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समालोचन

Home » रंगकर्म का संकट और आधुनिक रंगमंच: ज्योतिष जोशी

रंगकर्म का संकट और आधुनिक रंगमंच: ज्योतिष जोशी

राकेश श्रीमाल के संयोजकत्व में कोलकाता की प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था ‘नीलांबर’ की ‘उषा गांगुली स्मृति व्याख्यान माला’ के अंतर्गत ज्योतिष जोशी ने ‘रंगकर्म का संकट और आधुनिक रंगमंच’ पर कल ही (28 अगस्त, 2022) यह व्याख्यान दिया था. आलोचक ज्योतिष जोशी साहित्य के साथ-साथ कलाओं के भी मर्मज्ञ हैं. यह ख़ास व्याख्यान समालोचन आपके लिए प्रस्तुत कर रहा है.

by arun dev
August 29, 2022
in नाटक
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रंगकर्म का संकट और आधुनिक रंगमंच: ज्योतिष जोशी
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रंगकर्म का संकट और आधुनिक रंगमंच
ज्योतिष जोशी

भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सक्रिय रहने के समय 1850 के आसपास पारसी रंगमंच का आरंभ हुआ. इस मंच ने पश्चिम और समूचे उत्तर भारत में शीघ्र ही पाँव पसार लिया. शुरू-शुरू में पारसियों के हाथों संचालित होनेवाला यह मंच मुम्बई को अपना केन्द्र बनाया और धीरे-धीरे वह पश्चिम और उत्तर भारत में फैल गया. इस मंच को प्रसारित करने वाली अनेक कम्पनियाँ बनीं जिन्होंने भारतीय पारंपरिक नाट्य शैलियों को चुनौती देकर उनको अस्तित्व के संकट में डाल दिया. यह रंगमंच ब्रिटिश रंगमंच के अनुकरण पर विकसित हुआ और पारसी व्यापारियों ने पैसा लगाकर इसमें धनार्जन करने तथा अंग्रेज अफसरों का मनोरंजन करने का ध्येय बनाया. इस मंच ने अंग्रेजी तकनीक का सहारा लिया, प्रोसिनियम यानी मंच का अग्रभाग और पार्श्व मंच की सारी व्यवस्थाएँ लीं और बड़े पैमाने पर अंग्रेजी नाटकों का हिन्दी-उर्दू और गुजराती में अनुवाद कर उन्हें मंचित करना शुरू कर दिया. गीत-संगीत, पद्यात्मक संवाद, भड़कीले और उत्तेजक सेट्स के साथ तात्कालिक असरवाले कथानकों को चुनकर इस रंगमंच ने जहाँ भारतीय जनता के पारम्परिक रंग-संस्कार को बदल दिया, वहीं पारम्परिक नाट्य शैलियों की प्रभावी रंगयुक्तियों को लेकर भी उन्हें प्रभावहीन कर दिया.

इसके भी पहले इंग्लैंड से आनेवाली कंपनियों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसरों के मनोरंजन के नाम पर जो कचरा फैलाया और भारतीय सांस्कृतिक जीवन को प्रदूषित करने की चेष्टा की थी, वह भी दुःखद था और पारसी रंगमंच जैसे मंच के लिए पृष्ठभूमि बनाने जैसा कार्य था. इस प्रसंग में भारतरत्न भार्गव लिखते हैं-

‘ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यावसायिक छद्म आवरण के पीछे अंग्रेजों ने हमारे देश के शासक वर्ग की अय्याशी, ईर्ष्या, द्वेष और आपसी शत्रुता का लाभ उठाकर जिस तरह हमारे देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया, उसका यहाँ विस्तार से उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती. केवल इतना-सा कहना पर्याप्त होगा कि पूरी तरह अपने पैर जमा लेने पर अंग्रेजों ने अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षुधा निवारण के लिए इंग्लैण्ड से शेक्सपियर के नाटक मंचित करने वाली नाटक मंडलियों को आमंत्रित करना आरंभ किया. लगभग उसी तरह जैसे कि आजकल भी हमारी सीमावर्ती सेना के मनोरंजन के लिए फिल्मी दुनिया के नामी सितारे उनके मनोविनोद के लिए जाते हैं. इन नाटकों के दर्शक केवल अंग्रेज अफसर ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ीदाँ वह भद्रलोक भी था जिन्हें उस समय ‘काले साहब’ कहा जाता था.’1

कम्पनी के लिए संकट यह था कि इंग्लैंड से नियमित मंडलियाँ नहीं आ सकती थीं. ऐसी स्थिति में एक रूसी रंगकर्मी एवं निर्देशक है रासिम लेबडे़फ ने अंग्रेजी नाटकों के बांग्ला रूपांतरों को प्रस्तुत करना आरंभ किया. वे नाटक बांग्लाभाषियों में इतने लोकप्रिय हुए कि सभ्य सुसंस्कृत जनों के बीच नाटक देखना सहज जीवन का अंग हो गया.2

ईस्ट इंडिया कम्पनी की गतिविधियों का केन्द्र कोलकाता था, जो बाद में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बना. कहने की आवश्यकता नहीं कि कोलकाता ही सर्वप्रथम पश्चिमी ढंग से नाटकों का केन्द्र बना जिसे तत्कालीन बांग्ला समाज ने अपने पारंपरिक मूल्यों को छोड़ देने की कीमत पर अंगीकार किया. इसी से क्षुब्ध होकर 1860 में माइकेल मधुसूदन दत्त ने ‘क्या यही सभ्यता है’ नामक नाटक लिखा था और उसमें बांग्ला भद्र समाज की तीखी आलोचना की थी. इसके बाद मुम्बई, चेन्नई और लाहौर जैसे नगर अंग्रेजों के अधीन आये जहाँ उन्होंने पश्चिमी पद्धति के नाटकों का प्रदर्शन शुरू कर भारतीय मूल्यों और यहाँ के सांस्कृतिक संस्कारों की भरपूर उपेक्षा की.

कहने की आवश्यकता नहीं है कि पश्चिमी ढंग के नाटकों और उनके रंग-संस्कारों ने पारसी रंगमंच को पाँव पसारने का अवसर दिया और उन्हें शासकीय संरक्षण भी खूब मिला. इस मंच ने बेहद चालाकी के साथ भारतीय अतीत और उसकी सांस्कृतिकता को नष्ट करना शुरू किया और पश्चिम की संस्कृति को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया. पहले बंगाल और फिर महाराष्ट्र, गुजरात आदि दूसरे क्षेत्र इसका शिकार होते गये. पारसी रंगमंच ने दूसरे अंचलों सहित हिन्दी अंचलों की लगभग सभी पारम्परिक नाट्य शैलियों को अस्तित्व के संघर्ष में डालकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली.

