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Home » वीरेन्द्र नारायण: एक रंगकर्मी का सफर: विमल कुमार

वीरेन्द्र नारायण: एक रंगकर्मी का सफर: विमल कुमार

स्वतंत्रता सेनानी और रंगकर्मी वीरेंद्र नारायण की जन्मशती का आरम्भ 16 नवम्बर से हो रहा है. इस अवसर पर देशभर में वर्ष भर वीरेंद्र नारायण से सम्बन्धित आयोजन होंगे. उनके महत्व पर यह आलेख विमल कुमार ने लिखा है. इस आलेख को पढ़ते हुए हिंदी साहित्य और रंगमंच की आरम्भिक सक्रियताओं से भी हमारा परिचय होता है.

by arun dev
November 15, 2023
in आलेख
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वीरेन्द्र नारायण: एक रंगकर्मी का सफर:  विमल कुमार
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वीरेन्द्र नारायण जन्मशती
एक रंगकर्मी का सफर

विमल कुमार

इस समय हिंदी पट्टी में कई लेखकों  और कलाकारों की जन्मशती मनाई जा रही है. इनमें से कइयों के योगदान के बारे में हम लोग परिचित हैं तो कुछ के अवदान के बारे में हम अपरिचित हैं और  हिंदी पट्टी में अमूमन उनकी चर्चा नहीं होती  लेकिन  जन्मशती वर्ष  हमें यह अवसर देता है कि लेखक का मूल्यांकन हो अगर उसका मूल्यांकन न हुआ हो और अगर जीते जी उसका मूल्यांकन हुआ हो तो फिर   उसका  पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए लेकिन हिंदी की दुनिया में कई लेखकों की जन्मशती अनदेखी  ही चली जाती है. छह साल पहले जब प्रख्यात नाटककार एवम् आज़ाद भारत के  पहले  संस्कृतिकर्मी  जगदीशचन्द्र माथुर की जन्मशती पड़ी थी तो हिंदी की दुनिया में एक  चुप्पी देखी गयी. एक पत्रिका के अपवाद को छोड़कर कहीं उन पर लेख आदि भी नहीं  आये. दरअसल हम लोग  आम तौर पर  भूले बिसरे लेखकों  की जन्मशतियाँ  नहीं मनाते क्योंकि अक्सर ऐसे लेखकों  के पीछे लेखक संगठन या लेखकों  का कोई समुदाय या गुट  का  साथ नहीं होता.

प्रसिद्ध लेखक रांगेय  राघव का  हिंदी साहित्य में कम योगदान नहीं है जबकि वे मात्र 39 साल में हमसे विदा हो  गए लेकिन परसाई की तरह उनके पीछे एक लेखक संगठन नहीं है, कोई बड़ा आलोचक या गुट नहीं है.

इस वर्ष  एक अक्तूबर को हबीब साहब की जन्मशती शुरू हुई तो देश भर में कई कार्यक्रम हुए लेकिन जब 18 सितम्बर को रेखा जैन के सौ वर्ष पूरे हुए तो उन्हें याद करने का कोई उपक्रम नहीं हुआ. क्या इसलिए कि वह बाल रंगमंच से जुड़ी थीं और बाल रंगमंच बाल साहित्य की तरह दोयम दर्जे का काम माना जाता है? ऐसे में समाजवादी रंगकर्मी वीरेंद्रनारायण को भला  कौन याद करे क्योंकि  वे तो किसी गुट में नहीं थे और किसी वाद के तहत अपना काम भी नहीं किया. वह कहते भी थे कि उन्होंने किसी वाद के तहत नहीं लिखा और न किसी गुट में रहे. वैसे, उनके समस्त योगदन से  अधिकतर हिंदी समाज अभी तक अनभिज्ञ है जबकि पांच खंडों में उनकी रचनावली निकल चुकी  है जिसका संपादन मंगलमूर्ति जी ने किया है. रंगकर्म और रंग-आलोचना में कई प्रयोगों के आरम्भ करने का श्रेय उन्हें जाता है.

