमेशा जगमगाती रहती है.
आलोचकों का मानना है कि ज्ञानरंजन ने कहानी के स्ट्रक्चर को ही बदल डाला. और कहानी की भाषा, उसके तेवर और कहन के उपादानों को भी. उनकी सतर्कता काबिले तारीफ है. कहानियों में ललित निबंध की संरचना का कौशल के साथ इस्तेमाल किया गया है.
वे अपने भीतर झांकते हैं और निष्कर्ष देते हैं कि लेखक का तलधर सबसे रहस्यपूर्ण कबाड़ से भरी जगह होती है. वह कितनी भी ऊबड़-खाबड़ हो, लेकिन यही वह जगह है जहां से लेखक की अन्तरात्मा तक आप जा सकते हैं. वशर्ते कि आप जानना चाहें और यह कि आपकी गहरी मंशा हो, कूबत हो.
ज्ञानरंजन
मेरे घर में पुस्तकों का विशाल संग्रह था. राजनीति, इतिहास और साहित्य के साथ विशाल भारत, माधुरी, हंस के दिनों की तमाम पत्रिकाओं की सजिल्द फाइलें थीं. उनकी तरफ एक उम्र तक नजर डालने का भी मन नहीं करता था. घनघोर बरसातों में जब दिन का तक निकलना नहीं होता था और वृक्षों पर फल गायब हो जाते थे, पशु भीगते हुए बिना हिले-डुले स्थिर हो जाते थे, तब रामशलाका पद्धति से मैं एक किताब निकालता शेल्फ से और उन्हें उलटता-पुलटता था. यह एक बेमन कार्रवाई थी. किताबों में कोई चमक नहीं थी. वहाँ मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं थी. इस तरह घर में मैं अधूरा, उद्विग्न और बेगाना था. बाहर निकलते ही मेरे हाथ पैर दिल दिमाग फुर्तीले हो उठते थे. लम्बी दूरियां पैदल तय करता था. मैं लगभग एक वेस्टर था. घर ने कभी मेरी गुजरती, तबाह होती दिनचर्या पर दुख प्रकट नहीं किया. चिन्ता नहीं की. घर में समझ लिया गया था कि साहित्य की परम्परा से यह व्यक्ति जुडे़गा नहीं. लेकिन जीवन की पाठशालाएँ अपना काम करती रहीं.
वह विश्वविद्यालय एक विशाल बंगले की तरह था, जहां बहुत सारे कमरे, बहुत सारे दरवाजे थे. कौन कहां है, क्या कर रहा है, या आ-जा रहा है, इसका हिसाब नहीं रखा जा सकता था. इसलिए यहां मुझे अच्छा लगने लगा. उन्हीं दिनों कविताएँ लिखीं. कविता सभी लिखते थे. जिसको देखो वही कविता लिखता था. पुरुष कवि देश और महिलाओं को अपनी कविता सम्बोधित करते थे और कवयित्रियाँ देश और पुरुषों को अपनी कविता समर्पित करती थीं. विशाल छात्र संघ था. उसकी हलचलें थीं. और भीतर भावना प्रमुख रचनात्मक उपद्रव. मैं घर के बाहर सारे जाल तोड़कर लगभग बेशर्मी और अमानवीय तरह से निकल आया. अमानवीय इसलिए कि मेरे घर में मनुष्य रहते थे. दूसरे घरों में मेरी दिलचस्पी नहीं थी. चूंकि हम सबके घर काफी हद तक एक जैसे थे. जहाँ नहीं थे ‘वहां ‘फेंस के इधर और उधर’ कहानी लिखी गई. वास्तव में जो लोग घर के बाहर नहीं आते थे, वे जीवन से भयभीत लोग होते हैं, ये नपे-तुले भी होते हैं. वे दुनिया के करोड़ लोग होते हैं. उनके लिए कर-राहत की लड़ाई लड़ी जाती है, उनके लिए शिक्षा, रोजगार वेतनमान की लड़ाई होती है, उनके लिए संसदीय चुनाव होते है. उनके लिए अखबार होते हैं. यह दुनिया इन्हीं भयभीत लोगों के लिए चल रही है, पर इस दुनिया के वास्तविक निर्माता बाहर हैं. वे अपार तकलीफों के बीच बार-बार दुनिया का रंग-रोगन ठीक कर रहे हैं. इसलिए जो लोग बाहर नहीं जाते, उनकी समाधि भी निर्जीव