तिलांजलिललिता यादव |
बिल्लियों के झगड़े में बंदर की मौज की कहानी पुरानी हो चली थी. सब बच्चे ऊब चुके थे इसे सुन सुनकर. खासकर घर की लड़कियां, जिन्हें कहानी की बिल्लियां समझ लिया गया था, वह बुरी तरह झल्ला उठती थीं और लड़के जो कि अपने को चतुर बंदर समझ बैठे थे सिर्फ मजे के लिए कहानी की पुनरावृत्ति चाहते थे और कहानी खत्म होने पर लड़कियों की चुटियां पकड़ कर खींचते जोर-शोर से चिल्लाते-
‘बेचारी बिल्लियां….’
‘बेचारी बिल्लियां….’
आवाज से घर गूंज उठता. लड़के जो कि भाई थे, हंसते खिलखिलाते पूरे घर में धमाल मचाते घूमते और खिसियानी बिल्लियां जो बहने थीं, खम्भे नोचतीं फिरतीं, बंदरों से हाथापाई पर उतर आतीं और चोट खा जातीं …….. .
कहानी सुनाने वाली दादी भी लड़कों का पक्ष लेती, लड़कियों को शांत रहने और कहानी के मर्म को समझने की सीख देती.
रक्षाबंधन का त्योहार आता, बंदर भाई, बहनों को चिढ़ाने के लिए दिखा-दिखा कर चवन्नियां इकट्ठी करते. चवन्नियां राखी बांध चुकी बहनों के हाथ पर जबरन रखीं जातीं. थोड़ा छोटी बहनें गुस्से में चवन्नियां फेंक देतीं फिर खिसियातीं. दादी फिर पैसे का अपमान न करने की नसीहत लड़कियों को देती.
पिताजी जिनकी कोई बहन नहीं थी, सभी बिल्लियों से राखी बंधवाते और सौ-सौ रुपये देते, निहाल बिल्लियां इतराती घर आंगन में नाचतीं घूमतीं.
भरा पूरा बचपन था- चार बड़ी बहनें फिर एक भाई, फिर एक बहन और फिर एक भाई. सब तरा ऊपर के हैं, दादी कहती, मतलब होता उम्र में थोड़े-थोड़े अंतर वाले.
उसका नंबर चौथा था. बताते हैं, जब वह एक साल की थी और मां पेट से थी. बड़ी दो बहनों ने देव स्वरूप पिताजी के दरबार में गुहार करते हुए आंसू बहाए थे-
‘हमारे तो कोई भइया नहीं है, हम किसको राखी बांधेंगे? सभी लड़कियां राखी बांधतीं हैं.’
बेचारी वंचित बिल्लियों को शांत करने के लिए पिताजी ने मां का दूध पी रही चौथी लड़की को लाकर सामने रख दिया था- ‘लो बांधो राखी, यही तुम्हारा भइया है.’ मां कलावा ले आई थी. स्वर्ग के देवताओं ने भी बिल्लियों की पुकार सुन ली थी और अगली राखी पर उन्हें सचमुच का भाई मिल गया.
अतीत की स्मृतियों में गोता लगाती वह, गाड़ी में हिचकोले खाती गांव जा रही थी. पिता का शव प्रतीक्षा में रखा था.
साथ में कौन होता? डिवोर्सी औरत, बेटी की सुबह परीक्षा थी.
ड्राइवर जानकार था, उसकी मनोदशा के अनुकूल कुछ धार्मिक सा उसने मध्यम आवाज में बजा रखा था. आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे.
चार कमरे नीचे और चार कमरे ऊपर, गांव में आठ कमरों का घर बनाया था पिता ने, पांच कमरे बहनों के लिए, दो भाइयों के और एक माता पिता के लिए.
बड़े बड़े बर्तन खरीद कर जमा किए जाते थे. बड़ा भाई मजाक में कहता-
‘जब हमारे सत्ते सत्ते उनचास बच्चे होंगे. तब काम आएंगे.’
‘उनचास माने कितने?’ कांवेंट में पढ़ रहा छोटा पूछता था. ‘एक कम पचास’ बड़ी दीदी झट से बता देती.
सात के उनचास तो न हुए. आदर्श स्थिति में अट्ठाईस हो सकते थे पर उसकी एकमात्र बेटी और पति से तलाक के कारण, कुल जमा छब्बीस बड़े बच्चों का कुनवा था पिताजी का, जिसे वह रोता बिलखता छोड़ कर दोपहर बारह बजे चले गए थे.
वह और उससे छोटी बहन दो ढाई सौ किलोमीटर दूर अपनी नौकरी पर होने के कारण आपस में संपर्क साधतीं, लगभग सूर्यास्त तक एक साथ ही पहुंचने वाली थीं. उनके पहुंचते ही पिता की मिट्टी को उठ जाना था.
लगभग साथ पहुंची थीं दोनों, छोटी पिता को स्पर्श कर सुबुक-सुबुक कर रो रही थी और चौथी मौन आंसू बहा रही थी. गांव की औरतों की आंखें नौकरी पेशा बड़ी अफसर बेटियों के रुदन पर जमी थीं. मां ने बेटियों के समर्थन में बेन निकालने की कोशिश की कि अनाड़ी बेटियां रोना भूल उसे चुप कराने में लग गई थीं और मिट्टी उठ गई थी पिता की.
बल्ब की रोशनी में खुद को घूर कर देखे जाना महसूस करती वह, अचानक उठ खड़ी हुई थी. पिता की चिता मरघट नहीं खेत पर सजेगी. रात हो चली थी, यंत्रवत सी वह खेत की ओर चल पड़ी थी. जाने कहां से निकल कर भाइयों के छोटे बच्चे जिज्ञासा वश उसके पीछे चल पड़े थे. दोनों भतीजी और छोटे भतीजे को डांटकर वापस भेज, आठ दस साल के बड़े भतीजे का हाथ थामे आगे बढ़ गई थी वह.