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र

यह विडंबना ही है कि जिस हिन्दी पट्टी में स्वाधीनता की चेतना प्रखरता के साथ सामने आ रही थी, वहाँ भी अपनी संस्कृति की रक्षा और पारंपरिक नाट्य शैलियों को बचाने की चिन्ता न दिखी और न ही संस्कृत रंगमंच के गौरवशाली अतीत की सुधि ली गई. इस दुःखद स्थिति का प्रतिकार करने का प्रयास हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किया और हिन्दी क्षेत्र को एक ऐसी रंगदृष्टि देने की चेष्टा की जिसमें अतीत की गौरवशाली नाट्य युक्ति के साथ तद्युगीन नाट्य प्रविधि का मेल हो सके. उन्होंने नाटक लिखे, नाटक मंडली चलाई और नाटक को उसके रंगकर्म सहित परिभाषित करने की कोशिश की. उनका यह प्रयास दृश्य में व्याप्त अँधेरे के खिलाफ एक रोशनी की तरह था. यह वह दौर था जब नाटक का मतलब उत्तेजक प्रस्तुतियों के माध्यम से जनरूचि को संतुष्ट करना और कुत्सा फैलाकर धन उगाही करना था. पश्चिमी रंगदृष्टि में विन्यस्त यथार्थ के अतिरेक से भारतीय जन मानस में सदियों से चली आ रही रंगदृष्टि विलुप्त हो चुकी थी. इन्हीं को ध्यान में रखकर भारतेन्दु ने ‘नाटक’ नामक निबंध लिखा था. अपने निबंध में भारतेन्दु तत्कालीन नाट्य की स्थिति पर चिन्ता करते हुए देखिये उसे कैसे शास्त्रीय परम्परा में समझने की कोशिश करते हैं-

“नाटक शब्द का अर्थ है नट लोगों की क्रिया. नट कहते हैं विद्या के प्रभाव से अपने या किसी वस्तु के स्वरूप को फेर कर देने वाले को, व स्वयं रोचन के अर्थ फिरने को. नाटक में पात्रगण अपना स्वरूप परिवर्तन करके राजादिक का स्वरूप धारण करते हैं या वेश-विन्यास के पश्चात रंगभूमि में स्वीकार्य कार्य-साधन के हेतु फिरते हैं. काव्य के दो प्रकार हैं- दृश्य और श्रव्य. दृश्य-काव्य वह जो कवि की वाणी को उसके हृदयगत आशय और हाव-भाव सहित प्रत्यक्ष दिखला दे.’’3

वे आगे नाट्य का सूत्र देते हैं-

“नाटक में वाक् प्रपंच एक दोष है. रस-विशेष द्वारा लोगों के अंतःकरण को उन्नत एवं एकबारगी शोकावनत करने को समधिक वागाडंबर करने से भी उद्देश्य सिद्ध नहीं होता. थोड़ी-सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है.’’4

कहना न होगा कि भारतेन्दु ने अपने निबंध में प्रकारांतर से नाट्य को अधिकाधिक भावगर्भी होने पर बल दिया और उसके दृश्यत्व को स्वरभाव तथा अंगभंगी भाव से ही व्यक्त करने को प्रस्तावित किया. ठीक इसी तरह रंगमंच शीर्षक निबंध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने नाट्य प्रस्तुति में कल्पनाशीलता का प्रश्न उठाया और भाव को स्थापित करने पर बल देकर पश्चिम की यथार्थवादी रंगदृष्टि का विरोध किया-

“जो दर्शक तुम्हारा अभिनय देखने आता है, उसके पास क्या अपनी फूटी कौड़ी भी नहीं होती? वह क्या बच्चा होता है? क्या उस पर बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता? अगर यही सच हो तो ऐसे लोगों को डबल दाम देने पर भी टिकट नहीं बेचना चाहिए. यह कोई अदालत के सामने गवाही देना तो है नहीं, कि हर बात का हलफ उठाकर प्रमाणित करना होगा. जो लोग विश्वास करने के लिए, आनंद उठाने के लिए आए हैं, उनको ठगने के लिए इतना आयोजन क्यों? वे अपनी कल्पनाशक्ति घर पर ताले में बंद करके नहीं आते. थोड़ा-सा तुम समझाओगे, थोड़ा-सा वह खुद समझेंगे, तुम्हारे साथ उनका ऐसा ही कुछ समझौता है.’’5

पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उसके बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपर्युक्त उद्धरित विचार पश्चिम-परस्त नाट्य दृष्टि के प्रतिकार के रूप में आए जिनमें नाट्य की मूल-आत्मा के विखंडन पर रोष है और भारतीय शास्त्रीय नाट्य को, उसकी दृष्टि के साथ भुला देने की प्रवृत्ति पर चिन्ता है. पहले पश्चिमी नाटक मंडलियाँ और बाद में पारसी कंपनियों ने जिस तरह नाट्य की हमारी शास्त्रीय परम्परा को दरकिनार किया और हमारे रंग-संस्कारों की उपेक्षा की, उसमें यह चिन्ता अपने को फिर से पाने की बेचैनी प्रकट करती है.

हमारे मनीषी देख पा रहे थे कि हमारी पारंपरिक नाट्यशैलियाँ शिथिल पड़ गई हैं, पारंपरिक रंगमंच की मंडलियाँ ठप्प हैं और लोगों के विचार-व्यवहार बदल चुके हैं. सस्ता मनोरंजन देने के नाम पर उत्तेजना और भड़काऊ आख्यानों के जरिये पारसी रंग मंडलियों ने देखते-देखते हजारों वर्षों की नाट्य परम्परा को ध्वस्त कर दिया था. हिन्दी क्षेत्र में अवश्य ही कोई अर्थपूर्ण स्थिति बनी होती और पारसी रंगदृष्टि का कारगर प्रतिरोध हो पाया होता, यदि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जीवित रहते. उनकी कम उम्र में निधन ने निश्चय ही हिन्दी क्षेत्र की नाट्य संभावना को उभरने के पहले ही क्षीण हो जाना पड़ा.

