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Home » रोहिणी अग्रवाल की कविताएँ

रोहिणी अग्रवाल की कविताएँ

रोहिणी अग्रवाल आलोचक हैं, कथा-आलोचना में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं. कहानियों के दो संग्रह भी प्रकाशित हैं. प्रस्तुत कविताओं में उनकी स्त्री-दृष्टि सक्रिय है. ये कविताएँ विवशता, विकलता और असंतोष की जमीन से अंकुरित हैं, मिथकों ने गहराई दी है और सम्बल भी प्रदान किया है. इन कविताओं में एक दूसरी ही रोहिणी अग्रवाल नज़र आती हैं.

by arun dev
November 23, 2021
in कविता
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रोहिणी अग्रवाल की कविताएँ
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रोहिणी अग्रवाल की कविताएँ

1.
सम्यक् सम्बुद्ध

अहा! मैं मुक्त हुई
नौकरी की जकड़न से
घड़ी की निस्पंद धड़कन से
उलझी साड़ी की सलीकेदार लिपटन से.

हाँ हाँ! मैं मुक्त हुई
साठ की उम्र में
चित्त की समाधि से युक्त होकर
(जब सीखा पहली बार खुद को प्यार करना)
किए शास्ता सम्यक् सम्बुद्ध के दर्शन
जो बैठे थे भीतर ही
अनुभव और बोध से पल-पल खुद को सिरजते.

भंते!
मैंने तीनों विद्याओं का साक्षात्कार कर लिया है
(और देख रही हूँ साफ़-साफ़)
कि पूर्व जन्म में थी पिंजरबद्ध मैना
कि इस जन्म में भी हूँ मैं पिंजरबद्ध मैना
कि अगले जन्म
निर्वाण की राह इस पल के निर्णय से बंधी है.

मुक्ति की चाह में
जला डालती हूं सब विकार, आस्रव और आसक्तियां
फेंक देती हूँ प्रलोभनों की गठरियां
और कायर बनाती रुदालियाँ.

देखो! वह शैतान ‘मार’
मुंह बंद कराने को मेरा
वर्जनाओं और आचार-संहिताओं की
फतवों और लोकापवादों की
घिनौनी पट्टियां लिए धमकाता चला आता है.

क्षमा करना भंते!
मैं आँख मूँदकर पेड़ तले निश्चेष्ट नहीं बैठ सकती
घूर कर झांकती हूँ उसकी आँखों में
उतरती हूँ गहरे-गहरे अंदर तक
जहां मल है, कीचड़ है, भय हैं, ग्रंथियाँ हैं
और पकड़े जाने की दुश्चिंता में
अहा! देखो-देखो, वह कैसे भाग खड़ा हुआ है!

हे सम्यक् सम्बुद्ध!
तुम्हारे शासन को स्वीकार लिया है मैंने
कि धर्म-शास्त्र, उत्सव-कर्मकांड
सब मिथ्या हैं
मिथ्या हैं राजाज्ञाएं और लोक-मर्यादाएं
मिथ्या हैं दुर्बलताएँ
जो रच-बस जाती हैं चमड़ी में रोएं की तरह.

छोटे से ठेंगे पर उठा कर समस्त जन्मों का बोझ
देह पर धारण करती हूँ जीन्स और टॉप
पैरों के नीचे हरहराता ग्लोब
तृषित रूह में अमृत छलकाते मोज़ार्ट-बीथोवन के जादुई रोब.

अहा! मैं स्त्री नहीं,
मुक्ति हूं साक्षात्!
अनुभव और बोध की मिट्टी में
विवेक और संवेदना की नमी से रची
स्वयं सम्यक् सम्बुद्ध!!

(मुत्ताथेरी और सुमंगलमाताथेरी आदि ‘थेरीगाथा’ की तमाम थेरियों से क्षमायाचना सहित.)

 

२
सूरदास नहीं थे स्त्री

सूरदास
नहीं थे स्त्री!

