जीवन का तट रविन्द्र कुमार |
भारत में नदियों को हमेशा से ही केवल एक भौतिक संसाधन या पवित्र जलधारा के रूप में न देखकर, सांस्कृतिक स्मृति, सामाजिक जीवन और ऐतिहासिक चेतना के जीवित अनुभव के रूप में देखा गया है. भारतीय जनमनस की सामूहिक स्मृति में नदियों का पवित्र स्थान है, जिसमें कुछ नदियाँ अधिक पवित्र तो कुछ कम पवित्र मानी जाती हैं. गंगा नदी उनमें से एक है, भारतीय समाज में गंगा और माँ को एक ही भाव में देखा गया है, जिसकी पुष्टि हमें भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में मिलती है.
गंगा उन क्षेत्रों में तो पूजनीय है ही जहाँ वह बहती है, लेकिन भारत के वे क्षेत्र जहाँ गंगा बहती भी नहीं है, वहाँ भी वह सांस्कृतिक कल्पना और स्मृति में विद्यमान रहती है— जैसे हरियाणा में गंगा नहीं बहती, मगर हरियाणा की लोक संस्कृति, लोक गीतों, रागनियों, विवाह, जन्म, मृत्यु जैसे संस्कारों, त्योहारों और उत्सवों में गंगा की उपस्थिति स्पष्ट है. हरियाणा के लोगों के लिए गंगाजल उतना ही पवित्र है जितना कि किसी गंगा के किनारे बसे लोगों के, गंगा माता की सौगंध ली जाती है, और “गंगा जी की जय बोलो” जैसे लोकगीतों के माध्यम से गंगा को स्मरण किया जाता है. इस प्रकार गंगा उन प्रदेशों के जीवन में भी गहराई से समाहित है जहाँ वह भौगोलिक रूप से बहती तक नहीं है.
ठीक इसी प्रकार, हरियाणा के पड़ोसी राज्य राजस्थान में गंगा-स्नान की स्मृति में बनाए गए पथवारी स्तंभ इस बात को प्रमाणित करते हैं कि गंगा का लोक जीवन में क्या स्थान है. नदी की यह सांस्कृतिक उपस्थिति श्रद्धा के साथ-साथ जीवन की रोज़मर्रा की गतिविधियों से भी जुड़ी हुई है.
नदियाँ जितनी महत्वपूर्ण हैं, उतने ही महत्वपूर्ण हैं वे नदी-समुदाय, जो नदियों के आसपास रहते आए हैं— जिनका जीवन नदी से नाभिनाल-बद्ध तरीके से जुड़ा है, जैसे उत्तर भारत के निषाद (और वे सभी जातियाँ जो भिन्न-भिन्न नामों से जानी जाती रही हैं पर नदियों से संबंध रखती हैं). नदियाँ उत्तर भारत के निषादों के सामाजिक जीवन, सांस्कृतिक प्रतीकों और राजनीतिक अधिकार-बोध का आधार रही हैं. एक जीवित सांस्कृतिक पारिस्थितिकी के रूप में, जिन्होंने निषाद समुदाय के जीवन, जीविका और स्मृति को गढ़ा है. मगर इतिहास के विभिन्न चरणों में, विशेषकर आधुनिक राज्य, समाज और बाज़ार की शक्तियों ने इस संबंध को गहराई से प्रभावित किया है. आधुनिक राज्य ने नदियों को एक “वॉटर मशीन” में रूपांतरित कर दिया है, जिसके चलते न केवल नदी और उससे जुड़ा पारिस्थितिक तंत्र तहस-नहस हुआ है, बल्कि पारंपरिक रूप से नदियों पर आश्रित रहे समाज भी तबाही के कगार पर आ खड़े हुए हैं.
उपर्युक्त प्रश्नों की पड़ताल करती पुस्तक “जीवन का तट: उत्तर भारत की नदियाँ एवं निषाद जीवन” उत्तर भारत की नदियों और उनके किनारे बसे नदी-आश्रित समुदायों— विशेषकर निषाद समुदाय— के साथ उनके बहुस्तरीय, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संबंधों को समझने का एक गहन ऐतिहासिक-नृवंशविज्ञानात्मक प्रयास है.
