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Home » कुमार अम्बुज : सन्तोष अर्श

कुमार अम्बुज : सन्तोष अर्श

कुमार अम्बुज की कविताओं पर विचार करते हुए विष्णु खरे ने एक जगह लिखा है कि ‘उनके पास डीएसएलआर कैमरे से व्यक्तियों, वस्तुओं, दृश्यों के कई तकनीकों और कोणों से लिए गए निकट-दूरस्थ अल्बमी चित्र हैं.’ इधर ऐसा लगता है उस कैमरे के लेंस का मेगापिक्सेल और बढ़ गया है तथा समकालीन संकट की भयावहता को उसकी सम्पूर्णता में देखने के लिए उन्होंने एक ड्रोन कैमरा भी ले लिया है. कहना न होगा कि कुमार अम्बुज के प्रकाशित छह कविता संग्रहों में हमारे समय की विश्वसनीय तस्वीरें हैं और संकट का गहरा बोध भी. उनकी कविताओं पर युवा आलोचक संतोष अर्श का यह आलेख प्रस्तुत है. संलग्नता से लिखा गया है.

by arun dev
November 2, 2024
in आलेख
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कुमार अम्बुज : सन्तोष अर्श
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दृश्यों के पार्श्व से
कुमार अम्बुज की कविताएँ

सन्तोष अर्श

जीवन के यथार्थ की जटिलताएँ दूर तक बिखरी हुयी होती हैं. छितरायी-सी. जहाँ तक सत्याग्रही कवि की निगाह जाती है, वह इनसे दो-चार होता है. मनुष्यों, वस्तुओं, गलियों, सड़कों, दीवारों, छायाओं, रंगों और बे रंगीनियों से बने हुए अनगिनत दृश्य. कविता इन्हें भाषा और विचार से बने परदे पर कला के साथ प्रोजेक्ट करती है. काव्यात्मक छवियों की सिलसिलेवार ज़रदोज़ी. सोने की कढ़ाई. कवि अपनी अभिव्यक्ति की तलाश में जीवन के रस्ते में पड़े भ्रामक स्थूलता के पत्थरों को उलट-उलट कर देखता है. कविता के इस चाव में उसे यह ख़याल रहता है कि कोई भी पत्थर छूटने न पाये. इन पत्थरों को उलटने पर ही सूक्ष्मातिसूक्ष्म (ताएँ) प्राप्त होता है. कविता यहीं से पिघले हुए द्रव्य में बदलने लगती है. यहीं जीवाश्म मिलते हैं, जिनसे सभ्यताओं की निशानदेही होती है. सतह से शुरू हुआ उत्खनन का यह प्रक्रम गहरे उतरने लगता है. जैसा कॉडवेल (क्रिस्टोफर) ने कैसी वैज्ञानिक सिद्धि के साथ कहा है कि,

‘कविता बाह्य यथार्थ के एक टुकड़े को पकड़ती है, उसे लगावपूर्ण तरन्नुम से रंगती है और उसमें एक नये भावनात्मक नज़रिये को जन्म देती है जो स्थायी नहीं होता है, अपितु कविता ख़त्म होने पर समाप्त हो जाता है. कविता अपने सार में एक अल्पकालिक और प्रयोगात्मक भ्रम है, फिर भी मानस पर इसका प्रभाव चिरकालिक है.’ (विभ्रम और यथार्थ, कॉडवेल)

यथार्थ रूप में पैबस्त हो कर भी जुदा होता है. रूप यथार्थ को और अधिक ग्राह्य बनाने के लिए कलात्मक रीति से परिवर्तित होता रहता है. इस तरह कविता का यथार्थ अमूर्त होता जाता है.

यथार्थ होना अथवा रूप की छाया में यथार्थ का होना दो अलग बातें हैं. सामयिक यथार्थ काव्य-कला को प्रभावित करता है. थोड़े से आलोचनात्मक संकोच के साथ यह भी कहा जा सकता है कि ये काव्य का अवनयन करता है. साहित्य में समकालीनता या सामयिकता जो कि एक प्रकार की तात्कालिकता ही होती है इसे अख़बारी (जर्नलिस्टिक) बना देती है और इसके आग्रह से आलोचना भी दोयम दर्जे की हो जाती है. बेचैन समकालीनता आलोचना को सतही बनाकर उसे प्रभावहीन कर देती है, क्योंकि सांस्कृतिक सम्पूर्णता से दूर यह फ़िलवक्त रचे गये साहित्य पर आश्रित होती है. बहरहाल बौद्रिला की हाइपररिआलिटी के मैट्रिक्स में यथार्थ है क्या? जेम्सन (फ़्रेडरिक) का तर्क है कि ‘सबसे पहले यथार्थवाद विरासत में मिली कहानियों के अतीत-वर्तमान-भविष्य के कालक्रम और चेतना के शाश्वत वर्तमान के बीच तनाव का परिणाम है.’ अतियथार्थ में लिप्त उत्तर-आधुनिक भावक यथार्थ से बचना चाहता है. उसके लिए सोवियत विघटन यथार्थ नहीं था, पूर्वी ग़रीबी और पश्चिमी भोग की लालसा यथार्थ नहीं थी, प्रोपेगेंडा यथार्थ नहीं था. तो अब यथार्थ क्या है? अमेरिकी संस्कृति यथार्थ है? पोर्न, फ़ैशन, फ़ास्ट फ़ूड यथार्थ है? आभासी आनन्द यथार्थ है? पुलवामा यथार्थ है कि जनरल बिपिन रावत की दुर्घटना में मृत्यु? हाथरस यथार्थ है कि आशाराम और राम-रहीम? एलन मस्क या मार्क ज़ुकरबर्ग? वर्तमान हिन्दी की कविता के गलियारे में झाँक कर देखें तो बद्रीनारायण यथार्थ हैं कि अष्टभुजा शुक्ल?

कुमार अम्बुज की कविताएँ जनजीवन, बल्कि जीवन जीने की प्रविधियों, प्रयोग में लायी जा रही चीज़ों की छायाओं और उनमें व्याप्त भावाकुलताओं का चित्रात्मक बाना धारण करते हुए आती हैं. उनका पर्यवेक्षक (वाचक) जिये जा रहे जीवन में स्थिरता के साथ पंजों के बल प्रवेश करता है. तर्क और विवेक के साथ निर्लिप्त भाव से विचरण करता वह दृश्यों का अवलोकन और उनकी मीमांसा करता है. बिल्लियाँ जैसे घरों में उतरती हैं या कि मनुष्य के आस-पास रहने वाले पक्षियों की भाँति, जो उसके बिखेरे हुए दानों तलक धीरे-धीरे आते हैं. रात्रि के पहरेदार की तरह सोती हुयी बस्तियों में सीटी देता, लाठी पटकता हुआ. इस काव्य-गुण को हम उनकी कविताई के प्रारंभिक दौर में ही देखते हैं. वे बड़े आख्यानों से बचते हुए, अथवा अपने जाग्रत विवेक से उन्हें नज़रन्दाज़ करते हुए, कविता की प्रचलित निर्णायकता से स्वयं को अलगा कर और लघुताओं में छिपी सुन्दरताओं के साथ कविता में आते हैं:

