प्रेरणा श्रीमाली
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बहुत धैर्य और लगन से समय लगा कर जब कोई पुस्तक सामने आती है, निश्चय ही वह गहरी छाप छोड़ती है. ‘तत्कार’ शीर्षक से कथक पर एक अनूठी पुस्तक आई है, कथक के अकादमिक ज्ञान से परे स्वयं प्रेरणा जी की दशकों लंबी यात्रा का सत्. नृत्य की समाधिस्थ एकाग्रता के बीच बूंद-बूंद रिसा आत्मज्ञान!
प्रेरणा जी ने भूमिका में एक जगह रोहिणी भाटे और कुमुदिनी लखिया जी को उल्लेखित करते हुए लिखा है, ‘कथक एक पढ़ा लिखा कर्म है.’ मैं भी मानती हूं कि कथक गणित है, विज्ञान है, साहित्य है, नाटक है, न जाने कितने शास्त्रों से बना एक शास्त्र है.
मुझे याद है दस बरस पहले 2012 में जब मैं दिल्ली में प्रेरणा जी का साक्षात्कार ले रही थी, मुझे लगा कि वे केवल नर्तकी, एक निष्णात आचार्य ही नहीं बहुत पढ़ने, मनन करने वाली स्कॉलर हैं. बस इसी उत्सुकता के चलते प्रेरणा जी की डायरी देखने का अवसर मिला था. और मैं चौंक गयी थी, एक नृत्यांगना नृत्य और नृत्येतर विषयों पर इतना गहरा सोचती हैं कि उनके लिए कथक एक दर्शन बन चुका है.
तब मैंने पूछा था क्या किताब लिखेंगी?
“पता नहीं, अभी तो मैं बस जो मन में आता है उसके नोट्स बना लेती हूं. सामग्री तो काफी हो गयी है….
समय लगा मगर आज प्रेरणा जी की कथक केंद्रित महत्वपूर्ण किताब ‘तत्कार’ हमारे समक्ष है. बिलाशक यह किताब कथक पर है लेकिन इसे कोई भी पढ़ कर रस ले सकता है. वह रसज्ञ दर्शक भी जो कथक को देखना इसमें से रस लेना सीखना चाहता है.
यह पुस्तक बहुत व्यवस्थित ढंग से लिखी गयी है. जिसमें कथक का समूचे व्याकरण का तात्विक विश्लेषण प्रस्तुत है. क्योंकि वे मानती हैं कि कथक नृत्य नहीं एक संपूर्ण भाषा है.
निश्चय ही कथक के माध्यम से हमारे पुराण, हमारा इतिहास, हमारा प्राचीन व आधुनिक साहित्य, भारतीय दर्शन और वर्तमान अभिव्यक्त हुआ है और हो सकता है. प्रेरणा जी अमूर्त की उपासक हैं और कथक एक बड़ा हिस्सा नृत्तांगों के ज़रिये अमूर्तन की पेशकारी को घेरता है. इस बात को वे इस किताब में बहुत सधे ढंग से प्रतिपादित करती हैं.
कथक में मंच पर प्रस्तुति और उसके अंगों का नियत क्रम होता है जो समूची प्रस्तुति को एक संतुलन और सौंदर्य देता है प्रेरणा जी ने उस पर समूचा अध्याय लिखा है इसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रख कर.
उपज! यह शब्द मुझे बहुत अनूठा लगता है, कथक में. मानों एक उर्वरा धरा हो कलाकार और वह कला की परंपरा में कुछ नया उपजा कर दे. लेकिन कितना और कैसा कि कला का मूलस्वरूप बना रहे और नया जुड़े. इस पर एक कोटेबल कोट है इस अध्याय में-
“शास्त्रीय परंपराएं इतिहास को बिसराती नहीं वरन् साथ लिए चलती हैं और उसमें समसामयिक भी जोड़ती चलती हैं. तभी तो यह कहा जा सकता है, हर शास्त्रीय कलाकार एक ऐतिहासिक धरोहर अपने में समेटे है.”
