‘जोकर’
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फिल्म में आर्थर फ्लेक नामक ‘जोकर’ के रूप में नायक बने जौक़िन फोयनिक्स का अद्भुत अभिनय देखकर मैं 15-20 मिनटों में ही उसका दीवाना हो बैठा. और सर्वाधिक दीवानगी का सबब बना उसका हँसना, जो उसकी कला व फिल्म दोनों का सर्वोत्कृष्ट कौशल (मास्टर स्ट्रोक) सिद्ध हुआ है. या ख़ुदा, इतने-इतने तरह से कोई हँस भी सकता है…!! वह हँसी रोमांचक है. सम्मोहक है. आसुरी है. भयावह है. पागलपन है…. हँसी की क्रिया के लिए जितने शब्द हैं, ज़ौकिन की हँसी के सामने चुक जाते हैं. तर्ज़ तो अट्टहास, ठठाना, ठहाका, हाहाहा…की ही है, पर यही सब करते हुए वह इससे परे चला जाता है. सुबकता नहीं, आँसू नहीं हैं उसकी हँसी में. ‘आँसू सूख गये हैं’ का मुहावरा व ‘रुदन कभी-कभी हँसी का बाना धरके आता है’ जैसे सूत्र उसकी हँसी में साकार हो गये हैं. शुरू में तो विरल, अनोखी लगती है, पर अंतिम रूप में धीरे-धीरे अफाट विस्मय व अकूत भय ही मिलता है.
यूँ मन का ऐसा कोई भाव नहीं, जो उसकी हँसी में प्रकट न होता हो खुशी के सिवा. स्मित व मुस्कान भी है, पर व्यंग्य व रहस्य बन कर ही आती है. सारी हँसी में खुशी का एक भी मिनट न होना जोकर के जीवन का ही प्रतिमान है. उसके जीवन में वास्तविक खुशी का एक पल नहीं, तो खुशी दे कहाँ से… ‘हम ग़मज़दा हैं, लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत; देंगे वही, जो पायेंगे इस जिन्दगी से हम’!! उसकी जिन्दगी के लिए ‘दुख’ शब्द बहुत बौना है. ‘उपेक्षा’ भी छोटा पड़ जाता है. हिकारत-जिल्लत-उत्पीड़न-यंत्रणा…कुछ सही बैठते हैं, जिनका रूपक बनकर प्रयुक्त हुई है हँसी, जिसका सर्वाधिक स्पष्ट रूप होंठों के दोनों कोनों को उँगलियों से दायें-बायें खींचकर दाँत चियारने के विद्रूप-कौशल में उभरता है.
लेकिन हँसी के बाद फोयनिक्स का चलना-दौड़ना…उसके अभिनय का दूसरा जबरदस्त आयाम है. यदि हँसी उसके मुखड़े व आवाज़ का कमाल है, तो भागना व चलना उसके पैरों की फितरत. चलना भी उसका बोलता हुआ’ चेहरा से ही नहीं, सर से पाँव तक. आगे ही नहीं, पीछे पीठ व पैरों की कदमी तथा लड़खड़ाहट भी बोलती है. और दौड़ना तो माशा अल्लाह…उफ्फ…!! कुछ कमाल फोटोग्रैफी का भी होगा, लेकिन इतने बडे कदम और इतनी फुर्ती से बढ़ना विश्वसनीयता की हद पार करके भी अविश्वसनीय नहीं लगता. वह फलांगते हुए दौड़ता है या दौड़ने की तेजी से फलाँगता है…! कोई पुलिस-जासूस-बदमाश उसे पकड़ नहीं पाता और ऐसा करते हुए उसे चाहे जिधर से देख लीजिए, चारों ओर से कमनीय लगता है.
हँसी यदि उसके जीवन की त्रासदी से उपजी उसका त्राण है, तो दौड़ना-भागना उसके बचने का रक्षा-कवच, उसके होने का हथियार, दोनों ही ‘जोकर’ की सिने-कला के हरावल दस्ते. लेकिन पैरों से ही बनता उसके अभिनय का तीसरा आयाम है– नृत्य…बल्कि नाचना कहें. जो देशी-विदेशी, लोक-शास्त्र…आदि किसी पद्धति पर आधारित नहीं है. किसी मंच व शो पर भी नहीं, सड़क पर, एकाधिक बार- टुकड़े-टुकड़े में ही, पर जीवन का सब कुछ घटित हो चुकने व दर्शक के जान जाने यानी जोकर के पूरी तरह उघड़ (एक्सपोज़ हो) जाने के बाद फिल्म के उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) वाले सोपान के ठीक पहले जब वह अपने एक मंच-संवाद के आमंत्रण पर जाने के लिए सारे दुखों-आक्रोशों-कुठाओं-अपराधों के बावजूद बालों को हरे रंग से रँगकर, पूरे चेहरे पर सफेदी पोतकर तथा होंठों पर लाल र्ंग लगाकर…अपने लिए सर्वाधिक सुशोभित परिधान में खूब सजकर-बजकर बड़ी अदा से प्रकट होता है, तो चीसें (सीत्कारें) निकल जाती हैं. पूरा हाल तालियों से गूँज उठता है. उसके पाँव गोया स्वत: थिरक उठते हैं और उस नयनाभिराम दृश्य पर जो चिहा न उठे, सिहा न जाये, वह रसिक तो क्या, उसके सामान्य आदमी होने में भी शक़ बना रहेगा…!!
