भक्ति-कविता, किसानी और किसान आंदोलन
बजरंग बिहारी तिवारी
दिल्ली की घेरेबंदी वाले किसान आंदोलन का एक महीना गुजर चुका है. राजधानी आने वाले कई रास्तों सिंघु बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, नेशनल हाईवे आठ आदि पर लाखों किसान धरना दिए बैठे हुए हैं. वे यहाँ इसलिए बैठे हुए हैं क्योंकि उन्हें दिल्ली में आने से रोका गया है. पूर्णतया अहिंसक किसान आंदोलन पर आँसू गैस के गोले फेंके गए, वाटर कैनन चलाए गए. राष्ट्रीय राजमार्गों पर गड्ढे खोदकर, बड़े-बड़े अवरोधक खड़े करके, नुकीले-कटीले तार लगाकर किसानों को दिल्ली प्रवेश से रोका गया. इस कड़कती सर्दी में तीस से अधिक आंदोलनरत किसानों की जान जा चुकी है. इन मौतों के लिए कौन जिम्मेदार है?
2014 में जब यह सरकार सत्ता में आयी थी तभी आशंकाओं के बादल घिर आए थे. शासन की बागडोर थामने के साथ यह सरकार दो अध्यादेश लाई थी- कॉर्पोरेट को जमीन आवंटित करने के लिए ग्राम सभा/ग्राम पंचायत की मंजूरी की शर्त हटाना और जीवनरक्षक दवाओं की कीमत को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करना. तभी लग गया था कि आने वाला समय कैसा होगा! नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता संशोधन क़ानून, कोरोना तालाबंदी इस सरकार के ऐसे ‘ऐतिहासिक’ निर्णय हैं जिनसे देश की आर्थिक, सामाजिक तबाही सुनिश्चित की गई है. कितने ही उद्योगपति बैंकों से प्रभूत धनराशि लेकर चम्पत हो चुके हैं. पीएम केयरफंड को लेकर जैसी शंका बलवती हुई है वह सरकार समर्थक लोगों को भी परेशान कर रही है. खरी बात लिखने वाले संत पलटू साहिब (1750-1815) की बानी है 1–
आगि लगो वहि देस में जहँवाँ राजा चोर ll
जहँवाँ राजा चोर प्रजा कैसे सुख पावै l
पाँच पचीस लगाय रैनि दिन सदा मुसावै ll
मूसना क्रिया चोरी करने, ठगने, उठा ले जाने के अर्थ में प्रयुक्त की जाती है. तीन नए कृषि विधेयकों के कानून बनते-बनते किसानों को यकीन हो चला था कि उन्हें बाकायदा मूसे जाने का पक्का बंदोबस्त सरकार ने कर दिया है. पिछले ढाई दशक में पाँच लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या का रास्ता चुन चुके हैं. दो बरस पहले तमिलनाडु के किसान अपने मरे हुए भाई-बंधुओं के कपाल और कंकाल लेकर दिल्ली आकर जंतर-मंतर तथा संसद भवन के सामने विफल गुहार लगा चुके हैं. मरहम लगाने की बजाए सरकार ने घाव को गहरा करते हुए राज्य-सूची में दखल दिया. लॉकडाउन पीरियड में जाने किस आपात स्थिति का अनुभव करते हुए तीन नए विधेयक प्रस्तुत किए गए. इन्हें लोकसभा में बहुमत के बल पर पास कराकर राज्यसभा में तिकड़म से पास करवा लिया गया. चौदह सितंबर को पेश हुए ये विधेयक राष्ट्रपति की तत्काल मंजूरी मिल जाने से सत्ताइस सितंबर को क़ानून में तब्दील कर दिए गए.
इन तीनों कानूनों में पहला है ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020’. पहली बार भारत में आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में लागू हुआ था. उपभोक्ताओं को जरूरी चीजें उचित कीमत पर मुहैया करवाने के लिए सरकार ने इनके उत्पादन, मूल्य निर्धारण और वितरण का नियंत्रण अपने हाथ में रखा था. नए क़ानून ने वह नियंत्रण समाप्त कर दिया है. अब अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज, आलू, खाद्य–तेल की कालाबाजारी, जमाखोरी मान्यता प्राप्त है. इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं रह गया है. भंडारण का फायदा बड़े व्यापारियों को मिलने जा रहा है, इसे समझने के लिए ‘शास्त्र’ पढ़ने की जरूरत नहीं है.
दूसरा क़ानून ‘कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) 2020’ है. सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) की स्थापना न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से उनकी फसल खरीदने के लिए की थी. एफसीआइ की सफलता का राज़ एपीएमसी एक्ट में निहित था. पिछली सदी के सातवें दशक में राज्य सरकारों ने किसानों का शोषण रोकने और उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था. इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों का शोषण रोकना और उनकी उपज का वाजिब मूल्य तय करना था. इसके अनुसार किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जानी थी. किसानों की दुर्दशा को देखते हुए अपेक्षित यह था कि एपीएमसी एक्ट को बेहतर बनाया जाता. भारतीय खाद्य निगम को मजबूती दी जाती, उसका विस्तार किया जाता, उसके भंडारण गृहों की संख्या और गुणवत्ता बढ़ाई जाती. सरकारी मंडियों के परिसर में ही एफसीआइ कृषि उपज की खरीदारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर करती है. तब यह वांछित था कि सरकारी मंडियों का जाल सघन किया जाता.
