हरिशंकर परसाई: जन्म शताब्दी वर्ष
परसाई को पढ़ना क्यों जरूरी है ? |
बीसवीं शताब्दी के स्वाधीन भारत को समझने के लिए नागार्जुन (30.6.1911-5.11.1998) और हरिशंकर परसाई (22.8.1924-10.8.1995) का अध्ययन बेहद जरूरी है. स्वाधीन भारत के किसी भी इतिहासकार, समाज वैज्ञानिक-समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी के यहाँ वह सब कुछ नहीं मिलेगा जो इन दोनों हिन्दी लेखकों के यहाँ दर्ज है. प्रेमचन्द के बाद हिन्दी के इन दोनों लेखकों ने भारत का वास्तविक चित्र-चरित्र प्रस्तुत किया है. परसाई के जन्मशती वर्ष में यह अपेक्षा की जाती है कि उनकी समस्त रचनाओं का गंभीर पाठ कर लेखन के उस उद्देश्य की ओर हम मुड़ें, जो हमें परसाई के यहाँ दीखती है. यह सबके लिए आवश्यक है– पाठक, शोधार्थी, अध्यापक, आलोचक, पत्रकार, बुद्धिजीवी के लिए ही नहीं, उन राजनीतिज्ञों के लिए भी, जो आज के भारत का चेहरा बदलने के लिए बेचैन हैं. अपने लेखन के आरंभ में ही ‘अघोर भैरव’ के छद्म नाम से ‘प्रहरी’ (29 अगस्त 1948) में परसाई ने लिखा था–
‘‘यदि कोई पूछे कि स्वराज्य किसका? तो हम सब कहेंगे- किसान का, मजदूर का, ग्रामीण का. परन्तु क्या वास्तव में वह जानता है कि उसे राज्य मिल गया है, वह राजा हो गया है? उसकी राजनीति, साहित्य, संस्कृति, कला-पेट के बाहर कहीं भी नहीं है.’’
नागार्जुन की कविताएँ और परसाई का व्यंग्य स्वाधीन भारत की महागाथा है. शायद ही किसी हिन्दीतर भाषा के लेखक के यहां स्वाधीन भारत के लगभग पचास वर्षों की ऐसी महागाथा उनकी रचनाओं में मौजूद हो. प्रेमचन्द पर पी सी जोशी से लेकर अन्य कुछ समाजशास्त्रियों ने भी लिखा है. श्री लाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ भी समाजशास्त्रियों के ध्यान में रहा. ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन की अर्द्धशती पर दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति-विज्ञान विभाग ने जो त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी, उसमें हिन्दी का एक भी कवि-लेखक-आलोचक आमंत्रित नहीं था. क्या परसाई की जन्मशती के अवसर पर समाज वैज्ञानिकों का उन पर ध्यान जाएगा?
स्वाधीन भारत में हिन्दी का ऐसा कोई कवि-लेखक नहीं है, जिसने नागार्जुन और परसाई की तरह इस सत्ता-व्यवस्था की पूरी तरह बखिया उधेड़ी हो. प्रेमचन्द का लेखन ब्रिटिश भारत में हुआ था और इन दोनों का स्वाधीन भारत में. बीसवीं सदी का भारत इन तीन लेखकों के यहां जिस प्रकार मौजूद है, वह हमें केवल चकित-विस्मित ही नहीं करता, यह सोचने को भी बाध्य करता है कि हिन्दी में फिर ऐसा लेखन क्यों संभव नहीं हुआ?क्या किसी एक अन्य भारतीय भाषा के साहित्य में बीसवीं सदी का भारत इस तरह दर्ज है? क्यों हिन्दी में ही कबीर, नागार्जुन और परसाई जैसे व्यंग्यकार हुए, अन्य भाषाओं में नहीं?
सरहपा से लेकर परसाई तक हम जिन कुछ समान स्वरों और ‘कंसर्न’ को देखते हैं, वह हमें हिन्दी समाज के सैकड़ों वर्ष की दशा-दिशा पर सोचने को विवश इसलिए भी करता है कि आज इसी समाज के कारण केन्द्र में भाजपा की सरकार है और दक्षिणपंथी, प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक शक्तियाँ कहीं अधिक प्रभावशाली हैं. हिन्दी समाज का रूपान्तरण और कायान्तरण नहीं हुआ. सरहपा से अब तक समय-समय पर प्रगतिशील स्वर गूंजते रहे, परिवर्तनकामी शक्तियाँ ठहर-ठहर कर ही सही, आगे बढ़ती रहीं, पर वे ठिठकती भी रही हैं और दो-चार कदम पीछे भी हटती रही हैं, पर यह समय और स्थान उस सबके विस्तार में जाने का नहीं है. परसाई को ही, जहाँ तक संभव हो, देखने-परखने का और उस समय को समझने के साथ आज के समय को भी बेहतर ढंग से समझने का है. परसाई ने ‘मेरे समकालीन, जाने-पहचाने लोग’ में लिखा-
‘‘1947 में जब मैंने लिखना शुरू किया, भारत स्वाधीन हुआ ही था. चारों तरफ स्वाधीनता-संग्राम में जेल गए हुए ‘सुनाम धन्य’, ‘प्रातः-स्मरणीय’, ‘तपोपूत’ आदि बिखरे थे. किसी गली में बैठते हुए डर लगता था कि कोई प्रातः स्मरणीय न निकल पड़े. यह भावुकता, श्रद्धा, पूजा का दौर था… हिन्दी वीणापाणि के बूढ़े पुजारी भी उन दिनों श्रद्धास्पद थे. कम-ज्यादा वीणापाणि के चाचा, फूफा और बहनोई भी थे. इनके चित्र देखता था. मंचों पर इनके नाटकीय करतब देखता था. इनका सहज कुछ भी नहीं होता था. शब्द बनावटी, उन्हें बोलते वक्त होठों के मोड़ बनावटी, स्वर बनावटी, आँखों का भाव बनावटी, मुस्कान बनावटी. छायावादी भावुकता के उस दौर में ये ‘माँ भारती के सपूत’ आदि कहलाते थे.’’
परसाई के जीवन-काल में ही छह खण्डों में उनकी रचनावली (राजकमल प्रकाशन, 1984) प्रकाशित हो चुकी थी. इसके पहले उनकी छब्बीस पुस्तकें ‘हँसते हैं रोते हैं’ (1953) से लेकर ‘दो नाक वाले लोग’ (1983) छप चुकी थी. उनके ‘व्यंग्य-निबंधों की विवेचना’ विश्वनाथ त्रिपाठी ‘देश के इस दौर में’ (राजकमल प्रकाशन, 1989) शीर्षक से प्रकाशित अपनी पुस्तक में कर चुके थे, जो आज ही नहीं हमेशा के लिए उन पर लिखी गयी. सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है. परसाई के निधन के पश्चात उनकी चार पुस्तकें आईं-
‘आवारा भीड़ के खतरे’, (1998),
प्रेमचन्द के फटे जूते’ (2000),
‘माटी कहे कुम्हार से’ (2001) और
‘काग भगोड़ा’ (2009)
विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन पर मोनोग्राफ भी लिखा (साहित्य अकादेमी से प्रकाशित). भीमसेन त्यागी ने 2007 में ‘भारतीय लेखक’ का परसाई विशेषांक प्रकाशित किया था, ‘वसुधा’ ने भी परसाई विशेषांक निकाला. कान्ति कुमार जैन की पुस्तक ‘तुम्हारा परसाई’ भी है.
परसाई पर अनेक शोध-प्रबंध लिखे गये, जिनका अधिक महत्व नहीं है. राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय द्वारा 663 पृष्ठों में उन पर लिखी ‘प्रामाणिक जीवनी’, ‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ (सेतु प्रकाशन 2023) में पहली बार परसाई की जीवनी से संबंधित विपुल सामग्री है, जो परसाई के जीवन-संघर्ष और उनके व्यक्तित्व निर्माण के साथ कुछ अंशों में उनके प्रारम्भिक लेखन को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है.
उनके जन्मशती वर्ष में आयोजनों, व्याख्यानों और संगोष्ठियों की शुरूआत हो चुकी है. पत्रिकाएं उन पर अपना अंक केन्द्रित कर रही हैं. ‘बनास जन’ ने 377 पृष्ठों का उन पर अंक (जून 2023) केन्द्रित किया है और ‘उद्भावना’ के नये अंक (152) में उन पर विचरणीय सामग्री है. ये सूचनाएँ इसलिए जरूरी है कि परसाई के लेखन के विषय-वैविध्य से परिचित होने के लिए अब तक उनकी प्रकाशित 36 पुस्तकों का अध्ययन ही नहीं, उसके लेखन के काल-खण्ड को, जो 1947 से 1995 के बीच के लगभग पचास वर्षों का है, उसे भी थोड़ा ही सही, समझना-जानना जरूरी है.
पचास के दशक में ही, जो नये स्वाधीन भारत का पहला दशक था, परसाई की छह किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं-
‘हँसते हैं रोते हैं’ (1953),
‘भूत के पाँव के पीछे’ (1954),
‘तट की खोज’ (1995),
‘तब की बात और थी’ (1956),
‘ज्वाला और जल’ (1956)और
‘जैसे उनके दिन फिरे’ (1960) .
अभी तक हिन्दी आलोचना में इस दशक पर विस्तार से विचार नहीं हुआ है, जो केवल साहित्य की दृष्टि से ही नहीं, कला, फिल्म, संस्थाओं के निर्माण, लोकसभा चुनाव, पंचवर्षीय योजना, विश्व बैंक की उपस्थिति, देश की कृषि-व्यवस्था, औद्योगिक नीति, आधुनिकता का आगमन आदि अनेक दृष्टियों से बेहद जरूरी है.
दो |
परसाई का लेखन ‘आँखन देखी’ है. 1930 के दशक के अंत में, जब वे ‘रहटगाँव’ के स्कूल में दूसरी कक्षा के छात्र थे, अपने मास्टर को अपने नाम के गलत उच्चारण ‘हरी संकर’ पर टोका था, कहा था- ‘हरी संकर’ नहीं, ‘हरिशंकर’. दूसरी कक्षा में ही अपने अध्यापक द्वारा बार-बार ‘क’ से ‘कमल’ या ‘क कमल का’ कहे जाने के बदले, वे बार-बार कहते रहे थे- ‘क कलम’ का. पीटे जाने पर भी वे बोलते रहे थे- ‘क कलम का’, ‘क कलम का’. ‘कमल’ से ‘कलम’ के बैर को हम विगत दस वर्ष से कहीं अधिक देख रहे हैं. परसाई के पिता झूमक लाल मिडिल पास थे. ब्राह्मण जाति के होने पर वे शिक्षा के महत्व से सुपरिचित थे. सरकारी प्राइमरी स्कूल में कुछ समय के लिए अध्यापक भी थे. बेटे हरिशंकर की पढ़ाई के लिए उन्होंने स्थान बदला. संभव है, अध्ययन-अध्यापन के प्रति परसाई के गहरे लगाव के पीछे उनके पिता की भूमिका हो. एंग्लो वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए ही वे कांग्रेस के वालण्टियर बने थे. वहीं उन्हें गोखले गुरु मिले. छठी कक्षा में पढ़ते समय वे देश और दुनिया की बातें जानने और कुछ-कुछ समझने भी लगे थे.
