हेमंत देवलेकर की कविताएँ |
राग रुदन
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(टेमली पू के लिये)
उसने राग रुदन छेड़ रखा है
यह दिन या रात के
किसी भी पहर गाया जाने वाला राग है-
बचपन के थाट का है
इसमें हँसी ठठ्ठे का हर एक स्वर वर्जित है
कुछ चीज़ों के ‘ख़याल’ संजोए थे उसने
जो हमने विलम्बित कर दिये थे
अचानक द्रुत हो उठे हैं
उसने बिगड़कर, झगड़कर
ज़मीन पर लेटकर, मचलकर
कार्यक्रम का आग़ाज़ किया है
उसके आलापों में तीव्र विलाप हैं
कोमल स्वर सारे निषिद्ध हैं
आँसू वादी और सम्वादी स्वर
तानपूरे पर संगत कर रही है
उसकी जि़द
जो उसकी आड़ मे छुपकर बैठी है
और टुंग-टुंग-टुंग-टुंग कर
उसके कान भरे जा रही है लगातार
तबले पर संगति है उसके गुस्से की
जो हाथ-पाँव पटक-पटककर
अपने ही कायदे और परण बजा रहा है
हारमोनियम पर है
उसकी फेंका-फेंकी
कुटती, पिटती, टकराती चीज़ें
अपनी टंकारों से
उसे स्वरों से भटकने नहीं देती
वह राग में बनी रहती है
वह तानें लेते हुए ताने मार रही है
वह खरज पर उतरे तो धरती फट पड़े
और तार-सप्तक के आखि़री स्वर तक पहुँचे तो आसमान
उसकी घरानेदार गायकी की यह ख़ासियत है
पता है?
उसके गालों पर एक टीका था
जिस पर एक घोंसला था
जिसमें ‘हँसी’ नाम की चिडि़या अण्डे दिया करती थी
बाढ़ में बह गया है
इतना डूबकर गाया है आज राग उसने
हम सब जो उसके श्रोता हैं
विस्मित हैं उसके रियाज़ पर
हम तालियाँ फिर भी नहीं बजाते
‘’वाह !उस्ताद वाह!!‘’ फिर भी नहीं कहते.
उसका रोना सुन
हमारा कलेजा जो भीतर से खून-खून हुआ है
वही उसकी सच्ची दाद है.
उम्मीद है वह जल्द ही समेटेगी सारा विस्तार
और लौट आएगी एक तिहाई लेकर
उस राग से बाहर
हमारी बाँहों में
जहाँ उसकी फ़रमाईशी चीज़ें
ईनामों-इक़रामों की तरह मिलने वाली हैं उसे
….और वे सब चीज़ें भी चाहती हैं
कि इस संगीत सभा का समाहार
एक तराने से हो
‘हँसी’ जिसका राग हो
रोने का हर एक स्वर वर्जित हो.
डिम्बू टिम के लिये
तू अगर फ़ौज में भर्ती हो जाए
तो यक़ीन है कि सारी तोपें
पिचकारियों में बदल जाएँगी
फिर उनसे गोला-बारूद नहीं दाग़ा जाएगा
रंग बरसाए जाएंगे
सरहदों के उस पार
जहाँ गिरेंगे तेरे रंगीले गुब्बारे
ख़ून ख़राबे की आदी हो चुकी धरती
महसूस करेगी अपना नया जन्म होते हुए
फिर दहशत वहाँ कभी नहीं लौटेगी
अब तक के इतिहासों में दर्ज है
पड़ोसी मुल्कों के बीच अक्सर होती
शांति वार्ताएँ,
अक्सर होते शिखर सम्मेलन
और इन महज़ दिखावटी रस्मों के पीछे
छुपा होता है युद्धों का निर्मम चेहरा अक्सर
तंग आ चुकी है दुनिया इस दोगलेपन से
उसे अब और जंग नहीं
तेरे उत्सवदार रंग चाहिये
अब जो इतिहास बने
उसमें ऐसे हुक्मरान हों
जो सरहदों के पार की जनता को भी
अपनी अवाम समझें
तू अगर फ़ौज में भर्ती हो जाए
तो यक़ीन है
सीमाओं पर लगी
कंटीले तारों की बाड़
काट दी जाएगी
और खोल दी जाएँगी तमाम सरहदें
फिर यह पृथ्वी
फि़ज़ूल टुकड़ों में बँटी नहीं मिलेगी
तब्दील हो चुकी होगी
एक घर-
एक आँगन में.