थे एकोऽहम की अपौरुषेय सत्ता के गायक!
और शायद पुजारी भी
कह दिया नि:शंक निर्द्वंद्व बेधड़क
ऊधो मन नाहीं दस बीस

न, स्त्री-संवेदी भी नहीं थे सूर!
एकोऽहम का अलख जगाता स्वर
निष्ठा को बना कर आंख की पुतली
हो जाता है एक दिन
एकोऽहम का ठस्स दंभी आतंक

बहुत आसान है ‘एक’ का हो जाना
न द्वंद्व न प्रत्याशा
न सतरंगी सपनों में खुलती पनाहगाहों में
मछलियों सी मचलती हसरतों को
थामने की मृदुताएं
न धूसर जड़ रूठी बैठी सड़क के किसी धूमिल मोड़ पर
यकबयक छूट कर गुम हो जाने की दुश्चिंताएं.

‘एक’ के मज़बूत हाथ में है
दो आँखों की रखवाली
दिशाओं के मुंदे कपाटों वाली निर्जन हवेलियां
घड़ी की टिक-टिक की तरह
अपने ही कांटों में उलझ कर
चहकने की बाड़ाबंद छटपटाहटें.

लेकिन
गोपियां तो स्त्रियाँ हैं न!
एक के ऊपर एक कितने ही मटके रख
चलती हैं जब पनघट की ओर
पूरी नदियों का जल
बेचैन हो जाता है उन मटकों में सिमट आने को
फिर उतर कर आँखों में
देह में समा जाता है
अमृत बन कर अंकुरा जाते हैं सपने
सूनी हवेलियों के कील जड़ित कपाट
सीढ़ी बन कर जा मिलते हैं अंतरिक्ष से.

उस अछोर विस्तार के नीरव कोलाहल में तब
खुल जाती है पोटली
कितने-कितने तो मन हैं उस पोटली में
ऊन के गोलों से फुदकते ख़रगोश-मन
रेशम की लच्छियों सी लहराती व्रीड़ाओं से
उमगते-सिहरते सिंदूरी मन
धान के सटे-सटे नरम कान से मन.

हर मन एक दुनिया!
विशाल!

बचपन का वह बुद्धू-सा छौना
फूली-फूली देह में लाल-लाल होंठ सिकोड़
रो देता था चुहल पर
तो कैसे हंसती थी मैं
चटख चटकीली पीली तितली ज्यों
मंडरा रही हो सुर्ख गुलाब पर.

और तरुणाई का वह छैला
नरम रूई-सी उगी रोएँदार मसें…
कैसी तलब उठती है अब भी
कि छू लूँ उन्हें
और मुट्ठी में भर उस बित्ता भर सपाट जंगल को
ओंठों के ऊपर उगा लूं अपने
फिर नथुनों में भर कर मीठी सांस
धौंकनी की तरह फूंकती रहूं उसके फेफड़े.

और ब्याह से पहले का वह लंबू गोरा
खेल के मैदान में
गेंद को कालिय नाग-सा मथता

ब्याह के बाद?

सखी हौले से थाम लेती है
झिझक कर सिंदूरी हुई पोटली
भरा है उसमें फुसफुसाहटों का कलरव
लुकाछिपी का मदहोश स्वांग
तवे पर रोटी पलटते-पलटते
सिहर गई गरदन की नस
उत्तप्त होंठों की प्रतीक्षा में
जैसे फड़क उठता है तन का अंग-प्रत्यंग

धड़कन के रंग और प्राण के कंठ
मन की सुरंगों में खुलती अगणित पगडंडियों पर
सौध बना लिया करते हैं अनगिन

सौध!
मंदिर नहीं!
देवता नहीं बसते जहां
सहचर रहते हैं
अपलक आँख में आँख डाल
निहारते स्वयं को
पूरते युग्म को.

 

3
बेचैनियाँ

रीत गया है समय
या शायद कृश हुआ मेरा गात!
दुसह्य होता जा रहा है आंचल का बोझ!

अपनी ही मांस-मज्जा से रच कर
जन रही हूं मृत संतानें
बना कर उनकी अस्थियों को पैना हथियार
खोद रही हूं सुरंग
पाताल में
शकटार की तरह.