वहाँ तक आम किसानों की पहुँच आसान की जाती. अभी देश में कुल सात हज़ार मंडियां हैं. जरूरत बयालीस हज़ार मंडियों की है. एमएसपी निर्धारण को ज्यादा संवेदनशील एवं तर्कसंगत बनाते हुए यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता थी कि किसानी लाभ का उद्यम बन सके. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर कुठाराघात करने वाली सरकार ने ‘कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020’ लाकर एपीएमसी एक्ट को ही अप्रभावी कर दिया. अब मंडी परिसर में कृषि उपज बेचने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है. कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके पास पैन/आधार कार्ड है वह कहीं भी और कितनी भी उपज खरीद सकता है. उसका भण्डारण कर सकता है. फसल खरीद की दर तय करने में अब सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी. मंडी से बाहर की गई खरीद पर कोई टैक्स भी देय नहीं होगा. बिडंबना देखिए कि एपीएमसी एक्ट को निरस्त करते समय केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से मशविरा करने की जरूरत नहीं समझी. कृषि राज्य सरकार के क्षेत्र में आता है. तब राज्य सरकार से बात किए बिना एपीएमसी को निष्प्रभावी बनाना संविधान और संघीय ढाँचे का उल्लंघन समझा जाना चाहिए.
तीसरा क़ानून ‘कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम 2020’ है. यह ठेके पर खेती को वैधता देने वाला क़ानून है. किसान और खरीदार के बीच विवाद होने की स्थिति में कोई भी पक्ष पहले समाधान बोर्ड जाएगा. वहाँ मामला न सुलझे तो सबडिवीज़नल मजिस्ट्रेट के पास जाना होगा. तीसरे और अंतिम अपील के लिए कलक्टर तक जाया जा सकता है लेकिन अदालत (सिविल कोर्ट) जाने का प्रावधान नहीं है. एक औसत किसान साधनसंपन्न व्यापारी या बहुराष्ट्रीय कंपनी से विवाद की स्थिति में शायद ही पार पा सके. उसकी हालत तब और नाज़ुक होनी है जब स्वयं सरकार द्वारा सरकारी सुरक्षा कवच ध्वस्त कर दिया गया हो. बिहार पहला राज्य था जहाँ एपीएमसी की व्यवस्था 2006 में ख़तम कर दी गई थी. क्या वहाँ किसानों की हालत सुधरी?
पंजाब, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में मजदूरी के लिए जाने वाले बिहारी श्रमिकों की संख्या देखकर उस राज्य की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ लगाया जा सकता है. ठेके पर खेती दिए जाने की मंजूरी मिलने के बाद किसानों की हालत और बिगड़नी निश्चित है. किसानों को अपना भविष्य संकटपूर्ण दिख रहा है. वे इसीलिए संगठित होकर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं और सरकार से तीनों कानूनों को रद्द किए जाने की मांग कर रहे हैं. किसानों का यह आंदोलन ऐतिहासिक है, अखिल भारतीय है; भले ही इसकी अगुआई पंजाब के किसान कर रहे हों. इस आंदोलन में किसानों के साथ कृषि मजदूर, मंडी श्रमिक भी शामिल हैं. समाज के प्रायः सभी वर्ग– विद्यार्थी, बुद्धिजीवी, रचनाकार, वकील, अध्यापक, मेडिकल सेवाओं के लोग अपना समर्थन दे रहे हैं.
किसानों का सबसे बड़ा जमावड़ा सिंघु बॉर्डर पर है. यहाँ मुख्यतः पंजाब से आए किसान हैं. इस एनएच-24 पर सात-आठ किलोमीटर तक ट्रैक्टर-ट्राली के साथ किसान डटे हुए हैं. रात-दिन लंगर चलता रहता है. लोग प्रसाद-भोजन करते रहते हैं. कथाकार टेकचंद ने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि इस हाइवे के दोनों तरफ कच्ची बस्तियाँ हैं. इनमें मजदूर और छोटे-मोटे धंधे करने वालों के परिवार रहते हैं. मार्च में लॉकडाउन लगने के बाद इन्हें काम मिलना बंद हो गया. भुखमरी की नौबत आ गई. किसानों के लंगर में इन परिवारों के सदस्य भी शामिल होते हैं. कई महीनों बाद उन्हें इस तरह का भोजन मिल रहा है. किसानों को असीसते हुए वे प्रसन्न हैं. संत दादूदयाल के शिष्य संत बाजीद (1548-1606, अनुमानित) का कहना था-
भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुँह मोड़िये,
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िये I
दे आधी की आध अरध की कोर रे,
हरि हाँ, अन्न सरीखा पुन्य नाहिं कोइ और रे ll
गुरुमत में इसे सच्चा सौदा कहा जाता है. नानकदेव (1469-1539) के बचपन की घटना है जब उन्हें घर का सामान खरीदने बाज़ार भेजा गया था. उस पैसे से वे जरूरतमंदों, साधु-संतों को रोटी खिला आए थे. इसे उन्होंने ‘सच्चा सौदा’ कहा था. गुरु नानक ने अपने सत्तर वर्षीय जीवन के 22 वर्ष यात्राओं में बिताए थे. उन्होंने चार बड़ी यात्राएं की थीं. अपनी पहली यात्रा में उन्होंने एक रात लालो बढ़ई के यहाँ गुजारी थी. गाँव का जमींदार भागो चाहता था कि नानकदेव उसके यहाँ ठहरें और भोजन करें. गाँव से विदा होते नानक ने दोनों घरों की रोटियों का अंतर स्पष्ट किया. उन्होंने दिखाया कि जमींदार की रोटी में शोषण-उत्पीड़न का रक्त है जबकि काष्ठशिल्पी लालो की रोटी में श्रम-जल.
बॉर्डर पर बैठे किसानों को सरकार ने पाँच बार बातचीत के लिए बुलाया. किसानों ने एक बार भी सरकार की रोटी नहीं स्वीकारी.
