पुनश्च:नरेश गोस्वामी |
आज सुबह जब उसने अपना सिस्टम ऑन किया तो यकायक ख़याल आया कि उसने बहुत दिनों से तुमुलजी से अपने बारे में कोई बात नहीं की है. उसे लगा कि वह अपने केस को लेकर वाक़ई गंभीर नहीं है. तभी अचानक नवनीत पांडे की चिल्लाती आवाज़ कानों में पड़ी और बस एक पथराव सा शुरू हो गया: माधव चौधरी शब्दों को दांतो के नीचे पीसते हुए कह रहे थे:
‘दरअसल, आप जैसे लोग पिता के पैसों पर पलने वाली रूमानियत की त्रासदी होते हैं’;
आरती ने ग़ुस्से, शिकायत और उपहास से भभकती आवाज़ में पूछा:
‘तुम्हारा यह स्ट्रगल कभी ख़त्म भी होगा ?’!
लगा जैसे कि अय्यर की घनी मूंछों से उलझ कर ‘रैबिड’ जैसा कोई शब्द गिरा है और अंशुल दुबे दोस्ताना निराशा में ही सही, उसे ‘एब्नॉर्मल’ बता रहा है. इनके पीछे हाल-फिलहाल की आवाज़ें भी थीं:
‘तुम अपना केस सही तरह पर्स्यू नहीं कर रहे हो’, ‘तुम्हारे चेहरे पर न दीनता दिखती है, न ज़रूरत… न लोगों के साथ उठते-बैठते हो… और तो और तुमुलजी के साथ भी नहीं दिखाई देते…. इस तरह तुम्हारे बारे में कौन सोचेगा..??.’.
तभी वह इस शोर को झटकते हुए उठ खड़ा हुआ. उसने प्रोजेक्ट रूम के अर्से से ख़राब पड़े रिवॉल्विंग डोर को धीरे से बंद किया. कॉरीडोर पार करते हुए ज़ीने तक पहुंचा, लेकिन फिर फुस्स! उसे लगा कि जैसे उसकी पिंडलियों में भूसा भर गया है. वह वापस मुड़ना चाहता था कि पथराव फिर शुरु हो गया. उसने ख़ुद को फिर संयत किया और ऊपर चढ़ने लगा. लेकिन, आखि़र की तीन पैडि़यां बची थी कि उसके पांव फिर रुक गए…
(एक)
जिंदगी के बीस साल उसके सामने समुद्र की तरह फैल थे. उसने रेखा के इस तरफ़ रहने का फ़ैसला बहुत पहले कर लिया था. बीस बरस पहले उच्च शिक्षा आयोग में तीन बार इंटरव्यू देने के बाद उसने तय कर लिया था कि वह कुछ भी कर लेगा, लेकिन जुगाड़बाज़ी का सहारा नहीं लेगा. तब बाक़ी लोगों को भी उसकी क्षमताओं में यक़ीन था. उसने शहर का स्थानीय अख़बार ज्वाइन कर लिया था. प्रशिक्षण की अवधि ख़त्म होने के बाद उसने चाहा था कि उसे फीचर वाला पेज दिया जाए. उसने स्थानीय संपादक नवनीत पांडे से कहा था:
सर, राजनीतिक ख़बरें तो सारी एक जैसी होती हैं. मेरा मन है कि फ़ीचर वाले पेज पर सिर्फ़ साहित्य और सिनेमा नहीं, कुछ अनूठा किया जाए… आम जनता— छोले-कुल्चे, फल बेचने और फेरी लगाने वाले मामूली लोगों के जीवन पर रिपोर्ताज जैसी चीज़ें और… और’ .
लेकिन, इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी कर पाता पांडे ने उसे झिड़कते हुए कहा था:
ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई करने वालों के साथ यही लफड़ा होता है… उन्हें न पत्रकारिता की समझ होती है, न साहित्य की… तुम जिस पेज की बात कर रहे हो, वह छुटे हुए कारतूसों का क्षेत्र होता है. तुम अच्छे से सोच लो कि तुम वाक़ई पत्रकारिता करना चाहते हो या…’ .