‘कहां जा रहे हैं बुआ?’
‘थोड़ा सा बाबा को पास से जलते देखेंगे. तुम्हें डर तो नहीं लग रहा?’ उसने कसकर बच्चे का हाथ पकड़ लिया था. डर उसे खुद भी लग ही रहा था, गांव वालों के शोर से, मृत्यु के आतंक और दिखने लगी आग की लपटों से भी, अजीब चिरांयध घुली थी हवा में. सबकी नजरों से दूर वह थोड़ी देर खड़े होकर, वापस लौट आए थे.
वापस आने पर लौटा दिए गए छोटे बच्चों ने भाई की खूब खबर ली. बुआ ने उसे एक अनुभव से समृद्ध जो कर दिया था और उन्हें वंचित.
‘हमने थोड़ा सा पीछा किया था बुआ का.’ बड़ी भतीजी अपना साहस बताती है.
‘तभी झाड़ी में कोई कूदा था न दीदी?’
छोटा भतीजा वापस हो लेने का रहस्य खोलता है.
मृत्यु की रात है, बच्चे बुआओं के साथ आए उनसे थोड़ा बड़े बच्चों से सटकर, भूख और नींद की ओर से निश्चिंत बैठे हैं.
‘हमारी गाड़ी में खाने की बहुत सी चीजें हैं, मम्मी ने कहा था चुपके से गाड़ी में ही खाना और सब बच्चों को भी देना. गांव में कुछ खाने को नहीं मिलता न.’ पाँचवीं की छोटी बेटी को जोर से कुछ खाने की इच्छा हो रही है. उनकी गाड़ी अंधेरे में गाड़ियों के बीच में कहीं खड़ी है और उनके पापा हैं कि कहीं दिख ही नहीं रहे. डर के मारे किसी की हिम्मत नहीं हो रही कि हारर फिल्म की हवेली लग रहे नाना के घर की मध्यम सी रोशनी में डरावनी सीढ़ियां उतर कर, सूनी गैलरी को पार कर, बाहर जाकर पापा को ढूंढने में बच्ची की मदद करें. जब तक कोई बड़ा खुद चलकर न आए बच्चे बिस्तर से हिलने वाले नहीं.
नीचे बड़े से बरामदे में खंभे की टेक लिए, एक हाथ मां के कंधे पर रखे पहले नंबर की बेटी सोच में डूबी है-
सारे भाई बहन कितना ही जल लें. पापा तो सिर्फ उसके ही पापा थे. बाकी सब तो खामखां इतराते हैं. बचपन से ही सुनती आई है- ‘उमा की मम्मी’ और ‘उमा के पापा’ उसके अलावा कभी भी किसी और भाई बहन का नाम लेकर मम्मी पापा ने एक दूसरे को पुकारा हो याद नहीं. उसके ब्याह के बाद भी यही संबोधन चलते रहे थे.
पर कैसा ब्याह किया था पापा ने उसका. वश चलता तो सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापस चली आती. सब खारिज, रिजेक्ट…… .
लड़का एम.ए. पास था पर निकला पूरा लल्लू लाल. प्रतियोगी परीक्षाओं का अभ्यर्थी था. बी.ए. में पढ़ रही थी वह, टका रुपया की शादी तय हुई थी. बाप तहसीलदार था खाली तो न भेजेगा लड़की को. खैर भेज भी नहीं सके थे. जनवासे से दूल्हा मंडप पर न आता देख, घर में बीन बटोर कर और दरवाजे पर व्यवहारियों के रखवाये रुपये मिला कर, पन्द्रह हजार रुपये दिए गए थे दूल्हे के हाथ में, लड़की के नाम एफडी करवा देना. तब कहीं ब्याह होकर विदा हुई थी वह. जैसे तैसे एक महीना ससुराल में गुजार मायके में आकर जम गयी थी-
‘पापा वहां सब्जी भी रोज नहीं बनती.’
पांच साल ऐसे ही निकल गए थे, पति आता वह लौटा देती, गांव गंवारों के उलाहने से बचने को कभी हिम्मत कर थोड़े दिन को चली जाती और लौट आती.
बेरोजगार रह गए लल्लू लाल को अपनी नौकरी पर पास रख एलएलबी करवाई थी पिताजी ने पर कुछ फायदा नहीं हुआ. रजिस्ट्रेशन भी नहीं करवाया लल्लू ने- ‘मैं झूठ नहीं बोल सकता.’
इस दो मंजिले घर की एक-एक ईंट लगी थी मेरी निगरानी में. छोटे सब टोंट करते कहते हैं- ‘दीदी ने जेबें भर लीं अपनी, घर बनवाने में. घर का आधा पैसा खींच ले गईं ससुराल.’
आठवीं में पढ़ती थी तब से तवा संभाल लिया था. कितनी रोटियाँ, परांठे खाए हैं सबने मेरे हाथों के हिसाब नहीं बता पाएंगे, बातें बनवा लो.
हाईस्कूल में गांव में पढ़ती थी, तब बनना शुरू हुआ था घर. मम्मी तो नाम को देखभाल करने आती थीं. सब कुछ वही तो संभालती थी. ऊपरी कमाई वाले तहसीलदार थे पिताजी, थैलों में भर-भर कर पैसा आता था. मकान बन रहा था, किसी का खेत बिकने लगता तो पहले खरीदार हमीं होते थे. गांव के सेठ को भी पीछे छोड़ दिया था हमने.
भाई छोटे थे, खेत को सीलिंग में आने से बचाने के लिए उसके नाम भी तो बीस बीघा जमीन लिखवाई थी पिताजी ने. तीन साल पहले ही तो अपनी दोनों बहुओं के नाम दस-दस बीघा यह कह कर वापस बेनामा करवा लिया था-
‘बेटी तुझ पर पूरा भरोसा है, अपने छोटे भाइयों का बुरा नहीं चाहेगी पर बच्चों की नीयत का क्या पता?’
