चार

गुरु अंबादास
रात भर तो नींद तो क्या आती अजी़ब अजी़ब सपने आते रहे. लग रहा था कि एक बडे, खूब ऑयल कलर लगे कैनवास की फिसल पट्टी पर मैं इधर से उधर फिसल रहा हूँ. सुबह उठा तो मुझे उस्ताद के घर पहुँचने की इतनी जल्दी हो रही थी कि पूछो मत. कैसे तो भी तैयार हो कर मैं उस्ताद के घर पहुँच गया.
अम्बादास जी भी नहा धो कर तैयार ही बैठे थे. उस्ताद जी अपनी बीड़ी सुलगाने की कोशिश में लगे थे. दोनों के बीच मौन का संवाद चल रहा था. मुझे देखते ही अम्बादास जी मुस्कराये. बोले- आओ, स्वामी जी ने अंदर देखते हुए आवाज लगायी- तूती और अम्मा जी हम तीनों के लिए नाश्ता ले आयीं. नाश्ता कर उस्ताद जी को जाना था तो वे चले गए ललित कला अकादमी.
इधर हमारी क्लास लग गयी.
क्लास गुरु अम्बादास की
मेरे कुछ पूछने से पहले ही अम्बादास जी ने मराठी में पूछा
“कसे वाटले काल चे काम”
(कैसा लगा कल का काम).
मुझे तो अच्छा लगा, मैंने जवाब दिया.
क्या अच्छा लगा ? दूसरा प्रश्न आया.
क्या अच्छा लगा यह बताना तो मेरे लिए बहुत कठिन है, पर मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने पर जैसा लगता है न, कुछ वैसा ही लग रहा है. मैंने जवाब दिया. वे खिलखिलाकर हंस दिये.
फिर थोड़ा ठहर कर बोले, मैं जब काम करता हूँ न, तो यूँ समझो कि मेरा ब्रश कैनवास रूपी स्टेज पर नृत्य कर रहा होता है. या यूँ कहो कि मैं ही नृत्य कर रहा होता हूँ. और मैं यह नृत्य कितनी देर भी और कितने भी बडे कैनवास पर कर सकता हूँ.
(इस का प्रमाण मुझे तब मिला जब वे आर्टिस्ट इन रेजिडेन्सी के तहत भारत भवन में तीन माह रहे)
मैं अपने ही नृत्य में तन्मय हो जाता हूँ.
मेरे रंगाकार मेरे लिए उर्जा की तरह हैं और चित्रांकन एक उत्सव.
जी, मैंने कहा. आप के कैनवास समग्र चित्र की तरह लगते हैं.
मुस्कुराते हुए उन्होंने सिर हिलाया. फिर मैंने उनसे पूछा कि आप रंगों में ऐसा क्या मिलाते हैं कि रंग एक सतह न बनकर कई रंगतों के रेखाओं की एक पट्टी सी बन जाती है. रंगाकार अपना वज़न खो देते हैं ?
अम्बादास बोले, वो इस लिए कि मैं बेस कलर्स में लिन्सिड ऑयल का इस्तेमाल करता हूँ और काम करते समय टर्पेन्टाइन के साथ करता हूँ. पर यह तकनीक मात्र है.
आप अपने चित्रों को किस श्रेणी में रखेंगे, अमूर्त या मूर्त, मैंने पूछा.
देखो, मैं दर्शकों के लिए चित्र नहीं बनाता. मैं मूलतः: तो अपने लिए ही बनाता हूँ. बाद में वे रसिकों के लिए भी हो सकते हैं. रसिक वे जो नज़र की भाषा समझते हों. और जिन्हें यह भाषा समझ आती है. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, कि चित्र अमूर्त है, मूर्त है, दृश्य चित्र है अथवा वर्गीकरण के अन्य किसी खाने से है. मैं वह नहीं बनाता जो मुझे दिखता है. मैं वह बनाता हूँ जो बाहर का देखने के बाद मेरे अंदर बनता है. और इसके लिए मुझे मुक्त होना पडा.
वह बहुत कुछ भूलना पडा जो मैने जे.जे. आर्ट कॉलेज मैं सीखा था. मुझे टी. एस. इलियट की कविता की ये लाइनें बहुत पसन्द हैं. अम्बादास जी बोले, और उन्होंने वे लाइनें मुझे सुनायीं-
At the still point of the turning world
Neither flesh nor fleshness
Neither from North towards
At the still point. there the dance is…
घूमते संसार के ठहरे बिन्दु पर;
शरीरी न अशरीरी
आता हुआ न जाता हुआ;
ठहरे हुए उस बिन्दु पर
नृत्य हो रहा है…
(अनुवाद, उदयन वाजपेयी)
हमारा वार्तालाप और भी चलता रहता पर तभी उन्हें कुछ याद आया और वे बोले कि आज उनकी फ्लाइट है, और उन्हें अपना सामान लगाना है. सो शेष बातें अगली मुलाकात में होंगी. फिर मेरे बुझे से चेहरे को देखते हुए मेरे पास आये, कंधे पर हाथ रख कर प्यार से बोले, मैं फिर आऊंगा न.
मैंने अम्बादास जी से विदा ली
और ग्राफिक्स स्टूडियो चला आया. मुझे ऐसा लगता रहा जैसे मेरा कोई बड़ा नुकसान हो गया हो. शाम तक उस्ताद जी गढी स्टूडियो नहीं आये, सो मैं घर चला आया.
