पराधीनता का उत्तराधिकार माधव हाड़ा |
उपनिवेशकालीन और आरंभिक भारतीय विद्वता भक्ति और इतिहास की औपनिवेशक ज्ञान मीमांसा के गहरे और वर्चस्वकारी प्रभाव में थी. यह विद्वता यह मानती थी कि भारत में जो भी अच्छा है, वह उसने पहले यूनान और बाद में जब इस्लाम का जन्म हो गया, तो उससे लिया. आज़ादी के बाद देश निर्माण की मुहिम के तहत भारतीय विद्वता पर हिंदू और इस्लाम संस्कृतियों में समन्वय की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के अनुसंधान का दबाव भी बढ़ा और इस कारण कुछ असंभव धारणाओं को भी महत्त्व मिल गया.
पुरातत्त्वविद् आर.जी. भंडारकर की वैष्णविज्म, शैविज्म एंड माइनर रिलीजियस सिस्टम्स’[1] (1913 ई.), हिंदी साहित्य के विद्वान् रामचंद्र शुक्ल की हिंदी साहित्य का इतिहास (1929 ई.) पुरातत्त्वविद् और इतिहासकार ताराचंद की इनफ्लुएंसेज़ ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर[2] (1936 ई.), अर्थशास्त्री और प्रशासक हमायु कबीर ऑवर हेरिटेज[3] (1946 ई.), इतिहासकार किशोरीसरन लाल की हिस्ट्री ऑफ़ ख़लज़ीज़, (1950 ई.) दर्शन और साहित्य के विद्वान् एस. आबिद हुसैन की दी नेशलल कल्चर ऑफ़ इंडिया[4] (1956 ई.) और इतिहासकार कालिकारंजन कानूनगो की स्टीडीज़ इन राजपूत हिस्ट्री, (1960 ई.) की भक्ति-धर्म और इतिहास संबंधी स्थापनाएँ या तो उपनिवेशकालीन ज्ञान मीमांसा से प्रभावित थी या ये हिंदू-मुस्लिम संस्कृति की एकता या निकटता दिखाने के ख़ास और अतिरिक्त उत्साह और आग्रह के साथ लिखी गई थीं. ये अधिकांश धारणाएँ आधारहीन थीं, लेकिन भारतीय धर्म, भक्ति और इतिहास के परवर्ती बौद्धिक और अकादमिक विमर्श में इनको प्रस्थान मान लिया गया.
रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ‘यूरोपीय शैली के प्रतिष्ठित संस्कृत विद्वान्’ थे. उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया और 1868 ई. में एल्फिंस्टन कॉलेज, बॉम्बे में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर और 1882 में डेक्कन कॉलेज, पूना में संस्कृत के प्रोफ़ेसर बने. उन्होंने अपनी किताब वैष्णविज्म, शैविज्म एंड माइनर रिलिजियस सिस्टम्स में पुष्टिमार्गीय भक्ति की ‘प्रपत्ति’ पर ईसाई प्रभाव से होने की संभावना व्यक्त की. यही नहीं, उन्होंने भी ‘कृष्ण’ और ‘क्राइस्ट’ में समानताएँ भी खोज लीं. ताराचंद इनमें सबसे अधिक उत्साही थे. उन्होंने दक्षिण की धर्म और दर्शन संबंधी स्थापनाओं को इस्लाम से प्रभावित मान लिया. उन्होंने साफ़ लिखा कि-
“यह दोहराना आवश्यक है कि भक्ति और दर्शन के दक्षिणी संप्रदायों में अधिकांश तत्त्व, एकांततः, प्राचीन परंपराओं से प्राप्त हुए थे; लेकिन इनमें पूर्णता के तत्त्व और उस पर ख़ास ज़ोर इनके मुस्लिम आस्था के ऐकेश्वरवाद के निकट होने का भ्रम होता हैं और इसलिए इस्लामी प्रभाव के तर्क को संभावना प्रबल लगती है.”[5]
उनका मानना है कि शंकराचार्य के जन्म से पहले केरल में इस्लाम आ चुका और उसके आस्था- विश्वासों का उन पर प्रभाव पड़ा. ताराचंद ने भी दोनों में समानताएँ खोज निकालीं और कहा कि शंकराचार्य के यहाँ ये इस्लाम से आईं. उन्होंने लिखा कि-