जमीन बहुओं के नाम रजिस्टर करते आंसू बह निकले थे उसके. पापा तो मेरे थे और भरोसा पराई बेटियों पर कर रहे थे. इनके बच्चे, उनका वंश जो बढ़ाने वाले थे.
बड़ा भाई आंखें चमका कर कहता है- ‘जमीन पर नीयत खराब थी दीदी की वरना रोई क्यों?’
गांव से इंटर कर, आगे पढ़ना चाहती थी. शहर में एक गर्ल्स कालेज में बीए में प्रवेश भी मिल गया था. प्रथम वर्ष की परीक्षाएं देकर छुट्टियों में गांव में आए थे कि अचानक ताऊ ने दबाव बनाया और शादी तय हो गई थी. बिना देखे ही रिजल्ट घोषित कर दिया था पिताजी ने- ‘फेल हो गई.’
बाद में छोटियों को जितनी छूट मिली, मुझे मिल गई होती तो न जाने कहां होती आज मैं.
लल्लू लाल और उनके दिए नरक से निकलने में जीवन का आधा रस सूख गया था. भाइयों बहनों के बीच नर्सरी केजी में पढ़ता बड़ा बच्चा. गर्भ में छोटे को लिए गर्मियों में कमरे के ठंडे फर्श पर पड़ी मुझे, भाई बहन बारी बारी आकर सामान्य ज्ञान के प्रश्नोतर रटवाते. बीटीसी एंट्रेंस क्लीयर हो ही गया था. नवजात को सास ने संभाला. बड़ा तो था ही मामा मौसियों का. दो साल में बीटीसी कर बेड़ा पार हो गया था. बारहवीं तक भी न पढ़ाते पापा तो क्या होता मेरा? वह अनपढ़ सी या मात्र अक्षर ज्ञानी जेठानी देवरानियों को याद कर सिहर जाती है.
‘भारी शरीर है जमीन पर न बैठ पाती गौरी.’ प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठी दूसरे नंबर की बेटी के लिए गांव की एक औरत फुसफुसा कर कहती है.
‘कितने वजन का होगा इन जिजि का हाथ?’ गांव की एक छोटी बच्ची जिज्ञासा से, अपने बराबर में बैठी थोड़ी बड़ी लड़की से पूछती है.
‘तू सोने में तोलेई हाथ?’ एक मौसी डपट कर चुप करा देती है. दाह संस्कार वाले लौट आए तो हाथ मुंह धोकर सब अपने घरों को विदा हों. मरियां चुप नहीं बैठ सकतीं, वह मन में भुनभुनाती हैं.
सब समझते हैं, खाते पीते घर की सर्व सुखी लरकिनी हूं. मुटापा समृद्धि की निशानी जो ठहरा. कितना कहा था पापा ने- ‘बेटी बीएड कर ले.’ तब कहां छोड़ता था ये कामी आदमी एक दिन के लिए भी. एमए फर्स्ट ईयर की परीक्षाओं के बाद छुट्टियां बिताने पिताजी के पोस्टिंग वाले शहर गए थे. वही अचानक तय होकर शादी हो गई थी. इंजीनियर ससुरजी, ठेकेदार पति, पैसे की कोई कमी नहीं, बस राज ही तो करना था रानी बेटी को. थोड़े दिन किया भी.
वह तो पापा ही थे कि कह-कह कर एमए पूरा करा पाए थे. दो सेमेस्टर कैसे-कैसे पास हुए थे. भाई-बहन एसाइनमेंट लिख लिखा देते, बीए में पढ़ रही छोटी बहन जमा कर आती. फोर्थ सेमेस्टर तक बड़ा मनू पेट में आ गया था, शिक्षिकाएं भी हालत देख सहयोग कर देतीं. इंटरनल, एक्सटर्नल कई तरह के इम्तहान होते हैं, सेमेस्टर सिस्टम में, जैसे तैसे भाई-बहनों के पास रुक रुका कर परीक्षा दे पाती. बाबले तुलसीदास हर हफ्ते पिछियाते चले आते. खूब मूंगफली, गजक, मिठाईयां और फिल्म दिखाने के लुभाव साथ लेकर आते पर साले सालियां चिढ़ कर रह जाते. पढ़ाई में बांधा और नए मेहमान की उपस्थिति में सभ्य तरीके से रहने की मजबूरी पर सब बिगड़े रहते. सारा दिन साफ सफाई खाने पीने में ही बीत जाता. किराए के दो कमरों में एक जीजा हथिया लेते, बाकी एक कमरा में बैठना विरोधी स्वभाव और नर्म गर्म मिजाज वाले पांच भाई बहन के लिए मुश्किल हो जाता. पर जीजा को उससे क्या?
‘टेसू अगर करे,
टेसू बगर करे,
टेसू लेई के टरे.’
बीएड किसके वश का था. गांव में गाया जाने वाला टेसू गीत पूरा फिट बैठता था इन पर, मुझे ही नहीं मेरा सारा जीवन ले डूबा ये आदमी.
पत्नी से फिरा मन व्यसन में डुबोया, एक दो बार शराब पीकर आया बर्दाश्त न हुई, उल्टी कर वापस निकल गई. गुटखा खाया और खूब खाया, जुआ सट्टा खेला कि खेलता ही गया. छुटा तब जब काम ठप्प हो गया और अंटी में दाम न रहे.
जब भी मिलते पापा बीएड के लिए पुश करते, पति हवा निकाल देता-‘तुझे क्या जरूरत है कुछ करने की, रानी बनाकर रखूंगा. बच्चे घोड़ा खाल में पढ़ेंगे तेरे, ऐश करेगी. बहनों की तरह सड़कों की खाक नहीं छाननी है तुम्हें.’