भारतेन्दु के बाद यद्यपि कि जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से शास्त्रीय नाट्य परम्परा के उत्स को पकड़ने की चेष्टा की और भारतीय रंगदृष्टि की मूल संकल्पना को सामने लाने का प्रयास किया, पर उनके नाटकों को मंच पर लाने की पहल न हो सकी; क्योंकि ऐसी कोई मंडली बची न थी जो उनके नाटकों को मंचित कर उन्हें प्रसारित करने का जोखिम लेती. इस तरह जयशंकर प्रसाद जैसे मनीषी भी अपनी चिन्ताओं के बावजूद भारतीय रंगदृष्टि को पुनर्स्थापित करने में सफल न हो सके. पर उन्होंने यत्र-तत्र दृश्य और काव्य के सामंजस्य पर विचार करते हुए पश्चिम की रंगदृष्टि के यथार्थ और पारसी रंग प्रभावों का प्रतिकार करते हुए बार-बार नाट्य के परम्परा प्रसूत शास्त्रोक्त अवधारणाओं की चर्चा की है. उन्होंने एक स्थल पर लिखा है-

“लोकोत्तर चमत्कार और आदर्श दृश्य तथा श्रव्य, मूर्त और अमूर्त इत्यादि सब साधनों से वह मानसिक संसार को विकास देता है और उसके पास साधन भी प्रचुर परिमाण में हैं. शिल्प, संगीत, चित्र, कविता, आहार्य, भाव, अंगभंगी से अभिनय पूर्ण होता है. एक नाटक में इन सभी का विलास, विकास है.’’6

जाहिर है, यह चिन्ताएँ इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि नाटक में लौकिकता की प्रचुरता व्याप्त है और वह व्यक्ति के मानसिक विकास से चुक गया है. अभिनय की अपूर्णता और शास्त्रीयता से उसका विच्छेद ऐसी स्थिति के जन्म कारण बन गया है जिसमें एक उथलापन है, क्षुद्रता है, नाट्य को मनोरंजन में बदल देने की धूर्त्तता है जिसमें शिल्प, संगीत, चित्र, कविता, आहार्य, भाव और अंगभंगी तत्व सिरे से लुप्त हो चले हैं.

यह केवल हिन्दी क्षेत्र की समस्या न थी बल्कि यही स्थिति पूरे देश में थी और सब तरफ एक मुर्दनी-सी छा गई थी. यह स्थिति कमोबेश 1850 से 1930 के आसपास तक यानी अस्सी वर्षों तक बनी रही. इस अवधि में इसके प्रतिरोध में जो कुछ भी हुआ, वह नाकाफी रहा. पारसी रंग मंडलियों का विघटन तब शुरू हुआ जब अपने देश में सिनेमा का उदय हुआ. पहले मूक और बाद में बोलती फिल्मों के अस्तित्व में आने के बाद पारसी मंडलियों को चलाने वाले लोग और उनके निर्देशक तथा कलाकार सिनेमा की तरफ चले गये जिसके कारण कुछ वर्षों तक हिन्दी का पूरा अंचल निस्पन्द रहा. नाटक-रंगमंच के नाम पर जो पारसी मंडलियाँ भी थीं, वह भी टूट-बिखर गईं. अब यत्र-तत्र केवल उनकी स्मृतियाँ ही बची थीं जो कहीं-कहीं शौकिया प्रस्तुतियों में दिख जाती थीं. स्कूल, कॉलेज या मेले-ठेले के अवसरों पर शौकिया ढंग से तत्काल अमल में आईं मंडलियाँ यदा-कदा पारसी शैली के नाटकों का मंचन करती थीं. इन दिनों देश की राजनीतिक स्थिति भी स्थिर न थी. जगह-जगह धरना, प्रदर्शन, आंदोलन और उन पर सरकारी दमन के कारण भी नाटक जैसी कला के लिए विशेष जगह न बची थी. लेकिन अपने लम्बे कालखंड में पारसी रंग मंडलियों ने अपना मनचाहा पा लिया था. उन्होंने देश भर से अकूत धनार्जन किया और जनता की रूचि को प्रदूषित कर दिया. परम्परा से चली आ रही ‘रंगदृष्टि’ की अब जगह न बची थी. इसी अवधि में 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध हुआ जिसके अनेक वर्षों बाद तक हिन्दीभाषी इलाके में नाटक-रंगमंच नामक कला का जैसे कोई चिह्न ही नहीं बच पाया था. यह हाल केवल हिन्दी का ही नहीं था. अनेक भाषाओं के साथ बांग्ला और मराठी भाषाओं में भी रंगकर्म निष्क्रिय था. देश की राजनीतिक स्थिति जितनी खराब थी, उतनी ही खराब नाटक की स्थिति थी. न मंडलियाँ बचीं, न कलाकार, न दर्शक. इस परिस्थिति को लक्ष्य कर नेमिचन्द्र जैन ने लिखा था-

“हिन्दी ही नहीं, 1940 के आसपास तक देश की हर भाषा में, बांग्ला और मराठी में भी, रंगकार्य एकदम ठप्प पड़ गया था. मंडलियाँ बंद हो गई थीं या होती जा रही थीं और अभिनेता बेकार. लगता था, भारत में रंगकर्म का कोई भविष्य नहीं है. देहातों में अवश्य पारंपरिक नाट्य कमोबेश सक्रिय और जीवित थे, मगर उसका शहरी रंग-जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं था.’7

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 1943-44 में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के गठन और उसकी सक्रियता से हिन्दी सहित अनेक भाषा-क्षेत्रों में रंग सक्रियता आरंभ हुई और रंगमंच की सार्थकता के प्रति लोगों में दिलचस्पी बढ़ी. यह भी सच है कि ‘इप्टा’ की दृष्टि पश्चिमी रंग-दृष्टि ही थी और उसमें पारंपरिक भारतीय रंगदृष्टि की खोज और उसके बर्ताव की कोई मंशा न थी, पर उसने एक आंदोलन का रूप धारण कर देश के बृहद्तर हिस्से में रंगकर्म की सार्थकता का संदेश दिया और नई पीढ़ी के शिक्षित युवाओं को नाट्य-कर्म की ओर बढ़ने को प्रेरित किया. एक समय तक ‘इप्टा’ के उदय से जुड़े अनेक रंग-निर्देशकों ने, जिसमें-शंभु मित्र, हबीब तनवीर और उत्पल दत्त शामिल थे, ‘इप्टा’ के बाद के काम-काज से खिन्न होकर अपने-अपने रंग समूह बनाये और उसके माध्यम से देश में नाटक-रंगमंच को पुनर्प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण काम किया.

