किशन की चित्र-साधना अखिलेश |
‘पहला गुण और प्रधान लक्षण किशन खन्ना के चित्रों का यह है कि उन्हें दृश्य और परिकल्पना का फर्क मालूम है, कल्पना और कल्पनाशील के बीच का फ़र्क (देखे गये और अनुभव किये गये) और उसका कल्पनाशील फलन, जो अन्तप्रज्ञा से संचालित है. इसलिये वह अदृश्य को प्रकट करने के लिए देखे गये संसार के तत्व का इस्तेमाल करते हैं. चित्रों में आप देख सकते हैं निकलता हुआ प्रकाश, चमकता हुआ, अपने को दोहराता हुआ विषय.’
रिचर्ड बार्थलोमियो
(प्रसिद्ध कला समीक्षक के लेख कृष्ण खन्ना से-1962)
इस पाँच जुलाई को प्रसिद्ध चित्रकार कृष्ण खन्ना का जन्मदिन था. यह कोई सामान्य दिन नहीं बल्कि उनके सौ साल पूरा करने के बाद एक सौ एक वें साल में प्रवेश होने का दिन था. कृष्ण खन्ना के पहले चित्रकारों में सिर्फ भवेश सान्याल ही थे जिन्होंने सौ साल पूरे किये. संयोग से दोनों ही लाहौर के हैं और विभाजन के दौरान हिन्दुस्तान आये. दूसरा संयोग यह है कि कृष्ण खन्ना भवेश सान्याल के शिष्य रहे हैं. कृष्ण खन्ना की उपस्थिति कला जगत में एक ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति है जो न सिर्फ भारतीय चित्रकला के बारे में जानता-समझता है बल्कि जिनका पश्चिमी चित्रकला पर भी उतना ही अधिकार है.
जितनी प्रखरता से वह अपने देश की संस्कृति को समझते-जानते हैं उतना ही अधिकार उन्हें पश्चिमी सभ्यता संस्कृति पर है. तेरह साल की उमर में उन्हें रूडयार्ड किपलिंग छात्रवृत्ति मिलती है और वे पढ़ाई के लिए ब्रिटेन चले जाते हैं. छात्रवृत्ति के कारण उन्हें इम्पीरियल सर्विस कॉलेज में प्रवेश मिलता है. ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज से पढ़ाई पूरी कर वह मुल्तान लौटते हैं और परिवार मुल्तान से लाहौर आकर बस जाता है. यहीं पर वह बी.ए. करते हैं और उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय शुरू होता है जब शेख अहमद स्टूडियो में वे रेखांकन सीखने जाते हैं. आजादी के ठीक तीन दिन पहले उनका परिवार लाहौर से शिमला चला आता है.
सबसे पहले मेरा ध्यान कृष्ण खन्ना के चित्रों की तरफ रूपंकर संग्रह में उनकी एक कलाकृति ट्रकवाला श्रृंखला के एक चित्र पर गया. घूसर रंगों में बने इस चित्र में एक ट्रक में पीछे बैठे कुछ मजदूर हैं जो वापस जा रहे हैं. शाम का धुँधलका है और इन आकृतियों की बनावट में दिन भर की थकान, किया गया शोषण और गरीबी का स्पष्ट आरेखन हैं. कृष्ण की यह खासियत रही है कि वे इस तरह की अनेक श्रृंखला चित्रित करते रहे हैं. जिनमें सामान्य जनजीवन रूपायित होता रहा है. जिसकी तरफ हमारा ध्यान कम ही जाता है किन्तु कृष्ण उसे बीच में खींच लाते हैं. ढाबेवाला, ट्रकवाला, बैण्डवाला, संगीत पर, कर्नाटिक संगीत, भरतनाट्यम श्रृंखला और उनके अनेक चित्र ईसा मसीह पर भी हैं जिसमें Last Supper विशेष ध्यान खींचता है.