तब ज़ेहन में बार-बार यही कील सी गड़ती रही थी— वह क्यों नहीं, जो मैं करना चाहता हूं. मैं बड़ा नहीं बनना चाहता. अगर मैं शहर के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों से, ताकतवर लोगों से दोस्ती गांठना नहीं चाहता तो फिर मुझे वह क्यों नहीं करने दिया जाता जो मैं चाहता हूं? कितना मामूली था वह सब. लेकिन, हर समझदार और अनुभवी आदमी यही कहता था कि पहले पेज पर काम करना नसीब होता है वर्ना तो लोगों की पूरी जि़ंदगी प्रादेशिक डेस्क पर स्टिंगरों की अंट-शंट हिंदी सुधारते निकल जाती है. बस, यही उहापोह थी या लोगों के शब्दों में ख़ब्त कि कुछ ही दिनों बाद वह संपादक के सामने इस्तीफ़ा लेकर बैठा था.
नवनीत पांडे दोनों हाथों से माथा पकड़े दबी हुई आवाज़ में चीखे थे:
ऐसा ब्रेक मिलता है लोगों को ? इस अख़बार ने आज तक किसी ट्रेनी को इतना पैसा दिया ? लेकिन आप बड़ी चीज़ हैं साहब… आपको सब अपने अनुसार चाहिए… हम सिर्फ़ वैचारिक-बौद्धिक काम करेंगे…बाक़ी सब तो भड़भूजे हैं!’
वह पत्थर की तरह बैठा रहा था. उसे अच्छी तरह याद है कि उस वक़्त उसका दिमाग़ एक निचाट पठार की तरह हो गया था. वह कुछ नहीं सोच पा रहा था. भीतर एक रेत बिखेरती जि़द अड़ी थी कि बस उसे यहां नहीं रहना है! आखिर में नवनीत पांडे ने अपने ग़ुस्से और हैरत पर क़ाबू पाते हुए कहा था:
मैं तुम में बहुत संभावनाएं देख रहा था… मेरी बात का बुरा मत मानना पर तुम्हारे साथ कोई प्रॉब्लम है… तुम जितनी जल्दी फ़ैसला ले बैठते हो उस तरह काम करना तो दूर… उस तरह तो जिंदगी भी नहीं जी पाओगे’.
नवंबर की हल्की ठंड, धुंए और सामने सड़क पर गुज़रते ट्रैफि़क में उलझी उस शाम को नवनीत पांडे उसे बाहर तक छोड़ने आए थे. उन्होंने उसका हाथ हौले से दबाते हुए और उसी क्षण ऑफिस की तरफ़ रुख़ करते हुए कहा था: ‘कभी लौटना पड़े तो संकोच मत करना’.
(दो)
पांडे को अलविदा कहकर जब वह अगले दिन कैंपस पहुंचा तो वह और सोरित कैंटीन के पीछे घंटो बैठे रहे थे. कभी देर तक बात करते रहते. कभी दोनों अपनी चुप्पियों में खो जाते. सोरित को रिसर्च बकवास लगने लगी थी. वह कह रहा था:
‘हमने पूरी शिक्षा को फर्जी विमर्शो से भर दिया है. इस देश में हर साल डेढ़ लाख लोग एक्सीडेंट में, पचास हज़ार लोग सांप के काटने से, हज़ारों बाढ़ में और सैंकड़ों लोग पुल गिरने से मर जाते हैं. लेकिन, हम रिसर्च ऐसे टॉपिक्स पर करते हैं जिनका आम जनता की ख़ुशहाली से कोई वास्ता नहीं होता… हम जो भी कर रहे हैं उसका कोई मतलब नहीं है… इससे बेहतर है कि मैं अपने मन का काम करूं’.
उन दिनों सोरित एक सीरियल में असिस्ट कर रहा था. लेकिन, उसके पापा को यह सब पंसद नहीं था. शाम चार बजे जब दोनों अपनी चुप्पियों और बियाबान से बाहर लौटे तो सोरित ने कहा था: चलो, यार आज घर चलते हैं. मुझसे यह दबाव अब झेला नहीं जाता’.