हमारी उम्र का कपास धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है
हमारी गेंदें अब लुढ़कती नहीं
चौकोर हो गई हैं,
खिलौने हमारे हाथों में
आने से कतराते हैं,
धींगा-मस्ती, हो-हुल्लड़ याद नहीं
हमने कभी किया हो
पैदाइश से ही इतने समझदार थे हम
कि किसी चीज़ की जि़द में
कभी मचले या रोए नहीं
स्कूल को जाने वाला रास्ता
नहीं देखा हमारे पैरों ने
हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे
लोहे में बदल रहा है
दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
और हमारे माँ-बाप को फख्र है हम पर
कि हम गिरस्थी का बोझ उठाने के काबिल हो गए हैं
हम पटाखों में भरते हैं बारूद
होटलों में कप बसियाँ धोते हैं,
रेल के डिब्बे में अपनी ही क़मीज़ से
लगाते हैं पोंछा
गंदगी के ढेर पर बीनते हैं
प्लास्टिक और काँच
ग्रीस की तरह इस्तेमाल होता है
हमारा दूधिया पसीना
कारख़ानों के बहरा कर देने वाले शोर
और दमघोंटू धुएँ के बीच
हम तरसते हैं अक्सर
बाहर आसमान में कटकर जाती
पतंगों को लूटने
लेकिन हमने कभी सवाल नहीं उठाए
कि खेलने-कूदने की आज़ादी क्यों नहीं हमें?
क्यों पढ़ने-लिखने का हक़ नहीं हमें भी?
ये सवाल न उनसे पूछे
जिन्होंने काम पर भेजा हमें
और न पूछे उनसे जिन्होंने
काम पर रखा हमें
दुत्कार और लताड़ से भरे शब्द ही
हमारे नाम रह गए हैं
हमारे बारे में ये दुआएँ की जाती हैं
कि हम कभी बीमार न पड़ें
शोरगुल और धमा-चैकड़ी मचाते बेफि़क्र बच्चे
हमें दिखाई न दे जाएँ
और स्कूल जाते बच्चों का
हमसे कभी सामना न हो
दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
हमारी उम्र का कपास
धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है.
मालगाडि़यों का नेपथ्य्
रेल्वे स्टेशनों की समय सारिणी में
कहीं नहीं होतीं वे नामज़द.
प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को
उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं.
स्टेशन के बाहर खड़े
सायकल रिक्शा, ऑटो, तांगेवालों को
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनके आने या जाने से.
चाय-नमकीन की पहिएदार गुमठियाँ
कहीं कोने में उदास बैठी रह जाती हैं
वज़न बताने की मशीनों के लट्टू भी
क्या उन्हें देख धड़का करते हैं?
आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा
बुकस्टॉल वाला अचानक चौंक नहीं पड़ता
किताबों पर जमी धूल हटाने के लिये.
मालगाडि़यों के आने जाने के वक़्त
पूरा स्टेशन और क़रीब-क़रीब पूरा शहर
पूरी तरह याददाश्त खोए आदमी सा हो जाता है
और इस सौतेले रवैये से
घायल हुई आत्मा के बावजूद
अपनी पीड़ा को अव्यक्त रखते हुए
वे तय करती रहती हैं तमाम दूरियाँ.
भारी-भरकम माल असबाब के साथ
ढोती हैं दुनिया की ज़रूरतें
और ला-लाकर भरती हैं हमारा ख़ालीपन.
पैसेंजर ट्रेनों से पहले चल देने की
गुस्ताख़ी कभी नहीं करेंगी वे
पीढि़यों की दासता ने उन्हें
इतना सहनशील और ख़ामोश बना दिया है.
दो प्लेटफार्मों के बीच छूटी सुनसान पटरियों पर
अंधेरे में आकर जब चुपचाप गुज़र जाती हैं
तब उनकी जि़ंदगी
दुनिया के तमाम मज़दूरों की कहानी लगती है
एक-सी अनाम
एक-सी उपेक्षित
और एक सी इतिहास के पन्नों से
खारिज.