स्वाधीनता आन्दोलन के इस दौर में छात्रों और उनके अध्यापकों का सर्वथा हलचलों से अलग-थलग रहना नामुमकिन था. छात्र-जीवन में परसाई का व्यक्तित्व निर्मित और विकसित हो रहा था. जब वे सातवीं कक्षा में थे, माँ की मृत्यु हो गयी. हाई स्कूल में उनके अध्यापक केशव चन्द्र बग्गा ने, जो उनके ‘बग्गा मास्साब’ थे, उनमें साहित्य के प्रति अभिरुचि उत्पन्न की, उन्हें संस्कारित किया. परसाई को पुस्तकें पढ़ने की आदत बग्गा मास्साब के कारण लगी. उन्हें ‘पुस्तक-चटा’ भी कहा जाने लगा. बग्गा मास्साब ने स्कूल में शेक्सपियर का नाटक ‘द मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’ का मंचन कराया था, जिसके वे स्वयं डायरेक्टर थे और परसाई ने उसमें एण्टोनियो का अभिनय किया था. परसाई को मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त नहीं हुई थी. उनकी इच्छा एक अच्छा अध्यापक बनने की थी. मैट्रिक करने के बाद नौकरी करना आवश्यक था. सरकारी दफ्तरों में वे अर्जियाँ देने लगे. नौकरी की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान की उनकी यात्रा होती रही.
‘‘टिमरनी से जबलपुर, इटारसी, खण्डवा, इन्दौर, देवास जैसी जगहों पर बार-बार’ गये. यह चौथे दशक का समय था. विश्व-युद्ध का समय. परसाई की पहली नौकरी जंगल विभाग के दफ्तर में मिली. यह एक संयोग है कि उनके पिता झूमक लाल परसाई ने भी जंगल विभाग में नौकरी की थी. अंतर यह था कि पिता अपने पुत्र की तरह सरकारी कर्मचारी नहीं थे.
‘‘जंगल में सरकारी टपरे में रहता. ईंटें रखकर, उन पर पटिये पर जमा कर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी. रात-भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता. कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती, पर फिर मैं सो जाता.’’
जंगल डिपो की यह नौकरी 1942-43 में लगी थी. मासिक तनख्वाह पचीस रुपये थी. टिमरनी के हाई स्कूल में पढ़ते हुए उन्हें देश-दुनिया का अच्छा-खासा ज्ञान हो चुका था. स्कूल में ‘हितवाद’ और ‘फ्री प्रेस जर्नल’ आता था. जंगल डिपो में उनका पद जमादार का था. उनके ऊपर डिपो साहब थे. वहाँ केवल चार लोग थे- तीन मुसलमान और एक हिन्दू. डिपो साहब मुसलमान थे, जो एक हिन्दू के आने से प्रसन्न नहीं थे. परसाई को यहाँ धार्मिक भेद-भाव का अनुभव प्राप्त हुआ. जंगल का सन्नाटा और रात का अंधेरा भयभीत करने के लिए काफी था, पर परसाई की सोच भिन्न थी-
‘‘डर जंगल में नहीं होता, हमारे मन में होता है रात में होता है. रात के अंधेरे में होता है… दुनिया डरने से नहीं, डर को डराने से चलती है.’’
परसाई के लेखन का आरंभ जंगल डिपो में काम करने के दौरान हुआ. यह डायरी-लेखन था- ‘हरिशंकर परसाई की डायरी’. उन्होंने ‘‘अपनी डायरी में दूसरे महायुद्ध के विभिन्न मोर्चों और घटनाओं को सिलसिलेवार ढंग से दर्ज करना शुरू किया. जैसे सिगफ्रिड लाइन, मेजिनाट लाइन, डंकर्क, पर्ल हार्बर आदि के बारे में टिप्पणियाँ’’ उन्होंने ‘म्यूनिख पैक्ट, ‘फासिस्ट पूंजीवाद’, ‘लोकतांत्रिक पूंजीवाद’ आदि पर भी डायरी में लिखा. राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय ने लिखा है-
‘‘डायरी के पन्ने हर दिन रँगे जाते रहे, कोरे कागजों पर नीली रोशनाई से जन्मे शब्दों की दुनिया बसती रही… पढ़ाकू हरि के अंदर लेखक- हरि अंकुरा रहा था… डायरी उनका सृजन थी. निर्माण थी. रचना थी. सोच को शब्दों में ढालने का कारखाना थी. विचारों की फसल उगाने का खेत थी. कलम उनका औजार बन गयी. जैसे हथौड़ा लोहार का. जैसे हल किसान का. जैसे रन्दा बढ़ई का.’’
जंगल की यह नौकरी मात्र आठ महीनों की थी. उन्होंने इस नौकरी से इस्तीफा दे दिया.
जंगल की नौकरी के बाद स्कूल की नौकरी लगी. परसाई की इच्छा छात्र-जीवन में ही अध्यापक बनने की थी. उनके प्रेरणा-पुरुष बग्गा मास्साब थे. परसाई जानते थे कि अध्यापक बनना आसान नहीं है. उसके लिए श्रम, साधना और समर्पण आवश्यक है. पहली नौकरी की तलाश में उन्हें जितना भटकना पड़ा था, उतना दूसरी नौकरी के लिए भटकना नहीं पड़ा. खण्डवा में एक नया स्कूल खुला था, जिसके संचालक बग्गा मास्साब थे. परसाई उनके पास पहुँचे, आवेदन दिया और न्यू हाई स्कूल खण्डवा में उनकी नियुक्ति हो गयी. अब वे बग्गा मास्साब के सहयोगी थे. पहले उनके प्रिय शिष्य थे. इस स्कूल में बग्गा मास्साब ने उन्हें स्पोर्ट इंचार्ज बनाया. साहित्य और कला-संबंधी गतिविधियों के भी वे इंचार्ज बने. नौवीं कक्षा में उन्हें पढ़ाने के लिए ‘भाषा और सामाजिक अध्ययन’ मिला. भाषा पर उनका ध्यान पहले से था. दूसरी कक्षा में पढ़ते हुए ही उन्होंने अपने अध्यापक की भाषा सुधारी थी- ‘हरी संकर’ नहीं, ‘हरिशंकर’.
जंगल महकमे में नौकरी करते समय वे दुकानों, दीवारों, दफ्तरों के बोर्डों पर लिखी हुई गलतियों पर ध्यान देते थे. न्यू हाई स्कूल, खण्डवा में उन्होंने ‘आभास कुमार गांगुली’ को पढ़ाया था, जो बाद में किशोर कुमार नाम से विख्यात हुए. इस स्कूल में भी उनका मासिक वेतन पचीस रुपये था. वे एक कल्पनाशील शिक्षक थे. जंगल डिपो की नौकरी उनकी पसंद की नौकरी नहीं थी. वहाँ वे सोचते ‘‘जिस सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं, उसी सरकार के लिए लकड़ियाँ मापने का काम कर रहे हैं… न करें तो बीमार बाबू जी का इलाज कैसे होगा? भाई-बहनों का पालन कैसे होगा?’’ स्कूल में छात्र उनके लिए बीज की तरह थे. ‘‘आप सब बीज की तरह हैं. आपके अंदर विशाल पेड़ छिपे हुए हैं. बस उन्हें अंकुरित होने और बढ़ने का अवसर चाहिए. वह अवसर प्रदान करते हैं स्कूल और अध्यापक. स्कूल और अध्यापक ही हवा, पानी होते हैं, जमीन और खाद होते हैं और वही माली भी होते हैं.’’
परसाई अपने छात्रों के लिए ये सब कुछ थे- हवा, पानी, जमीन, खाद, माली सब. डीएसई (डिवीजनल सुपरिटेण्डेण्ट ऑफ एजुकेशन) ने अपने कमेंट्स में उन्हें ‘कुशल शिक्षक’ माना था और ‘प्रशिक्षण के लिए जबलपुर के स्पेस ट्रेनिंग कॉलेज भेजने की सिफारिश’ की थी. बग्गा मास्साब स्कूल के प्रिंसिपल थे. ट्रेनिंग में भी वज़ीफा पचीस रुपये ही था. जबलपुर परसाई पहले भी जा चुके थे, पर अब वहाँ प्रशिक्षण के लिए दो वर्ष रहना था. वे यहाँ ‘छात्राध्यापक’ थे. जबलपुर में उन्हें लायब्रेरियन परांजपे मिले, जिनसे उनकी घनिष्टता सदैव बनी रही.
परांजपे ने ही उन्हें जेम्स मिल की ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’ और तुकाराम की अभंग वाली पुस्तक के बारे में बताया था. यहाँ ट्रेनिंग करते समय वे मॉडल स्कूल भी पढ़ाने जाते रहे. ट्रेनिंग से आने के बाद परसाई फिर नौकरी की तलाश में रहे. ट्रेनिंग कॉलेज के प्रिंसिपल ने उनकी नियुक्ति मॉडल स्कूल में कर दी. यहाँ उनका मासिक वेतन पचास रुपये था और रंगरूटों को पढ़ाने के लिए उन्हें अलग से पचीस रुपये मिलते थे. पिता के निधन के बाद भाई गौरीशंकर और दो बहनें उनके आश्रित हुईं. 1943 में पिता का निधन हुआ था.
हरिशंकर परसाई के कृतित्व एवं रचना-संसार के साथ-साथ उनके जीवन-संघर्ष को भी जानना आवश्यक है कि उन्हें कैसी स्थितियों का सामना करना पड़ा था और उन्होंने सदैव विपदाओं का डट कर सामना किया. परसाई पर माँ और बटेश्वरी बुआ का प्रभाव था. बटेश्वरी बुआ से उन्होंने ‘जीने का तरीका’ सीखा. ‘‘मेरी एक बुआ थी. गरीब, जिन्दगी गर्दिश भरी, मगर अपार जीवन शक्ति थी उसमें. खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती- बाई, न दाल ही है, न तरकारी. बुआ कहती- चल, चिंता नहीं. राह-मोहल्ले में निकलती और जहां उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हम उम्र मालकिन से कहती- ऐ कौशल्या, तेरी तोरई अच्छी खा गयी है. जरा दो मुझे तोड़ के दे. और खुद तोड़ लेती. बहू से कहती- ले बना डाल, जरा पानी जादा डाल देना. मैं यहां-वहां से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती- चल, कोई चिंता नहीं कुछ खा ले.’’ ‘कोई चिंता नहीं’ परसाई के लिए जीवन में सबसे बड़ा वाक्य था. उनके जीवनानुभाव ने उनकी समझ को परिपक्वता प्रदान की, दृष्टि-सम्पन्न किया. उनके ‘आत्म कथ्य’ और ‘गर्दिश के दिन’ के साथ सद्यः प्रकाशित उनकी जीवनी से बहुत कुछ जाना-समझा जा सकता है. आज के अनेक हिन्दी लेखकों में जीवनानुभव की कमी है. उनका समृद्ध सूचना-संसार है. सूचनाओं से रचनात्मक लेखन का संबंध नहीं होता.
‘हम एक उम्र से वाकिफ हैं’ (1990) के एक अध्याय ‘जबलपुर में शिक्षक’ में परसाई ने लिखा है-
‘‘बहुत लोग जानना चाहेंगे कि मैने लिखना कैसे चालू किया. पढ़ता तो मैं खूब था, पुस्तकें और पत्रिकाएँ पढ़ता था… अभिव्यक्ति की इच्छा मुझमें तीव्र थी. पर मैं इसे बातचीत से ही संतुष्ट कर लेता था.’’
उन्होंने एक नयी चमचमाती कार पर दो बहुत गरीब बच्चों को हाथ फेरते और ड्राइवर द्वारा उन दोनों को तमाचे मारते देखा था. ‘‘मैं खड़ा-खड़ा यह दृश्य देख रहा था. उसने मुझे झकझोर दिया और मेरी वर्ग-चेतना को भी जगाया. मैंने इस घटना को अपनी कल्पनाशीलता और भाषा की सामर्थ्य के साथ लिख दिया. लेखक की जगह अपना नाम न देकर उपनाम ‘उदार’ लिखा.’’ ‘दूसरों की चमक-दमक’ शीर्षक से लिखी गयी यह कहानी उन्होंने ‘प्रहरी’ के पते पर भेज दी.
