छोटी-छोटी क्षुद्रताओं के अक्स |
पवन माथुर मनुष्य के छोटी-छोटी जरूरतों के लिए बड़े-बड़े संघर्षों और उसकी सहज क्षुद्रताओं के कथाकार हैं. उनकी कोशिश मनुष्य के बाहरी और भीतरी संघर्षों के बीच के साझा सूत्र को पकड़ने और परोसने की होती है. दरअसल, पवन माथुर के चरित्र समाज के मामूली लोग हैं. प्रायः सरकारी दफ्तरों के सामान्य कर्मचारी. उन लोगों के संघर्ष भी मामूली हैं. निहायत वैयक्तिक. उनके संघर्षों से समाज का कोई बहुत बड़ा मकसद नहीं सधता, समाज में उससे कोई बदलाव रेखांकित नहीं होता, पर उन संघर्षों में मनुष्यता के बीज दबे होते हैं. मानवीय मूल्यों के बीज. मनुष्य का संघर्ष दरअसल, अपने जीवन को सहेजने, सुंदर बनाने भर के लिए नहीं है, उन मूल्यों को लेकर भी है. उन मूल्यों से भी है. वह संघर्ष स्वभावगत है. स्वतः प्रकट हो जाता है. जहाँ -जहाँ उसे अभावों, असुविधाओं का सामना करना पड़ता है, वहाँ -वहाँ उसे मानवीय मूल्यों में विसंगतियाँ नजर आने लगती हैं. वहाँ मूल्य न तो बराबरी के स्तर पर बनते-विकसते हैं और न व्यवहार में उतरते नजर आते हैं. इसलिए आदमी अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए, स्थापित मूल्यों को ढंक-छिपा कर, अपनी सुविधा के नए जीवन मूल्य गढ़ने का प्रयास भी करता रहता है. हालांकि मनुष्य की ऐसी वृत्तियाँ अब लगभग रूढ़, उजागर और स्वीकृत-सी हो चली हैं, पर पवन माथुर उनकी नई-नई युक्तियों को खोलने का प्रयास करते हैं.
उनका कथा संग्रह हासिल ऐसी ही कहानियों का संकलन है. उसमें कुल ग्यारह कहानियाँ हैं. ये सभी कहानियाँ अपने समय के मनुष्य की जीवन जीने की जद्दोजहद, उसके छोटे-छोटे संघर्षों, विश्वासों, धूर्तताओं और नीचताओं को बहुत हल्के स्पर्श के साथ खुरच कर दिखाने का प्रयास करती हैं. मनुष्य की मूल इच्छा दरअसल, खुद को सार्थक बनाने-दिखाने, साबित करने की ही होती है. वहीं से उसकी खोल के भीतर क्षुद्रताएँ उपजती हैं. उसी मूल इच्छा के लिए वह सारे छल-छद्म करता है. पवन माथुर उन्हीं संघर्षों, छल-छद्मों को पकड़ने-परोसने की कोशिश करते हैं.
