फ़क़़त तुम्हारा हरजीततेजी ग्रोवर
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अप्रैल 22, 1999. हरजीत से बिछुड़ जाने की तारीख़ आज के दिन, ठीक उन्नीस बरस के बाद भी यूं टीसती है जैसे यह आज सुबह की ही बात हो…मेरे कॉलेज के दफ्तर में आया हुआ उस एक मित्र का फ़ोन जो उस घड़ी हरजीत के बारे में मुझसे कम से कम एक बात ज़्यादा जानता था. लेकिन कम से कम आज के दिन मैं भी उस टीस को इजलाल मजीद के तस्सवुर में ढाल अपने इस “कम्बख्त” दोस्त को आप सब के बीच लौटा लाने की कोशिश करके देखती हूँ. हरजीत को याद करते हुए मजीद साहब फ़रमाते हैं:
कोई मरने से मर नहीं जाता
देखना वो यहीं कहीं होगा
हरजीत सिंह के सभी दोस्त चाहें तो इजलाल मजीद के हरजीत को अपने माहौल के किसी दिलफ़रेब कोने में शाम की महफ़िल जमाए वक्तन-बेवक्तन अपने-अपने हरजीत की तरह महसूस कर सकते हैं. और फिर भला भूल भी कौन सकता होगा नज़ाकत से काटे गये उस हरजीत सिंह-स्पेशल सलाद को जिसके सहारे सांसों की माला में ग़ज़लें पिरोए सुबह के चार तो वे बजाकर ही रहते थे कमोबेश!
समालोचन के पाठकों के साथ हरजीत के लिखे चार ख़त और इसके अलावा ग्यारह ग़ज़लें साझा कर रही हूँ, जो उनके संग्रह एक पुल से मैनें चुनी हैं. जो किरदार हरजीत के लिखे इन खतों में आये हैं, वे किरदार ही हैं, जैसा कि हरजीत उन्हें समझते थे या फिर समझने की फिराक में रहते थे . रुस्तम को शायद वह फ़िरदौसी के शाहनामा से नमूदार हुआ मानते रहे अंत तक…बाकी किरदारों के नाम आपको इन खतों में मिल जाएँगे. जो आप शायद न बूझ पायें वह बताए देती हूँ: K.B. हैं कृष्ण बलदेव वैद, जो किसी कारणवश अपने चंडीगढ़ वाले घर को हम कुछ “किरदारों” की देख-रेख में छोड़ पंजाब के दुर्दिनों में निराला सृजन पीठ, भोपाल चले गए थे. अवधेश का परिचय देना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि चौथा सप्तक के यह देहरादूनी कवि हरजीत के अभिन्न मित्र थे और उन्हीं ने हमारा परिचय हरजीत से करवाया था.
मैं हरजीत के मित्रों को यह जानकारी भी देना चाहती हूँ कि हम सभी के मित्र वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने हरजीत सिंह की शायरी को एक ही जिल्द में लाने का ज़िम्मेदारी ली है, और वे चाहते हैं की हरजीत के कुछ ख़त और उनकी डायरी को भी दीवान-ए-हरजीत में शामिल कर लिया जाए. लिहाज़ा सब दोस्तों से हर क़िस्म की फराखदिली और गुफ़्तगू की दरकार बनी रहेगी.
