| प्रभा नर्सिंग होम
जयशंकर |
राधा को अपने स्कूल से नर्सिंग होम तक पैदल चलकर आने में दस मिनट भी नहीं लगते हैं. बीच में सकरी-सी सड़क है. उस सड़क के दोनों तरफ सप्तपर्णी के पेड़ों की कतार. इन दिनों में सप्तपर्णी के पेड़ों पर फूल हैं. पेड़ों के नीचे हवाओं से गिरे हुए फूल भी.
प्रभा नर्सिंग होम पीली और आधी दीवारों से घिरे हुए कम्पाउन्ड के बीचोंबीच खड़ा हुआ है. एक छोटी-सी लेन के किनारे. लेन के उस तरफ कुछ पुराने बंगले हैं. एक अमरोलीवाला का सफेद बंगला. एक अनिता थाम्पसन का लाल दीवारों का छोटा-सा बंगला.
यह नर्सिंग होम पुराना है. कभी डॉक्टर बेड़ेकर की माँ का “सूतिका गृह” कहलाता था. वहाँ काम कर रही आनंदीबाई राधा की बुआ थी. अपने बचपन के दिनों में ही राध अपनी बुआ का टिफिन पहुंचाने इस नर्सिंग रूम में रोज ही जाया करती थी.
इन दिनों उसकी आई वहाँ पर भर्ती है. पिछले एकाध महीने से. आई की याददाश्त गड़बड़ाने लगी है. वह बहुत ज्यादा भूलने-भटकने लगी है.
“क्या अब आई की याददाश्त लौटेगी ही नहीं” राधा पूछती है.
“यह कहना मुश्किल है.”
“इन दिनों चिड़िया से भी कम खाने लगी है.”
“खा तो रही है… इस उम्र में यह भी कोई छोटी बात नहीं है.”
“समझ में नहीं आ रहा कि कुछ ही दिनों में हमारा सब कुछ बदल गया… कल तक आई बच्चों को पढ़ा रही थी.”
“तुमने गौतम बुद्ध की जिंदगी का यह किस्सा सुना ही होगा….”
राधा चुप हो गयी. इस वक्त वह डॉक्टर बेड़ेकर की समझ और सनक से दूर ही रहना चाह रही थी. उन्हें नर्सिंग होम में भर्ती हुए दूसरे मरीजों को देखना भी था. शाम ढल रही थी. ताराबाई आती ही होगी. राधा स्कूल से सीधे आ गयी थी. कुछ देर के लिए घर जाना चाहेगी. तब तक ताराबाई आई के पास रहेगी.
उनकी आई पिछले एक महिने से प्रभा नर्सिंग होम में भर्ती है. आई सिनाइल डिमेंशिया की शिकार हो चुकी है. सत्तर की उम्र को छू रही है. यह मार्च है. पिछले नवम्बर में इन दोनों बच्चों ने अपनी आई का जन्मदिन मनाया था. उनका बेटा उपहार में उनके लिए लक्ष्मीबाई तिलक की आत्मकथा ले आया था, जिसे मिसेज रानाडे नर्सिंग होम में आने के पहले तक धीरे-धीरे पढ़ती रही थी.
प्रभा नर्सिंग होम चर्च स्क्वॉयर के करीब है. पड़ौस में शहर का मशहूर हसन गैरेज. कारों की मरम्मत के लिए जानी जाती एक जगह. मिसेज रानाडे की याददाश्त के गड़बड़ाने का एकदम शुरुआती अनुमान हसन गैरेज के मालिक मुस्तफा अंकल को ही हुआ था. वे बरसों से मिसेज रानाडे को सुबह की सैर के वक्त मिलते रहे थे.
“मुझे दो-तीन दिनों से ऐसा लग रहा है कि वे मुझे पहचान नहीं रही हैं.”
“देखती हूँ अंकल… ताराबाई से भी पूछती हूँ” राधा ने कहा था.
“उन्होंने मुझे नहीं पहचाना…. वे मेरे सामने से किसी अजनबी की तरह चली गयीं दो-तीन बार….”