घोड़ा खाल में न सही पर बच्चे पढ़ें. बाप नहीं रिटायर बाबा का खून पीकर पले बढ़े. बाहर काम नहीं किया पर घर में रानी में भी एक विशेषण जोड़ कर नौकरानी बनकर सबके पिछवाड़े साधे रही और राजाजी बाप माई की हिकारत झेलते, बेशर्मी की रोटी खाते, बवासीर की बीमारी मनाते रहे.
‘फ्रिज का रखा बासी खाना मत खाया कर बेटी. गैस बनती है, उससे ही शरीर फूल रहा है तेरा.’ पिताजी चिंता करते कहते थे.
कब बता पाई थी- पिताजी में तनाव में ओवर ईटिंग कर जाती हूं. घर में खाने पीने की कमी नहीं पर ससुर जब अपने बेटे को भोग सुनाता है, लपेटे में मैं भी आती हूं. आत्मा तक पजर कर रह जाती है मेरी. इतनी भूख लगती है तब कि कितना ही खाए चली जाती हूं. जाने कैसी बीमारी लगाई है जान को- आहत स्वाभिमान और बंधक जीवन. जिनकी पूंजी पर आश्रित हूं मैं, मेरे बच्चे, वे मेरे श्रम के ऐसे ग्राहक हैं कि एक दिन भी मेरे बिना जीकर नहीं दिखा सकते. यहां बैठी औरतें, बच्चियां कल्पना भी नहीं कर सकती कि इतनी मोटी जिज्जी दिन भर में अपने ही घर में एक मजदूरनी से ज्यादा खटती है. उकताकर गांव में एक बार पूछा था पापा से-
‘पापा कभी मैं अपनी ससुराल से तंग हो जाऊं, वीरू के पट्टे पर आकर झोपड़ी डाल कर रह सकती हूं?’
वीरू हमारा घरेलू लावारिस सा नौकर था जिसके नाम पर दस बीघा जमीन का पट्टा करवाया था पापा ने. गांव वालों ने उसे डरा दिया था और वह काम छोड़ कर भाग गया था. वीरू के पट्टे की जमीन पर वीरू भले ही किसी दिन आकर बैठ जाए पर उस पर बेटी के आ बैठने की इच्छा की भला क्या तुक थी? उसके प्रश्न का जवाब नहीं दे सके थे पापा. बीत गया जीवन गुलामी में. समर्थ हो गए बच्चे.
काश मैंने समय रहते ही अपनी शिक्षा का कुछ मूल्य समझ बूझ लिया होता.
व्यर्थ गया सब पढ़ना लिखना, अब तो पढ़ा लिखा भी था कुछ याद नहीं आता.
तीखी, कटीली, सलोनी नंबर तीन. आंखें झपक गईं हैं या दर्द से मूंदे है. मां की परछाई सी उससे सटी पीछे की ओर दीवार से टिकी बैठी है.
‘पापा मुझे और नहीं पढ़ना, शादी करवा दो मेरी, किताबें देख कर उलटी आती है मुझे.’ ऐसा बिंदास कह दिया था पिताजी से, दोनों बड़ी बहनें विश्वास नहीं कर पाती.
‘मुझसे नहीं संभलेंगे घर, बाहर दोनों. मेरे तो कालेज में भी भूख और थकान से कान के ढक्कन बंद हो जाते हैं.’
पिताजी के जोर देने पर बीएड कर लिया था. एमए भी घसीटकर हो गया था. अब और कुछ नहीं. मां के पास गांव रहने चली आई थी वह.
छोटी चौथे नंबर की बहन से बिल्कुल नहीं पटती थी उसकी, हरामखोर रात भर किताब लिए बैठी रहती थी और सुबह कालेज न जाना हो तो दस बजे तक सोई पड़ी रहती थी. सुबह सात बजे उठकर दोनों कमरों में झाड़ू पोंछा, रसोई में बर्तन साफ कर नहा धोकर इंतजार में बैठी रहती थी, कब उठे और खाना बनाए.
महारानी उठकर चाय बनाकर सामने धर देती और अखबार लेकर बैठ जाती. पेट में पड़ी जलन चाय से और बढ़ जाती.
भूख से रोना आता पर गर्मी में खाना बनाना उसके वश की बात न होती. मां बताती थी- बचपन में बंदर ने काट लिया था. इंजेक्शन लगे थे पेट में, शायद इसीलिए गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाती.
सुबह से उठकर अपने किए काम की दुहाई देती पर बहन के कान पर जूं न रेंगती, वह उलटा उसे ही घुड़क देती- ‘पिछले जनम में काम वाली बाई थी क्या?’
कभी रात की बची बासी रोटियां टूंग लेती, कभी आंसू बहाती, गरियाती, श्राप देती दोनों बहनों को पर वह दोनों थीं कि बनाती भी तो पूड़ी पराठा या कुछ मीठा बना कर रख देती.
दाल चावल, रोटी सब्जी उनके मेन्यू में कभी-कभी ही होती थी और उसे तले भुने और मीठे से नफरत थी.
जीवन में कड़वा सच कहने और स्वीकारने की अभ्यस्त वह, हर तरह से हारकर, आगे कुछ न करने की मन में ठान कर, ब्याह के लिए गांव आ गई थी.
बड़ी खुशी-खुशी मां बेटी का जीवन चल पड़ा था.
ब्याह के लिए घर जाकर बैठ गई बेटी के लिए रिश्ता ढूंढना, टेढ़ी खीर हो गया था पिताजी के लिए. एमए बेटी के लिए योग्य वर ढूंढे नहीं मिल रहा था. बात बनते-बनते बिगड़ जाती.
इस बीच गांव में दस रुपये फीस पर स्कूल चला लिया था सलोनी ने. गांव भर के बच्चे बच्चियां कुट पिटकर, झोटा खिंचवा कर पढ़ना लिखना और साफ सुथरा रहना सीखे.
बच्चियां दुआएं मांगती-
‘राम करे सलोनी जीजी का कभी ब्याह न हो, वह ससुराल चली गई तो हमें कौन पढ़ाएगा.’ पता चलने पर खूब गुस्साई थी सलोनी- ‘लो जी होम करते हाथ जले, मैं इन कम्बख्तों का जीवन बना रही हूं और ये मुझे बद्दुआएं दे रही हैं.’
बच्चियों की दुआएं राम ने कबूल नहीं की थीं और सलोनी जीजी को ब्याह कर जीजू वापस शहर ले गए थे.
कच्ची-कच्ची सी वकालत थी पति की, किसी दिन हजार कमा लाते तो किसी दिन पांच सौ, कभी कुछ भी नहीं. मां बाप बचपन में गुजर चुके थे, बड़े भाई की पत्नी ने विवाह के बाद हाथ जोड़ लिए.
मकान किराए का, सब सामान दहेज का फिर भी घर चलाना भारी पड़ता. ‘अपने घर वालों के सामने मेरी आर्थिक स्थिति के लिए कभी शर्मिंदा न करना’ वकील साहब ने आग्रह किया था. कम बजट में मुहब्बत की गृहस्थी चल पड़ी थी पर बीच में बच्चू टपक पड़ा. खर्चे बढ़ गए. बड़े आपरेशन से डिलीवरी, कर्ज भी चढ़ गया. शुरू में तीन हजार रुपए में एडहोक पर पढ़ाया. पढाई में कमजोर रहे पति उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करते. बच्चे और घर के सब काम साध लेते. वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करती. माध्यमिक विद्यालय में टीचर हो गई थी. दिन बहुर गए थे. गरीबी के दिनों की ससुराली कलंक कथाओं वाले दिन, अब वह याद भी नहीं करना चाहती. पापा पढ़ाई पर इतना जोर न देते तो क्या बनता हमारे जीवन का? कैसे पलते हमारे बच्चे? वह पिता के प्रति श्रद्धा से भर उठती है.
‘इस लड़की ने कभी घर का कोई काम नहीं साधा’ चौथी को इंगित कर मां गांव की औरतों को बताती. पिता भी उसके निकम्मेपन को जानते थे. पिता का चश्मा ढूंढ देना, एक गिलास पानी दे देना भी उसके लिए काम होता था.
‘हम क्या इनके नौकर है जो कमीज प्रेस करें?’ एक दिन कहते सुन लिया था पिताजी ने.
‘हां हम तुम्हारे नौकर हैं? जो कमा-कमा कर खिलाए.’ थप्पड़ भी पड़ा था गाल पर. बात समझ में आ गई थी- काम करना नहीं, कमाना बड़ी बात है. जो कमाकर खिलाता है, धड़ल्ले से काम भी लेता है. नहीं लेता तब भी ले सकने की सामर्थ्य तो रखता ही है. पढ़ने से कुछ नहीं होने वाला, अपनी रोटी कमाना है. लिटरेचर में रमने वाले मन को खींच कर कानून की पढ़ाई में लगा दिया था.
‘कोर्ट में तिल भर जगह न मिलेगी पैर रखने को चलीं हैं कानून पढ़ने, टीचर बनो.’ चिढ़ कर कहा था पिता ने.
कानून पढ़ कर भी टीचिंग में जा सकते थे पर पिताजी की चिंता ब्याह को लेकर थी. वकील लड़की से कौन करेगा विवाह. पिताजी पंच मारना चाहते थे पर चुप रह गए थे. रिटायर हो चुके थे. जमा पूंजी के रूप में खेत थे जिन्हें बेच भी नहीं सकते थे. पेंशन से छोटे तीन बच्चों की पढ़ाई भी चलवानी थी उन्हें.
डिग्री पूरी कर, जमाने भर की खाक छानी, कोर्ट में भले ही पैर रखने को तिल भर जगह ही मिली थी पर मिली शहर के नामी वकील के चेंबर में थी. एक डेढ़ दर्जन वकालत के नए खिलाड़ी उनके चैंबर में जमे रहते. कुछ जुडीशियल सर्विसेज की तैयारी में जुटे आशावान तो कुछ थके-हारे खिलाड़ी क्लाइंट की नजर और जुगाड़ में जमे रहते. अपने केसों की पैरवी के हिसाब से सिंह साहब सबके हाथ में कुछ न कुछ रकम पन्द्रह दिन, महीने में रख ही देते थे. थोड़े ही दिनों में उनके दिल का पूरा एक चेंबर अपने नाम बुक करा लिया था उसने. लगा था शादी टूट बिखर जाएगी, सहपाठी से प्यार और उसके घरवालों के खिलाफ जाकर कोर्ट मैरिज की थी उसने.
साथी वकील पति के सामने भी खुलेआम मजाक में कह देते थे- ‘सिंह साहब का दिल रूबी की मुट्ठी में धड़कता है.’
वह सिंह साहब के आभामंडल, गंभीरता और ज्ञान पर फिदा हो गई थी तो सिंह साहब उसकी सोखी और कुछ भी गलत बर्दाश्त न कर सकने वाली गर्म मिजाजी पर.
‘सिंह को हमेशा सिंहनी से आंख मिलाने में मजा आता हैं. राह में पड़ी गिदड़ियों की तरफ आंख उठाकर कर भी नहीं देखता वह.’ कहते थे सिंह साहब.
‘और सिंहनी को?’
‘वह तो गीदड़ो के घरों में पड़ी गुर्राती रहती हैं बेचारी.’ हंसते हुए जवाब मिला था.
‘अच्छा! फिर तो गीदड़ी, सिहों के घरों में पड़ी आंसू बहाती होंगी?
‘आंसू नहीं बहाती रूबी! सुख-सुविधाओं का उपभोग करती ठाठ से रहती हैं. साल में दो बार दुबई शोपिंग करने चली जाती है पत्नी.’
उसका अपना आप तो काबू में ही नहीं था पर उसके वाचाल प्रेम को पति का चुपचाप बर्दाश्त कर जाना, गहरे छील गया था उसे.
‘किस मिट्टी के बने हो नाथ?’ मन में सोचती जब वह उसे घूरकर देखती तो वह अपने आप में और सिमट जाता.
‘पिछले जनम में जरूर किसी वेश्या के कोठे के दलाल थे प्रभु आप.’ उसका गुस्सा और परवान चढ़ जाता.
‘क्या सच में कभी इस आदमी ने प्यार किया था मुझसे?’ वह अपने आप से पूछती.
जिस दिन सिंह साहब ने पहली बार एकांत में छुआ था उसे, बेतहाशा याद आए थे पिताजी! बेटियों के लिए शिक्षा और बेटों के लिए जमीन खरीदी आपने. समय बदल गया है अब शिक्षा रोजगार की गारंटी नहीं देती पिताजी! तीन साल उसने और पति ने जुडीशियरी के लिए दिन-रात एक कर दिए पर एपीओ तक में सलेक्ट नहीं हो पाए थे.
रास्ता क्या था?
‘फ्रस्टेट होकर मर जाएं?’
‘या नग्न कूद पड़े संसार सागर में? मरने के बाद किसकी देह के अणु परमाणु, किस जात-कुजात स्त्री-पुरुष की देह के अणु परमाणुओं से टकराएंगे, कौन जानता है. फिर एक जरूरी जीवन के लिए ही इतने निषेध क्यों?
मछली को तैरना था, जीना था, सरवाइव करना था, सिंह साहब की बांहों का जल था कि बरबस पास बुला लेता था.
मृत पिता की देह पर हाथ रखते मन कांप गया था! क्या यह हाथ पिता को स्पर्श करने के योग्य हैं? खुद से ही पूछा था- ऐसी ऊंचाइयों को नापने की शिक्षा तो नहीं चाही होगी पिता ने उसके लिए.
पर भानु! तुम क्यों और कैसे इस यात्रा के मूक दर्शक बने रह सकते थे? तुम क्यों जलना चाहते थे उस आग में जो अमूमन प्रेम और विवाह में स्त्रियों को ही उपहार में मिलती है.
शादी की सहमति पर बात करते प्रश्न भी सिर्फ तुम्हारी बेवफाई का ही सामने आया था और वादा भी तुमने किया था बेवफाई न करने का. मेरी बेवफाई का तो न प्रश्न था न वादा. मर्जी की शादी के ऐवज में अपने घर से बेदखल हुए थे तुम. घर और बेदखली दोनों से पूरी तरह बरी थी मैं.
निकल जाओ इस यातना से, लौट जाओ अपने घर भानू! गलती मान लेना अपनी, जाकर संभालो अपने पिता की विरासत. पता नहीं उसने चाहा था यह सब या भानू ने भी पर वह लौट गया था. आपसी सहमति से डिवोर्स हुआ था उनका. जाते-जाते भी भानू से वादा लिया था उसने- मेरे घरवालों को कुछ नहीं बताओगे, बेटी को भी नहीं.
बार काउंसिल की उपाध्यक्ष रही वह, ढेर सारे महिलाओं के केस लड़े, सरकारी वकील बनी. पैसा, नाम, शोहरत सब कमाई. भानू के साथ साथ सिंह साहब भी पीछे छूट गए थे. सागर से विशाल थे वह, न आने वाले का आह्वान करते थे, न जाने वाले का रास्ता रोकते.
साथी वकील मसखरी करते हैं ‘चूसकर छोड़ दिए. ‘देह के ऐसे एडवांटेज लिए ही कब थे उसने और जो लिए थे वह तो उनका कोई भी मित्र हितू सहज ही ले सकता था उनसे.
पांचवीं ने उससे भी एक कदम आगे बढ़ कर पुलिस सर्विस को चुन लिया था.
ब्याह लो भइया इन अफसर बिटियों को. चाचा मजाक उड़ाते व्यंग्य में कहते. बिटियां थीं कि उड़नखटोलों पर सवार.
कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं. ट्रेनिंग में इश्क और इश्क में शादी. वह भी अरेंज मैरिज की तरह. कार सहित सारा समान दिया था तहसीलदार साहब ने. रूबी और नौकरी में आ गए बड़े भाई ने सहयोग दिया था. थोड़ी बहुत किटकिट खिटखिट के बावजूद जिंदगी मस्त चल रही है.
सुबह घर का निरीक्षण करते गुस्से से रो पड़ी थी वह-‘क्या हाल कर रखा है पापा के घर का.’ दीवारों से प्लास्टर उखड़ रहा है. बारिश में चूने वाली छतों से भी कलई झड़ रही है. ‘नहीं संभलता आप लोगों से? हमें दो, एक-एक कमरा सब बहने अपना-अपना ठीक करा लेंगी.’
‘मैं तो इसीलिए चुप रहता हूं, करवइया कोई नहीं, हिस्सा लेने सब आ जाएंगे.’
गांव में सारी जमीन संभाल रहा छोटा भइया बड़े भाई को लक्ष्य करके कहता है.
‘इतने साल से सब जमीन का अकेले खा रहे हो पेट न भरा? रहते तुम हो मरम्मत कराने कौन आएगा? कौन सब लेने आ रहे हैं हिस्सा? बहनों के अपने घर नहीं हैं?’ बड़ा भाई, बहनों को सुनाता है.
रूबी का ध्यान छोटे की भाषा और बोलने के लहजे पर गया था. यह पापा का वह लाड़ला बच्चा था जिसे कांवेंट स्कूल में पढ़ने का अवसर मिला था. एमएससी फर्स्ट क्लास कृषि, गांव में पापा की बनाई जमीन पर वैज्ञानिक खेती के सपने लेकर आया था. सब ध्वस्त हो गए पर क्यों? कभी जानने समझने का वक्त ही नहीं मिला अपनी व्यस्तता में. न बनाई होती पापा ने ये प्रोपर्टी तब क्या पता आज ये किसी कृषि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बना, विद्यार्थियों को गाइड करता, अंग्रेजी झाड़ रहा होता.
एक दिन बिल्कुल ग्रामीण बन चुके छोटे भाई और उसके बच्चों के भविष्य के लिए सोचते हुए रूबी ने बड़े को घेरते हुए कहा-
‘बताओ गौरी दीदी किस खेत पर झोपड़ी डलवानी है आपकी?’ तीर निशाने पर पहुंचा था.
‘पापा की आत्मा को अब ऐसे कष्ट दिए जाएंगे?’ बड़े ने तिक्त होकर पूछा था.
‘अपने लड़कों की जड़े मजबूत करने के चक्कर में उलटे पुलटे ब्याह कर जो आप लोग बेटियां को तिलांजलि दे देते हो, उनकी आत्मा जीते जी कितने कष्ट उठाती है कभी सोचा है?’ सलोनी का भोगा कड़ुआ सच सात तहों से निकल कर बाहर आ गया था.
‘पापा की अपनी अर्जित संपत्ति है सब, वसीयत कर जाते तब क्या ले लेतीं आप लोग?’ भाई पापा की चूक की ओर ध्यान खींचता है.
‘हम न ले पातीं, पर अपनी बेटियों से कैसे बचाते? आपकी अर्जित संपत्ति तो नहीं है यह सब कि वसीयत कर जाओगे.’ रूबी हंस कर पूछती है.
‘हमारी बेटियां न काटेंगी अपने भाइयों का गला. सबको पढ़ाया लिखाया और ब्याह किए पिताजी ने, उन्हीं की वजह से आज बड़ी-बड़ी तनख्वाह ले रही हो, भूल गईं?’
‘पढ़ाया लिखाया तो तुम्हें भी भइया और हमें भी, बेटियों के ब्याह किए टके रुपये के. मेरा तो वह भी नहीं और तुम भाइयों के विवाह में परात भर-भर कर रुपये आए थे भूल गए, दहेज विरोधी भी आप लोग सिर्फ लड़कियों को देने के लिए होते हो, लेने के लिए नहीं?’
‘अब पापा नहीं हैं तो कुछ भी कहोगी आप! कुछ जानती भी हो कैसे हुए थे हमारे विवाह? बीमार पापा मम्मी की सेवा, बीमारी के खर्चें, तब कहां थीं बेटियां? कैसे हुआ वह सब, आप तो एक रात को आती थीं, वह भी कभी-कभी. बहनों से मदद तब मांगी जब वश की बात न रही’ भाई रुआंसा हो आया.
‘पापा मम्मी आप लोगों के आश्रित तो नहीं थे? पेंशन आती थी न उनकी?’
जरूरी कर्मकांड के साथ गांव वालों की मर्जी के मुताबिक तेरहवीं की तैयारियां शुरू हो गई थी. बड़ा नौकरी वाला भाई खाली हाथ था, टुकुर टुकुर देखता है- पापा की बीमारी ने खाली कर दिया. छोटा किसान भी सारा अनाज बेच कर इलाज को पैसे दे आया था. पापा एक महीना एडमिट रहे थे हास्पिटल में. पारखी बड़ी बहन तो देखते ही कह आई थी-
‘पापा में कुछ न बचा, फिजूल पैसा फूंक रहे हैं.’
मतलब साफ था फिजूल पैसा फुंकवाने में उनकी कोई रुचि नहीं. फिर भी किसी बहन ने कुछ कम और किसी ने कुछ जरा ज्यादा योगदान दिया था पापा के इलाज में. सब कुछ ठीक से हुआ था पापा का. वह ठीक होकर घर भी आ गए थे. एक महीना भी पूरा नहीं हुआ था कि घर में ही हृदय गति रुकने से अचानक विदा हो गए थे.
तेरहवीं तक गांव में ही रुक गईं थीं सभी बहनें. पांचवीं को अपने समृद्ध रिश्तेदारों के आने और घर की दुर्दशा को देख-देख कर रोना आ रहा है. कैसा अच्छा हुआ करता था यह घर. कितना संवार कर रखते थे हम. सलोनी दीदी के ब्याह में मनपसंद महंगे कपड़े लेने के लिए अपने हाथों से घर की अंदर की पुताई की थी उसने और रूबी ने.
रूबी ने भी सिंह साहब और भानू को फोन कर दिया था और तेरहवीं का कार्ड भी व्हाट्सएप. जानती थी और भी लोग जरूर आएंगे.
घर के बाहरी हिस्सों और बरामदे की रंगाई पुताई करा दी गई थी.
एक ही गाड़ी से साथ आए थे सिंह साहब और भानू, बेटी श्रेया को भी साथ ले आए थे भानू.
रंग निखर आया है भानू का. जीने के लिए मुहब्बत नहीं, पैसा और परिवार चाहिए होते हैं. मुहब्बत करने वालों को सुनने में कितना ही बुरा लगे. सलोनी दीदी को कहना होता तो वह इस बात को ‘कड़वा सच’ के तकिया कलाम के साथ कहती.
सफेद झक्कास कपड़ों में भव्य लग रहे सिंह साहब के झुक कर पैर छू लिए थे उसने. ‘मेरे गुरु है आप’ भाई से परिचय कराया था. भानू ने खुद आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया था.
पंगत खत्म होते-होते पांच बज गए थे. सोलह गांव का झरा आदमी आया था जीमने.
पगड़ी बंधने की तैयारी हो रही थी. पंडित आवाज देता है- ‘बड़े पुत्र को बुलाओ.’ खिन्न बैठा बड़ा इशारे से छोटे भाई को बुला कर कहता है- ‘तू बंधवा ले.’
‘हां भाई! बंधवा ले, पगड़ी तो किसान के सिर पर ही जँचती है.’ रूबी हंस कर कहती है.
अनमन पगड़ी बंधवा कर लौटा छोटा सभी बहनों के पैर छूने को झुकता है और अचानक पगड़ी उतार कर रूबी के पैरो में रख देता है. ‘संभालो दीदी मुझसे न संभलेगी पापा की पगड़ी.’
‘सब कुछ तुम दोनों को ही संभालना है बेटा! फिलहाल तुम्हारी कोई निश्चित आमदनी तो है नहीं, जब तक तुम्हारे बच्चे पढ़ लिख नहीं जाते, खेत नहीं बटेंगे, मां के पास अपनी पेंशन होगी ही.’ बड़ी दीदी बोल पड़ी थीं.
‘जानता था ये सब तमाशा सिर्फ मेरा हक मारने के लिए ही किया जा रहा है. बड़े भाई का आधा हिस्सा खाकर सुखी हो जाएगा ये?’
‘बात सुखी होने की नहीं, जरूरत की है.
‘समाजवाद बबुआ कइसे आई?’ रूबी ने समाजवादी पार्टी के प्रबल समर्थक बड़े भाई को चिढ़ाते हुए, हाथ नचा कर पूछा.
‘बड़े भाई का हक मारकर, उसकी छाती पर चढ़ कर, समाजवाद बबुआ अइसने आई!’ भाई ने उतनी ही तेजी से सीधा हाथ हवा में लहरा कर अपनी हथेली पर घूसा मारते कहा.
‘सबका अपना-अपना कर्म और नसीब है, गरीब है तो क्या किसी का नसीब लेगा?’
‘ये तुम्हारी नहीं हर पूंजी वाले की भाषा है, फिर क्यों चाहिए समाजवाद?’
‘एक मेरा हिस्सा छोड़ देने मात्र से हो जाएगा इसका भला? इतना ही दर्द है तो दे दें सब बहनें अपनी तनख्वाह से.
‘अपना हिस्सा छोड़ने को कौन कह रहा है ले लो, कोई न दे तो कोर्ट कचहरी से लड़ कर ले लो.’
‘ये अपना कपट जाल किसी और पर बिछाना बहना, मुझे इसके जाल में न फसाना.’
‘न फंसो कपट जाल में थोड़े दिन थमे रहो. तुम्हारी तो नौकरी है, उसके भी बच्चे ठीक से पढ़ लिख जाए तब ले लेना आधा हिस्सा.’
अब वह बेचारी बिल्लियां नहीं थीं, बंदर घुड़की दे रहीं थीं, आंख दिखा रहीं थीं, फैसले कर रहीं थीं. कोर्ट के फैसले की आड़ में बड़े भाई के हिस्से की थोड़ी रोटी छीनकर जरूरत मंद भाई को देने की कवायद कर रहीं थीं. अपनी मेहनत से कमाई रोटी का स्वाद, उनकी जबान पर पक्का जो चढ़ गया था.
अचानक दादी की कहानी के किरदारों की भूमिकाएं बदल गईं थीं. बंदरों की लड़ाइयों में बिल्लियों की मौज के दिन जो शुरू हो गए थे.
बहने खुश थी कि आपस में बात भी न करने वाले भाई, बहनों के भय से एक हो रहे थे. बड़ा अकेले में छोटे को धमकाता कह रहा था-
“तू सात हिस्से कराना चाह रहा है, तुझे क्या लगता है ये सब अपना हिस्सा तुझे दे देंगी? कोर्ट के चक्कर में न पड़ जाना.”
छत्तीस का आंकड़ा वाली बहुएं भी आपस में हंस-हंस कर गुथला रही, सबकी सेवा में लगीं थीं.
सदियों बाद संपत्ति में अधिकार के फैसले से बागड़ बिल्लियों को अपना खोया सम्मान वापस मिल गया था. हिस्सा ले लेने की जंग में अभी बहुत पेच और पैंतरे थे.
‘हमारे घर का कोई बच्चा वांछित शिक्षा और कुछ कर गुजरने की संभावना से वंचित न रह जाए भइया! यही पापा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी!’
बहनों को विदा करते खिन्न खड़े बड़े भाई के कंधे पर हाथ रखते रूबी ने बात पूरी की थी- ‘तेरहवीं तिलांजलि के ढकोसले से मुक्त न हो पाएगी पापा की आत्मा.’
__
ललिता यादव
विविध पत्र पत्रिकाओं में कहानियां एवं आलोचनात्मक लेख आदि प्रकाशित.
सम्पर्क : म.न.37 गली नं.1 ई सुभाष नगर, मेरठ.
मो.नं.-9897410300
ईमेल lalita.yadav09@gmail.com
ललिता जी, कहानी अत्यंत हृदय स्पर्शी है। आपने कहानी में बड़ी बेबाकी से ऐसे प्रसंग उठाए हैं जिन पर कोई व्यक्ति न बात करना चाहता है और न ही सुलझाना चाहता है। सच में, आपकी यह कहानी स्त्री विमर्श में अप्रतिम है। बहुत बहुत बधाई 🌹
धन्यवाद राजेश जी🙏
ललिता! अच्छी कहानी के लिए बधाई! बिल्लियां जबसे साहसी और कमेरी होने लगीं, बंदरों ने सरकार के ऊपर गुस्से का ठीकरा फोड़ना शुरू कर दिया। कुछ बंदरों की नजर में बिल्लियों के हक का कानून परिवार तोड़ने वाला कानून है।🤩
धन्यवाद करुणा जी🙏
बहुत सुंदर एवं प्रासांगिक कहानी । शुभकामनाएँ श्रद्धेय मै’म 🙏🏻