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समालोचन

Home » उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से : विवेक टेंबे » Page 5

उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से : विवेक टेंबे

चित्रकार, कलाकार, विचारक और कवि जगदीश स्वामीनाथन (जून २१, १९२८ – १९९४) के शिष्य विवेक टेंबे ने अपने उस्ताद के संग-साथ को इधर लिखना शुरू किया है. यह संस्मरण अप्रतिम कलाशीर्ष स्वामीनाथन के विविध रंगों से आलोकित है और उनके समय, सहयोगियों को भी मूर्त करता चलता है. यह एक निर्मित हो रहे कलाकार की सीढियाँ हैं जिनपर वह झिझकते हुए चढ़ रहा है. ख़ास आपके लिए यह प्रस्तुत है. 

by arun dev
July 12, 2020
in कला, पेंटिंग
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पांच

 

ललित कला का समर कैम्प

दूसरे दिन गढी स्टूडियो में मेला सा लगा हुआ था. सबसे ज्यादा भीड़ ग्राफिक स्टूडियो में ही थी. कुछ कलाकार नाश्ता पानी में व्यस्त थे, तो कुछ स्टोर से ग्राफिक मटेरियल ईशू करवा रहे थे. ग्राफिक से मेरा और यूसुफ का परिचय तो बस नाम मात्र का था. ग्वालियर स्कूल ऑफ आर्ट में हमें लिनोकट और वुडकट की थोड़ी बहुत ही जानकारी थी. बडौदा के विद्यार्थियों को इस विषय की अच्छी जानकारी थी. इसलिए उन्होंने अपना सामान ले कर काम शुरू कर दिया था. बडोदा से आये लोगों में वीरेंद्र पटेल, राजीव लोचन, प्रतिभा (तब वो डाकोजी नहीं हुई थी), बेला रावल, तारा सभरवाल, गोवा से हनुमान काम्बली आदि लोग थे. मई में वसंत ऋतु का माहौल बन गया था. कुछ लोगों ने जल्दी काम शुरू कर दिया था. इनमें से प्रतिभा, वीरेंद्र पटेल और राजीव से मेरी अच्छी मित्रता हो गई थी. वे एचिंग कर रहे थे, पर हमने काम लिथोग्राफी पर शुरू किया. एक तो वह नया माध्यम था साथ ही पढाने वाले जोगळेकर जैसे गुरु थे.

अधिकांश लोगों का इरादा एक एक, दो दो  काम करने का ही था. पर मैंने और यूसुफ ने तय किया कि हमें इस मौके का पूरा फायदा उठाना चाहिए. इसलिए हमने तकनीक को समझने और सीखने पर ज्यादा ध्यान दिया और लगभग सभी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए हर तकनीक के पांच पांच प्रिंट बनाये. एक महीने में ही आधी भीड़ छट गई और हमें काम करने का भरपूर मौका मिला. जोगळेकर सर ने मुझसे कहा, यहाँ कॉलेज के सेशनल्स नहीं बनाने हैं. ग्राफिक एक माध्यम है, तुम इसकी तकनीक को समझ लो और उसमें महारत हासिल करो. इस माध्यम में चुनौतियां बहुत हैं और अक्सर आर्टिस्ट तकनीक में ही फंस जाते हैं. इस माध्यम में अभी भी बहुत संभावनायें है, जिनको एक्सप्लोर किया जाना बाकी है.

वापस जाने से पहले सभी लोगों ने अपने कामों के पाँच आर्टिस्ट प्रूफ  निकाल कर जमा कर दिए थे. सभी कामों की एक प्रदर्शनी भी लगायी जानी थी. हमें जब पता लगा कि जोगळेकर सर रुकने वाले हैं तो हमने तय किया कि  कुछ और रुक कर सर के मार्गदर्शन में काम किया जाय. देवराज ने बताया कि सर लिथोग्राफी के लीविंग इनसायक्लोपिडिया हैं.

दूसरे दिन यह देखने कि उस्ताद शिमला से आ गये कि नहीं, मैं उनके घर पहुँचा. कालीदास ने बताया कि दोपहर तक आ जायेंगे. यह सुनकर मैं अपना काम करने गढी स्टूडियो पहुंचा. लिथोग्राफी काफ़ी कष्टसाध्य माध्यम है. एक पूरा दिन तो स्टोन बनाने में लग गया, शाम हो गई थी, मैं स्टूडियो से उस्ताद जी से मिलने के लिए चल दिया.