सिर्फ़ इच्छाएँ कभी प्रेम नहीं होतीं
(उन शब्दों की तरह, किवाड़)

यहाँ वह सन्धि द्वार है जहाँ से कविता की विकट प्रकृति का दृश्यलोक प्रारम्भ होता है. मैदान से पर्वतीय क्षेत्रों की यात्राओं-सा. धीरे-धीरे पहाड़ियाँ, घाटियाँ खुलती हैं. सामने ऊँचे शिखर दृश्यमान हैं. उच्चावच्च से सामना होता है. पदार्थ को समझने की पीड़ा उत्पन्न होती है. इसी पीड़ा से रिसता है ज्ञान और दर्शन. यहीं भौतिक प्रकृति को अमूर्त कर देने के कलात्मक प्रयत्न हैं. तत्त्व को अपनी दृष्टि से देखने का लोभ भी यहीं है :

नदी एक आँसू है
पृथ्वी के गाल पर बहता हुआ
(नींद और नींद से बाहर, वही)

समय और स्थान, रंग और गन्ध और वस्तुओं की उपस्थिति की जगह से स्मृति में परिवर्तित होते हैं. यह कविता का आरम्भ है जब रूप घटकर बिम्बों में गलने लगता है. इस आलम्बन पर कुमार अम्बुज का कवि अपने सफ़र की शुरुआत में ही बेसरोसामान नज़र नहीं आता. उनके उपस्थित होने की जगहें (जन) जीवन की क्षुद्रताओं का क्षेत्र है. यह प्रवृत्ति उन्हें जीवन में रत किसी चित्रकार की-सी कला-आकुलता उपलब्ध कराती है. उनकी पूरी कविताई में ऐसे ही साधारण लघु आख्यानों की लड़ियाँ हैं. जीवन की इस मनोरम लघुता को सर्वप्रथम आधुनिकता के आलोक में देखा गया था:

छतों पर स्वेटरों को धूप दिखाई जा रही थी
और हवा में
ताज़े घुले हुए चूने की गंध
झील में बत्तख़ की तरह तैर रही थी
यह एक खजूर की कूँची थी जिसके हाथों
मारी जा चुकी थी बरसात की भूरी काई
और पुते हुए झक- साफ़ मकान के बीच
एक बेपुता मकान
अपने उदास होने की सरकारी सूचना के साथ
सिर झुकाए खड़ा था
(अक्तूबर का उतार, वही)

दृश्यात्मक विवरणों के साथ मानवीय भाव आते हैं. बेपुता उदास मकान अपनी लाक्षणिकता में अर्थ की मधुर चोट ध्वनित करता है और कि बस कविता के इस राग सूत्र को थाम कर आगे बढ़ा जा सकता है. निर्जीव वस्तुओं की तरतीबवारी भित्तिचित्रों की-सी शृंखला बन जाती है. लौटती बारात के प्रसंग में वस्तुओं का विवरण भी साधारण जन की प्रतिष्ठा है :

पीतल काँसे के बर्तन
निवाड़ का पलंग
बछड़े वाली गाय
और टीन की एक संदूक का दहेज लेकर
लौट रही है बारात
(बारात, वही)

प्रथम संग्रह ‘किवाड़’ से ही कुमार अम्बुज ने संकेत दे दिया था कि वे किस तरह के कवि होने जा रहे थे. कविता का उनका लाघव व्यंजनात्मक से अधिक चित्रात्मक था. चित्र केवल एक चित्र होता है. जिसका प्रतिबिम्ब दर्शक अपनी प्रज्ञा के अनुरूप ग्रहण करता है. चित्रकला में इसका अवकाश नहीं कि वह चित्र के आनुषंगिक जीवन्त सौन्दर्य को उपस्थिति दे सके. कविता में इसे उपस्थित किया जा सकता है. और बिना इसके कला एक धोखा होती है. जैसा फ़िल्मकार तारकोव्स्की का मानना है कि

‘निश्चित रूप से एक चित्र में वह सब कुछ हो सकता है जो प्रकट है- रेखाएँ, शैली, यहाँ तक कि अनुपात का संकेत भी. किन्तु उसके चारों ओर जो वायु घूमती है, उस दिन, उस घण्टे की रोशनी, उसे देखने और उसके निकट से गुज़रने वालों की आँखें, कभी-कभी तो उन्हें मालूम भी नहीं होता कि वे कहाँ हैं? और इसके स्थान पर ये वे हैं जो उस स्मारक को उसका वास्तविक अर्थ, उसके आयाम, उसका कलात्मक रहस्य देते हैं. चित्रात्मक पुनरुत्पादन, अनुवाद. कला इसके भीतर जाने का प्रबन्ध नहीं कर सकती है, यह वहाँ क़ैद है, और बन्दी कला, हाँ, निश्चित रूप से, सदैव एक प्रवंचित कला है.’

कुमार अम्बुज की काव्य-कला में ऐसी प्रवंचना नहीं है. तभी वे अपने शुरुआती संग्रह में ‘बिजली का खम्भा’ जैसी कविताएँ लिख पाये हैं :

इसी के नीचे बैठकर बुआ ने बीने दाल-चावल
पिता ने पास किया हाईस्कूल
इसने बचाया कई लोगों को गिरने से
एक बूढ़े शराबी को दिया आठ वर्ष तक सहारा
बँधी रही इससे कई महीनों तक
रशीद मियाँ की बकरी
(बिजली का खंभा, वही)

ऐसी ही कविताओं की बुनियाद पर विष्णु खरे ने कहा होगा कि वे ‘अप्रत्याशित जगहों से’ कविता ढूँढ लाने में समर्थ कवि हैं.

‘क्रूरता’ संग्रह से कुमार अम्बुज की राह में कुछ फैलाव है. यद्यपि यहाँ वे यथार्थ का अधिक शिकार होने लगते हैं. परन्तु रूप और यथार्थ की इस जुगलबन्दी को पहचान सकने के लिए रूप के पलड़े के झुकाव पर दृष्टि डालनी होगी. तब कुमार अम्बुज की कविताओं को ‘विडम्बना के नये आख्यान’ अथवा ‘विचारधारा का सर्जनात्मक उपयोग’ जैसे सतही पदबंधों से अभिहित करने में लाज आएगी. अलबत्ता यथार्थ के इस उजाले में नागरिक अन्धकार है. कविता में नागरिक चिन्तन समय की राजनीति और सत्ता की क्रूरताओं के मद्देनज़र है. नागरिक की पराजय हो चुकी है:

अब मैं छोटी सी समस्या को भी
एक डरे हुए नागरिक की तरह देखता हूँ
(नागरिक पराभव, क्रूरता)

मुझे जीवित रखा गया सिर्फ इसलिए
कि बना रहा मैं आज्ञाकारी नागरिक
(उसी रास्ते पर, वही)