ऐसे में फिल्म देख चुके लोग चाहे जो कहें, मैं अपनी इस दीवानगी को नेमत मानूँगा…. जौक़िन की हर अदा व संवाद पर लिखने के लिए मन में वाक्य के वाक्य बनते रहे और मैं मसोसता रहा कि लिखूँगा कैसे…? इधर दशक भर से अंग्रेजी फिल्में कभी-कभार शौकिया और प्रायः किसी प्रिय के साथ के कारण ही देखता हूँ. इस बार तो इस सदी के पहले दशक की अपनी मुँहबोली बच्ची, कभी एक नाटक में हम सह-कलाकार रहे और बाद में ‘प्रतिज्ञा’ धारावाहिक से मशहूर हुई…अस्मिता आ पहुँची- 5-6 सालों बाद…साथ में फिल्मकार व सिने-शिक्षक उसके पति प्रतीक …. दोनों मेरे घर के पास पीवीआर, जुहू में आने के लिए भी तैयार…तो फिर पहुँच ही गये …. लेकिन न देखने जितनी कम देखने के कारण इनकी कुण्डली (ट्रैक) नहीं, तो लिखना हो कैसे, के आलोड़न-विलोड़न में थियेटर से बाहर आते ही मोबाइल खोला, तो अरुण देव का सन्देश चमका – ‘फिल्म पर लेख का इंतज़ार है’…. असल में यह सुबह के मेरे मेसेज का जवाब था, जिसमें ‘समालोचन’ में छपी कहानी ‘जोकर’ पढ़ने के साथ फिल्म देखने जाने का मैंने जिक्र कर दिया था…. फिर तो लिखने के लिए ‘जोकर’ की कुण्डली तलाशने व फिल्म दुबारा देखने में (बुरा हो अचानक के भीषण कमर-दर्द का) चार-पाँच दिन लग गये…. बहरहाल.
ग्रह-दशा, शुभ-अशुभ का सन्धान हुआ, कुण्डली तो क्या इष्टकाल (पैदा होने का संक्षिप्त ब्योरा) भर से काम चल गया…. पता लगा कि जोकर बिल्कुल काल्पनिक चरित्र है और फिल्म की कहानी 1980 के समय में चलती है.
1988 की चित्ररेखी कथा ‘बैटमैन: द किलिंग जोक्स’ के साथ ढेरों विनोदी चित्र कथाओं, हिट सीरियल व फिल्मों…आदि में चित्रित-बिखरे भिन्न नाम-रूपी जोकर की अपार लोकप्रियता एक नव पुराण (नये लीजेण्ड) सी बन गयी है. इन्हीं छवियों के आधार पर स्वयं निर्देशक टोड्ड फिलिप्स ने स्कॉट सिलवर के साथ मिलकर लिखी यह फिल्म-कथा, जिसमें इस बार एक पूरा जीवन मिला ‘जोकर’ को…. लेकिन इससे जरूरी एक बात यह कि इस पुराण के उच्छिष्ट को हमारे वे नौनिहाल भी जानते हैं, जो अपनी संस्कृति के सरनाम राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न की माँओं के नाम तक नहीं जानते…!! और लोकप्रियता के साथ धन्य है इस ‘जोकर’ की टीम का प्रचार-तंत्र, जो हमारे नौनिहालों तक पहुँच गया.
वे ‘जोकर’ के इंतज़ार में थे. सिर्फ मैं ही अजान था. लेकिन समीक्षा की जानिब से सहूलियत कर दी है टोड्ड फिलिप्स के मँजे हुए निर्देशन ने कि फिल्म अपने में इतनी पूर्ण व आत्मनिर्भर बन पडी है कि इसे किसी पूर्वापर की वैसी दरकार नहीं. ऐसी अपेक्षा न थी किसी को, लेकिन पिछले 31 अगस्त को वेनिस के 76वें अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में शुभारम्भ होने के साथ ही फिल्म को भले न सही, जौक़िन फोयनिक्स को तो जरूरी रूप से ‘ऑस्कर’ मिलने की भविषयवाणियाँ भी धड़ल्ले से होने लगी हैं, जो फिल्म की गुणवत्ता का प्रमाण है, लेकिन कथा के प्रमुख सूत्रों और जोकर के चरित्र की व्यंजनाओं को लेकर कुछ आलोचनाएँ भी हो रहीं.