साल में एक बार अरविंदो आश्रम, सोरित को दूर शांति निकेतन में पढ़ने के लिए भेजने वाले और राज्य में पांच बार सर्वाधिक मतों से जीतने वाले विधायक माधव चौधरी ने खाने के बाद दोनों को अपने पास बैठा लिया था. माधव चौधरी कुपित थे:
‘मैं जिस पार्टी से जीतता आ रहा हूं वह एक जाति की पार्टी है. उसमें वही सब गड़बडि़यां हैं जिन्हें आप जानते हैं. ऐसा नहीं है कि मैं मंत्री नहीं बनना चाहता था. सत्ता के साथ होता तो शायद बन जाता. लेकिन, वैसा नहीं हो सकता था. यह कोई आदर्श-वादर्श नहीं था. यह एक ठोस सच्चाई थी कि अगर मैं लालच में एक बार अपना इलाक़ा छोड़ कर सत्तारूढ़ पार्टी को पकड़ लेता तो मेरी राजनीति हमेशा के लिए ख़त्म हो जाती… मेरे कहने का कुल मतलब यह है कि हमें जो भी चुनना होता है मौजूद विकल्पों को देखकर चुनना पड़ता है. आप कोई अलग रिअलिटी क्रिएट नहीं कर सकते… सोरित अब रिसर्च छोड़ कर फि़ल्म-मेकिंग में जाना चाहता है और आप एक अच्छी भली नौकरी को सिर्फ़ इसलिए छोड़ आए हैं कि आपका वहां मन नहीं लगता या आपको वहां काम करने वाले लोग फ्रॉड लगते हैं’.
माधव चौधरी बहुत नीचे सुर में बात कर रहे थे, लेकिन इससे उनकी नाराज़गी छिप नहीं पा रही थी.
‘आप इसे अपने क्रांतिकारी शब्दों में यथास्थिति से असहमति या असंतोष जैसा कुछ भी कहें, लेकिन मुझे यह केवल सुसाइडल इंस्टिक्ट लग रही है’.
माधव चौधरी उस शाम आखि़री फ़ैसला सुना सोफ़े से उठकर चले गए थे.
वह शिष्टाचार के नाते माधव चौधरी के सामने चुप रहा था, लेकिन वापस लौटते हुए उसे उनकी शिष्टता चालाकी से ज़्यादा कुछ नहीं लगी थी. माधव चौधरी में उसे एक ऐसा आदमी नज़र आया था जिसके पास अपने हर निर्णय को सही साबित करने का तर्क मौजूद रहता है. और वह तर्क हमेशा अपने हित को बचाए रखने में धंसा होता है.
(तीन)
अभी कुछ दिन पहले इंस्टीट्यूट आते हुए सड़क पर अचानक कहीं से कॉर्क की एक हरी गेंद आकर गिरी. उसने टप्पा खाया, फिर उछली, फिर टप्पा खाया. धीरे धीरे उसके टप्पों की ताक़त कम होती गयी और वह फुदकते फुदकते दूर तक चली गयी. घर के अंदर खेल रहे बच्चे बाहर निकल आए थे. उन्होंने उससे गेंद के बारे में पूछा. उसने उस तरफ़ इशारा किया जिस तरफ़ उसने गेंद को आखि़री बार जाते देखा था. बच्चे उधर दौड़ गए. वह मन ही मन मुस्कुराया था. वह बचपन से देखता आया था कि खोई हुई गेंद अक्सर दूसरों को मिला करती है. बच्चे उसके आसपास ढूंढते रहते हैं और वह किसी पत्ते या झाड़ी की ओट में छिपी रहती है.
गेंद का यह दृश्य उसके मन में देर तक अटका रहा. क्या बीस साल पहले वह भी घर के बरामदे में टप्पा खाकर इसी तरह बाहर नहीं फिंक आया था? उसने उम्मीद की थी कि एकांत साधना में लगे उसके पिता उसे ढूंढने आएंगे. तब तक गेंद सीढि़यों से बस नीचे उतरी थी! लेकिन वे नहीं आए…. पंद्रह बरस बाद उसने आरती से भी कहा था: मैं भागते-भागते थक गया हूं. ग्यारह साल का था जब पिता के पास पढ़ने गया. पूरा बचपन हवाओं से खड़खड़ाते दरवाज़ों, और सन्नाटे में बीत गया… फिर बारह साल हॉस्टल में. इतना अकेलापन तो सेल्युलर जेल में भी नहीं होता होगा!’. वह रोने लगा था. एक हथेली से आंसू पौंछते हुए बोले जा रहा था: मैं कंप्रोमाइज नहीं करुंगा फिर भी अपने दम पर वह सब हासिल करके दिखा दूंगा… लेकिन मुझे पहले घर चाहिए…मैं बीस सालों से प्रेत की तरह भटक रहा हूं’.