कई स्थानों पर कला और यथार्थ का द्वंद्व दिखता है. लेकिन जहाँ वे मैत्री दिखाते हैं यानी यथार्थ कला के साथ आता है वहाँ कविता निथरकर वैसी स्थिरता प्राप्त कर लेती है, जिसके लिए वह है. इसके लिए अम्बुज कल्पना के उस निर्जन में जाते हैं, जहाँ वस्तु (Content) का भंडार है. यहीं जीवन का सौंदर्य और उसकी विरूपताएँ हैं. प्रायः वे परित्यक्त स्थानों पर होते हैं और कविता के लिए वजह ढूँढ़ते हैं. किन्तु यह प्रवृत्ति प्रयास की तरह नहीं दिखती, स्वाभाविक ढंग से घटती प्रक्रिया जैसी दिखती है. तभी इन कविताओं का यथार्थ, जीवन की तरह ही है. साधारण वस्तुओं, घटनाओं, भयातुर मनोदशाओं, ख़यालों, यन्त्रणाओं से निर्मित हुआ. कविता का पैरहन पहरता हुआ:

कई बार तो हम किसी को अपना मित्र बनाते हुए भी
उसे किसी दूसरे का शत्रु बना रहे होते हैं
(डर, वही)

एक दिन हत्या के दृश्य से बच निकलने से ज़्यादा आसान हो जाता है
हत्या में शामिल हो जाना
(एक दिन, वही)

यहीं सिद्धान्त और व्यवहार का, व्यष्टि और समष्टि का जाना-पहचाना संघर्ष है. यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद; जो सत्य का पता देता है, अकेला करता है, न समझे जाने की त्रासदी प्रस्तुत करता है, अस्तित्त्व का दुर्बोध उत्पन्न करता है, अवसाद देता है, अन्तर्व्यथाओं की थाली परोस कर लाता है:

फिर पत्नी कहती है इतना सिद्धांतवादी होना ठीक नहीं
बच्चे कहते हैं पापा ऐसा करने में कोई हर्ज़ नहीं सभी करते हैं
पड़ोसी कहते हैं, आपका व्यवहार आम आदमियों जैसा नहीं
टी.वी., रेडियो, अख़बार कहते हैं
चाहो तो बने रहो
समाज में कुछ पुराने विचारों के लोग भी बने रहते हैं
(अवांछित लोग, वही)

इधर का जीवन कुछ ऐसा हो गया है जैसे जीवन नहीं
यदि कोई धोखा न दे
कर ले थोड़ा-सा भी विश्वास
तो चकित रहता हूँ बहुत दिनों तक
(इधर का जीवन, वही)

यहीं दुखिया दास कबीर है. ग्राम्शी का पैसीमिज़्म है. तारकोव्स्की का ख़याल है कि निराशावाद अच्छे की चाह से उत्पन्न होता है, इसलिए वह आशा की ही परछाई है. अतः अवसाद में डूबते-उतराते कवि के पास उम्मीद आती है. वह भी रूप धारण करते हुए :

एक नीली पानीदार तरल उम्मीद
वही जो रेगिस्तान में भी जीवित रखती है जीवन
जिसके सहारे निर्जन में भी खिलता है सुंदर फूल
और अंतरिक्ष में जाता हुआ इंसान नहीं होता उदास
(उम्मीद, वही)

यह सब देखते हुए अम्बुज की कविताई के दो ध्रुव बनते हैं. एक यथार्थ का और दूसरा रूप का. यथार्थ के जटिल धागे को सुलझा कर कविता के पर्दे की तुरपाई करते हुए उसमें रूप का विचलन और संवेग या कहें कि ख़ूबसूरती भी है. चूँकि यथार्थ और रूप के सम्बन्ध पेचीदा हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि बाहरी दुनिया के यथार्थ को वे भीतरी कल्पना की मदद से प्रस्तुत करते हैं. इसमें भाषिक विचारधारात्मक प्रवाह के शक्तिशाली थपेड़े भी उनकी कविता के सहायक हैं. परन्तु ऐसा कम ही होता है कि रूप का बाँध यथार्थ के सैलाब को रोक ले. इसमें संशय नहीं कि यदि कवि यथार्थ और भाषिक विचारधारात्मक प्रवाह को नियंत्रित कर ले तो कला की उदात्त उच्चता को प्राप्त कर सकता है. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि कला अम्बुज में अल्प है, पर्याप्त है और इस शक्ल में है कि रूप और यथार्थ उनकी कविता में धूप-छाँव की भाँति एक-दूसरे के पूरक हैं. इसीलिए उनकी कविताओं में तारकोव्स्की की फ़िल्मों जैसे धीमे (स्लो) चित्र आते हैं. जैसे कि यह :

मैं जीवन के सुदूर किनारे पर टूटी डाल की तरह
पड़ा रहूँगा एक वृक्ष की छांह में
सूखे पत्ते गिर रहे होंगे
एक फिल्म के दृश्य की तरह
ढक जाऊँगा मैं टूटे पीले पत्तों से
इतने सारे पत्तों को हटाकर भला कहाँ जाऊँगा?
(अवसाद में एक दिन मैं, वही)

जीवन में प्रयुक्त वस्तुएँ उनकी कविताओं में कलात्मक रीति से चित्रित होती हैं. कहीं उन पर कोई दृष्टि पड़ रही है, कहीं रोशनी गिर रही है, कहीं धूल जमी हुयी है, कहीं वे परित्यक्त और उपेक्षित हैं और कहीं वे केवल हैं भर. वस्तुओं का ऐसा उपयोग अम्बुज की कविताओं में नया और अलग सा लगता है. चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी और सिनेमा में यह पारंपरिक है. कविताई में वस्तु (निष्ठता) का यह प्रयोग चलताऊ शिल्प से आगे की बात है. अम्बुज की कविता के चित्रों में मोशन है. संभवतः तभी उनकी कविता में सिनेमाई कला को लक्षित किया जा सका. और यह मुसलसल है. साफ़ और चमकीले बिम्बों में:

धूप तेज थी और उजड़ गई चीजों पर गिर रही थी
चीजों की उदासी चमक रही थी धूप में
(उजाड़, वही)

यात्रा के रास्ते का एक उदास वृक्ष
रोज़ मुझे मेरी ही याद दिलाता है
(रोज़ का रास्ता, वही)

चिड़िया अभी नींद में है
थोड़ी देर है जब उधर पूरब दिशा
रोशनी का हाथ उठाएगी.
(रात में पुलिया पर, वही)

वृक्षों के बीच से गुज़र रही है हवा
रेत पर से पानी
हृदय से रात
जीवन बैठा है एक अँधेरी पुलिया पर
(वही)

लोगों से बात करता हूँ
जैसे जेल की दीवार के पत्थरों से
मैं बहुत पुरानी जल रंग की तस्वीर हूँ
एक धूल खाया सितार
मुझे देखो मुझे छुओ
(मुनादी, वही)