चार खंडों और अठारह अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक अपने पाठकों से नदी को केवल एक भौगोलिक या धार्मिक जलधारा के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘ऐतिहासिक पाठ’ की तरह पढ़ने की माँग करती है. ऐसा पाठ जो स्मृति, जातीय चेतना, जीविका, संघर्ष और संस्कृति से निर्मित होता है. पुस्तक में सम्मिलित विभिन्न लेख यह दर्शाते हैं कि कैसे गंगा, यमुना और सरयू जैसी नदियाँ उत्तर भारत में न केवल जीवन की धुरी रही हैं, बल्कि उनके साथ निषाद जैसे समुदायों का सहजीवी रिश्ता भी बना रहा है, जो उनके लोकबोध, आजीविका और सांस्कृतिक आत्म-संवेदना का हिस्सा हैं. लेकिन आधुनिक समय में नदियों को “जल मशीन” में बदलने, यानी बाँध, तटबंध, बालू खनन, प्रदूषण और औद्योगिक उपयोग के ज़रिए, इस रिश्ते को गहरा नुकसान पहुँचा है.
पुस्तक के पहले खंड में बद्री नारायण और अर्चना सिंह ने इस बात पर बल दिया है कि—भारतीय इतिहासलेखन में पारंपरिक स्रोतों पर ही अधिक ज़ोर दिया गया है, और भारतीय बौद्धिक परंपरा में नदियों को एक ऐतिहासिक पाठ की तरह पढ़ने की दृष्टि का अभाव रहा है. यदि लोक साहित्य और लोक जीवन को एक वैकल्पिक अभिलेखागार के रूप में पढ़ा जाए, तो हमारे सामने एक भिन्न किस्म का इतिहास उभरकर आएगा, जो किसी भी प्रभुत्वशाली ऐतिहासिक आख्यान से अलग होगा. जैसा कि नारायण अपने अन्य लेखों में सिद्ध करते हैं कि उपेक्षित समुदाय अपना एक आत्म-इतिहास रचते हैं, जिसके आधार पर वे वर्तमान में अपनी सामाजिक स्थिति की दावेदारी और राजनीतिक गोलबंदी प्रस्तुत करते हैं. जैसा कि इस किताब के संदर्भ में भी दर्शाया गया है, निषाद जन अपने गौरवपूर्ण आख्यान गढ़ते हैं— जैसे ‘दुलरा दयाल’, ‘कोयलावीर’, लोचन निषाद जैसे नायकों की कथाएँ, जो न निषादों की सांस्कृतिक कल्पनाएँ मात्र न होकर उनके प्रतिरोध और अधिकार के ऐतिहासिक दावे हैं.[1]
ठीक उसी प्रकार, अर्चना सिंह ने अपने लेख में यह दर्शाया है कि नदियों को भले ही माँ और देवी का दर्जा प्राप्त हो, लेकिन उनके किनारे घटित होने वाले धार्मिक उत्सवों और मेलों में स्त्रियों की भागीदारी को ऐतिहासिक गंभीरता से नहीं पढ़ा गया है. वे कुम्भ मेले जैसे बड़े धार्मिक आयोजनों को विश्लेषण का केंद्र बनाकर यह दिखाती हैं कि कैसे स्त्रियाँ इन मेलों में केवल धार्मिक क्रियाओं की निष्पादक नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक अस्मिता और प्रतिरोध की वाहक भी बनती हैं. सिंह यह भी बताती हैं कि जब कुम्भ जैसे मेलों को सांस्कृतिक राजनीति और बाज़ार की शक्तियाँ नियंत्रित करने लगती हैं, तो स्त्रियों और अन्य हाशियाकृत समुदायों की सहभागिता सीमित हो जाती है. वे धीरे-धीरे लोकवृत्त के केंद्र से परिधि की ओर धकेल दी जाती हैं. इसके बावजूद, स्त्रियाँ इन सार्वजनिक स्थलों को संघर्ष के स्थान में बदल देती हैं, जहाँ वे अपनी अस्मिताओं का पुनर्निर्माण करती हैं, धार्मिक आख्यानों को चुनौती देती हैं, और अपने अनुभव-आधारित विमर्श गढ़ती हैं. उनके लिए नदी केवल श्रद्धा का स्थल नहीं, बल्कि संवाद, अभिव्यक्ति और प्रतिरोध की जीवंत सांस्कृतिक भूमि बन जाती है. इस प्रकार अर्चना सिंह का लेख नदी, स्त्री और लोक का वह त्रिकोण रचता है जो भारतीय इतिहासलेखन की परिधियों में नया आयाम जोड़ता है.