उन्होंने इतनी विधाओं में काम किया जितना हिंदी पट्टी में किसी रंगकर्मी ने नहीं किया- अभिनय, निर्देशन, नाट्य लेखन, नाट्य-आलोचना, नाट्य अनुवाद आदि. रंगकर्म का  कौन ऐसा काम है जो उन्होंने न किया हो. एक जमाने में उनके नाटकों के सैकड़ों शो हुए, दक्षिण भारत में भी.

वे देश में  लाइट एंड साउंड के सूत्रधार रहे, आज़ादी की लड़ाई में 3 साल जेल रहे. पर वे आज अधिकतर  लोगों के लिये अपरिचित हैं.

आज से छह साल पहले प्रख्यात नाटककार एवम् संस्कृतिकर्मी जगदीश चन्द्र माथुर की जन्मशती पड़ी तो हिंदी साहित्य में उनको लेकर  भी कोई उत्साह नहीं देखा गया. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने उन्हें याद तक नहीं किया जबकि वे उसके संस्थापकों में से एक रहे, उसकी कार्यकारिणी बोर्ड के अध्यक्ष रहे. ऐसे में वीरेंद्र नारायण जैसे लोगों  को भुला  देना स्वाभाविक ही है. वे माथुर साहब के समकालीन  ही नहीं बल्कि उनके  आत्मीय मित्र भी थे और माथुर साहब ने ही उन्हें नौकरी दिलवाई थी.

हिंदी साहित्य में शायद ही कोई ऐसा रंगकर्मी  हुआ हो  जिसने  आज़ादी  की लड़ाई में जेल में समय गुज़ारा हो   लेकिन बिहार के वीरेंद्र नारायण ऐसी ही बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे. उन्होंने उपन्यास और कहानियाँ  तथा कविताएँ भी लिखीं और जीवन भर  सितार वादक रहे. वे एक संपूर्ण कलाकार थे.

भागलपुर में 16 नवम्बर 1923 को जन्मे वीरेंद्र नारायण  मोहन राकेश से उम्र में  दो साल बड़े थे तो इब्राहिम अलका जी से एक साल. हबीब तनवीर उनसे मात्र दो माह ही बड़े थे. उस ज़माने में यही तीनों विदेश से नाटक का प्रशिक्षण लेकर आये थे.

आज़ादी के बाद हिंदी में जो रंगकर्मी और नाटककार सामने आए उनमें वह प्रमुख थे. जगदीश चन्द्र माथुर का नाटक ‘कोणार्क’ 1951 में छपा था जबकि मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’ 1958 में जबकि वीरेंद्रजी का पहला महत्वपूर्ण नाटक ‘सूरदास’ अपने समय की श्रेष्ठ पत्रिका ‘ कल्पना’   में 1960 में छपा था पर वह बाद में पुस्तकाकार नहीं आया.

वीरेंद्र जी ने 1943 में भागलपुर जेल में पहला नाटक लिखा था जो जेल में ही  कैदियों द्वारा खेला भी गया था. गौरतलब है कि उनके गुरु रामबृक्ष बेनीपुरी ने भी जेल में अपने नाटक लिखे थे.

1952 में वीरेन्द्र जी शरतचंद्र पर नाटक लिखा था पर उसे भी नहीं छपवाया. तब शरतचन्द्र पर ‘आवारा मसीहा’ जैसी कोई किताब नहीं आयी थी लेकिन वीरेंद्र जी ने उस ज़माने में नाटक लिखा जब उनके जीवन के बारे में आम लोगों  को कम जानकारी थी. भागलपुरी होने के नाते उनको शरतचन्द्र के जीवन के बारे में अधिक जानकारी थी क्योंकि भागलपुर शरतचन्द्र का ननिहाल था.

विष्णु प्रभाकर से  वीरेंद्र जी की मित्रता की एक कड़ी शरत बाबू भी थे. विष्णु प्रभाकर ने 1980 में आवारा मसीहा किताब लिखी थी लेकिन वीरेन्द्र जी ने उससे 30 साल पहले शरतचन्द्र के जीवन का गहरा अध्ययन कर नाटक लिख दिया था.