पिछली सदी का नवाँ दशक ऐसा मोड़ था जहाँ से हम भारतीयों को तमाम ऐसी बातों और वस्तुओं से विदा लेनी थी, जिन्हें पिछली सदी में ही छूट जाना था. एक सभ्यता और संस्कृति को गुडबाय कहना था. एक सभ्य मनुष्य का चोला उतारकर अजाने ही नक़दी, संचार क्रान्ति और बेलगाम बाज़ारी नियमों से निर्मित अन्य (अति) सभ्य मनुष्य का चोला धारण करना था. भूमंडलीकरण हमारे सामने बहरूपिये की तरह खड़ा था, जो कि क़ातिल शत्रु भी था. एक बर्बर और सुरसा आर्थिकी हमारे सामने मुँह फैलाकर खड़ी हो गयी थी. उसके निगलने के लिए हम तो बहुत क्षुद्र थे. मानवीय मूल्यों से युक्त समूचे अस्तित्व के साथ वह हमारे जीवन जीने की पारम्परिक विधियों को भी निगल जाना चाहती थी.

भूमंडलीकरण के साथ यथार्थ भी भूमंडलीकृत हुआ. जिस साहित्य में यथार्थ को उपस्थित होना था, वह विक्षोभ का ग्रास बना, यह बहुआयामी हो गया. वस्तुएँ अस्पष्ट हो गयीं. सत्य जो जटिल था, जटिलतर होता गया. उत्तर-आधुनिक शक्ति-विमर्शों ने साहित्य में जो कोलाहल उत्पन्न किया, उससे सबसे ज़्यादा प्रभावित यथार्थ हुआ. उसकी प्रतिरोधात्मक बाड़ में अनेक छिद्र हो गये. यथार्थ जो छूटा जा रहा था, दुर्निवार. इसे व्यक्त करने के लिए कला अभीष्ट थी. भाषा पर नियंत्रण काम्य था. नवें दशक की कविता को यह स्मरण रहा. उसमें यथार्थ के इस बहुआयामी विस्तार को समाहित करने का प्रयत्न दिखायी देता है, किन्तु सबकी सृजनात्मक सीमाएँ थीं. नयी सदी तक आते-आते आवाज़ें दब रही थीं. पीछे रह जा रही थीं. अम्बुज की कविता ने निश्चित तौर पर बड़े क्षेत्र को स्पर्श किया है. बहुवस्तुस्पर्शिनी इस कविताई ने नैसर्गिक मानव स्मृति पर जमते कृत्रिम कॉर्बन के लिए भी शब्द चुने:

जानते हैं वे जब तक मेरे पास है स्मृति
मुझे याद रहेगा वह सब जो सुंदर है
(याददाश्त, वही)

काव्यभाषा में अनूठा ‘अतिक्रमण’ संग्रह भूमंडलीकृत भारत के यथार्थ का प्रतिनिधि संग्रह है. इसमें उन सभी चिन्ताओं की पुष्टि है जो इसके संबंध में अब तक जतायी जाती रही थीं. उनके परिणाम भी अब प्रत्यक्ष हैं. भूमंडलीकरण वस्तुतः यथार्थ पर भी अतिक्रमण है. सांस्कृतिक अतिक्रमण, बाज़ार और उपभोग का अतिक्रमण, रचनात्मक मानवीय स्मृति पर कुत्सित सूचनाओं का अतिक्रमण. कुल मिलाकर मानवीय अस्तित्व और उसकी सम्वेदना पर भी अतिक्रमण :

अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए
सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए
फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता
समुद्र की तरफ अंतरिक्ष की तरफ
पाताल की तरफ
दसों दिशाओं में लालसाएँ मारती हैं झपट्टा
(अतिक्रमण, वही)

यथार्थ और रूप की सुरंग में आवाजाही तब भी स्पष्ट हो जाती है जब सामूहिक चेतना की बात करते-करते अम्बुज अचानक आत्मपरक हो जाते हैं. यह आत्मपरकता उन्हें कला की ओर ले जाती है. दीगर बात है कि इस आत्मपरकता में अस्तित्त्ववादी आत्मग्रस्तता नहीं है. सुरंग के एक मुहाने पर वीभत्स, भयानक, जुगुप्साकारी काला यथार्थ है तो दूसरे पर नर्म मुलायम धूप खिली है. घास के मैदान हैं और उनमें तन्हा-तन्हा रंगीन फूल खिले हैं. बीच-बीच में पेड़ खड़े हैं. फिर आदम बस्ती शुरू होती है. जब अम्बुज दूसरे मुहाने से बाहर आते हैं तो ऐसे में वे इतने सुन्दर चित्र खींचते हैं कि दृश्य सचमुच उभर कर सामने खड़ा हो जाए. कहीं कोई धुँधलापन नहीं, कुहासा नहीं, धूसरपन नहीं. जिस लैण्डस्केप से हम रोज़ गुज़रते हैं. दृश्यों के प्रति बेपरवाही बरतते हम थोड़ा ही देख पाते हैं. कवि अधिक देख पाता है, क्योंकि वह कलाकार है :

जैसा कि चित्रों और रंगों के साथ होता ही है
उनमें कुछ चीज़ें हम देख पाते हैं
और कुछ बातें नहीं देख पाते हैं
(चित्र विचित्र, वही)

एक छत के नीचे खड़ा हुआ
बारिश में भीगता हूँ मैं
सड़क पेड़ कुत्ता एक गेंद
एक खाली रिक्शा
बकरियों का झुंड और जाती हुई स्त्री
भीगते हैं मेरे साथ
(कला का कोना, वही)

अभी-अभी दर्ज हुई है एक नई ऋतु
जिसे कोई कीड़ा अपने अपूर्व राग में गा रहा है

(एक और शाम, अतिक्रमण)

मृत्यु भी आती है. मत्यु को उत्तर माना जाना चाहिए. प्रश्न से मृत्यु का सौन्दर्य कम हो जाता है. लेकिन कवि वही बच्चा नचिकेता है जिसे कठोपनिषद् में यम टालना चाहते हैं :

‘नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी:‘
(अध्याय १: २५)

नचिकेता तू मरण संबंधी प्रश्न मत पूछ!

मृत्यु को व्यक्त करने के लिए कवियों ने अपने अनेक रूपक गढ़े हैं. सांध्य बेला (निराला), आख़िरी मंज़िल, बेहतर जगह, क़र्ज़ अदायगी (ग़ालिब), चिरनिद्रा (प्रसाद) इत्यादि. शेक्सपियर के लगभग प्रत्येक नाटक में मृत्यु के लिए एक रूपक है. मरकर जीवित हो गये महमूद दरवेश ने कहीं कहा था कि यह (मौत) ‘सुपैद बादलों पर गहरी मीठी नींद’ जैसी थी. ‘मीर’ ने इसे माँदगी (थकान) का वक़्फ़ा कहा. तिस पर भी लगता है कि मृत्यु के लिए औचित्यपूर्ण रूपकों की निर्मिति अब तक नहीं हो सकी है. हाँ, मगर ग़ालिब के एक शे’र में ये महामुक्ति की भाँति व्यंजित हुयी है :

हो चुकीं ‘ग़ालिब‘ बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है.

