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Home » इकिरू : साँसों की अर्थवत्ता : महेश मिश्र

इकिरू : साँसों की अर्थवत्ता : महेश मिश्र

महान अकीरा कुरोसावा की 1952 की क्लासिक फ़िल्म इकिरू (Ikiru) मनुष्य के अस्तित्व और उसकी सार्थकता के प्रश्न को बेहद संवेदनशीलता से उठाती है. आज के समय में इसका महत्व और भी बढ़ गया है. हमारे सामने बड़ी जनसंख्या है जो सिसीफस जैसा अभिशप्त जीवन जीने को विवश है. दिनचर्या मानो गिरवी रख दी गई हो और विडंबना यह है कि हमें इसी के लिए तैयार किया जा रहा है. इस फ़िल्म की चर्चा कर रहे हैं, महेश मिश्र.

by arun dev
September 24, 2025
in फ़िल्म
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इकिरू : साँसों की अर्थवत्ता : महेश मिश्र
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इकिरू
साँसों की अर्थवत्ता
महेश मिश्र

 

जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा का नाम विश्व सिनेमा की उस धारा में लिया जाता है, जिसने मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक यथार्थ और दार्शनिक प्रश्नों को एक अनूठी दृश्यात्मक भाषा दी. उनके लिए सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि मनुष्य के भीतर छिपे प्रश्नों की व्याख्या करने का साधन था. सेवेन सामुराई जैसी भव्य और मार्मिक रचनाओं से लेकर राशोमोन जैसी मनोवैज्ञानिक रूप से जटिल कृतियों तक, कुरोसावा ने बार-बार यह दिखाया कि वे एक ऐसे फ़िल्मकार हैं जो दृश्य और कथानक दोनों स्तरों पर जीवन की गहराइयों में उतरना जानते हैं.

इन्हीं में से एक कृति है— इकिरू (1952), जिसका अर्थ है “जीना.” सतही तौर पर यह फ़िल्म एक साधारण नौकरशाह, कंजी वातनबे (Watanabe), के जीवन और मृत्यु की कथा है. लेकिन वास्तव में यह मनुष्य की उस शाश्वत चिंता को चित्रित करती है—जीवन का अर्थ क्या है? और क्या मृत्यु के सन्निकट पहुँचने के बाद ही मनुष्य को जीवन की वास्तविकता का अनुभव होता है?

“I can’t afford to hate people.” – यह पंक्ति अकीरा कुरोसावा की महान कृति इकिरू के नायक वातनबे के मुख से निकलती है. सतही तौर पर यह साधारण वाक्य प्रतीत होता है, किंतु गहराई से देखें तो यही फ़िल्म के समूचे दर्शन का निचोड़ है. नौकरशाही की धूल में दबा, जीवन से लगभग ऊबा यह व्यक्ति अचानक मृत्यु की आहट से जूझता है और यह प्रश्न—“जीना वास्तव में क्या है?”—उसके सामने मुँह बाए खड़ा हो जाता है.

कुरोसावा को सेवेन सामुराई, राशोमोन या थ्रोन ऑफ़ ब्लड जैसी विराट और ऐतिहासिक विस्तार वाली फ़िल्मों के कारण जाना जाता है. किंतु इकिरू उनकी रचनात्मकता का बिल्कुल अलग पहलू है. यह न तो सामुराई गाथा है, न सत्ता-संघर्ष की कथा. यह दफ़्तर की मेज़ पर झुके हुए, चुपचाप फ़ाइलें पलटते हुए एक मामूली आदमी की कहानी है, जो अंततः जीवन का अर्थ खोजने के लिए विवश होता है.

फ़िल्म की शुरुआत ही असाधारण है. पर्दे पर दिखाई देता है वातनबे का एक्स-रे और साथ ही स्वर आता है—“यह आदमी पहले ही मर चुका है, केवल औपचारिकता बाकी है.” यहाँ से ही निर्देशक दर्शक को जीवन और मृत्यु के संधि-स्थल पर ले जाता है, जहाँ ‘जीवन का अर्थ’ प्रश्न बनकर खड़ा होता है. वातनबे की निष्क्रिय देहभाषा, मेज़ पर जमी धूल, फ़ाइलों का ढेर—सब मिलकर एक ऐसी मृत्यु का रूपक रचते हैं, जो जीवित रहते हुए भी भीतर ही भीतर सम्पन्न हो चुकी है.