“शंकर और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा दक्षिण में विकसित भारतीय प्रणालियों और मुस्लिम धर्मशास्त्र और रहस्यवाद के स्कूलों के बीच आपसी समानताएँ चौंकाने वाली हैं.”[6]
रामचंद्र शुक्ल हिंदी भाषा और साहित्य के आरंभिक विद्वानों में से थे. हिंदी भाषा और साहित्य का आधारभूत ढाँचा उनका खड़ा किया हुआ है. उनकी किताब हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदी भाषा साहित्य की संरचना के गठन का पहला और लगभग मान्य प्रयास था. यह आज भी हिंदी भाषा और साहित्य के अनुशीलन में उपयोगी बना हुआ है. जाने-अनजाने रामचंद्र शुक्ल भी औपनिवेशिक भक्ति ज्ञान मीमांसा से प्रभावित थे. उन्होंने उत्तर भारत 14वीं 15वीं सदी में भक्ति चेतना और उसके साहित्य के व्यापक प्रसार की पूरी अवधारणा की रूपरेखा जार्ज गियर्सन के इतिहास दि मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ़ हिंदूस्तान’(1889 ई.) से लगभग उधार ली. उन्होंने इस व्यापक सक्रियता की आकस्मिकता, मतलब ‘अंधेरे में बिजली की चमक’ लिए ‘आंदोलन’ या ‘क्रांति’ शब्द भी उन्हीं से लिया.
रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास कहीं भी पश्चिमी ज्ञान मीमांसा में भक्ति चेतना पर ईसाई प्रभाव की लगभग मान्य धारणा का उल्लेख नहीं किया, लेकिन ख़ास बात यह है कि उन्होंने इसका कोई प्रतिवाद भी नहीं किया. आबिद हुसैन ने ताराचंद की स्थापनाओं के साथ उत्साह और आग्रह के साथ अपनी सहमति व्यक्त की. रामधारी सिंह दिनकर सही लिखा है कि-
“इस पुस्तक के लेखक का ध्येय शायद यह था कि इस्लाम के प्रभाव को खूब चमकाकर दिखाए, इसलिए उसने जोश में लिख दिया कि भारतीय जीवन के प्रत्येक रंग पर मुस्लिम संस्कृति का सीधा और गहरा प्रभाव पड़ा.”
आबिद हुसैन ने भी लिखा कि-
“शंकराचार्य द्वारा सिखाया गया अद्वैत मार्ग तथा अलवार कवियों द्वार प्रवर्तित भक्ति मार्ग भारत के धार्मिक इतिहास में, नये आंदोलन प्रतीत होते हें. जब हम इन आंदोलनों की उत्पत्ति के मूल पर विचार करते हैं, तो हम पाते हें कि ये आंदोलन प्राचीन धार्मिक विचारों पर आधारित थे, जिनके पुनरुत्थान में बदलती हुई सामाजिक, राजनैतिक स्थितियों ने सहायता की. यह पुनरुत्थान इस विशेष समय में, दक्षिण भारत में क्यों हुआ, इसे समझाने के लिये, इस प्राक्कल्पना को स्वीकार करना पड़ेगा कि कुछ अंशों में यह विदेशी संस्कृति के प्रभाव के कारण था. कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह विदेशी प्रभाव नेस्टोरियन क्रिश्चियन धर्म का था, जो एक लंबे समय से दक्षिण भारत में फैल गया था.”[7]
ताराचंद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता और भारतीय और इतिहास और संस्कृति के विशेषज्ञ थे. उन्होंने ने दक्षिण भारतीय वैष्णव भक्ति आचार्यों- विष्णु स्वामी, निबार्काचार्य, रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य की भक्ति संबंधी धारणाओं की इस्लाम से प्रेरित सिद्ध किया है. उन्होंने लिखा है कि–