परसाई जबलपुर के मॉडल स्कूल के अध्यापक थे. आजादी के अवसर पर जबलपुर के तिलक भूमि तिलैया के आयोजन में मंच से ‘प्रहरी’ नामक साप्ताहिक पत्र के प्रकाशन की घोषणा की गयी थी.”स्वाधीनता का प्रहरी, जनतंत्र का प्रहरी. समाज, सत्य और उजाले का पहरेदार.’’ मंच से सम्पादकों की भी घोषणा की गयी- भवानी प्रसाद तिवारी और रामेश्वर प्रसाद गुरु. मूल्य डेढ़ आना ‘सालाना चन्दा है छह रुपया.’’ परसाई ने ‘प्रहरी’ पत्रिका खरीदी. उनकी इच्छा भवानी प्रसाद तिवारी से मिलने की हुई. ‘प्रहरी’ का प्रकाशन 15 अगस्त 1947 से ही आरंभ हुआ था. भवानी प्रसाद तिवारी सम्पादक थे और कामता प्रसाद गुरु (सुप्रसिद्ध व्याकरणाचार्य) के पुत्र रामेश्वर प्रसाद गुरु संयुक्त सम्पादक थे- क्राइस्ट चर्च स्कूल में शिक्षक, पत्रकार और ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के प्रतिनिधि. जबलपुर में उस समय मिस्त्री होटल बौद्धिकों का अड्डा था. परसाई भी वहां जाने लगे और उस बिरादरी में शामिल हुए.
उनकी पहली प्रकाशित रचना ‘दूसरों की चमक-दमक’ है, जो ‘प्रहरी’ में 23 नवम्बर 1947 को प्रकाशित हुई थी. इसी समय से परसाई के लेखन का शुभारम्भ हुआ- आजादी के लगभग तीन महीने बाद से. इस रचना में तब किसी ने ‘साम्यवाद’ देखा, तो किसी ने इसमें ‘वर्ग-संघर्ष का सही चित्रण’ पाया. ‘उदार’ उपनाम से ‘प्रहरी’ में परसाई की कई कहानियाँ प्रकाशित हुईं. किसी को पता नहीं था कि यह ‘उदार’ है कौन? खोज की जाने लगी और अंत में पता लगा कि हरिशंकर परसाई ही ‘उदार’ हैं.
परसाई की जीवनी ‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ के पहले शकुंतला तिवारी से उनके गहरे प्रेम-संबंध की जानकारी उनके पाठकों-आलोचकों को कम थी. उनकी जीवनी का एक अध्याय है ‘अशेष पाणिग्रहण’. पारिवारिक दायित्वों के कारण उन्होंने शकुंतला से, जिन्हें वे ‘कुंतल’ भी कहते थे, विवाह नहीं किया. अपनी पहली किताब ‘हँसते हैं रोते हैं’ (1953) की पहली प्रति उन्होंने ‘प्रिय कुंतल के लिए, पहली प्रति’ लिख कर उन्हें दी थी. परसाई अविवाहित रहे और शकुंतला तिवारी भी अविवाहित रहीं. परसाई को विधवा बहन और चार भांजे-भाँजियों को देखना था. उन्होंने ‘प्रेम के स्थान पर पारिवारिक दायित्व को महत्व दिया.
तीन |
आरंभ में परसाई की रचनाएँ ‘प्रहरी’ में प्रकाशित हुई थीं. बाद में अन्य स्थानों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में. इलाहाबाद से प्रकाशित ‘संगम’ में उनकी कई रचनाएँ छपीं. वे जबलपुर से बाहर पचास के दशक में राष्ट्रीय क्षितिज पर छा रहे थे. ‘लोकल’ से ‘नैशनल’ हो रहे थे. उनके पास रचनाएँ काफी थीं, जिनमें से छाँट कर उन्होंने अपनी पहली किताब बनाई ‘हँसते हैं रोते हैं’. कथा-रचनाओं की पाण्डुलिपि तैयार कर सेठ गोविन्द दास के जयहिन्द प्रेस के मैनेजर गुलाब प्रसन्न शाखाल को दी. ‘मेरी एक बात और’ शीर्षक से भूमिका लिखी-
‘‘आदमी को मैंने जैसे हँसते और रोते देखा है, वैसा ही उतारा है इन कहानियों में. आदमी की वास्तविक जिन्दगी को कहीं छोड़ा नहीं है… शैली के मामले में मैं किसी की नकल करने से साफ बच गया हूँ… भाषा जैसी बोलता हूँ, वैसी ही लिखी है.’’
भूमिका मई 1953 में लिखी और किताब इसी वर्ष प्रकाशित हुई. समर्पण ऐसे आदमी को किया, ‘जिसे किताब खरीदने की आदत हो और जिसे जेब में डेढ़ रुपये हो.’’ परसाई अपने स्तंभ-लेखन से न केवल जाने गये, चर्चित और विख्यात भी हुए.
उनका स्तंभ-लेखन ‘प्रहरी’ में 1947 से अघोर भैरव छद्म नाम से आरंभ हुआ. ‘प्रहरी’ में इस स्तंभ का नाम ‘नर्मदा के तट से’ था. लगभग एक दर्जन पत्र-पत्रिकाओं में उनका स्तंभ-लेखन जारी रहा है- 1947 से 1994 तक. जबलपुर से ही प्रकाशित ‘परिवर्तन साप्ताहिक’ में उनका स्तंभ था- ‘अरस्तू की चिट्ठी’. जबलपुर की नई ‘दुनिया’ में ‘कबीर’ उपनाम से उनका स्तंभ था- ‘सुना भाई साधो’. ‘आदम’ नाम से उन्होंने दिल्ली के ‘जनयुग’ (1965) में ‘ये माजरा क्या है’ शीर्षक स्तंभ में अपने व्यंग्य लिखे. उन्होंने कई शैलियों में स्तंभ-लेखन किया. ‘सारिका’ का उनका स्तम्भ ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ (1974-76) साक्षात्कार शैली में है और ‘देशबंधु’ अखबार का स्तंभ ‘पूछिए परसाई से’ (1983-1994) प्रश्नोत्तर शैली में है.
हैदराबाद से प्रकाशित पत्र ‘कल्पना’ का स्तंभ ‘और अंत में’ की शैली पत्र-निबंध की है. ‘करंट’ में स्तंभ का शीर्षक ‘माटी कहे कुम्हार से’, ‘माया’ के स्तंभ शीर्षक ‘मैं कहता आँखन देखी’, ‘नई कहानियाँ’ का ‘पाँचवें कॉलम’ और ‘सारिका’ में ‘तुलसीदास चंदन घिसै’ था. कबीर से जुड़े उनके कई स्तंभ थे. ‘सुनो भाई साधो’ स्तंभ 1961 से परसाई ने ‘कबीर’ उपनाम से लिखा और इस शीर्षक से पुस्तक का प्रकाशन 1964 में हुआ. ‘सुनो भाई साधो’ की भूमिका में परसाई ने लिखा है-
‘‘अपने समय की विसंगतियों, पाखण्डों, मिथ्याचारों के उद्घाटन और उन पर प्रहार के लिए मैंने अपने को कबीर की परम्परा से जोड़ा.’’
आलोचकों-सम्पादकों से पहले स्वयं परसाई ने अपने को कबीर की परम्परा से जोड़ लिया था. नागार्जुन को भी ‘आधुनिक कबीर’ कहने वाले आलोचकों ने भी इस ओर कम ध्यान दिया है कि लगभग छह सौ वर्ष से अब तक हिन्दी समाज क्यों विसंगतियों, पाखण्डों, बाह्याडम्बरों, रूढ़ियों, मिथ्याचारों, वैमनस्य, धर्मांधता आदि में फँसा पड़ा है? कबीर के समय से आज ये सब कहीं अधिक विपुल मात्रा में है.
क्या आलोचना का कार्य केवल कवि और लेखक की कृतियों का साहित्यिक मूल्यांकन करना है या उन कृतियों में व्यक्त समाज की स्थितियों पर प्रकाश डालना भी है? क्या यह हमारे समाज का आज भी बड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है? हिन्दी आलोचकों का कार्यभार इक्कीसवीं सदी में कहीं अधिक बड़ा है.
परसाई का निधन नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के आरंभ में हुआ था. उनके समय में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ था, गुजरात का नरसंहार नहीं. उनके जीवन-काल में केन्द्र में भाजपा और राजग की सरकार नहीं थी. उनके समय में केन्द्र में कांग्रेस के अलावा जनता पार्टी, जनता दल और जनता पार्टी समाजवादी की सरकार थी. मध्य प्रदेश में उनके समय में कांग्रेस के अलावा जनता पार्टी और भाजपा की सरकार बनी थी. मध्य प्रदेश में उनके समय में कांग्रेस के अलावा जनता पार्टी और भाजपा की सरकारें बनी थी. सुन्दरलाल पटवा 5 मार्च 1990 से 15 दिसम्बर 1992 तक भाजपा के मुख्यमंत्री थे.
परसाई ने साम्प्रदायिकता के विरोध में काफी लिखा है. 1973 की गर्मियों में हुए जबलपुर नगर निगम के चुनाव में पहली बार जनसंघ को सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं. 46 पार्षदों में से उसके 18 पार्षद विजयी हुए थे. परसाई ने जबलपुर से प्रकाशित ‘नवीन दुनिया’ के अपने स्तंभ ‘सुनो भाई साधो’ में लिखा कि जनसंघ को नगर निगम के चुनाव में इतनी बड़ी सफलता मिलने की खुशी को गोलवलकर बर्दाश्त नहीं कर सके और उनके प्राण चल बसे. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर का निधन 5 जून 1973 को हुआ था. दो नौजवान लड़कों ने परसाई के घर पहुँच डण्डों से उनकी पिटाई की थी, जो एक बड़ी घटना थी. परसाई पर हुए हमले के प्रतिक्रिया देश भर में हुई थी, जबलपुर में कई दिनों तक नुक्कड़ा सभाएँ हुईं, विरोध-प्रदर्शन हुए.
परसाई के स्तंभ बहुत लोकप्रिय थे. उनके स्तंभों की प्रतीक्षा की जाती थी. कमलेश्वर के अनुसार ‘सारिका’ में जब उनका स्तंभ प्रकाशित होता था, ‘सारिका’ का प्रिंट ऑर्डर बढ़ जाता था. परसाई ने अपने लेखन में साम्प्रदायिक शक्तियों को हमेशा निशाने पर लिया, जिससे उन्हें ‘परीशंकर हरजाई’ भी कहा गया. अध्यापक बनने के बाद उनकी रूचि एक साथ ‘साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति’ में बढ़ी. 1957 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो रहे थे उस समय उन्होंने भवानी प्रदसाद तिवारी को जिताने के लिए कई नुक्कड़ सभाएँ कीं, रिक्शे पर भर दिन घूम-घूम कर प्रचार किया था. नागपुर में आयोजित शिक्षक संगठन में वे गये थे और जबलपुर के प्रतिनिधि बने थे. माध्यमिक शिक्षक संघ की जबलपुर जिला इकाई का चुनाव लड़कर वे अध्यक्ष भी बने थे.
प्रदेश सरकार द्वारा जारी ‘स्कूल कोड बिल’ का उन्होंने विरोध किया था, सभाएँ की थी. विरोध में उनकी बड़ी भूमिका थी. सरकार ने ‘स्कूल कोड बिल’ वापस ले लिया. शिक्षकों के हक के लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी. वे केवल शिक्षक नहीं थे. उनके खिलाफ सरकार को बार-बार शिकायतें भेजी जाती रही.
