‘संगीत का काम मोहिनी बिखेरना है.’
कलापिनी कोमकली से संदीप नाईक की बातचीत
यह जनवरी की बीसवीं तारीख थी, शाम ठिठुर रही थी. देवास की टेकडी के ठीक नीचे जहाँ बरसों बरस स्वर्गीय कुमार गंधर्व जी के घर पर संगीतज्ञों, कलाकारों, साहित्यकारों, अधिकारियों का जमघट लगा करता था, ठहाके गूँजते थे और देर रात तक गाना बजाना, भोजन, चाय और बातचीत की महफ़िलें हुआ करती थी वहाँ आज सन्नाटा है. एक आवाज़ अभ्यास में, रियाज में गूंजती है सिर्फ. और वह है विदुषी कलापिनी की आवाज़ जो देश की शीर्षस्थ गायिका हैं और उन्हें पिछले वर्ष संगीत कला अकादमी का अवार्ड दिया गया है.
बचपन और शिक्षा के बारे में कुछ बताइये.
मेरा जन्म देवास के पास शाजापुर में हुआ क्योंकि बड़ी माँ की बहन डाक्टर त्रिवेणी कौन्स वहाँ शासकीय अस्पताल में महिला चिकित्सक थीं. पहले आवागमन के साधन नहीं थे और बाबा (स्वर्गीय कुमार जी) जब कार्यक्रम के लिए जाते तो एक साथ तीन-चार जगह प्रस्तुतियाँ देकर लौटते थे. वे भी बड़े मुश्किल वाले दिन थे. दोनों काँखों में तानपूरे उठाये देवास से इंदौर और फिर इंदौर से रतलाम या खंडवा और फिर वहाँ से दिल्ली मुम्बई की ब्रॉडगेज वाली ट्रेन मिला करती थी.
बड़ी माँ के देहांत के बाद मेरी माँ यानी स्वर्गीय वसुंधरा जी कोलकाता से देवास आईं और कुमार जी की गृहस्थी को उन्होंने सम्हाला. ऐसे समय में घर में कोई नहीं था. जाहिर है प्रसव के लिए और देखभाल के लिए कोई अपना होना जरूरी था तो बाबा ने निर्णय लिया कि मेरा जन्म मेरी मौसी के यहाँ शाजापुर में हो. जन्म जरूर शाजापुर में हुआ परन्तु तीन–चार दिन बाद ही मैं देवास आ गई और मेरी आँखें तो “भानुकुल” में ही खुली, इसलिए मैं इस मकान के हर जर्रे-जर्रे से परिचित हूँ. और एक लम्बी यात्रा की है.
इस मकान के भीतर मैंने बहुत सुख और दुःख देखें हैं. इस माटी से, इस मकान के हर ईंट-गारे और सीमेंट-बजरी से प्यार है. और जब-जब बाहर घूम कर आती हूँ देश-विदेश तो यहाँ आकर मन प्रफुल्लित हो जाता है. सारी थकान दूर हो जाती है.
संगीत बचपन से घर परिवार, संस्कार और फ़िज़ा में था, यह बात सही है और यह भी सही है कि मैं दुनिया के उन चुनिन्दा लोगों में से हूँ जिन्हें बचपन में वह सब मिला, जो माँगा. श्रेष्ठ अभिभावक और संगीतकार मेरे पिता मिले. मेरी माँ और गुरु जो बेहतरीन गायिका थीं. घर संगीतज्ञों, साहित्यकारों से भरा रहता था क्योंकि देवास में उस समय होटल नहीं होते थे और जो भी लोग इधर से गुजरते या प्रस्तुतियाँ देने आते या सीखने को आते तो वे हमारे घर रहते. घर बड़ा है और आज भी लोग होटल के बजाय हमारे इस सुकून वाले परिसर में रहना पसंद करते है जिससे हमारे संगीत का नाल बंधा है.
मैं देखती थी कि गणेश उत्सव में प्रस्तुतियाँ देने के बाद भी देर रात घर भोजन होता था और फिर बाबा के कमरे में गप्प के साथ फिर गाना होता. बाबा और आई कमरे में रियाज़ करते रहते या ‘मला उमजलेले बालगंधर्व’ बनाते समय घंटों बातचीत में मगन, नोट्स लेते और संगत कलाकारों के साथ अभ्यास करते रहते.