“उनके (शंकराचार्य) उत्तराधिकारी रामानुज, विष्णुस्वामी, माधव और निम्बार्क और भजन निर्माता अपनी कल्पनाओं में और धार्मिक स्वर और इस्लाम में घनिष्ठ समानताएँ हैं.”[8]
हमायुँ कबीर की धारणाएँ भी कमोबेश वही हैं, जो ताराचंद की हैं. हमायुँ कबीर ने भी संभावना व्यक्त की शंकराचार्य का ऐकेश्वरवाद और रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य और वल्ल्भाचार्य की वैष्णव साकारोपासना इस्लाम से प्रेरित है. उनका तर्क यह है कि ये सभी आचार्य दक्षिण में ही हुए, जहाँ सातवीं सदी में इस्लाम आ चुका था. उन्होंने लिखा कि –
“मानसिक प्रभाव के क्षेत्र में पारस्परिकता एक तरह विधान है. भारतीय चिंतन के तौर-तरीके सूफ़ीवाद से प्रभावित थे और हिंदू धार्मिक दृष्टिकोण पर इसका दूरगामी प्रभाव था. कुछ लोगों को बाहरी लोगों पर संदेह है. शंकर के वेदांत पर प्रभाव अभी भी है. यह मानने का कारण कि यह है कि विचार के प्रचलित तरीकों पर इस्लाम के पहले इतिहास की ज्ञात शुरुआत से सभी नई हलचलें हिन्दू विचार, भारतीय धर्म में सभी नवप्रवर्तन एवं दर्शनशास्त्र की उत्पत्ति उत्तरी भारत में हुई थी. अचानक आठवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. भारतीय चिंतन का नेतृत्व और जीवन दक्षिण की ओर स्थानांतरित हो जाता है, शंकर और रामानुज, निम्बादित्य और वल्लभाचार्य सभी दक्षिणी भारत के मनीषी हैं.”[9]
आरंभिक अधिकांश भारतीय इतिहासकार भी औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा के गहरे प्रभाव में थे. उन्होंने ‘हिस्ट्री’ की कसौटी पर खरा नहीं उतरने के कारण अधिकांश मध्यकालीन ऐतिहासिक रचनाओं को इतिहास के दायरे से बाहर कर दिया. उपनिवेशकाल विद्वता का प्रभाव इतना व्यापक था कि अपनी ऐतिहासिक परंपराओं से अवगत राजस्थान के कई विद्वान्- मुरारिदान, श्यामलदास, गौरीशंकर ओझा भी रासो रचनाओं को झूठ साबित करने की मुहिम में शामिल हो गए. रत्नसेन-पद्मिनी प्रकरण उपनिवेशकालीन यूरोपीय इतिहासकार वी.ए. स्मिथ की एक पंक्ति की टिप्पणी इतिहास के यूरोपीय संस्कारवाले आधुनिक भारतीय इतिहासकारों के लिए आदर्श और मार्गदर्शक सिद्ध हुई. आरंभ में गौरीशंकर ओझा (1928 ई.)[10] और किशोरीसरन लाल (1950 ई.)[11] ने इस प्रकरण की ऐतिहासिकता पर संदेह व्यक्त किया. बाद में कालिकारंजन कानूनगो (1960 ई.) तो अति उत्साह में इस प्रकरण को सर्वथा मिथ्या और ग़लत सिद्ध करने में प्राणपण से जुट गए. उन्होंने दो तर्क दिए- एक तो समकालीन इस्लामी स्रोतों में इस प्रकरण का उल्लेख नहीं मिलता और दूसरा, कुछ वंश अभिलेखों में रत्नसिंह का नाम ही नहीं है. कुछ हद तक उनकी दोनों बातें सही थीं, लेकिन वे इसके कारणों में नहीं गए. उन्होंने हड़बड़ी में यह निष्कर्ष निकाल लिया कि यह प्रकरण मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा कल्पित है और इसका इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है.[12]