नानक के पिता कालूचंद तलवंडी के पटवारी होने के साथ खेतिहर किसान भी थे. उन्होंने अपने बेटे को भी खेती के काम में लगाया था. किसानी के अनुभव नानक की वाणी (कविता) में निबद्ध हैं. भक्ति-साधना का रूपक बाँधते हुए उन्होंने कहा-
इहु तनु धरती बीजु करमा करो,
सलिल आपउ सारिंगपाणी l
मनु किरसाणु हरि रिदै जंमाइलै,
इउ पावसि पदु निरबाणी ll
अपने मन को किसान बनाकर शरीर रूपी खेत में बीज रूपी कर्म बोओ. भक्ति-भाव के जल से उसे सींचो. इस प्रकार हृदय-भूमि में हरिभाव की फसल उगाओ. मुक्ति चेतना का सुख इस तरह हासिल करो.
किसानी को उदात्त कार्य बताते हुए नानकदेव ने कहा कि राजा को सयानापन दिखाने से बचना चाहिए. किसान के सामने यह भुलावा नहीं टिकेगा. किसान सत्य-रूप है. स्वयं परमात्मा सबसे बड़ा किसान है. सच्चा किसान वही है जो पहले धरती को कमाता है और फिर ध्यानपूर्वक उसमें सत्य नाम के दाने बोता है. नौ निधियों की फसल उपजती है. लहलहाती फसल इस कर्म-व्यापार का ध्वज (निशान) है-
आपु सुजाण न भुलई सचा वड किरसाणु l
पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु ,
नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु ll
नानक साधकों, भक्तों से किसान बनकर ईमान की फसल उगाने की सलाह देते हैं-
अमलु करि धरती बीजु सबदो करि,
सच की आब नित देहि पाणी l
होइ किरसाणु ईमान जंमाइ लै,
भिसतु दोजकु मूड़े एव जाणी ll
खेत को जोत-गोड़ (शोधन) कर उसमें शब्द-बीज डालकर सत्य-जल से सिंचाई करनी चाहिए. किसान बनकर ईमान की फसल उगानी चाहिए. इससे अलग स्वर्ग-नरक की बात मूर्ख-अज्ञानी करते हैं.
गुरुग्रंथ साहिब के पहले महले में गुरु नानक की बानियाँ हैं. ये बानियाँ कुल 31 रागों में हैं. यह बात गौर करने की है कि नानक श्रम और नैतिकता को महत्त्व देते हैं, किसानी को उदात्तता प्रदान करते हैं, साधु-संतों के सामने श्रद्धावनत रहते हैं लेकिन सुल्तान या राजसत्ता के समक्ष फटकार भरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. पहले राग (‘सिरी राग’) के पहले ही सबद में उन्होंने मदांध राजा को इस तरह संबोधित किया है-
सुलतानु होवा मेलि लसकर तखति राखा पाउ l
हुकुम हासलु करी बैठा नानका सभ वाउ ll
मतु देखि भूला वीसरै ll
तू शासक-सुलतान हो गया है, सिंहासन पर बैठता है, बड़ी सेना तेरे पास है. लेकिन यह न भूल कि सब उसी परवरदिगार के हुक्म से ही हासिल हुआ है. तुम्हारी सारी हवा (प्रभाव, वायु) उसी की देन है.
इसी तरह महला-1 के चउपदे का पहला सबद है-
तू सुलतान कहा हउ मीआ तेरी कवन बड़ाई l
जो तू देहि सु कहा सुआमी मैं मूरख कहणु न जाई ll
क्या हुआ जो तू सुलतान हो गया? मियाँ, इसमें तेरा क्या बड़प्पन है? तुम क्या देते या दे सकते हो. देने वाला तो वह स्वामी/परमात्मा है. मुझ अज्ञानी से उसकी महिमा कहते नहीं बन रही है. इसी ‘चउपदे’ के तीसरे सबद में नानक कहते हैं कि राजगद्दी हमेशा के लिए नहीं होती. राज्याधिकार का अभिमान झूठा है. इस मिथ्यात्व को राजा समझ नहीं पाता. सत्ता-भोग का चस्का लग जाए तो छूटता नहीं-
राजु रूप झूठा दिन चारि. नाम मिलै चानणु अंधियारि ll
चखि छोड़ी सहसा नहिं कोइ . बापु दिसै बेजाति न होइ ll 2
कुछ लोग धर्म को व्यवसाय बना लेते हैं. धर्म का धंधा उनके स्वार्थों की पूर्ति भले ही करता हो, नानकदेव की निगाह में यह कृत्य धिक्कारयोग्य है. इसी की अगली पंक्ति में वे पीड़ित किसानों की सुध लेते हैं. ऐसे किसान जिनकी खेती उजड़ गई या उजाड़ दी गई है वे कहाँ जाएं? गुरु नानक कहते हैं कि उजड़ी खेती वाले किसान खलिहान क्योंकर जाएंगे! जब फसल ही न रही तब मड़ाई का प्रश्न नहीं उठता-
धृगु तिन्हा का जीविंआ जिं लिखि लिखि बेचहिं नाउ l
खेती जिनकी उजड़ै खलवाड़े किआ थाउ ll 3
सवाल यह कि जिनकी खेती उजड़ रही है वे खलिहान न जाकर कहाँ जाएं? क्या ऐसे में उन्हें दुर्दिन के हेतु की पहचान नहीं करनी चाहिए? हमारे वक्त के किसानों ने यही किया. धर्म के धंधेबाजों को लगा होगा कि किसान तो धर्मप्राण हैं. इस आसन्न उजाड़ को वे नियति मानकर स्वीकार कर लेंगे. किसानों ने राजसत्ता की यह कामना पूरी नहीं की. उन्होंने उजाड़ के स्रोत की पहचान कर ली. कबीरदास ने लिखा है कि ठग तब तक सफल होते रहते हैं जब तक उनकी ठगी की पहचान नहीं होती. सच ज्ञात हो जाए तो ठगौरी पर विराम लग जाता है-
कहैं कबीर ठग सों मनमाना, गई ठगौरी ठग पहिचानां l 4
संत-कवियों ने किसान को प्राण-वायु माना है. नाम-स्मरण के एक रूपक में संत रज्जब ने लिखा कि नाम अनाज है जो काया के हृदय रूपी घर में विद्यमान-गतिमान रहता है, प्राणरूप किसान प्राण (=पवन/ऑक्सीजन) का वहन करता है- ‘नावं नाज उर घर बहै, बाहै प्राण किसान’.दूसरे प्रसंग में रज्जब ने लिखा-