इन सब आकृतिमूलक चित्रों में उनका जोर इस बात पर सिर्फ विषय की तरह है. उनके चित्रों में अवकाश का विभाजन कुछ इस तरह होता है कि आकृतियाँ कब आकृति हैं और कब पृष्ठभूमि इसका निर्धारण ध्यान से देखने पर ही हो सकता है. चित्र की संरचना में ही विषय बिंधा हुआ है. कृष्ण खन्ना का चित्र संयोजन भी दिलचस्प है जिसमें सभी आकृतियाँ एक आकार की तरह एक-दूसरे में घुलती-मिलती दिखायी देती हैं. बैण्डवाला सीरीज में बैण्ड, बैण्डवाला और आसपास का माहौल सब एक-दूसरे को सहारा देते हुए आगे बढ़ते दिखते हैं. यथार्थवाद से दूर यह यथार्थ उस चित्र का यथार्थ बन जाता है, जिसे दर्शक अनुभव करने के लिये स्वतंत्र है. स्वामीनाथन इन चित्रों के बारे में लिखते हैं :
‘किशन (स्वामी कृष्ण को हमेशा किशन कहते रहे है) के चित्रों में विषय सार महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि रूपात्मक संयोजन है जो उनकी आकृतियों के परे चले जाता है और उनकी आकृतियों को अर्थवत्ता प्रदान करता है.’
कृष्ण खन्ना एक बेजोड़ कलाकार हैं जिन्होंने अपनी शुरूआत ग्रिनले बैंक की नौकरी से 1948 में मुम्बई से शुरू की. इसी वर्ष बॉम्बे आर्ट सोसायटी की गोल्डन जुबली प्रदर्शनी में कृष्ण खन्ना का एक चित्र प्रदर्शित होता है

‘महात्मा गाँधी की हत्या’ इस चित्र में महात्मा गाँधी की हत्या का समाचार लोग अख़बार में पढ़ रहे हैं. चित्र संरचना बेहद नाटकीय है जैसा वास्तव में होता नहीं है. चित्र में कई लोग, हिन्दू, मुस्लिम व अन्य अखबार लिए एक ही जगह खड़े होकर पढ़ रहे हैं. अखबार कुछ ज्यादा उजला है शेष चित्र में लोग-बाग गहरे रंग से चित्रित हैं. इस चित्र को बहुत प्रशंसा मिली, रूडोल्फ वान लेडन ने इस चित्र के बारे में विस्तार से लिखा कि कृष्ण खन्ना एक दिन देश के बड़े चित्रकार होंगे. रूडोल्फ जिन्हें रूडी के नाम से भी जाना जाता है. एक जर्मन कला समीक्षक थे, उन दिनों बाम्बे के कला जगत में काफी दखल रखते थे. उन्होंने चित्र के बारे में लिखा कि :
‘कैसे खन्ना, एक युवा, स्वशिक्षित चित्रकार, जो ग्रिनले बैंक में नौकरी करता है, ने कॅनाट प्लेस की एक घटना के व्यक्तिगत अनुभव, खोने और एकता के भाव को वैश्विक बना दिया.’
महात्मा गाँधी की हत्या की ख़बर में छुपी हिंसा का प्रकटन इस चित्र में नहीं है किन्तु इस हत्या से उपजा क्षोम, दुख, संवेदना और अकेलापन इस चित्र का मूल है. सभी लोग एक ही जगह साथ खड़े हैं और अपने अकेलेपन में स्तब्ध हैं. इस चित्र के कारण और रूडोल्फ वॉन लेडन के इस लेख के कारण भी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के सदस्यों का ध्यान कृष्ण खन्ना की तरफ गया, सूजा, हुसेन और रज़ा उनके अच्छे मित्र बन गये. 1947 में बने इस प्रोगेसिव आर्टिस्ट ग्रुप को रूडी का सपोर्ट हासिल था.
वहाँ से उनका तबादला मद्रास हो गया जहाँ उन्होंने अपने जीवन की पहली प्रदर्शनी 1955 में की. अपने चित्रों के बारे में कृष्ण खन्ना का कहना है :
‘कला को स्थानीय होना चाहिये. मैं स्थानीय शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ इसका अर्थ है कि कलाकार को अपने आस-पास का चित्रण करना चाहिये तो एक खास किस्म प्रभाव उसके चित्रों आ सकेगा. यही वो जगह है जब महान कला साधारण क्षण को लाँघकर अनन्त में घट रहे क्षण को पकड़ने का प्रयत्न करती है.’
अस्सी दशक के उत्तरार्ध में कृष्ण खन्ना की प्रदर्शनी बैण्डवाला देखी और मैं उनके रंग प्रयोग से हतप्रभ था. इसके पहले उनके जितने भी चित्र देखे थे उन सब में धूसर रंगों की बहुतायत थी. हल्के कत्थई, ग्रे, ब्लैक आदि. उनकी रंग पैलेट लगभग पश्चिमी थी. गीता कपूर ने 1979 में एक प्रदर्शनी संयोजित की थी Pictorial Space जिसमें उस वक़्त के अनेक समकालीन कलाकार शामिल थे. उसके कैटलॉग में उन्होंने लिखा :
‘विषयवस्तु में वो अमेरिकन यथार्थवादी चित्रकार जैक लेविन (Jack Levin) के समकक्ष थे. उनके चित्रों की तरह ही कृष्ण के चित्र के चरित्र आपस में एक-दूसरे से मुब्तिला दिखाई देते हैं ठीक नाटक में अभिनय कर रहे पात्रों की तरह.’