उन्होंने आर.सी. मजूमदार के हवाले से यह कहने में भी देर नहीं की कि जायसी का चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ नहीं है, यह कहीं इलाहाबाद के समीप स्थित चित्रकूट है.[13] उनकी देखा-देखी इस प्रकरण को मिथ्या सिद्ध करने वालों की भीड़ लग गई. बाद में फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर हुए विवाद के दौरान हरबंश मुखिया, हरफ़ान हबीब[14] आदि भी इस मुहिम शामिल हो गए. उनकी राय में यह प्रकरण जायसी (पद्मावत, 1540 ई.) द्वारा कल्पित, इसलिए अनैतिहासिक है. ये अधिकांश इसकी पुष्टि इस तर्क से करते हैं कि समकालीन इस्लामी स्रोतों- अमीर ख़ुसरो कृत ख़जाइन-उल-फ़ुतूह (1311-12 ई.) और दिबलरानी तथा ख़िज़्र ख़ाँ (1318-19 ई.), ज़ियाउद्दीन बरनी कृत तारीख़-ए-फ़िरोजशाही (1357 ई.) तथा अब्दुल मलिक एसामी कृत फ़ुतूह-उस-सलातीन (1350 ई.) में इसका उल्लेख नहीं है. इनके अनुसार जायसी ने इसकी कल्पना की और यहीं से यह परवर्ती और देशज चारण और जैन कथा-काव्यों में पहुँचा. इस मुहिम में शामिल ये विद्वान् इस तथ्य की अनदेखी ही कर गए कि “चुप्पी से बहसियाना तार्किक रूप से भ्रामक होता है और केवल चुप्पी के आधार पर की गई कोई भी परिकल्पना किसी दिन ग़लत भी साबित हो सकती है.”[15] यही हुआ, बाद में यह धारणा ग़लत सिद्ध हो गई. पद्मावत (1540 ई.) से पहले छिताईचरित्र (1475-1480 ई.) में पद्मिनी-रत्नसेन का कथा बीजक मिल गया.[16]
इसी तरह पद्मावत को बिना पढ़े-समझे उसके कथानक को उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद से जोड़ने का कानूनगो का उद्यम भी असफल हो गया. दरअसल पद्मावत में अलाउद्दीन के अभियान में मार्गस्थ क़स्बों- मांडलगढ़ आदि और चित्तौड़ के दुर्ग और उसके समीस्थ स्थानों के भूगोल का वर्णन मिलता है, जो यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि पद्मावत में वर्णित चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ ही है.[17] बाद में मुनि जिनविजय[18], दशरथ शर्मा[19] आदि क्षेत्रीय इतिहासकारों ने रत्नसिंह की प्रामाणिकता भी सिद्ध कर दी. उससे संबंधित एकाधिक पुरातात्त्विक साक्ष्य भी मिल गए.[20] यही नहीं, कतिपय समकालीन स्रोतों के आधार पर अगरचंद नाहटा ने राघवचेतन की ऐतिहासिकता भी प्रमाणित कर दी.[21]
कालिकारंजन कानूनगो की स्थापनाओं में से अधिकांश प्रमाण सहित बहुत पहले ही ग़लत साबित हो गईं, लेकिन यह साबित करने वाले इतिहासकारों की सीमा यह थी कि ये ‘क्षेत्रीय’ कहे-माने जाते थे. क्या किसी एक रचना या दस्तावेज़ में जो नहीं है या उसका रचनाकार जिसके संबंध में मौन है, उसको महज़ इस आधार पर ‘नहीं है’ कहा जा सकता है? क्या इस तरह का निष्कर्ष तर्कसंगत है? जो एक जगह नहीं है, तो फिर किसी और जगह भी नहीं होगा- यह केवल संभावना या परिकल्पना है और संभावना और परिकल्पना पर निर्भरता तो ‘आधुनिक’ इतिहास की अभिलक्षणाओं में नहीं आती. विडंबना यह है कि जिस तर्क से कानूनगो पद्मिनी कथा को ‘मिथ’ या ‘कल्पित’ कहकर ख़ारिज करते हैं, उसी तर्क से वे पद्मिनी के संबंध में ‘नहीं है’ का निष्कर्ष निकाल लेते हैं.
