| ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै आपदा के असीम धैर्य की टहनी पर कांपता आखिरी पत्ता त्रिभुवन |
कुछ लेखक तूफ़ान की तरह आते हैं. कुछ तूफ़ान के चले जाने के बाद के लंबे सन्नाटे की तरह. जैसे अभी भी आखिरी पत्ता टहनी पर काँप रहा हो. ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै आंतरिक रूप से इतने गंभीर हैं कि उनके हाथों में प्रलय भी ध्यान मग्न हो जाता है. स्वीडिश अकादमी ने अब उन्हें 2025 के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता घोषित किया है. वे यह पुरस्कार पाने वाले हंगरी के पहले लेखक हैंऔर 1980 में सृजन की यह यात्रा शु्रू करने वाले इस लेखक को अपने लेखन के 45वें वर्ष में यह पुरस्कार मिला है. (देखें लेख के अंत का अंश : क्या यह किसी हंगेरियन साहित्यकार को पहला नोबेल है?)
इसमें हवाला दिया गया है, “उनकी सम्मोहक और दूरदर्शी कृति प्रलयंकारी आतंक के बीच कला की शक्ति की पुष्टि करती है”. दरअसल, वे अर्थ के अतुलनीय खंडहरों में कला को ऐसे प्रतिष्ठित करते हैं, मानो लेखन पहले से ही धुएँ से लबरेज़ किसी कमरे में टिमटिमाती आख़िरी मोमबत्ती हो. जीवन की जटिलता, दार्शनिकता और अपोकैलिप्टिक थीम्स पर आधारित ऐसी अनोखी शैली अन्यत्र दुर्लभ है.

रोमानियाई सीमा के पास हंगरी के छोटे से शहरग्युला में 1954 में जन्मे ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै की चेतना ने उत्तर-साम्यवादी यूरोप के धूसर अवसाद भरी आबोहवा में रूपाकार लिया था. वे एक विकल भूगेाल और बेचैन वैचारिकी की पैदाइश थे. थकान और अंतहीन प्रतीक्षा से आप्लावित भूगोल और मोहभंग के बाद की खंडित वैचारिकी. उनकी पहली कृति “सातांतंगो” (1985) ने निराशा के एक नए व्याकरण की घोषणा की.
यह कृति विनाश की दहलीज़ पर खड़े लोगों का जैसे शोकगीत है. इसमें समय किसी मरते और कुलबुलाते हुए कीड़े की तरह ख़ुद पर टूट पड़ता है. इसमें एक खस्ता हाल सामूहिक खेत के किसान भ्रम के घेरे में घूमते हैं. वे उन मसीहाओं की प्रतीक्षा में हैं, जो केवल ठग हैं. इरीमियास और पेट्रिना छल की भाषा में मुक्ति का वादा करते हैं. इस किताब की शुरुआत काफ्का की एक अनुभूमिका से होती है. वे पंक्तियां कहती हैं कि उन हालात में मैं उस चीज़ को हमेशा के लिए खो दूँगा, जिसकी मैंने इतनी प्रतीक्षा की है. और वास्तव में, ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै के सभी पात्र प्रतीक्षा कर रहे हैं. प्रतीक्षा अर्थ की, मृत्यु की, रहस्योद्घाटन की. हालांकि यह मालूम है कि कोई भी कभी नहीं आएगा; लेकिन प्रतीक्षा जैसे कोई अविनाशी तत्व है.
अगर साहित्य कभी जीवन का प्रतिबिम्ब बनने की कोशिश करता था तो ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै के उपन्यास इसके बजाय प्रलय की संरचना का अनुकरण करते हैं. चक्रीय, अंतहीन और चरमोत्कर्षविहीन, जहाँ वाक्यविन्यास ही विनाश का मंच बन जाता है. उनके वाक्य सामान्य साँसों से भी आगे तक फैले हुए हैं. मानो मानवीय विराम चिह्न ब्रह्मांडीय क्षय को थामने के लिए बहुत नाज़ुक हों. वे अनुच्छेदों के बजाय गतियों में लिखते हैं. उनका हर वाक्यांश अगले वाक्यांश में ऐसे समाता है, जैसे कोई व्यक्ति जो किसी स्वर्गिक आनंद में विश्वास नहीं करता; लेकिन फिर भी संगीत की रचना करता रहता है.

प्रसिद्ध अमेरिकी आलोचक और “अगेंस्ट इंट्रप्रिटेशन”, “इलनेस ऐज़ मेटाफ़र” और “रिगार्डिंग दॅ पेन ऑव अदर्स” जैसे अप्रतिम कृतियों की लेखक सुसान सोंटैग (1933-2004) ने क्रॉस्नॉहोरकै को “सर्वनाश का स्वामी” कहा था. लेकिन यह सर्वनाश एक शांत सर्वनाश है. दुनियाओं का विस्फोट नहीं, उनका अपना शनै:शनै: होता विस्फोट. उनका उपन्यास “प्रतिरोध का विषाद” (1989) में आया. उसमें बताया गया कि दुनिया का अंत आग से नहीं, नौकरशाही, गपशप और एक व्हेल की लाश लिए एक विचित्र सर्कस के आगमन से होता है. इस उपन्यास में व्हेल, वह मूक स्मारक है, जो उन सभी मृत; लेकिन फिर भी श्रद्धा की अपेक्षा रखने वाली हर चीज़ का प्रतीक बन जाती है. यहाँ क्रॉस्नॉहोरकै हमें अव्यवस्था का रंगमंच दिखाते हैं. ऊब से भीड़ का निर्माण, अपनी ही जड़ता में सेना का ढहना और भविष्यवाणियों का मुखौटा पहने मौजूद एक विद्रूप पागलपन.