दूसरे खंड में अवधेन्द्र शरण, शुभनीत कौशिक और बलराम शुक्ल जैसे विद्वान गंगा, यमुना और सरयू जैसी नदियों को केवल पवित्र जलधाराओं के स्वरूप से बाहर निकालकर, औपनिवेशिक सत्ता, राष्ट्र-निर्माण और धार्मिक कल्पनाओं के बीच जटिल वैचारिक संघर्ष के स्थल के रूप में प्रस्तुत करते हैं. अवधेन्द्र शरण अपने लेख में यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार औपनिवेशिक शासन ने ‘सभ्यता’ और ‘स्वच्छता’ की यूरोपीय धारणाओं के आधार पर गंगा को तकनीकी और नगर नियोजन की भाषा में पुनर्परिभाषित किया. एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें नदी के सांस्कृतिक, धार्मिक और जैविक तंतुओं की अवहेलना हुई.
शुभनीत कौशिक यह विश्लेषित करते हैं कि स्वतंत्रता के बाद नेहरू और अंबेडकर जैसे राष्ट्रनिर्माताओं ने नदियों को आधुनिकता के प्रतीकों के रूप में देखा. नदी घाटी परियोजनाओं को वे औद्योगिक विकास, खाद्य सुरक्षा और राष्ट्र-निर्माण की आधारशिला मानते थे; किंतु इन योजनाओं से जुड़े विस्थापन, पारिस्थितिकीय संकट और सांस्कृतिक विलोपन की समस्याएँ भी सामने आईं. बलराम शुक्ल शास्त्रों और पुराणों में वर्णित गंगा की दिव्यता को केवल आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि पारिस्थितिकीय रूप से भी पढ़ने का आग्रह करते हैं, वे बताते हैं कि वैदिक और पौराणिक वाङ्मय में गंगा की अविरलता, गति, और शुद्धता को नष्ट करना धर्महीनता और सामाजिक विघटन के समान माना गया है. इन तीनों लेखों को साथ पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि गंगा केवल एक भौतिक नदी नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का एक बहुवाची प्रतीक है, जिसकी रक्षा केवल तकनीकी उपायों से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनराविष्कार और नैतिक पुनर्संवेदनशीलता से ही संभव है.
तीसरे खंड में निषाद समुदाय की जीविका, सामाजिक स्थिति और प्रतिरोध की चेतना को कई लेखकों ने केंद्र में रखा है. जितेंद्र सिंह, सीमा यादव, नेहा राय, हरिश्चंद्र बिंद, गोविंद निषाद और पुष्यमित्र जैसे लेखकों ने यह दिखाया है कि कैसे मछुआरे, नाविक, मल्लाह और जल-आधारित समुदायों की पहचान और आजीविका नदियों से अभिन्न रूप से जुड़ी रही है. यह भी बताया गया है कि आधुनिक समय में निषाद समुदाय एक ओर अपने पारंपरिक कार्यों से दूर जा रहा है, तो दूसरी ओर वे अपने इतिहास, मिथकों और प्रतिरोधात्मक अनुभवों के ज़रिए अपने हक़दारी के दावे भी सशक्त कर रहे हैं. जितेंद्र सिंह लिखते हैं कि
“निषादों के पास एक ऐसा अतीत है जिसमें वे नदी के राजा थे. यह अतीत उन्हें नदी पर दावा प्रस्तुत करने की शक्ति देता है.”