पद्मिनी देशज कथा-काव्यों में है, वंश-प्रशस्ति प्रधान संस्कृत रचनाओं में है और सदियों से लोक स्मृति और स्मारकों में है, लेकिन उनके हिसाब से कोई एक इस संबंध में मौन है, इसलिए वह दूसरी जगह भी कैसे हो सकती है? दशरथ शर्मा की बात उस समय नहीं सुनी गई, लेकिन जो उन्होंने कहा उसमें में वे यही तो कहना चाहते थे कि अगर वह वहाँ नहीं है, तो उसके कहीं और होने की संभावना तो है. विडंबना यह है कि पद्मिनी एक अमीर ख़ुसरो की ‘चुप’ के बाहर सब जगह थी, लेकिन केवल एक ‘चुप’ के आधार पर उसका अस्तित्व संदिग्ध कर दिया गया. अधिकांश आरंभिक आधुनिक इतिहासकारों की राय यह थी कि प्राचीन भारत की इतिहास की अवधारणा ‘अपरिष्कृत किस्म की है’[22] और यहूदी–ईसाई परंपरा की तुलना में इसमें ‘सुविकसित इतिहास दर्शन के साक्ष्य निश्चय ही सीमित हैं.’[23]
आरंभिक भारतीय मनीषा उपनिवेशकालीन विद्वता के प्रभाव में थी, इसलिए भक्ति और इतिहास और इनके साहित्य से संबंधित यूरोपीय विद्वानों की धारणाएँ इसमें मान्य हो गईं. उपनिवेशकाल में देशभाषाओं के मध्यकालीन भक्ति और इतिहास चेतना और उसके साहित्य की पहचान और मूल्यांकन की शुरुआत ही ग़लत ढंग से हुई. उपनिवेशकालीन यूरोपीय विद्वता, जिसमें मुख्यतः यूरोपीय अधिकारी और मिशनरी शामिल थे, भक्ति चेतना और उसके साहित्य को इसलिए जानना-समझना चाहती थी वह यहाँ अपने साम्राज्य को निरंतर और सुदृढ़ करने के साथ ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार कर सके. यह उद्देश्य गोपन नहीं था- इस विद्वता ने बार-बार अपने इस उद्देश्य को सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर किया. स्वयं चर्च ने भारतीय धर्म और पंथ-संप्रदायों के यूरोपीय विशेषज्ञों को बुलाकर उनके व्याख्यान करवाए. भारतीय भक्ति और इतिहास चेतना और उसके साहित्य की इस तरह, जो पहचान बनी, वह अपनी असल पहचान से बहुत अलग थी. आजादी के बाद इस भारतीय मनीषा ने अकादमिक और बौद्धिक विमर्श की बुनियाद रखी, इसलिए ये धारणाएँ इस विमर्श का प्रस्थान बन गईं. बाद में कुछ हद तक इनका प्रतिवाद और प्रत्याख्यान शुरु हुआ, लेकिन जैसा होता है, इनकी बुनियाद के पत्थरों से छेड़छाड़ बहुत कम हुई. मध्यकाल में पारंपरिक भारतीय इतिहास चेतना ने भी अपने को कई रूपों में व्यक्त किया. ये कुछ रूप ऐसे थे, जो पारंपरिक थे, जिनका क्षेत्रीय सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत रूपांतर हुआ. इनके साथ कुछ रूप ऐसे भी थे, जो इस दौरान नए अस्तित्व में आए. यूरोपीय विद्वता के पास इस इतिहास से अलग, यूरोप की ख़ास सांस्कृतिक ज़रूरत के तहत इतिहास की अवधारणा थी, जो मुख्यतः अठारहवीं सदी में चर्च में विकसित हुई थी. इतिहास की यही पद्धति बाद में सार्वभौमिक आदर्श और मानक बन गई. मार्क ब्लाख़ ने तो साफ़ लिखा कि “ईसाइयत तो इतिहासकारों का धर्म है.”[24]
इतिहास की यही ईसाई पद्धति मध्यकालीन भारतीय साहित्य और इतिहास की पहचान और मूल्यांकन में इस्तेमाल हुई और इस आधार पर अधिकांश मध्यकालीन रचनाओं को अनैतिहासिक मान लिया गया.
रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबंध ‘भारतवर्षेर इतिहास’ में लिखा है कि “सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं. इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान् होता है.”[25]
मध्यकालीन साहित्य और इतिहास की रचनाएँ हमारे अपने खेतों की फ़सल हैं और वे हमारी अलग ज़मीन और खाद-पानी में हुई है. विडंबना यह है कि सदियों से यूरोपीय विद्वता हमारे खेतों में अपनी जैसी फ़सलों की तलाश में लगी हुई है और यह नहीं मिलने पर हमारी फ़सल को फ़सल मानने इन्कार कर रही है. विडंबना यह कि उनके दिए संस्कार और शिक्षा के कारण हमें भी उनकी फ़सलें तो अच्छी तरह याद हो गई हैं, लेकिन हम अपनी फ़सलों को लगभग भूल ही गए हैं.