समय उकता गया है
या बीत गया है शायद.
सब्र का अमर-कलश
नसीब नहीं होता सबको.

पेंटिंग: ADEELA SULEMAN

4
सात द्वार, सात जन्म, सात वचन

कोठरी के हैं सात द्वार
और चक्रव्यूह के सात जाल
बींध कर चली आओ
सात जन्म तक वरण कर लूंगा तुम्हारा

मन्वंतरों की उम्र पाकर
खोलती रही मैं द्वार
तोड़ती रही जाल
एक-दो-तीन
बार-बार.

दिगंत तक फैले आंचल का एक छोर
खूंटे से बांध आई हूं
नहीं था विश्वास कजरी गाय की तरह
लौट आऊंगी सांझ ढले
जानी-चीन्हीं पगडंडियों पर
खुरों के निशान पर चलते हुए.

बुढ़ा गई हूं द्वार टटोलते
द्वारों पर लगी अर्गला खोलते
पथरा गई है देह चक्रव्यूह के व्यूह बेधते
एक-दो-तीन
मेरे ज्ञानकोष में अटे हैं बस ये तीन शब्द
नहीं जानती, कितने होते हैं सात
कितनी दूर तक चलते हैं सात कदम
सात वचन
सात जन्म.

जानती हूं इतना कि द्वार खोलो
तो कमरा जगर मगर आलोक से चहचहाने लगता है
पलंग के नीचे छिपी घुरघुराती बिल्लियां
आंखें तरेर भाग खड़ी होती हैं
हवा के संग बह आती हैं बतकहियाँ बाहर की
कोठरी में पूरनमासी के सागर का ज्वार उमड़ता आता है

यह किस देस भेज दिया है कंत तुमने
कि द्वार खुलते ही भीमकाय अंधेरा
घनघना कर लाल बनैली आँख के साथ
नोच लेता है मेरा मर्मस्थल
और पसर जाता है चहुँओर
मेरी आकाशगंगा का जल-उजास निगल कर.

सदियों के अनथक सफर के बावजूद
कहीं मैं दूजे द्वार पर ही
अवरुद्ध तो नहीं कर दी गई हूँ?
कोठरियों के सात द्वार
पाताल में खुलते हैं
या तोड़ी गई पहली व्यूह रचना ही
तिलिस्म बनकर करने लगी है माया-सृष्टि?
और माया द्वारों को खोलती मैं
बन गई हूँ गति में विजड़ित शै कोई?

संशय नहीं, समर्पण! सवाल नहीं, संधान!!
प्रिय चेताते हैं
सिर्फ़ सात द्वार!
सात जाल!
फिर सात जन्म हम-तुम
साथ-साथ.

प्रिय की ललकार में हांका है
चेतन हो अर्ध नि:संज्ञ सी मैं
हर द्वार खोलने के बाद
भरने लगी हूं आंचल में कंकरियां
कि रखूं याद
कितने तीन मिल कर बनते हैं सात.

 

5.
आसमान के आँचल में पतंग की तरह टंका है तलघर

मेरे तलघर की सीढियां
जाने किस पाताल में खुलती हैं
नीम अंधेरे में मूर्च्छित
मवाद की सीलन में पल- पल भुरभुराती हैं
रेंगते हैं तिलचट्टे छिपकलियां चूहे
मशाल की तरह दग्ध करती
काली बिल्लियों की घूरती आंखें
थर्राती हैं मुझे.

उबकाई गटक कर कंठ में
सीढ़ियों से ही
थके पैरों लौट आती हूं सतह पर
(मनवांछित करने को न मिले कुछ
तो शैया पर लेटे-लेटे भी
पिराने लगता है बदन बुरी तरह)
और याद करती हूं
बोरियों संदूकचियों गठरियां के ढेर में
क्या-क्या और लुका-छिपा होगा वहाँ
उस तलघर में
जहाँ गड़ी है मेरी नाल
मेरे डर
मेरे वहम
और हमशक्ल पुरखिनें मेरी.