अम्बुज भी मृत्यु को इमेज़री रूपकों से व्यक्त करना चाहते हैं और वास्तव में यह सुन्दर है :

वह मृत्यु! 

एक झर गया फूल
गुज़र गया क्षण
व्यतीत हो चुका प्रेम
और बचपन…
उसके घटित होते जाने की कुछ स्मृतियाँ
(मृत्यु, वही)

देश की लोकतान्त्रिक ज़मीन पर जबरन क़ाबिज़ आज की नागरिक-पीड़क, प्रताड़क सत्ता का पूर्वाभास अम्बुज की कविताओं से होता है. चूँकि फ़ासिस्ट सदैव धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं या अवैज्ञानिक श्रेष्ठताबोध का. ये दोनों कुविचार ही अनियंत्रित पूँजीवाद से गहरे जुड़े हुये हैं. अब तो बाज़ारू आत्मग्रस्तता का भी वे लाभ उठाते हैं. तकनीक और संचार ने आत्मग्रस्तता जैसे विकार को एक मूल्य बना दिया है. ऐसे में फ़ासीवादी राजनीति की भूमि समतल से चिकनी हो गयी है. उत्पाद-उपभोग, सांस्कृतिक अतीतमोह, उग्र यौनिकता, अप्रतिबद्ध और संशयग्रस्त चेतना, आभासी संलिप्तता इत्यादि के मिश्रण से एक ऐसी व्यक्तिपरकता का निर्माण होता है जिसके लिए सत्य अपरिभाषेय हो गया है:

उधर होनी ही थी ग़रीबी सनातन
कि धर्म हो चुका था सनातन
(कि, वही)

यों तो मैं ख़ुश हूँ
परंतु मुझे शर्म आती है
अपनी समकालीन कायरता पर
मैं शब्दों से काम चलाता हूँ
परंतु मुझे अब कुछ दूसरे हथियार भी लगेंगे
(परंतु, वही)

सुबह की प्रार्थना के बाद
जो लाठी चलाने के सत्र में प्रशिक्षित हो रहे हैं
वे एक ईश्वरीय संगठन के हिस्से हैं
(ईश्वरीय संगठन, वही)

‘अमीरी रेखा’ अम्बुज का मास्टरपीस है. यहाँ कविता की मात्रा सबसे अधिक है. रेटरिक यहाँ थोड़ा है, किन्तु आदत की तरह कुछ बना हुआ है. यह अगर छूटता तो कविता और ऊँचाई पर जाती, किन्तु यह भी ध्यान देना होगा कि कवि ने परम्परागत आलम्बनों को अस्वीकार किया है. कविता की उसकी अभिप्रेरणाएँ यथार्थ और भाषिक विचारधारात्मक सिद्धान्तों के अनुसरण से आती हैं. इस लिहाज से अम्बुज की कविता यहाँ अधिक परिपक्व, प्रगाढ़ और स्पष्ट अर्थध्वनियों से युक्त है. ‘अमीरी रेखा’ शीर्षक अपनी व्यंजना में ‘ग़रीबी रेखा’ का व्यंग्यार्थ है:

तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ अपनी जान बचाने की ख़ातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो
(अमीरी रेखा, शीर्षक कविता)

यथार्थ की वह रवानी प्रबल होती गयी है जिसे वे धीमी गति में ‘किवाड़’ संग्रह से लेकर चले थे. यद्यपि यथार्थ और द्वन्द्वात्मक विचारधारात्मक सत्य को अधिकाधिक अभिव्यक्त करने की वंचनाग्रस्त योजना में वे ‘तानाशाह’, ‘हत्यारे’, ‘आततायी’  जैसे हल्के शब्दों का प्रयोग करने के फेर में देर तक पड़ जाते हैं. इनके स्थान पर नये प्रतीकों को आना चाहिए था. नये प्रतीकों और शिल्प को रचने की समर्थता से अलगाकर देखा जाय तो अम्बुज यहाँ अधिक अविचलित काव्य-चेष्टाओं के साथ खड़े हैं. सम्भाषणीय कविता प्रत्येक पंक्ति में ध्वनित है :

अन्याय की ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती
वह एक दिन होता ही है
याद करोगे तो याद आएगा कि वह रोज़ ही होता रहा है
(अन्याय, वही)

आजकल कोई भी मनुष्य
मनुष्य का प्रचार नहीं करता
(वस्तुओं का न्याय, वही)

भूमंडलीकृत यथार्थ की एक समस्या यह भी है कि इसे जितना अभिव्यक्त किया जाता है यह और विस्तृत होता जाता है. चूँकि यह एक विशेष प्रकार की वैश्विक आर्थिकी से उपजा है अतः यहाँ माँग और पूर्ति के नियम स्थान घेरने लगते हैं. यथार्थ की इस माँग की लोच का ग्रास मंगलेश डबराल जैसे कवियों को भी होना पड़ा. किन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि इस यथार्थ को अभिव्यक्त कौन करेगा? क्या गद्य साहित्य इसमें सफल हो सका है?

दूसरी तरफ़ अम्बुज की कविताओं में रूप वहाँ अधिक सघन हो कर प्रस्फुटित होता है जब वे आत्मपरक अभिव्यक्ति की ओर बढ़ते हैं. इस प्रवृत्ति से इस बात की तस्दीक़ होती है कि वास्तव में कला में व्यक्तिगत वस्तुनिष्ठता से अधिक निखार आता है. ऐसी अभिव्यक्तियों को देखते हुए यह भी लगता है गोया वे यथार्थ से ऊबकर रम्य कल्पनाओं की तरफ़ खिंचे चले आते हैं :

अपनी इच्छा में मैं बाँस के झुरमुट के बीच एक मचान पर रहता हूँ
यूँ ही घूमता फिरता हूँ उड़ाता हूँ कुलाँचे भरता हूँ
कभी चिड़िया बन जाता हूँ और कभी हिरण
पेड़ तो इतनी बार बना हूँ कि पेड़ मुझे अपने जैसा ही मानते हैं
संभ्रम में कई बार मुझ पर रात में रहने चले आते हैं तोते
नदी के किनारे पत्थर बनकर सेंकता हूँ धूप
(इच्छा और जीवन, वही)

वृक्षों ने मुझे कभी भला-बुरा नहीं कहा
बादल मुश्किलों में मेरे साथ कुछ दूर चले
(अपने भीतर छिपे असहमत के प्रति, वही)