टोकियो नगर निगम का एक मध्यम स्तर का अधिकारी जिसने तीस वर्ष काग़ज़ी फाइलों और औपचारिकताओं में खपा दिए. उसका जीवन एकरूप, निस्तेज और अर्थ-हीन है. कैमरे की स्थिरता और कार्यालय की बंदिशें इस जड़ता को दर्शाती हैं. कुरोसावा यहाँ जानबूझकर गति को धीमा रखते हैं, ताकि दर्शक उस बोझिल शून्यता से जुड़ सके जिसमें वातनबे डूबा हुआ है.

जब डॉक्टर उसे बताता है कि उसे पेट का कैंसर है और उसके पास केवल कुछ महीने ही शेष हैं, तभी जीवन का असली प्रश्न उसके सामने आता है. वह रातभर अकेले जागता है, अपने अतीत को याद करता है, और पहली बार महसूस करता है कि वह वास्तव में कभी “जिया” ही नहीं.

उसकी पीड़ा इस संवाद में झलकती है:

“मैंने कुछ भी नहीं किया… बस अब तक जीता ही रहा.”

यह उद्घाटन संवाद फ़िल्म का दार्शनिक आधार रख देता है.

कुरोसावा की तकनीक उल्लेखनीय है. लंबे ट्रैकिंग शॉट्स के माध्यम से वे एक-एक बाबू के चेहरे पर कैमरा ठहराते हैं, हर चेहरे पर उदासीनता, थकान और जड़ता. इस दृश्य-रचना में हम केवल एक दफ़्तर नहीं देखते, बल्कि संपूर्ण नौकरशाही व्यवस्था का वह यथार्थ देखते हैं जहाँ जीवन अर्थ-हीन काग़ज़ी प्रक्रियाओं में गुम हो जाता है.

कुछ महिलाएँ बच्चों के लिए पार्क बनवाने की याचना लेकर आती हैं, मगर हर विभाग उन्हें किसी अन्य कमरे में धकेल देता है. यह दृश्य हास्यास्पद भी है और हृदय-विदारक भी. व्यंग्य और करुणा का यह द्वंद्व ही कुरोसावा की असाधारण पहचान है.

वातनबे के निजी जीवन की झलक और भी मार्मिक है. उसके बेटे और बहू के लिए वह पेंशन का आश्वासन-मात्र है. घर में रहते हुए भी वह अकेला है— मौन, उपेक्षित और लगभग अदृश्य. यहाँ फ़िल्म जापानी मध्यम-वर्ग की उस मानसिकता को उजागर करती है जो युद्धोत्तर समय में उपभोग और स्वार्थ में लिथड़ी हुई थी.

फ़िल्म के पहले हिस्से में इकिरू एक गहरी स्थापना करती है— जीवन की असली समस्या मृत्यु नहीं, बल्कि उस निष्क्रियता और उद्देश्य-हीनता में है जिसमें आदमी धीरे-धीरे ‘जीते-जी मर’ जाता है. मृत्यु तो अवश्यंभावी है, किंतु जीने का प्रश्न हर क्षण उठता है और उस क्षण में ही उत्तर भी चाहता है.

कुरोसावा इस जीवन-शून्यता को केवल दृश्यात्मक नहीं बनाते, बल्कि दर्शक की चेतना पर आरोपित करते हैं. सन्नाटा, धुंधले कमरे, कुर्सी पर झुकी हुई पीठ और भीड़ में खोया हुआ चेहरा—ये सब प्रतीक मिलकर प्रश्न पूछते हैं: क्या हम सचमुच जी रहे हैं, या केवल औपचारिकताएँ निभा रहे हैं?

और यही वह पृष्ठभूमि है जहाँ वातनबे का संवाद “I can’t afford to hate people” एक सामान्य प्रतिक्रिया न होकर एक सक्रिय मानवीय प्रस्ताव की तरह आती है. नफ़रत की फुर्सत केवल उन्हीं को होती है जिनके पास व्यर्थ समय और ऊर्जा बची हो. मृत्यु के निकट खड़ा व्यक्ति तो केवल जीवन को, उसके सबसे छोटे और क्षणिक रूपों में भी पकड़ लेना चाहता है.

ऐसे में इकिरू यह स्पष्ट कर देती है कि वह एक साधारण फ़िल्म न होकर जीवन और मृत्यु के मध्य खिंची उस महीन रेखा पर किया गया कलात्मक ध्यान है, जिसके बाद दर्शक स्वयं अपने जीवन से प्रश्न पूछने को विवश होता है.