मैं बहुत छोटी थी और यह सब देखकर मुझे चिढ़ होती कि मेरे माँ बाप मेरे साथ समय क्यों नहीं देते, लोग जब मल्हार स्मृति मंदिर में देर रात तक गाकर आ चुके होते तो फिर अलस्सुबह तक घर में गाना गाने का क्या औचित्य है? मुझे लगता था कि संगीत के ही कारण मैं उपेक्षित हूँ.
मुझे सुबह उठकर स्कूल जाना है, पढ़ाई करनी है और दीगर काम करने है पर यह सब कोई नहीं सोचता. इससे मुझे संगीत से चिढ़ हो गई और मैंने अपना ध्यान पढ़ने में लगाया.
एक मजेदार बात बताऊँ एक बार शायद मैं कक्षा छठवीं में थी और स्कूल से मुझे परीक्षा परिणाम दिया गया कि इस पर अपने पिता के हस्ताक्षर करवाकर लाओ. बाबा कहीं प्रस्तुति देने बाहर गए थे. जब वे एकाध हफ्ते बाद लौटे तो उन्होंने पूछा –
तुम छठवीं में आ गई, और आश्चर्य से देखने लगें, फिर बोले पढ़ाई कैसी चल रही है. उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए पर एक कॉलम पर जाकर वह अटक गए- जहाँ जाति लिखना था. उन्होंने कहा कि ‘मैं नहीं लिखूंगा कोई जाति–वाति, हम सब इंसान है. फिर माँ ने कहा – ‘अरे लिख दो लड़की को दिक्कत होगी स्कूल में’ उन्होंने बहुत देर सोचा और फिर हिन्दू लिख दिया और जब उपजाति वाले कॉलम पर नज़र गई तो सब काट दिया और लिखा इंसान– इंसान- इंसान और खूब झल्लाए कि स्कूलों में यह सब क्या हो रहा है.
क्या पढ़ना पसंद करती थीं और संगीत से कैसे लगाव हुआ ?
पढ़ने और किताबों के बीच मैंने रास्ता खोजा. हमारे घर किताबें आती थीं, तब सड़क बहुत खराब थी तो एबी रोड पर चाय की गुमटी पर डाकिया रोज डाक दे जाता था उसमें कुछ पत्रिकाएँ होतीं, कुछ किताबें.
एक दो बार बाबा की डाक देख रही थी तो कुछ किताबें हाथ लगी और उन्हीं दिनों पुस्तकालय से अमर चित्र कथाएँ पढ़ना शुरू कर दिया था और कुछ ऐसा चस्का लगा कि अमर चित्र कथाएँ खरीद कर पढ़ने लगी.
आई हर शनिवार रविवार को इंदौर संगीत की कक्षाएँ लेने जाती थीं तो मेरा उनसे एक ही आग्रह रहता कि बस स्टैंड पर से अमर चित्र कथा ले आयें और वे भी मेरी रुचि पढ़ने में देख कर हर बार नई अमर चित्र कथा ले आतीं.
इन चित्र कथाओं से मैंने जाना कि भारत की संस्कृति, विरासत, वैभव, विविधता क्या चीज है. एक ओर असम है, दूसरी ओर गुजरात, मालवा और कर्नाटक. भाषाओं का सौन्दर्य है. उड़ीसा के नृत्य, कोंकण से लेकर श्रवण बेलगोला तक और फिर कन्याकुमारी से लेकर ऊपर लद्दाख तक खानपान, रहन-सहन, भाषाएँ, बोलियाँ और इन सबसे बढ़कर इतिहास जिसमें मुझे सबसे ज्यादा रुचि होने लगी थी.
मैं आज भी गुप्त काल से लेकर मराठा साम्राज्य आदि के बारे में जानकारी रखती हूँ, सिर्फ शिवाजी ही नहीं या अकबर, औरंगज़ेब, हुमायूँ नहीं, चन्द्रगुप्त मौर्य या चाणक्य नहीं बल्कि हमारा इतिहास इन सबसे ज्यादा बड़ा है और विस्तृत है .और यह समझ मेरी अमर चित्र कथाओं को पढ़ने से बनी.