किन्तु कृष्ण के चित्र बनाने का तरीका, सलीके से लगाये जाने वाले रंग-प्रयोग में हैं. जबकि जैक लेविन के चित्रों में रंगों का बिखराव अधिक होने से केन्द्रिय बिन्दु पर नज़र टिका पाना असम्भव है. इस प्रदर्शनी में कृष्ण का रंग प्रयोग चौंकाने वाला था. उन्होंने किसी मास्टर की तरह चटख रंगों का प्रयोग किया. बैण्डवालों की पोशाक का लाल रंग उनके चमकदार बैण्ड के वाद्यों के रंग टकराते हुए एक अनोखी आभायुक्त समरसता में सराबोर थे. जिस तरह रंगों को लगाया गया था वह कृष्ण के पहले के चित्रों के सपाट, सरल रंग प्रयोग के विपरीत था. इस श्रृंखला के प्रभाव से खुद कृष्ण भी नहीं बच सके थे बाद में उन्होंने बैण्डवाला श्रृंखला को मूर्ति में भी ढाला और कुछ शिल्प बनाये.
कृष्ण खन्ना के चित्रों का संसार साफ और खुला हुआ रहा, उसमें संदिग्धता की कोई गुंजाइश नहीं रही. जो कुछ चित्रित है वह यथार्थ को छूता हुआ एक ऐसा सच है जो यथार्थवादी नहीं है, न ही अनुभववादी. उनके चित्रों का सच Pictorial Space है जो दर्शक को प्रभावित करती है. वे लियोनार्दो के पर्सपेक्टिव का उपयोग करते हैं किन्तु उसमें से लोप-बिन्दू (Vanishing point) बाहर कर देते हैं. उनके कई चित्र बाईबिल के मिथकों से प्रेरित हैं जिसमें से ‘लास्ट सपर’ एक प्रसिद्ध चित्र है.
‘लास्ट सपर’ कृष्ण के बचपन की स्मृति का एक अंश लिये हैं. जब उनके पिता के.सी. खन्ना 1930 में इंग्लैण्ड से पढ़ाई पूरी कर लौटे तो कृष्ण के लिए लियोनार्दो दा विंची के दो चित्र की ‘विची का सेल्फ पोर्टेट’ और ‘लास्ट सपर’ प्रतिकृति लेकर आये. पाँच साल के छोटे से कृष्ण के मन पर लास्ट सपर चित्र का गहरा असर हुआ.
लियोनार्दो के दो चित्र ‘लास्ट सपर’ और ‘मोनालिसा’ प्रसिद्ध चित्र हैं. सम्भवतः पहली बार ईसा के अंतिम भोज का चित्रण लियोनार्दो द्वारा ही किया गया. चूंकि लियोनार्दो प्रस्तावित कर चुके थे कि आँख एक लेंस है और हमें दूर की चीज छोटी पास की चीज बड़ी दिखायी देती है. अतः लास्ट सपर चित्र में कोई भी शिष्य मेज के इस तरफ नहीं चित्रित किया गया अन्यथा उनके पीठ बड़ी चित्रित होती और उसके पीछे मेज के दूसरी तरफ बैठे ईसा मसीह और अन्य शिष्य छिप जाते.

विंची के इस चित्र का प्रभाव चित्रकला जगत में गहरा था, अनेक चित्रकारों ने इसे बनाया. सभी ने लियोनार्दो की तरह ही चित्रित किया, ईसा मसीह अपने शिष्यों के साथ मेज के एक तरफ बैठे हैं. यह किसी को भी विचित्र इसलिये नहीं लगा कि यह एक धार्मिक मिथक का चित्रण है अतः प्रश्नांकित नहीं किया गया. सभी तेरह लोग मेज के एक तरफ ऐसे बैठे हैं मानो खाना खाने नहीं फोटो खिंचवाने बैठे हों.