और अचानक उसका ध्यान गया था कि आरती का चेहरा एक सपाट मैदान की तरह दिख रहा है. उस पर न विह्वलता थी, न दया, न प्यार, न उम्मीद.
‘तुम्हारी जिंदगी तो यूं ही स्ट्रगल में गुजर जाएगी’. आरती ने टका सा जवाब दिया था. बहुत देर तक उसे कुछ समझ ही नहीं आया. वह देर तक वहीं खड़ा रह गया था. आरती कमरे से जा चुकी थी. उसे लगा था कि जैसे धीरे-धीरे उसके पैरों की जान निकलती जा रही है. वह अलमारी का सहारा लेते हुए इस तरह धप्प से नीचे बैठ गया जैसे किसी ने उसके सिर पर भारी पत्थर दे मारा है.
एक बैग में कुछ कपड़े और लैपटॉप उठाकर वह उसी शाम चला आया था. धूल, शोर और आंसुओं से लड़ते-झगड़ते उस रात घर का सपना तो ख़त्म हो गया था. पर अपने पीछे वह भुरभुरा अवसाद छोड़ गया था जो बरसों बाद तक हलकी सी दलक लगते ही फूट पड़ता था.
(चार)
अख़बार की नौकरी छोड़ने के बाद वह दिल्ली चला आया था. बरसों फ्रीलांसिंग और अनुवाद करता रहा. बरस दर बरस चेहरे का नमक सूखता रहा. आंखों के खुले तट बीहड़ में बदलते गए. इन बरसों में उसे कई बार महसूस हुआ था कि अगर उसकी कमर के नीचे पूंछ होती तो वह बंदरों के साथ रहना ज़्यादा पसंद करता. उसे याद है कि उसने वापस लौटने की आखि़री कोशिश दस साल पहले की थी. बंगलौर में पर्यावरण पर एक इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस हो रही थी. उसे अंग्रेजी के लेखों का सार-संक्षेप करके हिंदी में एक किताब संपादित करने का काम मिला था. वह जानता था कि कॉन्फ्रेंस के आयोजकों के लिए यह महज़ एक रस्म थी. किसी भी काम को भारतीय भाषाओं में लाने का वही सरकारी कर्मकांड! लेकिन उसने यह काम पूरी तन्मयता और पेशेवर ईमानदारी से किया.
कॉन्फ्रेंस के बाद निमंत्रित रिर्पोटरों को ग्यारह दिनों के फील्ड–टूर पर ले जाने का भी कार्यक्रम था. उन ग्यारह दिनों में कर्णाटक, आंध्रा और उड़ीसा के बंजर और सूखे इलाकों में घूमते हुए उसे लगा था कि जिंदगी की धुरी पर लौटने का उसके पास यही आखि़री मौक़ा है. तेलंगाना के पठारी क्षेत्र में एक शाम केएसवाई के सिंचाई कार्यों का मुआयना करने के बाद जब वह एक टीले पर बैठा पैंट और जूतों पर चिपटे छोटे-छोटे कांटे हटा रहा था तो उसे अपने भीतर एक विकल तड़प महसूस हुई थी. उसे लगा था अगर केएसवाई उसे यहीं काम दे दे तो जीवन की छुटी हुई डोर उसके हाथों में फिर आ सकती है. और उसी रात डिनर के दौरान उसने कॉन्फ्रेंस की मीडिया मैनेजर सिंथिया बागची से बिना सकुचाए कहा था कि वह केएसवाई के साथ जुड़ कर काम करना चाहता है. सिंथिया उसके काम से बहुत प्रभावित थी. उसने न केवल सारा काम तयशुदा समय पर कर दिखाया था, बल्कि पाठ-सामग्री और तस्वीरों की फोरमैटिंग इतने सलीक़े से की थी कि वह किताब कॉन्फ्रेंस के उद्घाटन के दिन तक प्रकाशित होकर आ गयी थी. सिंथिया ने बहुत उत्साह से कहा था:
‘ऑफ़कोर्स, मैं ईडी से बात करूंगी… आय एम रिअली हैप्पी कि आप मेनस्ट्रीम से बाहर आकर काम करना चाहते हो’.