‘मनिखा देही खेति खित, माहै प्रान किसान.’ यह शरीर मनका (माला) है, चित्त खेत है जिसमें साँसों का आना-जाना (=प्राणरूप) किसान है.5
किसान प्राण-रूप है क्योंकि वह अन्न उपजाता है. कबीर अन्न स्मरण को नाम स्मरण जितना ही महत्त्व देते हैं-
‘जपियै नाम जपियै अन्न.’6
कबीर यह भी कहते हैं कि अन्न के बगैर अच्छा समय नहीं आता. अन्न त्याग के बाद भगवान नहीं मिलते-
‘अन्ने बिना न होइ सुकाल. तजियै अन्न न मिलै गुपाल..’7
तुलसीदास कहते हैं कि राम के साक्षात दर्शन से जितना सुख मिलता है उतना आनंद एक भूखे व्यक्ति को अन्न ग्रहण करने से प्राप्त होता है-
‘पियत नयन पुट रूप पियूषा. मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा..8
संत सुंदरदास (1596-1689) ने लिखा-
‘सब के आहिं अन्न मैं प्रांन. बात बनाइ कहौ कोऊ केती, नाचि कूदि कैं तूटत तांन.’9
सबके प्राण अन्न में बसते हैं. कोई कितनी भी ऊँची-ऊँची हाँक ले, आखिरकार पेट भरने के लिए अन्न की शरण में आना पड़ेगा. हरियाणा के संत गरीबदास (1717-1778) ने अन्न की दो आरतियां लिखीं- अन्नदेव की बड़ी आरती और अन्नदेवी की छोटी आरती. बड़ी आरती में 46 युग्मक (पंक्तियां) हैं तो छोटी आरती में 15 युग्मक. छोटी आरती में वे कहते हैं- ‘रोटी पूजा आतम देव. रोटी ही परमातम सेव.. दास गरीब कहै दरवेसा. रोटी बाँटो सदा हमेशा..’ बड़ी आरती की ये पंक्तियां देखिए-
अन्न ही माता अन्न ही पिता l अन्न ही मेटत है सब बिथा l
अन्न ही प्राण पुरुष आधारं l अन्न से खूल्हें ब्रह्म द्वारं ll 10
अन्न उपजाने के लिए किसान हाड़-तोड़ मेहनत करता है. निरंतर काम में लगा रहता है. रज्जब अली की उद्भावना है कि अन्न उपजाने के इस काम में छः तत्व या प्राकृतिक शक्तियां (भी) मजदूर की तरह काम करती हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी के साथ चंद्रमा. परिश्रम न करने वाले आलसी, दरिद्र के पास अन्न कैसे पहुँच सकता है-
पाँचौ तत्त मयंक सौं, अन्नहि काज मजूर l
रज्जब सो दालिद्र मैं, आवै क्यों सु हुजूर ll 11
संत रैदास ऐसे राज्य की, राज की कामना करते हैं जहाँ सबको अन्न मिले. कोई भूखा न रहे. छोटे-बड़े सब समान धरातल पर रहें-
ऐसा चाहूँ राज मैं, जहँ मिलै सबन को अन्न l
छोट-बड़ो सब सम बसैं, रैदास रहै प्रसन्न ll 12
रैदास की मानें तो अन्न की उपलब्धता सुनिश्चित कराना राजसत्ता का दायित्व है. अन्न की उपलब्धता तब होगी जब किसान फसल उपजा रहे होंगे, किसानी उत्तम होगी और भूमि उर्वरा होगी. राग गौड़ी में निबद्ध उनके ख्यात पद ‘अब हम खूब वतन घर पाया’ में रैदास की यह कामना किंचित विस्तार से वर्णित है. यह पद थोड़े-थोड़े अंतर से चार-पाँच रूपों में मिलता है.13 बेगमपुरा रैदास का काम्य/यूटोपियन देस/वतन है. यहाँ सभी निवासी समृद्ध हैं. अपराध नहीं होते. लोग किसी चीज़ के लिए तरसते नहीं. किसानों को भूमिकर और व्यापारियों को मालकर की तश्वीश= त्रास, चिंता, घबराहट नहीं है. भूमि उपजाऊ है और बाज़ार-व्यवस्था नियंत्रण में है-
काइम दाइम सदा पतिसाही l
दोम न सोम एक सा आही ll
काइम, दाइम अरबी मूल से आए विशेषण-शब्द हैं. बेगमपुरा में बादशाहत हमेशा कायम/दृढ़ है. दोम फारसी का दोयम (दूसरा) है. सोम अरबी का सौम है. सौम का अर्थ है महंगा करके बेचना. यहाँ वस्तुओं के दाम एक-से रहते हैं. व्यापारी उनका भण्डारण करके, कृत्रिम अभाव की स्थिति रचकर महंगे में नहीं बेचते. हमेशा कायम रहने वाली बादशाहत से रैदास की क्या मुराद है? कोई मनुष्य राजा होगा तो वह जीवनांत को भी प्राप्त होगा. किसी की बादशाहत हमेशा कायम नहीं रह सकती! रैदास असल में राजा-रहित व्यवस्था की तरफ संकेत कर रहे हैं. वे श्रम/श्रमिक की बादशाहत चाहते हैं-
आवादाना रहम औजूद l
जहाँ गनी आप बसै माबूद ll
आवादान (फारसी) गुलजार-बसावट या उर्वरा भूमि है. यहाँ रहम/करुणा का वजूद है. सब संपन्न हैं क्योंकि यहाँ स्वयं ‘माबूद’ बसता है. मा’बूद (अरबी) का मानी है- जिसको पूजा जाए. ईश्वर को मा’बूद कहा जाता है. यहाँ ‘ईश्वर’ से रैदास का आशय है-
स्रम को ईसर जानि कै, जउ पूजै दिन रैन l
रविदास तिन्हहिं संसार मंह, सदा मिलै सुख चैन ll 14
बेगमपुर श्रम के बल पर बनने वाली व्यवस्था है. गम (दुःख-अंदोह-शोक) का समापन मेहनतकश समाज ही कर सकता है. यहाँ श्रम ही सत्य है, श्रम ही ईश्वर है. संत-कवि राज्य में व्यवस्था तो चाहते हैं लेकिन राजा नहीं. सुव्यवस्था और बादशाह में कोई अनिवार्य संबंध नहीं है.