गौर फरमाएं कि 22 अप्रैल, 1999 से कुछ ही दिन पहले हरजीत ने एक शेर लिख भेजा था हमें, जैसे इस फ़ानी दुनिया से नजात पा, कोई दूसरा ठीहा-ठिकाना जमा लेने के बाद उन्हें रह-रहकर कुछ याद आने को हुआ जा रहा हो:
सोचता हूँ कहाँ गए दोनों
मेरी साइकिल वो मेरा देहरादून
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तेजी ग्रोवर
हरजीत सिंह की ग़ज़लें
(1)
वो शख़्स है कि जैसे कलाई की घड़ी है
अपनी ही किसी वजह से जो बंद पड़ी है
वो लोग कभी बर्फ में रहने की न सोचें
जिनको ये लग रहा है यहाँ धूप कड़ी है
जिनको कभी पहाड़ का कुछ तजुर्बा न था
ऐसे जवान लोगों के हाथों में छड़ी है
इसने सभी की शक्ल को बेशक्ल कर दिया
इस आईने के पानी में इक लहर पड़ी है
जिस काँच पर है तेरी सियासत की सियाही
उस काँच में हमने तेरी तस्वीर जड़ी है
कुछ लोग हैं कि जिनको कोई सुन नहीं रहा
वो लोग हैं कि उनको सुनने की पड़ी है
(2)
वो एक शहर जो आंखो के दरमियान रहा
कभी यक़ीन की सूरत कभी गुमान रहा
बहुत से घर थे कई खिड़कियाँ खुली थी मगर
कुछेक बंद घरों का ही मुझको ध्यान रहा
मैं अपने आप में टूटा भी और बिखरा भी
वजूद में तो ब-हर-शक्ल सख़्तजान रहा
सफ़ेद रंग बहुत दिन हुए दिखा ही नहीं
ज़मीन सुर्ख़ रही ज़र्द आसमान रहा
हरेक ढहते हुए घर में मैं ही था मौजूद
ये और बात सलामत मेरा मकान रहा
अब के दिल्ली में चंद घर उजड़े
जिनके ज़ख्मों का भरना मुश्किल है
मेरा इक भाई जिसमे कत्ल हुआ
मेरा इक भाई जिसका क़ातिल है
(3)
जब मैं कुछ आदतों को भूल गया
फिर बहुत से दुखों को भूल गया
जब से देखा है मैंने मछ्ली घर
सीपीयों मोतियों को भूल गया
इक गिलहरी से दोस्ती करके
और सब दोस्तों को भूल गया
कच्ची मिट्टी थी खेल में जिनकी
अपने उन साथियों को भूल गया
नीली स्याही से जिनको भरता था
अपनी उन कॉपियों को भूल गया
नाम छोटा था यह तो याद रहा
नाम के अक्षरों को भूल गया
हो गए बाग़ देहरादून में कम
ये नगर लीचियों को भूल गया
इतना सादा था एक सख्श कि मैं
सारी रंगीनीयों को भूल गया
एक छोटी ख़बर पढ़ी मैंने
और सब सुर्ख़ियों को भूल गया
(4)
कोई ख़ुशबू इधर निकल आये
मेरा दर उसका घर निकल आये
राह पर आके मैंने सोचा तो
जाने कितने सफ़र निकल आये
सारी सदियों का एक-सा क़द क्यों
इक सदी मुख़्तसर निकल आये
अब वो बातें हवा की करता है
अब तो उसके भी पर निकल आये
खुरदुरे हाथ थे मगर उनमें
कैसे-कैसे हुनर निकल आये
(5)
रोज़ बढ़ते रहते है कुछ मकान बस्ती में
रोज़ घटता रहता है आसमान बस्ती में
सारा दिन उड़ाते है धूल सब बड़े-छोटे
सारी रात गाती है इक थकान बस्ती में
शहर में हो घर उसका हैसियत नहीं इतनी
ढूंढ ही लिया उसने इक मकान बस्ती में
सुगबुगा रही है अब रात की मुण्डेरों पर
गुमशुदा चिरागों की दास्तान बस्ती में
रात हो या दिन कोई धूप हो कि बारिश हो
बंद ही नहीं होती इक दुकान बस्ती में
(6)
जो अपने ख़ून में जारी नहीं है
अदाकारी अदाकारी नहीं है
सभी फूलों में जितना खौफ़ है अब
ख़िज़ाँ की इतनी तैयारी नहीं है
ख़ला में जो भी मेरे हमसफ़र है
कोई हल्का कोई भारी नहीं है
निकलकर घर की दीवारों से बाहर
कोई भी चारदीवारी नहीं है
सभी मेहनत से बचना चाहते है
वगरना इतनी बेकारी नहीं है
मैं उनके खेल में शामिल हूँ लेकिन
वो कहते हैं मेरी बारी नहीं हैं
(7)
बंद घरों की दीवारों के अंदर बाहर धूल