यह दावा केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि समकालीन सामाजिक न्याय और नीतिगत हस्तक्षेप का आधार है. हरिश्चंद्र बिंद यह रेखांकित करते हैं कि स्वतंत्र भारत की नीतियों में निषाद समुदाय के लिए कोई स्थायी ढांचा नहीं रहा, जबकि वे नदी संसाधनों के सबसे पुराने और स्थायी उपयोगकर्ता रहे हैं.
गोविंद निषाद की आत्मकथात्मक दृष्टि इस वैकल्पिक इतिहास को और भी सघन बनाती है. उनका कहना है कि आज की पीढ़ी “नदी में नहीं गई है, विद्यालय गई है.” इसका अर्थ केवल पेशे का परिवर्तन भर न होकर एक भावनात्मक और सांस्कृतिक अलगाव की तरफ़ भी इशारा करता है, जिसमें नदी अब जीविका का नहीं, बल्कि स्मृति और प्रतीक का हिस्सा बन गई है.
पुस्तक का चौथा खंड नदी की लोक-सांस्कृतिक और कलात्मक उपस्थिति की पड़ताल करता है. खुशबू सिंह ने अवधी और भोजपुरी लोकगीतों में नदी की छवि को माँ, देवी, रक्षक और सहयोगिनी के रूप में प्रस्तुत किया है. अंकित पाठक यह प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी सिनेमा में नदी और निषाद समुदाय लगभग अनुपस्थित क्यों हैं, और यह अनुपस्थिति स्वयं में एक राजनीतिक टिप्पणी है. जगन्नाथ दुबे, आशीष त्रिपाठी और धीरेंद्र प्रताप सिंह जैसे लेखकों ने भक्ति साहित्य, कथा परंपरा और लोक जीवन में नदी की भूमिका को ऐतिहासिक गहराई से जोड़ा है.
हालाँकि जीवन का तट एक महत्वपूर्ण वैकल्पिक हस्तक्षेप है, इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं. सबसे पहली बात यह कि पुस्तक के कई लेख विषय की पुनरावृत्ति से ग्रस्त हैं — निषादों की लोक परंपरा, और उनकी ऐतिहासिक दावेदारी जैसे विषय कई बार एक ही दृष्टिकोण से दोहराए गए हैं. दूसरी बात यह कि इस पुस्तक के कुछ लेख अनुभव-आधारित हैं और सैद्धांतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत कमजोर प्रतीत होते हैं.
फिर भी, जीवन का तट पुस्तक एक प्रस्थान बिंदु है, एक वैकल्पिक नदी-केंद्रित इतिहास लेखन की दिशा में एक ठोस प्रयास. अंततः यह पुस्तक भारतीय इतिहासलेखन में स्मृति, समुदाय और नदी के रिश्तों को पुनः परिभाषित करने की ओर एक ठोस क़दम है. यह इतिहास, समाजशास्त्र, पर्यावरण अध्ययन और लोक संस्कृति के शोधकर्ताओं के साथ-साथ आम पाठकों के लिए भी एक ज़रूरी पुस्तक है. यह नदियों को केवल पवित्र जलधारा नहीं, बल्कि जीवंत सांस्कृतिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक विरासत के रूप में देखने का आग्रह करती है.
सन्दर्भ :
[1] बद्री नारायण, उपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास (दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2014)
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12:38 AM 10 August 2025. लेख पढ़ने से पहले रसोई के काम संपन्न कर फ़ोन देखा । लेख नदियों पर लिखा है । सहमत हूँ ।
आपको मेरी बात बचकानी लग सकती है । रसोई से शयनकक्ष में आते समय हल्दीराम की प्लेन भुजिया का १० रुपए पैकेट ले आया । चम्मच से खाने लगा । नींद आने लगी तो रसोई में जाकर ३८ ग्राम का एक पैकेट ले आऊँगा ।
लेखक और दूसरे लोगों सहित समालोचन का आभार ।