गहरी द्वन्द्वात्मक चेतना से उपजे आधुनिक काव्य की पहचान है उसमें व्याप्त वैचारिक संघर्ष और विरोधाभासों का उन्नयन. जेम्सन के शब्दों में ‘उत्तर-औद्योगिक मार्क्सवाद जो कि हीगेल के दर्शन की ही विस्तृत व्याख्या है- अंश का सम्पूर्ण {पिण्ड और ब्रह्माण्ड} से संबंध, मूर्त और अमूर्त के मध्य विरोध, समग्रता की अवधारणा, रूप और सार की द्वंद्वात्मकता, विषय और वस्तु के बीच की परस्पर क्रिया है.’ (मार्क्सवाद और रूप)

अभिव्यक्ति और चित्रण के स्तर पर अम्बुज की कविताएँ मार्क्सवादी सिद्धान्तों के अत्यन्त निकट ठहरती हैं. यथार्थ और रूप का द्वन्द्व, आशा और निराशा की गुत्थमगुत्थी, व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना का संघर्ष वस्तुतः ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन की छाया है. अधोलिखित काव्य-पंक्तियाँ ग्राम्शी के एक प्रसिद्ध कथन का भावानुवाद प्रतीत होती हैं :

यह जीवन है, धोखेबाज़ पर भी मुझे विश्वास करना होगा
निराशाएँ अपनी गतिशीलता में आशाएँ हैं
(परचम, वही)

अक्सर मैं अपनी निराशा को
उस प्रेमिका की तरह याद करता हूँ
जिसकी आँखें बहुत उदास थीं
और जो प्रेम के स्फुरण में काँपती थी
तो देह से लिपट-लिपट जाती थी
और इस जीवन में फिर से मोह जगाती थी
(निराशा को याद करते हुए, वही)

निराशा में मुझे लगा था
कि अब मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं
इस तरह निराशा ने मुझसे कई काम पूरे कराये
(वही)

आशा और निराशा के इस आत्मसंघर्ष से मानवीय जीवन की लघुता और संगीन वैचारिक तनाव से उपजी ज्ञान-मीमांसा का बोध होता है. अम्बुज की कविताएँ बीते तीन दशकों के राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य में नागरिकता के संकुचन, मानवीय अस्तित्त्व पर गहराते अँधेरे की संकटापन्न परिस्थितियों, सहज जन संस्कृति के विनष्टीकरण, सत्ताओं के दमन, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कुत्सित चेष्टाओं इत्यादि का लेखा-जोखा हैं. उनका शिल्प चमकदार है. उसमें पिछली सदी के रूसी रूपवाद का नया अवतार झलकता है. ‘पोतेब्निया ने व्यावहारिक और काव्यात्मक भाषा के बीच सावधानीपूर्वक अंतर किया था. उसकी प्रसिद्ध उक्ति है कि “चित्रों में सोचना ही कला है.” इस प्रसंग पर मुझे विनोद कुमार शुक्ल से छात्र जीवन में हुयी अपनी मुलाक़ात में उनकी कही बात स्मरण होती है कि ‘मैं शब्दों में नहीं, दृश्यों में सोचता हूँ.’ यद्यपि रूप के इस अनुभाग का उपहास तक किया गया, किन्तु दृश्यात्मकता की यह प्रवृत्ति कविता में एक अविभाज्य तत्त्व की तरह बनी रही है. आगे भी बनी रहेगी. अम्बुज की कविताई के रूप में उनकी काव्य-भाषा को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए. भाषा के लिहाज से ‘अतिक्रमण’ संग्रह महत्त्वपूर्ण है. हिन्दी के मूर्धन्य कवियों से भी अम्बुज ने काव्य-संस्कार ग्रहण किये हैं. जैसे निम्नलिखित पँक्तियों से ‘मुक्तिबोध’ का अनायास ही स्मरण होता है :

इस साँवली सड़क ने मुझे बाहों में भर लिया है
तारों की परछाइयाँ मुझ पर सुलगती गिर रही हैं
मेरे माथे पर उनके चुंबनों की बौछार है
जिनकी चमक झील में गिरकर उछलती है
(कुछ शहरों को याद करते हुए, वही)

अम्बुज महीन यथार्थ के कवि हैं, किंतु उनकी कविता के रूप की ओर अधिक देखना होगा. रूप में कविता अधिक, यथार्थ में यथार्थ ज़्यादा है. द्वन्द्वात्मक वैज्ञानिक विश्लेषण में वे सिद्धहस्त हैं. अरुण देव के शब्दों में, ‘भ्रम और सम्मोहन की रात में विवेक और मनुष्यता की सुबह’ के सर्जक हैं. हाँ मगर, यथार्थ के कुत्ते का काटा रूप की शीतलता ही चाहेगा. यथार्थ की कड़वी मदिरा वह रूप के साये में पीना चाहेगा.

______

संतोष अर्श
कविताएँ, संपादन, आलोचना

.
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से तथा ‘आलोचना की दूसरी किताब’अक्षर से प्रकाशित.
poetarshbbk@gmail.com
Tags: 20242024 आलेखकुमार अम्बुजसंतोष अर्श
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Comments 16

  1. Kallol Chakraborty says:
    7 months ago

    संतोष जी का यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। कुमार अंबुज हमारे समय के सबसे जरूरी कवियों में है।

    Reply
  2. आदित्य says:
    7 months ago

    अम्बुज जी के साहित्य का समृद्ध परिचय है इस लेख में।

    Reply
  3. केशव तिवारी says:
    7 months ago

    बहुत अच्छा लिखा गया लेख l अम्बुज जी को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है l कविताओं की सटीक पड़ताल की है संतोष ने l

    Reply
  4. Ravi Ranjan says:
    7 months ago

    अम्बुज जी हमारे समय के चुनिंदा श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं और उनकी क्रूरता, नागरिक पराभव जैसी कई कविताएं हमारे समय का संवेदनात्मक दस्तावेज़ हैं.इन कविताओं का स्थायी महत्त्व है.

    Reply
  5. Karmendu Shishir says:
    7 months ago

    अंबुज के साथ हिन्दी अच्छा सलूक न कर खुद अपना अहित कर रही है।

    Reply
  6. रोहिणी अग्रवाल says:
    7 months ago

    कुमार अंबुज की कविताओं का उतनी ही सघन काव्यात्मक शैली में सम्यक् आकलन किया है संतोष जी ने।

    प्रस्तुत आलेख में न केवल विषय ( आलोच्य कवि के कंटेट और रूप का समृद्ध संसार) के तमाम आयामों को आलोचनात्मक संवेदन के साथ खोला गया है बल्कि सृजनात्मक आलोचना की बेहतरीन नज़ीर भी पेश की गई है।विषय के साथ लय होते हुए भी आलोचक जब एक विवेकशील सर्जक पाठक की भूमिका में अपने प्रज्ञादीप्त संसार का पीछा करते हुए अनायास रचयिता का बाना पहन लेता है, तब आलोचना स्वत: ही स्वायत्त और संपूर्ण हो जाती है।