आईने पर धूल जमी है और चेहरे पर धूल
दिन भर जिनके पाने को दिल रहता है बेताब
शाम की आँधी कर जाती है सारे मंज़र धूल
इतनी शरारत करती है सब लोग करें तौबा
बरसातें आने से पहले शहर में अक्सर धूल
धूल में खेले धूल ही फाँकी धूल ही उनका गाँव
धूल ही उनके तन की चादर उनका बिस्तर धूल
सदियों पहले इस सहरा में एक समन्दर था
छोड़ गया जो अपनी जगह पर एक समंदर धूल
किश्तों में सब सफर किये हैं किश्तों में आराम
दूर गई बैठी फिर चल दी थोड़ा रुककर धूल
(8)
हो सकता है तुमको या मुझको वो धूप नहीं दिखती
लेकिन हर इंसान में कोई धूप सितारों जैसी है
आओ हम उस लहर के सीने पर जाकर विश्राम करें
देखो तो उस लहर को वो इक लहर किनारों जैसी है
इस जंगल में शोर हवा का गूंज रहा है चारों ओर
शोर के भीतर पेड़ों की आवाज़ पुकारों जैसी है
अब ही बनी है लेकिन मैं इसकी उस उम्र से हूँ वाकिफ़
आने वाले दौर में ये दीवार दरारों जैसी है
(9)
यूँ भी तो होता है यूँ भी होता है
होश में कुछ जुनून भी होता है
क्या कहाँ कैसे कब किया किसने
इन सवालों में क्यूँ भी होता है
ऐसे कितने जवाब होते है
हाँ भी होती है हूँ भी होता है
ये नहीं सब जुनून में होता है
कितना कुछ बेजुनूँ भी होता है
शोर जो ज़िंदगी का हिस्सा हो
उसमें शामिल सुकूँ भी होता है
(10)
मेरा मौसम कच्चे आमों जैसा था
लड़कों का हर पत्थर मुझको सहना था
उसको बेकोशिश ही मैंने पाना था
कोशिश करने से जो कुछ मिल सकता था
बच्चो की आवाज़ें यूं ले उड़ती है
लगता है मैं अभी-अभी इक बच्चा था
रात जो थे फिर सुबह कहाँ वो लम्हे थे
मैंने वो लिखा जो मुझको लिखना था
मैं हूँ अँधेरे में भी लिखने का आदी
मेरी माँ को यह सब समझ न आता था
कुछ दिन पहले मैंने उसको ढूंढ लिया
आने वाले वक़्त में जिसको खोना था
मैंने उसकी कोई बात नहीं मानी
वो अन्दर से इतनी हद तक सच्चा था
दो दीवारें एक जगह पर मिलती थीं
कहने को वो कोना ख़ाली कोना था
चल अच्छा है तेरा जादू टूट गया
मुझको और बहुत लोगों से मिलना था
(11)
मुझको इतना काम नहीं है
हाँ फिर भी आराम नहीं है
कितनी अच्छी एक ख़बर है
आज कोई नीलाम नहीं है
कुछ तो सच्ची है वो दुकानें
जिनका कोई गोदाम नहीं है
फ़नकारों का नाम है लेकिन
कारीगर का नाम नहीं है
मत पानी में लाश बहाओ
पानी का यह काम नहीं है
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हरजीत के लिखे ख़त
जुलाई 91 (पोस्टकार्ड)
तेजस, कभी भी आ टपक सकता हूँ इतवार के आसपास -तूने लिखा है इस बीच इतना कुछ घट गया, यही सत्य है और यही माया है, लगता है कुछ जुड़ गया है मगर सब कुछ घट जाता है जानने वाले के लिए -– फ़िरदौसी के शाहनामा से निकलकर रुस्तम –– यहाँ चंडीगढ़ के टैरेस तक कब पहुँचा -एक शेर के साथ –
तुम जो बैठे हो कुछ जगह रखकर
क्या तुम्हारे किसी ने आना है
हरजीत
तेजी,
अवधेश ने तुम्हारा ख़त पढ़वाया, मैंने उस शाम को २ बजे से रात २:३० बजे तक की सारी बाते क्रम से सुना दी, अवधेश को कई बातों का पता नहीं था जिसे मैंने भी साथ निभाने के बावजूद अपने होश की डायरी में साथ साथ उतार लिया था. मैं जिस जगह, जिन वाक़ियात को याद रखने की नीयत से जीता हूँ उन्हें मैं पूरी तरह याद रखता हूँ! बहुत सी बातें हुईं उस शाम की और टुकड़ों में याद उस कविता की, मगर तमाम बातें अभी अधूरी हैं, जैसा कि अवधेश तुम्हे पत्र लिख चुका है तुम वो कविता भेज दो…..