वीरेंद्र नारायण को बचपन में पारसी थिएटर देखने से नाटकों में दिलचस्पी जगी थी लेकिन वे उसके आलोचक भी थे पर बंगला के प्रख्यात रंगकर्मी शिशिर भादुड़ी ने उनको रंगकर्म के प्रेरित किया लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन ने उन्हें देश को मुक्त कराने के लिए 42 की क्रांति में झोंक दिया. वे 19 वर्ष  की उम्र में  स्वतंत्रता सेनानी बने, समाजवादी  बने और जे पी के अनुयायी भी.

उन दिनों राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदी के कई लेखक जेल गए थे. वे सब गांधी जी से प्रभावित थे और उनके नेतृत्व  में जेल भी गए. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, शिवरानी देवी, राहुल सांकृत्यायन, उग्र,  रामबृक्ष बेनीपुरी, केदारनाथ मिश्र प्रभात, सुभद्रा कुमारी चौहान और फणीश्वर नाथ रेणु, बनारसी प्रसाद आदि की तरह ही  वीरेंद्र नारायण भी जेल गए थे. उस समय उनके ही वार्ड में रेणु के अलावा बंगाल के प्रख्यात लेखक सतीनाथ भादुड़ी  भी थे. रेणु  जी तो एक  साल के बाद बीमारी के कारण जेल से रिहा हो गए और सतीनाथ  भादुड़ी दो साल के बाद जेल से रिहा हुए. लेकिन वीरेंद्र जी तीन साल के बाद जेल से छूटकर आए थे.

रेणु ने मैला आँचल की पांडुलिपि वीरेंद्र जी को पढ़ने को दी थी और वीरेंद्र जी रेणु को साइकिल पर बिठाकर गर्मी के दिनों में प्रकाशकों के पास चक्कर लगाए थे, तब कोई प्रकाशक छपाने को तैयार नहीं हुआ. यह सब वीरेंद्र जी ने लिखा है. वीरेंद्र जी सोशलिस्ट पार्टी में  शामिल हो गए थे और जयप्रकाश नारायण के अखबार ‘जनता’ में काम करने लगे जिसमें उनके गुरु  हिंदी के प्रख्यात समाजवादी लेखक और पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी संपादक थे.

वीरेंद्र जी की पत्नी ने एक संस्मरण में  लिखा है कि जयप्रकाश नारायण और बेनीपुरी जी  मेरे पति को  अपने बेटे के समान मानते थे. बेनीपुरी जी ने ही  उनकी शादी  1948 में करवाई थी. उनकी पत्नी हिंदी नवजागरण के अग्रदूत  शिवपूजन सहाय की बड़ी पुत्री थीं और शादी से पहले वह गांव में ही रहती थीं.

एक बार जब शिवपूजनवसहय ने बेनीपुरी जी से अपनी  बेटी की शादी के लिए योग्य वर  सुझाने  की बात की तो बेनीपुरी जी ने कहा- लड़का तो हम लोग के आस-पास  ही  है. अरे वह अपना वीरेंद्र नारायण है  न? उनके प्रस्ताव पर वीरेंद्र जी मान गए  और सादे ढंग से शादी की.

बेनीपुरी जी ने लिखा है कि उन्होंने यह शादी करवाकर  एक तरह से अपनी गुरु दक्षिणा शिवजी को दी थी क्योंकि बेनीपुरी जी  उनका  बड़ा सम्मान करते थे और उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे.

वीरेंद्र जी समाजवादी विचारों के युवक थे. बेनीपुरी जी और जे. पी. के सोहबत में उनके व्यक्तित्व का विकास हुआ. जब जे पी ने ‘जनता’ अखबार निकाला तो वीरेंद्र जी उसके सहायक संपादक बनाये गए. तब उन्हें 150 रुपये मिलते थे. दरअसल शादी के बाद कुछ दिन भागलपुर में रहने के बाद वीरेंद्र जी पटना चले आये और साहित्य तथा पत्रकारिता से जुड़ गए.

