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समालोचन

Home » जसिन्ता केरकेट्टा की कविताएँ

जसिन्ता केरकेट्टा की कविताएँ

जसिन्ता केरकेट्टा की कविताओं के संसार में आदिवासी समाज की अस्मिता की खोज है.  विकास की विडम्बना, हिंसा और छल की पहचान है. आक्रोश की सबल स्वाभाविक अभिव्यक्तियाँ हैं.  प्रकृति की उपस्थिति है पर बाज़ार और उपभोक्तावाद के दंश की टीसती हुई पीड़ा के साथ. तलाशी, आरोप, गिरफ्तारी, मुकदमा, हत्या की प्रक्रिया में तार-तार होती आदिवासी जिंदगी की स्व: अनुभूत इतिहास है. जसिन्ता रचनाकार के साथ साथ पत्रकार भी हैं. उनकी कविता के अनुवाद तमाम देशी विदेशी भाषाओं में हुए हैं.

by arun dev
November 13, 2016
in कविता
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जसिन्ता केरकेट्टा की कविताएँ
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जसिन्ता केरकेट्टा की कविताएँ

महुआ चकित है

धूप भी चुन रहा है
महुआ साथ-साथ
जवनी की मां थकती नहीं,
चुनती है महुआ शाम तक.
थोड़ा-थोड़ा हुलककर
देख रहे डालियों में फंसे
अधखिले दूसरे महुए भी
धीरे से ठेल देगी रात
जिन्हें धरती की ओर….,
कैसे जवनी की मां
पहचानती है अपने गाछ के
हर एक महुए को?
हर कोई चुन रहा है गांव में
अपने गाछ का महुआ.
नहीं है कोई
ललचाई आंखें वहां,
गाछों के नीचे पसरी छाह में
सुस्ता रही बेपरवाह महुआ.
महुआ चकित है बाजार आकर
कैसे कोई आदमी महुआ पीकर
उठा ले जाता है
किसी भी घर की
बाजार से घर लौटती
कोई चंपा, चंदा, फूलो या महुआ को?

 

साहेब! कैसे करोगे खारिज ?

साहेब !
ओढ़े गये छद्म विषयों की
तुम कर सकते हो आलंकारिक व्याख्या
पर क्या होगा एक दिन जब
शहर आई जंगल की लड़की
लिख देगी अपनी कविता में सारा सच,
वह सच
जिसे अपनी किताबों के आवरण के नीचे
तुमने छिपाकर रखा है
तुम्हारी घिनौनी भाषा
मंच से तुम्हारे उतरने के बाद
इशारों में जो बोली जाती है
तुम्हारी वे सच्चाइयां
तुम्हें लगता है जो समय के साथ
बदल जाएगी किसी भ्रम में,
साहेब !
एक दिन
जंगल की कोई लड़की
कर देगी तुम्हारी व्याख्याओं को
अपने सच से नंगा,
लिख देगी अपनी कविता में
कैसे तुम्हारे जंगल के रखवालों ने
‘तलाशी’ के नाम पर
खींचे उसके कपड़े,
कैसे दरवाजे तोड़कर
घुस आती है
तुम्हारी फौज उनके घरों में,
कैसे बच्चे थामने लगते हैं
गुल्ली–डंडे की जगह बंदूकें
और कैसे भर आता है
उसके कलेजे में बारूद,
साहेब !
एक दिन
जंगल की हर लड़की
लिखेगी कविता
क्या कहकर खारिज करोगे उन्हें?
क्या कहोगे साहेब?
यही न….
कि यह कविता नहीं
“समाचार” है…..!!

 

मेरा अपराध क्या है?

मेरा अपराध क्या है?
इतना ही पूछा था सालेन ने
जवाब में बस आई थी
कमरे से एक ‘धांय’ की आवाज.
मारा गया था झोंपड़े के अंदर वह
यह जाने बिना कि
उसका अपराध क्या था.
ठिठक कर रूका था
आंगन में खड़ा वह घोंघा भी,
सालेन के बच्चे उसे
घोघ्घु कहकर बुलाते थे
चलता था वह आंगन के आर-पार,
एक ही पल में आ गया था
बेवजह उधर आए बूटों के नीचे
निकल गई थी अंतड़िया,
मर गया वह आंगन में
यह पूछे बिना कि
मेरा अपराध क्या है..?
उस दिन
बच्चों ने पिता के साथ
खो दिया घोघ्घु को भी,
उनकी आंखें ताउम्र पूछती है
उनका अपराध क्या था?
वे जानते हैं
पिता का अपराध खोज लिया जायेगा
तय कर लिया जायेगा कागजों पर
और मौत के बाद भी
उसकी देह पर ठोंका जाएगा
कभी न मिटने वाला दाग
मगर घोघ्घू की हत्या का
क्या है जवाब ?
प्रकृति से जुड़े लोग
और घोघ्घु की तरह
प्रकृति की हर चीज
पूछती हैं अपनी हत्या पर
आखिर मेरा अपराध क्या है?