पचास के दशक में परसाई एक साथ कई मोर्चों पर लड़ते दिखाई देते हैं. अध्यापक बनने पर उन्होंने बी.ए. और एम.ए. किया. नागपुर में वे मुक्तिबोध से मिले. मुक्तिबोध ‘नया खून’ के सम्पादक थे. बिलासपुर से श्रीकान्त वर्मा ‘नयी दिशा’ पत्रिका निकालते थे. परसाई ने जबलपुर से एक पत्रिका निकालने के लिए रामेश्वर गुरु से भेंट की. पत्रिका का नाम तय हुआ. ‘वसुधा’. ‘‘वसुओं को धारण करेने वाली, धरती. साहित्य के नये विचारों को धारण करने वाली पत्रिका ‘वसुधा’. रामेश्वर गुरु और परसाई दोनों ‘वसुधा’ के सम्पादक बने. ‘वसुधा’ का पहला अंक मई 1956 का था. मुक्तिबोध ने ‘वसुधा’ में ही ‘एक साहित्यिक की डायरी’ नामक स्तंभ नियमित रूप से लिखा. परसाई बाद में डी एन जैन स्कूल में अध्यापक हो गये थे. उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी और अपना सारा समय लेखन को दे दिया. वे मसिजीवी थे. ‘लेखक का निवेदन’ में उन्होंने लिखा-
‘‘पैंतीस साल अपने विश्वासों को मजबूती से पकड़कर बिना समझौते के मैंने जो सही समझा, लिखा है. जो कुछ मानव-विरोधी है, उस पर निर्मम प्रहार किया है. नतीजे भोगे हैं, अभी भोग रहा हूँ, आगे भी भोगता जाऊँगा, पर मैं लगातार उसी स्फूर्ति, शक्ति और विश्वास से लिखता जा रहा हूँ.’’
परसाई के यहाँ उनका समय महत्वपूर्ण है- स्वाधीन भारत का समय-
‘‘शाश्वत लिखने वाले तुरंत मृत्यु को प्राप्त होते हैं. अपना लिखा जो रोज मरता देखते हैं, वही अमर होते हैं- जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं हैं वह अनंत काल के प्रति क्या ईमानदार होगा.’’
युग के प्रति यह ईमानदारी हिन्दी के लेखकों में घटी है या बढ़ी है? परसाई का लेखन वर्तमान भारत को बदलने के लिए है. उनका समस्त लेखन अपने समय का आईना है, यह समर्पित लेखन है. विषय अनगिनत है. अगर कोई विषय-सूची बने, जो अब तक नहीं बनी है, तो यह निश्चित रूप से सौ के आसपास होगी. दृष्टि जिधर मुड़ी, उधर केवल उन्हें समस्याएँ दिखाई पड़ीं.
स्वाधीन भारत की वास्तविक पहचान है परसाई का साहित्य. कला, साहित्य, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति, घर, परिवार, समुदाय, अर्थ-व्यवस्था, शासन प्रणाली, न्याय-व्यवस्था, विधि-व्यवस्था, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, चुनाव, संसद, विधानसभा, राजनीतिक दल, कवि, लेखक, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी, धर्म, गृह-नीति, विदेश नीति, संवेदना, विचार दर्शन, सिद्धान्त, नेता, अभिनेता, बाजार, विज्ञापन, प्रेम,विवाह, हिंसा, नैतिकता, बाह्याचार, प्रदर्शन, सरकारी दफ्तर, अधिकारी, पदाधिकारी, स्वार्थ बेशर्मी, ढोंग, ईमानदारी, बेईमानी, सामंत, पूंजीवाद, फासीवाद, अमेरिका, रूस, लोकतंत्र, गणतंत्र, संविधान’,-सब कुछ पर परसाई की पैनी नजर है.
उनकी दृष्टि से कुछ भी अछूता नहीं है. इसे स्वाधीन भारत पर की गयी टिप्पणियों के रूप में ही देखना-समझना गलत है. उनका समस्त लेखन परिवर्तनकामी और प्रगतिशील है. जो परिवर्तनकामी नहीं है, वे कभी प्रगतिशील नहीं हो सकते. परसाई के लिए लेखन संघर्ष का हथियार है.
वे शब्द-सचेत लेखक हैं. इलाहाबाद उनके लिए ‘साहित्य की राजधानी’ नहीं, ‘कला घानी’ था. ‘राजधानी’ में ‘राज’ शब्द उनकी दृष्टि में सामंतवाद का प्रतीक है. जहाँ राज होगा, वहाँ लोकतंत्र नहीं होगा. शब्दों के प्रति, शब्द-प्रयोगों के प्रति वे अधिक सावधान थें. पुराने आचारों-विचारों और भाषाई संस्कारों से मुक्ति पर उन्होंने सदैव बल दिया. ‘राजधानी’ के लिए उन्होंने ‘लोकधानी’ शब्द का प्रयोग किया है. वे भाषा के समाजशास्त्र से ही नहीं, उसके मनोविज्ञान से भी भलीभाँति अवगत थे.
परसाई के व्यंग्य पर जितना विचार हुआ है, उतना उन स्थितियों पर नहीं, जिनके कारण व्यंग्य-रचना संभव हुई. उनका लेखन यथास्थितिवाद के विरूद्ध है. मात्र उनकी साहित्यिक आलोचना से यह यथास्थितिवाद कायम रहता है या बदलने की दिशा में अग्रसर भी होता है? उनका लेखन हर तरह के छद्म के विरूद्ध है. उन्होंने अपने समय में ‘कथनी और करनी की विपरीतता’ देखी. केवल वाणी महत्वपूर्ण नहीं है. आचरण भी महत्वपूर्ण है. द्विवेदी-युग के निबंधकार सरदार पूर्ण सिंह (17.2.1881-31.3.1931) ने ‘आचरण की सभ्यता’ में लिखा था-
‘‘विद्या, कविता, कला, साहित्य धन और राजस्व से भी आचरण की सभ्यता अधिक ज्योतिषमती है. आचरण की सभ्यतामय भाषा सदैव मौन रहती है… इस सभ्यता के दर्शन से कला, साहित्य और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्त होती है. राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिवनेत्र खुल जाता है; चित्रकला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है, मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्य उपस्थित हो जाता है.’’
सरदार पूर्णसिंह के समय से अब तक ‘आचरण की सभ्यता’ में बहुत कमी आई है, ‘शब्द और कर्म’ में अंतर बढ़ा है. केवल नेता ही अविश्वसनीय नहीं रहे, लेखकों की एक जमात भी अविश्वसनीय हो गयी. परसाई ने अपने युग के अनेक लेखकों-बुद्धिजीवियों को ‘इस व्यवस्था की जारज संतानें’ कहा है, जो ‘‘मानसिक रूप से दोगले नहीं, तिगले हैं- संस्कारों से सामंतवादी हैं, जीवन-मूल्य अर्द्ध पूंजीवादी है और बातें समाजवाद की करते हैं. अधिकांश लोग ‘रेटरिक’ खाते हैं और ‘पोलोमिक्स’ की कै करते हैं.’’
परसाई के यहां स्वानुभव प्रमुख है, इसी कारण उनके लेखन में धार है. उनके लिए दूसरों के अनुभव से कहीं बड़ा अपना अनुभव था. ‘‘वन मैन, फूड इन अनदर मैन पायजन.’’ अपने समय में ही उन्होंने हिन्दी लेखकों की, ‘छगन-मगन’ लेखकों की अच्छी पहचान कर ली थी. आज ‘छगन-मगन’ और ‘कस्तूरीमृग’ लेखकों की संख्या कहीं अधिक है, जिसे हम फेसबुक और सोशल मीडिया पर देख सकते हैं. परसाई आत्ममुग्ध लेखकों की कई श्रेणियाँ बनाते हैं. उनके अनुसार ‘छगन-मगन लेखक’ वे हैं जो बार-बार अपना लिखा पढ़ते हैं और कस्तूरीमृग वाले लेखक अपना लिखा महत्वपूर्ण समझते हैं, नाभि के गंध से बावलें बने रहते हैं.
परसाई के यहाँ केवल उनके अपने युग की ही पहचान नहीं, भारत के भविष्य की भी पहचान है. वर्तमान का संबंध अतीत और भविष्य दोनों से है. वर्तमान को देख-समझ कर ही हम भविष्य का आकलन करते हैं. 1991 में जब परसाई ने ‘आवारा भीड़ के खतरे’ की पहचान कर ली थी. भारतीय लोकतंत्र आज के भीड़तंत्र में बदल नहीं रहा था. उन्होंने अपने इस निबंध में ऐसी भीड़ को नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी से जोड़ कर लिखा-
‘‘यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है, जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इससे विध्वंसक कार्य कराये जा सकते हैं. भीड़ फसिस्टों का हथियार हो सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव-मूल्यों के विनाश के लिए लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.’’
परसाई की छत्तीस किताबों पर स्वतंत्र रूप से लिखने अथवा उनके विपुल लेखन में से अपनी सुविधा के लिए किसी एक पक्ष-विशेष का चयन कर, चाहे वह दलित और स्त्री-संबंधी लेखन ही क्यों न हो, परसाई की चिंताओं से अपने को अलग करना है. यह एक सुविधाजनक लेखन है, जिसकी इस समय बहार है. परसाई के समस्त लेखन में उनकी चिंताएँ निजी नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक-आर्थिक है. उन्होंने सच्चे धर्म को ‘भावना और आचरण’ में देखा है. और धर्म की भूमिका को हमेशा ‘प्रगतिशीलता विरोधी’ माना है.’’ धर्म सुख का भ्रम पैदा करता है, जब कि मनुष्य वास्तविक सुख चाहता है, जो सामाजिक परिवर्तन से आता है.’’ परसाई का लेखन ‘सामाजिक परिवर्तन’ के लिए है. उनका एक लेख ‘धर्म विज्ञान और सामाजिक परिवर्तन’ है. अपने एक लेख ‘समाजवाद और धर्म’ में उन्होंने ‘धर्म’ को ‘जड़ दृष्टि’ से जोड़ा है, भाग्यवादी और अकर्मण्य बनाने की बात कही है-
‘‘धर्म मूल अच्छे तत्व छोड़कर कर्मकाण्ड का रूप ले लेता है. जनता को शोषण के लिए तैयार करता है. शोषक के हाथ में धर्म का हथियार है.’’
इस समय जब प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् के अध्यक्ष अड़सठ वर्षीय विवेक देबरॉय जब अपने एक लेख में संविधान बदलने की मांग कर रहे हैं, परसाई के एक निबंध ‘भारतीय गणतंत्र : आशंकाएँ और आशाएँ’ का स्मरण स्वाभाविक है. इस निबंध में परसाई ने धर्माधारित राजनीति को गणतंत्र के लिए खतरनाक माना है.
‘‘साम्प्रदायिक राजनीति ने नफरत भर दी. मनुष्य की पहचान बदल दी. इस देश के लोगों को यदि स्वतंत्र रहना है, राष्ट्रीय एकता रखनी है, लोकतंत्र रखना है, तो जनता सही शिक्षण देकर इस घृणा की रजानीति को परास्त करे. एक मात्र और सबसे बड़ा काम यही है’’
परसाई की दृष्टि साफ थी कि परिवर्तन ‘‘व्यक्तिगत परिवर्तन से नहीं, जन-आन्दोलन से होता है.’’ परसाई अपने लेखन के जरिये जनान्दोलन की एक भूमि-पृष्ठभूमि भी तैयार करते हैं. मनुष्य की छटपटाहट को उन्होंने ‘न्याय’ से जोड़कर देखा, जो प्रेमचन्द का एक प्रमुख बीज-शब्द है. ‘‘बड़ी लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती है. अकेले वही सुखी है, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी… अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं… न उनके मन में सवाल उठते, ये जब-तब शिकायत कर लेते हैं. शिकायत भी सुख देती है.’’
प्रेमचन्द ने उनके पहले यह लिखा था कि जब वे बड़े-बड़े महलों और बंगलों में रहने वाले मनुष्य को देखते हैं, तो सोचते हैं की, क्या वे सचमुच मनुष्य हैं? परसाई ने धन-सम्पदा, पद-प्रतिष्ठा, प्रशंसा-ख्याति किसी को महत्व नहीं दिया. उनकी चिन्ता में एक बेहतर समाज का निर्माण था. पैर के ऑपरेशन से उनका एक पाँव छोटा हो गया था, पर आरंभ से अंत तक उनके विचार सदैव बड़े रहें. उनका ध्यान एक साथ वर्ग-भेद, वर्ण-भेद दोनों पर था. ‘जाति’ और ‘धर्म’ का उन्होंने निरन्तर विरोध किया है. उनके समय में जाति और धर्म की राजनीति आज की तरह फनफना नहीं रही थी. ‘ऊँची जातियों का आरक्षण’ उनकी एक व्यंग्य-कथा है, जिसमें एक हरिजन के आई.ए.एस. बनने के बाद भी उसके प्रति ब्राह्मण आई.ए.एस. का व्यवहार नहीं बदलता.