एक ही राजा प्रजा को परेशान करने के लिए पर्याप्त है और अगर दो राजा हुए तो प्रजा का दुख द्विगुणित होना अवश्यंभावी है. यह सामंती समय में सामंतवाद की आलोचना है. तुलसीदास की समझ से दुराज में प्रजा का दुःख दिन-दिन दूना होता जाता है-
“दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुख. दुरित दुराज, सुख सुकृत सकोचु है.” (‘कवितावली’, 7/81.) सिंधी-हिंदी संत कवि रोहल फ़कीर (1704-1783) कहते हैं-
“दो राजा के राज में सुखी रहा न कोय.”15 रीतियुगीन कवि बिहारी (1595-1663) दो राजाओं के शासन को प्रजा के लिए असहनीय बताते हैं-
दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बढ़ै दुख दंद l
अधिक अंधेरो जग करै मिलि मावस रवि चंद ll 16
बिहारी ने दिल्लीपति औरंगजेब और जयपुर नरेश जयसिंह के दुराज में दुखी प्रजा को देखा था जैसे आज के कवि राजसत्ता और कारपोरेट-सत्ता के दुहरे शासन में त्रस्त जनता को देख रहे हैं. लेकिन, थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो अभी दो की जगह पाँच सत्ताएं शासन चला रही हैं-
i) देशी कॉरपोरेट की सत्ता,
ii) बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सत्ता,
iii) संघ/हिंदुत्व की सत्ता,
iv) मोशा की सत्ता, और
v) पारंपरिक राजनीतिक/प्रशासनिक सत्ता.
यह बेवजह नहीं है कि जनता इन दिनों कुछ अधिक ही संत्रस्त है. आगमजानी कवि पलटू साहिब ने कहा था-
रैयत एक पाँच ठकुराई, दस दिसि है मौआसा l
रजो तमो गुण खरे सिपाही, करहिं भवन में बासा ll
पाप पुन्य मिलि करहिं दिवानी, नगर अदल न होई l
दिवस चोर घर मूसन लागे, मालधनी गा सोई ll 17
पाँच शासकों से शासित प्रजा दस दिशाओं से मूसी=शोषित की जाती है. दसों दिशाओं में ठग सक्रिय हो जाते हैं. तामसिक-राजसिक सिपाही उन ठगों के पिछलग्गू बना दिए जाते हैं. राजभवन पर उनका कब्ज़ा हो जाता है. पाप पुण्य में मिल जाता है. दीवानी (=मुकदमों) में ये दोनों जुड़ जाते हैं, जोड़ दिए जाते हैं. सच और झूठ में इस तरह घालमेल होता है कि राज्य की न्याय-व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है. नगर में अदल= न्याय होता ही नहीं. ऐसे में (भयमुक्त) चोर जनता को दिन में ही मूसने=लूटने लगते हैं. इस लूट को रोकने की बजाए मुखिया चादर तान सो जाता है. तुलसीदास का हृदय पहरुए = चौकीदार को चोरी करते देख हाहाकार कर उठता है-
कलि की कुचालि देखि दिन दिन दूनी देव
पाहरुई चोर हेरि हिय हहरानु है l 18
‘मन की बात’ समकाल का बड़ा प्रचलित मुहावरा है. संत-कवियों ने इस पर पर्याप्त विमर्श किया था. अंतःकरण चार हिस्सों से मिलकर बनता है- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार. इन चारों के दो युग्म हैं- मन-अहंकार और बुद्धि-चित्त. पहला युग्म नकारात्मक है और दूसरा सकारात्मक. मनमुखी अहंकारी होते हैं जबकि चित्तमुखी विवेकी. अंतःकरण में मन की प्रबलता के दुष्परिणामों को दर्शाने के लिए संत-कवि रोहल ने ‘मन परबोध’ नामक ग्रंथ ही लिखा. संवाद-शैली में लिखे इस काव्य-ग्रंथ में कहा गया है कि मन और चित्त में टकराव होता रहता है. मन को एकाधिकार चाहिए. इसके लिए वह हर तरकीब अपनाता है. अपनी निरर्थक मुखरता के बल पर वह चित्त को चुप करा देता है-
चित को कह्यो न मन करे, मन को कह्यो न चित्त l
काया नगरी ग्राम महं, दोऊ झगड़त नित्य ll
चित्त चुपाता हो रह्या, देखा मन में जोर l
ताका बल लागे नहीं, बहुता भीरा जोर ll 19
विजयी मन राजा बन बैठता है. इस राजा के मंत्रियों में प्रमुख हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अभिमान-
काम क्रोध बलवान हैं, लोभ मोह अभिमान l
मन राजा के मंतरी, पाँच भये परधान ll 20
देवेन्द्र और नरेन्द्र दोनों को मनमुखी बताते हुए संत रज्जब अली कहते हैं कि इनकी तृष्णा कभी शांत नहीं होती, भले ही इन्हें तीनों लोकों की संपत्ति मिल जाए-
तीनि लोक मन को मिलै, तृष्ना तृपति न होइ l
रज्जब भूखे देखिये, सुरपति नरपति जोइ ll 21