(पांच)
और वह दो महीने के भीतर केएसवाई के हैड ऑफि़स में अपनी उम्मीद से ज़्यादा बड़े पद पर काम कर रहा था. बड़ौदा की भीड और शोर से बीस किलोमीटर दूर जंगल के ऐन बीच बने ऑफिस में पहला कदम रखते ही वह अपूर्व खुशी से भर गया था. उसे लगा था कि अपने जीवन में वह जिस अनाम चीज़ के लिए भटकता रहा है, वह उसके एकदम सामने है. लंबे- हरे पेड़ों और लताओं के झुरमुट, चिडि़यों की टीवीटीवी और अदृश्य झींगुरों की चिर्र-चिर्र के बीच काम करने की कल्पना से उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी थी.
ईडी शिवराम अय्यर ने उसका बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया था.
‘ऑल यू हैव टू डू इज़ क्रिएट अ बज़ इन दी मीडिया…आपकी टास्क ये है कि ऑर्गनाइजेशन के काम को किस तरह विजि़बल बनाया जाए… इन बीस सालों में इतना काम हुआ है, वह सब बाहर आना चाहिए’.
अय्यर ने घनी मूंछों के बीच फूटती मुस्कुराहट के साथ उसकी तरफ़ कॉफ़ी का मग खिसकाते हुए कहा था. बाक़ी का माहौल अंशुल दुबे ने आंख मारते हुए समझा दिया था:
‘यहां सिर्फ़ काग़जी काम होता है. धूल-धक्कड़ और पसीने का काम फ़ील्ड वाले लोग करते हैं. हम यहां बैठकर ऐश करते हैं. इसके बाद जो समय बच जाता है उसमें रिपोर्ट्स पर चिडि़या बैठाते हैं और वाक्यों को दुरस्त करते हैं’.
उसके ज़ेहन में यह बात आज भी कई बार कौंधती है. बुरुंदी में गांव की शामलात ज़मीनों पर ग्रामीणों के अधिकार को लेकर एक सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा था. सम्मेलन में भाग लेने के लिए ग्राम पंचायतों को चिट्ठी भेजी जानी थी. अय्यर ने उसे अपने ऑफिस में बुलाया था. और सामने बैठते ही बोलना शुरू कर दिया था: हीयर इज़ द मोस्ट ऑपरच्यून मोमेंट टू शोकेस योर लिंग्विस्टिक ऑव्रा… पंचायत हैड्स के नाम एक लेटर तैयार करो… कीप इट टू दि बेसिक्स… शामलात लैंड्स को यूज करने में आने वाली प्रॉब्लम्स पर फ़ोकस रखो’.
उसने हिंदी में आधे पेज की एक चिट्ठी तैयार की थी जिसमें शामलात ज़मीनों की बृहत्तर उपयोगिता, उस पर दबंगों के कब्ज़े और सीमांत किसानों की समस्याओं का जिक्र किया गया था. उसने कोशिश की थी कि चिट्ठी की भाषा को आम आदमी की बोली के नजदीक रखा जाए. इन चिट्ठियों के लिए लिफाफे भी तैयार किए गए. उन पर नाम और पता भी लिखा गया. और वह रात को बड़ौदा से बुरुंदी के लिए रवाना भी हो गया.
लेकिन अगले दिन ग्यारह बजे जब वह क्षेत्रीय ऑफिस पहुंचा तो लोगबाग तनाव में बैठे थे. स्मृति नाम की लड़की ने जाते ही बताया: सर, आपके लिए ईडी साहब का फ़ोन आया था. कह रहे थे कि अभी पंचायत वाली चिट्ठी प्रिंटिंग के लिए नहीं जाएगी’.
