साहित्य का नैतिक दिशा सूचक त्रिभुवन |
मी टू की लहर देश के शहरों से लेकर गाँवों ही नहीं, रिश्तों और संस्थानों की छायाओं तक में उतर चुकी थी. एक गाँव में एक संजीदा बुज़ुर्ग महिला ने मुझसे पूछा:
‘कोई पढ़ी-लिखी लड़की और वह भी पत्रकार और पत्रकार भी अंग़रेज़ी अख़बार की हो तो ये इतने साल चुप कैसे रह सकती है? उसमें अपने साथ हुए अन्याय को सामने लाने का साहस नहीं तो समाज की तहों में दबे–छुपे अत्याचारों को वह कैसे उजागर करेगी?’
उन दमकती बूढ़ी आँखों में संदेह नहीं था, सदियों से संचित विडंबना थी, जिसने स्त्री को न्याय नहीं, चुप्पी का उत्तराधिकार सौंपा है.
मनोवैज्ञानिक जूडिथ हरमन कहती हैं,
“ट्रॉमा इज़ नॉट सिम्पली अ पर्सनल वूंड; इट इज़ अ सोशल साइलेंस.”
दरअसल, यौन हादसों के बाद स्त्री की चुप्पी कायरता नहीं है. वह सामाजिक-संवेदी तंत्र है, जो उसे सत्य से काट देता है. बोलना यानी समूचे वजूद और आज़ादियों को दांव पर लगाना. बाहर निकलो ही मत जैसे आदेशात्मक स्वर, जो पिता, पुत्र या भाई की तरफ से बहुत प्रबल भाषा में आते हैं. यह “लॉस ऑफ़ वॉइस” है.
वे लड़कियाँ पहली बार अपने घरों से बाहर आईं, पिता की सहमति, भाई की निगरानी और सामाजिक संदिग्धता के साये में तो उनके पास नौकरी थी; लेकिन स्वतंत्रता नहीं. एक अदृश्य रेखा उन्हें हर कदम पर चेताती थी कि बोलोगी तो सब छिन जाएगा. वह क्षण जब एक लड़की को यह सिखा दिया जाता है कि बोलना ख़तरनाक़ है. विरोध अस्वीकार्य है. और सबसे पहले उसे अपने ही शरीर के ख़िलाफ़ शर्मिंदा होना होगा.
यौन शुचितावादी समाज में किसी स्त्री का यौन उत्पीड़न के बाद जो हाल होता है, उसे वही समझ सकती है. यह एक तरह की पॉइज़नस पेडागॉजी है. एक कथित सामाजिक सीख जो आत्मसम्मान को अपराधबोध में बदल देती है. लेकिन जब वे पैरों पर खड़ी हो गईं, आर्थिक स्वतंत्रता ने भय की ज़ंजीरें तोड़ीं, शब्दों पर अधिकार लौटा, तब उनकी दमित चुप्पियों ने मौक़ा मिलते ही एक ताक़तवर आवाज़ में बदल दिया. मी टू का हासिल यही है.
वह बुज़ुर्ग महिला कहने लगीं, औरत के पक्ष वाली बातों को अक्सर जानबूझकर उकसाने वाला, बाधा डालने वाला और ख़तरनाक समझा जाता है; क्योंकि यह पितृसत्ता की शांत और आरामदायक व्यवस्था को बाधित करता है. स्त्रियाँ बोलना शुरू करती हैं तो वे केवल अपने अपराधियों को नहीं ललकारतीं, वे पूरे उस नैतिक तंत्र को चुनौती देती हैं, जिसमें चुप्पी को गरिमा और प्रतिरोध को असहिष्णुता की एक स्त्री विरोधी संस्कृति का निर्माण कर रखा है. इसका अर्थ यह नहीं कि जो पहले नहीं बोल पाईं, वे कमतर थीं.
उन्होंने जैसे ही यह जाना कि वे नागरिक हैं, मनुष्य हैं और उनके अस्तित्व का एक स्वतंत्र मूल्य है, उन्होंने बोलने का नैतिक साहस अर्जित कर लिया. तो यह न्यायबोध और शक्तिबोध बहुत ज़रूरी है. यह हमें यह सिखाता है कि हर लड़की को बचपन से ही यह एहसास दिलाया जाना चाहिए कि वह सिर्फ़ किसी की बेटी या बहन नहीं, वह एक नागरिक है. उसका एक स्वतंत्र और संवैधानिक अस्तित्व है और यदि उसके साथ अन्याय होता है तो वह तत्काल, निर्भीक प्रतिक्रिया दे सकती है. बिना इस डर के कि वह कुछ खो देगी.
लड़कियों के ड्रॉप आउट कारणों को लेकर एक स्टोरी करने मैं जब गाँव में उन बुज़ुर्ग महिला से बात कर रहा था तो मैंने शहरी संभ्रांत महिलाओं की परिस्थितियों का विस्तार से ज़िक्र किया. वे बोलीं, हमें एक बार ठहरकर एक विपरीत उदाहरण देखना चाहिए. वह बता रही थीं, सुबह-सुबह किसी कस्बे या शहर की किसी बस्ती में प्रवेश कीजिए या नगर निगम की उन सफाई कर्मी महिलाओं के साथ चलिए जो शहर के जागने से पहले अलसुबह सड़कों को बुहारती हैं. यह उच्च शिक्षित और साहित्य जगत की स्त्रियों के लिए एक नज़ीर भी है.
यहाँ अगर कोई महिला, जो किसी स्वच्छता कर्म से जुड़े समुदाय से है, जो सस्ती साड़ी में लिपटी है; लेकिन बहुत सलीक़े और सुंदरता के साथ है; लेकिन आप ध्यान से देखेंगे तो आपको उनके भीतर पीढ़ियों की एक आग-सी दहकती दिखाई देगी. मज़ाल है, उनसे कोई छेड़छाड़ कर ले. आपको मालूम है, वे कैसी प्रतिक्रिया देती हैं और कैसे देती हैं? क्या वह शर्म से चुप रहती हैं? क्या वह न्याय की प्रतीक्षा करती हैं? क्या वह केवल कानाफूसी करती हैं? नहीं. उसकी प्रतिक्रिया तुरंत और प्रचंड होती है. गालियों की बौछार. झाड़ू एक हथियार में बदल जाता है. एक तमाचा जो सदियों की चुप्पियों को खंडित करता हुआ अपनी अनुगूँज पैदा करता है.
वे बुज़ुर्ग महिला बहुत सुशिक्षित थीं. उनकी पढ़ाई ऐसे ही छेड़छाड़ वाले एक प्रकरण में बीच में छुड़वा दी गई थी. लेकिन औपचारिक शिक्षा से दूर होने के बाद भी वे बहुत पढ़ती थीं. वे धाराप्रवाह रूप से बोल रही थीं, गालियों की बौछार को आभिजात्यवादी बुरा समझते हैं; लेकिन यह एक सुरक्षा कवच भी है. झाड़ू सिर्फ़ झाड़ू ही नहीं, एक हथियार भी है. दुष्ट मर्दाना गाल पर टिका एक तमाचा सदियों की चुप्पी की आवाज़ है. और सबसे अहम बात ये कि इसके बाद विजयी चाल, एक ऐसा आत्मविश्वास जो अपराधी को हिलाकर रख देता है. सबसे महत्वपूर्ण है एक विजयी निगाह, एक गर्वित चाल जो अपराधी को कांपने पर मजबूर कर देती है.
ये महिलाएँ, जो साहित्य में प्रशिक्षित नहीं हैं, स्वाभाविक रूप से वह बात समझती हैं, जिसे कई पढ़ी-लिखी महिलाओं को भुला देने की शिक्षा दी गई है: कि गरिमा किसी से दी नहीं जाती, उसे खुद सुरक्षित रखा जाता है. ऐसा है तो फिर क्यों आज की युवा महिलाएँ, जो तेज़, स्पष्ट और तर्क के साथ बोलने वाली हैं और शिक्षित भी हैं तो ऐसे ही शोषण के सामने दब्बू, चुप और शर्म से झुकी हुई क्यों रहती हैं?
मैं उन्हें सुनते हुए अवाक था और उनके शब्द मुझे उनसे बार-बार सुनकर अपनी नोटबुक में लिखने पड़े. वे ठीक कह रही थीं कि ये महिलाएँ, जिन्हें साहित्य का प्रशिक्षण नहीं मिला, वे यह सहज समझ रखती हैं, जो कई शिक्षित स्त्रियाँ भूल चुकी हैं कि गरिमा दी नहीं जाती, उसे छीना जाता है. तो फिर, क्यों युवा, सशक्त, शिक्षित, साहित्यकार महिलाएँ ऐसे ही दुर्व्यवहार के सामने चुप, डरी और आत्मग्लानि में डूबी रहती हैं. यह पूरा घटनाक्रम मैंने लौटकर कई दिन बाद एक परिचित मनोवैज्ञानिक प्राध्यापक को बताया तो वे बताने लगीं कि हमें रेज़िलिएँट लोअर ऑर्डर्स को समझना होगा. ख़ासकर निचले तबकों की जुझारू स्त्रियों से आती हुई रोशनियों को.