वे दर्शाते हैं कि सर्वनाश को अगर सही अर्थों में समझा जाए तो यह कोई घटना नहीं, एक आदत है. विद्रोह के रूप में आस्था के क्षरण का प्रवाह. उनकी एक कृति आई थी “वॉर एंड वॉर” (1999). इसमें कोरिन नाम का एक पुरा लेखपाल बुडापेस्ट के बाहरी इलाके से न्यूयॉर्क की उजली अराजकता की यात्रा करता है. उसके पास एक प्राचीन पांडुलिपि है. इसके बारे में उसका मानना है कि उसमें दुनिया का गुप्त स्वरूप छिपा है. कोरिन भविष्य वक्ता और मूर्ख दोनों बन जाता है. ऐसा व्यक्ति, जो इंटरनेट पर अनंत काल को पोस्ट करना चाहता है. यह कृत्य एक साथ हास्यपूर्ण और दु:खद है.
क्रॉस्नॉहोरकै के ब्रह्मांड में रहस्योद्घाटन भी बेतुकेपन से घिरा हुआ है. यहाँ उनका वाक्य-विन्यास अपने शुद्धतम उन्माद को प्राप्त करता है. विचार की सुदीर्घ और उफनती लहरें ऐसे चलती हैं, मानो भाषा स्वयं उत्कृष्टता के लिए तरस रही हो. उन्हें पढ़ना वाक़ई ऐसी सुसंगति के किनारे पर खड़ा होना है, जहाँ अर्थ खंडहरों पर मृगतृष्णा की तरह डगमगाते और अठखेलियां करते हैं.
“बैरनवेंकहाइम की घर वापसी” (2016) में क्रॉस्नॉहोरकै अपने नायक की तरह अपनी मातृभूमि लौटते हैं; लेकिन घर पहले ही भुतहा हो चुका है. बैरन एक टूटा हुआ जुआरी है, जो खोए हुए प्यार से त्रस्त है. वह एक प्रांतीय शहर में वापस आता है, जहाँ उसका स्वागत खोखले समारोहों के साथ होता है. हास्य और दु:खद, उदात्त और विचित्र एक-दूसरे पर छाए कुहा से की तरह सह-अस्तित्व में हैं. यह किताब मानो मोहभंग में घर वापसी की गहन अनुभूति है. जैसे दोस्तोयेव्स्की का वह पगला उत्तर-आधुनिक बेतुकापन एक नए रूप वाले परिदृश्य में पुनर्जन्म लेता है. हम महसूस करते हैं कि इसका हर भावमुक्ति और उपहास के बीच काँपता है.
“हर्श्ट07769” (2021) के समय तक क्रॉस्नॉहोरकै ने परिदृश्यको जर्मनी में बाख और सामाजिक पतन से ग्रस्तथुरिंगेन के एक कस्बे में स्थानांतरित कर दिया था. यहाँ सर्वनाश आध्यात्मिकता के बजाय सामाजिक हो जाता है; लेकिन लय बाख की ही बनी रहती है. प्रतिरूपित, अथक और अनंत. यह उपन्यास सभ्यता और उसके संगीत, दोनों के लिए लिखे गए एक शोकगीत की तरह पठनीय है. क्रॉस्नॉहोरकै एक बार फिर दिखाते हैं कि अराजकता की भी अपनी नाज़ुक वास्तुकला होती है और विनाश की भी एक लय, जो लोगों को मुग्ध करती है. क्या यह हमारे कालखंड का भी वर्णन नहीं है, जिसमें हर चेतन, सजग और संवेदनशील इन्सान अपने आसपास घट रही चीज़ों को लेकर अवाक् होता रहता है?
और फिर भी इन स्मारक समान सर्वनाशकारी कृतियों से परे एक और क्रॉस्नॉहोरकै भी हैं, जो पूर्व का चिंतनशील तीर्थयात्री है और क्योटो में मौन का साधक भी. “सेइओबो देयर बिलो” (2008) एक अलग तरह का उपन्यास है. इसमें कलाकार पैगंबर की जगह लेता है. इसमें बु़्द्ध का भी जिक्र है और एक नदी का भी, जिसका नाम कामो है. नदी में एक बगुला अदृश्य और अविचल खड़ा है. वह बगुला स्वयं कला का प्रतीक है. स्थिर, सतर्क, अस्वीकृत और अनंतकाल की धड़कन पर प्रहार करने की प्रतीक्षा में. यह पुस्तक पुनर्जागरणकालीन इटली, बौद्ध मंदिरों,सेइओबो की पौराणिक कथाओं और अमर आड़ुओं की रक्षा करने वाली चीजों के माध्यम से आगे बढ़ती है और नश्वरता की वास्तुकला में एक अलग सौंदर्य बुनती है. यहाँ सर्वनाश ध्यान का और भय कोमलता का स्थान लेता है. उनका सुझाव है कि सृजन का काम संसार के अंधेपन का अंतिम प्रतिरोध है.
सिओबो देयर बिलो क्रॉस्नॉहोरकै की उस अजीबोगरीब टेपेस्ट्री की तरह है, जिसमें समय और जगह, इतिहास और कल्पना, कला और मृत्यु सब पाठक के भीतर एक दहकती कल्पना पैदा करते हैं. कामो की निस्तब्ध आँखों में अज्ञात जीवन चमकता है. एक राजसी निर्वासन की कहानी में सौंदर्य और अवज्ञा घुलते हैं. ज़ेंगेन-जी के आधे बंद आँखों वाले बुद्ध की सफाई और पुनर्स्थापना में न केवल काठ और रंजकता का, अपितु अनुशासन, आत्मा और चेतना का मंथन होता है. वेनेज़िया में क्रिस्टोमोर्तो की आँखें बार-बार खुलती और हमें अनंत शोक का एहसास कराती हैं. नोह के मास्टर इनोउए और ज़े’आमी के जीवन में कला और निर्वासन इतना घुला रहता है कि वर्तमान और स्मृति, शरीर और आत्मा, अभ्यास और विश्वास सब अस्पष्ट किनारों पर आपस में टकराते और विलीन होते हैं.