कैंसर का समाचार सुनने के बाद वातनबे का जीवन जैसे अचानक उजड़ जाता है. एक साधारण सरकारी बाबू, जिसने तीन दशक फ़ाइलों और काग़ज़ों में गँवा दिए, जब यह जानता है कि उसके पास केवल कुछ ही महीने शेष हैं, तो उसकी आत्मा पर रिक्तता का बोझ और गहरा हो जाता है. यह वही क्षण है जब उसका अंतर्जगत  पहली बार अपने आप से प्रश्न पूछता है—क्या मैंने कभी सचमुच जिया है?

यहीं से फ़िल्म का अगला हिस्सा शुरू होता है. वातनबे अपने एकाकीपन से भागकर रात की गलियों में निकलता है. सबसे पहले वह एक लेखक से मिलता है, जो स्वयं निराशावाद और कटु व्यंग्य से तिक्त हो चुका है. यह लेखक उसे “जीवन को आख़िरी बार भोगने” का परामर्श देता है. फिर दोनों साथ मिलकर टोकियो की रंगीन मगर खोखली गलियों में घूमते हैं. यहाँ कुरोसावा का कैमरा एक विशेष भूमिका ले लेता है—तेज़ रोशनी, भीड़-भाड़, रेस्टोरेंट्स की चहल-पहल, संगीत और नृत्य पर अपने आप को केन्द्रित करता है—सब कुछ जीवन के अतिरेक का आभास कराता हुआ. लेकिन इस अतिरेक के भीतर गहरा खालीपन है. आवारापन से भरी इस रात में केवल विनोद नहीं है, कुछ और भी है. यह वातनबे की आत्मा का सबसे नंगा चेहरा है. शराब, संगीत और भीड़ में डूबा हुआ भी वह अपने भीतर की रिक्तता को भर नहीं पाता. इस शोर के बीच में ही उसकी आँखें आँसुओं से भर जाती हैं. एक तरह से यह पल फ़िल्म के केन्द्र में है.

यह दृश्य दर्शक पर गहरा असर छोड़ता है क्योंकि यह हमारे ही जीवन के अनगिनत दिनों की याद दिलाता है, जब हम असली अर्थ की तलाश में नकली उल्लास का सहारा लेते रहते हैं. मृत्यु का भय हमें केवल बाहरी आनंद की ओर धकेलता है, जबकि जीवन का असली प्रश्न भीतर से उठता है. और कुरोसावा इस प्रश्न को केवल शब्दों से नहीं, बल्कि पूरे दृश्यात्मक संसार से सामने रख देते हैं.

और यही विरोधाभास कुरोसावा की कला है. जब वातनबे धीरे-धीरे उदास जापानी गीत “Life is brief” गाता है, तो पूरा दृश्य हृदय को बेध देता है. चारों तरफ से लोग उसकी ओर देखते हैं, वातावरण अचानक गंभीर हो उठता है. उसके स्वर में मृत्यु का भय नहीं, बल्कि जीवन की व्यर्थता का दर्द है. यह दृश्य सिनेमा की उन दुर्लभ घड़ियों में से है जब एक साधारण-सा गीत दार्शनिक उद्घोष बन जाता है. और इसी बीच कुरोसावा के दृश्य-निर्माण की शक्ति सामने आती है. वे पात्रों को केवल घटनाओं में नहीं, बल्कि प्रकाश और छाया के माध्यम से भी परिभाषित करते हैं. शराबखानों की चमकदार रोशनियों के बीच वातनबे का चेहरा लगातार अंधेरे में डूबता-उभरता रहता है. उसकी आँखों में न प्रकाश है, न उत्साह, मानो वह भीतर से बुझ चुका हो. भीड़ में अकेलापन दिखाने का यह अद्भुत सिनेमाई कौशल है.

कुरोसावा ने इस अनुक्रम को ‘फ़्लैश’ की तरह नहीं, बल्कि निरंतर खिंचते चले जाने वाले दृश्यों में गढ़ा है. कैमरा बार-बार लोगों की हँसी, नृत्य और रंगीन गतिविधियों को पकड़ता है और तुरंत वातनबे के जमे हुए चेहरे पर लौट आता है. यह तकनीक दर्शाती है कि जीवन की चहल-पहल के बीच भी उसकी आत्मा मरुभूमि जैसी सूनी है.