‘जनता’ के बाद  वे 1950 में ‘नई धारा’ में बेनीपुरी जी के साथ काम करने लगे. वह पत्रिका प्रेमचन्दयुगीन लेखक राजाराधिकारण प्रसाद सिंह की थी. राजा जी का शिवपूजन जी बेनीपुरी जी दिनकर जी आदि से रोज का सम्बंध था. उन्हें लिखने की प्रेरणा इन लेखकों से मिली. वीरेंद्र जी को नाटकों से शौक था. उन्होंने 1954 में पटना में ही  बेनीपुर जी के प्रसिद्ध नाटक ‘अम्बपाली’ में अरुण ध्वज का  मुख्य अभिनय  किया था.

दिल्ली के आल इंडिया ड्रामा फेस्टिवल में जब यह नाटक आया था तो उसे प्रथम पुरस्कार मिला था और उसे नाटक को देखने राष्ट्रपति राजेन्द्र  प्रसाद भी आए थे. राजेन्द्र बाबू  का शिवपूजन सहाय, राजा जी और बेनीपुरी जी से  बड़ा ही आत्मीय संबंध था.

पत्नी श्रीमती सरोजनी नारायण के साथ. यह फोटो मंगलमूर्ति जी द्वारा ली गयी है.

‘नई धारा’ की नौकरी छोड़ वीरेंद्र नारायण  लंदन चले गए. उन्हें ड्रामा में अभिनय करने का बहुत शौक था. उन्होंने ब्रिटिश रंगमंच के प्रथम अभिनेता सर  लॉरेंस ओलिवर से पत्राचार किया और उसके बाद वहाँ लंदन में ‘ड्रामेटिक अकेडमी ऑफ आर्ट एंड म्यूज़िक’ में दाखिला लिया. वे पहले भारतीय  रंगकर्मी थे जिसने इसमें दाखिला लिया. तब वीरेंद्र नारायण  किसी फ़ेलोशिप के तहत नहीं गए थे इसलिए वहाँ अपना खर्च जुटाने के लिए उन्होंने रेस्तराँ में  बैरे का भी काम किया. जे पी भी जब अमरीका गये थे तो बैरे  का काम किया था. लंदन में प्रशिक्षण के दौरान  कई नाटकों में उन्होंने अभिनय किया था.

वीरेंद्र जी पत्नी ने एक संस्मरण में लिखा है-

‘मेरे ससुर और बड़े ससुर वकालत करते थे और बड़े ससुर का तो भागलपुर में बड़ा नाम था घर की आर्थिक स्थिति भी उस जमाने के हिसाब से ठीक ही थी और हम लोगों का रहन-सहन एकदम साधारण लेकिन खुशहाल था. लगभग साल  ड़ेढ़ साल के बाद मैं पटना आ गयी जहाँ ये सोशलिस्ट पार्टी के अखबार जनता में सहायक संपादक थे. लंगरटोली मुहल्ले के बिहारी साव लेन के एक मकान में जिसका किराया 30 रु था, उस वक्त  ‘जनता’ में  125 रु. तनख्वाह मिलती थी. मुश्किल तो होती थी लेकिन कम में भी संतुष्ट रहना मैंने बाबू से ही सीखा था और इनके जैसा सुयोग्य वर पाकर खुश थी. मेरी बड़ी बेटी ममता का जन्म तो भागलपुर में हुआ था लेकिन उसके बाद तीन बेटे विजय-जय और संजय और एक बेटी प्रीति का जन्म वहीं लंगरटोली के उसी मकान में हुआ था. बाद में ये राष्ट्रवाणी अखबार में और फिर बेनीपुरीजी के साथ ही ‘नई धारा’ में काम करने लगे थे. बाबूजी के कारण ही बेनीपुरीजी हमेशा इनको बेटाजी ही कहते थे और साहित्यिक सभी लोग इनको भी बहुत प्यार और इज्जत देते थे. सब लोग बराबर घर पर भी आते रहते थे बेनीपुरीजी तो  हम लोगों को बच्चों के साथ बराबर अपने घर पर खाने पर बुलाते थे और बाबूजी से कम मुझको, इनको या बच्चों को प्यार नहीं करते थे.”