2)
दरअसल, यह समस्या सवर्ण और ब्राह्मणवादी वर्गों से अधिक आती है. इन वर्गों में उनके ये सब तर्क अब साहित्य की कुलीन भाषा बन चुके हैं. उच्चवर्गीय, उच्चशिक्षित परवरिश बहुत प्रारंभ से ही लड़कियों को सिखाती है कि उन्हें ‘शालीन रहना चाहिए’, ‘सहना चाहिए’, ‘उच्च बनकर दिखना चाहिए’ और ‘माहौल ख़राब नहीं करना चाहिए’ भले ही वह माहौल ज़हरीला हो. उन्हें ‘संस्कारी’ बनने की जो ट्रेनिंग दी जाती है, जैसे ‘जिस घर में उसकी डोली गई है, अब वहीं से उसकी अर्थी उठेगी’.
दरअसल, यही उनका सबसे चालाक, शातिराना और परिष्कृत दमन होती है. यह इसलिए होता है कि अगर लड़की ‘संस्कारी’ नहीं हुई तो वह घूंघट में नहीं रहेगी, पति, सास, ससुर आदि के सामने अन्याय को बर्दाश्त नहीं करेगी, अपने पति और भाई-बंधुओं से संपत्ति में हिस्सा मांगेगी. पिता की रॉयल्टी आएगी तो भाई उस हिस्से को हड़प जाएंगे. पिता का जमा किया हुआ धन आएगा तो वह भाई के हिस्से ही आएगा. इसी का नतीजा यह है कि हमें साहित्य, कला, धर्म, संस्कृति, राजनीति, शिक्षा परिसरों और कॉर्पोरेट तक में ऐसी स्त्रियाँ मिलती हैं, जो प्रतिरोध पर लेख लिखती हैं; लेकिन प्रत्यक्ष आक्रमण के समय मौन हो जाती हैं.
अब समय आ गया है कि ये महिलाएँ प्रेरणा कविता से नहीं, सड़क की उन आत्मजयी विद्रोही स्त्रियों से लें, जो सुबह-सुबह झाड़ू उठाकर कचरा साफ़ करती हैं. कचरा बहुत तरह का है और उसे साफ़ करने की ज़रूरत है. अब एनीमा को इवॉल्व करने की ज़रूरत है. वह उग्र हो, निर्लज्ज हो और प्रतिशोधी भी हो. साहित्य केवल कायरता को छिपाने का बहाना नहीं होना चाहिए, बल्कि साहस को गढ़ने की धधकती भट्टी होना चाहिए.
3)
लेकिन चुप्पियाँ कभी संरक्षण नहीं देतीं. वे सिर्फ़ पीड़ा की अवधि बढ़ा देती हैं. वास्तविक संरक्षण अनकंडीशनल पॉज़िटिव रिगार्ड में है. वह जगह, जहाँ कोई लड़की अपनी बात निर्भीकता से कह सके और लोग उसे संजीदगी से सुनें. शोर ज़रूरी है. पर यह शोर लिंचिंग नहीं है. यह हिंसा का शोर नहीं, जागरूकता, प्रतिरोध और नैतिक साहस का शोर है. हीलिंग उसी समय शुरू होती है, जब सत्य को मान लिया जाता है. इसीलिए समवेत नैतिक प्रतिरोध ज़रूरी है.
सामाजिक विकृति के विरुद्ध चेतावनियों की परंपरा नहीं है. अगर एक पूरा समाज पीड़ित की चीख को ‘व्यक्तिगत अनुभव’ कहकर दरकिनार करता है तो वह समाज स्वयं एक अपराध की मौन संगति बन जाता है. एक इंसाफ़पसंद समाज की रचना वहीं से शुरू होती है, जहाँ लड़कियाँ अपने अनुभवों को झूठ नहीं मानतीं और समाज उन्हें “सुनने” से इनकार नहीं करता. वे सभी समाज दमनात्मक संस्कृति के पोषक हैं, जहाँ पीड़ित और शोषित को यह लगता है कि उनकी बात सुनेगा ही कौन?
और कोई लड़की जब निर्भीक होकर कहती है, यह मेरी आवाज़ है. यह मेरा सच है. और जब समाज की प्रतिक्रिया हाँ हम सुनते हैं और हम तुम्हारे साथ हैं तो यही पहला प्रतिरोध है और यहीं से शुरू होता है एक न्यायपूर्ण और करुणामूलक समाज. अगर कोई उत्पीड़क घटना गर्दन झुकाए, शर्मसार होकर चुप्पी साधे बैठी रहे तो उस समाज का हृदय किसी काली शिला से अलग कुछ नहीं. आप उस पर चाहे कितनी भी लाल–केसर लगाओ.
4)
यौन अपराध एक घटना नहीं, घनीभूत डरावना सन्नाटा है. इसे न तो भाषा से व्यक्त किया जा सकता, न कोई न्यायपीठ इसे परिभाषित कर सकी. यह अपराध भर नहीं, अपराधी का आत्मिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षरण है. पीड़िता के लिए यह आत्मा के उस कोने पर वार है, जहाँ वह अपने सबसे निजी और सबसे निष्कलुष भरोसे को सहेज कर रखती है. यह ट्रॉमा जीवन तंतुओं को जोड़कर रखने वाली आंतरिक जिजीविषा प्रणाली को चकनाचूर कर देता है.
यौन हिंसा में जीवन के वे समस्त तंतु एक ही क्षण में टूट जाते हैं, जिनमें अर्थ, संबंध और सुरक्षा की ऊष्मा बंधी होती है. यह देह पर नहीं, ‘स्व’ पर आघात है. यह शरीर भर नहीं, आत्मा की सीमाओं को खंडित करता है. यह वह वार है जो त्वचा के नीचे, मांसपेशियों के भीतर और भाषा से परे एक स्थायी दरार बना देता है. यह आत्मा के यथार्थ से किया गया बिट्रायल है. और इस विश्वासघात की गूंज किसी चिल्लाहट से नहीं होती, वह तो एक मौन चीख होती है, जो भीतर बजती रहती है अनन्त प्रतिध्वनि की तरह.
यह नैरेटिव आइडेंटिटी की क्षति है. पीड़िता केवल अपनी देह का नहीं, अपने होने की कहानी का भी अपहरण झेलती है. उसे ऐसा करके पीड़ित नहीं किया जाता, अपराध की ज़मीन बनाने की कोशिश की जाती है, जहाँ समाज एक नाम, एक चेहरा और एक सपना चुपचाप मिटा देता है. यौन दुर्व्यवहार वह अंधकार है, जो केवल एक बार नहीं, हर याद में, हर सांस में, हर मौन में दोहराया जाता है. हर बार जब वह अपनी बची हुई गरिमा को समेटकर आगे बढ़ती है, तब भीतर कुछ और गिर जाता है और कुछ और स्थायी रूप से मर जाता है.
यह एक तरह से एथिक्स ऑव केयर रैप्चर्ड है. वह क्षण जब देखभाल और कोमलता की जगह भय और लज्जा ले लेते हैं. फेमिनिस्ट ग्रीफ़ क्षण विशेष के ज़ख़्मों का शोक नहीं, अपितु यह उस गहरी चुप्पी का इंपोज़ भी है, जो पीड़िता के हिस्से आता है. हम देख रहे हैं कि समाज के कुछ हिस्से उस चुप्पी को न केवल सुनने से इंकार करते हैं, वे तरह-तरह के प्रश्न भी करते हैं. हम देखते हैं कि इस तरह की स्थितियाँ किस प्रकार अपराध से भी ज़्यादा क्रूर हो उठती हैं और इन हालात में पीड़िता एक बार नहीं, बार–बार मरती है.
सबसे भयावह यह नहीं कि वह हो गया, यह है कि वह हुआ और तुम चुप रहो. एक बहुत बड़ा कवि अवसाद में आ जाएगा. वह आत्महत्या भी कर सकता है. और इस मानसिकता से गुजर रही पीड़िता के बजाय जब लोग उत्पीड़क की मन:स्थिति की चिंता करने लगें तो यह पत्थर के भी बोल उठने की ज़रूरत वाला क्षण है.

5)
इस देश में हर दिन कोई न कोई बच्ची यौन हिंसा का शिकार होती है. आंकड़ों के भीतर दबी इन कहानियों के पीछे असली चेहरे, रिश्ते और खंडित आत्माएँ होती हैं. लेकिन मुझे कुछ साल पुरानी एक घटना याद आ रही है, जो यौन उत्पीड़न की गंभीरता के हिसाब से किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर देने वाली थी.