वातनबे की यह रात उसके जीवन में मोड़ लाती है. उसे धीरे-धीरे अहसास होता है कि केवल भोग, केवल हँसी या केवल नशा उस खालीपन को नहीं भर सकते. जीवन का अर्थ इससे कहीं गहरा होना चाहिए. यही खोज उसे आगे चलकर उस युवा स्त्री-सहकर्मी टोयो (Toyo), के पास ले जाती है, जो जीवन की ऊर्जा और उत्साह से भरी हुई है. उसकी जीवन्तता, खिलखिलाहट और ऊर्जा वातनबे के लिए प्रेरणा बनती है. टोयो के साथ समय बिताते हुए वह समझता है कि जीवन का सार दूसरों के जीवन को स्पर्श करने में है.

उसकी यह अनुभूति उसके इस संवाद में उजागर होती है:

“तुम सचमुच जी रही हो… और मैं तो जैसे पहले से ही मरा हुआ हूँ.”

लेकिन वह यह भी जान लेता है कि वह युवावस्था को पुनः प्राप्त नहीं कर सकता. अब उसके पास केवल एक ही मार्ग है, कुछ ऐसा करना जिससे समाज को स्थायी लाभ पहुँचे. ऐसे में, वातनबे एक योजना को मूर्त रूप देने का संकल्प करता है, एक दलदली जगह में बच्चों के लिए पार्क बनाना. यह विचार उसके भीतर उस जीवन-सत्य को जगाता है जिसकी वह खोज में था. लेकिन नौकरशाही की दीवारें उसके सामने हैं. पार्क बनाने का प्रस्ताव विभाग से विभाग, टेबल से टेबल घूमता है. कुरोसावा यहाँ जापानी नौकरशाही पर तीखा व्यंग्य करते हैं. एक दृश्य में हम देखते हैं कि कुछ महिला नागरिक अपनी शिकायत लेकर आती हैं और उन्हें अलग-अलग विभागों में टाला जाता है. यह दृश्य बार-बार कट होकर दिखाया जाता है और हर विभाग एक जैसे उदासीन जवाब देता है.

यहाँ कुरोसावा का व्यंग्य हास्य के साथ त्रासदी का मिश्रण करता है. नौकरशाही की निस्सारता के बीच वातनबे का संकल्प और दृढ़ होता जाता है.

वह कहता है:

“यह पार्क अवश्य बनेगा. वही इस बात का प्रमाण होगा कि मैं जीवित था.”

वातनबे धीरे-धीरे अधिकारियों से टकराता है, नेताओं की उपेक्षा झेलता है और अंततः उस पार्क को बनवा देता है.

और तब आता है फ़िल्म का वह सबसे अविस्मरणीय दृश्य जब वातनबे हिमपात में खुले आकाश के नीचे पार्क में झूले पर बैठा है. उसकी आँखों में संतोष है, होठों पर धीमी मुस्कान, और गले से वही गीत निकलता है जिसे उसने पहले निराशा में गाया था—पर अब वह गीत एक नए अर्थ से भर उठता है.

“गोंडोला गीत गुनगुनाते हुए… मुझे लगता है सिर्फ़ मैं हूँ जो सचमुच जी रहा है.”

कुरोसावा यहाँ समय की गति को रोक-सा देते हैं.

फ़िल्म के अगले हिस्से का आरंभ होता है वातनबे की मृत्यु से. अब फ़िल्म एक और मोड़ लेती है. उसके सहकर्मी उसके अंतिम संस्कार में बैठकर चर्चा करते हैं कि उसने इतना असाधारण काम कैसे कर डाला.

एक सहकर्मी का सवाल फिल्म का उपसंहार बनता है:

“क्या सचमुच उसने यह सब अकेले किया?”

वे शराब के नशे में वचन देते हैं कि अब वे भी जनता के लिए काम करेंगे. लेकिन अगले ही दिन वे फिर पुराने ढर्रे पर लौट जाते हैं.

यह दृश्य कुरोसावा के यथार्थवाद का चरम है—व्यक्ति बदल सकता है, लेकिन संस्थाएँ इतनी आसानी से नहीं. इस भाग का दृश्य-निर्माण कुरोसावा की असाधारण कला है. एक ओर शोक-सभा में बैठे हुए नौकरशाह वातनबे के योगदान को छोटा साबित करने की कोशिश करते हैं, कहते हैं कि यह सब महज़ राजनीति या संयोग था. दूसरी ओर, दर्शक के सामने बार-बार वे दृश्य लौट आते हैं— वातनबे अधिकारियों के दरवाज़े खटखटा रहा है, निवेदन कर रहा है, बार-बार ठुकराया जा रहा है, और अंततः अपने संकल्प से सबको झुका देता है.