उनींदी पलकों की गहराइयों से
उमड़ आती हैं यक्षिणी की बाँहें
खुलने लगती हैं सिरहाने रखी पोटलियां

फिर मिलकर हम दोनों
टाँक देती हैं तलघर को
पतंग की तरह
आसमान के झक नीले आंचल में.

आसमान की बुलंदियां डराती नहीं मुझे
पुचकार कर दुलार से
हौसलों को ऊँची परवाज़ देती हैं.

पेंटिंग: K.S. Kulkarni

 

6
वस्त्र मेरी देह पर तने तंबू हैं

वस्त्र
मेरी देह पर तने तंबू हैं
जो मुझे नहीं
मेरे पहरुओं को सुरक्षा देते हैं

मेरे पहरुए –
धुनिए हैं
और हैं रंगरेज़

लाद देते हैं मुझ पर
थान के थान
कपास की उजली कली से
कच्ची नरम मुस्कान छीन कर.

रंग कर
थानों में फैलीं अजगरी लंबाइयां
वे नाथ देना चाहते है मुझे
कि करूं परिक्रमा उनकी
करता है जैसे कोल्हू का बैल.

वे यातना को कहते हैं प्रेम
आवृत्ति को कल्पना
वे ठस्स को आराधते हैं
और सिहर कर
अमूर्त के आप्लावनकारी तरल सौन्दर्य से
वहशत के शोर में पनाह पाते हैं

शब्दों को साधक हैं वे
नहीं सुन पाते अनभिव्यक्त रह गए मौन में गुंथे
वाचाल रहस्य.
वे देखते हैं पुतली से अंगुल भर दृश्य
दृश्य की पीठिका में
अनंत समय की डगर फलांगती
आहटों को सुन नहीं पाते.

हम सदियों पुराने संगी हैं
नज़रबंद मैं
पहरुए वे
आमने-सामने हो रहते हैं दिन-रात
बर्फ सी सख़्त अजनबियत लिए

बेचारे पहरुए –
वे केंचुल को समझ मेरा तन
हिफाजत में लगे रहे
और मैं ललद्यद
ठीक उनकी नज़र के सामने
निकल गई नंगे बदन

प्रिय मुझ-सा हुआ औघड़
जनूनी
जांबाज
तलाश लेगा मुझे खुद-ब-खुद

अभी तो मैं व्यस्त हूं बहुत
पुलका रही हूं हर राह-घाट
अपनी निर्द्वंद्व पदचाप से
महका रही हूं हर ज़र्रा हर रोयां
मज़बूत इरादों की सुवास से

मेरी टेर की आस में
कान बन गया है ब्रह्माण्ड
प्रिय के पास रत्ती भर जगह नहीं कहीं
मेरे आगोश के सिवा.

 

7
एहसास

अहल्या थी मैं
कि सिहर उठी एक दिन
अचानक

हवा का ठंडा झोंका
मानो मदमाता उत्तप्त स्पर्श किसी का

धू-धू जलते बियाबान में
मगर कोई नहीं

एहसास
बेआहट पास आती आतुर पुकार सा

पथरीले मुखौटों के बीच
कंपकंपा जाती हूं मैं
पत्ते पर थरथराती बूंद सी.
_______________________________

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग
महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा
rohini1959@gamil.com
Tags: कविताथेरीगाथारोहिणी अग्रवाल
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Comments 20

  1. रमेश अनुपम says:
    1 year ago

    उनकी आलोचना से इतर उनकी कविताओं से पहली बार परिचय करवाने के लिए ’समालोचन’ का शुक्रिया । रोहिणी अग्रवाल इतनी अच्छी और समर्थ कवयित्री हैं, यह पहली बार जाना । बधाई

    Reply
  2. सारंग उपाध्याय says:
    1 year ago

    अच्छी कविताएं। वस्त्र मेरी देह पर.. प्रभावी है। असंतोष की जमीन वाकई नजर आती है। रोहिणी जी को शुभकामनाएं। समालोचन का आभार।