मेरा अवधेश के साथ चंडीगढ़ आने का मक़सद सिर्फ़ यही था कि कुछ अच्छे, हम ख़याल, हमनज़र दोस्तों से मुलाक़ात होगी, और मुझे अपने मक़सद में कामयाबी भी मिली है, मैं कतई यह सोचकर नहीं आया था कि चंडीगढ़ में मैं सिर्फ़ ग़ज़ले ही साथ लेकर घूमूं –- तुम तीनों का मिलना, एक यादगार वाक़िया है और रहेगा भी !——तुम्हारे इस ख़त से भी यह बात ज़ाहिर नहीं हो पाई की तुम्हारी वो कविता क्या थी, अब हम दोनों को उसका शिद्दत से इंतजार है ! मैं उस शाम भले ही पहली बार मिला था मगर मैं अपने आपको आप तीनों के बहुत क़रीब पा रहा हूँ –- मुझे तुम्हारी बिजूका कविता की कुछ पंक्तियां अब भी याद है और याद रहेंगी —– चिड़िया क्या तेरे बच्चों की चोंच में गेंहू का पूरा खेत आ जायेगा……कुछ इस तरह ही थी !…….
उस ख़त में एक हिस्सा मेरे लिए भी था….उसको पढ़ने के बाद इतना ही कह सकता हूँ, एक छोटी सी मुलाक़ात में तुमने मेरा काफ़ी बड़ा सच Trace कर लिया है ! मानना पड़ेगा कि तुममे किसी को पहचानने की अद्भुत क्षमता है ! उसके लिए शुक्रिया कहने का तक़ल्लुफ़ नहीं कर रहा हूँ ! बाक़ी इतना ज़रूर है कि वो शाम एक अधूरी शाम थी, यहाँ अवधेश और मैं इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि वह शाम एक यादगार मगर अधूरी शाम थी और हमे (हम पांचों को) एक बार फिर उसी तरह बैठना है ! और हमे यक़ीन है कि हम एक शाम फिर उसी तरह बैठेंगे…… Ernest के collage मैंने Span में उस वक्त देखकर ही पसंद किये थे जब मुझे यह पता नहीं था कि ये Ernest के है, बाद में अब तारीफ़ करना formality होगी –- फिर भी इतने अच्छे और बामानी college के लिए बधाई !……
‘नज़्म’ –“दीवारें’’ भेज रहा हूँ, अपने अंदाज़ की अकेली नज़्म है अपने तअस्सुरात भेजना, वैसे मेरी कुछ ग़ज़लें है जिनको मैंने “दरवाजे’’, “सीढ़ियां’’, “हरा मैदान’’ आदि रदीफ़ो में लिखा है, वो ग़ज़लें ‘नज़्म’ के काफ़ी क़रीब है, मगर मैं उन्हें नहीं भेज रहा हूँ क्यूंकि तुमने सिर्फ ‘नज़्म’ मांगी थी ! अतुलवीर मिले तो उन्हें दोस्त का सलाम !
अब एक शेर के साथ इजाज़त……
एहसास के परिंदे, आँखों की सरहदों से
उस पार जा चुके है, जिस पार रोशनी है.