वीरेंद्रजी का जीवन सारे अभावों के बीच भी बहुत सुखमय था. उनका  सारा समय लिखने-पढ़ने, सितार रियाज करने और बच्चों के साथ खेलने-प्यार करने में बीतता था. साहित्य सम्मेलन में कला  केंद्र में रोज शाम को इनका जाना जरूरी था. शिवजी साहित्य सम्मेलन में ही रहते थे. परिषद् कार्यालय भी  वहीं था. यह अपना सितार लेकर श्यामनारायण बाबू की रात भर चलने वाली संगीत की बैठकों में जाया करते थे और देर रात लौटते  थे. उसी बीच जब शिवपूजन जी  को टी.बी. हो गई थी तो उनको जबरदस्ती अपने घर में ले आए थे और उनके दवा इलाज पर मुस्तैदी रखते थे.

बच्चों की वजह से बाबूजी नहीं आना चाहते थे तो इन्होंने बच्चों को कुछ दिनों के लिए भागलपुर भेज दिया था. उसी समय से इनके मन में इंग्लैंड जाकर ड्रामा की ट्रेनिग लेने की धुन सवार हो गई. ‘नई धारा’ से इस्तीफा दे दिया और इंग्लैंड जाने की तैयारी में लग गए इनका इरादा इतना पक्का था कि इन्होंने घर में जो थोड़ा बहुत फर्नीचर था उसको भी बेच दिया, और कुछ पैसा जो इसके लिए बचाते आ रहे थे बस उससे किसी तरह टिकट वगैरह का इंतजाम करके ये चले गए.

वहाँ एक होटल में बैरे  का काम करते हुए किसी तरह वहाँ का अपना खर्च चलाते थे. शिवजी ने बिहार राष्ट्र भाषा परिषद का कुछ काम लंदन में कराकर इनके लिए कुछ पैसों का इंतजाम भी कराया था.

वह अपना सितार  वहाँ भी ले गए थे और वहाँ भी इनका रियाज चलता रहा.

वीरेंद्र जी ने 1954 में ही अपना पहला उपन्यास ‘अमराई की छांव’ में लिखा था जिसकी भूमिका अज्ञेय ने लिखी थी. बच्चन जी ने जब शेक्सपियर के मैकबेथ का अनुवाद किया तो उस नाटक का निर्देशन  वीरेंद्र जी ने  किया. उन्होंने  उस नाटक में तेजी बच्चन को लेडी मैकेबेथ  की भूमिका दी थी.

वीरेंद्र जी चेखव के प्रशंसक थे और चेखव के ‘चेरी के बगीचे’ और ‘तीन बहनों’ का भी हिंदी में अनुवाद किया था. लक्ष्मी नारायण लाल के ‘मिस्टर अभिमन्यु’ का भी निर्देशन किया था जिसमें दिनेश ठाकुर ने काम किया था.

इलाहाबाद में कुंभ में ‘लाइट एंड साउंड’ का कार्यक्रम कर रामचरितमानस तथा तमिल के राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्य भारती भारती पर भी इस तरह का शो किया था जो दक्षिण भारत मे लोकप्रिय हुआ था. कृष्णदेव राय पर भी आंधप्रदेश में कई शो किये. दक्षिण के कई शहरों में उनके सैकड़ों शो हुए.

वीरेंद्र जी ने करीब 20 छोटे बड़े नाटक एकांकी लिखे पर छपने-छपाने को लेकर उनके मन में अरुचि रही इसलिए उनके बहुत सारे नाटक छपे ही नहीं. उनके निधन के बाद जब 5 खंडों में उनकी  रचनावली छपी तब पता चला कि उन्होंने इतना कुछ लिखा था. लेकिन नई पीढ़ी के लोग पुराने लोगों को पढ़ते नहीं. रंगमंच की दुनिया बदल गयी है.