संदर्भ और टिप्पणियाँ:
[1] आर.जी. भंडारकर, वैष्णविज्म, शैविज्म एंड माइनर रीलिजियस सिस्टम्स, इंडोलोजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1913
[2] ताराचंद, इनफ्लुएंसेज़ ऑफ़ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर, दि इंडियन प्रेस लि., इलाहाबाद, 1936
[3] हमायूँ कबीर, ऑवर हेरिटेज, नेशनल इनफोरमेशन एंड पब्लिशिंग लि., मुंबई, 1946
[4] एस. आबिद हुसैन, दी नेशलल कल्चर ऑफ़ इंडिया, एशिया पब्लिशिंग हाउस, मुबई, 1956
[5] ताराचंद, इनफ्लुएंसेज़ ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर, पृ. 107
[6] वही, पृ. 109
[7] एस. आबिद हुसैन, भारत की राष्ट्रीय संस्कृति, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 1987, पृ. 59
[8] ताराचंद, इनफ्लुएंसेज़ ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर, पृ. 111
[9] हमायूँ कबीर, ऑवर हेरिटेज, पृ. 46
[10] गौरीशंकर ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 1996-97, (प्रथम संस्करण 1828), पृ. 190
[11] किशोरीशरण लाल, हिस्ट्री ऑफ़ ख़लज़ीज़, एशिया पब्लिकेशन हाउस, मुबई, 1950, पृ. 130
[12] कालिकारंजन कानूनगो, स्टीडीज़ इन राजपूत हिस्ट्री, एस. चांद एंड कंपनी, दिल्ली, 1960, पृ. 17
[13] वही, पृ. 9
[14] इरफ़ान हबीब और हरबंश मुखिया ने फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर विवाद के दौरान अपने विचार नितिन रामपाल की स्टोरी (“पदमावती कंट्रोवर्सी: हिस्ट्री इज एट रिस्क ऑफ़ बीइंग ट्रेप्ड बिटविन लेफ्ट राइट इंटरप्रिटेशन्स ऑफ़ द पास्ट”, फ़र्स्ट पोस्ट, 21 सितंबर 2019,
https://www.firstpost.com/india/padmavati-controversy-history-is-at-risk-of-being-trapped-between-left-right-interpretations-of-the-past-4225695.html) में व्यक्त किए।
[15] दशरथ शर्मा, “वाज ए पद्मिनी मीयर फिगमेंट ऑफ़ जायसीज़ इमेजिनेशन?,” प्रोसिडिंगज़ ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड-24 (1961), पृ. 176-177
[16] नारायणदास, रतनरंग और देवचंद, छिताईचरित, संपा. हरिहरनिवास द्विवेदी एवं अगरचंद नाहटा, विद्यामंदिर प्रकाशन, ग्वालियर, 1960, पृ. 41
[17] मलिक मुहम्मद जायसी, पदमावत, संपा. वासुदेवशरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव (झाँसी), द्वितीय संस्करण 1961, पृ. 671
[18] मुनि जिनविजय, “रत्नसिंह की समस्या”, गोरा-बादल चरित्र, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, तृतीय संस्करण 2000, पृ. 34
[19] दशरथ शर्मा, “रानी पदमिनी- एक विवेचन,” पद्मिनी चरित्र चौपई, संपा. भँवरलाल नाहटा, सार्दुल रिसर्च इंस्टीट्यूट, बीकानेर, 1960, पृ. 4
[20] (i) गौरीशंकर हीराचंद ओझा, “दरीबे का शिलालेख”, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 192
(ii) अक्षयकीर्ति व्यास, “कुंभलगढ की पहली और तीसरी पट्टिका का शिलालेख (वि.सं. 1517)”, एपिग्राफिया इंडिका, खंड-XXIV (1937-38 ई.), संपा. एन.पी. चक्रवर्ती डायरेक्टर जनरल, आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, नयी दिल्ली, पुनर्मुद्रण 1984, पृ. 304-328
[21] अगरचंद नाहटा, “राघवचेतन की ऐतिहासिकता,” नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष-64, अंक-1, पृ. 64.