उसी शाम ताराबाई ने भी कन्फर्म किया था कि उसकी आई काफी कुछ भूलने लगी है. यह मकर संक्रांत के आसपास की बात होगी. अब मार्च की हवाओं के चलने के दिन हैं. मिसेज रानाडे सिनाइल डिमेंशिया की तकलीफों को लिए हुए प्रभा नर्सिंग होम में रह रही हैं.
राधा यहीं एक प्रायमरी स्कूल में पढ़ाती है. रवि यहाँ से सत्तर किलोमीटर की दूरी पर स्थित सेंट्रल स्कूल में. भूगोल पढ़ाता है. ये दोनों ही अविवाहित हैं. इनकी बड़ी बहन कोल्हापुर में अपने भरे-पूरे परिवार में रहती है. सर्दियों में इनकी आई कोल्हापुर में रही थी. रिटारयर हो जाने के बाद से वे हर साल अपना थोड़ा-सा वक्त अपनी बड़ी बेटी के यहाँ बीताती आयी हैं.
“उनकी जिंदगी आसान नहीं रही” रवि कहता है.
“उनका शरीर तो ठीक ही रहा है.”
“मन थक जाता है… तुम बहुत ही छोटी थी… आई को अपने स्कूल में देर-देर तक काम करना पड़ता था… वह अकेली काम कर रही थी… स्कूल में ही उनको हार्ट अटैक आया था.”
“तुम्हें बाबा का चेहरा याद है?”
“बहुत ही धुंधला-सा… उनके मरने के वक्त मैं आठ बरस का था.”
“अक्का भी छोटी ही रही होगी?”
“वह दस की थी… प्रायमरी के आखरी साल में.”
रवि और राधा बीच-बीच में अपने परिवार के बारे में, उसके अतीत को लेकर अकसर बात कर लिया करते थे. नर्सिंग होम के चारों तरफ पुराने और बड़े-बड़े छायादार पेड़ खड़े हुए हैं. उनके नीचे बेंचें रहती हैं. प्रभा नर्सिंग होम इनके घर से आधे किलोमीटर की दूरी पर खड़ा होगा. डॉक्टर बेडेकर की माँ भी डॉक्टर रही. अभी वे जीवित हैं लेकिन नर्सिंग होम के ऊपरी हिस्से के घर में रहती हैं. डॉक्टर की पत्नी के मरीज नर्सिंग होम में एडमिट रहते हैं. ज्यादातर गर्भवती औरतें. बारह बिस्तरों के नर्सिंग होम में बच्चों के रोने की आवाजें, युवा औरतों के सिसकने, कराहने की आवाजें बनी रहती हैं.
“तुम्हारा जन्म इसी नर्सिंग होम में हुआ था” मिसेज रानाडे कहती हैं.
“आई तुम दस बार यह बता चुकी हो” रवि मुस्कुराते हुए कहता है.
“आजकल बहुत ज्यादा भूलने लगी हूँ… पता नहीं मेरे साथ क्या हो रहा है.”
“सब ठीक हो जायेगा… जल्दी ही ठीक हो जायेगा” राधा कहती है.
शाम के ढलने का वक्त है. गली में नीम अंधेरा छाया हुआ है. अनिता थाम्पसन के घर से जैज के किसी रिकार्ड के स्वर उभर रहे हैं. बरसों पहले का कोई अश्वेत गायक का स्वर.
“तू बहुत कमजोर था… मुझे अस्पताल में दस-बारह दिन रहना पड़ा था.”
इनकी आई को उनकी पचास बरस पहले की जिंदगी साफ-साफ याद आ जाती है. उस जिंदगी का एक-एक डिटेल. दिन या रात का पहर तक. मौसम का मिजाज भी. पर अभी-अभी घटा हुआ भूल जाती है. अपने चाय पिये जाने को. बालों को कंघी करने को.
“कोई बीमारी है या कुदरत का कोई खेल… जादू-सा महसूस होता है” राधा कहती है.
“सावनेर में एक बड़ा ओझा रहता है… मिनटों में मरीज खड़ा हो जाता है” ताराबाई सुझाती है.
ताराबाई इनके घर से जुड़ी ही रही. चालीस से ज्यादा बरस होने को आये हैं. बहुत-बहुत पहले इनके घर के कम्पाउंड में मंगला गौरी पूजा के दिन फूल लेने आयी थी. तब मिसेज रानाडे प्रायमरी स्कूल में पढ़ाती थीं. जान-पहचान हो गयी. ताराबाई सुबह-शाम चपाती बनाने के लिए आने लगी. धीरे-धीरे घर की रसोई सम्हालने का काम उनके जिम्मे आता गया. उनका अपना घर-परिवार इनके इलाके ही था. वैसे ये लोग ग्रामीण इलाके से आये थे.