    Reply
  3. M P Haridev says:
    1 year ago

    रोहिणी जी अग्रवाल ने पहली कविता में सांसारिक और पारलौकिक वर्जनाओं को तोड़ा है । और ‘थेरीगाथा’ की थेरियों से क्षमा भी माँग ली है । महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं । विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए दुश्वारियों से वाक़िफ़ हैं । पारिवारिक जीवन में पति और बच्चे भी होते हैं । दुनियादारी में बाज़ार है । मुश्किलें कहाँ नहीं आती ? कविताएँ लिखने में नहीं आतीं । रोहिणी जी मेरा आशय समय रही हैं । मैं एक अदना सा रिटायर्ड हेड क्लर्क और रोहिणी जी अग्रवाल सिद्ध प्रोफ़ेसर और रचनाकार । बहुधा रचना और व्यावहारिक जीवन दो अलग-अलग जगत होते हैं । समालोचन का लिंक मुझे टिप्पणी करने की अनुमति देगा तो आगे भी लिखूँगा ।

    Reply
  4. M P Haridev says:
    1 year ago

    2. सूरदास नहीं थे स्त्री
    इस कविता को मैं आख़िरी पंक्तियों से आरंभ कर रहा हूँ । ऋग्वेद का सूक्त है-“एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात् सत्य एक है और विद्वान (अपनी ओर से लिख रहा हूँ विदुषियाँ भी) इसे भिन्न-भिन्न तरीक़े से कहते हैं । प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग की कविताओं से झलक भी रहा है । मैं हाँसी का रहने वाला हूँ । प्रोफ़ेसर सचिंद्र सिंह वहाँ भूगोल पढ़ाते हैं, हाँसी में रहते हैं । हम दोनों मित्र हैं ।
    स्त्री और पुरुष के इनबिल्ट के गुणों और चेतनाओं पर लिखने से पहले बता दूँ कि सूरदास ने अपने काव्य में कृष्ण के बाल्यकाल के जीवन का वर्णन किया है । इससे ऊपर कृष्ण के तारुण्य और अवसान पर सूरदास ने नहीं लिखा । हे कवयित्री उन्हें बख्श दो; कृपा करो । स्त्री के 23 एक्स और पुरुष के भी 23 एक्स गुणसूत्र मिलकर बेबी गर्ल को जन्म देते हैं । आज की तारीख़ तक वैज्ञानिक इसका रहस्य नहीं सुलझा सके । प्रकृति के रहस्य को सुलझा पाना ‘लगभग नामुमकिन’ है । मैंने इसलिए कौमा और इन्वर्टेड कौमा लगाया है क्योंकि प्रोफ़ेसर उदय प्रकाश जी ने एक कहानी में यह लिखा था । उन्होंने लिखा था कि किशोरावस्था से युवावस्था में जाते समय हो गये प्रेम को न भूल सकने की उपमा में उन्होंने लिखा था,”साइकिल चलाना सीखने के बाद उसे भूल पाना लगभग नामुमकिन है” । स्त्री के गुणों का पुरुष के गुणों से तुलना बेमानी है । अप्रासंगिक है । हमारे यहाँ शंकर के अर्द्धनारीशवर के चित्र बहुत व्यक्तियों ने देखे होंगे । जिस स्त्रियों में पुरुष तत्व अधिक हैं वे फ़ेमिनिस्ट हो जाती हैं । एक सूक्त मुझे याद है लेकिन मैं संस्कृत का विद्यार्थी नहीं रहा । मेरे पुस्तक संग्रह में मिल जायेगा । इस सूक्त का अर्थ है-वासुकि (नागों का राजा) के पास धरती के भार जितना विष है लेकिन वह शांत रहता है । लेकिन वृश्चिक यानी बिच्छु के पास एक बिन्दु विष है और वह क्रोध में उन्मत्त होकर मनुष्य को काट लेता है । मेरी नज़र में सभी नारीवादी आन्दोलन बेमानी हैं । रोहिणी जी, स्त्री सुडौल, कमनीय, बाँस के वृक्ष की तरह जल्दी बढ़ने वाली और ऊँचा उठकर झुकने वाली होती है । उसमें प्रेम, दया, करुणा, क्षमा, उदारता, और लचीलापन होता है । वह जननी है । स्त्री में अंतर्निहित और प्राकृतिक बुनावट पुरुष से भिन्न है । अपने को ढूँढो । माफ़ी सहित-एम पी हरिदेव ।