मैंने बहुत सी कथक संबंधित पुस्तकें पढ़ीं हैं. कुछ अकादमिक कथक के सिलेबस जैसी होती हैं, जिनमें कथक के संबद्ध घराने का इतिहास, नृत्य के घटकों का तकनीकी विवरण, तालों का परिचय उनका गणितीय व्याकरण, बोल कवित्त आदि होते हैं.
कुछ पुस्तकें महान कथकाचार्यों की जीवन गाथा, उनके नृत्य की बारीकियों का बखान, कुछ किताबें लेखों, साक्षात्कारों और संस्मरणों का संकलन.
यह किताब तत्कार कुछ अलग हट कर है, इसमें कथक के नृत्त और भाव दोनों पक्षों पर लिखा गया है. खूबसूरती यह है कि ये लेख अकादमिक और रूखे नहीं बल्कि उन पक्षों का सुचितिंत तात्विक विश्लेषण किया गया है. कथक का संगीत, भावपक्ष, नृत्त शब्दावली, ठुमरी, एकल बनाम समूह, नृत्य करते हुए देह की कुछ आधारभूत स्तिथियां जैसे अध्यायों में मानो कथक का समूचा व्याकरण स्पष्ट हो जाता है.
कथक का संगीत-कथक की संगत का संगीत, यह अध्याय बहुत महत्वपूर्ण लगा मुझे. घुंघरू, लहरा या नग़मा और पढ़त का क्या ग़ज़ब विश्लेषण करती हैं प्रेरणा जी. वे लिखती हैं.
“घुंघरू पहला अंन्तरनिहित संगीत है जो कथक का हिस्सा है.”
“ताल नगमे पर दिखाई देती है, किसी अन्य शास्त्रीय नृत्य में न तो इस तरह ताल को नाचने की परंपरा है, न ताल को यूं संगीत मय देखने की विशेषता.”
वे पढ़न्त की ज़बरदस्त पक्षधर हैं.
“यह कथक की अद्वितीय विशेषता है, इसे रहना चाहिए. यकीनन पं दुर्गालाल जी और बिरजू महाराज की पढ़न्त का कौन न कायल होगा. इस अध्याय में वे ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी तराना, चतुरंग पर भी रोशनी डालती हैं. “
वे यहां कहती हैं-
“नृत्य स्वयं एक राग है जो उसी तरह खिलता है, उसी तरह बढ़त होती है.”
कथक के जयपुर घराने की प्रतिनिधि कलाकार हैं प्रेरणा जी. अपने इस घराने से सम्बद्ध होने का गर्व है उन्हें. वे इस घराने की कुछ खास विशेषताओं को इस अध्याय में प्रकाश में लाती हैं जो जयपुर घराने को द्रुत और महीन मगर स्पष्ट पदसंचालन की पहचान देता है. मगर बस इतना ही नहीं भाव पक्ष की प्रबलता को भी वे रेखांकित करती हैं. वे लिखती हैं –
“जयपुर शैली के अभिनय की पहचान हैअभिनय प्रस्तुति में संयम. अतिरंजना से बचाव. श्रृंगार की तुलना में भक्ति का आधिक्य”
जाहिर है कि जयपुर घराने का कथक मंदिरों का कथक जो रहा है.
यह किताब प्रेरणा जी के गहन अनुभवों का प्रतिफल है. सृजनशीलता की चुनौतियों पर जब वे लिखती हैं तो यह लंबा अनुभव और इससे रिस कर एकत्रित हुआ ज्ञान और संघनित हुआ दर्शन विस्तार पाता है.
किसी शास्त्रीय नृत्य में मौलिक कैसे हुआ जाए इस प्रश्न पर वे लिखती हैं-
“जब तक नृत्य की तकनीक पर (जो कि उसकी भाषा है) पर पूरा अधिकार नहीं आ जाता मौलिकता नहीं आएगी.”
“सृजनशीलता का अर्थ केवल नये नये विषय लेकर उन पर काम कर लेने से नहीं है, बल्कि कला के मूलभूत ढांचे पर क्या कुछ असर हुआ है या नहीं इसका महत्व अधिक है. एक सृजनात्मक प्रयोग हुआ और पानी के बुलबुले सा समाप्त हो गया अर्थात उसे कला – विधा के ढांचे में स्थायी जगह नहीं मिली तो फिर सृजन को प्रयोग कहना उचित होगा?”