अप्रैल 85 का आख़िरी दिन
तेजी,
एक मुद्दत से लगभग पिछले साल से, जबसे मैंने ख़त लिखने एक तरह से छोड़े हुए से है, एक छूट दे रखी है अपने आपको एक तर्ज़ यह बनायीं कि जब कभी भी किसी दुकान से सामान या कुछ ख़रीदने के बाद छुट्टे पैसों की बजाय मुझे लिफाफा या डाक टिकट या पोस्ट कार्ड मिलेगा मैं उसे ज़रूर लिख दूंगा — सो सच तो यह है की मन कोई तीन चार दिन पहले से तुझे चिट्ठी लिखने का हो रहा था और कल एक दुकान से चाक मिट्टी और दो ईंच की कीले ख़रीदने पर मुझे रुपयों के साथ एक लिफाफा मिला और आज की शब अपने कमरे में सूफी बैठे हुए (क्यूंकि कल तक कई दिनों से लगातार हो रही थी) यह ख़त-नुमा लफ़्ज़ों को यूँ ही एक काग़ज़ पर जमा करने की प्रकिया चल रही है क्यूंकि लफ़्ज़ अब कम ही जमा हो पाते है –- एक तो यह कि गुलाम अली की एक कैसेट जो K.B.वाले मकान में छूट गयी थी, याद आती है, तेरे लहजे की थकान याद आई — और इस बार की छुट्टियों में कहाँ हो तुम लोग, टीनू की नई Exhibitionका क्या हुआ, कई अर्से से बेख़बर चल रहे हैं हम मगर ऐसा लगता नहीं –- अल्बर्ट से कहना कि अब मैं कुछ अजीब चीज़ें जमा करने लगा हूँ ! लोहे की टुकड़े, पत्थर, लकड़ी के टुकड़े, सूखे हुए मशरूम, यानि कि कुछ भी टूटा-फूटा सा अलग सा –- और पता नहीं कोई नई तर्तीब बनेगी या नहीं मगर उम्मीद सी है —–
तेG,
इस बार तुम्हें जितना जाना और समझा, यहाँ लौटने की अगली सुबह आंगन में एक गिलहरी नज़र आई और बेसाख्ता यह ख़याल आया की तेजी तो गिलहरी है –- अब मैं नहीं जानता क्यों –– मगर मुझे ऐसा लगा -– और मैंने यह बात लिख ली –- अब तुम्हे लिख रहा हूँ इतने दिन बाद ! दरअसल 11मई को ख़त शुरू किया था, सो अब Flashback :
11-5-83
दस दिन हो चुके हैं आज ख़त शुरू कर रहा हूँ अभी पता नहीं इस ख़त को लिखने में कितने दिन लगेंगे. चंडीगड़ –- शिमला दोनों ने इस बार मुझे इतना लबरेज़ कर दिया कि एक हफ़्ता लगा खुद को दोनों जगहों की यादों के नशे से रिहा कराने में, बड़ी ज़मानतें दीं दिमाग़ ने दिल को, तब कहीं में रिहा हुआ ! आज मौसम इतना खुशगवार है कि बस ——- गर्मियों में बूंदाबांदी और ठंड से भरे दिन. मौसम कुछ ख़ास खतों को लिखवाने के लिए ही ख़ास लोगों तक समेट कर लाता है. इस बार तुम लोगों से मिलकर पिछले साल अपने आप से किया हुआ वायदा पूरा हुआ बस ! वरना जिस तर्ज़ पर इस साल चल रहा हूँ गोष्ठी को बुलावे पर तो मैं कतई न आता. मैंने तो 1983 से अपने आपको बहुत बदल लिया है. ये गोष्ठियां–फोष्ठियां बेमानी लगती हैं मुझे. मैंने तो खुद को खुला छोड़ दिया है अब ! लिखा लिखा न लिखा, एक कॉपी है उस पर जो भी अन्दर से निकलता है लिख कर बड़ी बेक़दरी से उसे भुला देता हूँ कोई मतलब नहीं -– कोई चिंता नहीं -– बड़ी बेफिक्री से जी रहा हूँ –- 82 ने छपने-छपाने की एक बड़ी मंजिल तय कर दी –- रविवार, आजकल, सारिका, कथन, धर्मयुग और कथादेश –- इन सब में ग़ज़ले आ गयीं और कुछ छोटी पत्रिकाओं में भी. इस तरह अब गोष्ठियों में ग़ज़ले सुनाने की भी आदत से एकसारता से खुद को अलग कर चुका हूँ. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता कि अगर मेरी किताब छपी तो उस पर इस तरह की गोष्ठी भी हो सकती है –- उस शाम मेहंदीरत्ता जी के घर भी कोई दिल से नहीं, बल्कि उनकी इज़्ज़त जो मन में है इस वजह से ग़ज़ले सुनाईं वरना हम दोनों उस शाम जाने कहाँ होते. सिर्फ़ कुछ बहुत ही ख़ास दोस्त रह गए है जिन्हें मैं अपनी चीज़ें सुनाता हूँ (रहूँगा).