6)
एक दिन मोबाइल पर कॉल थी. कॉलर एक अपराधी था और जेल से पैरोल पर आया हुआ था. वह बलात्कार में सज़ायाफ़्ता किसी साथी बंदी का संदेश लेकर आया था कि उसकी किशोर बेटी के साथ हुए यौन दुर्व्यवहार के मामले में मदद की जाए. उसकी बेटी आठवीं की छात्रा है, जो शतरंज की अच्छी खिलाड़ी है. वह एक प्रतियोगिता के लिए अपने शतरंज प्रशिक्षक के साथ एक अन्य राज्य गई थी. वहीं, उस उम्रदराज़ कानूनविद प्रशिक्षक ने एक रात उस किशोरी के साथ यौन उत्पीड़न की कोशिश की.
जेल में बंद उस यौन अपराधी की आवाज़ में कोई घमंड नहीं था. वह बुरी तरह टूटा हुआ, परेशान और आंतरिक रूप से बहुत खंडित था. वह कह रहा था,
“मैं ख़ुद एक ज़ालिम हूँ. बलात्कारी हूँ. मेरी आत्मा अपराध से लथपथ है; लेकिन मैं जानता हूँ यह क्या होता है. जब यह मेरी बेटी के साथ हुआ तो मेरी साँस रुक गई. मैं बाहर होता तो शायद ऐसा करने वाले को मार ही डालता. लेकिन अब कुछ नहीं कर सकता. मेरी बेटी बहुत परेशान है. मेरी पत्नी का बुरा हाल है. आप पत्रकार हैं तो कम से कम उसे न्याय दिलाने की कोशिश करें.”
इस घटना की जाँच की गई तो बहुत से लोगों ने इसे ग़लत बताया और लड़की को झूठा करार दिया. उसे अपराधी की बेटी बताया. कुछ ने बलात्कारी की बेटी बताकर उसका बहुत ही उपहास किया. कुछ ने समझाने की कोशिश की कि प्रशिक्षिक स्वयं एक विधिवेत्ता है. उसे कानून की अच्छी जानकारी है. वह इतना बुज़ुर्ग है. उसकी अपनी बेटियाँ हैं. पत्नी है. इन तर्कों की कोई सीमा ही नहीं थी. और वे तर्क बहुत ही विश्वसनीय प्रतीत होते थे.
लेकिन जब एक फीमेल क्राइम रिपोर्टर को लगाया गया तो उसने इसकी तहों को खोला और एक ऐसा सच सामने आया, जो हिला देने वाला था. केस रिपोर्ट हुआ और कानून का वह ज्ञाता अंततः जेल गया और लंबे समय तक उसकी जमानत नहीं हुई. यह घटना मेरे भीतर एक किस्से या किसी स्मृति की तरह नहीं, विश्व साहित्य की किसी एक संवेदनशील कहानी की तरह है.
7)
यौन अपराध बीमार समाज का कटु सत्य है, जहाँ अपराध केवल बाहर से नहीं, भीतर से भी पनपते हैं. इसी सप्ताह की एक ख़बर है कि एक पिता ने अपनी ही दो पुत्रियों का यौन उत्पीड़न किया और उन्हें निरंतर डराकर रखा. यह अपराध तब खुला, जब किशोरियाँ गर्भवती हो गईं. इस तरह के मामलों में सबसे अहम बात यह है कि अपराध केवल सामाजिक दुर्घटना नहीं है. यह आत्मा और चेतना की शैडो से उपजा एक नकारात्मक; लेकिन बहुत गूढ़ दुरनुभव भी है. लेकिन इसकी आत्मस्वीकृति एक रूपांतरण की प्रक्रिया भी है.
यौन अपराध केवल विधिक अपराध नहीं है. यह आत्मा की गहराइयों में छिपी छायाओं का दर्दनाक विस्फोट है. यह उस मनुष्य की चेतना से उपजा हुआ अंधकार है, जो अपने ही अवचेतन में बसी हिंसा, लालसा और सत्ता के विभ्रमों को न पहचान पाने के कारण अमानुषिक में बदल जाता है. हर अपराध, विशेषकर यौन अपराध, न केवल पीड़ित की आत्मा को छिन्न-भिन्न करता है, अपराधी को भी एक गहरे मनोवैज्ञानिक गर्त में धकेल देता है; जहाँ वह स्वयं के भयावह प्रतिबिंब से टकराता है. कोई व्यक्ति यौन अपराध करके भीतर से शांत हो जाए, यह मनुष्य आत्मा की नैसर्गिक संरचना के ही विरुद्ध है.
यौन अपराधी भले सामाजिक मुखौटे लगाकर ‘मज़े’ करता दिखे, पर मन के सबसे गहरे तल पर वह आत्म-पीड़न और अंतर्द्वंद्व की अग्नि में जल रहा होता है. वहीं से साहित्य और मनोविज्ञान एक हो जाते हैं. लेकिन यह प्रायश्चित्त तभी संभव है जब सामूहिक शोर या प्रतिरोध की आवाज़ें उसे उसकी आत्मा की गवाही याद दिलाएँ. अगर यह नहीं हुआ तो अपराध उसकी आदत बन जाएगा. इसलिए तो उसे अपना विकृत प्रेम एक के बाद दूसरी जगह खड़ा करता है. इस तरह की घटनाओं को सीरियल बनने से रोकने का एकमात्र तरीक़ा यह है: पहली बार ही प्रभावी प्रतिरोध. पहली बार ही चेतना या प्रतिरोध इतना सजग हो कि लगे: अब तो मैं नहीं बच सकता. अब मुझे अपने भीतर झाँकना ही होगा.

8)
कथा और उपन्यास साहित्य के रूप में जितना कुछ छपा हुआ है, वह बताता है कि मनुष्य वह नहीं है, जो वह सोचता, बताता और आत्मघोष करता है. वह वह है, जिसे वह छिपाकर रखता है. इस तरह के अपराध उस छिपे हुए ‘स्व’ के निरावरण होने के बिंब हैं. यह ऐसा द्वंद्व है, जिसमें समाज केवल दंड देकर नहीं, आत्मचिंतन, अपराधबोध और आत्मचेतना के स्तर पर ही जवाब पा सकता है. अपराधी अपने अपराध को स्वीकार करता है, बिना सफाई के, बिना क्षमा माँगे, केवल एक निर्वस्त्र आत्मा की तरह खड़ा होकर कहता है, ‘मैंने किया’ तो वही क्षण, चेतना के सबसे अंधेरे तल से प्रकाश की पहली रेखा लेकर आता है. इसीलिए विश्व साहित्य में “कन्फेशन” बहुत पठनीय और मानव हृदय को उच्च बनाने का माध्यम भी रहा है.
ऐसा नहीं कि इंसान ग़लती नहीं करता; लेकिन वह व्यक्ति सच्चा है तो यह उसका अपने आप से मिलना ही है. कोई छल नहीं, कोई बल नहीं, कोई व्याख्या नहीं, बस नग्न स्वीकृति. अपराध की स्वीकृति. अपराधबोध आत्मस्वीकृति में बदलता है तो वह एक मानसिक रूपांतरण की प्रक्रिया के द्वार पर खड़ा होता है. अपराधबोध को रचनात्मक आत्मचिंतन में रूपांतरित किया जाए तो यह पश्चाताप नहीं, पुनर्जन्म की प्रक्रिया बन सकता है.
दरअसल, इस ब्रह्मांड में पुनर्जन्म जैसा कुछ होता नहीं है. पौराणिक आख्यानों में मनुष्य को यही समझाया गया है कि वह चाहे तो अपने जीवन में पश्चाताप करके पुनर्जन्म पा सकता है. यह निष्पाप होने की धार्मिक कोशिश नहीं है. यह आत्म-संस्कारों की स्वाभाविक पुकार है. अपने अंधकार का स्वीकार है. उस पर दृष्टि डालना और फिर उसके पार जाना. यही ‘इन्डिविजुएशन’ है. हम सब अपूर्ण हैं और हम सब जाने-अनजाने अपराध करते हैं; लेकिन अपनी अपूर्णता को जानकर, उससे भिड़कर, उससे द्वंद्व करके ही पूर्णता की ओर बढ़ने का प्रयास करते हैं.
हम जब तक अपने भीतर के अपराधी को नहीं पहचानते, तब तक हम दूसरों के अपराध को केवल दंड से देखते हैं, समझ से नहीं. और जहाँ समझ नहीं होती, वहाँ समाज केवल पुनरावृत्ति को जन्म देता है. और इसीलिए यह पुनरावृत्तियाँ होती ही रहती हैं. ऐसा यौन उत्पीड़न में ही नहीं होता, सामाजिक रूप से भी होता है. राजनीतिक रूप से भी. भले वह 1947 हो, 1984 हो, 1992 हो या 2002 की पुनरावृत्तियाँ. अतीत में हो चुकीं और भविष्य में होने वाली. इसी तरह साहित्य में एक के बाद एक.