ऐसे मनाधिकृत नृपति की विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए रज्जब कहते हैं कि वे ऊपर से विरक्त (फ़कीर, योगी) का बाना धारण करते हैं लेकिन भीतर अनंत भूख भरी होती है. वे जूते-चप्पल त्यागने का दावा करते हैं परंतु समस्त लोकों की संपदा की प्यास अंतरतम में सुलग रही होती है. अपनी कपट कला से वे जनता को रिझा लेते हैं किंतु (जनता की) रोजी-रोटी के ठिकानों पर नित नए प्रहार करते रहते हैं. हितैषी का भेस धरे ठग (राजा को दूसरे लोग चाहे न पहचान पाएं लेकिन) संत जन इस लखैरे (आवारा) पाजी को पहचान जाते हैं-
विकृत रूप धर्यो बप बाहिर, भीतर भूख अनंत बिराजी l
ऊपरि सौं पनही पुनि त्यागी जु, माहिं तृषा तिहुं लोक की साजी l
कपट कला करि लोग रिझायो हो, रोटी की ठौर करी देखो ताजी.
हो रज्जब रूप रच्यो ठग को जिय, साध लखे सब लाखिर पाजी ll 22
इस मन को राजा से जोड़कर देखने के स्थान पर पलटू साहिब ने बनिया से जोड़कर देखा है. यह मन-बनिया अपनी आदत नहीं छोड़ता. डंडी मारता है. हमेशा घटतौली करता है. उसे सज-संवर कर घूमते रहने का बड़ा शौक है. मंहगी पोशाकें पहनता है. फिर ऐंठते-इतराते हुए चलता है. यह जनम-जनम का अपराधी है. महा लबार है. अव्वल दर्जे का झूठा है. उसके मुंह से कभी सच निकलता ही नहीं-
मन बनिया बान न छोड़ै ll
पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटौरे l
पसंगा माहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले ll
– – –
पाँच तत्त का जामा पहिरे, ऐंठा गुइंठा डोलै l
जनम जनम का है अपराधी, कबहूँ साँच न बोलै ll 23
संत पलटू स्वयं कांदू या कांदो बनिया थे. उन्होंने जिस तीव्रता से ब्राह्मण-आचार की बखिया उधेड़ी है उसी निर्ममता से वणिक-वृत्ति का भी अनावरण किया है. उनके कई छंदों में वणिक-बेईमानी की चर्चा है. वे इस स्वभाव को असामधेय मानते प्रतीत होते हैं-
बनिया बानि न छोड़ै पसंघा मारे जाय ll
पसंघा मारे जाय पूर को मरम न जानी l
निसु दिन तौलै घाटि खोय यह परी पुरानी ll 24
आदत को ‘खोय’ कहते हैं. संत सहजोबाई भी इसी जाति-समुदाय से थीं. वे मेवात के ढूसर बनिया परिवार में पैदा हुई थीं. उन्होंने काया-नगर से मन-बनिया के निष्कासन की मांग की है-
बाबा, काया नगर बसावौ ll
..पाप बनिया रहन न दीजै धरम बजार लगावौ ll 25
सामाजिक सद्भाव के हिमायती संत पलटू कृषि-चक्र के लिए यह रूपक चुनते हैं-
“मुसलमान रब्बी मेरी हिन्दू भया खरीफ. हिन्दू भया खरीफ दोऊ है फसिल हमारी. इनको चाहे लेइ काटि कै बारी बारी.”26
सभी घटक मिलकर समाज को पूर्णता देते हैं. मन इस पूर्णता को छिन्न-भिन्न करने में लगा रहता है. पलटू इसलिए बार-बार अनर्थकारी मन की तरफ ध्यान दिलाते हैं. अंतःकरण का संतुलन बिगाड़ देने वाले मन को वे अधम मानते हैं. यह मन चोरों का मुखिया है. अवगुणों की खान है. कुल मिलाकर, बड़ा क्रूर-कठोर है-
पलटू यह मन अधम है, चोरों से बड़ चोर l
गुन तजि औगुन गहतु है, तातें बड़ा कठोर ll 27
जब हम किसी अर्थव्यवस्था को कृषि आधारित कहते हैं तो उसका अर्थ होता है कि व्यवस्था के अन्य अंग कृषि पर अवलंबित हैं. खेती में परिवर्तन से शेष प्रणाली में बदलाव हो जाएगा क्योंकि हर कड़ी एक-दूसरे से जुड़ी है. उस प्रणाली को ठप करना है तो किसानों से उनकी खेती छीन लेना पर्याप्त है. इस परस्परावलंबन को, कड़ी में टूट के परिणाम को तुलसीदास ने ‘कवितावली’ की इन पंक्तियों में दर्ज किया है-
खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी l
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच-बस,
कहैं एक एकन सों “कहाँ जाई का करी?” ll 28
किसान से खेती अपहृत कर ली जाए तो पूरी व्यवस्था भरभरा पड़ेगी. भिखारी को भीख में अन्न नहीं मिलेगा. बनिए का वाणिज्य रुक जाएगा. नौकरियाँ मिलनी बंद हो जाएंगी. मिली नौकरियाँ छूट जाएंगी. छीजते हुए जीविका विहीन लोग एक-दूसरे से पूछेंगे कि कहाँ चला जाए, क्या किया जाए? यह भय और उचाट की मनःस्थिति है.