यहाँ आकर कारोबार की भी सुनी, तुम्हारी किताब की “उस’’ कविता के दोनों पन्नों को चिपका दिया. तीसरे सफ़े पे जो आख़िरी चार पंक्तियां थी उन पर भी एक काग़ज़ चिपका दिया और तुम्हारी किताब पढ़ी –- दो एक कविताओं को छोड़कर जिनकी शुरुआत से मन ही नहीं बना –– किताब पर अगले किसी पत्र में लिखूंगा अगर तुम चाहोगी तो…… अभी तो पेन्सिल से निशान लगा दिए हैं जगह जगह – – – – – – – – – – – – – – – –
सबसे पहले तो अपनी डायरी में तमाम यादें लिखीं बाक़ायदा, तब कहीं खुद को दोनों शहरों से ख़ाली कर सका. एक बात लिखनी है उस ग़ज़ल के बारे में कि इस पूरे सफ़र में शिमला में ३ मई की आधी रात तक भी “ये मोजज़ा…..” को कभी अवधेश गुनगुनाने लगता कभी मैं. और हम दोनों उस ग़ज़ल की धुन से अपने आपको अलग नहीं कर सके, इतना ज़्यादा उसने हमको जकड़ रखा था कि ज़रा ख़ामोश हुए और वो धुन…. मैंने तो यहाँ आते ही रात अपनी पसंदीदा ग़ुलाम अली पंजाबी ग़ज़ल सुनी तो कहीं खुद को उस धुन से अलग किया –- इस वक्त भी ख़त लिखते हुए ग़ुलाम अली की कैसेट चल रही है ——-
ख़यालों–ख़्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी.
पहली मई की जागते हुए ग़ज़लों में ही सुबह हो जाने वाली रात इतनी ज़्यादा याद है कि कुछ कहूँ तो क्या –- तुम दोनों को कुछ और क़रीब से जाना. एक वाक़िया लिख रहा हूँ –- अल्बर्ट बीच में कुछ देर के लिए सिगरेट वगैरह लेने गया तो मैंने तुम्हे “चांदनी” और “किताब घर” वाली ग़ज़ले सुनाई, चांदनी के एक शेर को तुमने बहुत पसंद किया — कहा कि बड़ा खौफ़नाक शेर है उसे Visualise भी किया – कोई Blackbird वाली Poem से भी उसे जोड़ के देखा. कुछ देर में टीनू आया — तुमने कहा कि चांदनी वाली ग़ज़ल नहीं सुनी तुमने –- इसमें एक शेर है गौर से सुनो –- मैं कुछ नहीं कहूँगी –- मैंने दोबारा ग़ज़ल सुनाई और ठीक उसी शेर पर अल्बर्ट ने हाथ के Action से उस शेर को वैसा ही Visualise किया जैसा तुमने कहा था और टीनू ने कहा –- बड़ा ख़तरनाक शेर है –- यहाँ से मैंने तुम दोनों की Tuning को जान लिया. वो शेर याद ही होगा मगर फिर भी भेज रहा हूँ –- इस बात को तो याद रखोगे ही ——-
जिस नदी में रोज़ सूरज डूबता है हर शाम को
रात उस काली नदी में नाचती है चांदनी
हमें एक दुसरे को इसी तरह समझना और जानना चाहिए — यूँ नहीं कि अपने बारे में कुछ भी लिख के भेजो –- आई गल समझ ‘च कुझ नी……
अपने ख़ास दोस्तों को समझने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए –- उनको कहीं ज़रा-ज़रा जमा करते रहने का अलग ही मज़ा है. अब अवधेश ही है वह रंगमंच नाटकों से काफ़ी जुड़ा हुआ है और वह यह भी जानता है कि मुझे रंगमंच में कोई दिलचस्पी नहीं है सो हम कभी भी ज़्यादा बात नहीं करते इस Topic पर, इसी तरह मैं जो कुछ भी Photographyके शौक़ में सीखा हूँ उसकी ज़्यादा बात अवधेश के साथ कभी नहीं होती. अवधेश की एक बात यहाँ लिख रहा हूँ. उसने कहा एक बार -– कि हम सब के अलग अलग होने वाले सिरे तो बहुत हैं मगर कुछ सिरे ऐसे हैं जिनसे हम आपस में जुड़े हुए हैं इसलिए हमें अपने उन सिरों को ही मज़बूत करना चाहिए — एक काम और किया कि इधर–उधर magazines में, या कापियों, या डायरियों, या कतरनों में जो सिरहाने के नीचे जमा होती रहती है जहाँ भी जो कवितायें बिखरी पड़ी थीं उन सबको मैंने जमा किया –- बड़ी बेक़दरी से इधर उधर पड़ी थीं –- कच्ची पक्की जैसी भी हैं. अभी भी वो सब ख़ामोश पड़ी रहेंगी –- फिर एक वक्त के बाद उन्हें निकालूंगा जिन्होंने ज़िन्दा रहना होगा वो ही बचेंगी बाक़ी मर चुकी होंगी. कवितायेँ तो पड़ी रहनी चाहिए एक मुद्दत तक, फिर सब कुछ सामने आ जाता है सही सही…….