    संतोष अर्श जी तक बधाई पहुंचे।

    Reply
  7. Sawai Singh Shekhawat says:
    7 months ago

    कुमार अम्बुज निश्चय ही हिंदी के उन चंद महत्वपूर्ण कवियों में हैं जिन्होंने हिंदी कविता के संसार का आयतन विस्तृत किया है।
    ‘किवाड़’ से लेकर ‘उपशीर्षक’ तक अपने छह कविता संकलनों के जरिए उनकी कविताई जीवन के बड़े क्षेत्र का स्पर्श करती है। क्रूरता शब्द का तो यह आलम है कि उसे गूगल पर सर्च करते ही कुमार अम्बुज के इसी विषयक संग्रह का नाम उभर कर आता है।वे अपनी कविताओं में समकालीन नागरिकपीड़क सत्ता का नोटिस लेते हैं और उसके विरुद्ध अपने कवि की भूमिका तय करते हैं।
    ‘यों तो मैं खुश हूँ/परन्तु मुझे शर्म आती है/अपनी समकालीन कायरता पर/मैं शब्दों से काम चलाता हूँ/परन्तु अब मुझे कुछ दूसरे हथियार भी लगेंगे।आजकल कोई भी मनुष्य/मनुष्य का प्रचार नहीं करता।जबकि
    ‘अन्याय की ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती/वह एक दिन होता ही है/याद करोगे तो याद आएगा कि वह रोज़ ही होता रहा है।’अतः वे कविता में इस विश्वास को फिर फिर दुहराते हैं कि-
    ‘जब तक मेरे पास है स्मृति
    मुझे याद रहेगा वह सब जो सुंदर है।’
    संतोष अर्श ने अम्बुज जी की कविताओं के सभी पक्षों का गहन विश्लेषण करते हुए सार्थक टिप्पणी दर्ज़ की है।

    Reply
  8. Anchit says:
    7 months ago

    संतोष के लिखा याद रह जाता है। उन्होंने हमारे समय के सबसे अच्छे और ज़रूरी कवियों में से एक पर बहुत अच्छा लिखा है। उनका और लेखों का इंतज़ार है।

    Reply
  9. प्रकाश मनु says:
    7 months ago

    यह बड़े सुख और‌ राहत की बात है कि संतोष अर्श ने‌ हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज के काव्य की समूची परिक्रमा संभव की। इतनी गहरी तन्मयता और रचनात्मक संपृक्ति के साथ उन्होंने लिखा है, कि मन से उनके लिए दुआएं निकलीं।‌ उनकी आलोचन-यात्रा का मैं गवाह हूं और उन्हें बनते हुए देख रहा हूं। कुमार अंबुज के काव्य की अंतरात्मा का वैभव, गहरी आत्मिक बेचैनी और सामर्थ्य एक साथ उनके लेख में खुलता है, यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है।

    अलबत्ता कुमार अंबुज के काव्य पर इस सुंदर और‌ स्मरणीय विमर्श के लिए प्रिय संतोष अर्श और उसे पढ़वाने के लिए ‘समालोचन’ और भाई अरुण जी को साधुवाद!

    मेरा स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  10. Pankaj Chaudhary says:
    7 months ago

    संतोष बहुत मन और तैयारी के साथ लिखते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वह हिंदी के सबसे ईमानदार आलोचक हैं। संतोष उदय प्रकाश पर भी लिखते हैं, नरेश सक्सेना पर भी लिखते हैं, कुमार अंबुज पर भी लिखते हैं और रमाशंकर यादव विद्रोही पर भी लिखते हैं। उनके अलावा है कोई और आलोचक जिन्होंने रमाशंकर यादव विद्रोही पर भी लिखा हो?
    मैं पूछता हूं कि रमाशंकर यादव विद्रोही की क्यों नहीं नोटिस ली गई? असली और मौजूं सवाल ये है।

    Reply
  11. Naresh Goswami says:
    7 months ago

    अंबुज जी की कविताओं के पर्यावास में संतोष अर्श पूरी आनुभविक और सैद्धांतिक तैयारी के साथ उतरे हैं। लेकिन, उनके इस निष्कर्ष से मैं बहुत सहमत नहीं हो पा रहा कि अंबुज जी की ‘कविता के रूप की ओर अधिक’ देखा जाना चाहिए क्योंकि उनके यहां ‘रूप में कविता अधिक, यथार्थ में यथार्थ ज़्यादा है’।
    मेरा सवाल ज़रा कम शिष्ट लग सकता है, पर पूछ ही लेता हूं : क्या अंबुज जी का कवि अपनी मायावी जटिलता, भयावहता और नृशंसता में ख़ुद को निरंतर अपडेट करते जिस यथार्थ से जूझता है, उसमें रूप की अलग से परवाह की जा सकती है?

    Reply
  12. Santosh Arsh says:
    7 months ago

    Naresh Goswami आदरणीय,
    इसमें सन्देह नहीं कि कुमार अम्बुज की कविताएँ जटिल और मायावी यथार्थ के प्रति अधिक सतर्क और उसकी सार्थक अभिव्यक्ति में पर्याप्त सफल हैं। ‘रूप की ओर अधिक देखा जाना चाहिए’ से मेरा अभिप्राय है कि पूर्व में जिन्होंने भी (विष्णु खरे जी को छोड़कर) उनकी कविताई पर बातें की हैं वे यथार्थपरक अधिक हैं। यथार्थ पर अधिक विमर्श के चलते रूप पर वांछित बातें नहीं हो पातीं। ‘रूप’ के साथ यहाँ कला को श्लिष्ट माना जाय। कला और सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से यथार्थ देर तक टिकने वाली वस्तु नहीं है। यथार्थ पहली सीढ़ी है और सामान्य अवबोध के साथ सैद्धांतिक स्तर पर उसपे बात करना सरल है। जैसा जेम्सन का भी मानना है कि ‘मार्क्सवादी आलोचकों द्वारा द्वन्द्वात्मक विचाराधात्मक विश्लेषण पर अधिक ध्यान दिया गया, रूप पर नहीं।’ रूप की ओर जाने पर सम्भव है कि कविताई के सम्बन्ध में कुछ नये सत्य हाथ लगें। इसकी प्रचुरता और गुरुता को देखते हुए कहा जा सकता है कि कुमार अम्बुज की कविता पर अभी अत्यल्प बातें हुयी हैं। कुछ तो सतही और चलताऊ बातें ही मुझे देखने को मिलीं, जबकि उनके काव्य पर खोलने के लिए अभी बहुत-सी गिरहें हैं। अतः इसे अन्तिम पाठ न माना जाय।
    सादर,

    Reply
  13. Samiksha says:
    7 months ago

    “I am truly fascinated by Dr. Arsh’s insightful analysis. The depth of his portrayal of the poet’s work beautifully highlights metaphysical themes and brings them to life. His elegant language makes complex ideas feel accessible, helping me connect with the themes on a deeper level. Thank you, sir, for such a well-curated interpretation.”