9)
लेकिन यह कैसा अनुभव है कि कुछ लोग पीड़िता और उत्पीड़क के बीच फ़र्क़ करने का विवेक भी खो चुके हैं. ऐसी संस्थाएँ, जो पैसे और अपने अतीतकालीन पुरुषों के पुण्य पर वर्तमान में सिकंदर की तरह सिर तानने वाली मुद्रा में खड़ी हैं, उनके भी सवालों में घिर आना ज़रूरी है.
10)
इस प्रकरण के कितने ही ऐसे आयाम खुल गए हैं, जो हमारे बीमार समाज को सामने ला रहे हैं. कितने ही ऐसे लोग हैं, जो जान बूझकर यौन हिंसा की पीड़िता का नाम उजागर कर उनका उपहास कर रहे हैं. वे केवल नैतिक रूप से पतित नहीं हैं, मनोविश्लेषण की दृष्टि में भी गंभीर आंतरिक विकृति से ग्रस्त हैं. ऐसा व्यवहार “सुपरएगो” के भ्रष्ट हो जाने का संकेत है, जहाँ व्यक्ति के भीतर का नैतिक प्रहरी या तो निष्क्रिय हो गया है या अपराधी की पहचान से एकात्म हो गया है. इस ‘ट्रॉमा इन्वर्ज़न’ में व्यक्ति अपराधी का पक्ष लेकर पीड़िता को ही निशाना बनाता है, ताकि अपने दमन किए अपराधबोध से बच सके.
यह “शैडो” की अभिव्यक्ति ही है. कुछ लोग पीड़िता पर प्रहार करते हैं; क्योंकि उनके भीतर की अशुभ और कुंठित इच्छाएँ उसे देखकर सक्रिय हो जाती हैं. वे अपनी छाया का प्रोजेक्शन करते हैं. अर्थात् अपने भीतर की गंदगी को पीड़िता पर थोपते हैं, ताकि स्वयं निर्दोष प्रतीत हो सकें. ऐसा व्यवहार मनो रूप से बीमार व्यक्ति के भीतर “स्प्लिटिंग” की अवस्था है, जहाँ व्यक्ति दुनिया को ‘पूर्ण अपराधी बनाम पूर्ण निर्दोष’ के बाइनरी में देखता है. अपनी असहज भावनाओं से बचने के लिए वह पीड़िता को “दुर्भावनापूर्ण वस्तु” के रूप में स्थापित कर उसे अपमानित करता है. क्या यह बताने की ज़रूरत है कि किसी का “नाम” केवल पहचान नहीं, सामाजिक संरचना का हिस्सा है. जब कोई व्यक्ति पीड़िता का नाम सार्वजनिक करता है, वह उस स्त्री की अस्मिता को ही नष्ट करने का प्रयास करता है. उसे “नामहीन वस्तु” में बदलकर.
यह केवल निजता का उल्लंघन नहीं, स्त्री के पूरे अर्थतंत्र, उसके आत्मबोध, उसके भीतर के संस्कृति तंत्र को विघटित करने की आपराधिक कोशिश है. भले पीड़िता ने अपना नाम घोषित कर दिया हो; लेकिन अन्य लोगों का पीड़िता का नाम उजागर करना उन्हें सोशल मीडिया पर उपहास का पात्र बनाना है. मनोविश्लेषण के प्रत्येक स्तर पर यह एक गहरे अंतः विक्षिप्त होने की स्थिति है. यह अपराध में सहभागी होने, बनने और बन जाने का प्रमाण है. और यह आत्मदोष से ग्रस्त मन की अभिव्यक्ति है. यह कानूनी अपराध भी है; लेकिन उससे भी पहले यह मनो-मूल्यों की पराजय है.
जाने क्यों लोग यह भूल रहे हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 228–ए, जो अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 72 है, उसमें स्पष्ट प्रावधान है कि किसी यौन पीड़िता के नाम को उजागर करना, यहाँ तक कि संकेतों में भी उजागर करना ऐसा अपराध है, जिसमें दो साल तक की सज़ा और भारी जुर्माना है. यह कश्मीर की उस पीड़िता के मामले में भी विश्व प्रसिद्ध मीडिया संस्थानों पर भी लागू हुआ और लोगों पर भी जिन्होंने बलात्कार के बाद हत्या की शिकार हुई बालिका के नाम को उजागर किया था.
सुप्रीम कोर्ट ने 21 अगस्त, 2024 को कोलाकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में बलात्कार के बाद हुए बर्बर हत्याकांड की शिकार डॉक्टर की तस्वीरें और नाम सोशल मीडिया में वायरल करने के मामले में न केवल कड़ी फटकार लगाई, उनके ख़िलाफ़ भारतीय न्याय संहिता की धारा 72 के तहत कार्रवाई करने की भी चेतावनी दी. इससे पहले भारतीय दंड संहिता में यह धारा 228 थी, जिसमें दो साल तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है. इसीलिए जागरूक मीडिया संस्थान यौन उत्पीड़न के मामलों में अगर अपराधी पिता या निकट रिश्तेदार हो तो अपराधी का नाम भी नहीं लिखते; क्योंकि उससे भी पीड़िता की पहचान उजागर होती है.

11)
कई घटनाक्रमों को देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि साहित्यिक आयोजनों के शांत कोरिडोर्स में जहाँ रिफ़ाइंड रूपक और आत्ममुग्ध उपमाएँ ख़ूबसूरत बत्तखों की तरह तैरती हैं और तालियाँ आभिजात्य मुस्कानों के साथ निर्धारित होती हैं, दरारें लेकर विकृतियाँ वहाँ नहीं तो कहाँ उभरेंगी? और अगर सदी के महानायक समझे जाने वाले लेखक भी पीड़िता के बजाय उत्पीड़क के प्रति सहानुभूति वाली भूमिका का वरण करने लगें तो आप क्या ही सोचेंग?
एआई के इस युग में किसी ने उस लेखक का कोलोन तो नहीं तैयार कर दिया और संभव है कि इतने बड़े लेखक को बदनाम करने के लिए वही उनकी जगह लेकर बोल रहा हो? टेक्नॅलॉजिकल क्रांति की संभावनाओं के हिसाब से यह असंभव तो प्रतीत नहीं होता; लेकिन जो सामने आ रहा है, उससे लगता है कि यह स्वप्निल विस्मय लोक का रूपक है. मुझ जैसे कितने ही लोगों के प्रिय महान लेखक भावनात्मक और पक्षपातपूर्ण ही नहीं, मर्दवादी मुलायमवादी दृष्टिकोण लेकर आएँ तो हम अपना मुंह किस अंधकार में छुपाएँ?
महान और हमारे प्रिय कवि, कथाकार, उपन्यासकार तो एक यौन अपराध की प्रतिक्रिया में कवि की साहित्यिक प्रतिष्ठा, मानसिक स्थिति, जाति और आत्महत्या की संभावना के माध्यम से एकदम उलटकर समाज की ओर घुमाकर एक नया ही विद्रूप रच रहे हैं. क्या यह एक तरह का मर्दवादी साइकोसोशल न्यूट्रैलाइजेशन नहीं है? क्या यह वह मनोवैज्ञानिक रणनीति नहीं है, जिसके माध्यम से अपराध को अपराध मानने से पहले उसे एक भावुक मानवीय दुर्घटना के रूप में पुनर्परिभाषित किया जाता है, ताकि आरोपी की जिम्मेदारी और जवाबदेही को लचर, कमज़ोर और कमतर किया जा सके.
यह एक तरह का अनुपम और अद्वितीय शास्त्रीय उदाहरण है, जहाँ “कवि”, “अवसाद” और “आत्महत्या” जैसे कलात्मक-काव्यात्मक-सांस्कृतिक संकेतों के माध्यम से यह बताया जाता है कि “इतना प्रतिष्ठित व्यक्ति ऐसा कर ही नहीं सकता” या “अगर किया भी तो उसे क्षमा मिलनी चाहिए; क्योंकि वह डिप्रेशन में जा सकता है”. कुछ लोग कह रहे हैं कि ऐसा उसने किया, ऐसा इसने किया, ऐसा विश्व साहित्य के उस महान ने किया तो हत्याओं, सांप्रदायिक घटनाओं और युद्धों में नरसंहार का तो विरोध ही नहीं होना चाहिए; क्योंकि सब महान लोगों ने यह सब किया है.
राजस्थान की हिन्दी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद की गरिमा को तो तत्कालीन सरकार ने उसी दिन तिरोहित कर दिया था; जब इस पर नियुक्ति की; लेकिन अब उस आशंका पर इस नए घटनाक्रम में उजागर हुए सच ने मुहर लगा दी है कि सरकार ने कितना सुचिंतित फैसला लिया था. यौन दुर्व्यवहार जैसे गंभीर आरोपों के संदर्भ में सहानुभूति की एक विचलित करने वाली प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करना ऐसा दु:साहस है, जिसकी नज़ीर आसपास नहीं मिलती. व्यक्तिगत संबंध, जातीय विमर्श और साहित्यिक योगदान को एक संभावित अपराध के आरोप पर नैतिक जांच से ज़्यादा तरजीह देना क्या है?