कृष्ण पर भी इस मिथक के प्रति आकर्षण रहा और उन्होंने लास्ट सपर चित्रित किया. किन्तु उनके चित्र में ईसा मसीह अपने शिष्यों के साथ मेज के चारों तरफ बैठे हैं. उन्होंने दृश्य को सामने से चित्रित न करते हुए थोड़ा ऊपर से देखना चित्रित किया. इस चित्र में ईसा अपने शिष्यों के साथ बैठे उन्हें बता रहे हैं कि आज कौन मुझे धोखा देने वाला है.

कृष्ण के इस चित्र की बात इसलिये मैं प्रस्तावित कर रहा हूँ कृष्ण के चित्र की मेज पर खाना नहीं रखा है. बाकी सभी चित्रित लास्ट सपर चित्रों में, जितने भी मैंने देखे हैं, सभी में मेज पर खाने की वस्तुएँ चित्रित हैं. कृष्ण के चित्र में बातचीत चल रही है और हम सब जानते हैं कि इस रात के अंतिम भोज में ईसा मसीह ने धोखा देने वाले को जानने का दावा किया था और बाकी शिष्यों को यह भी बतलाया कि सुबह मुर्गे की बाँग देने तक तुम लोग भी मुझे पहचानने से इनकार करोगे. जैसा गीता कपूर ने कहा ही है कि कृष्ण के चित्रों के चरित्र नाटक में अभिनय की तरह आपस में बतियाते दिखते हैं. कोई कह रहा है बाकी सुन रहे हैं. वाचिक परम्परा के देश से सम्बन्ध रखने वाला कृष्ण के ‘लास्ट सपर’ में मेज़ पर भोजन नहीं बातें परसी जा रही हैं.
ग्रिंनले बैंक की नौकरी छोड़कर पूरी तरह चित्र बनाने को तत्पर कृष्ण अब स्व-शिक्षित-स्वतन्त्र चित्रकार थे. 1961 में उन्होंने नौकरी छोड़ी 1962 में उन्हें रॉकफेलर फैलोशिप मिली और वे अमेरिका चले आये. यह वह समय था जब मार्क रॉथको, जैक्सन पोलॉक के अमूर्त चित्रों ने धूम मचा रखी थी. कृष्ण पर भी इसका प्रभाव पड़ा और उन्होंने अमूर्त चित्रण शुरू किया. भले ही यह समय लम्बा न चला किन्तु उनका समर्पण सहित चित्रण का एक उज्ज्वल उदाहरण कोलकाता के Indian Museum प्रसिद्ध संग्रहालय में देखा जा सकता है जो कुछ-कुछ मार्क टॉबी की याद दिलाता है. कुछ अम्बादास की भी.
इन बहुत सारे प्रभाव को ग्रहण करते हुए अपने रूपाकार पाने के लिये संघर्ष करते कृष्ण खन्ना को मोर्या शेरेटन हॉटल में किये म्यूरल ‘द ग्रेट प्रोसेशन’ ने एक दिशा दी जो भारतीय चित्रकला के प्रामाणिक उदाहरण अजन्ता के चित्रों की रंग योजना से प्रेरित है बौद्ध धर्म से दीक्षित मौर्य सम्राट अशोक ने युद्ध का त्याग कर शांति का सन्देश फैलाया, अशोक के परिवर्तन से प्रेरणा लेकर इस विषयवस्तु के ईर्दगिर्द यह म्यूरल चित्रित है. कृष्ण की सोच-समझ और जिसे स्वामीनाथन अर्थवत्ता कह रहे हैं वह इन चित्रों की आकृतियों में दिखाई देती है.
कृष्ण खन्ना ने इसके बाद कभी मुड़कर नहीं देखा. अनेक विषय-वस्तु उनके चित्र-श्रृंखला के केन्द्र बने और अनवरत चित्र बने.
सौ साल यानी एक पूरी सदी कृष्ण खन्ना ने देखी, भुगती, चित्रित की. उनकी विनोदप्रियता, प्रखर बौद्धिकता, नियमित जीवन शैली ने इन सौ सालों में समकालीन कला-जगत में उनका प्रभाव बढ़ाया. वे अपने प्रभामण्डल से किसी को भी प्रभावित कर सकते हैं, उनकी बौद्धिकता से कोई बच नहीं सकता और उनकी विनोदप्रियता एक लम्बा सक्रिय, रचनात्मक जीवन जीने में मदद करती रही है.
वे आज भी नियमित रूप से अपने स्टूडियो में रोज़ काम करते हैं.
इंदौर के ललित कला संस्थान से उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे. भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित. देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं. कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं.