मैंने बाद में इण्डिया बुक हाउस के अनंत पई को एक चिट्टी लिखी कि मुझे पत्रिका नियमित भिजवा दिया करें. मैं उनकी ताउम्र आभारी रहूंगी कि उन्होंने झरोखा खोलने में मेरी मदद की. मेरे पास आज भी सारे अंक सजिल्द रखें हुए हैं. बाद में बाबा ने जब पूछा तो मैंने उन्हें बताया– उन्हें अच्छा लगा और फिर उन्होंने मुझे सीधे राहुल सांकृत्यायन लिखित “वोल्गा से गंगा” पकड़ा दी. मैंने बहुत धैर्य से वह पुस्तक पढ़ी और समझा कि एक आदमी कितना वृहत् काम कर सकता है. बाद में मैंने राहुल जी का सम्पूर्ण साहित्य तो पढ़ा ही साथ में तोलस्तोय, गोर्की, अन्ना केरेनिना, युद्ध और शांति, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता जैसी ढेरों किताबें पढ़ डालीं.
मुझे क्रिकेट का बहुत शौक था, कान में रेडियो लगाकर अपने कमरे में मैं कमेंट्री सुना कराती थी, एक दिन बाबा ने कहा कि तुझे लाग ऑफ, स्पिन या गुगली समझ में आती है क्या? यदि नहीं, तो ठीक से समझ. और मुझे घर आने वाले हमारे पारिवारिक चिकित्सक डाक्टर कजवाडकर से मिलवाया जो क्रिकेट के पंडित और सुनील गावस्कर के मुरीद थे. उन्होंने मुझे सुनील गावस्कर की जीवनी “सनी डेज़” लाकर दी जिसे पढ़कर मैं रोमांचित हो उठी और क्रिकेट की दुनिया से मेरा प्रेम बढ़ा.
इस तरह घर में संगीत से दूर रहकर मैंने साहित्य और क्रिकेट की अपनी दुनिया बना ली थी. स्कूल की पढ़ाई के साथ यह सब समानांतर चल रहा था. बाबा लगातार पूछते भी थे कि क्या पढ़ा, क्या समझा, क्या अच्छा लगा और क्या सीखा इस किताब से, फिर उन्होंने मराठी में महाभारत के आठ-दस खंड लाकर दिए, हर खंड लगभग तीन सौ चार सौ पृष्ठ के थे. मैंने बहुत बारीकी से पढ़े और पर आखिरी अध्याय आज तक नहीं पढ़ा. ऐसा कहते हैं कि इसे घर में नहीं पढ़ना चाहिए, अब देखो कब जीवन मौका देता है कि इसे कही और पढ़ सकूं.
महाभारत ने मेरी दृष्टि को विस्तार दिया और यह कह सकती हूँ कि महाभारत जैसा गहन साहित्य और ग्रन्थ संसार में कहीं कभी नहीं लिखा गया होगा. जब महाभारत पढ़ लिया तो इसके साथ जुड़े कर्ण-कुंती और तमाम उन चरित्रों को लेकर लिखे गए सभी हिंदी, मराठी, अंग्रेजी की किताबों को पढ़ा जिसमें श्रीकृष्ण थे या कर्ण या कौरव या पांडव या भीम या इससे जुड़े हुए ययाति या भक्ति काल के कवि फिर वे तुकाराम हों, ज्ञानदेव, कबीर या मीरा, दादू या रसखान और यह सब मुझे समृद्ध कर रहा था. बाबा खुश थे कि संगीत न सही पर कुछ तो है जहाँ मेरा मन लग रहा है और मैं सीख रही हूँ.
आपके होने में माता-पिता की कैसी भूमिका रही है?
किशोरावस्था के दिनों की बात है बाबा और आई मिलकर “त्रिवेणी’ नामक कार्यक्रम की तैयारी कर रहें थे, मैं स्कूल से आती और अपना काम करती. बाबा बहुत तैयारी करते. पदों को लिखना, नोट्स लेना, अभ्यास करना, प्रस्तुति कैसी हो, संगत कलाकारों के साथ हर पद पर गहराई से काम करना आदि.