 

पृथ्वीराज कपूर

‘इप्टा’ की ही भाँति पारसी रंगमंच से जुड़े अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने 1944 में मुम्बई में ‘पृथ्वी थिएटर’ स्थापित किया, पर उसे घुमंतू न बनाकर वहीं पर नाट्य प्रस्तुतियाँ कीं. इस ‘थिएटर’ ने 1960 तक लगातार नाट्य प्रदर्शन किये जिसकी शैली पारसी रंग शैली ही रही, पर विषय के स्तर पर उसमें बदलाव देखा गया. ‘पृथ्वी थिएटर’ ने सम-सामयिक विषयों के साथ देश प्रेम और सामाजिक कुरीतियों पर भी नाटक प्रस्तुत किये.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में रंगकर्म की निष्क्रियता टूटी. जगह-जगह रंग-गतिविधियाँ शुरू हुईं, पर सच यही है कि स्वाधीनता के बाद जिस रंगशिल्प को हमारे रंगमंच ने अपना लक्ष्य बनाया, वह पश्चिमी रंग-शिल्प ही था. इंग्लैंड से आती रहनेवाली मंडलियों ने जिस यथार्थवादी रंगशिल्प का मॉडल स्थिर किया था और जिसमें इकहरे अर्थबोध की रंगदृष्टि थी, वहीं एक तरह से हमारे रंगकर्म का ध्येय बनी और हमने संस्कृति के दूसरे क्षेत्रों की तरह पश्चिमी औपनिवेशिक रंगशिल्प को अपना आधार बना लिया. उस रंगशिल्प का लक्ष्य अधिकाधिक मनोरंजन ही था और कल्पनाशीलता और व्यंजनात्मक दृष्टि के साथ मनुष्य की चेतना को आंदोलित करने की कोई-दृष्टि न थी. इसे धीरे-धीरे हमारे रंगकर्मियों ने महसूस करने की कोशिश की. इसका परिणाम यह निकला कि देश के रंगकर्म ने एक परिवर्तनकामी दृष्टि की जरूरत समझी. इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए ही बड़े पैमाने पर विदेशी नाटकों के अनुवाद और रूपांतर संभव हुए तथा उनके प्रदर्शनों में समुचित सावधानी बरतने की चेष्टा की गई.

इस अवधि में शेक्सपियर, मोलियर, सोफोक्लीज, यूरिपिडीज, इब्सन, स्ट्रिंडबर्ग, चेखव, गोर्की, ताल्सताय, सार्त्र, बै्रख्त, बर्नाड शॉ, कामू जैसे अनेक विदेशी नाटककारों के नाटकों के अनुवाद हुए और उन्हें मंच पर प्रस्तुत करने के प्रयत्न हुए. यहाँ तक आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि रंगकर्म से जुड़े लोग या आकृष्ट होकर निरंतर जुड़ रहे लोग यह चाहते हैं कि वे रंगमंच की गंभीरता को समझते हुए उसे एक चिन्तनशील कलाकर्म के रूप में विकसित करें और उसे अपनी परम्परा से भी जोड़ने की पहल करें. उनकी दृष्टि में धनार्जन का महत्व नहीं रह गया जो अब तक रंगकर्म का मुख्य ध्येय बन गया था जिसे पारसी रंगमंच ने कुत्सा की तरह फैला दिया था. दूसरा महत्वपूर्ण काम यह भी हुआ कि रंगकर्मियों ने यह बात समझ ली कि अगर रंगकर्म को गंभीर कलाकर्म की तरह बरतना है, तो उसे मात्र मनोरंजन के उद्देश्य से बचाना होगा. उन्होंने माना कि रंगकर्म के अनेक लक्ष्यों में एक स्वस्थ मनोरंजन भी है, पर वही एकमात्र लक्ष्य नहीं हो सकता. उसका वास्तविक उद्देश्य मानव की चेतना का विकास करना, उसे जीवन की अर्थवत्ता और उससे जुड़े सत्य की प्रतीति के उन स्तरों की खोज करना है जो मानव के विकास में मददगार तो हो ही, सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक जागरण में भी कारगर भूमिका निभा सके जिससे औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति पाने में सहायता मिल सके.

स्वाधीनता के स्वप्न, सामाजिक ताने-बाने की जटिलता के साथ पारिवारिक ढाँचे के गतिरोधों सहित राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न भी तब हमारे रंगकर्म के सामने उभरे और यह तब संभव हुआ जब रंगकर्म ने मान लिया कि वह जीवन और समाज की कला है. मनुष्य, समाज, व्यवस्था, मूल्य, संघर्ष और स्वप्न के साथ विघटित हो रही पारम्परिक व्यवस्थाओं के प्रश्नों को अगर रंगकर्म ने सम्बोधित न किया होता, तो इतनी आसानी से उसे औपनिवेशिक रंगदृष्टि से मुक्ति न मिली होती. हालांकि पूरी तरह मुक्ति अब भी नहीं मिली है, पर उसकी संभावनाएँ अभी भी बनी हुई हैं, संतोष की बात यही है.

इसी चरण में देश में महत्वपूर्ण रंग-निर्देशकों की शृंखला सामने आई जिन्होंने भारतीय रंगकर्म को संकट से निकालकर एक उन्नत रंगदृष्टि में बदल दिया. इन निर्देशकों में शंभु मित्र, इब्राहिम अल्काजी, हबीब तनवीर, उत्पल दत्त, श्यामानन्द जालान, अरविन्द देशपाण्डे, विजया मेहता, सत्यदेव दुबे, अजितेश बंद्योपाध्याय, जब्बार पटेल, ब.व. कारंत, कावलम नारायण पणिक्कर, राजिन्दरनाथ आदि के नाम सगर्व लिये जा सकते हैं जिन्होंने भारतीय रंगकर्म को एक व्यवस्था दी और अपने निर्देशन कौशल से जिन-जिन प्रस्तुतियों को उठाया, उन्हें एक मानक-स्वरूप दिया. इस स्वरूप में पाश्चात्य रंग पद्धति के साथ-साथ भारतीय नाट्य के अपेक्षाकृत उन महत्वपूर्ण तत्वों को रंगयुक्ति के तहत साधने की चेष्टा की गई जिससे रंगकर्म का एक भारतीय रूप बनने की दिशा में मार्ग प्रशस्त हुआ.