परसाई स्वयं ब्राह्मण थे पर उनके यहां इस जाति-विशेष का ही नहीं, इसकी व्यवस्था का भी विरोध है. विचारणीय यह है कि ब्रिटिश भारत में प्रेमचन्द ने इसकी सही पहचान कर ली थी, पर स्वाधीन भारत में भी यह सब क्यों बना रहा है- जातिगत श्रेष्ठता, वर्ण-व्यवस्था आदि.
परसाई के सामने मध्यकालीन संत-भक्त थे.
‘‘नीची जातियों ने मध्य युग में अपने संत और कवि पैदा कर लिए. कबीरदास (जुलाहा), रैदास (चमार), कुम्भनदास (कुम्हार) नामदेव (दरजी). फिर महाराष्ट्र में महात्मा फुले और केरल में नारायण गुरू ने हमारे जमाने में संघर्ष किया.’’
परसाई ने तुलसी की आलोचना भी की है क्योंकि
‘‘सामंती समाज की सड़ी-गली मान्यताओं को तुलसी ने बल दिया. छोटे, कमजोर, दलित वर्ग को कुचलने के लिए एक धार्मिक पृष्ठभूमि और मर्यादा का बल दे दिया.’’
समाज को आगे बढ़ने देने में जो शक्तियां बाधक हैं, परसाई उन सबको देख रहे थे, उनकी खबर ले रहे थे. जाति उनके लिए ‘बुनियादी चीज’ नहीं है-
‘‘अगर जाति इतनी बुनियादी चीज है तो अलग-अलग जाति की अलग-अलग गंध होती. ब्राह्मण की गुलाब की गंध वैश्य की चम्पा की गंध… प्रेम स्त्री-पुरुष में नहीं होता, जाति-जाति में होता .”
‘जाति’ उनकी एक व्यंग्य रचना भी है, जिसमें उन्होंने व्यभिचार करने पर जाति की मर्यादा के समाप्त न होने और एक जाति की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर लेने से जाति जाने पर कठोर व्यंग्य किया है. अपने समय की विभाजनकारी रजानीति को देख-समझ कर उन्होंने उस राजनीति पर व्यंग्य किया और दलित मंत्रियों के यहां दलित अथवा किसान के खाद होने की बात कही, वैसे मंत्रियों को ‘दलितों के खाद पर फूला हुआ गुलाब’ कहा. संभव है, परसाई के ऐसे दलित चिंतन-लेखन पर स्वतंत्र रूप से आज के दलित लेखक-चिंतक विचार भी करे, पर दलित-विमर्श में वर्तमान दलित राजनीति और उनके नेताओं पर कम विचार किया जाता है.
परसाई का लेखन आर-पार का लेखन है. वह पूर्णतः व्यवस्था-विरोधी लेखन है. यह सामाजिक व्यवस्था सैकड़ों-हजारों वर्षों से कायम है. यह इतना सुदृढ़ है कि कबीर हों या प्रेमचन्द, निराला-नागार्जुन हों या मुक्तिबोध-परसाई, वे सब पूरी शक्ति से इस व्यव्स्था पर प्रहार करते रहे, पर व्यवस्था आज भी कहीं अधिक सुदृढ़ है और अनेक लेखकों ने इस ओर से मुँह फेर कर अपने को एक सुरक्षित दायरे में ला खड़ा कर दिया है. हरिजन और दलित के साथ व्यवहार आज भी पूरी तरह नहीं बदला है.
‘‘हरिजन को पीटना खुद एक यज्ञ है. घुड़सवार दूल्हे को पीटना अश्वमेघ यज्ञ है. हरिजनों की बस्ती में आग लगाना राजसूय यज्ञ है.’’
यहां यज्ञ को वे ‘समाज की पुरानी परम्पराओं की जकड़’ के रूप में भी देखते हैं. उनकी चिंता यह थी कि दलितों पर ऐसा अत्याचार क्यों किया जाता है. दिखावे, प्रदर्शन और ढोंग के वे खिलाफ थे. हरिजन को जिन्दा जलाने पर हिन्दी के सभी कवि-लेखक चिंतित नहीं हैं. नागार्जुन ने हरिजनों के जीवित जलाये जाने पर ‘हरिजन-गाथा’ कविता लिखी थी. उन्होंने केवल दलित स्त्री का गर्भ ही नहीं देखा, वह गर्भ-गृह भी देखा, जहां से ऐसी शक्तियां जन्म लेती हैं.”तेरह के तेरह अभागे मनु-पुत्र अग्नि में झोंक दिये गये.’’ दलितों को जीवित जलाये जाने पर परसाई ने लिखा-
‘‘अभी जब हरिजन जिन्दा जलाए जा रहे थे, तब मुझे लगा कि यह राष्ट्रीय शोक का मौका है- राष्ट्र घ्वज फड़फड़ा कर फट पड़ेगा. संविधान के आँसू निकल पड़ेंगे. गांधी जी की मूर्ति सर ठोक लेगी. पर कुछ नहीं हुआ.’’
परसाई को मुक्तिबोध, नागार्जुन, प्रेमचन्द और कबीर से जोड़ा जाता है, पर केवल विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘देश के इस दौर में’ पुस्तक के एक अध्याय ‘परसाई एवं मुक्तिबोध’ में इन दोनों की कई समानताओं, बिम्बों आदि पर ध्यान दिया है. अभी ‘परसाई और नागार्जुन’ ‘परसाई और प्रेमचन्द’, ‘परसाई और कबीर’ पर लिखना बाकी है. उनके जन्मशती वर्ष में आलोचकों की नजर इस ओर शायद मुड़े.
चार |
मुक्तिबोध से परसाई ने 1954 में हुई अपनी पहली भेंट को अपने लिए ‘उतना ही महत्वपूर्ण’ माना है, ‘‘जितना 1938 में हाई स्कूल में बग्गा मास्साब का मिलना.’’ विश्वनाथ त्रिपाठी ने कई उदाहरणों से परसाई और मुक्तिबोध में कुछ साम्य दिखाये हैं और लिखा है- ‘‘दो मित्र एक ही विचारधारा, एक ही वर्ग के हों, रचनाकार हो, घंटों मटरगश्ती करते हों, सत्संग करते हों, एक दूसरे के भौतिक, मानसिक और रचनात्मक संघर्ष में साथ रहते हों तो उनके साहित्य में समान चित्रों का न होना ही अस्वाभाविक होगा… यह स्वातंत्र्योत्तर भारत की स्थिति से उत्पन्न सहयोगी संवेदना के चित्र हैं. ऐसे समान चित्र ढूँढने पर और मिलेंगे.’’
दो लेखकों में समान चित्रों की उपस्थिति गंभीर विचार की माँग करती है. जब लेखकों का गहरा, ईमानदार ‘कंसर्न’ होता है, लेखन का अपना एक सामाजिक पक्ष होता है, गहरी मानवीय संवेदना और प्रतिबद्धता होती है, अपने समय और समाज को बाहर से नहीं, उसे बहुत भीतर से देखने-समझने की एक साथ सर्जनात्मक और आलोचनात्मक दृष्टि होती है, तभी दो लेखकों के यहाँ हमें समानताएँ देखने को मिलती हैं. परसाई ‘प्रतिबद्धता’ को ‘एक गहरी चीज’ मानते हैं, ‘‘जो इस बात से तय होती है कि समाज में जो द्वन्द्व है, उसमें लेखक किस तरफ खड़ा है- पीड़ितों के साथ या पीड़कों के साथ.’’ यहाँ यह लिखना जरूरी है कि जो लेखक पीड़ितों के साथ खड़ा होता है भारत जैसे देश में जहाँ कुछ भी नहीं बदला है, वह प्रासंगिक है. परसाई लोक, सामान्य जन, दलित शोषित, वंचित, पीड़ित के साथ थे और जिन शक्तियों ने जीवन को नरकमय बनाया हुआ है, उनसे उनका सदैव विरोध रहा. उनका साहित्य असहमति, विरोध-प्रतिरोध और संघर्ष का साहित्य है. यथास्थितिवाद के विरूद्ध. उन्होंने ‘व्यंग्य की गर्भ-भूमि’ पर प्रहार किया.
परसाई के राजनीति लेखन और उनके राजनीतिक स्टैंड पर अधिक विचार नहीं हुआ है. क्या परसाई का राजनीतिक स्टैंड सही रहा है? वे नेहरू और कृष्ण मेनन के प्रशंसक रहे हैं, पर मोरारजी देसाई, गोलवलकर और अटल बिहारी वाजपेयी के नहीं. 1947 से 1995 के बीच के,जो परसाई का रचना समय भी है, के अड़तालीस वर्षों में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार ही अधिक समय तक थी.
नेहरू 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक- 16 वर्ष 286 दिन भारत के पहले प्रधानमंत्री रहे.
गुलजारी लाल नन्दा छब्बीस दिन प्रधानमंत्री रहे. (27 मई 1964 से 9 जून 1964 और 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966),
लाल बहादुर शास्त्री 1 वर्ष 216 दिन ( 9 जून 1964- 11 जनवरी, 1966),
इन्दिरा गांधी 15 वर्ष 350 दिन (24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 और 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984),
राजीव गांधी 5 वर्ष 32 दिन (31 अक्टूबर 1984से 2 दिसम्बर 1989) और
पी वी नरसिम्हा राव 4 वर्ष 33 दिन (21 जून 1991 से 16 मई 1996) प्रधानमंत्री रहे थे.
यह कुल समय 43 वर्ष 213 दिन का है.
मनमोहन सिंह के समय का उल्लेख आवश्यक नहीं है क्योंकि परसाई का निधन 10 अगस्त 1995 को हो गया था. केन्द्र में गैर कांग्रेसी दलों का शासन मात्र 5 वर्ष 355 दिन का था- लगभग 6 वर्ष का. जनता पार्टी की सरकार मात्र 2 वर्ष 296 दिन रही थी.
मोरारजी देसाई 2 वर्ष 126 दिन (24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979) और
चरण सिंह कुल 170 दिन (28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980) प्रधानमंत्री थे.
विश्वनाथ प्रताप सिंह 343 दिन (2 दिसंबर 1989 से 10 नवम्बर 1990) और
चन्द्रशेखर 223 दिन तक (10 नवम्बर 1990 से 21 जून 1991) प्रधानमंत्री पद पर थे. इसके बाद भारत के ग्यारहवें और बारहवें प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा (1 जून 1996-21 अप्रैल 1997, कुल 325 दिन) और
इन्द्र कुमार गुजराल (21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998, कुल 332 दिन) थे.
परसाई के निधन के बाद भाजपा और राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) की सरकार बनी थी. विस्तार से इसे लिखना इसलिए जरूरी है कि 43 वर्ष 213 दिन परसाई के समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और गैर कांग्रेसी दलों की सरकार मात्र 5 वर्ष 355 दिन रही है.
परसाई के यहाँ कांग्रेस का विरोध नागार्जुन की तरह नहीं है. उन्होंने नागार्जुन की तरह नेहरू और इन्दिरा गाँधी की आलोचना नहीं की है. उनके राजनीतिक लेखन के साथ-साथ राजनीतिक स्टैंड पर भी विचार किया जाना चाहिए. विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया है. पर इससे परसाई का महत्व किसी भी अर्थ में कम नहीं होता. उन्होंने सबको नंगा किया, मुखौटे उतारे और सही चेहरा दिखाया. वे हमेशा ‘विसंगति, अन्याय, मिथ्याचार, शोषण, पाखण्ड और दोमुँहेपन’ के खिलाफ रहे हैं. मायाराम सुरजन ने उन्हें ठीक ही ‘विषवमन धर्मी रचनाकार’ कहा है.
