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समालोचन

Home » उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से : विवेक टेंबे » Page 2

उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से : विवेक टेंबे

चित्रकार, कलाकार, विचारक और कवि जगदीश स्वामीनाथन (जून २१, १९२८ – १९९४) के शिष्य विवेक टेंबे ने अपने उस्ताद के संग-साथ को इधर लिखना शुरू किया है. यह संस्मरण अप्रतिम कलाशीर्ष स्वामीनाथन के विविध रंगों से आलोकित है और उनके समय, सहयोगियों को भी मूर्त करता चलता है. यह एक निर्मित हो रहे कलाकार की सीढियाँ हैं जिनपर वह झिझकते हुए चढ़ रहा है. ख़ास आपके लिए यह प्रस्तुत है. 

by arun dev
July 12, 2020
in कला, पेंटिंग
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  दो

               

ग्वालियर के लिए वापसी के क्षणों में हम सभी थोडे भावुक हो गये थे.

एक अपरिचित, तीन दिनों में घर का  ही आदमी हो गया था.

यशोदा जी ने याद से पूरी यात्रा के लिए खाने की व्यवस्था कर मुझे घर के सदस्य की तरह विदा किया.

ग्वालियर पहुँचते पहुँचते मेरे मन से स्कॉलरशिप  का तनाव उतर चुका था.

दूसरे दिन विमल कुमार जी से मिलकर उन्हें पूरी जानकारी दी और उनके द्वारा की गई मदद का आभार व्यक्त किया.

दिन चैन से कट रहे थे कि एक दिन राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली से मुझे नियुक्ति पत्र प्राप्त हुआ,  मैं लगभग भूल ही चुका था कि मैंने वहां मॉडलर की पोस्ट के लिए इन्टरव्यू दिया था. उस पत्र में लिखा था कि मुझे 28 जून तक अपनी उपस्थिति संग्रहालय में दर्ज करानी है. उसी हिसाब से मैं अपनी तैयारी कर नई दिल्ली में अपने मामाजी के यहाँ लाजपत नगर पहुँच गया.

राष्ट्रीय संग्रहालय में ही मेरी मुलाकात मूर्तिकार मुकुल पंवार से हुई, और हम दोनों अच्छे मित्र बन गये.

कुछ ही दिन बीते थे कि संग्रहालय के प्रशासनिक अधिकारी धीर साहब ने मुझे तलब किया, मुझे बताया गया कि  सुरक्षा अधिकारी का कहना है कि मैं अपना काम छोड कर  संग्रहालय की वीथीयों में घूमता हूं. मैंने कहा कि मैं अपना कार्य पूरा करने के पश्चात  शाखा प्रबंधक की अनुमति से ही वीथिका में जाता हूँ.

थोड़ी ही देर में मुझे निदेशक, श्री नील रतन बनर्जी के समक्ष पेश किया गया.

मुझे फिर से अपने दिल की धक-धक सुनायी देने लगी.

फिर भी मैंने सारी बातें बनर्जी साहब को बतायीं,  उन्होंने सारी बातें ध्यान से सुनी, और मुझे रवाना कर दिया.  मुझे लगा कि सिर मुडाते ही ओले पड चुके हैं. भारी मन से मैं घर के लिए रवाना हुआ. रात बेचैनी से कटी , अगले दिन संग्रहालय पहुँचने पर विभाग प्रमुख ओगले साहब ने कहा बधाई ,  आपको वीथी देखने की विशेष अनुमति मिली है. साथ ही आपको उन मूर्तियों को चुनना है जो अनुकृति बनाने के योग्य हों.

मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया.

फिर एक रविवार को जाकर उस्ताद से मिल आया उन्हें बताया कि मैंने नेशनल म्यूजियम में नौकरी शुरू कर दी है, वो खुश तो हुए पर साथ ही उन्होंने पूछा कि अब तुम्हारी स्कॉलरशिप का क्या होगा. मैंने कहा

जी , अगर स्कालरशिप मिली तो नौकरी छोड़ दूंगा.

स्वामी हंस दिये,

थोड़ी देर खामोशी रही…. वे कुछ सोच रहे थे शायद, फिर बोले वहां के सारे मिनियेचर पेन्टिंग देखना. मैंने स्वीकृति मे सिर हिलाया. फिर बड़ी देर तक मिनियेचर पेन्टिंग पर ही बात होती रही. रात होने लगी तो अम्मा जी बोलीं खाना खा कर जाओ विवेक, मैंने बताया कि अब छोटा भाई साथ आ गया है तो अब साथ ही खाना खायेंगे और मैं घर लौटा.