    Reply
  5. M P Haridev says:
    1 year ago

    3. बेचैनियाँ
    इस कविता में शूद्र शकटार का ज़िक्र किया । वह मगध के नरेश महानंद का महामंत्री था । दूसरे ब्राह्मण मंत्री के जीवन की परिणति आप जानती ही होंगी । कृष काय पर । कभी-कभी anecdotes लिखकर अपनी बात कहना मेरे में शऊर है । लगभग पैंतीस वर्ष का रहा हूँगा । मेरे एक हाथ में दो ऑडियो कैसेट थीं । मेरे चाहने वाले और मुझसे आयु में छोटे एक मित्र ने मुझे कहा-भाई साहब दोनों हाथों में एक-एक कैसेट ले लो । कहीं एक हाथ में मोच न आ जाये । अब मेरी आयु छियासठ वर्ष से अधिक हो गयी है । शारीरिक व्याधियों के कारण कृष काय हो गया हूँ । अंदाज़ा 4 हज़ार रुपये की दवाइयाँ एक महीने में फाँक लेता हूँ । ग्रीष्म ऋतु मेरे लिए मुफ़ीद है । देह पर न्यूनतम चर्म है । धूप मुझ पर पड़ेगी तो ख़ाली हाथ चली जायेगी । इजाज़त फ़िल्म का गीत है :
    ख़ाली हाथ शाम आयी है ख़ाली हाथ जायेगी
    आज भी न आया कोई ख़ाली लौट जायेगी
    यह शरीर रीत चुका । किसी दिन मन भी रीत जायेगा । “क्यों शिकवा करें झूठा” कोई रंज नहीं । कविता दिख जाती है तो अभिव्यक्त होने के लिए खूँटी मिल जाती है । अपने विचारों के वस्त्र खूँटी पर टाँग देता हूँ ।शकटार ने विष्णुगुप्त चाणक्य को महानंद के दरबार में बुलाकर अपना बदला ले लिया था । हा हा हा आपका क्या इरादा है ।
    सर्दियाँ मेरे लिए नर्क हैं । आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में छायाएँ लम्बी होने लगती हैं और मेरा दिल बैठने लगता है । सनातन धर्मावलम्बियों को छोड़कर जगत के किसी समाज ने अपने पुरखों के लिए एक पखवाड़ा निश्चित नहीं किया होगा जब वे अपने पुरखों का श्राद्ध करते हैं । फिर उल्लासपूर्वक शारदीय नवरात्रि मनाते हैं । 21 दिसंबर को बेशक सबसे छोटा दिन हो, लेकिन मेरे लिए सर्दियाँ फाल्गुन के अंत में ख़त्म होती हैं ।

    Reply
  6. M P Haridev says:
    1 year ago

    सात द्वार, सात वचन, सात जन्म पर टिप्पणी की थी नहीं दिख रही
    मेहनत की थी । इस कविता में उठायी गयी चिंताओं से मैं सहमत हूँ