फिल्म देखने के बाद से ही उसका एक संवाद मन में गूँज रहा है, दिमांग पे तारी है – ‘होप, माइ डेथ मेक्स मोर सेंट्स दैन माइ लाइफ’ (उम्मीद है, मेरी जिन्दगी के मुकाबले मौत ज्यादा प्रतिशत पायेगी) यानी मौत के बाद ज्यादा लोग समझ पायेंगे उसे. और इसी के समानांतर खलबली मचाये है चचा ग़ालिब की पंक्ति –
‘मुनहसर मरने पे है उम्मीद जिसकी, नाउम्मीदी उसकी देखा चाहिए…’
गाढे दर्शन से लबरेज़ गालिब का शेर कठिन है. पता नहीं इसकी मशहूरियत के इलाकों तक इसका दर्शन पहुँचता है या उम्मीद-नाउम्मीदी व मरने-मुनहसर…आदि से बने अन्दाज़े बयां पे फ़िदा हैं लोग…. लेकिन ‘जोकर’ का कथन बहुत सीधा और बेधक है. यह ग़ालिब के माफ़िक आशा-निराशा में उपराम नहीं पाता, बल्कि जीवन में किये जा रहे अपने कारनामों (कई सारे क़त्ल) का अनिवार्य परिणाम मौत ही होगा; इसका व्यावहारिक स्तर पर विश्वास है पूरी दुनिया को, उसी विश्वास के बल पर फिल्मकार टोड्डी फिलिप्स उस दुनिया पर व्यंग्य करता है– बल्कि तेज फ़ब्ती कसता है, जो मरने पर ही ऐसे जोकरों का दुख शायद समझ पाये- जीतेजी तो समझती नहीं!! लेकिन फिल्म में जोकर मरता नहीं…, क्योंकि उसे इस दुनिया को अपने दुखों का पुरज़ोर अहसास कराना है, इसे बदलने का कारण बनना है….
फिल्म की कथा दो स्तरों पर चलती है. दृश्य रूप में जोकर की जीवन-कथा, लेकिन बडी कला से उसमें गुँथी है अपने देश-काल –और प्राय: हर देश-काल- के समाज की कथा, जिसमें अमीर व ग़रीब के दो वर्ग बहुत साफ हैं. जोकर का चरित्र गरीब वर्ग का प्रतिनिधि है. रोजी-रोटी के लिए वह एक निजी कम्पनी में ठीके पर जोकर (क्लाउन) की नौकरी करता है. अपनी माँ पेनी के साथ रहता है, जो मानसिक रूप से कमज़ोर है. ऑर्थर भी स्नायु-तंत्र सम्बन्धी (न्यूरोलॉजिकल) असंतुलन का शिकार है. फिल्म में थॉमस वेन का चरित्र अमीर वर्ग का प्रतिनिधित्त्व करता है. नगरसेवक पद के प्रत्याशी थॉमस की मान्यता है, जिसे वह सरे आम प्रचारित भी करता है कि उसे नगरसेवक बना दिया जाये, तो वह शहर की सारी समस्यायें हल कर देगा याने वह गरीबों को देश-निकाला ही दे देगा…ऐसा क्रूर-वाचाल शोषक !!
फिल्म में इन दोनो कथाओं को गूँथना यूँ हुआ है कि ऑर्थर की माँ तीस साल पहले थॉमस वेन के यहाँ नौकरी करती थी और आज भी उससे पैसे की उम्मीद में पत्र लिखती रहती है, जिसका कभी कोई जवाब नहीं आता. एक दिन कोई पत्र ऑर्थर पढ़ लेता है और यह जानकर उसे भयंकर हैरत होती है कि वह थॉमस का बेटा है. पूछने पर माँ बताती है कि नौकरी के दिनों दोनों में प्रेम था और उसी दौरान ऑर्थर पैदा हुआ. लेकिन अपने ऊँचे तबके (स्टेटस) के कारण उसने माँ-बेटे को यहाँ गोथम शहर की गन्दी और अपराध के लिए कुख्यात जगह पर छुड़वा दिया तथा पेनी को बरगला या धमका कर कुछ काग़ज़ात पर उससे दस्तख़त भी करा लिये. इस प्रकार उच्चवर्गीय मानसिकता से उपजा वर्ग-भेद का मुद्दा ही इस कथा का बीज सिद्ध होता है.