स्वयं प्रेरणा जी ने नृत्य में अनेकों सृजनशील प्रयोग किये हैं. तराने को एक नयी ऊंचाई दी है….मीरां, कबीर, आधुनिक कवियों, रज़ा साहब की पेंटिंग्स, अशोक जी की कविताओं के साथ नृत्य का अनूठा अविस्मरणीय प्रयोग किया था. मगर यह किताब पढ़ने पर मुझे सुखकर हैरानी होती है, इन सब नृत्यगत विषयों, सृजन के सवालों, बड़ी घटनाओं के ज़िक्रों के बीच वे कहीं अपनी उपलब्धियों का ज़िक्र नहीं करती हैं. कहीं नहीं …. यह विनम्रता अथाह ज्ञान जल में डूब कर ही आती है.
नृत्त शब्दावली मुझे इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय लगा, कि न केवल कथक के सीखने वाले शिष्य इन पर और मनन करें बल्कि रसिक दर्शक इन नृत्तांगों और शब्दावली को ठीक से जान सकें. तत्कार क्या है? ताल के क्रमबद्ध बोल ठेका कहलाते हैं. लहरा क्या है? हस्तक, मुद्राएं, तिहाई, भ्रमरी, तोड़ा-टुकड़ा,परण, ठाट, उठान, आमद, परमेलू, कवित्त, गतनिकास, गतभाव, लयकारी, लड़ी, चाला, मुखड़ा, पढ़न्त, कसक-मसक, गरदन का डोरा, कलई का घुमाव, ताल-काल, मार्ग, अंग, जाति, यति, प्रस्तार आदि सभी को समेटा है.
किसी भी क़ाबिल शिष्य की ख़ास पहचान होती है कि उसकी कोई बात बिना गुरु के ज़िक्र के मुकम्मल नहीं होती. प्रेरणा जी अपने गुरुजी स्व. कुंदनलाल गंगानी जी को न केवल बड़ी श्रद्धा से याद करती हैं, बल्कि उनकी नृत्य विशेषताओं, उसने सिखाने के तरीकों को याद करती हैं. गुरु शिष्य सम्बंध का समूचा दर्शन एक अलग अध्याय में समेटती हैं.
इस किताब का मोहक हिस्सा डायरी अंश है, जिसमें वे नृत्यांगना के तौर पर अभिसारिका गत का विशद विश्लेषण करती हैं, एक जिज्ञासु पाठक के तौर पर श्री उदय शंकर जी की जीवनी पढ़ कर अपने विचार प्रकट करती हैं, एक नृत्याचार्य की तरह नाट्यशास्त्र से कथक में आई मुद्राओं के अतिरिक्त कथक की अपनी विराट परंपरा से चलते आए हस्तकों और मुद्राओं पर मनन करती हैं कि कथक के एतिहासिक, प्रायोगिक, सैद्धांतिक सभी पक्षों पर अभी खोज की आवश्यकता है. इस डायरी वाले अध्याय में लेजेंड डांसर मार्था ग्राहम की सौंवी वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हुई प्रस्तुति का इंद्राज बड़ा रोचक है. जिसमें वे बैले पर अपनी विवेचना लिखती हैं. साथ ही डायरी के बहुत से हिस्से हैं जो एक नृत्याचार्य के एकांतिक मनन के गहरे टुकड़े हैं.
इसमें एक अध्याय रायपुर घराने के मेरे गुरुजी भगवान दास जी के नाना जी और गुरुजी कार्तिकराम जी से प्रेरणा जी का संवाद है. मुझे जो इस अध्याय में मिला वह सत यही था कि रायपुर घराने का जन्म राजा चक्रधर सिंह ज्यू के दरबार में जयपुर घराने के बड़े नृत्ताचार्यों और लखनऊ घराने के उस्तादों तथा स्वयं राजा साहब के गहरे संगीत ज्ञान के चलते एक नये घराने के रूप में हुआ जिसमें दोनों घरानों की खासियतें और अपनी ख़ुलूसियत है.