अब मेरा दैनिक क्रम कुछ ऐसा हो गया था कि म्यूजियम के बाद में सीधे गढी स्टूडियो पहुँचता और रात उस्ताद के साथ उन्हें घर छोड़कर फिर घर जाता,या कभी उनके साथ खाना खा कर फिर घर जाता.

फिर एक दिन संस्कृति मंत्रालय से स्कॉलरशिप से सम्बन्धित पत्र आया कि आप 1 अगस्त तक  मंत्रालय की सारी औपचारिकतायें  पूरी कर अपने गुरु से संपर्क करें, आपकी छात्रवृत्ति 1 अगस्त 1976 से शुरू हो जायेगी.  शाम को उस्ताद को गढी स्टूडियो में मिल कर उन्हें सारी जानकारी दी, और बताया की कल राष्ट्रीय संग्रहालय  जाकर त्यागपत्र दे आउंगा.

दूसरे दिन मैं संग्रहालय के प्रशासनिक अधिकारी धीर साहब से मिला और उन्हें अपना त्यागपत्र दिया,  उन्होंने उसे देखा पढा फिर बड़ी हैरानी से  पंजाबी में बोले,  लडके अभी तो तूनें अपनी पहली तनख्वाह भी हाथ में नहीं ली है, औ रिज़ाइन कररयासी.

मैंने कहा जी, और आज ही स्वीकृत हो जाये तो बड़ी कृपा होगी , क्योंकि मुझे परसों उस्ताद के पास हाज़िरी देनी है.  उन्होंने मुझे घूर कर देखा और बोले ठंड रख इतनी जल्दी कुछ नहीं होगा.

मुझे समझ नहीं पड रहा था कि क्या जवाब दूं . मैंने कहा मैं तो नहीं आउंगा कल से,

थोड़ी देर तो शान्ति छायी रही, फिर पंजाबी भाषा में बम फटा.

थोड़ी देर में मुझे कुल लबओ लुआब यह समझ आया कि यदि मे मैं दूसरे दिन काम पर नहीं जाउँगा तो भगोड़ा घोषित कर दिया जाउंगा, मेरा वारंट भी निकल सकता है और में अरेस्ट भी हो सकता हूँ.

मैं तो सकते में आ गया, मैंने बड़ी नम्रता से कहा  दारजी तुस्सी कोई उपाय बताओ न.

“खोता आर्टिस्ट बन के ही मानेग ” दारजी बडबडाये, फिर बोले जा डिरेक्टर के पास जा, वोइ कुछ करेगा.

मैं साहस कर के बनर्जी साहब के पास पहुंचा, सारी बातें सुनकर वो थोडे गम्भीर हो गये. थोड़ी देर में धीमे से उन्होंने पूछा, क्या मेरा इरादा पक्का है. मेरे हां कहने पर उन्होंने इन्टरकॉम पर धीर साहब को मुझे तत्काल रिलीव करने को कहा और मुझसे बोले- जाइए आर्डर ले लीजिए, फिर  मुस्कुरा कर बोले गुड लक.
थैंक्स मेंने कहा

गुड लक तो जी मेरा हो ही गया था.

घंटे भर में सर्टिफ़िकेट मेरे हाथ में था.

रात में मैंने उस्ताद को सारी रिपोर्ट दी.

तब उन्होंने बताया या कि अभी मुझे एक बॉण्ड भी भरना है. इसलिए मैं सुबह ही उनके पास पहुंच जाउँ.

दूसरे दिन मैं सुबह उस्ताद के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझे एक फॉर्म दिया उसके अनुसार किसी एक व्यक्ति को इस बात की गारंटी देनी थी, कि यदि मैं  स्कॉलरशिप में काम ठीक से न करूँ तो गारंटी देने वाले व्यक्ति को  उस नुकसान की भरपाई संस्कृति विभाग को करनी होगी जो मुझ पर खर्च किया जा चुका होगा.

उस्ताद बोले कि वैसे तो वे ही हस्ताक्षर कर देते लेकिन जमानत के लिए उनके सेव के बगीच के कागज़ात कोटखाई शिमला में थे. आते-आते हफ्ता लग जायेगा.

