धर्म और देश में |
“जब तक मैंने साधुमार्ग का अनुसरण किया तब तक उक्त सम्प्रदाय के कठिन से कठिन आचार व्यवहार का परिपालन किया. आज जो इस मार्ग के साधुओं का जीवन व्यवहार है, इसकी अपेक्षा उस समय का मेरा जीवनयापन बहुत कठिन और तपस्या पूर्ण था.
मैंने उस जीवन में ऐसी कठिन तपश्चर्या करने का पूर्णतया पालन करके अपने को विशिष्ट संयमी व्यक्ति मानने का अहंभाव भी धारण किया. परन्तु मन के विचारों के करवट बदलते ही एक ही रात में वह सारी तपश्चर्या का श्रीफल उज्जैन की शिप्रा नदी में बहा दिया और मैं एक असहाय, निस्संग, एकाकी प्राणी की तरह लक्ष्यहीन, विचारमूढ़ और किंकर्तव्यभ्रान्त होकर किसी अज्ञात मार्ग की शोध में चल पड़ा.”[1]
यह ‘असहाय, निस्संग, एकाकी प्राणी’ मुनि जिनविजय थे. उनका नाम ही बताता था है कि वे अपनी इयत्ता को भारत की एक प्रसिद्ध धार्मिक परंपरा में अवस्थित कर रहे थे. वे महात्मा गाँधी से बीस वर्ष छोटे थे और अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वे देश निर्माण की उस प्रक्रिया से जुड़ गए जिसका सपना उस दौर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देख रहे थे. अपने जीवन के आरंभिक वर्षों में उन्होंने खूब यात्राएँ कीं और देश से परिचय प्राप्त किया. राजपुरुष, महापुरुष और सामान्य जन से उन्होंने एक सघन अनुक्रिया की.
मुनि जिनविजय उस दौर में बौद्धिक रूप से सक्रिय थे जब भारतीय विद्वानों के बौद्धिक कर्म, लेखन, सम्पादन और पाठ निर्माण को महत्त्वपूर्ण काम माना जाता था. किसी एक पाण्डुलिपि की खोज, उसका काल और पाठ निर्धारण एक सघन बौद्धिक अध्यवसाय, ज्ञान रचना और देश रचना का हिस्सा माना जाता था. उत्तर भारत में धर्मानंद कोसंबी, काशी प्रसाद जायसवाल, हीरानंद शास्त्री, वासुदेव शरण अग्रवाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे नक्षत्रों का एक मंडल उस समय काम कर रहा था जो भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य से गहरे तौर पर संलग्न था. ब्रिटिश उपनिवेश भारत पर अपने पूरे जलवे के साथ कायम था. ऐसे में भारत के अंदर एक विद्वानों का एक बड़ा वर्ग उभरा जिसमें तीन तरह की प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं :
- उपनिवेश की भाषा और उसके द्वारा उपलब्ध कराए गए अवसरों को नियामत मानने वाला वर्ग. इसमें प्रशासक, पुलिस अधिकारी, न्याय व्यवस्था में पहुँच चुके लोग शामिल थे.
- दूसरा वर्ग उन विद्वानों का था जिन्होंने उपनिवेश द्वारा स्थापित शिक्षा पद्धति से उन्नति के मार्ग खोजने के प्रयास किए लेकिन एक समय के बाद वे उपनिवेश के आलोचक हो गए. उन्होंने उपनिवेश को भारत से मिटाने में भूमिका अदा की. दादाभाई नौरोजी(1825-1917), आर. जी. भंडारकर(1837-1925), बाल गंगाधर तिलक (1856-1920), महर्षि अरविंद (1872-1950) और सबसे बढ़कर महात्मा गाँधी(1869-1948) और जवाहरलाल नेहरू(1889-1964) इसमें प्रमुख थे. रबींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941) ने तो विद्वत्ता और रचनात्मकता की अपनी अलग राह चुनी और नए किस्म का विश्वविद्यालय ही स्थापित किया. खास बात यह है कि यह सभी लोग एक ही साथ विद्वान और स्वतंत्रता संग्रामी थे.
- इसी दौर में विद्वानों का एक ऐसा वर्ग विकसित हुआ जिसकी सारस्वत साधना ही उनके लिए स्वतंत्रता संग्राम थी. प्रेमचंद (1880-1936), वी. एस. सुक्थंकर(1887-1943), हजारी प्रसाद द्विवेदी(1907-1979), वासुदेव शरण अग्रवाल(1904-66) जैसे विद्वान इसमें शामिल हैं.