जब  इब्राहम अलकाजी ने  1963 में पुराने किले में  धर्मवीर भारती जी का  नाटक ‘अंधा युग’ किया था तो वीरेंद्र जी ने उसकी सख्त समीक्षा लिखी थी जिससे अलका जी से उनके सम्बंध थोड़े खराब हो गए. वे अलका जी की कारीगरी के मुरीद थे लेकिन उनका मानना था कि कृति  को अधिक उभरना चाहिए.

मैकबेथ के अवसर पर. साथ में हरिवंशराय बच्चन भी हैं.

उन्होंने तेजी बच्चन के साथ काम करते हुए अमिताभ को अभिनय का अवसर नहीं दिया. अमिताभ युवक थे. तेजी जी चाहती थीं कि मैकबेथ नाटक में अमिताभ को भी रोल मिले पर एक निर्देशक के रूप में उन्होंने अमिताभ को रोल नहीं दिया जिससे तेजी नाराज़ भी हो गईं और उन्होंने इसकी शिकायत बच्चन जी से की. बच्चन जी ने तेजी को समझाया और कहा कि इस नाटक का निर्देशक वीरेंद्र कर रहे हैं तो वे ही तय करेंगे कि किसको क्या रोल मिलेगा. अंत में तेजी जी सहमत हो गईं. अमिताभ को मंच पर पर्दा खींचने और गिराने की जिम्मेदारी दी गयी थी.

दफ्तर में उनका एक विवाद हुआ और 1969 उनका तबादला भोपाल कर दिया गया. वीरेंद्र जी जब भोपाल जाने को तैयार नहीं हुए तब उन्हें लंबे अवकाश पर भेज दिया गया. बाद में बीच  बचाव कर सरकार  ने  एक नया पद उपनिदेशक ‘गांधी जन्मशती’ बनाया गया और वे उस आयोजन के प्रभारी बनाये गए. 1969 में उन्होंने ‘बापू के साये में’ नाटक लिखा जो उस साल कई बार खेला गया. वह नाटक सरकार के गांधी जन्मशती समारोह का एक हिस्सा था.

वीरेंद्र जी ने 1960 में नेत्रहीनों पर एक नाटक सूरदास’ भी लिखा था. उस समय कम से कम हिंदी में नेत्रहीनों पर कोई नाटक नहीं लिखा गया था. उनके नाटक ‘कितने चौराहे’ और ‘धर्मशाला’ के भी कई शो उस ज़माने में हुए थे. उन्होंने ‘रंगकर्म’ पर हिंदी में एक किताब लिखी थी, तब तक छात्रों के लिए रंगकर्म  पर कोई किताब नहीं थी. इस किताब को लिखने की प्रेरणा उन्होंने डॉक्टर नगेन्द्र ने दी थी. वह किताब आज भी एक टेक्स्ट बुक की तरह है. नगेन्द्र ने उनसे अंग्रेजी में ‘हिंदी ड्रामा एंड स्टेज’ नामक किताब लिखवाई.

उन्होंने प्रसाद के नाटकों पर हिंदी में उस ज़माने में लिखा जब उनके नाटकों को मंचन के अनुकूल नहीं माना जाता था. उन्होंने शेक्सपीयर, चेखव और इब्सन के नाटकों के साथ प्रसाद के नाटकों की तुलना की. हिंदी में यह उनकी नई स्थापना थी. चेखव के नाटकों पर  हिंदी में पहला लेख  उनका ही होगा. उन्होंने भारतीय रंगमंच का सूत्रपात नाम से  1967 में ‘आलोचना’ में  एक महत्वपूर्ण लेख लिखा तब भारतीय रंगमंच की अवधारणा को लेकर बहस नहीं शुरू हुई थी. उन्होंने अंग्रेजी में भी एक दो नाटक लिखे थे. ‘बापू के साये में’ को अंग्रेजी में अलग से लिखा था.

16 नवम्बर को उनका जन्म हुआ था और उसी तारीख को वह 80 वर्ष की उम्र यह दुनिया छोड़कर चले गए.