इसी तरह इसमें निहित है वर्ग-संघर्ष. उत्तेजित ऑर्थर इतनी बड़ी बात को छिपाने और अमीर बाप के होते हुए इतनी गरीबी में जीने के लिए माँ को फटकारता है और सीधे अपने बाप थॉमस के घर जाता है. वहाँ उसका ख़ानसामा अल्फ्रेड़ उसकी माँ को पागल और अमीरों से पैसे ऐंठने वाली बताते हुए ज़लील करता है और थॉमस से उसकी माँ के किसी भी ऐसे सम्बन्ध से साफ इनकार करता है. आहत-कुण्ठित ऑर्थर लौट आता है, लेकिन उसकी आग शांत नहीं होती. आगे किसी आयोजन में वह थॉमस का पीछा करता है और मौका मिलते ही बाथरूम में सामने से रोककर उसे अपना परिचय देता है, शायद उम्मीद थी प्यार के दो बोल की, लेकिन फिर उसे तीसरी हक़ीकत सुनने को मिलती है कि वह पेनी का बेटा है ही नहीं. पेनी ने तो उसे गोद लिया है, जिसके काग़ज़ात राज्य सरकारी अस्पताल में मौजूद हैं. ऑर्थर अस्पताल जाता है और काग़जात की गोपनीयता जान लेने के बाद धोखे से छीनकर ले भागता है. उसमें थॉमस की बात सच मिलती है. साथ में यह भी दर्ज़ मिलता है कि वहाँ से निकाले जाने के बाद भी माँ का कोई प्रेमी था, जो बालक ऑर्थर को बहुत मारता था. उसी में कहीं सर पर लगी गहरी चोट से उसे स्नायु तंत्र वाली समस्या हुई है, जिसके चलते ही वह बेमौके हँसता रहता है.
यहाँ कहना होगा कि घाव से भी स्नायु-पीडित होने के बदले यह मानसिक असंतुलन सिर्फ़ समाज व व्यवस्था के दबाव के कारण ही होता, तो उसकी मनोवैज्ञानिकी (साइकी) ज्यादा मारक होती. और इसके परिणाम स्वरूप समाज की क्रूरता के समक्ष बढ़ता असंतुलन जिस तरह अतिरेकी होता गया है तथा प्रतिपक्ष की कारगुज़ारियों के समानांतर बढ़ता उसका विरोध जिस तरह उग्र से उग्रतर होता गया है, वह सामाजिकता की जानिब से ज्यादा संगत व कारगर होता…!!
जोकर का बेमौके हँसना ही पूरी फिल्म की सदाबहार कुंजी (मास्टर की) है, जिससे फिल्म के सारे ताले बन्द भी होते हैं, खुलते भी हैं. शुरू में ही बस में जाते हुए उसके बेतरह हँसने को एक छोटा बच्चा गौर से देखता है, तो अपनी तरफ घूरती उसकी माँ को ऑर्थर अपने रोगी होने का आरोग्य-पत्रक (मेडिकल कार्ड) दिखा देता है. यह नि:शुल्क आरोग्य-सेवा भी फिल्म में आगे चलकर बन्द कर दी जाती है, जो अमीरों द्वारा संचालित व्यवस्था में गरीब वर्ग की वंचना और विकृति का सुबूत बनता है. अचानक हँसने से उसे सबलोग बेतरह चिड़ाते व उसका मज़ाक बनाते हैं. एक दिन तो कुछ बच्चे उसे बहुत मारते हैं और उसका जोकर वाला नामपट्ट (साइन बोर्ड) तोड़ देते हैं, जिसके कारण कम्पनी मालिक उसे बहुत खरी-खोटी सुनाता है और तभी उसके बचाव के लिए उसका मित्र रैण्डल उसे एक पिस्टल दे देता है. हँसी के साथ यह पिस्टल भी उसके जीवन के बड़े हादसों और फिर दुर्दशाओं का कारण बनती है. पहले तो बच्चों के बीच एक शो के दौरान जेब से गिर जाती है और तहलका मच जाता है. जाँच के मौके पर रैण्डल मुकर जाता है- उस पिस्टल को ऑर्थर की पिस्टल बताता है. यह दोगलापन फिल्म में बच्चों द्वारा पिटाई के बाद ऑर्थर के मन पर गहरे आघात का सबब बनता है.