पुनर्निर्मिति इसे श्राइन और अल्हांब्रा की खामोश भव्यता, पियेत्रो पेरुगिना और राफ़ाएल के संगृहीत रंग, इओन ग्रिगोरेस्कु की मिट्टी को घोड़े की आकृति में ढालती है. अंततः शांग की दफन कलाकृतियों की चीखें समय के दबाव, मृत्यु के अपरिहार्यप्रभाव और मानव अनुभव की छाया में एक साथ उपस्थित होती हैं; क्योंकि क्रॉस्नॉहोरकै के शब्द इतने लंबे, घुमावदार और निरंतर हैं कि वे न केवल कथा सुनाते हैं; प्रत्येक दृश्य, प्रत्येक श्वास और प्रत्येक कला वस्तु की आत्मा में हमें डुबो देते हैं, जिससे सिओबोन केवल पठनीय कृति बनती है, उसकी प्रत्येक उपस्थिति ही नहीं, उसकी हर अनुपस्थित दृष्टि भी हमारे भीतर निरंतर जीवित रहती है.
साहित्य ही नहीं, क्रॉस्नॉहोरकै ने सिनेमा के क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप छोड़ रखी है. उन्होंने मुख्य रूप से निर्देशक बेला टार के साथ सहयोग किया, जिन्होंने उनकी कई रचनाओं को फ़िल्मों में रूपांतरित किया. उनके उपन्यास “शतांतांगो” इसी नाम से बनी फिल्म (1994, निर्देशक: बेला टार) 7 घंटे से ज़्यादा लंबी और ब्लैक-एंड-व्हाइट है, जो एक गांव की अपोकैलिप्टिक कहानी दिखाती है. वर्क्मेस्टर हार्मोनिज़ (वर्क्मेस्टर हार्मोनियाक) (2000, निर्देशक: बेला टार) उनके उपन्यास अज़ एलेनल्लास मेलांक़ोलियाजा (1989) पर आधारित है. यह एक छोटे शहर में अराजकता और रहस्य की कहानी है. उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएँ लिखी हैं. इनमें विशेष हैं :
- डैमनेशन (कारहोजात) (1988, निर्देशक: बेला टार) – मूल पटकथा.
- द लास्ट बोट – सिटी लाइफ (अज़ उटोल्सो हाजो) (1990, निर्देशक: बेला टार) – मूल पटकथा.
- द मैन फ्रॉम लंदन (ए लोंडोनी फेर्ही) (2007, निर्देशक: बेला टार और आग्नेस ह्रानित्ज़की) – जॉर्जेस सिमेनॉन के उपन्यास पर आधारित, लेकिन पटकथा क्रॉस्नॉहोरकै ने लिखी.
- द ट्यूरिन हॉर्स (ए टोरीनॉय लो) (2011, निर्देशक: बेला टार और आग्नेस ह्रानित्ज़की) – मूल पटकथा, नीत्शे की एक घटना से प्रेरित.
ये सभी फ़िल्में उनकी रचनाओं की जटिलता और लंबे शॉट्स के लिए प्रसिद्ध हैं. क्रॉस्नॉहोरकै का जीवन और लेखन भी फ़िल्मों की तरह कई आश्चर्यजनक तथ्यों से भरा है, जो उनके रहस्यमय और गहन व्यक्तित्व को दर्शाते हैं. यह सुखद हैरानी है कि उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है, जो हंगरी के लिए पहला ऐसा सम्मान है. स्वीडिश अकादमी ने उनकी रचनाओं को “नियमों के खिलाफ विद्रोह और मानवीय कमज़ोरियों की खोज” के लिए सराहा है, लेकिन मूलत: यह सराहना उस हंगेरियन भाषा और साहित्य के लिए भी है, स्वीडिश अकादमी ने उनकी रचनाओं को “नियमों के ख़िलाफ़ विद्रोह और मानवीय कमज़ोरियों की खोज” के लिए सराहा है, लेकिन मूलत: यह सराहना उस हंगेरियन भाषा और साहित्य के लिए भी है, जो अपने भीतर से एक पारदर्शी अंधेरे की झील की तरह है. जिसकी गहराई में उतरते ही अर्थ की असंख्य तरंगें उठती हैं और जिसमें में हर शब्द अपनी ही छाया से प्रतिध्वनित होकर संवाद करता है. यह वह भाषा है, जिसमें व्याकरण भी एक प्रकार का संगीत है और व्यथा, एक अलंकार; जहाँ हर वाक्य अपने जन्म से पहले ही किसी पुरानी किंवदंती की गंध लिए रहता है. हंगेरियन साहित्य की यह विशेषता है कि वह मनुष्य को नहीं, उसकी छाया को बयान करता है. उस छाया को, जो उसकी आत्मा के निकटतम है और शायद इसलिए उसकी सबसे सच्चाई भी. यह क्रॉस्नॉहोरकै जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य है; क्योंकि वे एकांतप्रिय लेखक हैं.