प्रखर नृत्याचार्य के तौर पर एक अध्याय में प्रेरणा जी नृत्य और देह के कोण पर ज़रूरी मगर छोटे छोटे कोट्स लिखती हैं और मेरी आंखों के आगे उनकी प्रस्तुतियां आ जाती हैं. जहां वे राजस्थान की मिनिएचर पेंटिग्स की तरह अपनी मुद्राओं से वृक्ष, पक्षी, जल-लहरें, झरोखे….प्रतीक्षा रत नायिका को रच देती हैं. उनकी देह की भंगिमाएं क्लिष्टतम रूप से एक नियत चाप बना कर जब सम पर आती हैं एक जादू जगता है. वही जादू इस किताब में विस्तार पाता है.
वे परंपरा को बेड़ी की तरह नहीं पहनतीं, वे परंपरा के कल को आज के झरोखे में बिठाती हैं. और नये प्रतीकों और प्रयोगों से सजा कर प्रस्तुत करती हैं. कविता उनका दूसरा प्रेम है, जिस तक वे नृत्य के माध्यम से चलकर ही पहुंची हैं, ऐसा वे कहती हैं. कालिदास, अमरू, गालिब, कबीर, मीरां, पद्माकर, देव, खुसरो, सूर, तुलसी, शंकराचार्य की कविता को नृत्य में ढाला.
कविता से उनके लगाव और नृत्य में इस लगाव के निसृत होने को वे मीरां के उदाहरण से अभिव्यक्त करती हैं.
“मीरांबाई के पदों पर काम करते हुए उनकी ‘लज्जा’ की भावना को मैंने केवल पैरों की गतियों और स्थितियों से दिखाने का प्रयास किया था, दस जोड़े पाँव एक साथ मंच पर विभिन्न लय छन्दों में चलते हुए ऐसी स्थितियाँ बना रहे थे कि लज्जा का भाव प्रगट हो सके. ताल दादरा ६ (मात्रा) में निबद्ध मीरां का पद केवल पद गतियों से प्रगट हो रहा था. तालों के अपने चरित्र होते हैं, तो उस लिहाज़ से ६ मात्रा के दादरा ताल का चलन कुछ चंचल पर मंथर गति लिये है-शब्द थे “ऐ माँ हेला देती लाजूँ, झालो दियो न जाये…”
मीरां, कृष्ण जो चले गये हैं, उन्हें पीछे आवाज़ देकर बुलाने में झिझक रही हैं.
नृत्यांगना होकर जब कविता को देखा, पढ़ा, समझा और बरता, तो समझ में आया कि कविता तो किसी भी माध्यम से या माध्यम में सम्भव है. नृत्य, संगीत, चित्र, शिल्प, जब भी अपनी उत्कृष्टता पर पहुँचते हैं तो कविता करते लगते हैं. रसिकजनों की अभिव्यक्ति भी उन्हें उसी रूप में देखती, सुनती, सराहती है.