मैं रसोई में खाना खाते या पढ़ाई करते हुए यह सब सुनती रहती और इस तरह मुझे लगा कि यह जो कुछ भी हो रहा है वह आकर्षक, श्रवणीय तो है ही बढ़िया भी है. बस उठते बैठते हुए मुझे त्रिवेणी के सारे पद और बंदिशें याद हो गईं. मैंने आई को एक दिन सुनाई तो आई बहुत खुश हुई. आई ने यह बात बाबा को बताई और कहा कि अपनी पिनी को त्रिवेणी कंठस्थ हो गई है. बाबा बोले अरे वाह, मुझे भी सुनाऔ.
मैं स्कूल से लौटी ही थी. रसोई में टेबल के पास बाबा बैठे थे और मैं खड़ी थी. और वही खड़े होकर मैंने बाबा को त्रिवेणी सुना दी. पहले पद से लेकर आखिर में भैरवी तक गाकर सुना दिया. बाबा देर तक देखते रहें और फिर उसके बाद की कहानी ही अलग है.
आई फिर मुझे अपने शिष्यों के साथ बिठाने लगीं. जब बाबा के कमरे में लोग आते तो कहती ‘जाकर बैठ, सुन और समझ’. मुझे समझ कुछ नहीं आता पर बातचीत अद्भुत होती थी.
आई के शिष्यों के साथ जब अभ्यास करती तो लगता कि मैं थोड़ा बेहतर गा रही हूँ क्योंकि मेरा सुर लग रहा है. ताल ठीक लग रहें है. बंदिश याद है मुझे. तानपुरा साध लेती हूँ. और राग–रागिनियों की समझ थोड़ी बेहतर है.
फिल्मों के गाने सुनने में शौक बढ़ा, अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला रेडियो पर कान में लगाकर अपने कमरे में सुनती थी. धीरे-धीरे संगीत मेरी नसों में घुलता चला गया. पढ़ाई के साथ संगीत का नियमित अभ्यास करने लगी और फिर मैं इस तरह से संगीत में आ गई.
संगीत के कार्यक्रमों में जाना मुझे उस उम्र में बहुत बोरिंग लगता था पर गणेशोत्सव के कार्यक्रमों में बाबा नृत्य का एक दिन जरूर रखते थे जिसमें प्रस्तुति देने बिरजू महाराज आते, दमयंती जोशी आई, गोपीकृष्ण जी आते, माधवी मुदगल के साथ बड़े बड़े नर्तक आते थे. इससे कार्यक्रमों में जाने में मेरी रुचि जगी. अमजद अली खां साहब आये थे. वो भी सब याद है. और इस तरह से मैं कार्यक्रमों में जाने लगी आई और बाबा के साथ.
मेरी माँ ने बचपन से हमें यह बता दिया था कि अपने बाबा अपनी विधा में बहुत बड़े है और यह जितनी जल्दी तुम समझ लो अच्छा रहेगा. अनचाहे मैं गुनगुनाने लगी थी और माँ के साथ बाबा के साथ सीखने लगी.
सन 1984 का वर्ष था बाबा की षष्ठी पूर्ति का बहुत बड़ा कार्यक्रम होने वाला था दिल्ली में और सिरी फोर्ट पर एक वृहत् आयोजन था. पर उसी समय मेरी बीएससी के अंतिम वर्ष की परीक्षा थी. हर विषय के दो पेपर होते थे उस समय. आई ने कहा कि कुछ भी हो जाये तुम्हें वहाँ रहना है, इतिहास में षष्ठी पूर्ति का कार्यक्रम दोबारा नहीं होगा, भले ही साल चूक जाए, परीक्षा मत दो पर तुम्हें वहाँ रहना ही होगा. बाबा को वहाँ देखना और उस पूरे कार्यक्रम को अपनी आँखों से देखना ज्यादा जरूरी है. बताईये आज के समय में कौन माँ अपने बच्चन को ऐसा कहेगी?