घर में उस्ताद जी, और अंबादास जी ओल्ड मोंक की संगत कर रहे थे. दोनों बेहद खुश नज़र आ रहे थे, मुझे देख कर उस्ताद बोले आओ आओ बैठो, आज तुम्हे कुछ सुनाते हैं. मैं पास ही में बैठ गया, उस्ताद ने पूछा विवेक तुम लोगे ?

मैंने इन्कार में सिर हिलाया,

एक छोटा? फिर सवाल

नहीं अप्पा,  ..मैं ने कहा

फिर उस्ताद ने कुछ नहीं कहा

अम्बादास जी बोले सुनाओ स्वामी….

तब उस्ताद ने  बताया कि शिमला में उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं ओर वे पहला पाठ कर रहे हे हैं.

सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे अचानक कोई खजाना मिलने वाला हो.

स्वामी जी ने पाठ शुरू किया.

पुराना रिश्ता

पर्वत की धार पर बाहें फैलाये खडा है
जैसे एक दिन
बादलों के साथ आकाश में उड जायेगा जंगल
कहते हैं पहले कभी
कोकू नाले तक उतरे थे ये देवदार
और आसमान को ले आये थे इतने पास
कि रात को तारे जुगनू से
गाँव में बिचरते थे
अब तो बस जब मक्की तैयार होती है
तब एक सुसरा रीछ
पार से उतरता है
छापेमार की तरह बरबादी मचाता है
अजी क्या तमंचे, क्या दुनाली बंदूक
सभी फेल हो गये महाराज
बस, अपने ढंग का एक ही, बूढा खुर्राट
न जाने कहाँ रह गया इस साल

मैं मंत्रमुग्ध सा सुन रहा था, यह मेरा पहला अवसर था जब मैं किसी कवि की कविता उन्हीं के मुख से सुन रहा था. अम्बादास जी के आग्रह पर उन्होंने उसे फिर सुनाया. इस पाठ में उस्ताद की आवाज़ का अलग ही मजा था.

फिर उस्ताद ने एक और कविता सुनायी.

मनचला पेड़ 

बीज चले रहते हैं हवा के साथ
जहाँ गिरते हैं जम जाते हैं ढीठ
वृक्ष बन जाते हैं
और टिके रहते हैं कमबख़्त
बगलों की तरह, या कि जोगी हैं महाराज
आज तो आकाश निर्मल है
पर पार साल
पानी ऐसा बरसा कि पूछो मत
हम पहाड़ के मानुस भी सहम गये
एक रात
ढाक गिरा
और उस के साथ
हमारा पंद्रह साल बूढा रायल का पेड़
जड समेत उछल कर चला आया
धार की उंचाई से धान की क्यार तक

(अबे जहाँ खड़ा था वहां तुझे तकलीफ थी या बोरड खा गये थे बेवकूफ)

सेटिंग ठीक होने पर दस पेटी देता था दस
मै तो सिर पीट कर रह गया मगर
लंबरदारिन ने नगाड़े पर दी चोट पर चोट
इकट्ठा हो गया सारा गाँव
गड्ढा खोदा रात भर लगे रहे पानी में
और खड़ा किया मनचले को नये मुकाम पर
अचरज है, सुसरा इस साल फिर से लदा है….

इस कविता को भी हमारी दाद मिली और उस्ताद ने उसे भी फिर से सुनाया. मुझे मजा़ आने लगा था, तभी  अम्मा जी ने खाने की सूचना दी और हम सभी उठ गये. मैंने उस्ताद जी को समर कैम्प के बारे में बताया और उनकी अनुमति से घर के लिये रवाना हुआ . रास्ते भर वो दोनों कविताएँ मेरे कानों में गूंजती रहीं. शास्त्रीय संगीत और भाषण तो मैंने बहुत सुने थे. पर कविता सुनने का मेरा पहला मौका था और वो भी उस्ताद की आवाज़ में. मैं मुग्ध था.

सुबह मैं सोच रहा था कि उस्ताद के घर जाऊँ या स्टूडियो, फिर मैंने स्टूडियो जाना तय किया. स्टूडियो पहुंच कर मैं अपने काम में लग गया.