घर पर एक बुरी खबर मेरा इन्तजार कर रही थी. मामाजी ने बताया कि जीजाजी यानी मेरे पिताजी को गम्भीर लकवा लग गया है और वो झांसी में रेल्वे हॉस्पिटल में भर्ती थे.
रात में जाना संभव नहीं था, इसलिए सुबह उस्ताद से मिलकर जाना तय किया.
सुबह जब स्वामी जी के घर पहुँचा तो वो बैठे चाय पी रहे थे, मुझे देखते ही बोले, भाई अम्बादास जी तो तुम से बहुत खुश थे. फिर मेरे चेहरे को पढ कर गम्भीर होते पूछा, क्या हुआ. मैंने उन्हें सारी बातें बतायीं. उस्ताद बोले तुम अभी निकल जाओ, किसी भी बात की चिंता मत करो, और जब तक जरूरी लगे तब तक वहीं रहना.
पैसे वैसे तो हैं न, नहीं हों तो मुझसे ले जाओ. और भी किसी मदद की जरूरत पड़े तो खबर करना. फोन नंबर तो है ना तुम्हारे पास, उन्होंने बड़ी फिक्र से पूछा.
नहीं स्वामी जी, मैंने सब व्यवस्था कर ली है,पहुँच कर आपको खबर करूंगा. मैं बोला और मैंने झांसी के लिए ट्रेन पकड़ी.
शाम को जब झांसी पहुँचा, तो सीधे रेल्वे हॉस्पिटल. वहां देखा तो पिता जी कहीं नहीं मिले. तो मैं रात की ड्यूटी वाले डॉक्टर के पास गया. उन्होंने बताया कि वार्ड में वही लोग हैं, जो भर्ती किये गए हैं. जो भर्ती नहीं किये गए हैं वो सभी बाहर गलियारे में हैं. सो मैंने गलियारे में पिता जी को ढूंढा बड़ी मुश्किल से में उन्हें उनके सफेद बालों की वजह से पहचान पाया. फिर भर्ती की कार्यवाही हुई और पिता जी को पलंग पर लिटाया गया. रात भर मैं सारी व्यवस्थाएँ कर, पास की बेंच पर सो गया.
सुबह हॉस्पिटल के सुपरिन्टेन्डेन्ट से मिला, उन्होंने बताया कि घबराने की कोई बात नहीं. आधा शरीर जरूर पक्षाघात से प्रभावित है. पर यह दायाँ हिस्सा है यही अगर बायाँ हिस्सा होता तो बचना मुश्किल था. उन्होंने आश्वस्त किया कि वो बिल्कुल ठीक हो जायेंगे. मेरी माँ के एक चचेरे भाई जो रेलवे में ही थे, ने बड़ी मदद की. हफ्ते भर में पिता जी की हालत काफी कुछ ठीक हो गयी थी. वे लोगों को पहचानने लगे थे. हालांकि याददाश्त ठीक नहीं थी. वे मुझे अपने बड़े भाई के नाम से पुकारते थे. दो हफ्तों में अच्छी प्रगति हुई थी. एक बार ग्वालियर से मां भी आकर मिल गईं थीं. हालात अच्छे थे पर डॉक्टर के अनुसार पिता जी को फिजीयोथेरेपी के लिए लगभग एक महीना रुकना था. हमारे चचेरे मामा जी ने कहा कि तुम पास बनवा लो,और हर शनिवार रविवार यहाँ आ जाया करो. बाकी दिन मैं देख लिया करूँगा. मामा जी की सहमति से में मंगलवार को दिल्ली पहुँच गया.
तीन हफ्तों में बहुत सी घटनाएं हो चुकी थीं. अम्बादास जी अकोला से लौट आये थे और उस्ताद जी के साथ कोटखाई (शिमला), जहाँ उस्ताद जी के सेव के बाग थे, चले गए थे. पन्द्रह दिन बाद लौटने वाले थे. मेरे नाम से राष्ट्रीय ललित कला अकादमी की चिट्ठी आयी थी. जिसके हिसाब से मुझे अगले सोमवार को गढी में समर कैम्प में शिरकत करनी थी. उस्ताद जी के न होने से दिन बड़े खाली-खाली से लग रहे थे.
सोमवार को जब मैं गढी स्टूडियो गया, तो देवराज ने बताया कि आज से सभी कार्यशालाएं शुरू होंगी. मेरे दिये नामों में से तीन लोग तो चुन लिए गए थे.
मध्यप्रदेश से हम कुल पांच लोगों का चयन हुआ था. ग्वालियर से मैं, यूसुफ, ग्राफिक के लिए शशिकांत मुण्डी और श्याम शर्मा स्कल्पचर के लिए और जबलपुर से अशोक भंडारी सेरेमिक के लिए. देश के सभी प्रदेशों से दो तीन स्टूडेंट्स आये थे. केवल गुजरात खासकर बडौदा के ज्यादा थे, लगभग दस. इन विद्यार्थियों के साथ ही बडौदा से एक सज्जन और भी आये थे.
वो थे एन. बी. जोगलेकर सर, जो बडौदा विश्वविद्यालय में लिथोग्राफी पढाते थे. एचिंग के मार्गदर्शक देवराज थे. आज का दिन तो उद्घाटन में और कार्यशाला की तैयारी में ही गुज़रा. असली काम तो कल से शुरू होनेवाला था.
बहुत सुंदर संस्मरण बहुत सुन्दर शब्दों में।