इसी दौर में विद्वानों की एक और श्रेणी आगे आयी जिसे ऐसे किसी खाँचें में नहीं रखा जा सकता है. उसके लिए केवल यही कहा जा सकता है कि यह मनुष्यों की ऐसी ज़मात थी जो ब्रिटिश भारत के युनिवर्सिटी सिस्टम के बाहर से उद्भूत हुई और जिसमें धर्म, शिक्षा और संस्कृति की प्राचीनतम परम्पराएँ विद्यमान थीं. यह संन्यासी बुद्धिजीवियों की परम्परा थी. इन बुद्धिजीवियों की बौद्धिक काया अंतहीन यात्राओं और भारत की जनता ने निर्मित की थी. यहाँ मैं अपने आपको मुनि जिनविजय तक ही सीमित रखूँगा.
(एक)
मुनि जिनविजय (1889-1976) ने अपनी जीवन यात्रा को आज़ाद होने जा रहे एक देश की यात्रा से जोड़ दिया था. माधव हाड़ा द्वारा सम्पादित ‘मुनि जिनविजय : एक भव-अनेक नाम, आत्म वृत्तान्त और पत्राचार’ इसी कहानी को कहती है. इसमें तीन कहानियाँ आपस में किसी रस्सी की लट की तरह, एक के ऊपर एक, मिली हुई हैं : पहले मुनि जिनविजय की कहानी है, फिर उनके समकालीनों के विवरण हैं जिनकी सूचना ‘पत्राचार’ देता है और उसके बीच भारत का एक बौद्धिक इतिहास भी इस कहानी का हिस्सा है.
मुनि जिनविजय आधुनिक विश्वविद्यालयी शिक्षा पद्धति से बाहर निर्मित हुए एक धार्मिक पुरुष, ज्ञानी और संस्था निर्माता थे जिनका जीवन भारत की आज़ादी की लड़ाई, उसके प्रमुख नेताओं और विद्वानों से जुड़ा हुआ. इस सबने एक मुनि जिनविजय के रूप में एक नवीन प्रकार के व्यक्तित्व का सृजन किया था जिसमें धर्म, राष्ट्र और समुदाय की विभिन्न अस्मिताएँ आवाजाही कर रही थीं. मुनि जिनविजय का आरम्भिक जीवन दिखाता है कि उनके भीतर एक एक आत्मसंघर्ष था कि कहाँ सीखा जाए, किससे सीखा जाए? और जो सीख लिया है, उसे किसे बताया जाए? यदि कोई राहुल सांकृत्यायन(1893-1963) और धर्मानंद कोसंबी (1876-1947) के जीवन को देखे तो यह बेचैनी वहाँ भी देखने को मिल जाएगी. यहाँ राहुल सांकृत्यायन और धर्मानंद कोसंबी का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि यह तीनों संन्यासी-विद्वान भारत की आज़ादी की लड़ाई के अंतिम चालीस वर्षों में सक्रिय बौद्धिक और सामाजिक जीवन में मुब्तिला थे. कोसंबी ने तो जैन धर्म में विहित संलेखना द्वारा 4 जून 1947 को मृत्यु को वर लिया था[2] लेकिन मुनि जिनविजय और राहुल सांकृत्यायन के जीवन में भारत देश फिर आता है. अपने बौद्धिक कर्म से वे देश के बौद्धिक वातावरण में हस्तक्षेप करते हैं.
मुनि जिनविजय ने डॉ. ताराचंद, वासुदेव शरण अग्रवाल, मोतीचंद्र और कार्ल खंडालवाला के साथ मिलकर, भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय के संकलनों को रूप देने में भी भूमिका निभाई थी. इसे एक छोटी सी घटना से आप समझ सकते हैं. सत्रहवीं शताब्दी में जहाँगीर के शासकाल में कल्पसूत्र की एक पाण्डुलिपि सोने से लिखी गई. इस पाण्डुलिपि को मुनि जिनविजय ने भारतीय विद्या भवन के संग्रह के लिए खरीदा था लेकिन जब देश आज़ाद हुआ तो विद्वानों और संग्रहकर्त्ताओं से अपील की गई कि वे बहुमूल्य पांडुलिपियाँ, दस्तावेज़, कला सामग्रियाँ इत्यादि राष्ट्रीय अभिलेखागार में दान में दे सकते हैं.