 

हत्या का अधिकार

आंदोलन करो
वे तुमपर बस नजर रखेंगे,
प्रदर्शन करो
वे मुहाने पर तुम्हारा इंतजार करेंगे,
रैलियां निकालो
वे तुम्हारे लिए सड़के खाली कराएंगे,
धरना दो
वो दूर खड़े तुम्हें देखेंगे
जब तुम चिल्लाकर भाषण दोगे
वे तुम्हारी बातें चुपचाप सुनेंगे,
सालों-साल अनशन करो
वे जबरन तुम्हारी देह में
दाना डालने के लिए छेद करेंगे,
पर, तुम आत्महत्या की कोशिश करो
तो वो तिलमिलाएंगे.
सबकुछ करने की अनुमती है तुम्हें
बस नहीं कर सकते तुम
उनके षडयंत्रों से हारकर
अपनी हत्या का प्रयास
तुम्हारी हत्या का अधिकार
रख लिए है उन्होंने
सिर्फ अपने पास…….!!

 

मुझे कोई ‘ दिवस ‘ चाहिए

सालेन चाहता है
मैं एक बार उसके गांव आऊं
मेरे आने की खबर से
आ जाएगी बिजली, पानी, रास्ता.
मगर मैं क्या करूं
वहां तक पहुंचने के लिए
मुझे कोई दिवस चाहिए.
बिन बरसात तो सालेन भी
रोपा नहीं रोपता
मुझे भी तैयार करने हैं
वहां अपने खेत
जहां लग सकती हो मेरी रणनीति,
फल सकती हो मेरी राजनीति,
उग सकते हों फसल सपनों के,
मैं लगाऊंगा विकास के सपने
सालेन के गांव में
बस, मुझे कोई दिवस चाहिए.
मैं आऊंगा चलकर, देखने
पहाड़ पर बसा सालेन का गांव
दिल्ली से दिखती है थोड़ी धुंधली
उसके घर के पिछवाड़े की जमीन,
मैं साफ कराऊंगा जंगल
ये रोकती है मुझे,
उस तक सीधे पहुंचने से,
हल और हथियार से मैं
मुक्त करूंगा उसके हाथ
तब उगाऊंगा उसके खेतों में
अपने कारखाने और अपने हथियार
मनाऊंगा उसकी
मुक्ति और शहादत एक साथ
बस, मुझे वो दिवस चाहिए.

 

धुंआती लकड़ी

बारिश में खड़ी है
धुंआती लकड़ी .
धुंआती लकड़ी….
यानी उम्मीद है
कि आग फिर से धधकेगी,
यह सबक है
उन पत्थरों के लिए
रगड़ से जिनके
पैदा हो सकती है आग
मगर खड़े हैं जो
एक दूसरे के खिलाफ
इसलिए बारिश के बीच भी
अड़ी है…खड़ी है
धुंआती लकड़ी…,
पड़ जाती है उसपर
सबकी नजर
मच जाता है कोहराम
कहां से आई वह धुंआती लकड़ी?
लगा देगी आग जंगल में,
बुझा दो इसे,
उस आदमी को पकड़ो
जो इसके पीछे खड़ा है
उसे सजा दो, जिसने
इसे देखकर भी अनदेखा किया
उन सभी गांव वालों को
ले लो शक के दायरे में….,
अब धुंए से ढंका जा रहा है
जंगल, गांव, आदमी, आसमान,
गुम है धुंआती लकड़ी
अब चारों ओर है धुंआ ही धुंआ,
लग चुकी है आग
झुलस रहे हैं
आग पैदा करने वाले
मूक पत्थर भी .

 

JACINTA KERKETTA
C/O – PETER BARWA,
SHANTINAGAR GARHATOLI-2
OLD H.B ROAD, KOKAR. RANCHI
JHARKHAND. 834001
jcntkerketta7@gmail.com

Tags: आदिवासी कविताजसिन्ता केरकेट्टा
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