पेड़ों का अंतर्मन
कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा ख़ुशी से फूल गया है
खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं हैं
विस्थापित जंगल होते हैं
मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ,
टहनियों पर बैठता हूँ
पेड़ों की खोखल में रहता हूँ किताबें
मैं, जंगल में घिरा हूँ
किंवदंतियों में रहने वाला
आदिम ख़ुशबू से भरा जंगल
कल मौसम की पहली बारिश हुई
और आज यह दरवाज़ा
चैखट में फँसने लगा है
वह बंद होना नहीं चाहता
ठीक दरख़्तों की तरह
एक कटे हुए जिस्म में
पेड़ का खून फिर दौड़ने लगा है
और यह दरवाज़ा बचपन की स्मृतियों में खो गया है
याद आने लगा है
किस तरह वह बाँहें फैलाकर
हज़ारों हथेलियों में समेटा करता था
बारिश को
और झूमने लगता था
वह स्मृतियों में फिर हरा हुआ है.
भोपाल-कुछ लैण्ड स्केप्स
सुंदरता वह प्रतिभा है
जिसे रियाज़ की ज़रूरत नहीं
भोपाल ऐसी ही प्रतिभा से सम्पन्न और सिद्ध.
यह शहर कविताएँ लिखने के लिये पैदा हुआ
आप इसे पचमढ़ी का लाड़ला बेटा कह सकते हैं
पहाड़ यहाँ के आदिम नागरिक
झीलों ने आकर उनकी गृहस्थियाँ बसाई हैं.
यह शहर जितना पहाड़ों पर चढ़ा हुआ
उतना ही झीलों में तैर रहा
यह ऊँचाई और गहराई दोनों के प्रति आस्थावान
इस शहर में पानी की ख़दानें हैं
जिनमें तैर रहा है मछलियों का अक्षय खनिज भंडार.
इस शहर में जितनी मीनारें हैं,
उतने ही मंदिर भी,
लेकिन बागीचों की तादाद उन दोनों से ज़्यादा.
रात भर चलते मुशायरों और कव्वालियों के जलसों में
चाँद की तरह जागते इस शहर की नवाबी यादें
गुंबदों के उखड़ते पलस्तरों में से आज भी झाँकती हैं.
इस शहर का सबसे खूबसूरत वक़्त
शाम को झीलों के किनारे उतरता है
और यह शहर अपनी कमर के पट्टे ढीले कर
पहाड़ से पीठ टिका
अपने पाँव पानी में बहा देता है
और झील में दीये तैरने लगते हैं.
इसका पुरानापन हफ़्ते के वारों में सिमटा
साल के महीनों की तरह बारह नंबरों तक
इसका नयापन विस्तारित
रासायनिक त्रासदी का पोस्टर है ये शहर
इसने अपने गहरे शोक में ब्रश भिगोए
और रंग फैलाए
इसने जीवन की निरंतरता को सबसे बड़ी कला माना
यह आधा आन्दोलनों और हड़तालों में बीतता हुआ
और आधा मुआवज़ों के चक्कर में उलझा हुआ
यहाँ राजपथों और पगडंडियों के अपने-अपने अरण्य हैं
यह शहर लाल चट्टानों की असीम ख़दान है
बेशकीमती खनिजों सी लाल चट्टानों की
ख़ुदाई शुरू हो चुकी है
इस शहर की जड़ों पर हमले की
यह शुरूआत है
किसी भी शहर का दुर्भाग्य है महानगर होना
यह अब उसी कगार पर है
पहाडि़याँ सिमट रही हैं, धीरे-धीरे
झीलें पानी में अपने विधवा होने
प्रतिबिंब देख डरती हैं
यह शहर ऐसी चिन्ताओं वाली कविताएँ
रोज लिख रहा है,
पढ़ रहा है
और
फाड़ रहा है.
हेमंत देवलेकर
11 जुलाई 1972
रंगकर्म करते हुए नाटकों का लेखन भी. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन-’हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे लोहे में बदल रहा है’(कविता संग्रह)
संप्रति : स्वतंत्र रचनाकर्म 17, सौभाग्य, राजेन्द्र नगर, शास्त्री नगर के पास,
नीलगंगा, उज्जैन पिनकोड- 456010 (म.प्र.) मोबाईल – 090398-05326
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