राष्ट्रीय अभिलेखागार ने पाण्डुलिपियों को खरीदने के लिए एक निश्चित धनराशि का आवंटन भी किया. तो, इस क्रम में 1948 में कल्पसूत्र की उपर्युक्त पाण्डुलिपि को मुनि जिनविजय से 5500 रुपये में राष्ट्रीय अभिलेखागार ने खरीदा. इस पाण्डुलिपि के बारे में वासुदेव शरण अग्रवाल ने रेखांकित भी किया था कि यह अपने किस्म की बहुत ही नफ़ीस पाण्डुलिपि है.[3]
(दो)
समीक्ष्य पुस्तक मोटे तौर पर तीन भागों में विभाजित है. सबसे पहले माधव हाड़ा की एक सुचिंतित भूमिका है, इसके बाद तीन भागों मुनि जिनविजय के जीवन की ‘प्रपंच कथा’ है. इसका अंतिम हिस्सा उनके दिवंगत मित्रों के पत्रों से बना है. इस किताब के अपने अति संक्षिप्त आमुख में अशोक वाजपेयी ने कहा है कि अनुसंधान, प्रकाशन, सम्पादन और आत्मकथा के क्षेत्र में मुनि जिनविजय जो काम किया है, वह अविस्मरणीय है. इस वाक्य को माधव हाड़ा अपनी भूमिका में विस्तृत और गहन करते हैं. माधव हाड़ा ने तीन शब्दों में उनका चित्रण कुछ इस प्रकार से किया है, वे तटस्थ हैं, वे निर्मम हैं और विनम्र हैं.
किताब की शुरुआत में बीसवीं शताब्दी का भारतीय दृश्य दिखाई पड़ता है जहाँ कलावंतों और विचारवंतों को स्थानीय शासक संरक्षण उपलब्ध कराते थे. भारत में महात्मा बुद्ध के समय से यह रिश्ता चला आ रहा था. वे लिखते हैं :
“सुनकर वे क्षण भर तो स्तब्ध से हो गये और बोले कि क्या आप वे ही मुनि जिनविजयजी हैं जो अहमदाबाद के गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर के आचार्य सुने जाते हैं? मैंने धीमे से कहा, ‘हाँ, ठाकुर साहब! मैं वही मुनि जिनविजय हैं और आपकी इसी रूपाहेली में जन्मा हूँ. मैं आपका प्रजाजन हूँ.’ सुनकर ठाकुर साहब एकदम गद्दी पर से उठ खड़े हुए. उनका स्वर भर गया. आँखों में कुछ आँसू से झलकने लगे और दोनों हाथ जोड़कर, मेरे पैरों में मस्तक रख कर गद्गद् स्वर से बोले, ‘मुनि महाराज, इस तुच्छ मनुष्य पर आपने आज यह कैसी अकल्पित और असम्भावित कृपा की और आपने बिना किसी सूचना या संकेत दिये एक अज्ञात और अपरिचित सन्त के समान यहाँ पधार कर मुझे कृतार्थ करने की करुणा की…”
(पृष्ठ78).
बाद में मुनि जिनविजय एक स्वतंत्र सत्ता अख्तियार करते जाते हैं. वे एक ही साथ आत्मिक और शैक्षणिक उन्नति की ओर बढ़ते हैं. उनका जीवन महात्मा गाँधी और रबींद्रनाथ टैगोर से जुड़ जाता है. साधु भी मनुष्य है. लगभग सत्रह-अट्ठारह वर्ष तक साधु की जीवनचर्या अपनाने के बाद ‘मुनि’ भी एक शिशु की तरह विह्वल हो उठते हैं जब उन्हें पता चलता है कि उनकी माँ नहीं रहीं. चूँकि उन्होंने घर त्याग दिया था इसलिए उनकी कल्पना में ‘माता-पिता, भाई, बन्धु आदि सांसारिक स्मरण’ और ममत्व के स्थल वर्ज्य थे लेकिन एक समय के बाद उनके विचारों में परिवर्तन होता गया और वे अपने जीवन मार्ग को बदलने के बारे में सोच-विचार करने लगे. एक स्थल पर वे लिखते हैं :
शिप्रा नदी पास ही में बह रही थी. नवरात्र के दिन थे इसलिए बहुत से स्त्री-पुरुष जल्दी सवेरे वहाँ स्नान करने चले आते थे. एक किनारे बैठकर मैंने तथा सेवकजी ने स्नान किया. ख़ूब अच्छी तरह शरीर मलकर मैंने उस भभूति का विसर्जन किया. रात्रि को पहनने के लिए जो पुरानी, फटी कफनी मेरे पास थी उसको तथा लंगोट को नदी में बहा दिया, उसके साथ वह चिमटा और कमण्डलु भी शिप्रा के प्रवाह को समर्पण कर दिया… एक पुराना-सा धोया हुआ कुरता सेवकजी के पास था उसे पहन कर फिर मैं उसी तरह पुराना किशनलाल बन गया.