नेमिचन्द्र जैन ने इस कड़ी में जिन-जिन प्रस्तुतियों को उल्लेखनीय माना है और उनके साथ जिन निर्देशकों के कामों को परिगणित किया है, उनका ऐतिहासिक महत्व है. वे लिखते हैं-

“वास्तव में शंभु मित्र द्वारा ‘रक्तकरबी’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर), ‘छेड़ा तार’ (तुलसी लाहिड़ी), ‘दशचक्र’ और ‘पुतुल खेला’ (इब्सन), हबीब तनवीर द्वारा ‘आगरा बाज़ार’, इब्राहिम अल्काज़ी द्वारा ‘आषाढ़ का एक दिन’ (मोहन राकेश), ‘अंधायुग’ (धर्मवीर भारती), ‘किंग लियर’ (शेक्सपियर), ‘राजा इडिपस’ (सोफ़ोक्लीज), अरविन्द देशपाण्डे द्वारा ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ (विजय तेन्डुलकर), उत्पल दत्त द्वारा ‘अंगार’ आदि प्रस्तुतियाँ आधुनिक भारतीय रंगकला की उपलब्धि के सर्वथा अभूतपूर्व शिखरों को सूचित करती हैं.’8

निर्देशन की इस अभूतपूर्व सफलता के साथ इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उस दौर में लगभग सभी महत्वपूर्ण भाषाओं में उत्कृष्ट सर्जनात्मक नाटक लिखे गये जो सर्वथा मौलिक थे. इस दृष्टि से हिन्दी में लिखित ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘आधे-अधूरे’ (मोहन राकेश), ‘अंधा युग’ (धर्मवीर भारती), बांग्ला में- ‘एवं इन्द्रजित’, ‘बाकी इतिहास’ और ‘पगला घोड़ा’ (बादल सरकार), कन्नड़ में- ‘केलु जनमेजय’ (आद्य रंगाचार्य), ‘तुग़लक’ (गिरीश कारनाड), मराठी में- ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ ‘अशी पाखरे चेती’ (विजय तेन्डुलकर) जैसे नाटकों ने अपने कथ्य की नवीनता, शिल्प की सघनता और रंग-पद्धति की सूझ-बूझ से भरी ऐसी चुनौती प्रस्तुत की थी कि उन्हें प्रस्तुत करना सहज काम न था. इनकी प्रस्तुति से निर्देशन को भी एक मानक बनना था, तो ऐसे रंग-प्रभाव की सृष्टि होनी थी जो दर्शकों के लिए नये आस्वाद के साथ उन्हें सर्वथा नये रंगलोक में ले जाने में समर्थ होता. निश्चय ही इन नाटकों की प्रस्तुति से निर्देशकों ने नई ज़मीन हासिल की और भारतीय रंग जगत को अपने खोये हुए गौरव को पाने का किंचित संतोष भी हुआ. यह वे नाटक थे जो वर्षों बाद मनुष्य के सामने बड़े प्रश्नों को रख पाये, वर्तमान जीवन के संकटों को समझने की कोशिश कर पाये, मनुष्य जीवन की त्रासदी के कारणों और उसकी विडंबनाओं को देख पाने की चेष्टा करने के साथ ही स्त्री-पुरुष सम्बंधों और उसमें प्रेम-अप्रेम की निहित संभावनाओं की खोज के साथ-साथ विघटित हो रहे मूल्यों की खोज में सफलतापूर्वक उतरे थे.

इसमें संदेह नहीं कि इन नाटकों पर पश्चिम की अनेक अवधारणाओं का प्रभाव था, शैली और विचार दोनों में, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इनमें कथ्य की आत्मा भारतीय थी और एक सीमा तक भारतीय जीवन के स्वत्व और उसकी सार्थकता से जुड़े वे कठिन प्रश्न भी थे जो हमारी चिन्ताओं के केन्द्र में थे और आज भी हैं. यह नाटक एक तरह से अपनी निजी रचनाशैली की खोज के नाटक थे तो इनकी प्रस्तुति में निर्देशक और अभिनेता भी अपनी-अपनी निजी शैलियों की खोज में उतरे थे जिन्हें वे पा सके, भले ही उन्हें अभी और दूर तक यात्रा करनी थी.

यह चरण सचमुच भारतीय रंगकर्म को एक स्पष्ट दिशा देने और इस तथ्य पर विचार करने का भी था कि पश्चिम का नाट्य-रूप तथा उनका रंग-विचार हमारे लिए कितना जरूरी या गैर जरूरी है. रंगकर्मियों ने यह भी देखा था कि पिछले लगभग पचास-साठ वर्षों में पश्चिमी प्रभाव से प्रेरित होकर जो रचनाएँ लिखी गईं थीं, उनके प्रति अब अरुचि पैदा हो हो रही थी. लोग बासीपन से उकता चुके थे और उन्हें ऐसा कुछ चाहिए था जो उनका मनोरंजन तो करें ही, उनके आस्वाद को नयापन दे तथा उनके वर्तमान के प्रश्नों को संबोधित करें. यह अकारण नहीं है कि रंगकर्म के प्रायः सभी घटकों ने, चाहे वे नाटककार हों, निर्देशक हों या अभिनेता, रंगकर्म को अपने वर्तमान में लाने और उसे अपनी परम्परा के साथ जोड़कर भविष्य की रंगयात्रा निर्मित करने के प्रति प्रतिबद्ध नज़र आ रहे थे.

इस दौर में अनेक रंगकर्मियों को यह एहसास हुआ कि अगर अपना रंग-व्याकरण बनाना है और एक ऐसी रंगदृष्टि विकसित करनी है जो हमारी परम्परा के सूत्रों पर बने और उसमें आज की आवश्यकताओं को  भी शामिल किया जाये.