तुलसीदास का भरोसा रामराज्य में है. यह भरोसा रामराज्य की प्राथमिकताओं से उपजा है. किसानी अगर जीवन किंवा अर्थव्यवस्था का मूलाधार है तो रामराज्य में उसे प्रथम वरीयता दी गई है-
खेती बनि बिद्या बनिज, सेवा सिलिप सुकाज l
तुलसी सुरतरु सरिस सब, सुफल राम के राज ll 29
वरीयता-क्रम में सातों क्षेत्र हैं– खेती, मजदूरी, (‘बनि’ खेतिहर मजदूरी के लिए प्रयुक्त होता है.), विद्या, वाणिज्य, सेवा (चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि क्षेत्र), शिल्पकारी-दस्तकारी, और राजकीय/सरकारी कामकाज. शासन-सत्ता की प्राथमिकताओं का यह क्रम-निर्धारण ध्यान देने योग्य है. मगर, इससे भी ज्यादा ध्यान देने योग्य बात दूसरी है. तुलसीदास उस ताकत की पहचान कराते हैं जो ऐसी प्राथमिकताओं वाले शासन में बाधक है. वे साफ-साफ़ कहते हैं कि देवसत्ता रामराज्य की, खुशहाल समाज की सबसे बड़ी शत्रु है.
आज की राजनीतिक शब्दावली में देवसत्ता को दक्षिणपंथ कहेंगे. दक्षिणपंथ धर्म से वैधता हासिल करता है. अपने को देवताओं से जोड़ता है. स्वयं को प्रश्नातीत ठहराता है. इसकी कथनी और करनी में विलोम संबंध होता है. तुलसीदास ने ‘मानस’ के द्वीतीय सोपान में देवसत्ता का सविस्तार चित्रण किया है. राम को उत्तराधिकारी घोषित किया जाना है. अयोध्या की जनता परम प्रसन्न है. यह देवताओं को सहन नहीं. वे मलिन-मन के स्वार्थी लोग हैं. कुचक्र रचने में उन्हें महारत हासिल है- ‘तिन्हहिं सोहाय न अवध बधावा. चोरहिं चांदिनि राति न भावा..’ जैसे चोर अंधेरी रात में सहज महसूस करता है वैसे देवसत्ता भयाकुल-शोकाकुल जनसमाज में सुरक्षित अनुभव करती है. अपनी सत्ता को सुरक्षित बनाए रखने के लिए वह चार स्तरों पर कार्य करती है- वह जनता को भयग्रस्त रखती है, समाज को भ्रमित करती है, लोगों में अ-रति (नफरत/ दूरी/ विभाजन) फैलाती है और जनसामान्य में उचाट (निराशा/ अस्थिरता) भरती है-
सुर स्वार्थी मलीन मन, कीन्ह कुमंत्र कुठाटु l
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाट ll 30
दक्षिणपंथी दावा यही करते हैं कि वे रामराज्य की स्थापना करेंगे. तुलसीदास चेताते हैं कि ये इतने क्रूर और कायर हैं कि मरे हुए को मारकर मंगल की कामना करते हैं-‘मुए मारि मंगल चहत.’ (मानस, 2/301) रामराज्य की स्थापना के सबसे बड़े विरोधी तथाकथित रामभक्त ही हैं-
बंचक भगत कहाइ राम के l
किंकर कंचन कोह काम के ll 31
अपने को रामभक्त कहने वाले ये ठग वास्तव में संपत्ति, हिंसा और काम-वासना के दास हैं. तुलसीदास इसीलिए कहते हैं रामराज्य में सबसे बड़ी बाधा यह देवसत्ता ही है-
राम राज बाधक बिबुध, कहब सगुन सति भाउ l
देखि देवकृत दोष दुख, कीजै उचित उपाउ ll 32
ऐसी जनद्रोही सत्ता से कैसे निपटा जाए? तुलसीदास भरोसा देते हैं कि यह सत्ता अडिग-अपराजेय नहीं है. इसका अंत कौरवों जैसा होगा-
“राज करत बिनु काज हीं, ठटहिं जे कूर कुठाट. तुलसी ते कुरुराज ज्यों, जइहैं बारह बाट..” (‘दोहावली’, दो.सं. 417).
दुर्दिन लाने वाली सत्ता अपने-आप नहीं जाएगी. इस सत्ता को ‘बारह बाट’ भेजने के लिए संगठित प्रयत्न करने होंगे. सत्ताधारी को नरक का रास्ता दिखाना होगा-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी l
सो नृप अवसि नरक अधिकारी ll33
भय, भ्रम, अ-रति और उचाट की राजनीति इन दिनों उफान पर है. किसानों के आंदोलन को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए पुरज़ोर कोशिशें की जा रही हैं. किसानों को क्षेत्र, भाषा, वर्ग और धर्म के आधार पर बाँटकर आंदोलन को कमज़ोर करने का अभियान चल रहा है. इसमें सरकार को सफलता नहीं मिल रही है. मूल वजह कबीर ने पहचानी थी- ‘गई ठगौरी ठग पहिचाना.’ ठग की शिनाख्त कर ली जाए तो ठगी का जाल सिमटने लगता है. तब आसन्न उजाड़ के सम्मुख खड़े किसान खलिहान न जाकर बरबादी के स्रोत की घेराबंदी करते हैं.