संग्रह की एक कहानी है- जिंदगी की कील. फार्मास्युटिकल कंपनी में काम करने वाले एक सामान्य कर्मचारी की कहानी. उसे हर छोटी चीज के लिए संघर्ष करना पड़ता है. जीवन की मामूली सुविधाओं के लिए भी कतर-ब्योंत करनी पड़ती है. हर समय युक्तियाँ सोचनी पड़ती हैं कि जीवन को कैसे कुछ बेहतर, कुछ व्यवस्थित, कुछ समरस बनाया जा सकता है. उसके सपने वही हैं, जो एक सामान्य मनुष्य के होते हैं- रोटी-कपड़ा और मकान. मगर किसी तरह बस रोटी की व्यवस्था हो पाती है, वह भी गाँव से कुछ राशन-पानी आ जाता है, इसलिए. वरना तो, बच्चों को सर्दी की वर्दी तक खरीदने के लिए गणित भिड़ाना पड़ता है. महानगर में अपना घर तो बस सपने में ही बसा हुआ है. ऐसे में, एक दिन चमत्कार होता है. जैसाकि आम आदमी ऐसे चमत्कारों की कामना हर वक्त करता ही रहता है, इसके लिए जगह-जगह मंदिरों-मजारों पर मत्था टेक आता है, बाबाओं के आशीर्वाद ले आता है. वह चमत्कार आखिर कहानी के नायक के जीवन में घटित होता है. उसी शहर में रह रहा उसके गाँँव का एक आदमी अपने बैंक से गबन किए दो लाख रुपए एक पोटली में लपेट कर रात के अंधेरे में उसे थमा जाता है. यह उस जमाने की बात है, जब ग्यारह-बारह सौ रुपए माहवार की नौकरियाँ अच्छी मानी जाती और आम हुआ करती थीं. तब दो लाख रुपए आज के कई करोड़ रुपए के बराबर थे. गबन के आरोप में वह बैंककर्मी दस साल की सजा पाकर जेल चला जाता है.
गबन का वह पैसा फर्मास्युटिकल कंपनी के कर्मचारी के जीवन में एक अलग उथल-पुथल मचा देता है. नैतिकता और अनैतिकता के बीच स्वाभाविक द्वंद्व शुरू हो जाता है. उस द्वंद्व से बाहर निकलने का रास्ता आखिर वह आदमी निकाल ही लेता है. उसके गबन कर छिपाए गए पैसे से वह जमीन खरीद कर अपना घर बनवा लेता है. मगर फिर उसके जीवन में अपशकुन घटने शुरू होते हैं, तो उसके जीवन का सारा सुख-चैन छिन जाता है. यह भी मनुष्य के भीतर चलते नैतिक-अनैतिक के द्वंद्व का ही परिणाम है. उसे जीवन में घटित होने वाला मामूली व्यतिक्रम भी अपशकुन नजर आने लगता है. यह मनुष्य के विश्वासों का अजीब खेल है. अपशकुन घटित होने के बाद से वह फर्मास्युटिकल कंपनी का कर्मचारी जीवन का समीकरण बिठाने के लिए दूसरे तरह के फार्मूले आजमाना शुरू कर देता है. यहाँ से उसे अन्य चमत्कार की उम्मीद पैदा होती है. पीर-फकीरों की मजारों, बाबाओं के आश्रमों वगैरह के चक्कर काटना शुरू कर देता है. ऐसा आदमी पूरा जीवन इसी तरह चमत्कारों की उम्मीद में गुजार देता है.
सामान्य भारतीय जन के जीवन में ऐसे ही संघर्ष हैं. ऐसी ही चालबाजियाँ और चालाकियाँ करके वह अपने जीवन को थोड़ा सुर्खरू बनाने की कोशिश में जुटा हुआ है. अब यह केवल महानगरों की समस्या नहीं, छोटे कस्बों और गांवों तक में पसर चुकी है. यह सिद्धांत हमारे समय का सबसे चमकदार मूल्य बन चुका है कि गलत तरीके से ही कामयाबी हासिल की जा सकती है. सीधे रास्ते चल कर तकलीफें ही उठाई जा सकती हैं. अब इस सिद्धांत को लगभग सभी ने अपनी जीवन में उतार लिया है- चाहे वह बड़ा अधिकारी हो या साधारण किरानी.