[22] रोमिला थापर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, हिंदी अनु. आदित्यनारायण सिंह, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2001, पृ. 251
[23] वही, पृ. 251
[24] मार्क ब्लाख़, इतिहास का शिल्प, हिंदी अनु. बृजबिहारी पांडेय, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, पुनर्मुद्रण 2013, पृ. 21
[25] रबींद्रनाथ टैगोर, विजन ऑफ़ हिस्ट्री, अनु. सिबेश भट्टाचार्य एवं सुमिता भट्टाचार्य, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडी, शिमला, 2003, पृ. 28
माधव हाड़ा आलोचक और शिक्षाविद् माधव हाड़ा (जन्म: 1958) की चर्चित कृति ‘पचरंग चोल पहर सखी री’ (2015) है, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ 2020 में प्रकाशित हुआ. हाल ही में उन्होंने ‘कालजयी कवि और उनकी कविता’ नामक एक पुस्तक शृंखला का संपादन किया है, जिसमें कबीर, रैदास, मीरां, तुलसीदास, अमीर ख़ुसरो, सूरदास, बुल्लेशाह, गुरु नानक, रहीम और जायसी शामिल हैं. उनकी अन्य प्रकाशित मौलिक कृतियों में ‘वैदहि ओखद जाणै’ ( 2023) ‘देहरी पर दीपक’ (2021), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’ (1992) और ‘तनी हुई रस्सी पर’ (1987) प्रमुख हैं. संपर्क: |
पराधीनता का उत्तराधिकार पढ़ा। माधव हाड़ा को पढ़ना वर्तमान लेखन की धाराओं से परिचित होना है। साथ में यह भी कि वह लेखन के लिए किन विषयों को चुन रहा है और क्यों चुन रहा है। लेखक की पहचान लेखन से होती है और ‘समालोचन’ का प्रयास लगातार इस पहचान को विस्तार देना रहा है। आभार और धन्यवाद अरुण देव जी!
‘पराधीनता के उत्तराधिकार’ में आदरणीय प्रो माधव हाड़ा ने औपनिवेशिक और उससे प्रभावित आरंभिक ज्ञान तंत्र की कमियों या चूकों की तरफ इंगित करते हुए कहीं न कहीं निराशा व्यक्त की है कि इतिहास और परम्पराओं की खोज में प्रस्थान बिंदु तय कर देने से उनकी दिशा नियत से हो गयी है। पद्मिनी की ऐतिहासिकता में स्थानीय जैन और चारण साहित्य, ख्यातों, प्रबंध काव्यों को स्रोत की तरह स्वीकार न करना ‘अपनी ही उगाई फसल में’ यूरोपीय विद्वता के चश्मे से उन्हें न देख पाना और फिर नकारना एक बड़ी चूक है।
लोक में ‘पूगल गढ़ री पदमणी’, व्यवहार में सुंदरता को लेकर पद्मिनी का रूपक, और पद्मिनी का उल्लेख करते तमाम देशज स्रोत। वाचिक परम्पराओं में पद्मिनी की बहुलता के साथ समृद्ध उपस्थिति है। प्रो हाड़ा जैसे विद्वानों का शोध इसे इन्हीं स्रोतों के अध्ययन से प्रमाणित भी करता है पर इतिहास की नई आई किताबों में अभी भी इसे एक काल्पनिक चरित्र ही कहा जाता है। ये नकार भाव ‘नए इतिहास की हुंकार’ वालों को अवसर देने का काम करता है।
इससे एक दूसरी ही तरह के आख्यान को खड़ा करने में ज़रूरी आहार मिला है और विगत में हुई इतिहास और परम्पराओं की ईमानदार शोध और निवेशित परिश्रम एक झटके में खारिज़ करने में अधिक सरलता होती है। ये फिर एक दूसरी ही तरह की क्षति है।
माधव हाड़ा सर ने मध्यकालीन भक्ति काव्य को नयी दृष्टि से देखने का अनुपम काम किया है। अभी दक्षिण की संत अंडाल पर भी उनकी पुस्तक आई है। संभवतः उनके गहन शोध से भक्ति आंदोलन और इसके उदय को नए दृष्टिकोण से देखने का काम होगा। भारत में भक्ति के प्रादुर्भाव पर एक नए प्रस्थान बिंदु से विचार किया जाएगा।