चंडीगड़ छोड़ते वक्त Busstand से ‘शिव’ बटालवी की एक किताब मिल गयी उसके सभी संग्रहों में से चुनींदा रचनाओं का एक संग्रह “बिरहा तूं सुल्तान” -– इस तरह मेरा चंडीगड़ आना पूरा हुआ ——
12-5-83
इतनी ग़ज़लें कह लीं मगर खुद को कभी शायर नहीं समझा मैंने, शायर In the senseकि जनाब अदबी बहसों में लगे हैं, मीर ग़ालिब इक़बाल के शेरों के साथ आज की शायरी को जोड़कर परखने वाली बहसें या कहीं कोई कुछ सुनाने को कह दे तो बहाने बनाना कि कुछ याद नहीं है, या ये कह देना कि अमां हम चाय की दुकान में ग़ज़ल नहीं सुनाते, और ऐसी बहुत सारी बातें हैं अपनी शेखी बघारने वाली बातें –- जो आज के नए शायरों में भी हैं –- मगर पिछले लोगों से कम —– हाँ तो मैं कह रहा था कि जब ग़ज़लें कहनी शुरू की थीं तब भी और इस तमाम शोरो-गुल के बाद अब भी अपनी ज़िन्दगी में कोई ख़ास तब्दीली नहीं आई, Cricket बचपन से पसंदीदा खेल रहा है तो अब भी है. Badminton भी seasonalचलता है, ज़्यादातर वक्त ग़ैर साहित्यिक दोस्तों के साथ ही गुज़रता है जिन्हें मेरे लिखने छपने से, ग़ज़ल से कोई मतलब नहीं है सभी तरह की magazines पड़ता हूँ Veg. Non veg Jokes चलते है खूब, कभी कभी गन्दी गलियां भी देता हूँ –- अगर गुस्से से बात करनी है तो गुस्सा भी मेरा वही है — वहां अदब को कोई दख़ल नहीं है –- ज़िन्दगी के किसी भी हिस्से में शायरी कोई फ़र्क नहीं ला सकी, इसीलिए मैंने कहा न खुद को कभी भी शायर नहीं समझता —- इस बार तुम्हारे घर भी दो एक बार मैंने बातों में कहीं गालियों का उपयोग भी किया, शायद तुम लोगों ने नोट न किया हो — एक दिन अवधेश के साथ पीते हुए कोई ख़ास Topic न छिड़ा तो गालियों पर ही हम दोनों ने खूब देर तक बात की, अपने-अपने कुछ अनुभव सुनाये और शाम गुज़ारी —- चलो इस बात को यहीं छोड़ें —-
यहाँ लौटकर कुछ कवितायेँ सी लिखीं कच्ची हैं अभी -– एक बेफिक्री वाली ग़ज़ल शुरू हुई — जब मुड बनता है उसमे शेर कह देता हूँ वरना कोई ध्यान ही नहीं है कि अच्छे शेर कहें हैं या क्या कहा है –- बस कहा और किनारे किया ——-
मुझे ‘दाग़’ देहलवी का एक शेर याद आ रहा है शायरी में “कम्बख्त” का इस्तेमाल यहीं हुआ है शायद
दी मुअज्ज़न ने शबे-वस्ल अजां पिछले पहर
हाय! कमबख्त को किस वक़्त खुदा याद आया
14-5-83
कुछ देर के लिए अवधेश के घर गया (वो तो शिमला में है) भाभी बच्चों से मिला, बातों में ही मैंने भाभी से पूछा “वो तेजी की कविता पढ़ी जो उसने हम दोनों के लिए लिखी है दिल्ली में तुम्हारे होते हुए ही लिखी थी उसने”. भाभी ने हैरत से पूछा “कब!” मैंने कहा, “Date नहीं देखी, जब मेरा वो Postcardगया था, ख़त पर बात करते रहे थे वो” -– तो भाभी ने बताया, तेजी तुम्हारी दो बातों पर बहुत देर तक हँसती रही थी —–