मैंने स्टोन पर फाइन ग्रेन किया था और उस पर वाटर कलर्स की तरह काम करना चाहता था. मैंने ड्राइंग शुरू की, जब काम खतम किया तब तक शाम हो गई थी. बाहर आ कर मैंने साउथ एक्स्टेंशन के लिए बस पकडी और उस्ताद के घर पहुँचा, वे अम्मा जी के साथ गप्पें लगा रहे थे. नमस्कार कर मैने अम्बादास जी के बारे मे पूछा तो उन्होने बताया कि वो नार्वे चले गये. फिर वे दोनों बड़ी देर तक अपनी कोटखाई, यात्रा के संस्मरण सुनाते रहे, कुछ फोटो भी दिखाये और बोले अबकी बार तुम भी चलना, पिता जी की तबीयत के बारे में भी बड़ी आत्मीयता से पूछताछ की, फिर मैंने उन्हें गढी स्टूडियो में लिथोग्राफी में अपने किये काम के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि कल जब वे गढी आयेंगे तो देखेंगे भी और बात भी करेंगे. काफी देर हो चुकी थी, इसलिए मैंने उस्ताद से घर जाने की इजाजत मांगी. उन्होंने अम्मा जी को इशारा किया तो अम्मा जी ने मुझे एक थैला दिया बोलीं ये तुम्हारे लिए, अपने बाग के सेव हैं. सेव लेकर मैं घर आ गया .

सुबह मैं तैयार हो कर सीधे गढी स्टूडियो ही चला आया, उस्ताद दोपहर मे आने वाले थे. मैंने अपने ड्राइंग को फिनिश किया और जोगलेकर सर से प्रोसिंग के बारे में टिप्स लिए. इतने में उस्ताद ने स्टूडियो में प्रवेश किया. शाम हो गई थी और अधिकांश लोग ललित कला गेस्टहाउस चले गये थे. पर जो बचे थे वे सब उस्ताद के इर्दगिर्द आ गये. पहले उन्होंने सबके काम देखे. काम देखते हुए उन्हें वार्सा, पोलैंड में बिताये दिन याद आ गये. उस्ताद ने बताया कि उन दिनों पोलैंड ग्राफिक आर्ट के लिए बड़ा प्रसिद्ध था. उन्हें एक मित्र के सहयोग से न केवल एकेडेमी ऑफ फाईन आर्ट्स में एडमिशन मिल गया था बल्कि साथ साथ तीन साल के लिए स्कॉलरशिप भी मिल गयी थी. उन दिनों वहाँ भारतीय चित्रकार जीवन अदलजा भी काम कर रहे थे. शुरू मे सब कुछ अच्छा था. शानदार हॉस्टल के आरामदायक कमरे, मस्ती करने वाले मित्र, मेरे लंबे काले बालों की वजह से लडकियां मुझे जिप्सी के नाम से पुकारतीं थीं. मेरे दोनों शिक्षक Morzczak और Kulisicwicz पोलैंड के महान प्रिंट मेकर थे. वार्सा मे मैं बहुत खुश था, पर  सर्दियों में माइनस 20° तापमान में ठंड ने इतना परेशान कर दिया कि काम करना मुहाल हो गया था. और फिर घर की याद ऐसी आयी कि स्कॉलरशिप छोड़ कर महीना पूरा होने के पहले ही मैनें दिल्ली वापसी की फ्लाइट पकडी. फ्लाइट के टिकट के लिए भी झगडना पडा. फ्लाइट के पालम हवाई अड्डे दिल्ली पहुँचने पर उतरते ही मैंने जूते उतार दिए और टर्मिनल की और दौड लगा दी थी.

किस्सों में मज़ा तो आ रहा था, कि अचानक उस्ताद बोले चलें, हमलोग स्टूडियो से निकले. मैंने स्वामी जी से कहा कि अब मैं दो तीन दिन घर नहीं आऊँगा, क्योंकि फाइनल प्रिंट लेने है. उस्ताद ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और रास्ते में मुझे मूलचन्द के स्टॉप पर उतार दिया. वहां से मेरा घर बिलकुल पास था.