उसने बैठते ही कॉलबैक किया. शिवराम अय्यर ग़ुस्से में लगभग चीख रहे थे: हाउ कम, यू डिंट शेयर द फ़्लायर विद मी’. एक सेकेंड के लिए उसका दिमाग़ चकरा गया. उसने तो बुरुंदी के लिए निकलने से पहले उन्हें बाक़ायदा चिट्ठी की पीडीएफ़ मेल की थी. फिर यह सब क्या है! दिमाग़ ठिकाने पर आया तो उसने विनम्रता से कहा: लेकिन, सर मैंने तो आपको वह चिट्ठी कल ही मेल कर दी थी’. अय्यर क्षण भर के लिए चुप हुआ. उसे लगा कि शायद अय्यर को अपनी ग़लती का एहसास हो गया है. लेकिन अगले ही क्षण अय्यर पहले से ज़्यादा कर्कश स्वर में बोल रहा था:
हेल विद यू ऐंड योर चिट्टी… डोंट यू नो दैट आय कैंट रीड हिंदी…वेयर इज़ द इंग्लिश वर्शन, मैन ?’.
वह आज भी सोचता है कि क्या वह सिर्फ़ सहकर्मियों के सामने बेइज़्ज़त होन का दंश था या उसकी प्रतिक्रिया में कुछ और भी शामिल था? क्षेत्रीय ऑफिस में बैठे लोग अजीब तनाव में थे. तभी उसके भीतर वह हौल उठा: सर, आप जानते हैं…मीटिंग में सब कुछ आपके सामने ही तय हुआ था… ऐंड यू वर ओके विद दी आइडिया ऑफ़ डूइंग द होल थिंग इन हिंदी… मैंने सोचा कि जब आपसे बात हो ही चुकी है तो इसे आसान भाषा में क्यों न लिखा जाए…जिसे लोग समझ सकें…’. लेकिन शिवराम अय्यर कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे: आपको सोचने के लिए किसने कहा था…
जस्ट डू वॉट आय एम टेलिंग यू… आय वांट दिस ब्लडी चिट्टी इन इंग्लिश ऐंड यू हैव थर्टी मिनट्स टू गो’.
उसने चिट्ठी का अंग्रेजी में अनुवाद कर तो दिया लेकिन उसका मन जैसे चिथ गया. उसे यह पूरी क़वायद बेहूदा लगी थी. वह ज़्यादा खिन्न तब हुआ जब अय्यर का मैसेज आया. उसने चिट्ठी में तीन पैरे और जोड़ दिए थे. अय्यर चाहता था कि अब इस चिट्ठी का हिंदी में अनुवाद किया जाए. दिमाग़ पर पत्थर रखकर उसने वह सब कर दिया. लेकिन यह देख कर देर कुढ़ता रहा कि चिट्ठी में कई लंबे-लंबे टेक्नीकल शब्द आ गए हैं जो अनुवाद के कारण लगभग अबूझ हो गए हैं. क्षेत्रीय ऑफिस के लोगों ने डरते-डरते कहा था कि पहले वाली चिट्ठी इससे बेहतर थी. वह उखड़ गया था. वर्कशॉप ख़त्म होने के बाद वह वापस बड़ौदा लौट गया लेकिन दो दिन तक ऑफिस नहीं गया. किसी का फोन भी नहीं आया.
तीसरे दिन वह इतनी जल्दी ऑफिस पहुंचा कि साफ़-सफाई वाले लोग उसे देख कर चौंक गए. उसने फटाफट अपना सिस्टम ऑन किया और शिवराम अय्यर को मेल लिखने लगा. जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यूं था:
आदरणीय अय्यर जी,
मेरा पहला डर यही है कि आप इसे कहीं हिंदी की राजनीति न समझ लें. मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि इसका हिंदी की राजनीति से कोई संबंध नहीं है. मेरा कहना केवल इतना है कि संस्था का काम इतना केंद्रीकृत क्यों होना चाहिए ? अगर हमें हिंदी के इलाक़ों के लिए कोई सामग्री तैयार करनी है तो उसे मूलत: हिंदी में ही क्यों नहीं लिखा जाना चाहिए? आंध्रा के लिए यही भाषा तेलुगु होनी चाहिए. आपने बुरुंदी कार्यक्रम के लिए जिस चिट्ठी का पहले हिंदी से अंग्रेजी में और फिर अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कराया उसके कारण वह पूरी चिट्ठी अबूझ हो गयी. उसे देहात का आम आदमी क़तई नहीं समझ सकता.
ख़ैर, यह संस्था आपकी है और मैं यहां नया आदमी हूं. मुझे लगता है कि हमारे बीच में कुछ ऐसा अप्रिय घट चुका है कि मुझे अब यहां से चले जाना चाहिए.