    Reply
  7. M P Haridev says:
    1 year ago

    सनातन धर्म के अनुसार विवाह में सप्तपदी का विधान है । इनमें विवाहित होने वाले जोड़ों को उनके कर्तव्य और अधिकारियों को ब्राह्मण समझाते हैं । मेरे पड़ोस के स्व. मित्र के एक पुत्र और पुत्रवधू की दो बेटियाँ और एक बेटा है । भाभी की छोटी पौत्री का नाम अनन्या है, लेकिन आधार कार्ड में नाम Annya लिखा हुआ है । मैं भाभी को उसकी पुत्रवधू के सामने कहता हूँ कि यदि अनन्या अध्यापिका, प्राध्यापिका, वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, खगोल विज्ञानी या और वैज्ञानिक बन गयी तो उसे अपने नाम के ग़लत हिज्जों के कारण न्यूनता का भाव निर्माण होगा । बच्चों की दादी बच्चों को कॉलेज की शिक्षा दिलाने के हक़ में नहीं है । पुत्रवधू भी क्या बोले । विकास हीन या आर्थिक रूप से अति निर्धन देश हों, विकासशील और विकसित देशों में ग़रीबों की संख्या बहुतायत में है । वहाँ के देशों की निर्धन महिलाओं के हालात ख़राब हैं । तालिबानियों ने ज़बरदस्ती अफ़ग़ानिस्तान की चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करके अपना क़ब्ज़ा कर लिया । तब टेलिविज़न की तस्वीर में महिलाओं को बुर्क़ों में देखा । बुर्क़े का पहनना भयानक है । कम से कम बीस किलोग्राम का होगा । हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान 🇦🇫 की चुनी हुई सरकार में भी महिलाओं की स्थिति बदतर थी । कुछ मुस्लिम विद्वान कहते है कि यह इस्लाम की सरलीकृत व्याख्या है । हिंदुस्तान के फ़ेसबुक पर मेरे मित्र यह कहते हैं । भारत के संदर्भ में यह सत्य वचन है । यदि मुस्लिम महिलाएँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर लें, संगीत सीख लें, बॉलीवुड में अदाकारा बन जायें तब वे स्वतंत्र विचारों को अभिव्यक्त कर सकती हैं । अब सात द्वारों पर । कृष्ण की बहन सुभद्रा और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु चक्रव्यूह में छल से मारे गये । सुभद्रा पुत्र विहीन हो गयी । रोहिणी जी अग्रवाल आपने नंदकिशोर आचार्य की कविता पाँचाली कविता पढ़ी होगी । नहीं पढ़ी तो पढ़ लें । अंततः पाँचाली पीड़ित हुईं । मर्दवादी दुनिया क्रूर न होती तो कुन्ती नि:संकोच कह सकती थी कि सूर्यपुत्र कर्ण उसी का पुत्र है । कुन्ती के रथ में छह घोड़ों को जोतने की जगह थी । लेकिन कुन्ती पाँच घोड़े ही जुतवातीं । उसके दुख को कौन समझेगा ।

    Reply
  8. M P Haridev says:
    1 year ago

    5. आसमान के आँचल में पतंग की तरह है तलघर
    यह कविता नाउम्मीदियों की डरावनी आशंकाओं से से आरंभ होती है । लेकिन अंत में जीवन को निर्भय कर देती है । बालक इस कविता को पढ़ेंगे तो नि:संदेह डर जाएँगे । वहीं कविता को पढ़ना बंद कर देंगे । रचना का अंत सुखद है । भवन निर्माण की तकनीक बेशक उन्नत हुई है लेकिन बेसमेंट की कल्पना मुझे भी डराती है । मैं सोचता हूँ कि वहाँ घुप्प अँधेरा होगा । चुँधियाती रोशनी से अँधेरे को दूर किया जा सकता है । लेकिन वहाँ आने वाली सीलन को रोकना नामुमकिन है । वहाँ तिलचट्टे पैदा होंगे । चमगादड़ घूम सकने का डर बना रहेगा । ऐसे भवन बनवाने वाले सभी व्यक्ति महँगे आर्किटेक्ट की सेवाएँ नहीं लेना चाहेंगे । राज़ मिस्री से बन गये ठेकेदारों को सीढ़ियाँ बनानी नहीं आतीं । छह इंच की ऊँचाई वाली सीढ़ियाँ आदर्श होती हैं । यदि बनाने में ग़लती हो जाये तो बच्चे तलघर में जाने से घबरा जाएँगे ।

    Reply
  9. दया शंकर शरण says:
    1 year ago

    इन कविताओं में अपनी अस्मिता को पा लाने की एक बेचैनी सी है। यह बेचैनी एक लंबी यातना से मुक्ति के लिए है जो स्त्री जाति की पीढ़ी दर पीढ़ी की नियति रही है। उन अमानवीय जंजीरों की झंझनाहट और उन्हें तोड़ने की इच्छा इन कविताओं की मूल संवेदना है।रोहिणी जी को बधाई !