परन्तु यह बहुत बाद में समझ आया कि कुमार जी कालजयी संगीतकार थे और वह कार्यक्रम मैं नहीं देखती तो शायद कभी समझ नहीं पाती कि बाबा ने भारतीय संगीत को क्या दिया है. मैं आई और हम सब दिल्ली गए और उस कार्यक्रम के गवाह बनें.
बाद में मैं अगले दिन स्वर्गीय नरेंद्र तिवारी जी के साथ फ्लाइट से इंदौर आई, घर के सब लोग दिल्ली ही रुक गए थे. नरेंद्र जी मुझे कार से छोड़ने देवास आये और बोले ‘बेटा जाओ अब कल के पेपर की तैयारी करो, और मुझे पेपर के बाद ट्रंककॉल लगाना.
जब परिणाम आया तो बहुत धुकधुकी थी. जब संगी साथी रिजल्ट लेकर आये तो मैं पास थी क्योंकि मैंने दूसरे पेपर की तैयारी करके रखी थी. इस तरह शिक्षा, शौक, संगीत मेरे साथ चलता रहा. आज भी हवाई जहाज, टेक्सी, रेल, बस आदि की सुविधाओं के बावजूद भी दिक्कतें आती हैं पर न संगीत का सफ़र खत्म होता है न साधना रुकती है.
कलाकार भी इसी समाज से आते हैं. जाहिर है कि उन्हें भी वह सब झेलना पड़ता है जो आम आदमी को भुगतना पड़ता है. पर हमारा काम है अपना काम करना और बाकी यश अपने आप आयेगा.
हमारे समय में हमें कुछ मालूम नहीं होता था कि आगे क्या करना है. आज की पीढ़ी बहुत फोकस्ड है. इंजिनियर बनना है या डाक्टर बनना है या सिविल सर्विस में जाना है उन्हें पहले से पता है.
मैंने बचपन में बाबा के कमरे में किशोरी जी, भीमसेन जोशी, जसराज जी, श्रीराम पुजारी जी, अशोक वाजपेयी जी, पु. ल. देशपांडे जी आदि बड़े लोगों को संगीत के साथ कला-संस्कृति पर बात करते हुए देखा है. समझ में क्या आता था यह नहीं मालूम पर जो भी चल रहा है वह बहुत रोचक है यह एहसास पक्का था.
चौबीसों घंटे संगीत के संस्कार पड़े इसलिए आज कुछ करने और कहने की हिम्मत होती है. मुझे यह गम है कि मैंने बहुत देरी से सीखना शुरू किया, हमें जो भी पूछना होता था वह माँ से पूछते थे क्योंकि बाबा से बहुत छोटे-छोटे प्रश्न नहीं पूछ सकते थे. ऐसे में माँ ने गुरु की और माँ की भूमिका एक साथ निभाई और हमें तैयार किया.
मैं माँ और बाबा के साथ तानपुरा लेकर बैठती थी. उनके साथ यात्रा पर जाती. किस तरह वे अभ्यास करते हैं, नोट्स बनाते हैं, अपना होम वर्क करके जाते हैं. जो व्यक्ति उम्र के नौवे वर्ष से गा रहा हो वह आज भी किसी कार्यक्रम से पहले तैयारी करता है. यह सब देखती थी. सीखती थी.
स्थापित कलाकार कहते है कि अरे चार–पांच सौ बंदिशें तो तकिये के नीचे ही बिखरी पड़ी रहती हैं. यूँही जाकर गा देंगे. क्या तैयारी करनी ? पर मेरे बाबा और आई को मैंने आखिर तक बगैर तैयारी के कोई कार्यक्रम देते नहीं देखा.
उन्होंने कोई आडम्बर नहीं पाला. पिता हमेशा सफ़ेद कुरते पाजामे में रहे. बाद में मैंने उन्हें सिल्क के रंग बिरंगे कुरते पहनाये और उनके पहनावे में बदलाव किया.
आपको बहुत सम्मान से देखा जाता है. अपनी उपलब्धियों के विषय में कुछ बताइए.
अपनी उपलब्धियों के बारे में बात करना मुझे पसंद नहीं है पर संगीत कला अकादमी का अवार्ड मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कलाकारों द्वारा दिया जाने वाला कलाकार का पुरस्कार है.