इस संग्रह की तफतीश कहानी इसी प्रवृत्ति का कुछ अलग ढंग से पर्दाफाश करती है. एक सरकारी विभाग का मामूली क्लर्क अपने निदेशक के अनैतिक व्यवहारों का इसी तरह फायदा उठाने का प्रयास करता है. निदेशक को ऐसा लगता है कि क्लर्क ने उसके अनैतिक कार्यों को गुप्त कैमरे में कैद कर लिया है. वह उसे तरक्की देता है. वह क्लर्क अपने निदेशक की इस कमजोरी का फायदा उठाता और तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता जाता है. यहाँ नैतिक-अनैतिक का कोई द्वंद्व नहीं. जैसे अनैतिकता एक स्वीकृत मूल्य है. दोनों के लिए- निदेशक के लिए भी और क्लर्क के लिए भी. यह कोई नई प्रवृत्ति नहीं है, मगर यह कहानी जिस ढंग से इसे दिखाती है, इसका अनूठापन उसमें है. सारी कहानी घटना की छानबीन में खुलती और विकसित होती है. कहानी अदालती और पुलिसिया कार्रवाइयों के सूक्ष्म ब्योरे और एक शातिर दिमाग आदमी की उन सारी कार्रवाइयों से बचने, उन्हें काटने, चकमा देने की युक्तियों को बड़े सुंदर ढंग से पेश करती है. इसी तरह कहानी कौन सा सत्य भी जुर्म को ‘जस्टीफाई’ करने या ढंकने की युक्तियों के बहुत बारीक विवरण पेश करती है.
संग्रह की शीर्षक कहानी हासिल महानगर में एक सामान्य कामकाजी स्त्री की कहानी है, जो घर और दफ्तर दोनों के बीच तनी रस्सी पर चलती हुई जीवन की खुशियां तलाशती है. घर में सब कुछ है. सुख-सुविधाएं हैं, वह खुद आर्थिक रूप से निर्भर है. पति तपन एक सफल इंजीनियर है. मगर कथा-नायिका में एक प्रकार का गहरा असंतोष है. बाहर तो सुख है, पर भीतर सुख नहीं है. शायद नायिका अपने सुख का ठीया-ठिकाना ठीक से पहचान नहीं पाती या जहाँ उसे सुख की तलाश है, वह वहाँ नहीं है. वहाँ वह पहुंच नहां पाती. जिस परिवार के लिए वह खटती है, जिस परिवार को व्यवस्थित रखने का प्रयास करती है, उसी परिवार से अपेक्षित सुख न मिल पाने का असंतोष भी है. पति इंजीनियर है, मशीनों की तकनीकी खामियों को दुरुस्त करने में दक्ष है, मगर वह अपनी पत्नी के मन को पढ़ पाने, उसके शरीर की भाषा को समझ पाने में विफल ही रहता है. ऐसा भी नहीं कि वह लापरवाह किस्म का व्यक्ति है. पर वह कथा नायिका के मन को सुख दे नहीं पाता. शरीर का सुख भी वह महसूस नहीं कर पाती, बल्कि वह उसे अत्याचार जैसा ही अनुभव होता है. वह बहुत कोशिश करती है कि ‘इस घर पर उसकी भी छाप रहे’, पर उसका कोई भी फैसला तो उसका नहीं रह पाता. यहाँ तक कि तीसरे गर्भ का फैसला भी. मगर वह इस द्वंद्व में झूलती रहती है कि उसका पति अत्याचारी है या उसका अंतरंग. कभी वह पति में ‘खूंखार जानवर’ देखती है, तो कभी उसकी आंखों में उसे ‘परास्त भाव’ नजर आता है.
“उसने उद्वेलन में सामने टंगे चौड़े-नक्काशीदार ड्रेसिंग टेबल के शीशे में अपने को नए सिरे से पहचानना चाहा, लेकिन देर रात आते किसी ट्रक की सड़क पार से आती रोशनी, नीली रोशनाई में लिपटे शीशे की किरचों में विभक्त कर गई.”