१२)
दरअसल, इस तरह के बयानों की सबसे ख़तरनाक प्रवृत्ति यह है कि ये संवेदनाओं का अपहरण करते हैं. यह पीड़िता की चुप्पी और समाज की जिम्मेदारी को गौण कर देते हैं और सारा फोकस आरोपी की “मानसिक स्थिति”, “साहित्यिक अकेलापन” और “जातिगत संवेदना” पर डाल देता है. यह रणनीति अपराध को राजनीतिक बनाकर न्याय को असंभव बना देने वाली रवायत शुरू करने का एक नया प्रारंभ बिंदु देती है. किसी भी संभावित अपराध की जांच और न्यायिक प्रक्रिया के पहले चरण में यह आवश्यक है कि आरोपी की सामाजिक पहचान, मानसिक स्थिति या साहित्यिक कद को न तो आरोपी के लिए ढाल बनाया जाए और न ही पीड़िता की चुप्पी को उसकी सहमति समझकर उस पर तलवार चलाई जाए.
13)
कोई शक्तिशाली महापुरुष आरोपी की व्यक्तिगत कथा को एक तरह के प्री-ऐम्टिव डिफ़ेंस के रूप में प्रस्तुत करता है तो वह अनजाने या जानबूझकर पीड़िता की आवाज़ का प्री-ऐम्टिव साइलेंसिंग भी करता है. यह कितना भयावह है कि उनके पूरे वक्तव्य में पीड़िता के लिए न तो कोई चिंता है, न सहानुभूति का एक भी वाक्य. यह एकतरफा समर्थन सिर्फ़ मौन नहीं, अन्याय का सार्वजनिक औचित्यकरण है. यह स्त्री-विरोधी सत्ता संरचना का वह मनोवैज्ञानिक स्वरूप है, जिसे कल्चरल ट्रांस्मिशन ऑव क्रिमिनल रेशनलाइज़ेशन कहा जाता है यानी अपराध को वैध ठहराने वाली और संस्कृति-जनित ऐसी कुतर्क प्रणाली, जो बहुत मोहक तार्किकता प्रतीत होती है.
14)
“कवि को बचाइए” का यह आह्वान दरअसल “अदालत से पहले क्षमा” का आग्रह है. यह न केवल एक संभावित पीड़िता के लिए अपमानजनक है; साहित्य के लिए भी खतरा है, जो ऐसे व्यक्तियों के लिए दोहरे मानदंडों वाले तर्क गढ़ता है. एक आमजन के लिए और एक “मर्दवादी साहित्यिक कुलीन” के लिए.

15)
नए दौर में मर्दवाद केवल एक लिंगभेद नहीं रह गया है. यह एक नई तरह का जातिबोध बन चुका है. एक ऐसी अंतर्निहित व्यवस्था, जो सत्ता, भाषा, अवसर और प्रतिनिधित्व को सिर्फ़ मर्दाना चेहरों में ही तलाशती है. यह वह सूक्ष्म, पर सर्वव्यापी सर्वग्रासी वर्चस्व है, जो मंच से लेकर संस्थाओं तक और विचार से लेकर वाणी तक पसरा हुआ है. मर्दवादी कवियों और साहित्यकारों का लोक स्त्री को कवयित्री नहीं, ‘कवि’ कहता है. नारीत्व के पूर्वग्रह से परे जाकर जैसे वह भाषाई बराबरी का विश्वासी हो.
वह ‘कवयित्री’ शब्द के लिंग-भेद को अस्वीकार करता है, पर मर्दवादी मंच पर जब सत्ता की रोशनी गिरती है तो उसके चुनाव में वही पारंपरिक मर्दानामोह लौट आता है, जहाँ केवल पुरुषों के स्वर, चेहरे और पदचिह्न दिखाई देते हैं. वह भाषा में समानता की घोषणा करता है; लेकिन दृश्य में वह समानता अदृश्य हो जाती है. वह गाहे-बगाहे राजनीति पर टिप्पणियाँ करता है तो इस मर्दवाद का महानायक उद्घोष करता है :
“मैंने हरेक को आवाज़ दी, हरेक का दरवाज़ा खटखटाया; लेकिन बेकार… मैंने जिसकी पूँछ उठायी, उसको मादा पाया.”
तो मर्द मंच पर मादा को कैसे जगह दें और जहाँ मादा पाई जाए, वहाँ मर्द अपनी मर्दानगी क्यों न दिखाए!
आप जनवादी, वामपंथी, प्रगतिशील या संवेदनशील कहे जाने वाले कार्यक्रमों में भी जाएँ, जहाँ क्रांति और बदलाव की बातें होती हैं; वहाँ भी मंच पर वही दृश्य दोहराया जाता है. पुरुष वक्ता, पुरुष अध्यक्ष, पुरुष संचालक और सामने बैठी स्त्रियाँ, जिनमें से कई तेजस्वी, विचारवान, और सशक्त कवि, आलोचक, विचारक होती हैं; लेकिन मात्र दर्शक की भूमिका में जड़ बनी प्रतीक्षा करती हैं. उन्हें ‘आधी आबादी’ कहा जाता है; लेकिन उनकी हिस्सेदारी न आधी होती है, न चौथाई. कई बार तो एक प्रतिशत भी नहीं. जैसे उनकी चेतना, उनकी आवाज़, उनका अनुभव पुरुष कथ्य की प्रस्तावना मात्र है. यह दृश्य बार-बार दोहराया जाता है. गोष्ठियों, संगोष्ठियों, पत्र-पत्रिकाओं और विमर्श-सभाओं में. स्त्रियाँ वहाँ होती हैं. लेकिन सामने बैठीं, सुनती हुईं, कभी तालियाँ बजाती हुईं; लेकिन मंच पर, संपादकीय पृष्ठों पर, आलोचना की स्थापनाओं में उनकी उपस्थिति एक अपवाद की तरह होती है. वे होती हैं; हमारी कविताओं में और हमारे जीवन में; लेकिन रोटियाँ बेलतीं, धनिया बीनतीं और हमें गोद में खिलातीं. हम सबका हाल एक जैसा है.
16)
और जब वह स्त्री दलित या अल्पसंख्यक होती है तो यह बहिष्कार और भी जटिल और भी सांघातिक हो जाता है. वह केवल लैंगिक तौर पर ही नहीं, जाति के अनुक्रम में भी सबसे अंतिम स्थान पर डाल दी जाती है, जहाँ से उसकी रचनात्मकता को देखा नहीं जाता, परखा नहीं जाता, केवल दया और अनुकंपा के प्रिज़्म से तौला जाता है. उसकी कविता को ‘दलित अनुभव’ की सीमा में बाँध दिया जाता है, जैसे उसकी भाषा कोई सार्वभौमिक मान्यता नहीं पा सकती. मर्दवादी पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों पर यह बहिष्करण संस्थागत रूप ले चुका है. और अब तो हम देख रहे हैं कि ब्राह्ममणवादी कुलीन हिन्दी साहित्य में ब्राह्मणवादी युगों के गांवों की तरह अब एक अलग दलित बस्ती बसा दी गई है.
प्रतिनिधित्व की अनुपस्थिति अब अनजाने में नहीं, संरचना की नीति के तहत होती है. संपादकीय मंडलों में स्त्रियाँ अब भी संख्या में गौण हैं और दलित स्त्रियाँ तो लगभग शून्य. लेकिन हम देखते हैं कि सोशल मीडिया में उनकी उपस्थिति और उनकी आवाज़ की रेंज असाधारण और अपराजेय है. इस समय में जब राजनीति को लेकर हमारे समाज के भीतर एक भारी उथल-पुथल चल रही है तो सबसे सशक्त स्वर इन स्त्रियों के ही हैं, महान, महाकवि और युगांतरकारी बन चुके लोगों के नहीं. वे तो सार्वजनिक मंचों पर दुर्योग और अप्रत्याशित रच रहे हैं.
दलित स्त्रियाँ जहाँ ब्राह्मणवादी और सर्वण वर्चस्व से खुली लड़ाइयाँ लड़ रही हैं, वहीं अल्पसंख्यक स्त्रियाँ एक ऐसे सांस्कृतिक ऑर्बिट को पार करके आ रही हैं, जो अपने भीतर ही स्त्रीविरोधी संरचनाओं से भरा है. एक ऐसा मनो-सामाजिक क्षेत्र जहाँ धर्म, लज्जा, और परंपरा ‘स्त्री’ को एक ‘दमनकारी प्रतीक’ में बदल देते हैं. सांस्कृतिक निषेध कहें कि टैबू और यौन नैतिकता का निर्माण पुरुष सत्ता अपने भय और नियंत्रण की प्रतिक्रिया के रूप में करती हैं.