फिर इसी पिस्टल से ऑर्थर द्वारा हुए तीन क़त्ल फिल्म की रीढ़ बनते हैं. चलती गाड़ी में तीन अमीर किसी लड़की से बदसलूकी करते होते हैं, जिस पर ऑर्थर ठठाकर हँसने लगता है. वे तीनों इसे बुरी तरह पीटने लगते हैं…. इतने में लड़की तो भाग जाती है, लेकिन आत्मरक्षा में मजबूरन उसे उन तीनों को मारना पड़ता है. देर रात का समय गाड़ी में और कोई होता नहीं, जिससे ऑर्थर पकड़ा नहीं जाता, पर भागते हुए स्टेशन से बाहर देखे जाने से ख़बर बनती है कि किसी जोकर ने तीन अमीरों को मार डाला. इस पर थॉमस वेन का बयान आता है कि यह नाकारे गरीबों द्वारा मेहनत की कमाई से अमीर बने शरीफ लोगों को मारने-लूटने की बदअमली है.
इस तरह यह घटना एक तरफ अमीरों के खिलाफ कार्रवाई के रूप में शोहरत पाती है और दंगे भड़क उठते हैं, जिसमें वर्ग-संघर्ष से होते विद्रोह के संकेत देखे जा सकते हैं. और दूसरी तरफ ऑर्थर के जीवन का निर्णायक मोड़ साबित होती है– गोया इन क़त्लों ने उसे अपने जीवन की हर साँसत से निजात की राह बता दी हो. जिस तरह गिरीश कार्नाड़ के नाटक ‘तुग़लक’ का मुहम्मद (तुग़लक) अपने परम मित्र की अपने खिलाफ़ घात को सुनने के बाद उसे रँगे हाथों पकड़ कर भरे दरबार में उसकी निर्मम हत्या करता है और फिर दुश्मनों-देश-द्रोहियों की हत्या ही उसका जुनून बन जाता है, वही हाल उन तीनों हत्याओं के बाद ऑर्थर का होता है.
तीनों हत्याओं में शक की सुई ऑर्थर की तरफ है ही, वह पुलिस की ख़ुफिया निग़रानी में है. एक दिन दो जासूस पुलिस वाले उसके घर आ जाते हैं. ऑर्थर घर पर होता नहीं और बेटे पर यह ख़तरनाक मामला सुनकर मां को दिल का दौरा पड़ जाता है. उसके अस्पताल में होने के दौरान ही सरकारी फाइल में वह अपनी माँ के झूठ के सुबूत पाता है और क्रोधांध होकर अस्पताल जाता है– माँ को मार डालता है. घर आकर अपने को फ्रिज में बन्द कर लेता है. फ्रिज का यह छोटा-सा दृश्य ढेरों संकेतों का ख़ज़ाना है. पिस्टल देकर मुकर जाने वाला उसका दोस्त रैण्डल और एक दूसरा नाटा दोस्त ग्रे उसके घर आते हैं- माँ की ख़बर पाकर संवेदना व्यक्त करने, तभी वह रैण्डल को अचानक बेरहमी से मार डालता है, लेकिन ग्रे को शराफत से जाने देता है. यह इस बात का प्रमाण है कि जुनून की उस ख़ब्ती हालत में भी उसका दिमाग सधी सोच की एक सही रेखा पर चल रहा है– ग्रे ने कोई बुरा बर्ताव न करके हमेशा साथ दिया है.
अब आइये ऑर्थर के जीवन का एक और अध्याय खोलें, जो उसके जीवन व फिल्म का पुन: एक बहुत महत्त्वपूर्ण व निर्णायक पक्ष है. शहर के सरताज विदूषक मुरे फ्रैंकलिन से प्रेरित होकर ही ऑर्थर विदूषकत्त्व (जोकरी) की कला में आया है. वही ऑर्थर का आदर्श है. मैरिस की यह कला उसकी माँ की भी पसन्द थी. दोनो अक्सर उनकी प्रस्तुतियों (शोज़) के दृश्याभिलेख (वीडियो रेकॉर्ड) देखा करते थे. ऑर्थर तो आईने के सामने खड़े होकर वैसा करने के अभ्यास भी करता…. कुल मिलाकर इस असह्य संसार में यही उसके लिए एकमात्र खुशी का आधार था– हारिल की लकडी. असली पिता से वंचित ऑर्थर अपने कला-जीवन में मुरे को पिता-समान (फादर फीगर) मानता था. लेकिन ऑर्थर एक दिन देखता है कि मानसिक असंतुलन के चलते अपने जिस एक प्रदर्शन में वह अटक-अटक के चुप हो गया था, लतीफे (जोक्स) बोल ही न पाया था और शो बुरी तरह असफल हो गया था…उसी को बार-बार दिखा कर श्रीमान मुरे उसका मजाक उडा रहे हैं– कैसे-कैसे पागल लोग कहाँ-कहाँ से चले आते हैं और मेरे जैसा बनना चाहते हैं…आदि सब बक रहे हैं…!! अब तो ऑर्थर आसमान से गिरा अतल खाईं में. उसके लिए दुनिया में कुछ बचा ही नहीं– सिर्फ बेइज्जती, उपहास के सिवा. वह अपने को पस्त, लुटा-पिटा पाता है.