इस हंगेरियन भूलभुलैया के यात्री को पढ़ते हैं तो साफ़ लगता है कि उसका जीवन एक उपन्यास नहीं, विरामहीन वाक्य है. एक ऐसा वाक्य जो सांस नहीं लेता, पाठक से उसकी सांसें छीन लेता है. आख़िर ऐसा क्यों न हो, क्योंकि उसके साथ यही तो घटित हुआ था. उसके पिता की छिपी हुई यहूदी पहचान, जो उसे ग्यारह वर्ष की उम्र में किसी आकस्मिक दोपहर की तरह पता चली. यही उसकी लेखनी के भीतर सियासी की वह प्रकंपित थरथराहट थी, जो भूकंप की ग्रैविटी लिए थी. यह सिर्फ़ धर्म का रहस्य नहीं था. यह छिपी हुई मानवता का रहस्य था. एक ऐसे देश में, जहाँ अस्मिताएँ भूमिगत सुरंगों की तरह रहती थीं. अदृश्य, लेकिन मौजूद. इस रहस्य ने उसकी भाषा में एक स्थायी प्रकंपन छोड़ दिया. जैसे हर वाक्य उस छिपे हुए नाम की प्रतिध्वनि हो.
वे जब एलन गिन्सबर्ग के न्यूयॉर्क अपार्टमेंट में रहे तो वह दृश्य किसी असंभव गठजोड़ का था. एक पूर्वी यूरोपीय आत्मा, जो अपनी भाषा के भीतर कैद थी और एक अमेरिकी कवि, जो अराजकता से प्रेम करता था. लेकिन वहीं उन किताबों के बीच धुएँ और संवादों के भीतर उनकी अद्भुत कृति “वॉर एंड वार” ने आकार लिया. यह एक ऐसी किताब थी, जिसे उन्होंने लिखा नहीं, निकाला था. जैसे आत्मा में गड़ा कोई काँटा खींचकर निकाला जाता है.
कम्युनिस्ट शासन के वर्षों में उनका पासपोर्ट जब्त होना केवल राजनीतिक घटना भर नहीं थी. यह साहित्यिक प्रतीक था. एक लेखक, जो अपने देश से बाहर नहीं जा सकता था, अपने भीतर इतना गहरे उतरने लग गया था कि वहाँ तक शायद ही कोई देशवासी पहुँचा हो. लेकिन 1990 के बाद जब वह एशिये पहुँचे, क्योटो की बारिशों में, मंगोलिया के शांत क्षितिज पर, तो उनके गद्य में पूर्वी मौन का व्याकरण और जुड़ गया. उसकी किताब “डिस्ट्रक्शन एंड सॉरो बिनथ दॅ हैवेन्स” में यही मौन घूर्णन करता है. जैसे वह बौद्ध विहार में ठहरे किसी पश्चिमी प्रेमिल प्रेत की नोटबुक हो.
और उनकी भाषा को देखें तो वह फुल स्टॉप को मानो नकारने की कला है. उनका हर वाक्य एक सर्प की तरह है, जो अपनी पूँछ को निगल जाने का आदी है. एक ऐसी विलक्षण निरंतरता और ऐसा वेगवान प्रवाह, जो पाठक को षड्दर्शन के पाठ की तरह थका और ऊबा देता है; लेकिन अंत में वही थकान गहन अनुभूति बन जाती है. क्रॉस्नॉहोरकै के बारे में सुसान सोंटैग ने वाक़ई सही कहा था कि “वे समकालीन हंगेरियन प्रलय के रचयिता हैं.” लेकिन अब लगता है, वह प्रलय नहीं, पश्चाताप लिखता है. गोगोल की पागलपन भरी नैतिकता और मेलविल के असंभव एकाकीपन के बीच की गहरी खाइयों में. उनका एकांत संतलास्लो की पहाड़ियों में केवल भौगोलिक नहीं है; यह एक बौद्धिक तपस्या है. उन्होंने विवाह किए, प्रेम किए, बेटियाँ पाईं; लेकिन हर बार प्रेम उनके लेखन की तरह ही रहा. लंबा, असमाप्त और विरामविहीन.
हंगेरियन फ़िल्म निर्माता और निर्देशक बेला टार के साथ उनकी साझेदारी ने उनके शब्दों को छवियों में बदल दिया. जैसे दर्शन कैमरे में रूपांतरित हो गया हो. और जब उन्होंने “दॅ टूरिन हॉर्स” को अंतिम कहा तो शायद वह केवल फिल्म की नहीं, स्वयं की निरंतरता की समाप्ति की भी घोषणा कर रहे थे. उनका हर सहयोग; चाहे वह चित्रकार मैक्स न्यूमैन के साथ हो या बर्लिन में प्रदर्शित “मेलैंकोली ऑव रेज़िस्टेंस” के ओपेरा में उसी एक प्रश्न की अनुगूंज है, जो उनके जीवन की गहराई में है. एक प्रश्न जो उनके साहित्य के अध्ययन के बाद उठता है, “क्या मनुष्य अपनी ही भाषा में निर्वासित हो सकता है?” और यही, शायद, हंगेरियन साहित्य की महत्ता है कि वहाँ हर लेखक अपने ही शब्दों में खो जाता है, और फिर भी, कोई उसे ढूँढ लेता है.