    Reply
  14. बजरंग बिहारी says:
    7 months ago

    रूप वस्तु का अनुगामी है और वस्तु या अंतर्वस्तु रूप की मुखापेक्षी। बकौल सुमित्रानंदन पंत “मैं कृतज्ञ हूँ देह तृणों के लघु दोने में। तुम मेरी आत्मा का पावक करती धारण।” आप किसी एक पर ध्यान केन्द्नित कीजिए, दूसरा उसके साथ आ जाएगा।
    कुमार अंबुज की सान्द्र प्रतिबद्धता को संतोष अर्श की समर्थ आलोचना -भाषा में पढ़ना विरल अनुभव है।
    तैयारी के साथ लिखा गया यह निबंध एकाधिक बार पढ़े जाने पर ही अनफोल्ड होगा।
    कुमार अम्बुज तक पहुँचने की राह बताने वाले संतोष अर्श को धन्यवाद।

    मुझे जीवित रखा गया सिर्फ इसलिए
    कि बना रहा मैं आज्ञाकारी नागरिक

    Reply
  15. पद्मसंभवा says:
    6 months ago

    अच्छा लेख है. सहमतियों असहमतियों से आगे का रास्ता दिखाता हुआ.
    अर्ज़ है कि कुमार अम्बुज और अभिधा के रिश्ते पर संतोष जी को फिर से सोचना चाहिए. यदि कुमार अम्बुज के पास “इसी दुनिया में” जैसी स्वप्निल भाषा है तो ‘नागरिक पराभव’ जैसा चाक़ू भी.
    क्यों ऐसा होता है कि कुमार अम्बुज के दृश्य वेदना के तार से गुथे होने पर ही रस देते हैं, और वस्तुनिष्ठ जीवन को देखने में कई वस्तुओं पर तेल की झिल्ली सी डाल देते हैं? जैसे, किवाड़ कविता कोई बहुत अच्छी कविता नहीं लेकिन उपकार कविता तावीज सी है.

    अपने कवियों को पढ़ना होगा हमें और, ताकि उनकी कविता बेहतर हो. बहुत दिनों बाद ख़ुश किया संतोष अर्श के किसी लेख ने.

    Reply
  16. उदय रोटे says:
    6 months ago

    १. संतोष अर्श जी का यह आलेख शुरू से अंत तक अनेक रूपकों, दृष्टान्तों के माध्यम से अपने कथ्य को रखने की कोशिश करता है. शुरुआती परिच्छेद में किया गया सर्वसाधारण कवि-कर्म का वर्णन हो या आगे अंबुज जी की कविता का विवेचन. एक तरफ अंबुज जी की काव्यपंक्ति‍याँ हैं और दूसरी तरफ अर्श जी के अलंकरणपूर्ण निष्कर्षात्मक वाक्य. दोनों को जोड़ने का काम अर्श जी ने पाठकों पर सौंप दिया है. अर्श जी के विधान में कविता के आकलन की काफी सारी मर्मदृष्टि‍ हो भी सकती है लेकिन वह इतने सर्वसाधारणीकृत स्तर पर जाती है कि दुनिया के किसी भी कवि के लिए प्रस्तुत हो सकती है. जैसे ‘किवाड़’ की चर्चा करते हुए वे कहते है – ‘यहाँ वह सन्धि द्वार है जहाँ से कविता की विकट प्रकृति का दृश्यलोक प्रारम्भ होता है. मैदान से पर्वतीय क्षेत्रों की यात्राओं-सा. धीरे-धीरे पहाड़ियाँ, घाटियाँ खुलती हैं. सामने ऊँचे शिखर दृश्यमान हैं. उच्चावच्च से सामना होता है. पदार्थ को समझने की पीड़ा उत्पन्न होती है. इसी पीड़ा से रिसता है ज्ञान और दर्शन. यहीं भौतिक प्रकृति को अमूर्त कर देने के कलात्मक प्रयत्न हैं. तत्त्व को अपनी दृष्टि से देखने का लोभ भी यहीं है’. क्या यह वर्णन अतीव साधारणीकृत नहीं है? उसे विशिष्ट कविता से कैसे जोडें? मराठी में ६०-७० के दशक में आस्वादक समीक्षा नामक एक समीक्षा-विधा काफी लोकप्रिय थी, जिसमें साहित्य-कृति‍ के प्रभाव का इसी तरह से रूपकों, दृष्टान्तों भरा वर्णन समीक्षा के नाम पर पेश किया जाता था. ‌‌न उस से सहमति‍ कर पाते थे ने प्रतिवाद.

    २. संदर्भ के बिना दिए गए पाश्चात्य मीमांसकों के उद्धरण या अवतरण स्पष्टीकरण की माँग करते हैं. अन्यथा वे केवल नामोल्लेख भर रह जाते हैं. जैसे लेख में उद्धृत फैड्रिक जेम्सन की यथार्थवाद की व्याख्या, एडम हेरॉन द्वारा लिखी जेम्सन के ‘ऑटिनॉमीज ऑफ रियालिज्‍़म’ नामक पुस्तक की (सिडनी रिव्यू ऑफ बुक्स में प्रकाशित) समीक्षा से है. अर्श जी स्रोत का उल्लेख करते तो और भी अच्‍छा लगता। बहरहाल, गूगल स्रोत से मूल अँग्रेजी वाक्य है- ‘Jameson argues, first, that realism is a consequence of the tension between the past-present-futue chronology of inherited tales and the eternal present of consciousness.’* लेकिन वहाँ चर्चा का विषय काफी हद तक भिन्न है. और उसे कविता में यथार्थ की या यथार्थवाद की अवधारणा से जोड़ने के लिए अधिक विवेचन की अपेक्षा होगी.

    ३. यथार्थ और रूप के संदर्भ में, विशेषतः कविता के रूप के संदर्भ में अर्श जी के विवेचन से अधिक गहरे और तीक्ष्‍ण प्रश्न उपस्थित होते हैं- क्या यथार्थ को अमूर्त बनाकर रूप में ढालने से ही कविता का मूल्य बढ़ता है? कविता और अन्य (कहानी- उपन्यासादि‍ कथनात्मक) विधाओं के यथार्थ को अपने में सम्मिलित करने के मार्ग किस प्रकार अलग होते हैं? अंबुज जी की कविताएँ कौन से विशेष मार्ग का आश्रय करती हैं? सामाजिकता और कलापक्ष दोनों एक साथ किस तरह से संभालती हैं? अर्श जी की धारणा है की यथार्थ कड़वा और कम या गैर कलात्मक है और रूप शीतल, मीठा और अधिक कलात्मक. इसिलिए वे कुछ आश्चर्यजनक निष्कर्षों तक पहुँचते हैं. ‘मार्क्सवादी सिद्धन्तों के निकट ठहरने वाली’ अंबुज जी की कविता में उनके अनुसार दूसरी जगह ‘रूसी रूपवाद भी झलकता है’! इसे कैसे स्वीकर करें? क्या मार्क्सवाद या समाजिक संवेदनशीलता हम अंबुज जी की कविता के रूप में नहीं खोज सकते? आदि-इत्‍यादि।
    ***
    * https://sydneyreviewofbooks.com/reviews/as-opposed-to-what-the-antinomies-of-realism-and-periodizing-jameson

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