और एक दिन मुरे महोदय के संवाद-कार्यक्रम (स्टेज टॉक शो) के लिए ऑर्थर को फोन आता है. पता लगता है कि उसका वही पूर्णत: असफल प्रदर्शन दर्शकों में बेहद लोकप्रिय हो चुका है. इसलिए मुरे स्वयं उससे बात करने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं. रैण्डल को मारने के बाद ही वह शो के लिए तैयार होता है– वही आलीशान तैयारी, जिसका चित्रण यहाँ शुरू में अभिनय-कला वाले प्रसंग में हो चुका है. रास्ते में वही दोनों जासूस पीछा करने लगते हैं. वह अपने भागने की कला से रेलगाड़ी में चढ़ जाता है. फिल्मकार टोड्ड फिलिप्स उस डिब्बे में सारे के सारे मुखौटे वालों को ही मौजूद दिखाते हुए अपनी सरोकारी चेतना का फतांसी (फैण्टेसिकल) वाला दृश्य सिरजते है– गोया जोकर ऑर्थर ‘एकोSहम् बहुस्याम’ हो जाता है.
उतने मुखौटों के बीच (फिल्म ‘कहानी’ में सफेद-लाल सारी वाले दुर्गापूजा के दृश्य में मिसेज वांक्ची की तरह) गुम हो जाता है. पर यहाँ ‘एकरूपता एक ख़तरा है’ (यूनिफॉर्मिटी इज़ अ डेंजर) को सार्थक करते हुए दोनों जासूसों से एक हत्या का हादसा हो जाता है और व्यवस्था के खिलाफ एक बार फिर सामूहिक विद्रोह भड़क उठता है, जो फिल्म का मूल मक़सद है. यह सिद्ध होता है कि शोषित जनता में आन्दोलन का पलीता भरा हुआ है, उसे एक चिनगारी भर चाहिए, जो निर्देशक लगा दे रहा है ‘जोकर’ के माध्यम से, जिसकी गुहार हमारे यहाँ दुष्यंत कुमार ने उसी 1980 के दशक के आसपास की थी–
‘एक चिनगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तों,
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है…’
और अनजाने में ही अपना काम करके जोकर निकल लेता है शो पर….
यह शो ही फिल्म का चरमोत्कर्ष है. ऑर्थर अपने को जोकर कहकर ही प्रस्तुत करने का आग्रह करता है मि. मुरे से…यानी जोकर हूँ, पर जोकर कहलाऊँ भी– ‘साक़ी शराब दे दे, कह दे शराब है’, का जुनून सवार हो गया है. निर्देशक को भी जो कराना है जोकर से जोकर के रूप में कराना है– अतिथि व कलाकार आदि उदात्त (ग्लोरिफाइड़) रूप में नहीं. यहाँ आकर जोकर का व्यंग्य ही व्यंजना (सजेस्टिविटी) बन जाता है. वह मंच पर आकर धीरे-धीरे अपना दुख भी खोलने लगता है और अपने कारनामे भी, जो कानूनन अपराध हैं. क़बूल करता है कि वे तीनों हत्याएँ उसी ने की हैं. मुरेजी फिर उसे लांच्छित करते हैं कि सज़ा से बचने के लिए बीमारी (साइकी) का बहाना कर रहा है…लेकिन अब वह सारी मनोवैज्ञानिकी से मुक्त हो चुका है. सो, हत्याओं के दंश और पापबोध (गिल्ट) से मुक्त हो गया है– माँ तक की हत्या का पश्चात्ताप नहीं रह गया है. उसकी जिन्दगी को बेइज्जत-बर्बाद करने वाला हर शख़्स उसकी नज़र में एक कतार में खड़ा है और सबके लिए उसके पास एक ही जवाब है– उसका खात्मा. और इसीलिए जीवंत (लाइव) शो में श्रीमान मुरे पर गोली दाग देने में उसे कोई ग़ुरेज़ नहीं. लेकिन इसके पहले अपना मजाक उड़ाने वाला पूरा मामला बता देता है और उसे दुनिया का सबसे नीच आदमी करार देता है.