क्रॉस्नॉहोरकै को पढ़ते हुए हमें न केवल एक उपन्यासकार, निराशा के एक ब्रह्मांड विज्ञानी का भी आभास और एहसास होता है. वह ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखता है, जो मानवीय निरर्थकता के गुरुत्वाकर्षणीय क्षेत्रों का मानचित्रण करता है. वह पवित्र बेतुकेपन की उस मध्ययूरोपीय परंपरा से ताल्लुक रखते हैं, जहाँ काफ़्का के नौकरशाही के ख़ौफ़, थॉमस बर्नहार्ड की गोल-मोल बातें, मुसिल का भूतिया तर्कवाद याद आने लगता है. व्यंग्य और ग्रोटेस्क से भरी उनकी रचनाएँ कमाल हैं. वे समकालीन संगीत को पसंद करते हैं और आतंक की भावना को अपने फिक्शन में पिरोते हैं. वह उस परंपरा को एक तरह के आध्यात्मिक जैज़ में बदल देते हैं. पुनरावर्तीय, मंत्रमुग्ध करने वाला और अजीब तरह से सांत्वना प्रदत्त करने वाला. उनका सर्वनाश शून्यवाद नहीं, एक ख़ास तरह का रहस्योद्घाटन है. दरअसल, वे यह साबित करने के लिए लिखते हैं कि अर्थ का अंत भी सुंदर हो सकता है, अगर उसे पर्याप्त दक्षता, सटीक यथार्थ और रूहानी सौंदर्यबोध के साथ प्रस्तुत किया जाए.(लेखक कवि, कथाकार और पत्रकार हैं. हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय के पूर्व एडजंक्ट प्रोफ़ेसर.)
और अंत में
क्या यह किसी हंगेरियन साहित्यकार को पहला नोबेल है?
साल 2025 में साहित्य के नोबेल पाने वाले संभावित साहित्यकारों के लिए पूरी दुनिया में उत्कंठा थी. पिछले कई दिन से संवेदनात्मक ज्ञान-अनुभव वाले अंतरराष्ट्रीय साहित्यकारों के बारे में जानने के लिए बहुत कुछ खंगाला जा रहा था. लेकिन जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा है, अनुभवात्मक ज्ञान-संवेदन समूची चेतना की आग पीता है”, नोबेल पुरस्कार किसी ऐसे ही साहित्यकार को मिलेगा, जो इस दुनिया में पसरे अंधेरे और उजाले के भयानक द्वंदव की सारी व्यथा जीकर लरजते लफ़्ज़ों का लालित्य रच चुका होगा और यह यात्रा सुदीर्घ भी रही होगी.
अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ वेबसाइट्स पर जब यह समाचार देखा कि इस बार का साहित्य का नोबेल पुरस्कार ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै को मिला है तो मन में एक अजीब-सी सुलगती भटकती थरथराहट भीतर दौड़ गई. साहित्य के 2025 के नोबेल पुरस्कार की घोषणा नोबेल समिति ने गुरुवार 9 अक्तूबर 2025 को दिन के एक बजे यानी भारतीय समय के अनुसार अपराह्न साढ़े चार बजे की थी.
मैंने नाम सुना ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै. जैसे जीवनाशाओं के किसी भूले हुए ज़ुगराफ़िए पर अचानक कोई जलधारा छलछलाकर चमक उठी हो. यह सोचना स्वाभाविक ही था, “अच्छा तो हंगरी एक बार फिर स्टॉकहोम पहुँच गया!” क्योंकि मेरे मन के जाले लगे अंधेरे बक्से में, जहाँ अज्ञान और मध्य यूरोप की धूल अब भी इफ़रात से जमी है, हंगरी और हंगेरियन भाषा हमेशा से विश्व साहित्य की एक उदार जननी रहे हैं, जिन्होंने दुनिया को अनगिनत साहित्यिक संततियाँ दी हैं. मुझे विश्वास था कि हंगरी की भाषा में तो चार–छह नोबेल पहले ही दमक रहे होंगे. लेकिन पत्रकारिता के फाइव डब्लू और एक ऐच को अब भी सावधानी से सामने रखने के कारण तथ्यों को पुष्ट करने की रोशनी जलाई तो मेरा भ्रम उसी क्षण टूट गया और मैंने इस लिखे हुए लेख के शुरू में ही दूसरे के बजाय “पहले”शब्द जोड़ दिया.
बहुत सी वेबसाइट ऐसी थीं, जिनमें पूरी सूची थी कि किस-किस देश के गले में कितने-कितने नोबेल पुरस्कार वाले मेडल दोलायमान हैं. कुछ सूचनाएं कह रही थीं कि हंगेरियन भाषा में यह सम्मान अब तक केवल एक लेखक को मिला था. नाम था इमरे कर्टेज़. लेकिन बेशुमार सूचनाओं की नील कुहर धुंध में झांकना शुरू किया तो कहानी और दिलचस्प होती चली गई; क्योंकि यह “हंगेरियन” नोबेल-प्राप्त लेखक स्वयं को हंगेरियन मानते ही नहीं थे. दॅ पैरिस रिव्यू में उनका एक लंबा साक्षात्कार बहुत ही ज्ञानवर्धक था, जिसमें वे अपने आपको बुडापेस्ट का नहीं, बर्लिन का वासी बताते हैं.
एक साक्षात्कार में, जो बुडापेस्ट की गलियों में नहीं बर्लिन के चार्लोटनबर्ग की खिड़कियों से छनती धूप में हुआ था, कर्टेज़ ने निश्चिंत स्वर में बार-बार कहा था :
“मैं बर्लिन से हूँ.”
“मैं बर्लिन से हूँ.”
“मैं बर्लिन से हूँ.”
साक्षात्कार लेने वाला पत्रकार चौंका; “लेकिन आप तो बुडापेस्ट के हैं. हैं न?”
कर्टेज़ मुस्कुराए. एक ऐसी मुस्कान, जिसमें नाज़ी कैंपों की राख और निर्वासन का तिरस्कार दोनों झिलमिला रहे थे.
इमरे कर्टेज़ कहते हैं :
“मेरे प्रिय, आप बहुत पढ़ते हैं. बुडापेस्ट अब कोई महानगर नहीं रहा. वह धीरे–धीरे बाल्कन में बदल चुका है. एक सच्चा महानगर केवल बर्लिन हो सकता है.”