मेल पढ़ने के बाद शिवराम अय्यर ने पहले सीनियर लोगों से बैठक की थी. और वह अपने केबिन में बैठा हुआ केवल इस बात की रिहर्सल कर रहा था कि जब अय्यर से सामना होगा तो उसे ठीक-ठीक क्या कहना चाहिए. मीटिंग ख़त्म होने के बाद पूरे फ़्लोर की हवा जैसे अचानक थम गयी थी.
अंशुल ने उसे एक कोने में ले जाकर कहा था:
‘आपका रवैया एकदम ग़लत है महाराज! यह महज़ एक रूटीन किस्म का काम होता है और आप इसे सिद्धांत बना कर देख रहे हैं. पंचायत के प्रधानों को ऐसी चिट्ठियां हर साल भेजी जाती हैं. उनका यही प्रारूप रहता है. आपसे जब चिट्ठी का मैटर तय करने के लिए कहा गया था तो इसका मतलब यही था कि आप पिछली चिट्ठी का मैटर देख कर साल और तारीख बदल देंगे.. बस्स’.
उसकी आंखों में देर तक कोई हरकत न देखने के बाद अंशुल ने फिर कहा था: अय्यर बहुत नाइस बंदा है… अभी नए हो इसलिए समझ नहीं पाए. वह इसी तरह बोलता है, लेकिन मन में कुछ नहीं रखता. तुम ये छोड़ने वोड़़ने की बात भूल जाओ… चलो, तुम्हें मैं लेकर चलता हूं…’.
‘नहीं अंशुल भाई…. आप मेरे भले की कह रहे हैं, लेकिन अब चीज़ें सामान्य नहीं रह पाएंगी’. उसने थैंक्स बोलने के बजाय अंशुल की हथेली अपने हाथों में दबा ली थी. अंशुल ने गहरी खीझ में कहा था: ‘ये मैडनेस है…और कुछ नहीं’.
(छह)
बड़ौदा से दिल्ली गिरने के बाद वह तुमुल पवार के एक मीडिया प्रोजेक्ट से जुड़ा हुआ है. चार साल इसी में हो गए हैं. लेकिन तीन महीने पहले प्रोजेक्ट की फंडिंग ख़त्म हो गयी है. तुमुलजी इन बरसों में उसके काम से ख़ुश रहे हैं. एक साल पहले उन्होंने अलग से बुलाकर कहा था: मैं कोशिश कर रहा हूं कि आपके लिए यहां कोई स्थायी व्यवस्था हो जाए’.
आज सुबह जब वह प्रोजेक्ट रूम से निकल कर सीढि़यां चढ़ रहा था तो उसने तय कर लिया था कि आज तुमुल पवार से फिर पूछेगा कि उसका मामला कहां तक पहुंचा. उसने चलने से पहले योजना भी बना ली थी कि पहले वह उनकी नयी किताब की चर्चा करेगा और फिर सही मौक़ा मिलते ही पूछ लेगा: सर, मेरे मामले में क्या चल रहा है.
तुमुलजी का कमरा सामने था. बीच में बस एक छोटी सी गैलरी भर थी. लेकिन पता नहीं यकायक क्या हुआ कि उससे आगे नहीं बढ़ा गया. आखि़री तीन पैडि़यों तक आते-आते वह झल्ला गया. कोई कसैलापन था, जो एक क्षण में उसके वजूद पर तारी हो गया. उसे लगा कि इस तरह तो वह खण्ड-खण्ड हो जाएगा. उसके पांव वहीं जाम हो गए. भीतर अलग-अलग आवाज़ों का एक हुजूम इकट्ठा होने लगा… आज तक भी तो जैसे-तैसे चल ही रहा है… तुम ही तो कहते रहे हो कि सबसे अहम चीज़ आदमी की गरिमा और समानता पर अड़े रहना है… कि कोई भी ताक़त हो उसके सामने अपनी समानता का समर्पण नहीं करना है… कि दीनता दिखाना अपनी आदमियत को खो देना होता है… कि…कि अगर तुम लाइन के आखि़री आदमी के साथ खड़े हो तो कभी विफल नहीं हो सकते….