वे लिखते हैं कि
‘‘महात्मा गाँधी जी द्वारा राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए जो आन्दोलन प्रारम्भ किया गया उसको मैंने अपने जीवन लक्ष्य की पूर्ति का अच्छा साधन मानकर मैं गुजरात विद्यापीठ की राष्ट्रीय शिक्षण योजना में सम्मिलित हुआ और मैंने उस साधु भेस और साधु जनोचित चर्या का परित्याग किया’’.
इस प्रकार मुनि जिनविजय ने धर्म से देश की तरफ़ यात्रा शुरू कर दी. जीवन महान है या अकिंचन, इसे तय करने का बहुत थोड़ा सा अधिकार इतिहास अपने पास सुरक्षित रखता है लेकिन व्यक्ति का विवेक उसे यह गवाही देता है कि वह कर क्या रहा है. मुनि जिनविजय को अपने जीवन के उन चरणों की स्पष्ट पहचान है जब उनका जीवन एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करता है. वे लिखते हैं:
“गाड़ी में घुसते ही इंजन ने सीटी दे दी और गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी. क्योंकि पुल पास ही था और उस पर दोनों लाइनें एक साथ बिछी हुई थीं इसलिए गाड़ी आहिस्ते-आहिस्ते चलने लगी. मैंने खिड़की से नदी के ज़ोर से बहते हुए जल-प्रवाह को आख़िरी बार ध्यान से देखा. गाड़ी ने धीमी आवाज़ की गड़गड़ाहट के साथ पुल को पार किया. इस क्षण से मैंने अपने जीवन के नये मार्ग में प्रवास शुरू किया.”
इस सुंदर गद्य में जो लय है, उसे मुनि जिनविजय ने रेखांकित कर दिया है.
इस आत्मचरित की एक विशेषता यह भी है कि यह हर जगह पारदर्शी है. हालाँकि, यह रचना परम्परागत आत्मकथाओं की शैली का पालन नहीं करती है और संस्मरण, डायरी और यात्रावृत्तांत के रास्तों को काटती हुई आगे बढ़ती है तो भी यह बीसवीं शताब्दी की एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज़ के रूप में देखी जा सकती है. इसे पढ़ते हुए मुझे धर्मानंद कोसंबी का आत्मकथा ‘निवेदन’ का स्मरण हो आया जब वे ग्वालियर और बनारस के बीच भटक रहे थे. इसी प्रकार जिनविजय भी पश्चिमी भारत के विभिन्न धार्मिक और शैक्षिक परिसरों में भ्रमण करते हुए अपना जीवन रच रहे थे.
यात्रा अपने अपने आप में एक सांस्कृतिक उपलब्धि है. गाँधी को जब देश के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्हें देश भ्रमण की सलाह दी गई थी. यह कोई नई बात न थी. ट्रेन के आगमन के पहले पैदल यात्रा ज्ञानार्जन का सबसे प्राथमिक और प्रामाणिक स्रोत मानी जाती थी. भक्ति आंदोलन इसका उदाहरण है. प्राय: सभी भक्त कवि, चाहे महिला हों या पुरुष, यात्री थे. उन्होंने विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों में खूब यात्राएँ की थीं.
जैन व्यापारी बनारसीदास की अर्धकथानक से हम सब परिचित ही हैं. मध्यकाल में महाभारत के टीकाकार नीलकंठ ने पैदल चलकर महाभारत की पांडुलिपियों से परिचय प्राप्त किया था. इसी प्रकार मुनि जिनविजय ने जब अपनी यात्राएँ कीं तो उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न नगरों में पांडुलिपियों का विपुल भंडार पाया. उज्जैन के एक स्थानक के बारे में मुनि जिनविजय लिखते हैं कि किस प्रकार उन्होंने वहाँ पर ‘उववाई सूत्र’, ‘रायपशेनी सूत्र’ और अंतगढ़ दशा सूत्र की संस्कृत टीका की प्रतियों को पहली बार देखा था(पृष्ठ 286-87).
