‘ज़िंदगीनामा’के बहाने याद कृष्णा सोबती(पंजाब के सूफी व लोक संगीत का वैभव) अनुराधा सिंह |
बक़ा बलूच
कृष्णा सोबती चली गयीं लेकिन कुछ यूँ गयीं जैसे पूरी की पूरी यहीं हों, हमारे बीच. वे सचमुच इस फ़ानी दुनिया का एक जावेदाँ (अमिट) नाम हैं. पिछले साल उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर ज़्यादा उल्लास इस बात का हुआ था कि सम्मान एक ऐसी महिला को मिला जिसने अपने लेखन की ज़मीन पर किसी दूसरे आसमां की सरमायेदारी कभी नहीं चाही, वे लेखक के तौर पर एक बसे हुए नगर की तरह, जंगल की तरह, जीवन की तरह विस्तृत और मौलिक थीं. उनकी हर रचना एक मुकम्मल दुनिया है. जिंदा धड़कती हुई दुनिया. जिंदा चरित्र, जिंदा पृष्ठभूमि. उन्हीं की सामर्थ्य थी कि अपनी हर कृति में वे एक समूचे गांव को एक साथ समेट लेती थीं. एक भी पात्र धुंधला या फोकस के बाहर नहीं होता, सब मंच पर सामने खड़े होकर अपनी भूमिका निबाहते थे, फिर भी कहीं दुहराव या बिखराव नहीं. उनकी कहानियों में उनके भाषाई प्रयोग, विशेष तौर पर पद्य का समावेश उन्हें बहुत सजीव बना देता था.
ज़िंदगीनामा ऐसी कालजयी कृति है जिसके कथानक के बिरवे के लिए पंजाब के गाँवों की आंचलिकता से छलकते सूफी और लोक गीत उपजाऊ ज़मीन का काम करते हैं. इन गीतों में पंजाब के साहित्य और संस्कृति की सौंधी खुशबू ही नहीं जट्ट बाँकुरा इतिहास और रूमान भी है. इन्हीं गीतों के जरिये कृष्णा सोबती अपनी पंजाबियत के सूफी वैभव से हिंदी साहित्य को समृद्ध बना गयीं हैं. उपन्यास में शामिल देशज गीत और कवित्त पंजाब के मतवाले इश्किया और बलिष्ठ पौरुष से भरपूर तेवर रचने में महती भूमिका निबाहते दीखते हैं. उपन्यास के पूर्वार्ध में ही जहाँ शाह शाहनी के घर पर त्रिंजन (तीज) मनाई जा रही है गाँव की लड़कियाँ चरखा कातने आती हैं और वारिसशाह की हीर ‘उठाकर’ हवेली गुँजा डालती हैं.
‘डोली चढ़दया मारियाँ हीर चीकाँ
मैनू लै चल बाबला लै चलो वे’
और चाची महरी कहती है, “रब्ब रखवाला न हो आशिकों का तो मुहब्बतें तोड़ नहीं चढ़तीं. चनाब पार करने वाले घड़े ही गल जाते हैं.” गाने में पारंगत गाँव की बेटियाँ बाबो और फातमा सुहाग और भाई के ब्याह की रसूलवाली घोड़ी भी उसी दैदीप्य से गाती है कि दसों दिशाएं गूँज उठें.पंजाब की धरती के सब मिथक रस्मो रिवाज़ जाग उठते हैं इन सुरीले बोलों में –
‘मेरे वीर का सहरा आया
कोई माली गूंथ ले आया
उत्ते छत्र नबी का सोहवे
सालयात या अली .”
गाँव के अलिये की बेटी फ़तेह, रावी पार के धाड़ीवालियों के शेर अली के इश्क में गोते खा बैठी, मौके पर शेरा ने ‘हीर’ उठाई-
“चढ़िये डोली प्रेम की दिल धड़के मेरा
हाजी मक्के हज्ज करन मैं मुख देखूं तेरा .”
और तमाम इंतजाम सरंजाम के बाद जब फ़तेह की बारात आयी तो सखियों ने ठेठ हिन्दुस्तानी रिवाज़ के तहत सिठनी (गालियाँ) उठाईं-
“चाचा न पढ़या तेरा दादा न पढ़या
पुत्तर हराम का मसीती न चढ़ाया
यह बात बनती नहीं!”
शादी ब्याह में वर पक्ष को सुना कर गालियाँ गाने का चलन बुंदेलखंड से पूर्वांचल तक प्रचलित है. जब यह समूची भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग ठहरा तो पंजाब ही क्यों पीछे रहे.