परसाई ने पाखण्ड ढोंग और दोगलेपन पर सर्वाधिक प्रहार किया है. उन्होंने किसी से कोई मुरव्वत नहीं की. विश्वविद्यालय और वहाँ के प्रोफेसर भी उनके निशाने पर रहे हैं. ‘‘विश्वविद्यालय में नई शोध या बौद्धिक स्थापना के लिए आचार्यों में संघर्ष नहीं होता. अच्छे बंगले, चपरासी, अच्छे बगीचे के लिए संघर्ष होता है.’’ विश्वविद्यालयों में गुटबाजी को लेकर उन्होंने कम नहीं लिखा है. हिन्दी में पी-एच.डी. करने वालों पर उनकी कड़ी टिप्पणी है- ‘‘जिधर एक ढेला फेंको, डॉक्टर साहब पर गिरता है.’’ उनके समय में जितने डॉक्टर साहब थे, उनकी संख्या अब कई गुना बढ़ गयी है. उनका सर्वाधिक ध्यान मनुष्य के आचरण-पक्ष पर है. हिन्दुओं का गौरव गान करने वालों और ‘हिन्दुत्व’ के प्रशंसकों को उनके इस कथन को पढ़ना-समझना चाहिए-
‘‘जिस जाति में बच्चे की बलि को धर्म-साधना माना जाए, विधवा को पति की चिता में डाल देना नैतिकता माना जाए, जिस धर्म में ऐसी कथा हो कि मोरध्वज और उसकी पत्नी भगवान को खुश करने के लिए बेटे को आरी से चीरते हैं, जिस देश में मनु महाराज विधान देते हैं कि यदि द्विज शूद्र को मार डाले तो वह उतना ही प्रायश्चित करें, जितना सूअर या कुत्ते को मारने पर- उस जाति की संवेदना, मूल्य चेतना, मानव गरिमा की भावना, अध्यात्म-चेतना को फूल चढ़ाए जाएँ या उस पर थूका जाए.’’
यह थूकना उनके समय आज के समय में कहीं अधिक जरूरी है.
परसाई ने साठ के दशक के आरंभ में ही भारतीय जनसंघ के ‘धार्मिक राज्य’ की भलीभाँति पहचान कर ली थी. वे जनसंघ के चुनावी घोषणा-पत्र को गंभीरता से समझ रहे थे. जनसंघ एक दक्षिणपंथी पार्टी थी. उसी समय उन्होंने उसके हिन्दू राष्ट्र के उद्देश्य को समझ लिया था- ‘‘साधो… लिखा है कि जनसंघ धर्म-राज्य की अनिवार्यता को स्वीकार करता है. साधो, धर्म की प्रतिष्ठा की बात स्वतंत्र पार्टी भी करती है. ऐसे राज्य में भौतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष ही आदर्श रहेगा. यानी पूंजीवालों का भौतिक उत्कर्ष होगा और गरीबों का आध्यात्मिक उत्कर्ष” साठ वर्ष पहले के इस परसाई- कथन को आज के समय देखें कि क्या परसाई ने उस समय कुछ गलत कहा था. ‘सुनो भाई साधो’ (1964) में परसाई जैसे एक चेतावनी भी दे रहे थे, सुनने-समझने और गुनने को भी कह रहे थे. उनके यहाँ किसी प्रकार का द्वैत और उधेड़बुन नहीं है. ‘गर्दिश के दिन’ में उन्होंने हाथों में जो भी हथियार है, उससे लड़ने की बात कही है-
‘‘मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन किया. साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया और बहुत गंभीरता से व्यंग्य लिखना शुरू किया”.
उनका अध्ययन व्यापक था, पर जीवन को उन्होंने अध्ययन से कहीं अधिक अपने अनुभव से जाना-समझा था. उनके यहाँ साहित्य-मूल्य जीवन-मूल्यों से जुड़ा है. वे इन जीवन-मूल्यों को नष्ट होते देख रहे थे. उनका लेखन सही जीवन-मूल्यों को बचाने के लिए है. ब्रिटिश भारत में हमारे जीवन-मूल्य बहुत अंशों में बचे हुए थे. आजादी की लड़ाई में इन जीवन मूल्यों की भी भूमिका थी. स्वाधीन भारत में जीवन-मूल्य क्रमशः नष्ट होते गये हैं. परसाई जीवन की बेहतरी के लेखक हैं. ‘आत्मकथ्य’ में उन्होंने लिखा है-
‘‘जीवन जैसा है, उससे बेहतर होना चाहिए तो फिर जो जीवन लेखक देखता है, उसमें कहाँ-कहाँ खोट है, कहाँ-कहाँ एकदम परिवर्तन चाहिए. कौन-से मूल्य गलत हैं और उन्हें नष्ट होना चाहिए. किन परम्पराओं को हम कैंसर की तरह पाले हैं, कहाँ विसंगति, अन्याय, मिथ्याचार, शोषण, पाखण्ड, दोमुँहापन आदि हैं. मैं कोशिश करता हूँ कि इन्हें देखूँ, गहरे जाकर इनका अन्वेषण करूँ, इन्हें अर्थ दूँ, कारण खोजूँ, और फिर ऐसे अनुभव को विश्लेषित करके, रचनात्मक चेतना का अंग बना कर कुछ इस तरह से कह दूँ कि एक तथ्य ताकत के साथ उद्घाटित हो जाय.”
मार्क्सवाद के अध्ययन ने स्थितियों के विश्लेषण में उनकी मदद की. आरंभ से ही हम उनकी रचनाओं में एक वर्गीय दृष्टि देखते हैं. कम्युनिस्ट पार्टी के विधिवत् सदस्य वे केवल चार वर्ष रहे थे- 1964 से 1967 तक. फिर उन्होंने यह सोचा कि एक लेखक को मुक्त होना चाहिए. वे सही अर्थों में एक मुक्तिकामी लेखक हैं. स्वाधीन भारत के जिन कुछ भारतीय लेखकों का लेखन परिवर्तनकामी और मुक्तिकामी है, निश्चित रूप से उन कुछ लेखकों में एक हरिशंकर परसाई भी हैं.
मुक्तिबोध ने उनकी ‘प्रगतिशीलता’ में ‘कलात्मक दृष्टि’ की पहचान आरंभ में ही कर ली थी, ‘उनकी कृतियों में प्रकाशित दिशाकाश’ को देख लिया था. ‘‘परसाई जी का सबसे बड़ा सामर्थ्य संवेदनात्मक रूप से यथार्थ का आकलन है, चाहे वह राजनैतिक प्रश्न हो या चरित्रगत”. इस संवेदना के कारण उनमें करुणा और घृणा है. स्वाधीन भारत का यथार्थ सभी लेखकों के सामने था. परसाई की विशेषता यह है कि उन्होंने किसी भी एक घटना को मात्र एक घटना के रूप में नहीं देखा. घटना-विशेष से उनका चिंतन-पक्ष भी जुड़ा है. ‘बलात्कार’ आज पहले से कहीं अधिक होते हैं. उसे ‘पाशविक’ भी कहा जाता है, पर परसाई ने ‘पाशविक’ कहने में ‘पशु की तौहीन’ देखी- ‘‘पशु बलात्कार नहीं करते, मगर आदमी करता है.’’
बलात्कार को शरीर से जोड़कर देखा जाता है, परसाई ने उसे ‘शरीर पर आघात’ न कहकर ‘मानस और भावना पर भी’ कहा है. उनके यहाँ क्रोध, घृणा, संवेदना, विचार सब को एक दूसरे से अलगाया नहीं जा सकता. विश्वनाथ त्रिपाठी ने उनके व्यंग्य में ‘मनोविकारों का संश्लेष’ देखा है और निबंधों में ‘विधाओं का समावेश’’. संवेदना और विचार दोनों की उनके यहाँ सह-उपस्थिति है. समावेशिता उनके व्यंग्य-निबंधों की विशेषता है. वहाँ ‘कल्पना’ नहीं केवल ‘यथार्थ’ है- स्वाधीन भारत का क्रूर यथार्थ. परसाई के यहाँ इस यथार्थ को प्रस्तुत करने का एक मकसद यह भी है कि हम सब इसे देख और समझ कर इसे बदलने के लिए सक्रिय भी हों. यथार्थ की ऐसी निर्मम चीर-फाड़ बिना गहरी संवेदना और करुणा के संभव नही है. उन्होंने अपने समय की ‘सर्जरी’ की है. आजाद भारत की स्थितियाँ वे कारक-तत्व हैं, जिनसे उनका लेखन इतना तीखा, मारक और बेधक हुआ है.
पांच |
परसाई हिन्दी के अकेले लेखक हैं, जिन्होंने एक विधा-विशेष को केवल जन्म ही नहीं दिया, उसका विकास भी किया और उसे शीर्ष पर पहुंचाया. परसाई के पहले ‘व्यंग्य’ को एक स्वतंत्र विधा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं थी. स्वाधीन भारत की स्थितियां व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा के रूप में लाने के लिए जिम्मेदार हैं. न वैसी बदतर दशा-स्थिति होती, न व्यंग्य एक स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित होता. व्यंग्य बहुत पहले से कविता में और बाद में निबंधों में है, पर पहली बार आजाद भारत में ही वह एक अलग विधा बनी, जिसका सारा श्रेय परसाई को है. सच्चे व्यंग्य को परसाई ने ‘जीवन की समीक्षा’ कहा है, जो ‘‘मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है, अपने से साक्षात्कार करता है. चेतना में हलचल पैदा करता है और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखंड, असमंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है.”पहले ‘व्यंग्य’ के साथ ‘हास्य’ जुड़ा होता था और ‘हास्य-व्यंग्य’ जैसे शब्द-युग्म का प्रयोग किया जाता था जिसमें हास्य प्रमुख था, और ‘व्यंग्य’ उसके बाद था.
परसाई ने इसे पूरी तरह समाप्त कर दिया, व्यंग्य को ‘हास्य’ से न जोड़कर ‘करुणा’ से जोड़ा.
कविता में व्यंग्य जहाँ कबीर के यहाँ उत्कर्ष पर है, वहाँ गद्य में बालमुकुन्द गुप्त के ‘शिवशम्भु के चिट्ठे’ में है. गुप्त जी ने कल्पित नाम ‘शिवशम्भु’ से लार्ड कर्जन को भारतीय जनता की दुर्दशा दिखाने के लिए ‘भारत मित्र’ में 1903 से 1905 के बीच कुल आठ ‘चिट्ठे’ लिखे थे. उन चिट्ठों के साथ परसाई की रचनाओं को-
चाहे वह ‘सदाचार का ताबीज’ (1962) हो या
‘बेईमानी की परत’ (1963),
‘सुनो भाई साधो’ (1964) हो या
‘पगडंडियों का जमाना’ (1966),
‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ (1973) हो या
‘वैष्णव की फिसलन’ (1973)
‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ (1980) हो या
‘पाखण्ड का अध्यात्म’ (1982)
‘दो नाक वाले लोग’ (1983) हों या
‘तुलसीदास चंदन घिसैं’ (1986) या
और कोई व्यंग्य-संग्रह, साथ में रखकर यह देखा जाना चाहिए कि लार्ड कर्जन के समय से आज का भारत किन अर्थों में भिन्न है.