नृत्य कवितामय प्रस्तुतियाँ कही जाती हैं और प्रस्तुतियों की समीक्षा इस तरह भी होती है कि—Poetry in motion या poetic rendering आदि, तब मुझे यह समझ में आता है कि कविता एक कला-विधा तो है ही परन्तु वह अन्य कला विधाओं की उत्कृष्टता को सम्बोधित एक विशेषण भी है. जैसा मैंने अपने लेख के आरम्भ में कहा कि कविता मुझे व्यक्ति की सबसे अधिक रचनात्मक क्रिया लगती थीं और मैं कवि होना चाहती थी, आज नृत्यांगना होकर कविता को मैंने अपनी कला में आत्मसात् करने की कोशिश की है और अब अपनी प्रस्तुतियों को एक सम्पूर्ण काव्यमय या कवितामय प्रस्तुति बनाने का प्रयत्न करती हूँ, और मुझे लगता है कि जिस कविता के स्वतः निःसृत होने का मैं दिन रात इन्तज़ार करती थी वह इस तरह मेरे नृत्य में निःसृत हो रही है. (पृष्ठ २४५-४६)
जब आप अपनी विधा के सागर में गहरे डूबते हो तो एक बिंदू ऐसा आता है जब इमेज ऑफ रियलिटी एंड रियलिटी ऑफ इमेज का प्रश्न उठना स्वाभाविक है. यह ज्ञान के संघनित हो दर्शन में बदलने की शुरुआत है. साहित्य में भी यह अवस्था आती है जब आप विवरणों से निकल महीन वैचारिकी की तरफ बढ़ते हैं. विचार समाधान नहीं, सवाल से सवालों को जन्म देते हैं और उसी गुंजल में कहीं महज संकेत छुपे होते हैं समाधान के. इस पर प्रेरणा जी कहती हैं –
“नृत्य सीखते हुए जब गुरुजी कहते थे- ‘शरीर के हिसाब से नाच’ और फिर कभी कहते थे कि “शरीर छोड़ के नाच”. नहीं समझ में आता
था. तो शरीर को शरीर से छोड़कर नाचना है. परन्तु इस स्थिति तक पहुँचने के लिए शरीर की याददाश्त को इतना पैना करना होता है कि वो बोल, हस्तक, पद-संचालन आदि बिना सोचे निसृत हो जाएँ, जब ऐसी स्थिति बनती है तभी शरीर को भूला जा सकता है या कहें कि छोड़ा जा सकता है-और जब शरीर भूलता है तभी नृत्य उपजता है, फिर बस नृत्य ही दिखायी देता है-और ऐसी किम्वन्दतियाँ बनती हैं कि इतनी स्थूल काया थी पर नज़र ही नहीं आयी- फिर चाहे वो बाला सरस्वती हो, अच्छन महाराज जी या मेरे गुरु कुन्दनलाल गंगानी जी. शायद इस तरह शरीर से शरीर को भूलते हुए शरीर की वास्तविकता प्रगट हुई या होती है या हो सकती है. सम्भव है नृत्य में.
तो क्या एक नृत्यांगना की दृष्टि से मैं यह कह सकती हूँ कि मेरा साज़, जो कि देह है, अगर वो वास्तविकता की छवि है तो इस देह से निसृत नृत्य, छवि की वास्तविकता है. (पृष्ठ २५२-२५३)
यह इस किताब की सफलता है जो स्थूल से आरंभ होकर सूक्ष्म और फिर शून्य तक ले जाती है. शून्य नृत्य का मानो सम है. क्योंकि यह किताब एक प्रखर नृत्यांगना की रची हुई है तो सम पर आना महसूस होता है. मैं प्रेरणा जी को बधाई देती हूं इस अनूठी किताब तत्कार के लिए और आप सभी को धन्यवाद कि आपने मेरी बात को धैर्य से सुना.
प्रसिद्ध कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ के कई कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हैं, उन्होंने अनुवाद भी किया है. वह कथक में विशारद हैं. |
Manisha दी फ़ौरी प्रतिक्रिया यह कि बहुत शानदार लिखा आपने Prerana दी की किताब पर। एक सांस में पढ़ गई। किताब पढ़ने की उत्सुकता जग गई है। जल्दी ही मंगवाऊंगी। विस्तार से अपनी बात लिखूँगी लेकिन थोड़ा ठहरकर। इतना सुंदर लिखने के लिए आपको प्यार और आपका लिखा हमारे सामने लाने के लिए Arun Dev जी का आभार। आपके इस आलेख ने मेरी सुबह बना दी क्योंकि हमारी सुबह तो अभी ही होती है और आँख खुलते ही मॉर्निंग कॉफ़ी के साथ आपका आलेख पढ़ा 🥰🙏
वैसे भी अख़बार पढ़ना तो मैं बरसों पहले छोड़ चुकी हूँ (क्योंकि ख़ून में सने अख़बार निकलते हैं). इन दिनों मेरी सुबह लगभग हर रोज़ समालोचन के साथ ही होती है। अरुण देव जी को जितना शुक्रिया कहूँ कम है 🙏