आत्मकथा को एक आधुनिक विधा माना जाता है. इसमें व्यक्ति ‘स्व’ को सबसे प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करता है लेकिन वह ‘स्व’ एक ‘एडिटेड’ तो होता ही है. मुनि जिनविजय को पढ़ते हुए उनके आत्म का स्वाभाविक रूप ज्यादा से ज्यादा दिखता है. इसकी एक बात और भी ध्यान देने लायक है कि वे किसानों और ग्रामीणों के उस स्वभाव का बहुत बारीकी से उल्लेख करते हैं जब उनकी अकिंचनता के वातावरण में कोई साधु, संन्यासी, भिक्षुक या धार्मिक जन बिना किसी पूर्व सूचना के आ जाता था, और उनके पास जो भी कुछ होता था, उसे वे अर्पित कर देते थे. इसी के साथ स्थानीय हाट-बाज़ारों के जैन व्यापारियों, ओसवाल समुदाय के व्यापारियों और कच्छी समुदाय के लोगों के बीच जैन साधुओं का काफ़ी आदर होता था :
‘वे साधु प्रायः उन कच्छी भाइयों के परिचित थे. उनके साथ दो-तीन भाई-बहन थे तथा एक नौकर भी था जो उनके वस्त्र-पात्र, पोथी-पन्ना आदि उपकरण लेकर चलता था. अगले दिन उनमें से एक भाई ने चालीस गाँव पहुँच कर वहाँ के भाइयों को सूचना दी कि कल अमुक मुनि महाराज यहाँ पधार रहे हैं. सो, आप स्वागत आदि की व्यवस्था करें. तदनुसार कच्छी भाई, जिनके आठ-दस परिवार वहाँ रहते थे, उन्होंने मुनि महाराज के स्वागत की तैयारी की.”
(तीन)
‘एक भव-अनेक नाम’ का महत्त्वपूर्ण हिस्सा वे पत्र भी हैं जिन्हें मुनि जिनविजय के मित्रों ने उन्हें लिखे थे. इस किताब में वे लगभग 200 मुद्रित पृष्ठों में फैले हैं. उनके पास हिंदी, गुजराती, मराठी, जर्मन तथा अंग्रेज़ी में लिखे गए पत्रों का एक विशाल भंडार था जिसे उस समय के विद्वानों और राजनेताओं ने उन्हें लिखा था. इसमें से एक छोटे से अंश को ही उन्होंने स्वयं छपाया था. उतने ही पत्र मुनि जिनविजय ने लिखे होंगे, जिनके बारे में हम ज्यादा कुछ नहीं जान पाते. यदि कोई अध्येता इन पत्रों को इकट्ठा कर छपवा दे कितना बड़ा काम हो लेकिन ‘रहिमन अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छाँह गँभीर’! खैर, जो पत्र इस किताब में छपे हैं, बीसवीं शताब्दी के पहले पचास वर्षों की वैदुष्य उपलब्धि की कहानी कहते हैं.
इस पत्र संग्रह में कुल ग्यारह व्यक्तियों के पत्र शामिल हैं जिनमें संस्था निर्माता, इतिहासकार, पाठ संशोधक, सम्पादक, वकील और दानी व्यक्ति- सब शामिल हैं. सब एक दूसरे के जीवन को रच रहे हैं. इन पत्रों को पढ़ते हुए पाठक बौद्धिक इतिहास की किसी वीथिका से गुजरता हुआ महसूस करता है. मुनि जिनविजय ने अपने इन मित्रों का संक्षिप्त लेकिन बहुत सुंदर परिचय भी दिया है: राजकुमार सिंह, देवेन्द्र कुमार जैन, केशरीचंद, पूरणचंद नाहर, रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, हीरानंद शास्त्री, काशी प्रसाद जायसवाल और राहुल सांकृत्यायन.
राहुल सांकृत्यायन ने मुनि जिनविजय को 26 अगस्त 1947 को बम्बई से जो पत्र लिखा है, वह एक साथ कितनी बातें बताता है.
राहुल जी लिखते हैं :
प्रिय मुनि जी,
पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई. मिलने के लिए बहुत उत्सुक हूँ. भारतीय विद्या भवन गया था. पता लगा आप अहमदाबाद में हैं. अभी तो युक्त प्रान्त बिहार को जा रहा हूँ पहली सितम्बर को. नवम्बर में फिर बम्बई आने का विचार है. नहीं होगा तो मिलने के लिए अहमदाबाद तक का धावा मारूँगा. भारतीय विद्या भवन वालों ने ‘विनयसूत्र’ के छापे फार्मों को देने के लिए कहा. मिल गया तो भूमिका लिख दूँगा. कुछ तुलना भी कर दूँगा. मेरा पता रहेगा, किताब महल जीरो रोड, इलाहाबाद.