अल्पसंख्यक समुदायों में स्त्रियाँ अक्सर सुपर ईगो के कठोर और धार्मिक रूपों का शिकार होती हैं, जो उन्हें अपराधबोध और दमन के द्वंद्व में जकड़ देता है. यह एक तरह की कालेक्टिव अनकॉन्शंसनेस है. इसकी अपनी सांस्कृतिक परतें हैं, जहां हर समुदाय की चेतना में स्त्री एक पवित्र; लेकिन निष्क्रिय प्रतीक के रूप में बैठा दी जाती है. अल्पसंख्यक स्त्रियाँ जब इस छवि को तोड़ती हैं तो वे शैडो बन जाती हैं, उन्हें स्वयं के समुदाय में भी घृणा, विरोध और अस्वीकार का सामना करना पड़ता है.
कोई स्त्री अपने समुदाय की ‘पवित्र माँ’ या ‘त्यागमयी बहन’ की छवि को तोड़ती है तो समाज उसे “ख़राब ऑब्जेक्ट” की तरह देखने लगता है. यह आंतरिक रूप से उस स्त्री में गिल्ट कॉम्पलेक्स और आत्मदंड की प्रवृत्ति को जन्म देता है, जिससे निकलना बेहद कठिन होता है. हम देखते ही हैं कि आजकल अख़बारों में स्त्री सफलता को स्त्री की कामयाबियों के रूप में नहीं, पुरुष सत्ता अपनी बेटियों की सफलताओं की कहानियाँ बनाकर प्रस्तुत करता है.
पितृसत्तात्मक सिंबोलिक ऑर्डर में स्त्री को नॉन पजीशन पर रखा जाता है; अर्थात् वह नाम तो है, पर परिभाषा नहीं. अल्पसंख्यक स्त्री जब अपनी ‘स्थिति’ की माँग करती है, वह सिर्फ़ बाहरी सत्ता से नहीं, भाषा और संस्कृति की गहराइयों से भी टकराती है. यह साइको–सोशल रैप्चर उसकी चेतना और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए किसी युद्ध से कम नहीं. दलित और अल्पसंख्यक स्त्रियाँ सिर्फ़ सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक सांस्कृतिक परतों से भी साहसिक ढंग से टकरा रही हैं. उनका संघर्ष न केवल सत्ता की दीवारों से है, बल्कि उस मौन, अपराधबोध और छवि-निर्माण से भी है, जिसे समाज ने उनकी चेतना में रोप दिया है.
17)
यह पितृसत्ता की नई जाति का युगबोध है, जहाँ मंच, मेज़ और माइक पर एक सजग मर्दवादी वर्चस्व कायम है. और जो बराबरी की सबसे गूंजती घोषणाओं के भीतर भी स्त्रियों की चुप्पी दर्ज़ करवा देता है. यह वह समकालीन जातिवाद है, जो लिंग और वर्ण के गठजोड़ से निर्मित है, और जो आधुनिकता के मुखौटे में बार-बार स्त्री की चेतना को ‘सुनने योग्य’ नहीं, ‘प्रतीक्षा योग्य’ बनाता है. यह सिर्फ़ अनुपस्थिति नहीं, एक ‘नियोजित अनुपस्थिति’ है, जिसे भाषा, सत्ता और परंपरा मिलकर गढ़ते हैं. हमें इससे सिर्फ़ असहमति नहीं, असहयोग करना होगा.
यह ‘नव मर्दवाद’ अब किसी ख़ास राजनीतिक धारा तक सीमित नहीं रहा. यह वाम से लेकर दक्षिण, गाँव से लेकर महानगर, साहित्य से लेकर सोशल मीडिया तक एकसमान फैला हुआ है. यह वह सत्ता है, जो महिला की प्रतिभा को ‘विशेष आमंत्रण’ का विषय मानती है, स्वाभाविक उपस्थिति नहीं. सवाल यह नहीं है कि महिलाएँ बोल नहीं रही हैं, सवाल यह है कि उन्हें कितनी बार गरिमा और संपूर्ण सम्मान के साथ सुनने की जगह दी जाती है और कितनी बार सिर्फ़ प्रतीक्षा करने की. यह मर्दवाद उतना ही संरचनात्मक है, जितना ब्राह्मणवाद या पूंजीवाद. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि इसके ख़िलाफ़ बोलने वालों के मंच पर भी यह बिना आमंत्रण के सबसे आगे की कुर्सी पर बैठा होता है.
18)
आज हम पोस्ट ट्रुथ एरा के सोशल मीडिया-ड्रिवन समाज में हैं, जहाँ सेल्फ़ इमेज, पब्लिक पर्सेप्शन, नॉरिसिस्टिक ट्रेंड्स और पीड़ित बदनाम और उत्पीड़क सुनाम हो जा रहा है. किसी कालखंड में जो नरसंहार के रचयिता थे, अब पोस्ट ट्रुथ एरा के सोशल मीडिया-ड्रिवन समाज में युग–निर्माता और वैश्विक महापुरुष हैं. अब बदनामी का पूंजीकरण हो रहा है और डिजिटल नॉरिसिज़्म एक बहुत बड़ी थाती हो गई है.
पोस्ट ट्रुथ एरा के सोशल मीडिया-ड्रिवन समाज में सोशल मीडिया सिर्फ़ विचारों का मंच नहीं, यह आत्म-प्रदर्शन और सामाजिक मान्यता की एक वैश्विक मंडी बन गया है, जहाँ ‘बदनाम’ होना भी एक तरह की ब्रांडिंग स्ट्रेटेजी है. इस परिघटना को समकालीन मनोविज्ञान की भाषा में ‘टॉक्सिक सेल्फ-रेडेम्पशन साइकिल’ कहा जा सकता है, जिसमें व्यक्ति नैतिक अपराध या सामाजिक बहिष्कार के बाद अपने ही अपराध को एक पब्लिक नैरेटिव के ज़रिए “पीड़ा” में रूपांतरित कर देता है. और हम देख रहे हैं कि जगह–जगह यही हो रहा है.
आत्म-विज्ञापन और डिजिटल नॉरिसिज़्म का यह कालखंड अदभुत है. यह कल्चरल नॉरिसिज़्म एक नई अवस्था है. इसमें व्यक्ति की सार्वजनिक छवि वास्तविक नैतिकता या ज़िम्मेदारी से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है. उत्पीड़क, जो किसी अन्य कालखंड में कभी सार्वजनिक आक्रोश का पात्र था, अब वह अपने ‘खंडित व्यक्ति’ या ‘ब्रोकन सेल्फ’ के नैरेटिव के ज़रिए सहानुभूति जुटाने लगता है. और हम देखते हैं कि उनके पक्ष में कितने ही बुद्धि प्रदीप्त खड़े हो रहे हैं.
पोस्ट ट्रुथ एरा में एक विचित्र किस्म का एजेंसी मॉडल अस्तित्व में आया है. यह एक तरह की एजेंसी इरेज़र ऑफ़ द विक्टिम है. यह वह स्थिति है, जहाँ पीड़िता की सामाजिक और भावनात्मक उपस्थिति धीरे-धीरे सार्वजनिक विमर्श से गायब हो जाती है और उसका स्थान एक ‘पुनराविष्कृत उत्पीड़क’ ले लेता है, जो अब स्वयं को असहाय, बहिष्कृत और पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करता है. इस तरह की विकृत घटनाओं का विरोध करने वालों को विकृत, स्वार्थी और दुश्मन प्रचारित किया जाता है. यह सोशल मीडिया एल्गोरिद्म का नया ‘ट्रॉमा कैपिटलिज़्म’ है.
हमारे सामाजिक मनोविज्ञान का यह एक नया शब्द ‘ट्रॉमा कैपिटलिज़्म’ व्यक्तिगत आघात और विवाद को एक डिजिटल संसाधन में बदल देता है. उत्पीड़क अपना नैतिक अपराध या आरोप लेकर पब्लिक स्पेस में आता है, अपनी आपबीती कहता है और उसी से व्यूज़, फॉलोअर और आर्थिक संसाधन अर्जित करता है. यह न सिर्फ नैतिकता का विघटन है, सामाजिक न्याय की गरिमापूर्ण अवधारणाओं का चिंताजनक ह्रास भी है.
यह एक तरह का ‘रेडेम्प्टिव नैरेटिव्स’ का प्रहसन है. उत्पीड़क और उसके हितबद्ध उस अपराध को किसी बचपन की पीड़ा, पारिवारिक बिखराव, भावनात्मक अस्थिरता या उसकी रचनात्मकता की महानता से जोड़कर देखते हैं. ये कथाएँ शुरू में पीड़ा की अभिव्यक्ति लगती हैं; लेकिन धीरे-धीरे सामाजिक अनुकंपा को हथिया लेने का एक चतुर मनोवैज्ञानिक औजार बन जाती हैं. और आज का सोशल मीडिया युग उत्पीड़क को “रिडीम्ड हीरो” में बदलने के अवसर देता है, जबकि पीड़िता को ‘नैरेटिवलेस’ बना देता है. समकालीन समाज के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण और चिंताजनक परिदृश्य है, जहाँ सत्य और न्याय की अवधारणाएँ पॉडकास्टेब्लिटी और ‘इंप्रेशन मैनेजमेंट’ से प्रभावित हो रही हैं.