इससे पहले भी दक्षिण में भक्ति को इसके संगम काल के काव्य में खोजा गया है और इस पर कुछ संतोषजनक काम हुआ है।
दक्षिण भारत के इतिहास और संस्कृति पर महत्वपूर्ण काम करने वाले विद्वान नोबोरु काराशिमा ने स्वयं द्वारा सम्पादित पुस्तक A Concise History of South India’ में अपने ही लिखे एक अध्याय में लिखा है कि हिन्दू धर्म के दक्षिण विस्तार को आर्यीकरण कहा गया है पर एक धार्मिक आंदोलन के रूप में भक्ति कल्ट का तमिल देश में विस्तार प्राचीन तमिल संस्कृति के सन्दर्भ में समझना चाहिए। संगम साहित्य में ‘अहम’ को बहुत महत्त्व दिया गया है जिसका अर्थ कुछ कुछ दैहिक प्रेम हो सकता है, यही आगे जाकर भक्ति में रूपांतरित हुआ जिसकी अभिव्यक्ति आत्मा और ईश्वर के प्रति प्रेम के आह्लाद में होती है।
काराशिमा के अनुसार तमिल देश में यदि ‘अहम’ परंपरा नहीं होती तो उत्तर से आये विचार केवल खोखले ढांचे ही रह जाते। इसकी आत्मा संगम साहित्य से आती है।
स्पष्ट है की भक्ति पर कोई बाहरी प्रभाव नहीं रहा है। या कम से कम ऐसा नहीं जिसे तात्विक कहा जा सके। सूफ़ीवाद से प्रभावित होना या इसमें एकात्मवाद का विचार भारत में इस्लाम के प्रभाव को अनावश्यक रूप से आगे तक ले जाना है। वस्तुतः ये तमिल आत्मा का ही प्रकटीकरण है। इसलिए भक्ति को द्रविड़ देस में उपजा कहने की परम्परा भी है।
प्रो हाड़ा सर और समालोचन को इस आलेख के लिए आभार।
इसी बहाने हाड़ा सर के साथ कई वर्षों के उदयपुर आवास के दौरान की गयीं अनेक बैठकों की भी याद आई।
आपने हिंदी पाठकों को निरंतर समृद्ध किया है।
क्षमा. दक्षिण की संत अंडाल पर प्रो हाडा का आलेख बनास जन में आया है. मैंने भूलवश पुस्तक का लिख दिया था.
प्रिय भाई, इसे पूरा पढ़ा. अपनी बातचीत इस पर होती भी रही है.अपने आईने में आत्मविश्वास के साथ अपने चेहरे को पहचानना हमने लगभग छोड़ दिया है. इस बीमारी को ब्राह्म समाजियों, प्रार्थना समाजियों ने नई बौद्धिकता के नाम पर स्वेच्छया ओढ़ा जिससे वे अपने महाप्रभुओं की निगाह में कदाचित बेहतर साबित हो सकें. दिनकर जी ने स्वामी दयानंद, जिन्होंने अंग्रेजी संयोगवश नहीं ही पढ़ी यह लिखा है कि उनकी दृष्टि इन दोनों से अलग थी. आचार्य शुक्ल और कवि जयशंकर प्रसाद की रहस्यवाद वाली बहसों में आप इसे महसूस कर सकते है. बोशांके ने सौंदर्यशास्त्र का जो इतिहास लिखा है उसमें भारत की भूमिका नगण्य है, जबकि अजंता, एलोरा, दक्षिण के मंदिर, शास्त्रीय संगीत और कलाएँ हमें अलग पहचान देती हैं. सोचिए अगर आनंदकुमार स्वामी न आए होते.प्रसाद जी ने काव्य और कला वाले लेख में शुक्लजी पर स्वरूप विस्मृति का आरोप लगा दिया है. डा. ताराचंद जैसे अंग्रेजी दाँ इतिहासकार का तो खैर कहना ही क्या?
आज भी आधुनिकतावादया कहें पश्चिमवादीआधुनिकता सिवाय औपनिवेशक बौद्धिकता के और है क्या? विडंबना यह कि हमें इस पर लाज नहीं है कैसी भी.
आप तो यह लड़ाई काफी दिनों से लड़ रहे हैं, आगे भी जारी रखना है. एक बार धर्मपाल को भी जरा देख लें.
बधाई.