कार्यक्रम जीवंत (लाइव) है, जिससे यह सबकुछ पूरा शहर देख रहा है और पूरा शोषित समाज अमीरों के खिलाफ खड़ा हो जाता है. लोग अमीरों को खोज-खोज कर मारने लगते हैं. जगह-जगह उन पर बम फूटने लगते हैं, तोड़-फोड़ होने लगती है. फिल्म का चिर खलनायक थॉमस वेन परिवार के साथ बच निकलने की कोशिश कर रहा होता है कि तब तक एक विद्रोही द्वारा थॉमस और उसकी पत्नी मार्था मारे जाते हैं, जिसे देखकर उनके बेटे ब्रूसो के दिमाग पर गहरा असर पड़ता है, जिससे बैड़मैन के पैदा होने का संकेत बनता है ….
फिल्म में तीसरी बार हो रहा यह विद्रोह इस बार एकजुट होकर सचमुच ही सामूहिक क्रांति का रूप ले लेता है, जिसमें जोकर गिरफ्तार होता है, पर जिस गाड़ी (वैन) में ले जाया जाता है, उसे विद्रोही लोग कुचल देते हैं, लेकिन जोकर बच जाता है. पूरी भीड़ उसके सामने सज़दे में झुक जाती है, तालियाँ बजाने लगती है और ऑर्थर अपना वही चिरपरिचित नृत्य करता है. यानी गरीबों का अनाम मसीहा बन जाता है. फिर उसे इलाज के लिए मानसिक अस्पताल में रखा जाता है, किंतु तब तक उसका अंतस्-बाह्य सब टूट चुका होता है. वह पूरी तरह हैवानियत में बदल चुका होता है…. सो, अपनी डॉक्टर को मार डालता है और उसी अस्पताल में इधर-उधर भागते हुए ऑर्थर के साथ फिल्म पूरी होती है….
अब दो खुलासे करने का मुक़ाम आ गया है- ये खुलासे फिल्म भी अंत में ही करती है. तो यहाँ भी राज़ बना रहे और फिल्म के अदेखे पाठकों के लिए राज़-फाश (सस्पेंस खुलने) का लुत्फ़ उसी तरह आये, जैसा दर्शक को पहली बार फिल्म देखते हुए आता है. सो, अब तक हमने फिल्म के साक्ष्य पर यही दिखाया है कि जोकर ऑर्थर अपनी माँ पेनी का गोद लिया हुआ बेटा है. लेकिन उक्त चरम सोपान वाले इक़बालिया बयान के पहले कभी कुछ कागज़-पत्तर पलटते हुए ऑर्थर को माँ की एक तस्वीर मिलती है, जिसके पीछे लिखा रहता है– ‘आई लव द वे यू स्माइल’– मुझे मुहब्बत है तुम्हारी मुस्कान की अदा से… और नीचे लिखा है – ‘टी.वी’ यानी थॉमस वेन.
इस तरह फिल्म में ऑर्थर की पहचान (आइडेण्टिटी) कोई भ्रमित तथ्य नहीं है, जैसा कि सभी विवेचक कह रहे हैं, बल्कि तय है कि वह थॉमस व पेनी की औरस संतान नहीं, लेकिन प्रेम-पुत्र है. इस रूप में आज तो नाजायज़ भी नहीं, तब भले रहा हो कानूनन. लेकिन यह राज़ और अपने साथ आजीवन हुए धोखों-कुत्साओं को जान जाने के बाद ही वह सारे पापबोधों से मुक्त हो जाता है और ‘हर-इक बेज़ा-तक़ल्लुफ से बग़ावत का इरादा’ कर बैठता है. यही वह मुकाम है, जहाँ पहुँचकर जोकर के शब्दों में ही उसके लिए अपना जीवन एक भयंकर त्रासदी नहीं, बल्कि एक बेहूदा मज़ाक बनकर रह गया है.
और दूसरे खुलासे का तो यहाँ जिक्र ही अब होने जा रहा. फिल्म में अपने असफल शो के दिन वह अपनी पड़ोसन सोफी, जो अनव्याही माँ है, को ले गया रहता है और जबरदस्त असफल-शो के बावजूद उसकी शाम बड़ी रंगीन बीतती है सोफी के साथ. उस दिन के बाद उनका घूमना-फिरना, चुम्बन-आलिंगन करते हुए गाढ़ा प्रेम चल पड़ता है. लेकिन वस्तुत: ऐसा कुछ है नहीं. सिर्फ़ वह प्रायः सोफी का उसकी ऑफिस तक पीछा भर करता है, जिसके चलते उसका मनोरोगी दिमाग ये सारे खेल गढ़ लेता है, अपने ख़्वाबों को हक़ीकत में रच लेता है. इसका नाटकीय खुलासा अंत में होता है. यह उसके मानसिक असंतुलन का बेजोड़ प्रसंग है, जो मनोवैज्ञानिकी का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से परिणाम भी है और प्रमाण भी.