“तब यहाँ इतने घर नहीं थे… फ्लैट तो शायद एक भी नहीं” ताराबाई बताती है.
“विक्टोरियन स्टाइल के बंगले बहुत थे… एक-एक कर हर बंगला टूटता गया… अब वहीं फ्लैट्स खड़े हुए हैं” राधा कहती है.
नर्सिंग होम के परिसर में पीपल का भी बरसों पुराना पेड़ खड़ा है. उसके चबूतरे पर देवी की आधी-अधूरी पत्थर की प्रतिमा खड़ी रहती है. वहीं एक झूला भी खड़ा रहता है. राधा बचपन से इस झूले को देखती आयी है. इन दिनों में झूले पर बैठना भी हुआ है. आई जब नींद में रहती है तब वह वार्ड से निकलकर यहाँ आ जाती है. बैग में कोई किताब रहती ही है. कभी पढ़ती है और कभी आते-जाते राहगीरों को, अस्पताली हलचलों को देखती रहती है.
राधा को अपने चालीस बरस के जीवन का कितना कुछ याद आता रहता है. आई का जीवन. अपने बड़े भाई की जिंदगी. अपना पहला और आखरी प्रेम. उसके प्रेम का एक साल का भी इतिहास नहीं रहा. पर जितना उनका साथ रहा. उसका एक-एक दिन, हर दिन राधा के लिए अब तक यादगार बना हुआ है. वह लड़का एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया था. छब्बीस बरस का रहा होगा. मिशनरी के स्कूल में स्पोर्ट टीचर था. जीवित रहता तो छह महिनों के बाद राधा से उसकी शादी होनी थी. उन दोनों की सगाई हो चुकी थी.
राधा को किसने नहीं समझाया? लेकिन वह नहीं मानी तो नहीं ही मानी. उसी स्कूल में पढ़ाती रही जिस स्कूल के गलियारों में अपने प्रेमी से मुलाकातों को जीती रही थी. रवि चार बरस बड़ा है. छोटी बहन ने अकेले रहने का फैसला किया और उसके अपने कदम विवाह के लिए डगमगाने लगे. धीरे-धीरे वह भी विवाह की उम्र को खोता चला गया. अब वह चवालीस के आसपास होगा. दोनों भाई-बहन मित्रों की तरह साथ-साथ बने रहते हैं. देर-देर तक बातचीत और बहस करते रहते हैं.
“जिंदगी गुजरती चली जाती है…. कहीं भी, कभी भी रुकने का नाम नहीं लेती है” रवि सोचता रहता है.
अस्पताली गलियारे में अपनी आई के बिस्तर के करीब बैठा रहता है. आई नींद में. नर्स पूरे वार्ड में घूमती हुई. कभी कोई नवजात बच्चा रोने लगता है. कोई डिलीवरी के लिए लाया जाता है. कोई डिलीवरी के बाद अपने घर लौटती रहती है. आई की नींद टूटती-बिखरती रहती है. वार्ड में ताजुद्दीन बाबा की बड़ी-सी तस्वीर टंगी है. वहाँ फूलमाला चढ़ायी जाती है. अगरबत्ती जलती रहती है.
“सब कुछ उसके हाथ में है” अधेड़ उम्र की नर्स कहती रहती है. डॉक्टरनी की अपनी अलग-सी मेज है. अलग-सा कमरा. वहाँ पर एक कोने में साईंबाबा की तस्वीर टंगी रहती है.
मिसेज रानाडे अपने विवाह के बाद इस शहर में आयी थीं. पति पब्लिक लाइब्रेरी में ग्रंथपाल थे. लाइब्रेरी के पड़ौस में ही उनका मकान. पहले किराये का रहा. बाद में इन लोगों ने खरीद लिया. दोनों बच्चों का जन्म इसी इलाके में हुआ. डॉक्टर की माँ के नर्सिंग होम में. तब तक मिसेज रानाडे ने स्कूल पढ़ाना शुरू नहीं किया था. राधा के होने के चार बरसों के बाद, उसके पिता की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी. उनकी ही खाली जगह पर मिसेज रानाडे को पहले लाइब्रेरियन और ट्रेनिंग होने के बाद अध्यापन का काम सौंपा गया था. वह अठ्ठावन बरस की उम्र में रिटायर हुई थीं.