कॉर्पोरेट को असीमित भंडारण की छूट क्या किसानों और उपभोक्ताओं को राहत प्रदान करने के लिए है? कालाबाजारी को वैध बनाने से किसका भला होने जा रहा है? एपीएमसी एक्ट को निष्प्रभावी बना देने से किसान विशालकाय मगरमच्छों का ग्रास बनने से कैसे बच पाएंगे? मंडी व्यवस्था को सुधारने की बजाए समाप्त कर देने से क्या किसानों का सशक्तीकरण होगा? ठेके पर खेती आरंभ होने से क्या किसानी औपनिवेशिक दौर में नहीं पहुँच जाएगी? अन्नदाताओं को अनाज पैदा करने की बजाए लाभदायक कैश-क्रॉप (नगदी फसल जैसे तम्बाकू, नील, अफीम…) आदि उपजाने के लिए क्या मजबूर नहीं किया जाएगा? बहुराष्ट्रीय कंपनियां या कॉर्पोरेट प्लेयर्स दुर्भिक्ष के हालात पैदा करके कितना वसूलेंगे? दो शताब्दी पहले के संत-कवि पलटू साहिब ने चौगुने दाम पर बेचे जाने का अनुमान लगाया था-
सस्ते मँहै अनाज खरीद के राखते l
महँगी में डारैं बेचि चौगुना चाहते ll 34
संकट की विराटता, गहराई और भयावहता का अनुमान करके ही देश के किसान उद्वेलित हैं, संगठित हैं तथा संकल्पित हैं. किसानों की तबाही का असर जिन पर पड़ेगा वे तबके भी आंदोलन के हिस्सेदार हो रहे हैं. तबाही का प्रारूप तैयार करने, लागू करने वाले पाँचों शक्ति-केन्द्रों को अपने किए का हिसाब देना ही होगा. इसे न तो इतिहास भूलेगा, न भविष्य. यह परिघटना लोकचित्त में बनी रहने वाली है-
“खोटे वणजिए मनु तनु खोटा होय.”35
नए कृषि क़ानून खोटे= घटिया वाणिज्य को मजबूती देने के लिए लाए गए हैं. इसका असर पूरे सिस्टम पर पड़ेगा. यह मन और तन दोनों को विकृत करेगा. हिंसा में उछाल आएगा. हत्याओं-आत्महत्याओं का ग्राफ तेजी से बढ़ेगा. समाज के विभिन्न घटकों में पहले से चला आ रहा टकराव घातक शक्ल अख्तियार करेगा. दासता का वह विस्मृत दौर अधिक मजबूत होकर नए संस्करण में वापसी करेगा. आंदोलनकारी किसान इसे रोकना चाहते हैं. वे मोर्चे पर डटे हुए हैं.
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संदर्भ सूची
इस आलेख में कृषि कानूनों से संबंधित अधिकांश जानकारियां प्रख्यात अर्थशास्त्री जया मेहता के हिंदी में अनूदित एक लेख से ली गई हैं. लेख यहाँ उपलब्ध है- https://www.infoway24.com/an-analytical-review-of-three-agriculture-acts-by-the-modi-government-by-dr-jaya-mehta
बजरंग बिहारी तिवारी जन्म 1 मार्च 1972, पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव नियावां (जिला गोंडा) के पारंपरिक किसान परिवार में. वर्ष 2004 से दिल्ली से प्रकाशित हिंदी मासिक ‘कथादेश’ में दलित प्रश्न शीर्षक स्तंभ लेखन.,‘कथादेश’ दलित साहित्य विशेषांक (सितंबर, 2019) के अतिथि संपादक. ‘रचना प्रक्रिया और विचारधारा’ पर केंद्रित ‘नया पथ’ पत्रिका (जनवरी-जून, 2019) का अतिथि संपादन. पुस्तकें- संपादित पुस्तकें- दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत देशबंधु महाविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर. |
चेतना के आरोहण की अवधारणा है। आरोहण में किसी को छोड़ा नहीं जाता, अपितु वह उसे लिए आगे बढ़ती है, जिससे आगे जाती है। अन्न से आंनद की यात्रा में व्याप्ति है, एकांगी कूद नहीं। जीवन के क्षेत्र में घटित हो रहे को जीना, टकराना आत्मा का आनंद है और उसे नकारना दु:खवाद है। भक्ति साहित्य केवल दु:खवाद नहीं है, उसकी मुख्य चेतना आनंद है। विद्वान आलोचक बजरंग तिवारी जी ने भक्ति साहित्य के उपेक्षित पक्ष को प्रकाशित किया है और खासकर, उन रचनाकारों को लेकर, जिनकी विशेष चर्चा नहीं होती है। अध्यवसाय साध्य इस आलेख के लिए तिवारी जी को बधाई।
हां, इस पक्ष को वर्तमान के संदर्भ में कैसे देखा जाए, इस पर मत भेद संभव है। किसी एक या दूसरे राजनैतिक दल को संदर्भित किया जाए या भारत सरकार और समकालिक समाज की आधारभूत अर्थ दृष्टि को संदर्भ में रखा जाए, यह विचारणीय है। न तो राजनीति और न साहित्य में इसको लेकर कोई विवेचना ( मुद्दों का पृथक् करण ) दिखती है।