प्रश्न केवल स्वाधीनता या अपनी उपलब्धियों के बखान का न होकर, उन वास्तविक एवं उपस्थिति प्रश्नों, समस्याओं, स्थितियों आदि पर ध्यान देने का भी है. परसाई के यहाँ पहली बार व्यंग्य एक हथियार बन जाता है. व्यंग्य पर उन्होंने कई स्थलों पर विचार भी किया है. अपने ‘आत्मकथ्य’ में वे लिखते हैं-
‘व्यंग्य अमानवीय होता है. सही व्यंग्य-लेखक में कटुता आ जाए यह बात अलग है. एक सचेत लेखक यदि गलत और घातक व्यवस्था के प्रति कटु है, तो यह कटुता पवित्र है. पर व्यंग्य-लेखक किसी व्यक्ति से नाराज होकर उसे कलम से नहीं पीटता. …जहाँ तक मानवीयता का प्रश्न है, यदि व्यंग्य-लेखक को मानव-जीवन से गहरा सरोकार न हो तो वह क्यों रोए कि मेरे भाई, तुममे यह बुराई है. तुम अच्छे हो जाओ’’
विश्वनाथ त्रिपाठी ने ठीक ही उनके व्यंग्य-लेखन को ‘व्यक्तिगत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक आचरण की संहिता’ कहा है. मुख्य बात यह है कि समाज और जीवन के सभी पक्षों में ऐसी स्थितियाँ क्यों है, जिनके कारण कोई भी क्षेत्र व्यंग्य से परे नहीं है. स्वाधीन भारत में इसका फैलते जाना इसका प्रमाण है कि प्रायः सभी राजनीतिक दल निकम्मे और भ्रष्ट हैं, सभी संस्थाओं को दीमक चाट रही है. परसाई ने सर्वत्र ‘काँवड़े’ देखे- ‘‘कितनी काँवड़े हैं- रजानीति में साहित्य में, कला में धर्म में, शिक्षा में. अंधे बैठे हैं और आँख वाले उन्हें ढो रहे हैं. अंधे में अजीब काइयांपन आ जाता है.’ वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है. पैसे सही गिन लेता है. उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है. वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है. सम्मान के रास्ते टटोल लेता है.’’ यह अन्धता स्वार्थान्धता है. स्वार्थी व्यक्ति कभी सामाजिक नहीं हो सकता. वह करुणा से परे है.
सामंतवाद और पूंजीवाद दोनों ने मिलकर भारतीय समाज में जैसी विकृतियाँ उत्पन्न की हैं, वे सब परसाई की दृष्टि में है. उनके यहाँ अपने समय और समाज को देखने की जो तलस्पर्शी दृष्टि है, वह अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती. वहाँ व्यंग्य हास्य से भिन्न है.
“व्यंग्य हास्य की तरह सिर्फ हँसी नहीं पैदा करता – वह प्रहार करता है, अमानवीय शोषक-प्रतिष्ठान और यथास्थिति बरकरार रखने वाली शास्त्रियों और प्रवृत्तियों पर”.
परसाई निर्मित छवियों का ध्वंस करते हैं. वहाँ मिथक की संख्या अधिक है.वे मिथक-भंजक हैं. उनके समय में आज की तरह विज्ञापन- संस्कृति नहीं थी. वे, विज्ञापन और आत्मविज्ञापन दोनों के विरूद्ध हैं. उनके व्यंग्यों में सामाजिक सरोकार है. अपने व्यंग्यों से वे अपने पाठको का मानस-निर्माण भी करते हैं क्योंकि बिना इस मानस निर्माण के समाज को नहीं बदला जा सकता. यह एक प्रकार का क्रियात्मक हस्तक्षेप है.
व्यंग्य का जिस विषमता से संबंध है, आज़ाद भारत में वह विषमता बढ़ती ही गयी है. प्रेमचन्द के ‘फटे जूते’ को केवल परसाई ने ही समझा.
“तुम्हारी यह पाँव की अंगुली मुझे संकेत करती लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ हाथ की नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा करते हो.”
एक लेखक के लिए ‘देखना’ सबसे अधिक महत्व रखता है. हम खुली आँखों से देख कर भी बहुत कुछ नहीं देख पाते. परसाई किसी घटना या व्यक्ति को केवल उसके बाह्य रूप में ही नहीं देखते. घटना या व्यक्ति उनके यहाँ मात्र माध्यम है, जिनसे वे अपने समय की कई परतें खोलते हैं. उनकी जन्मशती आजादी के अमृत महोत्सव के बाद मनायी जा रही है.आजादी के पचीस वर्ष पर परसाई ने लिखा भी है और भाषण भी दिया है. इन पचीस वर्षों में उन्होंने बिना दहेज के शादी न होने वाली लड़कियों की बात कही, बैल की तरह मार्केट में उनके लिए पति के खरीदने की बात कही, वर के बाप को ‘जचकी तक का खर्च जोड़कर’ लेने की बात कही और लड़कों की बेरोजगारी की बात कही. परसाई की नज़र से कुछ भी नहीं छूटता. वे नींद में भी जगे रहने वाले लेखक हैं. उनका व्यंग्य तिलमिला देता है. उसमें आनन्द नहीं, एक गहरा विषाद है,’मानवीय करुणा’ है. वे अपना भी मजाक उड़ाते हैं और अपने पर व्यंग्य करने पर किसी प्रकार की ढील नहीं देते. उनका व्यंग्य रचनात्मक लेखन है, साहित्य है.
परसाई का व्यंग्य साहित्य स्वाधीन भारत की एक साथ करूण–गाथा और महागाथा है. उनके जीवन में रुपया-पैसा और बंगला-गाड़ी का महत्व नहीं था. एक स्वस्थ, निर्भीक, समृद्ध, रूढ़ि-मुक्त समाज का निर्माण उनके यहाँ प्रमुख रहा है. उन्होंने अपनी कई पुस्तकों की भूमिकाएँ लिखीं, जिनमें उनके रचना-कर्म पर भी बहुत कुछ कहा गया है. उनके लेखन में भावुकता नहीं है. वहाँ तर्क और विवेकशीलता है. अपने लेखन से उन्होंने हिन्दी के अनेक पाठकों को विवेकवान भी बनाया है. अपने व्यंग्य-निबंधों में वे घटना विशेष पर जैसी ‘संवेदनात्मक प्रतिक्रिया’ प्रकट करते हैं, वह रचनाकारों के लिए भी एक सीख की तरह है. उनके यहाँ व्यंग्य रहित कुछ भी नहीं है. ‘सुजलाँ सुफलाँ’ में उन्होंने देश भक्ति पर व्यंग्य किया है.’बने हैं दोस्त नासेह’ में वे दोस्तों से ‘दिमाग का उपदेश नहीं, हृदय का स्नेह’ की अपेक्षा करते हैं. परसाई उपदेशक नहीं हैं. उन्होंने अपने लेखन से समाज का आईना दिखाया. उनके पहले इतने व्यापक स्तर पर यह कार्य किसी लेखक ने नहीं किया था. उनके समय में सब बदले रूपों में है. ईसा भी कल की तरह नहीं है.
“वह कह रहा है- पिता इन्हें हरगिज माफ मत करना, क्योंकि ये साले जानते है, ये क्या कर रहे हैं.”
छह |
परसाई ने आरंभ में कुछ कविताएँ लिखी थीं. कवि सोमदत्त उनके छात्र थे. नरेश सक्सेना को उन्होंने कहा था- अच्छी कविता पर सजा भी मिलती है. कवि न होने पर भी उन्होंने कई कवि सम्मेलनों की अध्यक्षता की थी. कवि-सम्मेलन के आयोजक अध्यक्षता करने के लिए उन्हें ही आमंत्रित करते थे. कवियों से कहीं अधिक उन्हें रुपये मिलते थे. लेखक होने पर भी उन्होंने कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों किसी को नहीं बख्शा. उनकी कोई बिरादरी नहीं थी. लेखकों पर उन्होंने कम व्यंग्य नहीं किए हैं. ‘क्रांतिकारी की कथा’ का नायक अपनी पत्नी के ही शब्दों में ‘बौड़म’ है.परसाई के तीर सबको लगे हैं. उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती– न शरद जोशी से न रवींद्र नाथ त्यागी से और न “किट्टू” से.
परसाई ने व्यक्ति को, संबंध को, समाज को, समाज में व्याप्त सभी प्रकार की कुरीतियों को, छल-छन्द को, दन्द-फंद को, बनावटीपने को, प्रदर्शन- आडम्बर को सबको देख समझ कर उस पर प्रहार किया. उनका लेखन उस समाजनिर्माण के लिए है, जो न उनके समय और न आज संभव हो सका है.
अपने लेखन में उन्होंने “प्रथम पुरुष एक वचन” का प्रयोग अधिक किया है. वे व्याकरणाचार्य नहीं हैं. पर उन्होंने व्याकरण को समाज से जोड़कर देखा. ‘प्रथम पुरुष’ को ‘उत्तम पुरुष’ कहने वाले,वैयाकरणों से उनकी असहमति है. जो
“प्रथम पुरुष को उत्तम पुरुष’ कहते हैं, वे होंगे, मैं नहीं. मेरे लेखन में यह मैं ‘हरिशंकर परसाई नहीं है.. यह एक प्रतिनिधि व्यक्ति है.”
परसाई न कभी सुविधा में रहे, न दुविधा में. उनकी दृष्टि इतनी स्वच्छ और पारदर्शी है कि हम केवल आश्चर्य चकित होते हैं. अफसरशाही-नौकरशाही की ही उन्होंने आलोचना नहीं की, उस औपनिवेशिक मानस की भी कटु आलोचना की, जिसने हमें नकलची बना डाला है. उन्होंने लिखा है कि सोलहवीं शताब्दी में हम अंग्रेजों से कहीं अधिक सभ्य थे और अब
“भारतीयों का एक वर्ग गोरों को देवता मानता है, आदर्श मानता है, रहन-सहन, पोशाक में उनकी नकल करता है.’’
मुक्तिबोध और परसाई ने भारतीय बुद्धिजीवियों की पहचान कर ली थी. परसाई ने बुद्धिजीवियों को क्रान्ति की बांग देकर दाने बीनने वाला और ‘सियारों की बारात में बैंड बजाने वाला’ कहा है. वे देख रहे थे कि बुद्धिजीवी या तो ‘सत्ता’ या फिर किसी ‘दाता के हरम की रक्षा करता है.’ स्वाधीन भारत में आरंभ से ही, जब भारत की नीति अमेरिकोन्मुख नहीं थी, हिन्दी के कई कवियों और लेखकों ने अमेरिका के खिलाफ अपना विरोधी रूख अपनाया था. नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध परसाई के यहां इसे हम देखते हैं. परसाई का एक व्यंग्य-लेख ‘अमरीकी छाता’ है, जिसमें वे लिखते हैं “अमरीकी छाता कम्पनी के एजेंट भारत में भी हैं, उनके बड़े-बड़े नेता भी एजेंसी लिए हुए हैं… छाता बेचने वाला आशा रखता हैं कि अगर भारत ने छाता ले लिया तो एशिया, अफ्रीका के तटस्थ देश एक-एक छाता ले लेंगे.’’
सत्तर के दशक के आरंभ में ही उन्होंने ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ देख लिया था और जनता को मात्र मतदाता बनाने की पहचान भी कर ली थी.
‘‘इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी है कि उसके वोट से मंत्रिमण्डल बनते हैं. अगर जनता के बिना सरकार बन सकती है, तो जनता की कोई जरूरत नहीं है. जनता कच्चा माल है. इससे पक्का माल विधायक, मंत्री आदि बनते हैं. पक्का माल बनने के लिए कच्चे माल को मिटना ही पड़ता है.’’
जो भारतीय समाजशास्त्री और राजनीति विज्ञानी चुनाव पर लिखते-बोलते हैं, उन्हें इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि चुनाव के संबंध में प्रेमचन्द, नागार्जुन और परसाई के क्या विचार हैं और वे आज कितने सही हैं. परसाई अपने समय में बहुत कुछ नष्ट होते देख रहे थे. समय की ऐसी पहचान दुर्लभ है.
‘‘इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है. लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं, सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं… सब मिलकर सहकारिता पूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं.’’