    Reply
  10. पंकज मित्र says:
    1 year ago

    सुखद आश्चर्य की तरह हैं ये कविताएँ। नया आस्वाद रचती, अर्थगर्भा भाषा का कारूकार्य देखने लायक है। बहुत बधाई रोहिणी जी और समालोचन का आभार

    Reply
  11. रुस्तम सिंह says:
    1 year ago

    मँजी हुईं, सधी हुईं, उच्च कोटि की कविताएँ। “समालोचन” में काफ़ी समय बाद इस स्तर की कविताएँ प्रकाशित हुई हैं।

    Reply
  12. Vinay kumar says:
    1 year ago

    परिपक्व मानस की कविताएँ !

    Reply
  13. प्रभात मिलिंद says:
    1 year ago

    सामान्य पाठकीय दृष्टि से पढ़ी जाने पर ये अपेक्षाकृत जटिल भावभूमि की कविताएँ हैं, जो सांसारिकता और स्त्री-अस्मिता से आरंभ होकर मिथकों से गुज़रती हुईं एक आध्यात्मिकता की परिधि तक की यात्रा संपन्न करती हैं। इसमें कोई संशय नहीं कि Rohini जी एक प्रखर आलोचक के साथ ही एक विरल कवियित्री हैं। शिल्प की दृष्टि से ये रूप-विधान के नए आयामों को गढ़ती हुई कविताएँ है, जो अपने कहन में भी उतनी ही क्षिप्र और गहन हैं। मिथक से संबद्ध उक्तियों और मुहावरों की अपेक्षित ग्राह्यता के लिए इन कविताओं के एकाधिक पाठ की अपेक्षा है। कवयित्री के साथ-साथ समालोचन का भी इस प्रस्तुति के लिए आभार।

    Reply
  14. अशोक अग्रवाल says:
    1 year ago

    समालोचन द्वारा प्रस्तुत उनकी कविताएं बहुत अनोखी और नए अंदाज में लिखी गई कविताएं हैं। एक स्त्री ही इतने संवेदनशील कविताएं लिख सकती है। रोहिणी जी ने पता नहीं क्यों अपने कवि रूप को अभी तक छुपाए रखा।

    Reply
  15. रवि रंजन says:
    1 year ago

    इन कविताओं से गुजरते हुए रोहिणी जी की गहरी संवेदनशीलता और यथार्थबोध का पता चलता है।
    वे यथाशीघ्र स्वस्थ हों,यही कामना है।

    Reply
  16. रमेश अनुपम says:
    1 year ago

    रोहिणी जी ने अपनी आलोचना से हिंदी कथा साहित्य को दीप्त किया है। उनका यह अवदान बहुत उल्लेखनीय है। रोहिणी जी हैं इसलिए हिंदी साहित्य की कथा आलोचना में एक दीप्ति बनी हुई है। हिंदी जगत आपके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करता है।

    Reply
  17. संजीव बख्शी says:
    1 year ago

    आलोचना में रोहिणी जी ने अपनी एक अलग भाषा का इजाद किया है। उन्हें पढ़ना एक अलग आनंद देता है और ज्ञान भी। मैं उनके जल्द स्वस्थ होने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं।

    Reply
  18. श्रीविलास सिंह says:
    1 year ago

    कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से बहुत अच्छी कविताएँ। शीघ्र स्वस्थ हों यही शुभकामना है।

    Reply
  19. Sanjeev buxy says:
    1 year ago

    पहली बार रोहिणी जी की कविताएं पढ़ रहा हूं बहुत अच्छी और सधी हुई कविताएं अपने विशेष शिल्प के साथ समालोचन को साधुवाद

    Reply
  20. पुर्णेन्दु शंकर says:
    4 months ago

    सर्वप्रथम यह चिंता बेमानी है, मुक्त तो हम सब है ही,बस जकड़न से ही मुक्ति आवश्यक है
    जकड़न आप की मुक्ति में बाधक है
    समाज ने यह जकड़न उत्पन्न की है, कैसी बराबरी !

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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