होती हैं. पश्चिम में कहा गया है कि कम ज्ञान खतरनाक है. अब यह भी कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण ज्ञान खतरनाक और विस्फोटक है. यह सब आदमी के विरुद्ध एक गंदी भूमिका के तहत हुआ. जब हम समुद्र नहीं जानते थे, तब वह अंतहीन डरावना और अकेला बना देने वाला था. फिर शताब्दियों बाद लहरों पर रेंगता हुआ एक मस्तूल उठा. मस्तूलों की कतारें लग गई धीरे-धीरे. और वह समुद्र जलमार्ग में तब्दील हो गया. और इसी के पहले या बाद में समुद्र नमक बन गया. उसके पेट से मोती मिला. समुद्र से तेल फूट रहा है. और अब आदमी का ध्यान सबसे ज्यादा गगनमंडल पर है या समुद्रतल में. यह एक चलती जा रही प्रक्रिया है. जो लोग घर छोड़ने में डरते हैं. वे किस तरह जीवन में प्रवेश कर सकते हैं, नहीं कहा जा सकता. कुल मैं यह लिखना चाहता हूँ कि वस्तुतः मुठभेड़ ही हर रचना, हर अन्वेपण और हर लहराते जीवन का मूल है. और जैसा कि उन दिनों यह सबसे आकर्षक रिवाज था, प्रेम और सियासत दोनों का समन्वय बनने लगा. समन्वय पूरी तरह नहीं हुआ. क्योंकि एक तरफ प्रेम था, दूसरी तरफ झुंझलाहट भी थी. झुंझलाहट कभी खलिश कभी विष भी बनी. इसने प्रेम को ढंका भी. यही वह समय था जब कि मोटे तौर पर मैं यह लिख सकता हूँ कि जीवन और साहित्य का सतही संगम हो रहा था. लेकिन अंदर इतना जबरदस्त उपद्रव होता था कि रचना अक्सर टूट जाती थी. जिस तरह मछली ऊपर उछलती है और डूबती है, देर-देर तक कुछ इस तरह मन की हालत थी.
एक कहानी ‘शेष होते हुए’ बहुत सराही गई, बहुत लोकप्रिय हुई. उसने मुझे जानकारी में ला दिया. यह कहानी प्रेम के निर्माण की कहानी थी. उसके बाद मैं एक-दूसरे मार्ग पर पहुँच गया. मैंने प्रेम के अमरतत्व पर नहीं, प्रेम के विनाश की ही कहानियाँ लिखी हैं. भैरव जी ने मेरी ‘दिवास्वप्नी’ छापी, कमलेश्वर ने ‘फेंस के इधर और उधर’ छापी, भीष्म साहनी ने ‘संबंध’ छापी. मेरी पहली कहानी ‘मनहूस बंगला’ और दिवास्वप्नी में दो कहानियां पूरी तरह हवाई ही हवाई थी. कमरे में लड़ाई गई पतंग थी. मुझे ठीक साल याद नहीं, लेकिन 60 लगा नहीं था. और इलाहाबाद आकाशवाणी में एक ऐतिहासिक कवि-सम्मेलन हुआ था. उसमें मुक्तिबोध ने ‘औरांग उटांग’ कविता पहली बार सुनाई थी. हम भीतर नहीं थे. और थार्नहिल रोड से खड़े-खड़े सुन रहे थे, जिसमें नई कविता के सभी दिग्गज उपस्थित थे. मुक्तिबोध के हाथों में कविता का कागज कांप रहा था. कविता सुनकर हम तीन लोग जिनमें एक प्रभात था. तीसरा विस्मृत हो गया, लगभग हुल्लड़ करने लगे, आन्तरिक खुशी का हुल्लड़. जाहिर है हम कविता के भीतर नहीं धंसे थे, पर कविता हमको तीखे रूप में छू रही थी. परिमल के तमाम दिग्गज और संभ्रान्त महानुभावों को लगा कि उनके सुसंस्कृत समाज में यह गुरिल्ला कहां से घुस आया. इस घटना के बाद धीरे-धीरे बचकाने उबाल गुम होने लगे, हम सदा गम्भीर और उदास तरह के व्यक्ति बनते गए. मुझे प्रकृति और नगर जीवन या नगर संस्कृति से गहरा लगाव है. मेरी हर कहानी में प्रकृति किसी न किसी तरह से प्रवेश करती है या पृष्ठभूमि का सृजन करती है. उसमें टाइम और स्पेस का गणित है. मैं कहानी में अनुपात (प्रोपोर्शन) को सर्वोपरि मानता हूँ. प्रकृति के अलावा मैं अपनी किसी कहानी में शहर से बाहर नहीं गया. नगरों से मुझे बहुत आकर्षण है. मैं उनकी तरफ दौड़ता हूँ. इसका मतलब यह नहीं कि मुझे शेष से द्रोह है. मेरे भीतर बुनियादी तौर पर नगर संस्कृतियों के लिए एक प्रमुख स्थान है. मेरे जीवन में, मेरी कहानियों में उसको लेकर गहरा अस्तित्व है. मुझे किसी महानगर में तत्काल संगति मिल जाती है. इसलिए जब सत्यजित राय ने कलकत्ता के बारे में कहा तो मुझे प्रतिहिंसा हुई. आपने सारे जीवन जहां अपनी भूमिका का निर्वाह किया और ऐश्वर्य बनाया, अपनी रचना के तंतु प्राप्त किए एकाएक उसको उठाकर पटक देना आपत्तिजनक है. यह मृत्यु है, वृद्धत्व है. खुशवंत सिंह दिल्ली के बारे में अश्लील, अराजक अवसाद और शराबी बातें लिखते रहे तो मुझे वह आदमी झांसेबाज लगता था. मुझे दिल्ली पर देवी प्रसाद का लेख भदेस लगा. इतना बेगानापन तो गालिब और मीर ने भी नहीं महसूस किया था. कमलेश्वर की ‘दिल्ली में एक मौत’ मोहन राकेश का ‘अँधेरे बंद कमरे’, दिनकर की दिल्ली, रघुवीर सहाय या प्रकाश मनु की दिल्ली या अनगिनत मध्यवर्गीय लेखकों का शहरो के प्रति दृष्टिकोण गैर रचनात्मक है. हमारे यहां इसी की वजह से महानगरीय लेखन एक जुगनू की तरह है. मीना प्रभु जिस तरह लंदन पर लिखती हैं, उसे प्रेम करती हैं, वह हमारे यहाँ सिरे से नदारद है. यह सही है कि शहर में ऊपरी तौर पर कुछ नहीं बचा और अधिकांश बिकने वाली चीजें अनावश्यक हैं. उपभोक्ता सामग्री एक घमासान युद्ध की तरह फैल रही है. पर जिस समय हम ऐसा सोच रहे होते हैं, मीनमेरव निकाल रहे होते हैं. हजारों-लाखों लोग इसी शहर को प्यार करते होते हैं. अब तो इलाहाबाद बनारस नहीं बचे. पारस और बर्लिन भी नहीं बचे. तमाम ऐसी महान फिल्मों के बावजूद जो नगरों में शोक से भरी घटनाओं का पुरसकून बयान करती हैं, मुझे पसंद हैं. और मुझे लगता है कि वह कहानी अभी तक हिन्दी में नहीं लिखी गई है, जिसे पूरी तरह महानगर की कहानी कहा जा सके. |
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हीरालाल नागर |
आत्मीय उमड़ के साथ लिखा है। यही इसकी शक्ति है। पारदर्शी और उन्मुक्त। इसलिए सुंदर भी।
ज्ञानरंजन जी को बधाई व शुभकामनाएं। सम्पादक के तौर पर उनका काम महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन वो पत्रिकाएँ जो एक ख़ास राजनैतिक झुकाव वाली रचनाओं को छापती हैं, जो बात “पहल” के बारे में सही है, कई महत्वपूर्ण कवियों, लेखकों को छोड़ती जाती हैं, उन्हें प्रकाशित नहीं करतीं। मैं जैसा भी कवि हूँ, मैं भी उन बहुत से कवियों, लेखकों में हूँ जिन्हें ज्ञानरंजन जी ने प्रकाशित करने से इन्कार किया। यह कहना पड़ेगा कि ऐसी पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य बेहतर साहित्यिक रचनाओं को प्रकाशित करना नहीं होता, बल्कि एक राजनैतिक एजेंडे को पोषित करना होता है, जिसके चलते बहुत बार वे निम्नस्तरीय रचनाओं को भी छापती हैं। “पहल” भी इसी प्रकार की पत्रिका रही है।