जाहिर है, इस अहसास के पीछे पारम्परिक नाट्य शैलियों को आधार बनाकर रंगप्रयोग की चिन्ता काम कर रही थी जो वर्षों से उपेक्षा का शिकार थीं. तब हिन्दी सहित अनेक भाषाओं में रंगकर्मियों ने अपनी-अपनी नाट्य शैलियों में रंग-प्रयोग करने शुरू किये और नाटककारों ने उन शैलियों को दृष्टि में रखते हुए अनेक महत्वपूर्ण नाटकों की रचना की. इन नाटकों में परम्परा और आधुनिकता का समन्वय था तथा वर्तमान जीवन की जटिलता और उनकी अपेक्षाओं का गहरा बोध भी था. इनके प्रयोगों में परम्परा एक उपजीव्य के रूप में तो उपस्थित रही ही, प्रयोगशीलता और कल्पनात्मक संयोजन भी था. ऐसे नाटकों में हम हिन्दी में- ‘चरणदास चोर’, ‘बहादुर कलारिन’ (हबीब तनवीर), ‘बकरी’ (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना), ‘रस गंधर्व’ (मणि मधुकर), ‘अमली’ (हृषीकेश सुलभ), कन्नड़ में- ‘हयवदन’, ‘नाग मंडल’ (गिरीश कारनाड), ‘जो कुमार स्वामी’ (चन्द्रशेखर कम्बार), मराठी में ‘घासीराम कोतवाल’ (विजय तेन्डुलकर), ‘महानिर्वाण’ (सतीश आलेकर), मलयालम में- ‘करीमकुट्टी’, ‘पशु-गायत्री’ (कावालम नारायण पणिक्कर), ‘किरात’, ‘करुत दैवते तेदि’ (जी. शंकर पिल्लै), बांग्ला में- ‘मारीच संवाद’ (अरुण मुखर्जी), ‘राजदर्शन’ (मनोज मित्र), ‘कीनू काहारेर थेटर’ (मोहित चट्टोपाध्याय), ‘माधव मालंची कन्या’ (विभास चक्रवर्ती), ‘नाथवती अनाथवत’ (साँवली घोष), मणिपुरी में- ‘उचेक लेंगमेई डोंग’ (रतन थियम), ‘लेइगी माचा सिग्ना’ (एच. कन्हाई लाल), ‘खुमन चाखा मेइरेंग नाम्बा’ (लोकेन्द्र आरम्बम), गुजराती में- ‘लीला’ (बकुल त्रिपाठी) और तमिल में- ‘सुबोरोट्टिकल’, ‘कट्टियक्करन’ (एनत्र. मुथुस्वामी) आदि नाटकों को देख सकते हैं.

यह केवल उदाहरण हैं. ऐसे अनेक अन्य नाटक भी लिखे गए जो भारतीय रंगकर्म को नई दिशा देने में समर्थ हुए. इन नाटकों में सूत्रधार की भूमिका बनती है और यह इतने संभावनाशील भी हैं कि इन्हें भारतीय नाट्यात्मक सूत्रों के सहारे प्रस्तुत किया जा सके. इनमें कई नाटक ऐसे हैं जिनके एक ही चरित्र कई-कई भूमिकाओं में आते हैं. इनमें ‘नाथवती अनाथवत’ को देखा जा सकता है जिसमें द्रौपदी मुख्य चरित्र है, पर वाचक, सूत्रधार और नाटक की संयोजिका का दायित्व भी वही निभाती है.

इसी तरह उपर्युक्त निर्दिष्ट मराठी नाटकों- ‘महानिर्वाण’ और ‘घासीराम कोतवाल’ में सूत्रधार ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, तो ‘हयवदन’ जैसे कन्नड़ नाटक में भागवत कथागायन करता है और क्रमिक कथा के सूत्रों को जोड़ता चलता है. यह कुछ उदाहरण हैं, पर प्रायः सभी नाटकों में पारम्परिक नाट्य के तत्व प्रमुखता से संयोजित हैं जो कथा को बढ़ाते हैं और भारतीय रंगदृष्टि के साथ अपने भाव को सम्प्रेषित करते हैं.

इसके अतिरिक्त यदि हम पारंपरिक नाट्य शैलियों के आधुनिक रंगमंच में प्रयोग को देखें तो यह बात भी स्पष्ट होती है कि रंगकर्मियों ने भारतीय रंगदृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए पारंपरिक नाट्य शैलियों को अपनाने का सफल प्रयत्न किया और उन्हें आधुनिक प्रयोगों में शामिल कर उनका एक तरह से पुनर्संस्कार किया. इसके भी कुछ उदाहरण हैं- गुजराती में ‘मेना गुर्जरी’ (रसिकलाल पारिख), ‘होलिका’ (चन्द्रवदन मेहता) भवई शैली में लिखित और प्रस्तुत नाटक हैं तो मराठी में- ‘सरी ग सरी’ (विजय तेन्डुलकर) और ‘गाढवाची लग्न’ (वसंत सबनीस) मराठी की तमाशा नाट्य शैली में लिखित और प्रस्तुत नाटक हैं. इसी तरह हिन्दी में ‘डाकू’ (मुद्रा राक्षस) नौटंकी शैली में लिखित और प्रस्तुत नाटक है, तो कन्नड में ‘सीरीसम्पिगे’ (चन्द्रशेखर कंबार) यक्षगान शैली का नाटक है.

कहने का आशय यह है कि जब रंगकर्म को भारतीय परिवेश में स्थित कर नई रंगदृष्टि की खोज का प्रयत्न हुआ, तो उसके लिए प्रयोग के तौर पर इस तरह के अनेक नाटक लिखे गये जो पारंपरिक नाट्य शैलियों पर निबद्ध थे और उनमें भारतीय नाट्य सूत्र के बीज मौजूद थे. बाद के दौर में भी ऐसी कोशिश की गई कि भारतीय नाट्य को अपनी परम्परा से आवश्यक सूत्र लेकर विकसित किया जाय जिससे औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति पा सकने की संभावना बने. लेकिन बदले हुए समय और निरंतर दुनिया के सिमटते जाते समय में यह भी संभव न था कि पश्चिम की उपेक्षा की जाये और उनकी रंगदृष्टि को सर्वथा नकारकर रहा जाये. यही कारण है कि पश्चिमी नाटकों के अनुवाद और रूपांतरण में कभी कोई संकोच नहीं किया गया और न ही उनको प्रस्तुत करने में कोई झिझक महसूस की गई. इन प्रस्तुतियों को भारतीय पारंपरिक रंगदृष्टि के साथ समन्वित कर इस तरह खेला गया कि अंग्रेजी नाटक भी विशुद्ध भारतीय नाटकों जैसे भावबोध दे सके. इन्हें केवल हिन्दी में नहीं, वरन् सभी महत्वपूर्ण भाषाओं में रूपांतरित कर खेला गया.