दूसरे दिन जब मैं स्टूडियो पहुँचा तो वह खाली था. केवल वेद स्टूडियो व्यवस्थित कर रहा था. यूसुफ ग्वालियर लौट गया था. लेकिन शशिकांत मुण्डी को विपिन गोस्वामी ने उसे अपनी मदद के लिए रोक लिया था. उन्हें अकादमी के लिए रामकिंकर दा के मूर्तिशिल्प की लघु अनुकृति बनाने का काम सौंपा गया था. इसलिए वह नहीं गया था. थोड़ी देर में सरोज पाल गोगी भी आ गयी. कार्यशाला की वजह से अन्य लोगों को कुछ दिन के लिए रोक दिया गया था.

दोपहर में देवराज एक व्यक्ति  के साथ स्टूडियो में आए और मुझे आवाज दे कर बुलाया. बोले, विवेक ये विवान सुन्दरम हैं, अमृता शेरगिल फॉउण्डेशन के सर्वेसर्वा. ये अगले सप्ताह से यहाँ एक नेशनल ग्राफिक वर्कशॉप आयोजित कर रहे हैं. जिसमें देश के ख्याति प्राप्त ग्राफिक आर्टिस्ट शिरकत करेंगे. सभी आर्टिस्टों को अपने काम के पचास-पचास के एडीशन निकालने हैं. इस काम में  तुम और वीरेन्द्र पटेल मदद करोगे, ऐसा आश्वासन मैंने विवान को दिया है और दोनों को इस काम का उचित पारिश्रमिक भी दिया जायेगा. क्या तुम इस काम को करना चाहोगे ?

अरे वाह क्यों नहीं, मेरे मुंह से निकला यह तो मेरे लिए स्वर्णिम अवसर है, मैंने तुरंत अपनी स्वीकृति दे दी. शाम को उस्ताद के यहाँ जा कर इस नये काम की जानकारी दी, उस्ताद बहुत खुश हुए, बोले ये तो बहुत अच्छा हुआ. तुमने क्या क्या और कितना सीखा है इस बात की परीक्षा भी हो जायेगी. मैं आऊँगा एक दो दिन बाद, अभी मैं कुछ लिख रहा हूँ.

क्या कुछ नयी कविता लिख रहे हैं, मैंने पूछा.

नहीं नहीं कुछ और …वे मुसकुराते हुए बोले.

मैंने पूछा आप बाकी कविताएँ कब सुनायेंगे, मेरे पूछे को अनसुना करते हुये उन्होंने पूछा, विवेक, इन सात कविताओं की एक पुस्तक सी बन सकती है क्या.

मैंने कहा, हाँ, क्यों नहीं.. वे कुछ और सोचने लगे, थोड़ी देर खामोशी रही. फिर बोले, यार अब काम शुरू करना पड़ेगा. कल तुम आ जाओ सुबह, तो अपन कैनवस स्ट्रैच कर लेंगे.

जी, ठीक है…मैंने कहा और उनसे विदा ली.

(यह श्रृंखला कवि और कला, रंग-विर्मशकार राकेश श्रीमाल के सहयोग से प्रस्तुत की गयी है )

विवेक टेंबे

विवेक का जन्म मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में 5 नवंबर1951 में हुआ था. उन्होंने ललित कला महाविद्यालय, ग्वालियर से 1973 में चित्रकला और 1977 में मूर्तिकला में डिप्लोमा प्राप्त किया. इसके बाद भारत शासन की राष्ट्रीय छात्रवृत्ति के अन्तर्गत प्रसिद्ध चिंतक एवं चित्रकार जे.स्वामीनाथन के निर्देशन में तीन वर्षों तक (1976-78) कार्य किया. 1995  में वे राष्ट्रीय ललित कला अकादमी पुरस्कार के निर्णायक मंडल के सदस्य बने.

2001 मे मध्यप्रदेश शासन ने कला क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उन्हें शिखर सम्मान से सम्मानित किया. कई एकल एवं समूह प्रदर्शनियों मे शिरकत की. शारजाह में मध्यप्रदेश की प्रदर्शनी का आकल्पन. लेखक-चिंतक उदयन वाजपेयी के साथ आदिवासी चित्रकार जनगढ़सिंह श्याम पर एक पुस्तक ‘जनगढ़ कलम‘ का प्रकाशन.

भोपाल में रहते हैं.

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Tags: अंबादासजगदीश स्वामीनाथनजे स्वामीनाथनविवेक टेंबे
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Comments 1

  1. प्रयाग शुक्ल says:
    3 years ago

    बहुत सुंदर संस्मरण बहुत सुन्दर शब्दों में।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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