ज्ञानरंजन जी एक अद्भुत शख्सियत हैं। वे एक शानदार लेखक ही नहीं एक खूबसूरत इंसान भी हैं । अपने मित्रों के प्रति उनकी सदाशयता, उनका प्रेम और विश्वास सबसे अलग है । उनकी कहानियां ,उनका कथेतर गद्य,पहल को समर्पित उनका जीवन सब कुछ अतुलनीय है। उनका होना हमारे समय की उपलब्धि है।
आदरणीय ज्ञानरंजन जी को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई और शुभकामना ।उन्होंने चार दशकों तक प्रगतिशील मूल्यों का संवर्द्धन किया और हिन्दी चेतना का नवनिर्माण करने में महती भूमिका निभाई ।उनकी कहानियों का कवित्व आज भी हमें बाँध लेता है—ज्ञानरंजन की भाषा ,उन्हीं का बिम्ब लेकर कहें तो.इतनी लोचभरी है नये पत्तों की तरह कि उनसे सीटियाँ बनायी जा सकती हैं।ज्ञानरंजन की उपस्थिति हमारे लिए ‘ अंकुश भी है और वरदान भी’ ।अभिनंदन!
पहल और ज्ञानरंजनजी हिंदी समाज का सार्वजनिक चेहरा है, सार्वजनिक चेहरा थोड़ा खुरदरा तो होगा ही, लेकिन उनका नियत हमेशा साफ़ रहा है…उनमें व्यक्तियों से संबंध का निर्वाह करने में कौशल नहीं दिखता, सहजता दिखती है…उन्होंने विचार को लेकर यात्रायें कीं, और उस पर बहस की जानी चाहिये, लेकिन अपनी कोई coterie नहीं बनायी…
मैं उनके इस साहित्यिक स्वभाव को आदर और सम्मान के साथ देखता हूँ….
ज्ञान जी ने ‘पहल ‘के माध्यम से अनेक पीढ़ियों को शिक्षित किया। कहानियां तो उनकी अपने युग की अप्रतिम हैं ही। उन्हें नागर जी ने जन्म दिन के अवसर पर भावपूर्ण ढंग से स्मरण किया है। हमारी ओर से भी ज्ञान जी को अनेकानेक शुभकामनाएं ।–हरिमोहन शर्मा
बहुत आत्मीय संस्मरण ,ज्ञान जी हमारे समय की हीरो हैं । उन्होंने विलक्षण कहानियां लिखी है और पहल को एक आंदोलन की तरह चलाया है । वे स्वस्थ और निरापद रहे ।
मैं पहल में छपता रहा हूं। पहल के दोबारा शुरु होने-अंक 91 के बाद मेरी पाँच कहानियाँ पहल में.छपी- किसी भी लेखक की सबसे ज़यादा कहानियां। ये सभी किसी ख़ास विचारधारा की कहानियां नहीं हैं। मैं किसी साहित्य संगठन का सदस्यभी नहीं हूं। ज्ञान जी ने आग्रह करके कहानियाँ मँगवाई। और आश्चर्य की बात यह है-कहानी की प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा, जो कोई सम्पादक नहीं कह सकता कि तुम्हारी कहानी से “पहल” को ताक़त मिलती है।
हीरालाल जी नागर,
ज्ञानरंजन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में यहाँ लिखा है । लेखन से प्रतीत होता है कि जैसे आप सम-वयस्क हों । ज्ञान जी के प्रति आपका सम्मान रह रह कर और पंक्तियाँ बदल बदल कर प्रकट हो रहा है । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी ने ज्ञानरंजन जी के बारे अपनी वेब पत्रिका समालोचन पर विषय प्रस्तुत किया । नि:संदेह वे भी प्रशंसनीय है ।
बहुत ही भावप्रवण परन्तु ईमानदार संस्मरण। ज्ञानरंजन जी का व्यक्तित्व सरलता और गरिमापूर्ण सादगी से भरा तो था ही,वह हमेशा महान और विशिष्ट होने से बचते रहे। मुझे वह प्रसंग याद आ गया जब वे अपनी नव-ब्याहता को विदाई के समय रिक्शे पर बिठाकर खुद चलाते हुए अपने घर ले गये थे। किसी साहित्यक पत्रिका में उसकी तस्वीर छपी थी । एक कथाकार और एक संपादक दोनों रूपों में उनकी शख्सियत बेमिसाल रही। नागर जी को इसके लिए साधुवाद !