एक तो “मैंने ही तुम्हें दिल्ली वाला बनने पार ज़ोर दिया था” दूसरे “मैं बीस का नोट जेब में लिए घूमता रहा”… और कुछ बातें हुई तुम लोगों की. हाँ एक बात और बताई भाभी ने कि अगले दिन (जिस रात तुम अवधेश के घर रहे थे) तुम्हारा ‘दुल्लर की जान’ आया और अवधेश से बहुत पूछता रहा कि क्या कह रहे थे वे -– मगर अवधेश ने कुछ नहीं बताया उसे –- फिर वो खुद ही किताब में नाम देने की सफ़ाई पेश करने लगा —–
अवधेश से एक दिन तुम्हें बुलाने वाली बात की बात हुई थी — अभी तक तो यही तय हुआ है कि 7जून अवधेश का Birthday, तुम सब यहीं celebrate करो अब वो खुदा का बन्दा शिमला से लौटे तो Final Letter मैं उसी से लिखवाऊंगा —
इस तरह Flashback से अब फिर आज की Date यानि 19मई की रात पे लौटते है अवधेश शिमला से अभी तक नहीं लौटा. मौसम ने इस शहर को Hill–station का सगा भाई बना के रख दिया है. दिन बड़े सुकून से गुज़र रहे है. कल अपने एक दोस्त (Bookshop) के पास पुरानी Magazines देख रहा था March 27-April 2 वाली Illustrated Weekly में Letter from Chandigarh column में अल्बर्ट की Exhibition पर एक paragraph पढ़ा (वो magazineतो मैं घर ले आया हूँ –) अच्छा लगना था ही, हाँ ! काका, अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हो रहा है, हुआ है, यही सबसे ख़ास बात है — ऐसा है न दुल्लर अगर पिकासो की Paintingपर अपना नाम लिख के पेश करे तो वह कोई Artist थोड़े ही बन जायेगा — अल्बर्ट से कहना — Please –– वो Bathroom के दरवाज़े के लिए कुछ बनाये — वो Joker वहां से हटा दे — मुझे तुम्हारे घर में सबसे ज़्यादा Oddवही लगा — और अल्बर्ट का रियाज़ कैसा चल रहा है —- अच्छा तेजी, अब पहले तो एक शेर कुछ दिन तुम्हें भेजने की सोची अब भेज रहा हूँ. अकेला ही
तमाम शहर में कोई नहीं है उस जैसा
उसे ये बात पता है यही तो मुश्किल है
इस ख़त का बाक़ी हिस्सा एक ऐसी Ink से लिख कर भेज रहा हूँ जिसे रात को तो पढ़ा ही नहीं जा सकता था, आसानी से नहीं — सिर्फ़ Daylight में ही पढ़ा जा सकता है और लिखा भी … इसलिए कल दिन में लिखूंगा.
नोट: (ख़त का यह हिस्सा अब पढ़ने में नहीं आता, सो आगे चलते हैं )
आख़िर में आज शाम आवारगी करने गया तो एक शेर कहा, शेर खुद बोल रहा है सारी कहानी —–
चलो हम अपनी उदासी की कुछ दवा तो करे
वो शहर में है या नहीं पता तो करे.
एक ख़त लिख देना कि तुम्हें ये ख़त मिल चुका है कि नहीं –- इसमें जानबूझकर कुछ ऐवंई किस्म की बातें भी लिख दीं है मैंने वरना ये ख़त तो बहुत छोटा होता — मगर…… अब इजाज़त……..
तुम्हारा कमबख्त दोस्त
फ़क़त -– हरजीत