जहाँ तक देश-विदेश में कार्यक्रमों की बात है- मैं अमेरिका, आस्ट्रेलिया, स्वीटजरलैंड, फ्रांस, कतर, दोहा, दुबई, अफ्रीका, मास्को गई हूँ. भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में मैंने प्रस्तुतियाँ दी हैं.
मास्को की एक घटना बताती हूँ. मैं सरकार की ओर से भारत महोत्सव के लिए मास्को गई थी. वहाँ उद्घाटन समारोह मेरे गायन से आरम्भ होना था. क्रेमलिन के उस हाल में लगभग तीन हजार लोगों के अलावे भी थे और उनमें नब्बे प्रतिशत रूसी और दस प्रतिशत भारतीय रहे होंगे.
रशियन लोग भारतीय संगीत, फिल्मों को और संस्कृति को बहुत प्यार करते हैं. मेरे बाद पंडित रविशंकर का सितार वादन था. मैंने निर्धारित समय में प्रस्तुति दी और समापन “सुनता है गुरु ज्ञानी” कबीर के भजन से किया. हाल में देर तक तालियाँ बजती रहीं और उपस्थित श्रोताओं ने तीन बार ‘वन्स मोर’ कहकर मेरे और तीन भजन सुने जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी.
ग्रीन रूम में आकर रोने लगी क्योंकि वह मालवा, बाबा और कबीर का सम्मान था कि किस तरह से लोगों ने हमारे संगीत को सम्मान दिया. आज भी जब सोचती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. अच्छी बात यह है कि विदेशों में मैंने जहाँ भी कार्यक्रम दिए है वहाँ स्थाई निवासियों कि संख्या अस्सी-नब्बे प्रतिशत और भारतीय मूल के निवासियों की संख्या दस से बीस प्रतिशत तक रही है. और होना भी यही चाहिए.
बाहर लोग शांति से सुनते हैं. और लोगों के साथ संगीतकार जुड़ते है. कार्यक्रम के बाद लोग आपसे सवाल भी पूछते हैं. समझते हैं हमारे संगीत को. और अपनी बात भी रखते हैं. यह सब बहुत अच्छा लगता है और इसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है.
संगीत का समसामयिक परिदृश्य कैसा लगता है?
समय एक जैसा नहीं रहता. कुमार गन्धर्व के समय से आज का समय अलग है. कुमार गन्धर्व मानक हैं. कई घरानों के लोग इस बात को नहीं मानेंगे पर अंदरूनी तौर पर वे ये मानते हैं कि इस आदमी ने परिवर्तन की शुरुआत कर दी थी.
इस दौर में भारतीय संगीत का रुझान कुछ जगहों पर कम हुआ है पर कुछ जगहों पर बेतहाशा लोग पसंद भी कर रहे हैं. कभी-कभी दुःख भी होता है कि कहाँ जा रहा है हमारा संगीत? क्या सुरों से हटकर रिदम पर ज्यादा केन्द्रित हो रहा है? या रिदम को वह आत्मसात कर रहा है.
हम मधुर सुरों की मोहिनी से थोड़ा वंचित होते जा रहे हैं. हमको सुरों की महिमा शायद उतनी मोहित नहीं करती. इसका प्रभाव फिल्मों पर भी पड़ा है. जो गाने साठ, सत्तर, अस्सी के दशक के थे, संगीतकारों को ही ले लीजिये या गायकों को ले लीजिये और आज के लोगों को ले लीजिये आपको तुरंत समझ आयेगा कि रिदम का प्रभाव कितना बढ़ गया है और इससे हमारा शास्त्रीय संगीत भी अछूता नहीं रहा है.
हम कोई तीसरी दुनिया से नहीं आये है प्रभाव तो पड़ेगा पर इस प्रभाव को किस तरह से मोल्ड किया जाए कि हमारे संगीत की मधुरता बनी रहे. हमारे संगीत का सौन्दर्य रिदम के साथ हाथ मिलाते हुए आगे बढ़े. यह आज संगीतकारों को सोचना होगा. ऐसा मुझे लगता है. हम कटकर नहीं रह सकते हैं.