19)
आज के सोशल मीडिया-प्रेरित युग में “बदनाम होना” केवल सामाजिक बहिष्कार की श्रेणी में नहीं आता. यह एक तरह की साइकोसोशल कैपिटल बन गया है. हमने अपने राजनीतिक परिदृश्य में कितनी ही विडंबनाओं को देखा है. कितने ही ऐसे व्यक्ति हैं, जो किसी सामाजिक या नैतिक अपराध में लिप्त रहे हैं; लेकिन कुछ ही समय बाद वे ‘नैरेटिव इंजीनियरिंग’ के ज़रिये स्वयं को पीड़ित के रूप में पुनर्परिभाषित कर इस युग की पीठ पर विजेता की तरह सवार हो गए हैं. इस तरह की घटनाएँ और परिघटनाएँ रिवर्सल ऑव विक्टिमहुड पेरैडाइम कही जा सकती हैं. हम देख रहे हैं कि कितने ही मामलों में उत्पीड़क अपने ऊपर लगे आरोपों को ‘अति आलोचना’ या ‘कैंसिल कल्चर’ का शिकार बताकर एक सिंपैथी इकोनॉमी का निर्माण कर चुके हैं. यह व्यवहार सेल्फ विक्टिमाइज़ेशन स्ट्रेटेजी का हिस्सा है, जो व्यक्ति को आत्म-संवेदना से भरपूर एक वैकल्पिक नैतिक ऊँचाई प्रदान करता है.
यह तर्क भी आ रहे हैं कि अतीत में महान लोगों ने ऐसा–ऐसा किया. लेकिन क्या अपराध की तिथि बदलने से उसका स्वरूप बदल जाता है? यौन शोषण चाहे सदियों पहले हुआ हो या अभी-अभी किसी किशोरी की आत्मा पर हुआ हो, है तो वह हिंसा ही. किसी एक ने किया हो या बहुत सारे लोगों ने. मामला तो एक का नहीं, सब ही का है. लेकिन जो लोग कहते हैं, “अतीत में भी ऐसे हुआ था, इसलिए अब क्या फ़र्क़ पड़ता है?” वे पीड़ा को छोटा तो करते ही हैं, वर्तमान अपराध के लिए सांस्कृतिक संरक्षण भी तैयार कर देते हैं. यह तुलना ही कुतर्क है. और यह ठीक वही बौद्धिक विकृति है, जिसे बैनेलिटी ऑव ईवॅल कहा जाता है.
हम जब अपराध को सामान्यीकृत करने लगते हैं या उसे किसी “ऐतिहासिक परंपरा” का नाम देने लगते हैं तो हम दरअसल नए अपराधों के लिए ज़मीन तैयार कर रहे होते हैं. हम अतीत के अपराधों को तर्कों से ढकते हैं तो हम वर्तमान पीड़ितों से उनका सबसे जरूरी हक़ और नैतिक समर्थन छीन लेते हैं. यौन अपराध तारीख़ों से नहीं, नियतियों से, मौन से और प्रतिक्रियाओं से पहचाना जाता है. जो आज हुआ है, वह आज का सच है. और जो अतीत में हुआ था, वह अतीत की शर्म. एक की स्मृति को दूसरे की छाया बनाना दोनों के प्रति अन्याय है. और हम देख रहे हैं कि राजनीतिक मसले हों या निजी, आजकल यही हो रहा है. पापात्माएँ इतनी चालाक हैं कि वे अतीत के अपराध की स्मृतियों को वर्तमान के पापों पर किसी पवित्र चादर की तरह डालकर निष्पाप बनी घूम रही हैं.
स्कूली दिनों में हम अपने बोर्ड पर एक इबारत अक्सर पढ़ते थे, ‘वन डज़ नॉट बिकम इनलाइटन्ड बाय इमैजिनिंग फिगर्स ऑफ लाइट, बट बाय मेकिंग द डार्कनेस कॉन्शस’. सत्ता प्रतिष्ठानों के संरक्षक वर्ग के बौद्धिक समर्थक अतीत के अपराधों का पुनर्पाठ तो करते हैं; लेकिन वर्तमान के पापों का प्रतिरोध नहीं. यह राजनीति में हम देख ही रहे हैं. विचार और विचारधारा की एक्सपायरी डेट होती है; लेकिन पीड़ा की नहीं. और न्याय का कोई दोहरा मापदंड नहीं हो सकता.

20)
यह प्रक्रिया मोरल डिस्ऐंगेज़मेंट के सिद्धांतों से भी जुड़ी हुई है. इस फ्रेमवर्क में व्यक्ति अपने व्यवहार के लिए जिम्मेदारी से मुक्त होता जाता है; क्योंकि वह अपने कृत्य को “ग़लती”, “कमी”, “साज़िश” या “समाज की नासमझी” कहकर पुनर्परिभाषित करता है. ऐसा करके वह अपने अपराध-बोध को कम करता है और सामाजिक मंचों पर फिर से अपनी उपस्थिति को वैध ठहराता है. मोरल डिस्ऐंगेजमेंट की अवस्था में कई बार बुद्धिशील और चेतन लोग भी सहज समवेत प्रतिरोध को लिंचिंग जैसी उपमाएँ देने लगते हैं, मानो लिंचिंग कोई सहज, सामान्य और न्यायशील क्रोध की प्रतिक्रिया थी.
आज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इस तरह की पुनरावृत्तियों को ऐल्ग्रोद्मिक रीइनफॉर्समेंट के ज़रिये बहुत सुनियोजित तरीकों से सशक्त बनाया जाता है. ऐंगेजमेंट-बेस्ड आर्किटेक्चर के कारण सनसनी, विवाद, और रिबेलियस रिडंप्शन आर्क को ज़्यादा दृश्यता मिलती है. धीरे-धीरे पीड़िता की कथा हाशिए पर चली जाती है; क्योंकि वह न तो नई है, न ही कॉण्टेंट-जेनरेटिंग. और जब पीड़िता को बार-बार खारिज किया जाता है और उत्पीड़क की पुनर्स्थापना होती है तो यह तौर तरीका उसे एक क्रॉनिक सेकंडरी विक्टिमाइजेशन की स्थिति में धकेल देता है. यानी न केवल उसका मूल आघात बना रहता है, उसकी सार्वजनिक चुप्पी और अदृश्यता एक नया मानसिक आघात रचती है. इसलिए ऐसे माहौल में ढेर सारे ख़तरे और ख़ास तरह की मानसिकताओं की मौजूदगी के बावजूद साहस से बोलना एक अच्छा संकेत है.
इस पूरे परिदृश्य को हम नियो-नार्सिर्सिस्टिक कल्चरल सिंड़्रोम की संज्ञा भी दे सकते हैं, जिसमें व्यक्ति अपने गिरन’ को भी एक ब्रांडेड कथा में बदल देता है और समाज उसे इस रूप में स्वीकार कर लेता है कि कम-से-कम वह ईमानदार तो है अपनी गलतियों को लेकर; वह कितना क्रिएटिव और असाधारण है; जबकि यह कथित ईमानदारी और क्रिएटिविटी भी एक रणनीतिक ब्रांड-पोज़िशनिंग है.
21)
इस तरह के मामलों में संस्था की लंबे समय तक चुप्पी और फिर गोल-गोल विभ्रमपूर्ण बयानबाजी साफ़ तौर पर सामाजिक-आपराधिक संरचना की एक हिस्सेदारी है. वह या तो हाँ करे या ना करे. उसकी प्रतिक्रिया ऐसी है कि वह पीड़ित को भी पीड़ित नहीं मान रही और दोषी को भी दोषी नहीं. और अगर कोई वास्तव में दोषी नहीं है तो वह एक बेकुसूर को क्यों परेशान होने दे रही है? किसी संस्था के अधीन आयोजित कार्यक्रम में यौन दुर्व्यवहार जैसा गंभीर आरोप सामने आता है तो केवल आरोपी या पीड़िता नहीं, संस्था स्वयं भी एक जवाबदेह पक्ष है.
संस्था की चुप्पी या चुप्पी से भी बुरा वक्तव्य केवल नैतिक संकट नहीं, एक संस्थागत अपराध सहिष्णुता की छाया है. एक संस्था भीतर के प्रभावशाली या वरिष्ठ व्यक्ति के अपराध या दुराचार से आंखें मूंद लेती है तो वह अनजाने में एक सामाजिक संकेत देती है कि सत्ता-संपन्न व्यक्तियों के लिए अलग मानदंड हैं और न्याय उनकी प्रतिष्ठा के नीचे दब सकता है. ज़रूरी नहीं कि यह सत्ता सत्ता जैसी ही प्रतीत हो. साहित्य के क्षेत्र की अपनी-अपनी संस्थाएँ हैं और उसके अपने-अपने इलाकों के अपने-अपने क्षत्रप हैं.