उस्ताद बोले ऐसा करो कि तुम अभी  नेशनल गैलेरी ऑफ़ मॉर्डन आर्ट, चले जाओ वहां के डायरेक्टर हैं लक्ष्मी सिहारे , उनसे मैंने बात कर ली है. वे फॉर्म पर हस्ताक्षर कर देंगे. सो मै फॉर्म लेकर बस से नेशनल गैलेरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, जयपुर हाउस पहुँचा.  रिसेप्शन से मुझे डिप्टी डायरेक्टर, अनीस फ़ारूखी के पास पहुंचा दिया गया, फॉर्म देख फारूखी साहब बोले ये नहीं हो सकता.

मैं बोला- मुझे जे.स्वामीनाथन जी ने भेजा है. उनकी साहब से बात हो चुकी है, ओह, वे खड़े होते हुए बोले. फिर वे मुझे सिहारे साहब के पास छोड़ आये. काफी आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे सिहारे साहब, चूंकि स्वामी जी सब कुछ बता ही चुके थे इसलिए मेरे कुछ बोलने से पहले ही उन्होंने व्यंग्य से कहा, अच्छा तो तुम आर्टिस्ट बनोगे, अच्छी भली नौकरी छोड़ कर,, केंद्र की नौकरी छोड़ कर, तुम्हे पता है ये आर्टिस्ट (उन्होंने कुछ आर्टिस्टों के नाम लेकर) मेंरे सामने नाक रगड़ते हैं कि मैं, उनके काम खरीद कर कुछ मदद करूँ और तुम नौकरी छोड़ आर्टिस्ट बनने चले हो.

और भी बहुत कुछ कहा.  अब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. गुस्सा भी आ रहा था. उन कलाकारों में से कई मेरे मित्र थे, कई लोगों का मैं आदर करता था. इस से पहले कि वे कुछ समझ सके अचानक मैंने उनके हाथ के नीचे से फॉर्म  निकाला और बिना उनके आवाज़ की तरफ ध्यान दिये  कमरे से  बाहर और फिर कैम्पस से भी बाहर निकल गया. वहाँ से मैंने सीधे उस्ताद के घर का रास्ता पकडा.

थोड़ी देर में ही मैं घर पहुँच गया, अम्मा जी और उस्ताद बाहर वाले कमरे में ही बैठे थे. मुझे देखते ही दोनों हंसने लगे,  मैं समझ गया कि उस्ताद जी की सिहारे साहब से बात हो गई है.

हंसी रुकने पर उस्ताद बोले कि मायूस मत हो, तुम किसी भी गज़ेटेड अफसर के हस्ताक्षर करवा सकते हो, वे हस्ताक्षर भी मान्य होंगे.  उस्ताद से अनुमति लेकर मैं घर आ गया .

मामाजी भी टूर पर थे और हफ्ते बाद आने वाले थे. मैंने सोचा कि अच्छा होगा कि मैं घर ग्वालियर जाकर ही किसी से हस्ताक्षर करवा लूं . देर रात की गाड़ी पकड़ कर सुबह ग्वालियर पहुँच गया.

ग्वालियर पहुँच कर घर में माँ को सारी बातें बतायीं, उन्होंने लगी हुई नौकरी छोड़ने का बहुत अफसोस मनाया.  माँ को समझा कर मैंने साईकल उठाई और आर्ट कॉलेज के लिए निकला, कॉलेज पहुँच कर पहले मित्रों से मिला फिर  प्रोफेसर भटनागर जी से मिला  उन्हें सारी जानकारी दी. जानकारी देते हुए जब बॉण्ड की बात आयी तो सर खुद बोले अरे लाओ में किये देता हूँ अरे भाई हम भी तो गजेटेड ऑफिसर हैं.

मेरी सारी टेन्शन उन्होंने दूर कर दी थी. बस अब मुझे दिल्ली पहुँच कर उस्ताद के घर हाज़िरी देनी थी.

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Tags: अंबादासजगदीश स्वामीनाथनजे स्वामीनाथनविवेक टेंबे
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Comments 1

  1. प्रयाग शुक्ल says:
    3 years ago

    बहुत सुंदर संस्मरण बहुत सुन्दर शब्दों में।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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