मूल स्वर सुर है. बंदिश है. राग है. रिदम आपका सहयोगी है. रिदम राजा नहीं है. स्वर राजा है यह बात जब तक शिद्दत से आगे नहीं आयेगी, तब तक संगीत में डांवांडोल की स्थिति रहेगी. मुझे लगता है कि हमारा संगीत राग को लेकर मोहिनी बिखेरे, सुरों को लेकर मोहिनी बिखेरे, वह बहुत जरूरी है.
काम हो रहा है. बहुत नए लोग तैयारी के साथ आगे आ रहें हैं. कई लोग बड़ा काम कर रहे हैं. केवल तैयारी मतलब कला नहीं होती, कला एक ऊँचे पायदान की चीज है, और वह स्वांत सुखाय से निकल कर आती है. वह केवल खुश करने के लिए की जाने वाली कसरत नहीं है. यह हमें भी समझना पड़ेगा.
आपको घंटों आँख बंद करके गाते आता है क्या? या आप केवल ऑडियंस को देखकर गायेंगे. आजकल यह चल रहा है कि हम दर्शकों का धन्यवाद करते हैं. अरे भाई दर्शक नहीं वह श्रोता है. दर्शक फिल्म देखने जाता है. संगीत तो सुनने श्रोता आता है और वह कब सुनेगा जब मिठास होगी, जब आप संगीत की सुरों की मोहिनी बिखेरेंगे. तब आँख खोलने की ज़रुरत नहीं रहेगी.
आप गाते हुए श्रोताओं से संवाद करने बैठे हैं. आप गाकर संवाद करते हैं. तभी तो वह जुड़ा है. संगतकारों से आपने खूब तैयारी कर ली, तान भी लगा दी पर आगे क्या- सुकून मिला ?
मैं क्या करने बैठी हूँ? यह मुझे भी तो पता हो, जब यह स्पष्टता होगी तभी तो मैं सुर या संगीत संप्रेषित कर पाऊँगी. यदि मेरा ही दृष्टिकोण अलग है तो मैं कुछ नहीं दे पाऊँगी. कलाकार को यह तय करना होगा कि वह क्या देना चाह रहा है? भारतीय संगीत का भविष्य उज्ज्वल है. बस इसे ठीक से सम्हाला लिया जाए और संरक्षित किया जाए.
समाप्त
कलापिनी कोमकली मौलिक-मधुर और दमदार आवाज़ की धनी कलापिनी कोमकली का जन्म १२ मार्च को देवास के पास शाजापुर में हुआ. कुछ बिरले सौभाग्यशाली लोगों में से एक कलापिनी को पण्डित कुमार गंधर्व एवं विदुषी वसुन्धरा कोमकली जैसे माता-पिता गुरु के रूप में मिले, जिनसे उन्होंने संगीत का ज्ञान, तकनीक और व्याकरण विरासत में पाया. विशेष बात यह है, कि अपने गुरु के सान्निध्य में संगीत पाठ के दौरान उन्होंने मनन और सृजन का माद्दा भी हासिल किया. स्वरों की विस्तृत परिधि भावों को दर्शाने में पूर्ण सक्षम कलापिनी के गायन में ग्वालियर घराने की व्यक्तिगत छाप झलकती है. कलापिनी के रागों और बंदिशों का संग्रह मालवा अंचल की लोक धुनों और विभिन्न संतों के सगुण-निर्गुण भजनों से और भी अधिक समृद्ध हुआ है. पिछले एक दशक में वे एक प्रखर और संवेदनशील गायिका के रूप में उभरी हैं. उनकी प्रस्तुतियों में आत्मविश्वास, परिपक्वता है और एक सधी हुई कलाकार का सोच भी है. कला के उत्थान के प्रति समर्पित कलापिनी देवास में संगीत उत्सवों का आयोजन करती हैं, ताकि गायक, युवा कलाकार और विद्वतजनों का समागम संभव हो. अपनी सांगीतिक समझ और अध्येता भाव के कारण कलापिनी जैसी परिपक्व आवाज़ की धनी गायिका युवा पीढ़ी में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर अपने व्याख्यान प्रदर्शनों (लेक्चर डेमोन्स्ट्रेशन्स) के लिये काफी लोकप्रिय हैं. कुमार गंधर्व संगीत