कुछ उदाहरण लें तो हिन्दी में शेक्सपियर का ‘बरनम वन’ (मैकबेथ) निर्देशक- ब.व. कारंत, गोगोल का ‘आला अफसर (इंस्पेक्टर जनरल), निर्देशक- बंसी कौल, ‘लाला हकीकत राय’ (बुर्जुआ जेन्टलमैन), निर्देशक- हबीब तनवीर, पंजाबी में- लोर्का का ‘येर्मा’, निर्देशक- नीलम मान सिंह के अतिरिक्त बर्तोल्त ब्रैख्त के अनेक नाटक हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बुंदेलखंडी, बांग्ला आदि में सफलतापूर्वक खेले गए हैं. यह नाटक हैं- ‘कॉकेशियन चाक सर्किल’ और ‘थ्री पैनी ऑपेरा’. इन्हें अलग-अलग नामों से मराठी में विजया मेहता, हिन्दी में फ्रिट्ज बेनेविट्ज, पंजाबी में एम.के. रैना, कविता नागपाल, बांग्ला में अजितेश बैनर्जी, मराठी में जज्बार पटेल आदि निर्देशकों ने प्रस्तुत किया और प्रभावकारी प्रदर्शन संभव किया.

इसके अलावा मणिपुरी में रतन थियम के ‘चक्रव्यूह’, कन्नड़ में एच.एस. शिवप्रकाश के ‘महाचैत्र’, हिन्दी में शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’, संस्कृत में भास के ‘मध्यम व्यायोग’, ‘कर्णभारम्’ कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’, महेन्द्र विक्रम के ‘मत्तविलास’ आदि नाटकों को क्रमशः रतन थियम, इकबाल, हबीब तनवीर, कावालम नारायण पणिक्कर ने जिस कुशलता और कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया, उससे भारतीय रंगकर्म को पुनर्प्रतिष्ठित करने में बहुत सहायता मिली और रंगकर्मियों को अहसास हुआ कि अपने पारम्परिक नाट्य सूत्रों को आधुनिक रूप देकर निश्चय ही वह रंगदृष्टि पाई जा सकती है जिसकी आवश्यकता है. इसी को ध्यान में रखकर पिछले वर्षों में राजस्थान नाट्यरूप गवरी, उत्तर प्रदेश की नौटंकी, गुजरात की भवई, महाराष्ट्र की तमाशा तथा बंगाल की जात्रा आदि पारंपरिक नाट्य शैलियों में अनेक नाटक मंचित हुए और उन्हें व्यापक जन-समर्थन भी मिला.

इस तरह पूरे देश में एक समय ऐसा लगने लगा कि भारतीय रंगकर्म अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पाने की तरफ बढ़ते हुए एक नये रंग-मानक को प्रतिष्ठित करने में प्रयत्नशील है. हबीब तनवीर के रंग-प्रयोग, इब्राहिम अल्काज़ी के कल्पनाशील नाट्य निर्देशन, ब.व. कारंत, सत्यदेव दुबे, श्यामानन्द जालान, राजिन्दरनाथ प्रभृति निर्देशकों की सूझ-बूझ और गंभीर सर्जनात्मक दृष्टि सम्पन्नता ने हिन्दी रंगमंच को निश्चय ही एक दिशा दी, तो रतन थियम, कावालम नारायण पणिक्कर ने क्रमशः मणिपुरी और संस्कृत रंग-प्रयोगों और प्रस्तुतियों के माध्यम से जिस रंगदृष्टि को प्रसारित किया, वह भारतीय रंगकर्म के भविष्य का मार्ग सुनिश्चित करने वाला था. बांग्ला, कन्नड़, मलयालम, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं में रंगकर्म ने इस बीच जहाँ लोकप्रियता और स्वीकृति की नई मुंजिलें तय कीं और अपने दर्शक समाज को जोड़े रखने में सफलता पाई, वहीं हिन्दी के विशाल क्षेत्र में बड़े और युगांतकारी रंग-निर्देशकों के न रहने के बाद आसान रास्तों की तलाश शुरू हो गई.

बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में हिन्दी को जहाँ अपनी उसी परम्परा को कायम रखते हुए आगे बढ़ना था, वहाँ उसने सहज मार्ग अपनाते हुए भारतीय भाषाओं के नाटकों के रूपांतरण और विदेशी नाटकों के अनुवाद पर ही अपना विशेष ध्यान केन्द्रित किया. हिन्दी के वे नाटक ही तब मंच पर आ सके जो पूर्व में सफलतापूर्वक मंचित हुए थे. इससे स्वाधीनता के बाद लगभग पचास-साठ वर्षों की गौरवशाली यात्रा से पाई गई दृष्टि कुछ क्षरित हुई और रंगकर्म एक बार फिर पिष्टपेषण का शिकार हुआ. लेकिन उसमें बदलाव भी अधिक शीघ्रता से लक्षित किया गया.

यद्यपि कि भारतीय रंगकर्म में हिन्दी रंगमंच की स्थिति दूसरी भारतीय भाषाओं से इस स्तर पर भिन्न है कि वह अनेक राज्यों और विभिन्न रुचियों-संस्कारों में विभाजित है, पर उसमें प्रयोग और सर्जनात्मक खोज की संभावनाएँ अधिक हैं. इन्हीं संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए हिन्दी रंगकर्म जहाँ पश्चिमी रंगमंच के सृजनशील तत्वों का उपयोग कर रहा है, वहीं पारंपरिक नाट्य शैलियों का नवाचार कर उसमें भारतीय रंगदृष्टि को पाने की चेष्टा कर रहा है. इस चेष्टा में ही अनेक निर्देशकों ने उन प्रश्नों से मुठभेड़ करने की कोशिश की थी जो हिन्दी रंगकर्म के भविष्य से जुड़े हुए थे. यह प्रश्न केवल हिन्दी रंगकर्म का प्रश्न नहीं था, वरन् पूरे भारतीय रंगकर्म के लिए था जब भूमंडलीकरण और बाजारवाद का दबाव आया और सूचना के नये माध्यमों ने सभी कलाओं सहित नाटक-रंगमंच के भविष्य के प्रति हमें शंकालु बनाया.