“उन बरसों का दीदी का जीवन बहुत ज्यादा कठिन रहा” ताराबाई बताती है.
“हम दोनों की देखभाल कौन करता था?” राधा पूछती है.
“तुम्हारी नानी यहीं रहने लगी थी… तुम्हारी बुआ ने भी बहुत सम्हाला था.”
“और तुमने भी तो हमारी कम सहायता नहीं की है.”
“मैं सुबह-शाम खाना बनाने आया करती थी… मेरे भी घर में मेरे दो-दो बच्चे बड़े हो रहे थे” ताराबाई अधूरा सच व्यक्त किया करती थी. उसने इन दोनों को भी अपने ही बच्चों की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया था. ताराबाई ने जब इनके घर में काम करना शुरू किया था तब वे अपने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत कर रही थी. अब वे बूढ़ी हो रही है. चार लोगों की दादी और नानी है. भंडारा के आसपास के ग्रामीण और गोंड लोगों के इलाके से शादी के बाद इस शहर में आयी थी.
रवि और राधा ने ताराबाई से आदिवासियों के इलाके के न जाने कितने-कितने गाने और किस्से सुने हैं. कभी वे इन दोनों को अपने गांव भी ले गयी थी. राधा को वहाँ की लम्बी-चौड़ी नदी, वहाँ के पुराने शिव मंदिर की सीढियों की याद आती रहती है. रवि ने तभी बरसों पुराने तालाबों को पहली बार देखा था.
“आदिवासियों की जीवन-जगत की अपनी गहरी समझ रही है” रवि सोचता रहता है.
बाद के दिनों में बस्तर की यात्राएं करते हुए रवि को और-और समझ में आया था कि आदिवासियों की अपनी सभ्यता और संस्कृति कुछ कम विकसित नहीं थी. उनका अपना ज्ञान-विज्ञान था, अपनी कला और संगीत. यही भी रहा होगा कि रवि ने कभी अपने स्कूल में छात्रों के बीच तीजनबाई के पंडवानी गायन का प्रोग्राम करवाया था. रवि ही नहीं कस्बे और स्कूल के लोगों ने पंडवानी के जादू और जीवन को देर तक अपने साथ पाया था.
राधा समय काटने के लिए जासूसी और मनोरंजक अंग्रेजी उपन्यासों को पढ़ती रही है. इस इलाके की सर्कुलेटिंग लाइब्रेरी से, अपने स्कूल की लाइब्रेरी से अगाथा क्रिस्थी, डिफोन मॉरियर की किताबें लेती रहती है. रवि की दिलचस्पी गंभीर किताबों में रहती है. वह कम पढ़ता है लेकिन अच्छी और गंभीर किताबें. वेस्टर्न बुक डेपो और कोहिनूर एजेन्सी से वह अपने लिए किताबें और कैसेट्स खरीदता आया है. उसकी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में दिलचस्पी रहती आयी है.
“वह बचपन से ही ऐसा रहा है” मिसेज रानाडे को लगता है.
“और मैं?” राधा पूछती है.
“तुम्हारे अंदर कभी भी गंभीरता नहीं रही…. तुम अधीर बनी रहती हो.”
“वह बेटा है न आपका?”
“मैंने कभी भी ऐसा नहीं सोचा है.”
“तुम्हें अपने बारे में गलतफहमी है.”
“हो सकती है.”
माँ और बेटी के बीच लड़का और लड़की के बीच का, समाज का यह भेदभाव, हमेशा से बहस का विषय रहता आया है. राधा को लगता रहा है कि उसकी माँ ने अपने बेटे पर जितना ध्यान दिया है, उसका आधा भी अपनी बेटी पर नहीं. राधा को लगता रहता है कि उसकी आई को अपने बेटे का अकेलापन नजर आता रहता है लेकिन बेटी का नहीं.