बस तभी उसे महसूस हुआ था कि उसके कानों में आरोपों की फेहरिस्त लेकर चिल्लाने वाली आवाज़ें अचानक वापस लौट गयी हैं. अभी कुछ देर पहले इस घुमावदार ज़ीने पर चढ़ते हुए उसे लग रहा था कि उसके आसपास हवा ग़ायब हो गयी है. कुछ था जो बार-बार पैरों और माथे से टकरा जाता था. लेकिन, लौटते हुए वह एकदम भारहीन हो गया. वह प्रोजेक्ट रूम में लगभग दौड़ते हुए पहुंचा. उसे लग रहा था कि जैसे उसने ख़ुद को एक आसन्न भू-स्खलन से बचा लिया है.
(सात)
पुनश्च: परिस्थितिगत साक्ष्यों तथा अन्य तथ्यों की रोशनी में इस कहानी का आखिरी भाग बाद में झूठ पाया गया. दरअसल, कहानी में यह प्रसंग इसलिए जोड़ा गया था क्योंकि संपादक कहानी के नायक को पराजित होते नहीं देखना चाहता था. उसने मेल में लिखा था: नायक को पराजित दिखाना एक उत्तर-आधुनिक फ़ैशन है… नायक को ऐसा होना चाहिए कि पाठक उससे संघर्ष की प्रेरणा ले सके. चूंकि लेखक को कहानी छपवानी थी इसलिए उसे आखि़री पैरा बदलना पड़ा.
सच्चाई यह है कि उसके पैसे तेज़ी से ख़त्म होते जा रहे थे और उस दिन वह सीढि़यों से वापस लौटने के बजाय तुमुलजी के कमरे तक पहुंचा था. उसने दरवाज़े पर बहुत शिष्टता से ‘नॉक’ किया था. डर और सम्मान के मिश्रित भाव के साथ झुकने व खड़े होने की असंभव भंगिमा में उसने तुमुलजी को नमस्ते की थी. तुमुलजी कम्प्यूटर पर काम कर रहे थे. वे ‘बैठिये’ कहना भूल गए थे. इसलिए वह खड़ा रहा. उसने लटपटाते हुए तुमुलजी की नयी किताब की चर्चा शुरू की. तुमुलजी ने कोई ख़ास रूचि नहीं दिखाई. उसने इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी. उसे लगा कि वह नौकरी की बात सीधे नहीं छेड़ सकता. लेकिन फिर महसूस हुआ कि अगर वह इसी तरह खड़ा रहा तो उसकी टांगें जवाब दे जाएंगी. उसने बमुश्किल कहा: ठीक है सर… मैं चलता हूं. तुमुलजी ने हां-हूं कुछ नहीं कहा. उसके आने, खड़े रहने और जाने का उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. कमरे से बाहर आते ही उसने इस तरह गहरी सांस ली कि जैसे वह किसी बहुत छोटे से छेद से जान बचाकर बाहर आया था.
उसने यह बात प्रोजेक्ट की जूनियर रिसर्चर गरिमा यादव के साथ शेयर की थी. और गरिमा से मुझे यह शायद एक साल बाद पता चला था कि एक दिन वह तुमुलजी के कमरे में बैठा लगभग रिरिया रहा था… सर, मेरे पास केवल दो महीने के पैसे रह गए हैं… ऐसे कब तक चल पाएगा? कमरे में थोड़ी देर चुप्पी रही. फिर तुमुलजी की झल्लाहट भरी आवाज़ आई:
‘यार, तुमने तो मेरी ले ली है… तुमसे मैंने स्थायी होने की बात क्या कह दी… पैसे नहीं हैं…पैसे नहीं हैं…अरे नहीं हैं तो कहीं और काम ढूंढ लो’.
गरिमा बता रही थी कि उस दिन वह एक बिल पर साइन कराने के लिए तुमुल पवार के कमरे की तरफ़ जा रही थी. तुमुल को ऊची आवाज़ में बोलते सुन वह दरवाज़े के बाहर ठिठक गयी और फिर वापस लौट आई. गरिमा कह रही थी कि इस घटना के बाद वह कभी इंस्टीट्यूट नहीं आया. उसे किसी ने कहीं देखा भी नहीं. और तो और जब जब उसे फ़ोन किया तो यही सुनने को मिला: आपके द्वारा डायल किया गया नंबर मौजूद नहीं है.
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सम्प्रति: सीएसडीएस, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पत्रिका प्रतिमान में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com