अकादमी की वे सक्रिय न्यासी हैं. उन्होंने अपने पिता पर लिखी गयी एक किताब का संपादन भी किया है जिसका नाम है ‘कालजयी कुमार गंधर्व’. यह पुस्तक दो भागों में बंटी है पहले भाग में मराठी भाषा में कुमार गंधर्व के सांगीतिक योगदान के बारे में लिखे गये आलेखों का संग्रह है, दूसरे भाग में अंग्रेज़ी और हिंदी में कुमार गंधर्व पर लिखे गये आलेखों का संग्रह है. कलापिनी के बारे में एक रोचक बात यह है कि बचपन में उन्हें संगीत अपना दुश्मन लगता था. उनका मानना था कि संगीत ने माँ-बाबा को उनसे दूर कर रखा था. वे चाहती थी कि बाबा न गाएँ और माँ तो बिलकुल ही न गाएँ. एक बार देर रात अचानक उनकी आँख खुली तो बाबा के कमरे से माँ के गाने की आवाज़ सुनायी दी. वे दौड़कर उनके कमरे में गयी और माँ से लिपटकर रोने लगीं , “तुम मत गाओ.” वे गाते-गाते रुक गयीं. संगीत कलापिनी को इतना नापसंद था कि वे लंबे समय तक उससे दूर ही रहीं. कुमार साहब ने भी उन पर कभी संगीत सीखने पर बहुत ज़ोर नहीं डाला. कलापिनी के अनुसार वे अपनी कोई बात कभी किसी पर थोपते नहीं थे. भारत सरकार के संस्कृति विभाग की छात्रवृत्ति उन्हें प्राप्त है. संगीत के प्रति उनकी तमाम कोशिशों को देखते हुए पुणे स्थित श्रीराम पुजारी प्रतिष्ठान ने उन्हें कुमार गंधर्व पुरस्कार से सम्मानित किया है. आरंभ और इनहेरिटेंट शीर्षक से एच.एम.वी. द्वारा व्यावसायिक तौर पर जारी उनकी दो स्टूडियो रेकॉर्डिंग हैं. इसी तरह हाल ही में ‘धरोहर’ शीर्षक से टाइम्स म्यूजिक ने रेकार्ड जारी किया है. स्वर मंजरी में उनकी एक पूरी संगीत सभा है, जो वर्जिन रेकॉर्डस् की ताज़ातरीन प्रस्तुति है. कलापिनी ने पहेली और देवी अहिल्याबाई फिल्मों के साउण्डट्रेक में भी अपनी आवाज़ दर्ज करायी है. कलापिनी सिडनी और मेलबोर्न में स्प्रीट ऑफ इण्डिया, क्वीन्सलैण्ड ऑफ म्यूजिक फ़ेस्टिवल, बिस्बन (ऑस्ट्रेलिया), सवाई गंधर्व फ़ेस्टिवल, पुणे, देज़ ऑफ दिल्ली मास्को (रूस),अली अकबर खान म्यूजिक अकादमी बसेल (स्विट्ज़रलैंड),सुर संगम दुबई के साथ ही देश के सभी प्रमुख प्रतिष्ठित संगीत समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं. उनके विषयगत संगीत में गीत वर्षा, आई बदरिया, गीत वसंत, आयो बसंत, सगुण-निर्गुण भजन, निर्गुण गान, मालवा की लोकधुन और गंधर्व सुर प्रमुख हैं. |
संदीप नाईक 38 वर्षों तक विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ करने के बाद आजकल देवास, म.प्र. में रहते है और इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. “नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ” कहानी संग्रह को प्रतिष्ठित वागेश्वरी पुरस्कार प्राप्त है. इन दिनों हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में लेखन-अनुवाद और कंसल्टेंसी का काम करते है. naiksandi@gmail.com |
बहुत-बहुत साधुवाद
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण
बहुत अच्छी बातचीत , कलापिनी जी का संगीत से अलगाव और जुड़ाव का रिश्ता रोचक लगा । इस प्रस्तुति के लिए शुक्रिया समालोचन