यहीं से आरंभ होती है अंधेरों में डूबे निर्वासन की यात्रा; कर्टेज़ के लिए बर्लिन सिर्फ़ शहर नहीं था, नैतिक आवृत्ति था. वे बोले,“बर्लिन दुनिया की सांगीतिक राजधानी है. मैं जब बुडापेस्ट में था तो संगीत सुनने के लिए मुझे बाथरूम में छोटे ट्रांजिस्टर रेडियो के साथ बैठना पड़ता था. यहाँ तीन ओपेरा हाउस हैं, जहाँ जब चाहूँ जा सकता हूँ.”
यह किसी देशप्रेम का नहीं, स्वर और स्वतंत्रता का प्रेम था. एक ऐसे नागरिक का प्रेम, जो मातृभूमि से नहीं, उसकी ध्वनियों से निर्वासित हुआ था.
नोबेल समिति ने जब 2002 में घोषणा की कि “साहित्य का यह सम्मान हंगरी के पहले लेखक इमरे कर्टेज़ को” तो वाक़ई वे तकनीकी रूप से सही थे, जैसे कि इस लेख के कई पाठक अपने वैदुष्य से दर्शा ही रहे हैं, पर अस्तित्व की दृष्टि से मुझे प्रतीत हुआ था कि यह बात ग़लत है. कर्टेज़ तो बहुत पहले ही अपने देश, उसकी भाषा और उसकी आत्मा से बहुत परे जा चुके थे. यह सही है कि उनकी चेतना ने हंगेरियन अँधेरे आईन में ही अपना सिर उठाना सीखा था, लेकिन उनके साहित्य में आम्र-तरु-मधु-मंजरी की सी गंध अपने राष्ट्र से मोहभंग के बाद ही पैदा हुई. अब आप उन्हें हंगेरियन कहें या न कहें, यह फ़ैसला तर्क-वितर्क और ज़िद से परे है.
इमरे कर्टेज़ के बाद मेरे सामने थे ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै. क्रॉस्नॉहोरकै वह रहस्यमय बारोक कथाकार हैं, जो हंगेरियन भाषा में ऐसे रचते हैं जैसे वह धीरे-धीरे अपने ही मठ के भीतर ध्वस्त होता कोई धर्मस्थल हो. उनकी वाक्य-रचना डैन्यूब की तरह लंबी, बहती हुई और तूफ़ानी है; जैसे शब्द किसी ब्रह्मांडीय थकान से काँप और लरज रहे हों. और कर्टेज़ एक भूलभुलैया के जीवित बचने वाले थे, जबकि क्रॉस्नॉहोरकै उसी भूलभुलैया के स्थापत्यकार हैं.
यदि हम भाषा और आत्मा दोनों के ज़ुगराफ़िये को समझें तो कहना होगा कि कर्टेज़ बर्लिन के नागरिक थे और क्रॉस्नॉहोरकै हंगरी की आत्मा के. और इसी कारण मुझे लगा कि“हंगरी के पहले सच्चे साहित्यिक नोबेल विजेता कर्टेज़ नहीं, क्रॉस्नॉहोरकै हैं.”क्योंकि कर्टेज़ तो डैन्यूब छोड़ चुके थे, बहुत पहले; जब तक स्टॉकहोम का फ़ोन बजा. मैं इस तथ्य को भी उस लेख में ले आना चाहता था; लेकिन मैं बहुत लंबे लेखों के कारण बदनाम हूँ तो सोचा कि इतना पर्याप्त होगा कि हम सिर्फ़ क्रॉस्नॉहोरकै की ही बात करें. इमरे कर्टेज़ को तो चौथाई सदी के लगभग हुआ; लेकिन मुझे ख़याल न था कि साहित्य के मंगल-लोक में इमरे कर्टेज़ के नाम का रक्त तारे सा आज भी और अब भी उसी तरह चमचमाता है.
क्रॉस्नॉहोरकै की सृजन यात्रा
उपन्यास (उपन्यास):
- शतांतांगो (1985; अंग्रेज़ी: शतंतांगो, 2012)
- अज़ एलेनल्लास मेलांक़ोलियाजा (1989; अंग्रेज़ी: द मेलांचोली ऑफ़ रेसिस्टेंस, 1998)
- अज़ उरगाई फोगोली (1992; अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध नहीं, लेकिन यह मंगोलिया और चीन की यात्राओं से प्रेरित है)
- हाबोरू एस हाबोरू (1999; अंग्रेज़ी: वार & वार, 2006)
- एस्ज़ाक्रोल हेगी, डेल्रोल तो, न्युगत्रोल उताक, केलत्रोल फ्लोयो (2003; अंग्रेज़ी: ए माउंटेन टू द नॉर्थ, अ लेक टू द साउथ, पाथ्स टू द वेस्ट, अ रिवर टू द ईस्ट, 2022)
- बारो वेंक्हाइम हाज़ातेर (2016; अंग्रेज़ी: बारोन वेंक्हाइम’स होमकमिंग, 2019)
- हर्श्ट 07769: फ्लोरियन हर्श्ट बाक-रेगेने (2021; अंग्रेज़ी: हर्श्ट 07769: ए नोवल, 2024)
लघु कथा संग्रह और नवेलाएँ (लघु कथा संग्रह और नवेलाएँ):
- केगेयेल्मी विसोन्योक: हालाल्नोवेल्लाक (1986; नवेला संग्रह)
- मेजगॉट एज़साइआस (1998; नवेला)
- सिओबो जैर्त ओडलेंट (2008; लघु कथा संग्रह; अंग्रेज़ी: सिओबो देयर बिलो, 2013)