अभिनेता, निर्देशक, नाट्य आलोचक, कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, अनुवादक, सितारवादक आदि वह क्या नहीं थे. पर वे पर सांसारिक यश से  दूर रहे जबकि अज्ञेय,विष्णु प्रभाकर, डॉक्टर नगेन्द्र, बच्चन, जगदीश चन्द्र माथुर  सब से उनका आत्मीय परिचय रहा पर वीरेंद्र जी शिवपूजन सहाय की तरह  पर्दे के पीछे रहने वाले व्यक्ति थे.  उन्होंने अपने जीवन काल में नाटकों से दर्शकों के बीच  काफी यश और लोकप्रियता हासिल की थी. आज उनके नाटकों के वीडियो नहीं हैं इसलिए उनके अभिनय और निर्देशन का मूल्यांकन करना मुश्किल है. उनके नाटकों का मूल्यांकन बिना उनके मंचन के किया नहीं जा सकता. उनका मूल्यांकन केवल नाट्य आलोचना में उनके अवदान पर किया जा सकता है क्योंकि उनकी तीन किताबें आज उनकी रचनावली में मौजूद हैं जो  रंगकर्म आलोचना की मौलिक पुस्तकें है. उनका ऐतिहासिक महत्व हमेशा बना रहेगा.

हिंदी के वरिष्ठ कवि  एवं पत्रकार विमल कुमार पिछले चार दशकों से साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं. 9 दिसम्बर 1960 को बिहार के पटना में जन्मे विमल कुमार के पांच कविता-संग्रह, एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और व्यंग्य की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.

9968400416.

Tags: 20232023 नाटकनाटकरंगमंचविमल कुमारवीरेन्द्र नारायण
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Comments 3

  1. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    2 years ago

    वीरेंद्र नारायण के जीवन और साहित्य के बारे में विमल कुमार ही लिख सकते हैं. ऐसे न जाने कितने अनसंग हीरो हैँ जिन पर लोगों की नजर नहीं पड़ी हैँ और जिन्होंने कुछ नहीं किया हैँ वे चमक रहे हैं.

    Reply
  2. Anonymous says:
    2 years ago

    वाह सर बहुत ही रोचक लेख।

    Reply
  3. BSM MURTY says:
    2 years ago

    “वीरेंद्र नारायण ग्रंथावली” के ५ खंडों का संपादन मैंने किया था इसका उल्लेख किया जाना चाहिये था । वे मेरे बड़े बहनोई थे और उनके साथ मैंने १९४८ से जब उनका विवाह मेरी बड़ी दीदी सरोजिनी से हुआ था, तबसे उनकी मृत्यु १६ नवम्बर, २००३ तक के लम्बे अरसे तक बिताये थे । मेरे पास उनके अनेक संस्मरण हैं । ग्रंथावली के ५ खंडों की मेरी लंबी भूमिकाओं में मैंने विस्तार से उनके जीवन और रंगकर्म पर विचार किया है। जन्मशती वर्ष में मैं उनपर अपने संस्मरण विस्तार से लिखने की सोच रहा हूँ। इस लेख में तथ्यों की कुछ भूलें भी आ गई हैं , जैसे उनके विस्मयादिबोधक रूप से सफल नुक्कड़ नाटक का नाम था ‘ चौराहे पर’। विवाह से पहले से वे बिहारी साव लेन में एक सस्ते होटल में रहते थे। उन्होंने ‘LAMDA’ लंदन एकेडमी ऑफ़ म्यूजिक एंड ड्रामेटिक आर्ट्स से डिप्लोमा लिया था । लेख में इसका भी उल्लेख होना चाहिए था कि मेरी दीदी के साथ का उनका यह चित्र मेरा खींच हुआ है। समय पाकर शती वर्ष में मैं एक पूर्णतर संस्मरण लिखूँगा और कुछ और चित्र भी प्रकाशित करूँगा। फिर भी उनकी स्मृति में यस संक्षिप्त परिचयात्मक लेख का स्वागत होना चाहिए।किंतु मेरा अनुरोध है कि मेरे द्वारा संपादित ५ खंडों वाली ग्रंथावली को एक बार ज़रूर देखा जाना चाहिए।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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