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बहुत सुंदर, सार्थक, कला मर्म से भरा आलेख है यह।
बहुत सुन्दर आलेख अखलेश जी🌻
आपकी लेखन शैली से तो मै पहले ही प्रभावित हुँ। प्रस्तुत लेख मे कृष्ण खन्ना के जीवन व कला कर्म पर आपने बहुत सुक्ष्म
और गहन दृष्टि ड़ालते हुऐ हम पाठको के लिए भारतीय कला जगत के महान कलाकार ( कृष्ण खन्ना ) के चित्रों को विश्लेषित किया हैं। जो बहुत प्रेरणादायक हैं। भारतीय कला जगत के शतायु प्राप्त दिग्गज कलाकार श्री कृष्ण खन्ना निरंतर सृजनरत रहे। उनकी कूँची अनवरत नवीन मुहावरे गढ़ती रहे। उनके दीर्घ व स्वाथ जीवन कि कामना करते हुऐ अखलेश जी को पुनः साधुवाद।
कृष्णा महावर, जयपुर
जाग्रत आलेख. अनुपम आलोक !
अखिलेश जी के साथ मात्र खड़े होना भी बेहद अनूठा अनुभव है।
फिर उन्हें पढ़ना – वाह- बेहद अनूठा – बेहद रोचक – समालोचन में छपे इस चित्र को ही लें – लगता ही नहीं आप कोई आलेख पढ़ रहे हैं या किसी व्यक्तित्व चित्रण हो रहा है – आप अनुभव को अपने सामने घटित होना और होता देखते चले जाते हैं – पता नहीं चलता आप उसे अपने अंतर में उतार लेते हैं।
इसे छापने के लिए समालोचन को धन्यवाद नहीं बनता – सम्मोहन उतरा होगा और छाप ही दिया होगा। बचते कैसे?
पुनश्च – “न्यूज़ ऑफ गांधीजीज डैथ” के अखबारों का खालीपन और “द लास्ट सपर” की मेज का भरापन अन्यथा भी मन तक उतरता ही है।
कृष्ण खन्ना जी के रचनाकर्म के बारे में सटीक विश्लेषणात्मक सुचिंतित लेख। अखिलेश जी को साधुवाद।
अच्छा लेख। अखिलेशजी अच्छा लिखते ही हैं। प्रभाव और रंगों के अपने विवेक की कितनी सुंदर व्याख्या की है। हाँ, खन्ना साहब अपना नाम कृशन लिखते हैं तो वही स्वीकार करना चाहिए। नाम अपनी वर्तनी में कभी शुद्ध-अशुद्ध नहीं होते। परशाद को प्रसाद क्यों करें? कृशन चंदर को कृष्ण चंद्र लिख दें तो पहचान में दुविधा खड़ी होगी। न जाने क्यों रेख़्ता वाले भी इस शुद्धीकरण में जाने लगे, जबकि उर्दू में ष और ण होते ही नहीं।
शतायु पार कर चुके वरिष्ठ को कुछ और जानने में मदद करता आलेख है। वैसे, अखिलेश जी को और ज्यादा लिखना था, चित्रकला को क़रीब से देख पाने के लिए ऐसे आलेख मददगार हैं। हार्दिक बधाई🌹
किशन खन्ना की कला पर अखिलेश का यह लेख एक आत्मीय साक्षात्कार है।
एक चित्रकार द्वारा दूसरे चित्रकार को समझना- यह लेख उसी दुर्लभ संतुलन का उदाहरण है, जहाँ न तो मोह अंधा करता है, न आलोचना निष्ठुर होती है।
अखिलेश खन्ना की कला में न केवल रंग देखते हैं, बल्कि वे उस गूंज को पकड़ते हैं जो बैंडवालों, ट्रकवालों और मजदूरों की देह से उठती है। उनकी पंक्तियाँ किसी कैनवस पर पड़ी रेखाओं की तरह लगती हैं—संक्षिप्त, सटीक और भीतर तक उतरती हुईं।
एक जिज्ञासा बस यही रह जाती है—क्या खन्ना की यह शैलीगत अस्थिरता एक बेचैन खोज थी, या एक ऐसा रचनात्मक रवैया जो स्थायित्व को ही संदेह की दृष्टि से देखता है?
यह लेख पढ़ना, केवल खन्ना को जानना नहीं—बल्कि अपनी समयगत संवेदनाओं से दो-चार होना है।
कृष्ण खन्ना के काम सुन्दर, अन्तर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण।