एक देश बारह दुनिया
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हमारा देश विविधताओं वाला देश कहा जाता है. सबसे अधिक वैविध्य मानव समुदायों का है. वर्णावतरित जाति प्रणाली पर आधारित मुख्य समाज में लगभग साढ़े तीन हजार समुदाय हैं. इससे पृथक आदिवासी भारत में एक हजार से अधिक कबीले हैं. सभी की अपनी-अपनी पहचान है. सैकड़ों समुदाय ऐसे हैं जो अपनी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं. कई समुदाय अपनी मूल पहचान खो चुके हैं. अनेक समुदायों की पहचान विलुप्त होने की कगार पर है. इनकी सांस्कृतिक पहचान हर दिन दम तोड़ रही है.
भारत जैसे एक देश में हजारों दुनिया हैं. इनमें से सबसे कठिन दौर से गुजरने वाली बारह दुनिया के आँखों देखे यथार्थ का आधिकारिक और मार्मिक चित्रण शिरीष खरे की इस रिपोर्ताजी पुस्तक ‘एक देश बारह दुनिया’ में मिलता है, ‘राजपाल प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित सही मायने में यह पुस्तक हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर है.
सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर की टिप्पणी इसी पुस्तक की पुश्त पर यूँ दर्ज है-
”जब मुख्यधारा की मीडिया में अदृश्य संकटग्रस्त क्षेत्रों की जमीनी सच्चाई वाले रिपोर्ताज लगभग गायब हो गए हैं तब इस पुस्तक का संबंध एक बड़ी जनसंख्या को छूते देश के इलाकों से है, जिसमें शिरीष खरे ने विशेषकर गाँवों की त्रासदी, उम्मीद और उथल-पुथल की परत-दर-परत पड़ताल की है.”
वहीं, लेखक के शब्दों में कहें तो उन्होंने ‘एक देश बारह दुनिया’ के सहारे भारत की आत्मा कहे जाने वाले गाँवों के अनुभव को यहाँ साझा करने’ और ‘न्यू इंडिया’ की भ्रांतियों के बीच भारतीय गाँवों की असल तस्वीर दिखाने की कोशिश है. (पृष्ठ-7)
मैं हूँ कौन सी दुनिया में भाई?
”मैं हूँ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से उत्तर-पश्चिम की तरफ कोई सात सौ किलोमीटर दूर, पर मैं हूँ कौन सी दुनिया में भाई?”
लेखक आगे विस्तार देते हुए बताता है कि यह दुनिया है मेलघाट की, जो दरअसल बच्चों की मौत का घाट है!
”वर्ष 1991 से अब तक (2008) विदर्भ अंचल स्थित मेलघाट की पहाड़ियों पर 10,762 बच्चों की मौत हो चुकी है. यह महाराष्ट्र सरकार का आँकड़ा है. सरकार मौतों का आँकड़ा मानने को तैयार है, बस इस बात पर राजी नहीं है कि ये सभी मौतें भूख से हुई हैं.” (पृष्ठ-13)
दरअसल, मेलघाट भारत के निर्धनतम अंचलों में है. यहाँ की ज्यादातर आबादी कोरकू आदिम समुदाय की है, जिन्होंने जंगल से जीवन सीखा था, लेकिन जैसे-जैसे जंगल से उनके जीवन को अलग-थलग किया गया, वैसे-वैसे उनका जीना दूभर होता चला गया.
सीलन भरी तंग कोठरियों में जीवन क्या जानवरों से बेहतर?
मुंबई के कमाठीपुरा में अंग्रेजों ने अपने सैनिकों को ‘यौन सुविधा’ उपलब्ध कराने के लिए वेश्यावृत्ति का अड्डा विकसित किया था. अंग्रेज चले गए, किंतु इस बदनाम बस्ती का विस्तार मायानगरी के लिए छोड़ गए. धीरे-धीरे यह बस्ती मुंबई का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया बन गई. ‘पिंजरेनुमा कोठरियों में जिंदगी’ अध्याय में लेखक ने इन वेश्याओं की दुर्दशा का सजीव चित्रण किया है.
कमाठीपुरा की सीलन भरी तंग कोठरियाँ जानवरों के पिंजरों से बेहतर नहीं है. यौन-रोग, एड्स, पुलिस की सख्ती, दलालों का लालच, अड्डा खत्म करने के लिए मकान मालिकों का दबाव आदि के कारण कमाठीपुरा में यौनकर्मियों की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. अनेक वेश्याएँ अपने पुश्तैनी मकानों को सस्ते दामों पर बेचकर दूसरे स्थानों की ओर पलायन कर गईं.
लेखक एक जगह बताता है कि आमतौर पर सेक्सवर्कर मुंबईया हिंदी बोलती हैं, लेकिन अलग-अलग जाति, धर्म और क्षेत्रों से होने के बावजूद एक-दूसरे के सुख-दुख से कहीं अधिक जुड़ी हुई हैं. इसीलिए ये ईद, दिवाली और क्रिसमस सब साथ मनाती हैं. एक सेक्सवर्कर बताती है कि कमाठीपुरा इलाके में दंगे नहीं होते. (पृष्ठ-51)
एक देश बारह दुनिया : कलिंग लिटरेचर फेस्टिवल, 2020-21 ‘बुक ऑफ ईयर’ अवार्ड से सम्मानित कृति
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क्योंकि बंजारे इंसानों और पशुओं में भेद नहीं रखते!
अगले अध्याय में महाराष्ट्र के कनाडी बुडरुक गाँव के निकट तिरमली आदिम बस्ती के भ्रमण के बहाने इनकी दर्द भरी जिंदगी का आँखों देखा हाल बताया गया है. बता दें कि सदियों से नंदी बैल तिरमली घुमंतू जनजाति के जीने का आधार रहा है. ये बैल लेकर जहां-तहां घूमते रहते हैं, इसलिए घुमंतू जनजाति के तिरमली लोगों को आमतौर पर लोग बंजारा भी कहते हैं.
यूँ तो सभी आदिम समुदाय मनुष्य और अन्य प्राणियों में कोई भेदभाव नहीं करते. सभी जीवों को एक समान मानने का दृष्टिकोण रखते हैं. इस समुदाय की बस्ती का चित्रण करते हुए यायावर लेखक का कथन है,
”झोपड़ियों के पीछे मुझे कुछ और झोपड़ियाँ दिखीं, अंदर जाकर देखा तो ये भी हूबहू वैसी ही और उतनी ही बड़ी-बड़ी झोपड़ियाँ हैं, अंतर है तो बस इतना कि ये गाय, कुत्ते और बकरियों के रहने के लिए हैं. मेरे जैसे आदमी को बड़ी हैरत हुई कि इनके लिए सबका बराबर महत्त्व है. यह मोहल्ला इस बात की मिसाल है कि तिरमली बंजारे इंसानों और पशु-पक्षियों में कोई भेद नहीं रखते.” (पृष्ठ-63)
कैसे मुश्किल हो गई घुमक्कड़ी?
बदलते हालात ने इस समुदाय की घुमक्कड़ जिंदगी मुश्किल बना दी है. लगभग दो दशक पहले ये लोग मजबूरन खेतीबाड़ी करने लगे. इसके लिए जो संघर्ष किया उसका मार्मिक विवरण इस कृति में पढ़ा जा सकता है.
लेखक ने अगली यात्रा में मराठवाडा अंचल में आष्टी कस्बा के सैय्यद मदारियों की बस्ती को समेटा है. इन्हें ‘बाजीगर’ अथवा ‘जादूगर’ भी कहते हैं.
ये मदारी विकास और तकनीक की अंधी दौड़ में छूट रहे हैं. मनोरंजन के अत्याधुनिक उपकरणों के सामने इनके जादू फीके पड़ने लगे हैं. फिर अपनी अंदरूनी समस्याओं के कारण भी जादू सरीखे लगने वाले ये खेल अपना परंपरागत मैदान खोते जा रहे हैं. ऐसे में इनके आगे रोजीरोटी का संकट और ज्यादा गहराता जा रहा है.
लेखक बाताते हैं कि बॉलीवुड के फ़िल्मी स्टंट करते हुए दिखने वाले अभिनेताओं के लिए असल करतब ऐसे ही लोग करते रहे हैं. अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र और मिथुन चक्रवर्ती जैसे तथाकथित स्टंटबाजों के साथ इस बस्ती के लोगों की तस्वीरें घरों की दीवारों पर टंगी देखी जा सकती हैं. लेखक सवाल करते हैं कि
”सैय्यद मदारी तो अमिताभ बच्चन के जमाने के पहले से फिल्मों में स्टंट कर रहे हैं. फिर भी इनके बीच से कोई सितारा क्यों नहीं चमकता.” (पृष्ठ-74)
किसानों से बदतर गन्ना काटने वाले मजदूरों का हाल?
ब्राजील के बाद भारत सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश है. भारत में महाराष्ट्र चीनी उत्पादन में बहुत आगे रहा है. यह उत्पादन पाँच लाख से अधिक आंतरिक प्रवासी मजदूरों के बूते टिका हुआ है. ये मजदूर कर्नाटक से लगे उस्मानाबाद, बीड़, सोलापुर, कोल्हापुर, सांगली और सतारा जिलों से हर साल नवंबर से मई के महीनों तक गन्ने के खेतों में गन्ने काट रहे होते हैं.
”लेकिन, इन मजदूरों के सपनों में न खोया खोया चाँद होता है और न मुँह में मिठास घोलने वाली चीनी के दाने.” (पृष्ठ-83) इन मजदूरों में अधिकतर दलित, आदिवासी, बंजारा, घुमक्कड़ और अर्द्ध घुमक्कड़ समुदाय से हैं. इनके पास न खेती लायक जमीन है, न ही कोई अपना धंधा है.
गांव में मजदूरी का अकाल है. सूखे ने हालात बदतर बना दिए हैं. वहीं, किसानों की आत्महत्याओं के लिए यह इलाका बदनाम है, किंतु गन्ना मजदूरों की दशा किसानों से भी बदतर है. इनकी बदहाली पर किसी का ध्यान नहीं जाता है. इसी मुद्दे को गहन शोध और संवेदना के साथ इस कृति में उठाया गया है.
कोई सड़क इस तरफ क्यों नहीं आती?
महाराष्ट्र जैसे बड़े नाम वाले राज्य की समस्याएं भी बड़ी-बड़ी हैं. किसान मर रहे हैं, गन्ना मजदूरों की हालत बेहद खराब है, कमाठीपुरा जिस्मफरोशी के लिए बदनाम है. तिरमली व मदारी जैसे समुदायों दुर्दशा की जानकारी किसी को नहीं है.
फिर मुंबई से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर की यात्रा करता हुआ लेखक हमें महादेव बस्ती से रूबरू कराता है, जहाँ पारधी अपरिगणित आदिम समुदाय के लोग निवास करते हैं. जानकारी मिलती है कि एक इज्जतदार कौम के माथे पर किस कदर वक्त के थपेड़े जरायमपेशा होने का ठप्पा लगा दिया जाता है!
”जानकारों का मानना है कि राजा के यहाँ पारधी शिकार-विशेषज्ञ या सुरक्षा-सलाहकार होता था. जैसे राजा कहता कि ‘मुझे शेर पर सवार होना है’ तो पारधी शेर को पकड़ता और उसे पालतू बनाता. एक तो शेर को जिंदा पकड़ना ही बेहद मुश्किल काम और फिर उसके बाद उसे पालतू बनाना तो और भी मुश्किल काम. बताते हैं कि कई राजा अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में हार गए तब भी पारधियों ने अंत तक अंग्रेजों से हार नहीं मानी और वे अंग्रेजों के खिलाफ उग्र प्रतिक्रियाएँ देते रहे. इस दौरान उन्होंने कई छापामार लड़ाईयां लड़ीं. तंग आकर अंग्रेजों ने इन्हें ‘अपराधी’ घोषित कर दिया.” (पृष्ठ-99)
ध्यातव्य है कि भारत के आदिम समुदायों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की घुसपैठ से लेकर ब्रितानी हुकूमत से आजाद होने तक करीब पौने दो सौ साल फिरंगियों के खिलाफ मोर्चाबंदी की थी. ऐसे ही आदिवासी लोगों में पारधियों की गिनती होती है. आज के आजाद भारत में भी ऐसी बहादुर कौम की बदहाली है कि ‘कोई सड़क इस तरफ नहीं आती. न ही सरकार की कोई योजना यहाँ तक पहुँचती है. न बिजली, न पानी, न राशन और न ही स्वास्थ्य की ही कोई सुविधा है.
कोई सूरत नजर नहीं आती!
रिपोर्ताज का सिलसिला आगे हमें गुजरात में प्रविष्ट कराता है, जहाँ लेखक ने सूरत के भीतर की अनेक गलियों को टटोलते हुए एक दशक के दरम्यान विकास की प्रक्रिया, द्वंद्व, संघर्ष, टकराव, नैतिक मूल्यों के पतन और सत्तारूढ़ शक्तियों के गठजोड़ सहित विस्थापित बस्तियों से हटा दिए गए मलबों में दबी पीड़ा ढूँढ निकाली.
विकास का बदनाम पहलू महानगरीय झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर आदिवासी वनांचलों तक कहीं भी देखा जा सकता है. विकास के बुल्डोजर के तले केवल हशिये की मानवता कुचली जाती है, चाहे देहात से रोजगार की तलाश में विस्थापित होकर शहरों में शरण लेने वाले दलित, दमित, शोषित, वंचित इंसानों की शहरी बस्तियां हों अथवा दूरदराज जंगलों में आसरा पायी हुई आदि मानवता.
इनकी आवाज़ कोई नहीं सुनता. इनके लिए आजादी, लोकतंत्र और विकास कोई मायने नहीं रखता. आज राष्ट्रीय आबादी का एक नया भूगोल सामने है, जिसमें स्मार्ट-मेगा-मेट्रो सिटीजन एक तरफ और दूसरी दिशा में महानगरों के हाशिया, देश का समूचा देहात और वन-पर्वतीय घाटियों में बसे राष्ट्रीय भूगोल से अलग-थलग बसे आदिम समुदायों का दृश्य दिखाई देता है.
नर्मदा का अर्थ नर+मादा
‘वे तुम्हारी नदी को मैदान बना देंगे’ शीर्षक से सम्मिलित अध्याय में नर्मदा नदी की पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया गया है. ”नर्मदा की कुल इकतालीस सहायक नदियाँ हैं. उत्तरी तट से उन्नीस और दक्षिणी तट से बाईस. नर्मदा घाटियों का जलग्रहण क्षेत्र एक लाख वर्ग किलोमीटर है…..विडंबना यह है कि जिन तीन दर्जन से अधिक नदियों के बूते नर्मदा तेरह सौ किलोमीटर लंबी यात्रा तय करती है, उन्हीं जलधाराओं की साँसें जगह-जगह टूट रही हैं.” (पृष्ठ-150)
पता होना चाहिए कि ‘भारत’ नाम के इतिहास अथवा मिथक से हजारों गुना पहले इस नदी की प्राचीनता सिद्ध है. इसका संबंध गोंडवाना से है. ‘गोंडवाना लैंड’ एक विशाल महाद्वीप (super continent) था. इसका अस्तित्व अब से करीब 55 करोड़ वर्ष पूर्व नवप्राग्जीव महाकल्प से लेकर 18 करोड़ साल पहले (जुरासिक काल) तक था. गोंडवाना लैंड का नाम प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने भारत के गोंडवाना क्षेत्र के नाम पर रखा था.
इसके अंतर्गत भारत सहित आस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, दक्षिण अफ्रीका और मैडागास्कर आते थे. गोंडवाना लैंड के मूलवासियों के वंशजों के रूप में हमारे सामने गोंड आदिवासी समुदाय है.
इनकी बसावट नर्मदा घाटी में आरंभ से ही रही है. ”नर्मदा का अर्थ नर+मादा से बताया जाता है, जो विश्व की सम्पूर्ण मानवता के आदि-उद्भव का संकेत देती है. वाशिंगटन डीसी के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट ‘नर्मदा को दुनिया की छह सबसे संकटग्रस्त नदियों में शामिल बता रही है.” (पृष्ठ-127)
”नर्मदा के बेसिन पर दस बड़े बाँध मुख्यधारा पर, बीस बड़े बाँध सहायक नदियों पर, तीन सौ मंझोले बाँध और तीन हजार छोटे बाँध घाटी पर बंधेंगे….इस समय तक नर्मदा पर बड़े बाँधों के कारण तेरह सौ किलोमीटर लंबी नर्मदा में से कोई साढ़े चार सौ किलोमीटर हिस्से में पानी थम चुका है.” (पृष्ठ-144)
नर्मदा के संकट की मानवीय त्रासदी का वर्णन करते हुए लेखक ने लिखा है कि
”यहाँ वर्ष 1972 के बाद एक पीढ़ी ऐसी है जिसने रेत, पानी, जंगल, ज़मीन, घाट, धुआँ, बिजली, कॉर्पोरेट, दमन, विस्थापन, वादे, राहत राशि, धोखे, विरोध, पुलिसिया बल, हिंसा, तबाही, अन्याय जैसे शब्दों के बुरे-से-बुरे पहलू को झेला है. इस उत्पीड़ित मानवता का अधिकांश आदिवासी समुदाय हैं.” (पृष्ठ-142-143)
मीरा की धरती से महिलाओं की त्रासद कथाएँ
शिरीष खरे का यह यात्रा क्रम देश के सबसे बड़े ‘थार’ के रेगिस्तान’ में आदिवासी व दलित नारी के उत्पीड़न को भी समेटता चलता है. यह है स्त्री मुक्ति की महानायिका संत मीरा की धरती. मीरा के पीहर से बहुत दूर नहीं, जहाँ इसी नाम की एक महिला को न्याय व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं रखते हुए आखिर में पुरुष प्रधान समाज के आगे समर्पण करने को विवश होना पड़ा.
इस अध्याय में मीरा के साथ राजौ व गीता की त्रासद कथाओं का वर्णन है. ‘इनकी सुबह होने में देर है’. वहीं, वर्तमान दौर में भारत का कोई इलाका सबसे अधिक लहूलुहान है तो वह है दंडकारण्य.
‘एक देश बारह दुनिया’ पुस्तक की दसवीं दुनिया का शीर्षक है ‘दंडकारण्य यूँ ही लाल नहीं है’. हिंदुस्तान की इस भौगोलिक दुनिया का केंद्र बस्तर है.
उजाड़-कथाओं के दौर में बस्तर
”उजाड़-कथाओं के इस दौर में मुझे बस्तर हमेशा रक्तरंजित पीड़ास्थल की अत्यंत भयावह अनुभूतियों के साथ दिखता रहा है, जिसमें इसकी तुलना किसी और क्षेत्र से नहीं की जा सकती.” (पृष्ठ-170)
आज तो कोई भी कहीं भी पहुँच सकता है. लेकिन ‘सुनियोजित उजाड़-योजनाओं के अलग-अलग अंतराल में इतनी बड़ी तबाही एक प्रमुख घटना की तरह प्रस्तुत क्यों नहीं हुई? वनवासियों की मार्मिक कहानियाँ साहित्य में ‘आधी रात की संतानें’ क्यों नहीं हुईं! या सिनेमा ‘गर्म हवा’ क्यों नहीं बनी!
इसके विपरीत सत्ता के नव-दावेदारों के युग में उजड़ने की यह अमानवीय प्रक्रिया स्थायी परिस्थितियों में बदल देने की सीमा तक क्यों नहीं पहुँच गयी!
”सरकार नक्सली हिंसा को सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या मान रही है, जबकि इसकी जड़ में सामाजिक और आर्थिक कारण छिपे हैं.” (पृष्ठ-183) लेखक का यह कथन हर उस संवेदनशील व्यक्ति की सोच से मेल खाता है जिसने बस्तर के यथार्थ को समझकर लिखा है, चाहे वह वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले की कविता हो, आशुतोष भारद्वाज की ‘हंस’ पत्रिका में छपी श्रृंखला ‘मृत्यु कथा’ हो अथवा राजीव रंजन प्रसाद का उपन्यास ‘आमचो बस्तर’ हो.
बारहवीं दुनिया किसानों को समर्पित
छत्तीसगढ़ भारतीय भूगोल के लगभग मध्य में अवस्थित है. इस प्रदेश की भौगोलिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक समृद्धि का दृश्य सागरों से बहुत दूर इसी अंचल में बह रही शिवनाथ नदी के बीच प्रकृति द्वारा निर्मित मदकूद्वीप है. यहाँ तक की यात्रा बड़ी रोचक तो है, किन्तु खतरों से भरी हुई है. दुर्गम वन-पर्वतांचल के भू-दृश्य के मध्य किसी जलीय टापू का होना किसी आश्चर्य से कम नहीं! यह टापू कभी आदिमानव की शरण स्थली हुआ करता था जिसके प्रमाण तत्कालीन शैलचित्र हैं.
इस पुस्तक की बारह दुनिया में से आखिरी किसानों को समर्पित है. एक तरफ गत करीब साल भर से अपनी तकलीफों को लेकर किसान दिल्ली को घेरे हुए हैं, तो दूसरी तरफ ‘धान का कटोरा’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के किसान तेज रफ्तार में खेतिहर मजदूरों में तबदील होते जा रहे हैं. ”बीते एक दशक के दौरान छत्तीसगढ़ में किसानों की संख्या बारह प्रतिशत तक घट गयी थी. इसी अवधि में सत्तर प्रतिशत खेतिहर मजदूर बढ़ गए थे.” (पृष्ठ-203)
”सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ में 38 लाख किसान हैं, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा छोटे किसान हैं, जिनके पास दो एकड़ से भी कम ज़मीन है….70 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास सिंचाई का कोई साधन नहीं है.” (पृष्ठ-198)
‘एक देश बारह दुनिया’ वास्तव में ‘हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर’ है. इस तस्वीर का कटु यथार्थ हमें इसमें सम्मिलित सभी अंचलों और वहाँ के लोगों के कठिन जीवन से पाठक को इस अहसास के साथ रूबरू कराता है, जैसे वह स्वयं इन इलाकों की यात्रा कर रहा हो.
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एक देश बारह दुनिया
शिरीष खरे
प्रकाशन: राजपाल एंड सन्ज, 1590, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली-110006
पृष्ठ: 206, कीमत: 295 रुपया, प्रकाशन वर्ष: 2021
हरिराम मीणा हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार और पत्रकार हैं.
शिरीष खरे की यह एक एक जरूरी किताब है। ’एक देश बारह दुनिया’ के पन्नों से गुजरना इस देश की सीलन भरी अंधेरी गलियों से गुजरना है। हरिराम मीणा जी को इस सुंदर समीक्षा के लिए और ’समालोचन’ को इसी तरह के गंभीर रचनात्मक कामों के लिए बधाई तो दी ही जानी चाहिए।
समालोचन पत्रिका और उसके संपादक अरुण देव जी का बहुत-बहुत आभार।
बहुत अच्छा आलेख। अपनी विषयवस्तु को देखते हुए यह पुस्तक निश्चय ही पढ़ी जानी चाहिए ताकि भारत के भीतर स्थित इस भारत की हकीकत को ठीक से समझा जा सके।
एक और भारत भी है। इसके बारे में न कोई जानना चाहता है न हमारे लिए उसका कोई अस्तित्व है। तथाकथित मुख्य धारा तो विकास और तकनीक के अंधे प्रचार में बह रहा है और उसे ही एकमात्र दुनिया मानता है। हाशिये के लोगों के क्या दुख तकलीफ़ हैं इससे किसी का सरोकार नहीं। मीणा जी ने इस पुस्तक के बारे में लिख कर जरूरी काम किया और समालोचन ने छापा, दोनों साधुवाद के पात्र हैं। – – हरिमोहन शर्मा
बनावटी आंकड़ों के जाल में जनमानस को उलझाकर विकास के बेसुरे राग आलापने वाले मुख्यधारा के मीडिया से मीलों दूर व शासन-सत्ताओं के लिए महज वोट बनकर रह गए वंचितों, शोषितों के किस्सों के माध्यम से हाशिये की खुरदरी ज़मीन पर बसने वाली एक बहुत बड़ी आबादी के संघर्षों व तकलीफों की पड़ताल करती रिपोर्ताज का संग्रह है श्री शिरीष खरे की किताब “एक देश बारह दुनिया “।
पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने लिखा है “अब जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो यह सोचकर अच्छा लगता है कि साल-दर-साल इन बारह तरह की दुनियाओं को नापने के लिए मैं राजमार्गो को छोड़ धूल-धक्कड़ में कई हज़ार किलोमीटर पगडंडियों पर यात्रा करने के बाद पहुँचा।”
यक़ीनन लेखक का संघर्ष उनके लेखन में स्पष्ट दिखाई देता है। तथ्यों के साथ तिथियों का होना इन रिपोर्ताज को स्वाभाविकता के धरातल से जोड़ता है। भाषा इतनी सरल व सधी हुई है कि किसी भी सहृदय पाठक को द्रवित कर दे।
“अपने देश के परदेसी”, “कोई सितारा नहीं चमकता”, ” गन्नों के खेतों में चीनी कड़वी” जैसे रिपोर्ताज के शीर्षक ही काव्यात्मक नहीं हैं बल्कि शिरीष जी की स्वरचित कविताएँ भी पुस्तक में शामिल हैं जिनसे उनके कवित्व का परिचय होता है। “सूरज को तोड़ने जाना है ” की शुरुआत लेखक अमेरिका की शिक्षिका जूलिया वेबर गार्डन के कथन से करते हैं जिससे उनकी विश्व साहित्य के प्रति रूचि व लग्न परिलक्षित होती है।
206 पृष्ठ की इस पुस्तक की समीक्षा यदि संदर्भों के साथ की जाए तो कोई समीक्षक एक अन्य पुस्तक लिख सकता है।
अंत में इतना ही कि मैं कोई समीक्षक या साहित्यकार नहीं हूँ ।
दिखाई वो दिया जैसा उसे वैसा कहा मैंने,
यही गर है बगावत तो सुनो बाग़ी रहा हूँ मैं।
लेखक को बहुत बहुत बधाई और कामना की जाती है कि वे आभासी शाइनिंग इंडिया से दूर यथार्थ से जूझते भारत के भीतर की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परते खोलते रहेंगें।
मनजीत भोला