- अज़ उटोल्सो फ़ार्कास (2009; नवेला; अंग्रेज़ी: द लास्ट वुल्फ, 2016 – द लास्ट वुल्फ एंड हरमन का हिस्सा)
- मेगी अ विलाग (2013; लघु कथा संग्रह; अंग्रेज़ी: द वर्ल्ड गोस ऑन, 2017)
- अप्रॉमुंका एग्य पलोटाएर्ट: बेजाराश मासोक ओरुलेतेब (2018; नवेला; अंग्रेज़ी: स्पेडवर्क फॉर अ पैलेस: एंटरिंग द मैडनेस ऑफ़ अदर्स, 2020)
- ज़्सोम्ले ओडवान (2024; नवेला)

निबंध, रिपोर्टेज आदि
- ए थेसियस-आल्टलानोस: टिटकोस अकादेमाई एलोआदाशोक (1993; निबंध)
- एस्टे हट, नेहान्यु स्ज़बाड मेग्न्यिताश: मुवेज़ेटी इराशोक (2001; कला लेखन)
- रोमबोलास बानात अज़ एग अलतत (2004; रिपोर्टेज; अंग्रेज़ी: डेस्ट्रक्शन एंड सॉरो बेनिथ द हेवेन्स, 2016)
- आल्लातवानबेंट (2010; मैक्स न्यूमैन के साथ सहयोगी कार्य; अंग्रेज़ी: एनिमलइनसाइड, 2010)
- नेम केरडेज़, नेम वालसोल: हुजोनज़ेत बेज़्गेलेटेस, उज्यानारुल (2012; साक्षात्कार)
- ए मैनहट्टन-तेर्व (2018; साहित्यिक डायरी; अंग्रेज़ी: द मैनहट्टन प्रोजेक्ट, 2017)
- मिंदीग होमेरोज़नक (2019; मैक्स न्यूमैन और मिक्लोस सिल्वेस्टर के साथ; अंग्रेज़ी: चेज़िंग होमर, 2021)
त्रिभुवन श्रीगंगानगर (राजस्थान)लेखक और वरिष्ठ पत्रकारकविता-संग्रह ‘कुछ इस तरह आना’ तथा लम्बी कविता ‘शूद्र’ प्रकाशित. जयपुर में रहते हैं. |

श्रीगंगानगर (राजस्थान)लेखक और वरिष्ठ पत्रकार


इतने कम समय में इतना सारगर्भित लेख?????
त्रिभुवन जी ने इस अंक में अनन्य शब्दों का उपयोग किया । वाक्य कलाकृतियाँ । सम्मोहन ने पढ़ा लिया । नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक का नाम याद नहीं तो लिखूँ किस विध । सोवियत युग के समापन के बाद का संसार मुक्ति देता प्रतीत होता है । जबकि कहीं कहीं अध्यात्म भी मुक्ति से इनकार करता है । त्रासदियाँ हर वक़्त घटित होती हैं ।
लंबे शाट्स उदास करते हैं । कभी प्रकंपन और भय भी । लेकिन छाया में कई कृतियाँ बनती हैं ।
क्रिया में दफ़नाना प्रयोग होता है । लेकिन दफ़्न [अरबी पुलिंग] विशेषण है । कोशकार मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ाँ के उर्दू-हिन्दी शब्दकोश में ३२३ वें पेज के पहले कॉलम में ऊपर से नीचे तीसरा शब्द ।
दो बार लिख चुका । डन करते ही ऑटोफ़िल भी दिखाया । ग़ायब हो गया । उम्मीद है कि टीप जुड़ गई होगी ।
इतना लिख देता हूँ कि दफ़नाना क्रिया है और दफ़न विशेषण ।
उर्दू-हिंदी शब्दकोश के कोशकार मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ाँ के शब्दकोश में ३२३ वें पेज के पहले कॉलम में ऊपर से नीचे तीसरा शब्द ।
अत्यंत महत्वपूर्ण और सारगर्भित समीक्षा है। बधाई
ताज्जुब है त्रिभुवन जी ने इतनी जल्दी इस लेखक को हिन्दी पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया। सम्भवतः वे पहले ही से इस पर काम कर चुके थे। सघन सुचिंतित प्रस्तुति।
नोबेल पुरस्कृत इस लेखक को अधिक पढ़ा नहीं गया है। हम में से अधिकांश उन्हें Bela Tarr की फिल्मों की वजह से जानते हैं।
उम्मीद है इनकी कुछ कृतियों के अनुवाद हिंदी में भी होंगे।
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हंगरी के पुरस्कृत साहित्यकार के कृतित्व पर ऐसा गंभीर विश्लेषणात्मक आलेख लिखने के लिए Tribhuvan जी त्रिभुवन जी को बहुत-बहुत बधाई।👏🎊👌🌹
आम पाठकों के लिए उन्होंने सूचना का वातायन खोल दिया। समालोचन को भी साधुवाद! 👍
इतने कम समय में लेखक के अवदान पर पर्याप्त गहराई लिए ऐसा आलेख करिश्मा सा लगता है। त्रिभुवन जी और समालोचन दोनों को सलाम
बढ़िया ! कुछ पता तो चला कि महाशय कौन हैं और क्या लिखते रहे हैं।
जब उनकी सभ्यता ने निराशा का ब्रह्माण्ड रच ही दिया तो वे उसे काग़ज़ पर उतारने के सिवा और करते भी साहब। !