मुक्तिबोध के समय अंधेरा जितना घना था, वह परसाई के समय तक और अधिक घना होता गया है. निराला के ‘गहन है यह अन्धकारा’ से लेकर आज तक के गहन से गहनतर और गहनतर से गहनतम होते गये इस अंधकार को देखने से हिन्दी साहित्य के अपने समय की सही समझ का पता भी चलेगा. राजनीति और साहित्य में भी कैमरा रीझू व्यक्ति बढ़ते गये हैं. आत्ममोह, आत्ममुग्धता, आत्मप्रशंसा पहले कवियों-लेखकों में कम और नेताओं-अभिनेताओं में अधिक थी. अब वह कवियों-लेखकों में भी है. परसाई ने इन सब पर व्यंग्य किया है. उनके व्यंग्य से कोई नहीं बचा. नब्बे के दशक में जब देश में पूंजी-निवेश का दौर आरंभ हुआ, उन्होंने अपने एक लेख ‘विदेशी धन के साथ और क्या आएगा’ में विदेशी संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले ऋण के साथ उन शर्तों पर भी विचार किया, जिधर उस समय कम लोगों का ध्यान था. परसाई विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का जिक्र करते हैं. आज जब हम अमिताभ बच्चन को सब कुछ का विज्ञापन करते देखते हैं, तो परसाई के ‘व्यंग्य-संस्कृति’ की याद आती है.
इस व्यंग्य-लेख में उनकी मुख्य चिंता यह है कि इस संस्कृति को बढ़ाने में वे भी क्यों शामिल हैं, जिनके पास अर्थाभाव नहीं है. वे ‘बुजुर्ग, मशहूर गंभीर, इज्जतदार, बुद्धिजीवी करंजिया’ को ‘किसी बौड़म की तरह कपड़े के विज्ञापन में खड़े’ देखते हैं, दिग्जाम कपड़े के विज्ञापन में नवाब पटौदी और माधव राव सिंधिया को और ‘विमल’ कपड़े के विज्ञापन में ‘लेफ्टिनेंट जनरल जे.एस.अरोड़ा– परम विशिष्ट सेवा मेडल प्राप्त, पद्मभूषण भी’ को देखकर सवाल करते हैं.
परसाई ने कई स्थलों पर यह संकेत भी दिया है कि आने वाला समय कैसा हेग? आजादी के समय से जो विकृतियाँ बढ़ीं, अब वे सर्वत्र फैल चुकी है.
‘‘चमचों का निर्माण स्वतंत्रता- संग्राम के जमाने में शुरू हो गया था. उस दौर में नेता लोग अपने भावी चमचों को जेल भेजने की कोशिश करते थे… जब भारत स्वतंत्र हुआ और प्रजातंत्र आया, तो हर नेता को अपने शिक्षित और अर्द्धनिर्मित चमचे मिल गए. इससे भारतीय प्रजातंत्र में एकदम स्थायित्व आ गया… चाहे साम्राज्यवाद हो चाहे प्रजातंत्र-दोनों चमचों की बुनियाद पर खड़े रहते हैं.’’
आजाद भारत में इन खुशामदियों की संख्या सभी क्षेत्रों में बढ़ी है. कला-साहित्य और संस्कृति में भी अपनी एक कहानी ‘वह क्या था’ में परसाई एक ऐसे नायक को सामने लाते हैं, जिसने कभी प्रतिरोध नहीं किया “चींटी से भी बच कर चला. कोई अस्वीकार नहीं किया. कोई विरोध नहीं, उसे कुछ भी असहनीय नहीं लगा.’’ परसाई ने उसे ‘केचुआ’ कहा है. वे सामाजिक आन्दोलनों की जरूरत देख रहे थे. दलितों की समस्याओं का समाधान बौद्ध धर्म को अपना लेने भर में नहीं देखते थे. भारतीय समाज जिन व्याधियों से, सहस्राब्दियों से बंधा हुआ है, परसाई का समस्त लेखन उन सबको दूर करने के लिए है. भेदभाव और दोगलेपन की नीतियों पर उन्होंने सदैव प्रहार किया. वे आरएसएस, हेडगेवार, गोलवलकर, धर्म, सम्प्रदायवाद, फासीवाद सब पर विचार करते हैं. देशी-विदेशी कई नेताओं का उनके यहां जिक्र है. वे छुप कर नहीं, खुलकर वार करते हैं. कई जगहों पर उन्होंने गोडसे पर लिखा है. ‘
‘गोडसे को भगत सिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रही है. गोडसे जब भगत सिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जाएगा तब 30 जनवरी का क्या होगा? जब 30 जनवरी को गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उनसे कौन सा महान कर्म किया था.’’
राम-जन्मभूमि मामले को उन्होंने धर्म का मामला नहीं, राजनीतिक और आर्थिक मामला कहा था-
“राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद धर्म का मामला नहीं है… आन्दोलन चलाने वाले नेताओं के लिए यह राजनीति का मामला है. आर्थिक भी है क्योंकि करोड़ों रुपए चंदे में मिले हैं’’
इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, विज्ञान, शिक्षा, लोकतंत्र, राजनीति, दर्शन आदि पर उनका ज्ञान सामान्य नहीं है. अनुभव और ज्ञान-सम्पदा उनके पास है. उन्होंने वास्तविक घटनाओं पर भी कई व्यंग्य लिखे. ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ ऐसा ही है. उनके यहां तार्किकता और वैज्ञानिकता है. उनका एक निबंध है ‘हास्य और व्यंग्य’, जिसमें उन्होंने इन दोनों को परिभाषित करना कठिन माना है. ‘यह तय करना भी कठिन है कि कहाँ हास्य खत्म होता है और व्यंग्य शुरू होता है… व्यंग्य का सामाजिक सरोकार होता है. इस सरोकार से व्यक्ति नहीं छूटता. ‘गहरे’ सामाजिक सरोकारों वाले लेखकों की अब संख्या घट रही है.
परसाई के समस्त लेखन पर, उनके लेखन के विषय-वैविध्य और उनके गहरे ‘कंसर्न’ पर किसी भी एक आलेख में सम्पूर्णता में विचार नहीं किया जा सकता. वे भारत का काया-कल्प करनेवाले एक महान लेखक हैं. उनके लिखने का एक बड़ा प्रयोजन था-
‘‘मैं इसलिए लिखता हूँ कि व्यक्ति और समाज आत्म साक्षात्कार और आत्मालोचन करे और अपनी कमजोरियां, बुराइयां, विसंगतियां, विवेकहीनता, न्यायहीनता त्याग कर जैसा वह है, उससे बेहतर बने. अंधविश्वासों, झूठी मान्यताओं, अवैज्ञानिक आग्रहों और आत्मघाती रूढ़ियों से मुक्त हो. वह न्यायी, दयालु, संवेदनशील हो. दासता और परमुखापेक्षिता से मुक्त हो. मानव-गरिमा की प्रतिष्ठा हो.’’
इसीलिए इस समय परसाई को पढ़ना बेहद जरूरी है.
17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें प्रकाशित. |
रविभूषण जी को पढना-सुनना अपने-आपको समृद्ध करना है। मैं शुरू से उनका पाठक रहा हूं। रविभूषण जी सभ्यता समीक्षक हैं। मैं कबीर के बाद हरिशंकर परसाई को सबसे बड़ा व्यंग्यकार मानता हूं। राजेंद्र यादव ने परसाई को कबीर और चेखव का समन्वय कहा है। उनमें एक और कबीर का व्यंग्य है तो वहीं दूसरी ओर चेखव की करुणा। अभी हंस ने परसाई पर बढिया अंक निकाला है। रविभूषण जी को पढता हूं।
समालोचन सबसे आगे चल रहा है।
मैं तीन दिन से यह आलेख पढ़ रहीं हूं और अब जाकर पूरा कर पाईं हूं। इतना बड़ा आलेख होने पर भी इसे छोड़ न सकीं जब तक पूरा न पढ़ लिया इसे पढ़ने का मोह खत्म नहीं हुआ। बेहतरीन आलेख था ” परसाईं को क्यों पढ़ना जरूरी है?”
अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख.
परसाई जी को समग्रता में समझने के लिए जरूरी लेख
जितनी बेबाकी से और दूरंदेशी के साथ परसाई जी ने लिखा उसकी आज अधिक आवश्यकता है ( इसी लेख को उद्धृत कर रहा हूँ )
…
‘आवारा भीड़ के खतरे’ की पहचान कर ली थी. भारतीय लोकतंत्र आज के भीड़तंत्र में बदल नहीं रहा था. उन्होंने अपने इस निबंध में ऐसी भीड़ को नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी से जोड़ कर लिखा –
‘‘यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है, जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इससे विध्वंसक कार्य कराये जा सकते हैं. भीड़ फसिस्टों का हथियार हो सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव-मूल्यों के विनाश के लिए लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.’’
… …………………………….
‘जिस जाति में बच्चे की बलि को धर्म-साधना माना जाए, विधवा को पति की चिता में डाल देना नैतिकता माना जाए, जिस धर्म में ऐसी कथा हो कि मोरध्वज और उसकी पत्नी भगवान को खुश करने के लिए बेटे को आरी से चीरते हैं, जिस देश में मनु महाराज विधान देते हैं कि यदि द्विज शूद्र को मार डाले तो वह उतना ही प्रायश्चित करें, जितना सूअर या कुत्ते को मारने पर- उस जाति की संवेदना, मूल्य चेतना, मानव गरिमा की भावना, अध्यात्म-चेतना को फूल चढ़ाए जाएँ या उस पर थूका जाए.’’
सभ्यता समीक्षक रवि भूषण जी को पढ़ना अपने समय को पढ़ना, समझना और स्वयं की चेतना को समृद्ध करना है।
रविभूषण जी ने बहुत तफ्सील से परसाई जी की रचनात्मक उपलब्धियों का जायजा लिया है। परसाई के जीवन के लगभग हर पक्ष को उन्होंने श्पर्श किया है। उनकी यह खासियत होती है कि जिस किसी विषय को उठाते हैं उसके बारे में उपलब्ध तमाम सूचनाएं भी साझा करते हैं। यहां उन्हीं को पढ़कर जाना कि वसुधा और भारतीय लेखक के भी विशेषांक परसाई पर निकले चुके हैं। हालांकि कई बार उनकी यह कोशिश उनकी सीमा भी हो जाती है, जैसे प्रधानमंत्रियों की चर्चा करते हुए हर के कार्यकाल के विवरण का कोई औचित्य नजर नहीं आता। शायद इतने विस्तार में न गये होते तो परसाई के किसी और पक्ष पर नया कहा होता।
अरुण नारायण, पटना
ओहो! कितना वृहद और ज़रूरी आलेख है यह, जो यह बताने के लिए लिखने में कि परसाई जी को पढ़ना क्यों आवश्यक है?, में यह भी साथ साथ बताता जाता है कि लेखक की निर्मिति के क्या और कौन कौन से आयाम होते हैं?, तत्कालीन परिस्थितियों का लेखक बनने पर क्या प्रभाव पड़ता है? , यह भी कि केवल हरिशंकर परसाई ही नहीं नागार्जुन, मुक्तिबोध, प्रेमचंद को भी परसाई के बरक्स कैसे पढ़ना और देखना चाहिए? महत्वपूर्ण आलेख है यह।
पढ़ने का समय नहीं मिल पाता, यह लेख पढ़कर लगता है कि पढ़ना आवश्यक है और इस लेख को पढ़ कर एक तृप्ति का अनुभव हुआ l छगन मगन तथा कस्तुरीमृग लेखक तो शानदार उपमा है, पढ़ते ही आँखों के सामने छगन मगन के चित्र तैरने लगे।
लेखक को साधुवाद
बहुत ही बढ़िया आलेख । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपका व्याख्यान होनेवाला है , इसको जानकर आपको जानने की कोशिश की और तब यह लेख हाथ लगा है । दो दिनों में इसे अच्छे से पढ़ पाया हूं और यह कह सकता हूं कि परसाई और उनके समय को जानने – समझने के लिए यह लेख बहुत ही मददगार और महत्वपूर्ण है।