इस तरह दहाई की संख्या के लगभग ख़ून करने वाला यह जोकर कानून की दृष्टि से बड़ा मुजरिम है, आरोग्य विज्ञान के अनुसार मानसिक रोगी है, समाज के लिहाज से कलंकित है- समाज-बहिष्कार के लायक है, मातृहंता के रूप में घोर पापी व्यक्ति है. इन सब कुछ को फिल्म ने खुल्लमखुल्ला कहा-दिखाया है. यानी बाहर-बाहर पूरी चोट की है, लेकिन बिना किसी अपनी ग़लती के उसके साथ जो कुछ हुआ है, इस व्यवस्था ने उसे जो दिया है, जो बनाया है, उस समूची पृष्ठभूमि को भी फिल्म ने बेहद सलीके से उजागर कर दिया है यानी भीतरी पक्ष को भी सामने रख दिया है. और कोई भी अध्ययन-आकलन या निर्णय सापेक्षिक होता है– समानांतर. इसी लिहाज से ‘जोकर’ को मुजरिम जानते हुए भी जन-मानस इसे सज़ा नहीं देना चाहेगा.
मुझे याद आती है अभी कुछ ही पहले आयी फिल्म ‘रुस्तम’, जिसमें रुस्तम ने मख़ीजा का खून किया है, लेकिन मख़ीजा की सारी कारगुजारियों के आलोक में ज्यूरी उसे 8-1 के बहुमत से निर्दोष होने का फैसला देती है और बाहर खड़ा हजारों का मजमा तालियों से उस फैसले का इस्तक़बाल करता है. कानून व व्यवस्था के बिना अफाट जनमानस ‘जोकर’ के साथ भी यही सलूक करता है, जो इस फिल्म की, निर्देशक व लेखक की सबसे बड़ी ख़ूबी है. यही कला का दायित्व है– कलाकर्म है.
कबीर ने इस रचना-प्रक्रिया को कुम्हार के बर्तन बनाने के उदाहरण से बख़ूबी समझाया है- ‘भीतर हाथ सहारि दै, बाहर-बाहर चोट’. फिल्म-समीक्षा की लोकप्रिय (चलताऊ कैसे कहूँ?) शब्दावली इसे ‘ब्लैक कॉमेडी’ कहती है– फिल्म ‘दीवार’ को हिन्दी सिनेमा में इसका मानक माना जाता है. ‘जोकर’ के लिए ऐसा ही एक और शब्द भी प्रयुक्त होगा– ‘मनोवैज्ञानिक सनसनी’ (साइकॉलोजिकल थ्रिलर) और इसमें उघडे हैं ‘काले कारनामे’ (ब्लैक सेक्रेट्स).
‘जोकर’ फिल्म जोकर की है. उसके सिवा किसी को कुछ ख़ास करना ही नहीं है. जैसे उसकी माँ तो फिल्म में बीमार व निष्क्रिय है. अतीत का उसका किया संवादों व काग़ज़ों में आता है, तो इस भूमिका में फ्रैंसिस कोनरॉय को कुछ करना ही नहीं है. दो प्रमुख सहायक चरित्र हैं– थॉमस वेन और मुंरे फ्रैंकलिन, जिनके लिए ब्रेट कुलेन व डीनिरो जैसे बडे नाम हैं, जिन्होंने अपेक्षाकृत कम कामों को भी बेहतर अंजाम दिया है. और मुख्य भूमिका में जौकिन फोयनिक्स से ही लेख की शुरुआत हुई थी, उन्हीं से समापन करते हुए फिर कहना चाहूँगा कि अपने देखे अभिनय-संसार में मुझे इस वक़्त (चाहे भले चकाचौंध हो जाने के कारण ही हो) ऐसी क्षमता (कैलेबर) का न अभिनय याद आ रहा, न ऐसा कर सकने वाला कोई अभिनेता.
अभिनय के लिए ‘नटसम्राट’ के नाना पाटेकर को याद करूँगा, पर वे बहा ले जाते हैं, लेकिन जौक़िन फोयनिक्स हमें झटके दे-देकर निरंतर धारा में डुबाता-उतराता रहता है और देखने व देखते रहने पर मज़बूर करता है– देखकर सहने की चुनौती देता है. नटसम्राट का दुख भी तो अपनी दो संतानों का दिया हुआ है. अंत में बिछड़ने के अलावा सहभोक्ता पत्नी हैं, समझने-बाँटने वाला लँगोटिया यार है, लेकिन जोकर तो नितांत अकेला है और माँ के साथ पितृत्त्व के सवाल से लेकर पूरे गोथम शहर यानी सारे ज़माने का दिया हुआ दुख है….
इस विशाल फलक और अनुपमेय अभिनय को सलाम…!!
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