पंजाब में उत्तर भारत के टेसू झेंझी जैसा एक चलन है. तीज पर जिन घरों में शादी ब्याह हुआ हो, नई नवेली आई हों, संतानें पैदा हुई हों बच्चे उनके दर पर जाकर धेला, पैसा, दमड़ी माँगते हुए गाते हैं :
“भरी मिले भई भरी मिले
लाड़लों की भरी मिले.”
रंग तो कितने हैं कृष्णा सोबती की भाषा के इन्द्रधनुष में और इन गीतों कवित्तों ने तो कदम कदम पर उन्हें इतना चटख कर दिया है की पाठक के आनंद कोष में समा ही न सकें. अनगिनत हीरें, कवित्त, गीत, बोलियाँ, घोड़ियाँ और सिठनियाँ फैली हैं पूरे उपन्यास में. अर्थ ठीक ठीक पूरा समझ में न आते हुए भी भावार्थ हो जाता है. और बात सीधे कलेजे में लगती है. ये कवित्त देखने में छोटे होते हुए भी गंभीर घाव करते हैं.खेतों में नहाती ठिठोली करती युवतियों को देख गबरू जट्ट सिकंदर ने ऊँची आवाज़ में ‘हीर’ के सुर उठा लिए:
‘तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनया
अज हार श्रृंगार सब भाँवदा री
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.”
इन चार पंक्तियों में छेड़छाड़, मनुहार, प्रणय निवेदन सब कुछ है. इन्हें सुनकर हँसती-हँसाती एक दूसरे पर छींटे मारती लडकियाँ पोखर से भाग खड़ी हुईं.
बरसों बाद शाहनी की ऊसर कोख हरी हुई है, पीर फकीरों से माथा टेक कर, दरिया में स्नान कर लौटती है तो अकस्मात बुल्लेशाह का बारहमासा गा उठती है –
“फागुन फूले खेत ज्यों बन तन फूल श्रृंगार
होर डाली फुल पत्तियाँ गल फुल्लां के हार
मैं सुन-सुन झुर-झुर मर रही
कब आवे घर यार.”
इन कवित्तों में भारतीय जीवन दर्शन भी है, साखियाँ भी,जीवन के शाश्वत नियम भी –
“गए वक़्त ते उम्र फिर नहीं मुड़दे
गए करम ते भाग न आँवदेने
गई लहर समुद्रों तीर छुटा
गए मौज मज़े न आँवदेने
गई गल ज़बान थी नहीं मुड़दी
गए रूह कलबूत न आँवदेने”
( न वक्त वापस लौटता है न उम्र, न कर्म, न भाग्य, न बढ़ी हुई लहर, न धनुष से छूटा हुआ तीर, न जा चुके मौज मजे, न जुबां से निकली बात, न देह से निकली आत्मा.)
मौलवी भी बच्चों को कवित्त में ही पाठ पढ़ाते हैं –
“पक्षियों में सैयद: कबूतर
पेड़ों में सरदार:सीरस
पहला हल जोतना: न सोमवार न शनिवार
गाय भैंस बेचनी: न शनीचर न इतवार
दूध की पहली पांच धारें: धरती को
नूरपुर शहान का मेला: बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को”
तो बच्चे भी तुकबंदी में ही शरारतें करते हैं:
“लायक से बढ़िया फ़ायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज्ज़न
मूत्र से बड़ा हग्गन”
सार यह है कि कृष्णा सोबती की इस अमर कृति में गुंथे हुए ये सूफी और लोक गीत उसका दुर्बल पक्ष भी हैं और सबल भी. सबल इसलिए क्योंकि इनका प्रयोग न केवल उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर खड़ा करता है, बल्कि पाठक को पात्रों की भावनाओं और पंजाब की मस्तमौला संस्कृति से भी परिचित करवाता है. दुर्बल पक्ष यह कि ये इतनी क्लिष्ट, ठेठ पंजाबी और डोगरी भाषा में कहे गए हैं कि गैर-पंजाबी पाठक के लिए इनका अर्थ समझना दुष्कर है. लेखक और प्रकाशक ने कहीं भी इन दुरूह कवित्तों और बोलियों का अर्थ या सन्दर्भ सूत्र देने की आवश्यकता नहीं समझी है. इस तरह पाठक को उसके अनुमान और विवेक के भरोसे छोड़ दिया गया है.
स्त्री लेखन को यदि विमर्श की चौहद्दी में बाँधने का आग्रह न किया जाये तो आज स्त्री लेखन के एक युग का अंत हुआ है. वे स्त्री थीं तो सृजन उनके शब्द-शब्द में खिलता-फूटता, सरसब्ज़ होता था. भाषा को समय के गर्भ से नयी देह में जन्म लेने के लिए बार-बार कृष्णा सोबती जैसे सृजनहार की दरकार रहेगी.
अनुराधा सिंह |