नर्सिंग होम के परिसर में बीतते हुए अपने समय के बीच राधा को कितना कुछ याद आता रहता है. उसकी आई ज्यादातर सोती रहती है. उनकी एक दवाई नींद की भी है. डॉक्टर बेड़ेकर से खूब-खूब बातचीत हो सकती है लेकिन वह उनकी समझ, उनकी सनक से दूर रहना चाहती है. उनसे भी. उनकी निगाहों से भी.
“मृत्यु सिर्फ एक मजाक है” डॉक्टर ने कहा था और अपनी ही बात पर हंसने लगे थे. यह अच्छा रहा कि वार्ड के भीतर उनकी यह बात अंग्रेजी में आयी थी. वहीं सात-आठ पलंगों पर कुछ गर्भवती, कुछ हाल ही माँ बनी लड़कियां थीं.
“वे बरसों अकेले रहे… मिलटरी अस्पताल में थे” मिसेज रानाडे कहतीं.
“इससे क्यो कोई झक्की हो जाता है… तुम कुछ भी कहो लेकिन मुझे उनकी निगाहों में खोट नजर आता है.”
“तुम उनके बाग में क्यों नहीं बैठती” रवि कहता है.
“वहाँ खूब मच्छर रहते हैं… उस दीवार के पीछे ही स्कूल का टायलेट है.”
“ मुझे क्या हमेशा यहाँ रहना है?” आई पूछती है.
“ताराबाई रात में रह जाती.”
“उसे यहाँ नींद नहीं आती है… शाम तक तो रहती है बेचारी… उसका अपना भी तो घर है… वह हमारी सगी तो नहीं है.”
“हमारा अपना कोई सगा है तो ताराबाई ही है… वह न होती तब हमारा यह संकट बहुत बड़ा हो जाता था.”
राधा को आई की बात समझ में आती है. वह कम से कम दिन में स्कूल तो चही ही जाती है. रवि सिर्फ दो दिनों के लिए आ पाता है. आई का ब्लडप्रेशर कंट्रोल में नहीं आ रहा है. डिमेंशिया की तकलीफें बढ़ नहीं रही है. इंसोमेनिया चला गया है. मिसेज बेड़ेकर का कहना है कि राधा अपने घर में सो सकती है लेकिन उसका मन नहीं मानता. वह आई के बिना शायद ही कभी सोयी होगी. अपने स्कूली दिनों में स्काउट के कैंपों में जाती थी और रात-रात भर जागती रहती थी.
“और जब एक दिन आई नहीं रहेगी” ताराबाई समझाती है.
“तब और बात रहेगी.”
“मुझे भी यह डॉक्टर अच्छा नहीं लगता है… बुरी तरह घूरता रहता है.”
“क्यों तुम्हारे साथ कोई हरकत…” राधा चौंकती है.
“नहीं… नहीं… मुझ बुढिया के साथ क्या करेगा… लेकिन उसकी निगाहें बुरी हैं.”
“रवि को मत कहना… वह मेरे लिए परेशान हो जायेगा.”
“दीदी को अब ज्यादा दिन नहीं रखेंगे… अब वह पहले से अच्छी है.”
“कौन कह रहा था?”
“डॉक्टरनी… कह चुकी है.”
“कब कह रही थी?”
“डॉक्टरनी तो दो-तीन बार कह चुकी है… कल भी बाहर से आये डॉक्टर को बता रही थी.”
आई के लिए एक मनोचिकित्सक बीच-बीच में आते रहे हैं. प्रभाकर भावे. उन्होंने ही राधा और रवि को उनकी आई की बीमारी के बारे में विस्तार से समझाया था. उनके पास हमेशा ही किसी न किसी को रखने का सुझाव दिया था. कभी भी अकेले नहीं छोड़ने का भी.
“यहाँ कुछ दिन रहने दें… चहल-पहल बनी रहती है… शायद उनकी याददाश्त लौट भी सकती है.”
“पर डॉक्टर बेड़ेकर कह रहे हैं कि अब आई की याददाश्त लौटना मुश्किल है.”
“मैं ऐसा नहीं सोचता….”
यह डॉक्टर युवा है. बाहर से पढ़कर आये हैं. उम्मीद नहीं छोड़ने का सुझाव देते हैं.
“आदमी उम्मीद ही छोड़ देगा तो उसके पास क्या बचेगा?” भावे कहते हैं.
“लेकिन विज्ञान भी तो सच कहता है” रवि पूछता है.
“आदमी के सच को कोई नहीं जानता है… विज्ञान भी धर्म की तरह ही बेबस है… आदमी को किसने जाना है?”
डॉक्टर भावे यह सब बेड़ेकर सर की कैबिन में समझा रहे थे. डॉक्टर बेड़ेकर बाहर रहे होंगे. उनकी मेज पर दवाइयों के विज्ञापन पड़े थे. मेडिकल बुलेटिन, दवाइयों के नमूने और टाइम्स ऑफ इंडिया के अंक. दीवार पर ग्रीक चिकित्सक की संगमरमर की प्रतिमा थी और पड़ौस में उनके फ्रेम किये गये सर्टिफिकेट्स, उपलब्धियां और उनकी तस्वीरें. एक तस्वीर में डॉ. बेड़ेकर अफ्रीका के जंगल में खड़े हुए थे.
“बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है…” भावे समझा रहे थे.
“लेकिन बीमारियां तो बुढ़ापे के कारण ही बाहर आती हैं?” रवि का सवाल था.
“इन सबका गहरा रिश्ता हमारे मन से रहता है….”
डॉक्टर भावे की बातों से राधा का खयाल अपने मन की तरफ जाने लगा था. राधा का मन, जो इन दिनों में तरह-तरह के खयालों से बेचैन बना हुआ है. उसने किसी से भी इस बात को साझा नहीं किया है कि नर्सिंग होम के बिस्तर पर आधी रात को उसने किसी की उंगलियो को अपने हाथ पर पाया था. वह बुरी तरह डर गयी थी. वह समझ नहीं पा रही है कि ऐसा सचमुच में हुआ था या उसका अपना कोई स्वप्न था. इन दिनों में वह कुछ भयावह स्वप्नों को देखती रही है. आधी रात में उसकी नींद टूट जाती है. वार्ड में सब कोई सोते रहते हैं. सिर्फ पंखों के चलने की आवाजें रहती है. बीच-बीच में बाहर घूमते गोरखा की.
हर दिन राधा सोचती है कि वह उस रात की सच्ची-झूठी घटना को अपने भाई से साझा करेगी लेकिन बाद में उसे अपने भाई का, अपनी आई का खयाल आ जाता है कि उन दोनों पर इस बात का कैसा असर रहेगा?
“तुम कुछ दिनों की छुट्टियां क्यों नहीं ले लेती?” रवि कहता है.
“अगले माह मैट्रिक की परीक्षाएं होंगी.”
“तुम्हारी नींद नहीं हो पा रही है.”
“आई को ज्यादा दिन नहीं रखेंगे.”
“क्या पता… ऐसे ब्लड प्रेशर के चलते घर कैसे जायेगी?”
“ हम घर में भी एक नर्स रख सकते हैं… बुआ से कहेंगे.”
“यह अच्छा रहेगा… मैं कल डॉक्टर से बात करूंगा… वे भी मान जायेंगे.”
पर डॉक्टर तैयार नहीं हुए थे. उन्हें किसी भी तरह की रिस्क लेने से मना करने लगे. उनको समझ में नहीं आ रहा था कि उनको नर्सिंग होम में क्या तकलीफ हो रही थी? घर पास में था. उनके अध्यापक होने, राधा के अध्यापक होने से डॉक्टर की फीस को बिल में जुड़ना भी नहीं था. वार्ड भी जनरल ही था. दवाइयों का खर्च भी बहुत कम हो रहा था. तीन-तीन डॉक्टर मरीज की देखभाल कर रहे हैं.
मिसेज रानाडे फरवरी की शुरुआत में नर्सिंग होम में एडमिट हुई थीं. अब मार्च चल रहा है. कुछ ही दिनों में इस बार की बसंत ऋतु चली जायेगी. शाम के समय तेज हवाएं चलने लगी हैं. चौराहे पर धूल के गुबार उठते रहते हैं. कभी-कभार हल्की-सी बूंदाबांदी हो जाती है. राधा नर्सिंग होम की खिड़की से मौसम के बदलने की आहटों को सुनती रहती है. रवि वीक एंड में लौटता है और कस्बाती लैंडस्केप में मौसम के बदलावों से बाहर आते डिटेल्स का सुनाता रहता है. मार्च का मौसम किसके मन को मोहित नहीं कर देता है?
“धीरे-धीरे गर्मियों का मौसम बहुत ज्यादा क्रूर होता जा रहा है” रवि कहता है.
“हम लोग नेचर को कितना ज्यादा छेड़ भी रहे हैं” राधा कहती है.
राधा के मुंह से छेड़ना शब्द बाहर आता है और उसे अपने साथ घटी उस रात की याद आ जाती है. क्या उसके हाथ पर सरकती हुई उंगलियां सच बात थी या उसका कोई स्वप्न? बाद में वार्ड का परदा भी हिलता नजर आया था. उसने किसी के कदमों की आहट भी सुनी थी. कहीं वे डॉक्टर बेड़ेकर की उंगलियां तो नहीं थीं? राधा के मन में आया था कि वह रवि से यह सब बता दे तो उसे थोड़ी-सी तसल्ली मिलेगी. आखिर अपने दुस्वप्न के साथ वह कब तक बनी रहेगी? रवि से जरूर कोई सान्त्वना मिलेगी और उसके मन का बोझ कुछ कम होगा. वह रात में निश्चिंत होकर आई के करीब सो सकेगी. पर कुछ पल भी नहीं बीते और उसे लगा कि यह सब इन दिनों की बेचैनियों से बाहर आता हुआ भ्रम ही होगा. कोई कैसे औरतों के अस्पताल में इस तरह घुस सकता है? डॉक्टर तो बिल्कुल भी नहीं.
मार्च की शाम के इस वक्त दोनों भाई-बहन वार्ड के सामने की लकड़ी की बेंचों पर आमने-सामने बैठे हैं. उनके करीब की मेज पर अस्पताल में आने वाले मरीजों के नाम और पते के लिए रजिस्टर रखा है. दीवार पर नवजात बच्चों की तस्वीरें. गर्भवती स्त्रियों के लिए सावधानियां बताता हुआ चार्ट. बाहर की छोटी-सी सड़क पर नीम अन्धेरा फैल रहा है. गर्मियों के लौटने के दिन. अनिता थाम्सन के घर से बाहर आते रिकार्ड के स्वर.
“यह सब भी बीत ही जायेगा” रवि कह रहा है.
“इस दुनिया में न जाने क्या-क्या नहीं बीत गया है…” राधा कह रही है. वह आने वाले दिनों के इम्तहानों के बारे में बता रही है. आने वाले दिनों की अपनी जिम्मेदारियों के बारे में. रवि सुन रहा है. वार्ड के भीतर उनकी माँ सो रही है. बीच-बीच में किसी बच्चे का रोना सुनायी देता है. मरीजों और उनको मिलने आये उनके रिश्तेदारों की बातों और हंसने की आवाजें भी. ताराबाई उनकी आई को सेब खिला रही है. शनिवार का दिन है. कल भी रवि यहाँ रहेगा. राधा दिन भर अपने आधे-अधूरे काम करेगी. दुपहर को अच्छी और गहरी नींद लेगी. कल उसे नर्सिंग होम में नहीं आना है. कल का दिन ताराबाई की छुट्टी का भी दिन रहेगा. रात में ही ताराबाई को सोने के लिए आना पड़ेगा.
प्रभा नर्सिंग होम के पुराने पेड़ों पर मार्च का अन्धेरा उतर आया है. मार्च के दिनों की शाम के अन्धेरे का अपना अलग-सा जादू होता है, उस अन्धेरे का अपना कोई रहस्य, जिसे कोई जानता भी होगा और कोई नहीं भी जानता होगा. यह सब रवि के मन में आ रहा है. राधा का अपना मन शांत है. रवि पास में होता है, आई और ताराबाई साथ-साथ हो जाते हैं तो राधा को अपने वे शांत दिन याद आने लगते हैं, जब उनका समय, प्रभा नर्सिंग होम में नहीं, अपने मकान के भीतर और बाहर बीतता रहता था. वे इन सबके अस्पताल के बाहर के दिन रहे थे और तब तक मिसेज रानाडे इस नर्सिंग होम में भर्ती नहीं हुई थीं.
| जयशंकर 25 दिसंबर 1959 _____________________ रचनाएँ : शोकगीत, भारत भवन भोपाल (1990), मरुस्थल, राजकमल प्रकाशन (1998), लाल दीवारों का मकान, कवि प्रकाशन (1998), बारिश, ईश्वर और मृत्यु, वाणी प्रकाशन (2004), चेम्बर म्यूज़िक, वाणी प्रकाशन (2012), इमिज़िंग द अदर (कथा ग्रुप) में कहानी का अंग्रेज़ी अनुवाद, प्रतिनिधि कहानियाँ (2019), गोधूलि की इबारतें (कथेतर गद्य) आधार प्रकाशन (2020), बचपन की बारिश, आधार प्रकाशन (2021), सर्दियों का नीला आकाश, राजकमल प्रकाशन (2022), कुछ दरवाज़े कुछ दस्तकें ( कथेतर गद्य) आधार प्रकाशन (2023), पूर्व-राग: एक पाठक की नोटबुक (कथेतर गद्य), आधार प्रकाशन 2025. कुछ कहानियों के मराठी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, अंग्रेज़ी और पोलिश में अनुवाद प्रकाशित. सम्मान : ‘मरुस्थल’ पर विजय वर्मा सम्मान, ‘बारिश, ईश्वर और मृत्यु’ पर श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार, आधार सम्मान (2025) प्राप्त. फ़िल्म सोसायटी मूवमेंट से सम्बद्ध______________________ jayshankar58@gmail.com/ मोबाइल : 94256-7017 |


जयशंकर अपने खास अंदाज में कथानक पेश करते हैं। बीमारी, मृत्यु, नायिका के साथ छेड़खानी, आफवाह आदि शहरों और कस्बों के समाज का ऐसा जीवंत हिस्सा रहा है जिसे लेकर वे बहुत सघनता से प्लाॅट का निर्माण करते हैं। उनकी कहानियों में निर्मल वर्मा, चेखव, अज्ञेय और मोपांसा का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
जयशंकर की दृष्टि बहुत बारीक और समावेशी है।
इसी कहानी में चिकित्सीय विमर्श बहुत प्रभावशाली लगता है। मृत्यु महज मजाक है और ” बुढापा कोई रोग नहीं है ” आदि वाक्य हमारे दिमाग में कौंध जाती है।
जयशंकर कई मसलों पर हमारा ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते हैं। चिकित्सा विज्ञान की मान्यताओं के ऊपर हमारा भरोसा अभी भी कितना कम है और झाड़ फूंक अभी भी हमें आशा प्रदान करता है।
जयशंकर कई मायनों में सामाजिक यथार्थ को लेकर प्रेमचंद की तरह लगते हैं।
बहुत महीन कहानी का ताना-बाना बुनने की कोशिश में उन्हें वक्त तो लगता है। पर जब उनकी कहानी आती है तो हमें गहरे अहसास के साथ रूचिकर लगती है और सामाजिक चुनौती पेश करती है।
समालोचन को इस कहानी उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।
जयशंकर जी को साधुवाद।
कितनी सहज और मार्मिक कहानी है। लेकिन अपनी तमाम सरलता में जटिल ताने-बाने की कहानी। एक ओर कहानी चलती है और बीच-बीच में एक फुसफुसाहट आती है। किसी फ़िल्म के दृश्य की मानिंद। यह सब कितनी आसानी से आपस में मिल गया है। एकदम एफ़र्टलेस! छोटी-सी इस कहानी में एक पूरी दुनिया समाई हुई है – जो हमारे सामने बहुत ही precision से खुलती है। कहानी पढ़ने का सुख मिला।
जयशंकर की संवेदनशील अनुभूतियों को समेटती हुई एक और महत्वपूर्ण कहानी। बधाई उनको।
जयशंकर जी के लिखे को पढ़ने का अपना सुख है। इस कहानी के पढ़ने का सुख भी गूंगे का गुड़ जैसा है। अस्पताल में भर्ती मरीज और मरीज के परिजनों के बीच संवाद जिंदगी की बहुत सच्ची तस्वीर दिखाते हैं। कोमल संवेदनाओं के चित्र उकेरती कहानी के लिए जयशंकर जी को साधुवाद।