यहाँ कुरोसावा स्मृति की शक्ति को उद्घाटित करते हैं. व्यक्ति मर जाता है, किंतु उसकी स्मृति और कर्म समाज में जीवित रहते हैं. यही कारण है कि वातनबे का चरित्र छोटे पद का मामूली अफ़सर होकर भी असाधारण बन जाता है.

फ़िल्म का यह अंत हमें दो स्तरों पर सोचने को विवश करता है. एक, व्यक्तिगत स्तर पर वातनबे की कथा हमें बताती है कि जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए कुछ करने में है, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो. दूसरा, सामाजिक स्तर पर यह उद्घाटित करती है कि व्यवस्था की जड़ता केवल व्यक्तियों की जागरूकता से नहीं टूटती, उसके लिए सामूहिक चेतना आवश्यक है.

इकिरू इसीलिए केवल जापानी समाज की व्याख्या नहीं, बल्कि विश्व-मानव की गाथा बन जाती है. हर समाज, हर समय में कुछ वातनबे होते हैं- मामूली चेहरे, साधारण ज़िंदगियाँ, जो मृत्यु के सन्निकट पहुँचकर जीवन का अर्थ खोज लेते हैं और दूसरों को छू जाते हैं.

कुरोसावा की इस फ़िल्म ने सिनेमा को यह दिखाया कि फ़िल्म केवल कथा नहीं, बल्कि अस्तित्व पर ध्यान (meditation) भी हो सकती है. अंततः इकिरू हमें यह सिखाती है कि जीवन की संक्षिप्तता से डरना नहीं, बल्कि उसी से उसे अर्थ देना है. मृत्यु तो निश्चित है, किंतु जीना एक चयन है. बर्फ़ की सफ़ेदी, झूले की हल्की गति और कैमरे की लंबी स्थिरता, सब मिलकर एक अमर छवि रच देते हैं. यही वह क्षण है जब दर्शक समझ जाता है कि जीना वही है जो दूसरों के जीवन से जुड़कर अर्थ पाता है.

 


महेश मिश्र सांस्कृतिक मामलों के जानकार और टिप्पणीकार हैं. भारतीय और वैश्विक मामलों पर दृष्टि रखते हैं. साहित्य में उनकी गहरी रुचि है और उनका लेखन लगातार सामने आ रहा है. दिल्ली में रहते हैं.

 

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Comments 6

  1. संजय व्यास says:
    2 days ago

    इस फ़िल्म पर बहुत सुंदर लिखा है महेश मिश्र जी ने। वतनबे बच्चों का पार्क बनाकर ही दम लेता है। उसके लिए जीवन का चयन इसी में है। न जाने क्यों असम के पाएंग की याद आई जिन्होंने ब्रह्मपुत्र की रेत में एक पूरा जंगल उगा डाला। बेशक जीवन का उत्तमांश इसमें लगा पर उनके लिए इससे भिन्न कुछ भी जीवन नहीं।