मैं यहाँ 17 सितम्बर को पहुँचा. पुत्र-पत्नी को नहीं लाया. कम से कम दो साल भारत से जाने का विचार नहीं है.
आपका
राहुल सांकृत्यायन
यह पत्र उस समय का है जब राहुल सांकृत्यायन रूस से लौटकर भारत आए थे. इसके बाद का एक पत्र है जो उन्होंने किताब महल प्रयाग से लिखा था. इसमें उन्होंने मुनि जिनविजय को ‘प्रमाण वार्त्तिक भाष्य’ के मिलने की सूचना दी और बताया है कि (इलाहाबाद स्थित) साहित्य सम्मेलन की ओर से स्वयंभू के रामायण और महाभारत के संक्षेप का छाया साहित्य छापने का विचार हो रहा है. वे स्वयंभू की भी चर्चा करते हैं.
यहाँ एक बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि प्रत्येक समय अपने किस्म के विद्वान पैदा करता है. जिस तरह के लोग 1880 से 1960 के बीच सक्रिय थे, वे अब नहीं हो सकते. ‘समय की छुअन’ ने जिन लोगों को बनाया था, वे देश की जनता और उसकी मनोभावना को बहुत ही आदिम रूप में समझ सकते थे. मुनि जिनविजय को पढ़ते हुए यह अहसास बार-बार होता है. मुनि जिनविजय के आत्म वृत्तान्त और पत्राचार को सम्पादित करने के लिए माधव हाड़ा बधाई के पात्र हैं. साहित्य, संस्कृति, धर्म और इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए यह एक अमूल्य किताब है.
माधव हाड़ा(2022), मुनि जिनविजय : एक भव-अनेक नाम, आत्म वृत्तान्त और पत्राचार, वाग्देवी प्रकाशन, नोएडा, पृष्ठ 568, मूल्य रूपये 575.
सन्दर्भ :
[1] माधव हाड़ा(2022), मुनि जिनविजय : एक भव-अनेक नाम, आत्म वृत्तान्त और पत्राचार, वाग्देवी प्रकाशन, नोएडा, पृष्ठ 31.
[2] धर्मानंद कोसंबी(2011), निवेदन : द ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ धर्मानंद कोसंबी, अनुवाद : मीरा कोसंबी, रानीखेत, परमानेंट ब्लैक, पृष्ठ 20
[3] मिनिस्टरी ऑफ एजुकेशन, एफ़, 5-9/ 4- एआरसीएच, डी-620/ एआर/48, वर्ष 1948, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली
रमाशंकर सिंह डॉ. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में एकाडमिक फ़ेलो हैं. यहाँ पर वह अभिलेखागार, पांडुलिपि और ज्ञान की संस्कृति पर काम करने के साथ ही प्रसिद्ध सबाल्टर्न इतिहासकार रणजीत गुहा पर एक लंबा निबंध लिख रहे हैं. ram81au@gmail.com |
रमाशंकर सिंह ने मुनि जिनविजय और उन पर डॉ माधव हाड़ा के काम को ऐतिहासिक दृष्टि से उचित परिप्रेक्ष्य में रख कर अत्यंत सराहनीय कार्य किया है । साहित्य का गम्भीर अन्वेषण समर्पित विद्वानों द्वारा ही संभव है ।
माधव हाड़ा का काम गंभीर पठनीयता की माँग करता है। आज शोध को अमूमन जिस हल्केपन से लिया जाता है उसके बरक्स मुनिजन विजय पर आलोच्य संपादित पुस्तक शोध और अनुसंधान के महत्व को प्रतिष्ठित करता है। देशभर के विश्वविद्यालयों में चल रहे ‘रिसर्च मेथोडोलॉजी’ के पाठ्यक्रम में इस तरह की किताबें अनिवार्य रूप से पढ़ायी जानी चाहिए। समीक्षक रमाशंकर सिंह ने संक्षेप में ही सही पुस्तक के वैशिष्ट्य को जिस तरह प्रस्तुत किया है, पुस्तक के प्रति जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। माधव जी और समीक्षक रमाशंकर जी को बहुत बहुत बधाई।
आभार!
एक महत्वपूर्ण आलेख के लिए आभार। रमाशंकर जी ने मुनि जिनविजय के बारे में और भी जानने को उत्सुक कर दिया।