ज्ञान दा को जन्मदिन की अनंत अशेष बधाइयां। कहानी के अद्भुत गठन के कारण सीमित कहानियों के बावजूद आपकी एक-एक कहानी उदाहरण बन गयी। व्यक्तित्व का गठन इस तरह विरले ही किसी के कृतित्व को गढ़ता है।।आपके मिशनरी जीवन ने आपके आलेखों के वाक्यों को सूत्र बना दिया। और साहित्यिक पत्रकारिता के लिए जिस तरह अपने रचनात्मक लेखन से निर्मोह हुए, वह तो हिंदी में विरलतम है।
आपने अपना संस्मरण बिना हिचक निर्भीकता के साथ लिखा है।आप जिसे प्रेम करते हैं,उसकी प्रशंसा करते हैं।उन्ही से गिला भी कर सकते है, बेहिचक। ये आपके सरल व्यक्तित्व का दर्पण है। मन का लिखा आपने। बढ़िया।ज्ञानरंजन जी तो साहित्य के क्षेत्र में हमारी पीढ़ी के लिए उस जागती धरोहर की तरह हैं। जिसको जितना संजोकर रखा जा सके , रखना चाहिए।हमारे समय में उनका होना एक वरदान की तरह है।ईश्वर से प्रार्थना है वे सदैव स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहें।जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं उन्हें।
ज्ञान जी को जन्मदिन पर हार्दिक बधाई।अंतिम बार कुछ महीनों पहले जब बात हुई थी वे अस्वस्थ थे – उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना है।
पहल को कटघरे में खड़ा करने वालों से मैं इत्तेफ़ाक नहीं रखता – एकाधिक बार छपा हूं और नहीं भी छपा हूं – पर संपादक के फ़ैसले का सम्मान मन में बरकरार है।
ज्ञानजी हमारे समय में शायद ऐसे इकलौते संपादक रहे हैं जो रचना के छपने की सूचना अपने हाथ से लिख कर या फोन कर के भेजते रहे हैं।लेखकों के प्रति सम्मान और आत्मीयता का यह अप्रतिम उदाहरण है।
एक दिलचस्प प्रसंग याद आ रहा है – 1997 की गर्मियों में जबलपुर भूकंप के प्रभाव का अध्ययन करने हम जब शहर में पहुंचे तो काम निबटाने के बाद ज्ञान जी से मिलने का कार्यक्रम बनाया।पत्रिका पर छपा पता कंठस्थ था(सिवा मकान नंबर के) सो गाड़ी लेकर अधारताल चल पड़े।डेढ़ घंटा हम प्रचंड गर्मी में पसीने पसीने होकर घूमने फिरने के बाद भी उनका घर ढूंढ नहीं पाए। अव्वल तो दोपहर में सड़क पर कोई दिखाई न दे,दूसरे जिससे ज्ञानजी के बारे में पूछते वह पलट कर पूछता कि उनके नाम में टाइटल क्या है…और वे करते क्या हैं।पहले सवाल का जवाब मुझे मालूम नहीं था,दूसरे सवाल का मेरा जवाब उन्हें अधूरा लगता कि पहल पत्रिका के संपादक और बड़े लेखक हैं।उस वक्त मेरे पास मोबाइल भी नहीं था कि फोन कर के पूछ लूं।लब्बो लुबाब यह कि तब हम उनसे बगैर मिले लौट आए।बाद में जब हम उनसे मिले और यह घटना बताई तो ज्ञान जी ठहाका लगा कर हंस पड़े।
– यादवेन्द्र