इस तत्काल प्रस्तुति के लिए प्रंशसा।
बधाई। और धन्यवाद।
लास्लो और उनके लेखन के बारे में जानकारी हासिल करना चाह रहे हिन्दी पाठक के लिए त्रिभुवन जी ने बहुत महत्वपूर्ण काम कर दिया है। इस आलेख के शुरुआती तीन वाक्य ही लास्लो के व्यक्तित्व और उनकी साहित्य यात्रा का निचोड़ पाठक के सामने रख देते हैं। ऐसे आलेखों से ही समालोचन की उपादेयता लगातार बढ़ रही है।
इतनी जल्दी और इतनी सारगर्भित समीक्षा बार बार पढ़ने का आग्रह लेकर आती है । मैने उनका कोई साहित्य नहीं पढ़ा है लेकिन समीक्षा पढ़ने के बाद स्वयं को लानत महसूस हो रही है । अपने उनके साहित्य को निचोड़ के रख दिया है । धन्यवाद और नमस्कार ।
It is a very appropriate selection ,thanks Samalochna and Tribhuvan ji for bringing it to Hindi bhashi readers Art is the hope in this troubled time which can show us a path of togetherness, tolllerence ,coexistence, and love which are essential ingradients of world peace .
Shailendra Tiwari
Bhopal
त्रिभुवन जी, बहुत ही विस्तृत जानकारी आपने अपनी शानदार शैली में दी, आपको साधुवाद
राजनीति, साहित्य,भाषा,कविता और पत्रकारिता की गहरी समझ रखने वाले त्रिभुवन सर बहुपठ कवि और लेखक हैं। साहित्य,योग,अध्यात्म,जीवन,राजनीति, समाज,संगीत,सिनेमा ,हर विषय पर उन्होंने कमाल का लिखा है।किसी भी विषय पर उनका लिखा और कहा, हमें समृद्ध करता है। उनका लेखन सीखने की जगह है।इस सुचिंतित-सुंदर आलेख के लिए त्रिभुवन सर और समालोचन का बहुत-बहुत आभार।
इतने कम समय में नोबल विजेता ला :सलो क्रास्नोहोर्कै के लेखन की समालोचन में जिस प्रकार त्रिभुवन जी ने समीक्षा की है मानो वे लेखक का कृतित्व निचोड़ रहे हैं.. त्रिभुवन जी और समालोचन इसके लिए बधाई के पात्र हैं.
आलेख में नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सघनता से विस्तारपूर्वक लिखा गया है जैसे गागर में सागर भर दिया गया हो।
इतने सूचनाप्रद आलेख के लिए बहुत धन्यवाद।
प्रतिष्ठित और विद्वान् पत्रकार त्रिभुवन जी का आलेख आलोचना का महत्त्वपूर्ण निदर्शन है। भाषा और वैचारिकी गलबहियाँ करते हुए प्रवहित होती है । जिस लेखक का वाक्य विन्यास सुदीर्घ होने के लिए
प्रसिद्ध है, उस पर यदि आलेख दीर्घाकारक हो जाये तो यह स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। हमारी उत्कट उत्कण्ठा का आपने
सर्वथा शमन किया, हार्दिक बधाई और अभिनन्दन
आलेख में नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सघनता से विस्तारपूर्वक लिखा गया है जैसे गागर में सागर भर दिया गया हो।
इतने सूचनाप्रद आलेख के लिए बहुत धन्यवाद।
इतना विस्तृत और रुचिकर आलेख…! धन्यवाद सर
नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद।
Reply
धन्यवाद त्रिभुवन सर 🙏 itni acchi jankari dene ke liye नोबेल पुरस्कार से जुड़ी
त्रिभुवन जी के भुवन व्यापी अध्ययन की तात्कालिक प्रस्तुति से विस्मित हूँ, मानो वे लास्लो क्रास्नाहोरकाई के नोबेल पुरस्कार मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे और नोबेल विजेता होते ही विस्फोटक पटाखे फोड़ दिए। जैसे रंगों के विन्यास तथा सौन्दर्य के स्थिर और गतिशील चित्रों के अपूर्व बंधान और चाक्षुष बिम्बों की आनुभूतिक सत्ता के कारण ही यह स्थापना पुष्ट होती है कि सूरदास जन्मान्ध नहीं थे। भाषा का यह नवाचार, अनोखापन और अदृष्ट पूर्व ताजगी और उसके जादुई विन्यास का यह सम्मोहन अब ‘समालोचन’ का स्वभाव बन गया है, जो उसकी नई संवेदना को सूचित करता है। हिन्दी विश्व के उच्चतम स्तर के साक्षात्कार के कारण समालोचन आज हिन्दी का अद्वितीय मंच बन गया है। यह हमें निरन्तर अपडेट और समृद्ध करता है।
नये नोबेल पुरस्कार विजेता पर इतनी शीघ्र ऐसा आलेख!…. विहंगम दृष्टि डाली।विशेष पढ़ने पर। धन्यवाद, त्रिभुवन सर! अपनी भाषा में आसानी से समझेंगे👏🙏
आदरणीय त्रिभुवन जी का आलेख बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। इससे सीधे तौर पर नोबल पुरस्कार से सम्मानित कवि के लेखन को समझने में आसानी हुई है। एक तरह से इसमें उनके समूचे कृतित्व को पटल लाकर रख दिया है। इतनी शीघ्रता से गहन अभिव्यक्ति के लिए आपका आभार। अरविंद मिश्र, अवधपुरी, भोपाल (म.प्र.)
अद्भुत लेखन शैली! बहुत समय बाद ऐसी कृति के रसास्वादन का अवसर मिला। यकीन मानिए पहली पंक्ति तो यूं ही पढ़ना प्रारंभ किया किन्तु लेख की अंतिम शब्द पढ़ने तक खुद को रोक नहीं सका मानो समय ठहर गया हो।
आपका आभार, सादर अभिवादन!