यह एक आधुनिक, महानगरीय स्त्री का जाना-पहचाना अंतर्द्वंद्व है. उसका अतृप्ति-बोध भी सहज है. यह कहानी स्त्री-मुक्ति के तमाम आंदोलनों के बरक्स स्त्री के मूल स्वभाव को रखने का प्रयास करती है. इसी स्वभाव के कारण वह, अपनी क्षुद्रताओं से हासिल सफलताओं पर इतराने वाले किरदारों के विरुद्ध, अपने नैतिक मूल्यों को जीते हुए उम्मीद जगाने वाली किरदार नजर आती है. मगर ऐसे किरदारों के भीतर से उभरता पछतावा, अपनी विफलताओं पर उनका बिसूरना जाहिर करता है कि क्षुद्रताएँ उनमें भी कम नहीं, बस नैतिक-अनैतिक के बीच झूलते हुए, किसी मजबूरीवश वे उन्हें प्रकट नहीं कर पाए, उन्हें व्यवहार में उतार नहीं पाए. अगर ऐसा न होता, तो यह सवाल उनके जेहन में उभरता ही क्यों कि आखिर उन्हें ‘हासिल’ क्या हो पाएगा या हासिल क्या हो पाया. इस प्रचलित तंत्र में वही विफल हैं, जो अपनी क्षुद्रताओं को व्यवहार में उतार नहीं पाते, उन्हें चालबाजियों में महारत नहीं है. ऐसा नहीं कि वे स्थापित मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं या व्यवस्था में व्याप्त अनैतिकताओं के विरुद्ध खड्गहस्त हैं, उनकी विपलता के पीछे बस वजह यही है कि वे अपनी क्षुद्रताओं का दमन करना सीख गए हैं.
पवन माथुर कहानी में ब्योरे बहुत बारीक ढंग से पेश करते हैं. वे अपने किरदार के भीतर उतरते हैं. उसके मन के हर कोने-अंतरे की धैर्यपूर्वक टोह लेते हैं. इस तरह उनकी कहानियों में न केवल व्यक्ति के बाहरी, बल्कि भीतर संघर्ष ज्यादा गहरे रूप में प्रकट होते हैं. वे बहुत ठहर कर स्थितियों का वर्णन करते, घटना के एक-एक रेशे को उभारते चलते हैं. कोई जल्दी नहीं, बहुत ठहर कर आहिस्ता चलते हैं. भाषा में सहज रवानी लेकर उनकी कहानी मंथर गति से बहती रहती है. लगातार एक उत्सुकता जगाती हुई कि आगे क्या होगा. परिणति क्या होगी. किसी भी कथाकार का यह बड़ा गुण होता है कि वह कहानी में उत्सुकता बनाए रखे, उसे उबाऊ बनने से बचाए रखे. पवन माथुर शिल्प में चमक पैदा करने के लिए किसी अनावश्यक रसायन का उपयोग नहीं करते. बिल्कुल मूल रूप में घटनाओं को पेश करते हैं. इस तरह उनकी कहानियां अधिक यथार्थवादी बन पड़ती हैं. इस संग्रह की कहानियां निस्संदेह इस समय लिखी जा रही कहानियों में एक अलग तरह से जगह बनाती हैं.
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सूर्यनाथ सिंह 14 जुलाई 1966, सवना, गाजीपुर, (उत्तर प्रदेश) ‘कुछ रंग बेनूर’ (कहानी संग्रह); ’चलती चाकी’, ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ (उपन्यास); ‘शेर सिंह को मिली कहानी’, ‘बर्फ के आदमी’, ‘बिजली के खंभों जैसे लोग’ (बाल साहित्य) आदि प्रकाशित. |
सूर्यनाथ जी ने पवन माथुर के कहानी संग्रह ‘हासिल’ की सम्यक समीक्षा की है। नैतिकता और अनैतिकता के अंतर्द्वंद्व को जिस सलीके से पवन माथुर अपनी कहानियों में विन्यस्त करते हैं, उसका उद्घाटन और रेखांकन करने में सूर्यनाथ सिंह सफल रहे हैं। कहानी में जो सादगी का सौंदर्य है, समीक्षा में भी उस सादगी के दर्शन होते हैं। कथाकार और समीक्षक को बहुत-बहुत बधाई।