अब जबकि सभी भाषाओं में रंगकर्म के भविष्य को लेकर चलनेवाली चिन्ताएँ स्थगित सी हो गई हैं और हमने मान लिया है कि रंगमंच का विकल्प कोई नहीं, सिर्फ रंगमंच ही है, तो भी इस आश्वस्ति के बावजूद हमारी कोशिश यह रहनी चाहिए कि हम पश्चिम की रंग-पद्धति का, उनके अनुवाद का कम से कम उपयोग करें और अपने भाषाई-रंगमंच को मौलिक नाटकों के साथ पारंपरिक नाट्य शैलियों का समन्वय कर एक ऐसा रंगकर्म विकसित करें जो हमारी जनता के जीवन और उसकी आकांक्षाओं से जुड़ सके. हजारे वर्षों की हमारी समृद्ध रंग-परंपरा तभी सही अर्थों में अपना समग्र स्वरूप पा सकेगी.

सन्दर्भ:

  1. ‘भारतीय नाट्य परम्परा और आधुनिकता’ भारत रत्न भार्गव, नयी किताब प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 43
  2. वही, पृ. 43-44
  3. ‘नाटक’ – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, भारतेन्दु समग्र, (रचनाकाल-1883), प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, पृ. 556
  4. वही, पृ. 565
  5. ‘बंग दर्शन’ (रचनाकाल-1903)
  6. ‘अभिषेक’ – जयशंकर प्रसाद, पृ. 25
  7. ‘रंग परम्परा’, पृ. 65
  8. ‘रंग परम्परा’, पृ. 67
ज्योतिष जोशी साहित्य, कला और नाटक -रंगमंच की आलोचना में सुपरिचित नाम हैं. इनकी अनेक मौलिक तथा सम्पादित पुस्तकें हैं तथा इन्हें बड़ी संख्या में पुरस्कार-सम्मान भी मिले हैं.
वर्तमान में ये नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं.

4/37,एम.आई.जी.फ्लैट (दूसरी मंजिल) सेक्टर-15, रोहिणी, दिल्ली-110089
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Tags: 20222022 नाटकज्योतिष जोशीरंगमंच
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Comments 6

  1. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    3 years ago

    एक बार में ही पूरा पढ़ गया| बहुत अच्छा लिखा है| उम्मीद है यह विमर्श रंगकर्म को आगे बढ़ाने में मदद करेगा|

    Reply
  2. विनोद दास says:
    3 years ago

    पारसी थियेटर के मामले में असहमति है।

    Reply
  3. अरुण कमल says:
    3 years ago

    अद्भुत व्याख्यान ।ज्योतिष हमारे एक सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क हैं।अभिनंदन

    Reply
  4. उमा says:
    3 years ago

    पूरा आलेख पढ़ा। अब अगर कल उषा दी की स्मृति में हुए व्याख्यान में इसी आलेख की प्रस्तुति हुई है तो इस पूरे आलेख में उषा दी का ज़िक्र भी नहीं है… जबकि श्यामनन्द जालान का रंग-निर्देशकों में दो बार मात्र नाम का उल्लेख है। भारतीय रंगमंच का अध्ययन बंगाल के हिन्दी रंगमंच के बिना अधूरा है और बंगाल के हिन्दी रंगमंच के अध्ययन मे पंडित माधव शुक्ल, भोलानाथ बर्मन, भंवरमल सिंघी, श्यामानंद जालान, विमल लाठ, सुशीला भंडारी, सुशीला सिंघी, प्रतिभा अग्रवाल, उषा गांगुली आदि के अवदानों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
    खैर, मेरी समझ की सीमा हो सकती है.।

    Reply
  5. वंशी माहेश्वरी says:
    3 years ago

    रंगकर्म का संकट और आधुनिक रंगमंच: ज्योतिष जोशी का यह व्याख्यान रंगकर्म,
    , रंगमंच के विस्तृत परिचय, जानकारी के साथ -साथ गहरी वैचारिक दृष्टि से अवगत करता है.
    रंगमंच की शुरुआत से आज के रंगमंच की प्रासंगिकता को कई संदर्भों, प्रसंगों की बारीकियों के साथ प्रस्तुत करता है .

    पारसी , ईस्ट इंडिया कंपनी से चलती हिन्दी नवजागरण के भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर नैमिचन्द जैन ( नटरंग) , के योगदान की परम्परा पृथ्वी थियेटर और शम्भु मित्र से लेकर पणिक्कर, रतन थियम जैसे कई प्रतिष्ठित नामों के उल्लेखनीय अवदानों से रंगमंच में आये सकारात्मक परिवर्तनों को निर्दिष्ट कर हमसे रु-ब-रु कराते रंगमंच के भूले-बिसरे रंगों के साथ कई रंगों से मेल-जोल कराते चलते हैं उनकी ये रंगमंचीं यात्रा अनेक पर्दों को गिराती, उठाती,खोलती , समृद्ध करती चलती है.

    विश्व के रंगमंच और नाटकों की और उनके अनुवादों को लेकर मंचीय प्रस्तुतियाँ के उल्लेख
    तो देते हैं साथ ही उनके प्रभावों को भी रेखांकित करते हैं. उनकी प्रतिच्छायाएँ और मुक्ति को भी कुशलता पूर्वक मूल्यांकन करते हैं.

    जोशीजी ने कई उदाहरणों से भारतीय रंगमंच को लेकर अपने विचार प्रतिपादित किये हैं. ये व्याख्यान रंगमंच को जानने-पहचानने,समझने की कौतुकी को जागता हुआ अपनी सर्वथा अलग पहचान को भी निरूपित करता है.
    इस व्याख्यान को समालोचन के माध्यम से हम तक पहुँचाने के लिये अरुण जी को धन्यवाद व ज्योतिष जी के प्रति आभार.
    वंशी माहेश्वरी.

    Reply
  6. दयाशंकर शरण says:
    3 years ago

    हिन्दी रंगमंच के विकास में रामलीला एवं रासलीला का मौलिक योगदान रहा है। अपने यहाँ संस्कृत रंगमंच के अवसान के बाद भी लोक रंगमंचों की परंपरा अत्यंत स्मृद्ध रही।सुदूर ग्रामीण अंचलों में नाच एवं नौटंकी की परंपरा लोक नाट्य के ही रूपांतर हैं। हमारे भोजपुरी अंचल में कभी अत्यंत लोकप्रिय भिखारी ठाकुर का नाच अब एक किंवदंती है।इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए ज्योतिष जी को साधुवाद !

    Reply

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