    Reply
  2. Rohini Aggarwal says:
    2 days ago

    कुछ बरस पहले यह कालजयी फिल्म देखी थी। लगा था, जीवन की कितनी ही रहस्यमयी परतों को अपने आग़ोश में लेकर धीरे-धीरे खुलने और घुलने वाला महाकाव्य है यह।
    अस्तित्ववाद महज एक दार्शनिक आंदोलन नहीं है, हर देश-काल में सांस लेती विकल मनुष्य-चेतना का शाश्वत सवाल है कि जीवन आखिर क्या है? कि अभ्यास की तरह सांसों को लेना-छोड़ना यदि जीवन नहीं तो जीवन जीना आख़िर हमें क्यों नहीं सिखाया जाता? कि “जीने” का मर्म जान कर भी हमें रपटना/ रेंगना ही क्यों भाता है?
    क्लासिक कृतियाँ अक्सर जीवन, जिजीविषा और जीवन-विडंबना के सवालों पर गहरे उतर कर विचार करती हैं, और दर्पण बन कर दिखाती हैं कि बदहवास दिनचर्या में गारत हमारी आत्ममुग्ध हस्ती कैसे आत्म-प्रवंचना के मरुस्थल में भटकती फिर रही है। जाने क्यों मुझे लगता है फिल्म के अंत में नायक की मृत्यु ही उदासी का सबब नहीं बनती। उदासी के भीतर भय, ग्लानि और किंकर्तव्यविमूढ़ता का जो घनघोर सन्नाटा है, वह है आत्मसाक्षात्कार के दौरान अपनी बेचारगी भरी सीमाओं को साफ़ देख पाना। सीमाएं जो व्यवस्था ने बनाई हैं और हमने जतन से दीवार और ढाल बना कर अपने चारों ओर बुन ली हैं।
    आलेख की प्रस्तावना नेमेंसिसिफस का उल्लेख कामू के गंभीर आलेख “द मिथ ऑफ सिसिफस” का स्मरण करा गया। सिसिफस बनना नियति है या चयन? यह सवाल फिर से गिरफ्त में लेने लगा। लेकिन कुरोसावा के पास मानो नीत्शे का अदम्य विश्वास है – विल टू पावर। वातनबे हमारी आकांक्षा इसलिए बनता है कि वह सिसिफस का कंट्रास्ट रच कर विल टू पावर (कर्मनिष्ठ संकल्पदृढ़ता से अर्जित सार्थक जीवन-बोध) की दार्शनिक अवधारणा को फलीभूत करता है।
    महेश मिश्र और समालोचन का बहुत आभार कि व्यर्थता बोध के बोझिल दिशाहीन पलों में ऐसे आकाशदीप आप जब-तब विचार के लिए उपलब्ध करा देते हैं।

    Reply
  3. Sapna Bhatt says:
    2 days ago

    सेवन समुराई और रशोमन के बाद यह फ़िल्म देखी थी,कुरोसावा को अपनी बात न केवल कहते आती है बल्कि वे दर्शक के हृदय और मस्तिष्क को भी चमत्कृत और विस्मित करना जानते हैं। यह सुंदरता उनके हर मास्टरपीस में देखी जा सकती है।
    फ़िल्म के अनुरूप ही है यह आलेख… सुंदर और सघन है देखे हुए को इस तरह महसूस करना… और अधिक समृद्ध करती है यह सुव्याख्या …
    यह आलेख सहेजने योग्य है।
    महेश जी को ख़ूब शुभकामनाएं …

    Reply
  4. Sudeep Sohni says:
    2 days ago

    अच्छा आलेख । महान फिल्मकारों की यही खासियत होती है कि उनके सिनेमा को कहानी से इतर उनके जीवन दृष्टिकोण और समग्रता में देखा जाता है। कुरोसावा की एक और अवधारणा इस फ़िल्म में काम करती है और वह एक सवाल है कि लोग एक साथ ख़ुश क्यों नहीं रहते? भारतीय सिनेमा में हृषिकेश मुखर्जी की ‘आनंद’ इकिरू से प्रेरणा ग्रहण करती है। उसकी शुरुआत भी फ्लैशबैक से होती है। हालाँकि मुखर्जी भी मास्टर फ़िल्मकार हैं और उन्होंने आनंद के किरदार में भारतीय परंपरा और जीवन उल्लास की अवधारणा में आनंद का पात्र रच दिया। यही कलाओं की ताक़त भी है और कलाकारों की जीनियस।

    Reply
  5. Rajat Sanyal says:
    2 days ago

    बहुत सुंदर समीक्षा। अकीरा कुरुसावा मेरे प्रिय फ़िल्म निर्देशक है। सेवन सामुराई , रसोमन बेहतरीन फ़िल्म । अकीरा कुरुसावा मशहूर निर्देशक सत्यजीत रे साहब के लिए बहुत कुछ बोले थे। उल्लेखनीय है सेवन सामुराई फ़िल्म से प्रेरित होकर शोले बनाया गया था।

    Reply
  6. Khudeja khan.jagdalpur, chhatisgarh alpur . chhattisgarh says:
    2 days ago

    अधिकांश,जीपन – यापन को ही जीना मान लेते हैं जबकि जीवन का अर्थ व्यापक संदर्भों में अन्तर्निहित है। रचनात्मकता इस दिशा में वैचारिक द्वार खोलती है, केवल रचनात्मक होना ही काफ़ी नहीं इसकी सार्थकता के साथ, मनुष्य की संवेदना से जुड़ना भी मनुष्य के जीने को,जीना बनाता।
    अकीरा की बेजोड़ फिल्म और उतना ही सूक्ष्म विश्लेषण।
    महेश मिश्र जी को बधाई।
    आभार समालोचन।

    Reply

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