22)
इस तरह की चुप्पियाँ या गोल-गोल विभ्रमपूर्ण बयानबाजियाँ क्रिमिनल नेग्लिजेंस और विलफुल सप्रेशन की स्थिति भी बना सकती हैं. विशेष रूप से तब जब सोशल मीडिया पर दर्जनों गवाहियाँ, अनुभव या प्रत्यक्ष टिप्पणियाँ सामने आ रही हों. यह बाद में संस्था को सह-अभियुक्त की स्थिति में ला सकती है. ख़ासकर यदि यह प्रमाणित हो जाए कि संस्था को शिकायत की जानकारी थी; लेकिन उसने कोई कार्रवाई नहीं की. यह एक बहुत गंभीर बिंदु है.
हालात की माँग है कि संस्था तत्काल एक स्पष्ट, तथ्यात्मक और निष्पक्ष बयान जारी करती. ख़ास बिंदु ज़रूरी थे : क्या उन्हें घटना की सूचना मिली थी? सूचना मिली थी तो उन्होंने क्या कदम उठाए? यदि सूचना अब मिल रही है तो वे कौन-सी जांच प्रक्रिया अपनाने जा रहे हैं? बेहतर जांच प्रक्रिया क्या हो? स्वतंत्र आंतरिक जांच समिति क्या कहती है? इसमें बाहरी, निष्पक्ष और लैंगिक संवेदनशीलता रखने वाले विशेषज्ञ शामिल होते. अगर बात ही ग़लत है तो वह किसी एक वरिष्ठ कवि का चरित्र हनने क्यों होने दे रही है?
इस तरह के मामलों में आम तौर पर प्रिवेंशन ऑव सेक्सुअल हैरेस्मेंट नियमों के तहत कार्रवाई ज़रूरी होती है अगर वह वाक़ई ऐसी घटना है. ये नियम इस तरह की संस्थाओं पर लागू होते हैं. इसमें गवाहों की गुमनाम सुनवाई ज़रूरी थी, ताकि वे बिना डर अपनी बात रख सकें. अंतरिम निष्कासन या दूरी भी ज़रूरी थी. आरोपी को जांच पूरी होने तक मंचीय या निर्णयात्मक भूमिकाओं से हटाया जाना ज़रूरी था. और अगर ऐसा किया गया था तो नतीजा क्या रहा और नहीं किया गया तो उस क्षेत्र की पुलिस क्या कर रही थी? सामाजिक संस्थाएँ जब इस तरह के दुर्व्यवहारों पर चुप्पी साधती हैं तो वे क्राइम फेसिलिटेशन एन्वायर्नमेंट का निर्माण करती हैं.
ऐसा नहीं हो तो फिर किसी का दु:साहस ही न हो. यह मामला केवल एक व्यक्ति के अपराध करने का नहीं, संस्था के अपराध को चुपचाप सीखने, स्वीकारने और प्रसारित करने का भी है; क्योंकि उसके पदाधिकारी यही आचरण दिखा और दर्शा रहे हैं. इसलिए नैतिकता और न्याय की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि संस्था एक ज़िम्मेदार, समयबद्ध और संवेदनशील प्रतिक्रिया देती; न कि प्रतिष्ठा के मोह में तटस्थता का मुखौटा ओढ़े बैठी रहती. जैसा कि इस संस्था के पदाधिकारियों ने किया है. वे तो एक तरह से आरोपित और पीड़ित दोनों के दोषी हैं.
सचमुच देखा जाए तो यह हमारी नैतिकता, न्याय और मानव मन की परतों को एक साथ छूने वाला जटिल प्रश्न है. मनुष्य के अपराध और उसके सामाजिक परिवेश के जटिल अंतर-संबंधों को गहराई से देखने की कोशिश करने पर बेहद प्रतिभाशाली लेखकों की प्रतिक्रियाएँ डराती हैं; क्योंकि उनके संवेदना संसार में भी बहुत सी स्त्रियाँ हैं और उन सब पर समान रूप से खतरा मंडरा रहा है.
अपराध कभी भी केवल एक व्यक्ति का मामला नहीं होता. वह एक पूरे संबंध-तंत्र में घटित होता है. एक सामाजिक मनःस्थिति में, जहाँ वह अपराधी केवल अपने अपराध का स्वामी ही नहीं होता. पति, भाई, पिता और पुत्र भी होता है. हर मनुष्य के भीतर एक शैडो है. वह छाया जो उसके व्यक्तित्व की वह अस्वीकार की गई सच्चाई है, जिसे वह समाज और स्वयं से छुपाकर रखता है. लेकिन जब यह शैडो खंडित होती है, अपराध जन्म लेता है और उसके साथ अपराधबोध और उसके परे एक धीमी; लेकिन गहरी आत्मपरख की प्रक्रिया. परंतु यह भी सत्य है कि अपराधी किसी निर्वात में नहीं जीता. माँ, पत्नी, बहनें, बेटियाँ, जो स्वयं उस अपराध के नहीं, अपराध के दंश की शिकार हो जाती हैं. वे उन संबंधों के भीतर होते हैं जो सिंबोलिक एथिक्स में उलझे होते हैं, जहाँ एक की चूक कई जीवन प्रभावित करती है.
और यहीं यह ज़रूरी हो जाता है कि हम न्याय के साथ करुणा को भी बनाए रखें; न कि अपराध को क्षमा देने के लिए, यह समझने के लिए कि न्याय केवल दंड नहीं, पुनरावृत्ति से रोकने की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जिम्मेदारी भी है.
कई बार अपराध साधारण चेहरे ओढ़कर आता है और उसके पीछे एक ऐसा मनुष्य होता है जो ‘सोचने’ की क्षमता खो चुका होता है या उस क्षण खो चुका होता है. एक ऐसा व्यक्ति जो अपने सामाजिक संदर्भों से कट गया होता है. यदि ऐसे लोगों को पुनः सोचने की, अपनी छाया से साक्षात्कार की जगह दी जाए तो संभव है कि इस तरह के अपराधों को केवल रोका नहीं जाए, समझा भी जा सके.
विश्व साहित्य का विश्लेषण हमें बताता है कि हर अपराधी कभी न कभी एक ऐसा बच्चा रहा होता है, जिसे उसके दर्द के साथ अकेला छोड़ दिया गया था. हम यदि केवल अपराध को देखें और उस मनुष्य के मनोभावों को समझने से इनकार करें तो हम शायद एक और पीढ़ी को उसी पथ पर धकेल देंगे. इसलिए जब हम किसी अपराध के विरुद्ध कठोर कदम उठाते हैं, तब यह भी आवश्यक है कि हम उस मनुष्य के पारिवारिक और भावनात्मक नेटवर्क को भी समझें, जो उस अपराध से आहत होते हैं, परंतु उसमें सहभागी नहीं होते. यही सामाजिक पुनर्निर्माण की पहली शर्त है, दंड के साथ चेतना, न्याय के साथ संतुलन.
23)
यौन उत्पीड़न के मामलों में अपराधी के मित्रों और उसके निकट संसार की स्त्रियों को भी चुप रहना पड़ता है या कभी-कभी समर्थन में आना पड़ता है. यह केवल सामाजिक दबाव का नहीं, गहरे मनोवैज्ञानिक, लैंगिक और सत्ता संरचना के भीतर पनपते संबंधों का प्रश्न है. यौन हिंसा सामाजिक ताने-बाने में बसी सत्ता और चुप्पी की एक सुनियोजित अभिव्यक्ति है. यौन उत्पीड़क के मित्र, विशेषकर पुरुष मित्र, अक्सर लॉयल्टी टु दॅ ब्रदरहुड की उस अपसंस्कृति का हिस्सा होते हैं, जहाँ ‘भाईचारे’ की रक्षा सच्चाई से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है. या कभी न कभी उन्होंने ख़ुद ऐसा किया होता है. और जो स्त्रियाँ उसके करीब होती हैं, माँ, पत्नी, बहन, दोस्त आदि उन्हें एक गहरे इमोशनल डिसोनेंस से गुजरना पड़ता है.
अपराधी उनका कोई ऐसा अपना होता है जिससे वे प्रेम करती हैं, विश्वास करती हैं और इसलिए “वह ऐसा इंसान तो नहीं हो सकता” मानकर उनके भीतर एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक डिनायल पनपता है. यह भी कहा जाता है कि स्त्रियों का नैतिक निर्णय अक्सर संबंधों के भीतर पनपता है, न कि अमूर्त सिद्धांतों में.
वे ‘केयर पर्सपेक्टिव’ से सोचती हैं, जो उन्हें संबंधों की रक्षा की ओर मोड़ता है. यहाँ तक कि सच की कीमत तक पर भी. इसलिए जब उत्पीड़क कोई पिता, भाई या प्रिय मित्र होता है तो स्त्रियाँ दोहरी यातना में फंसती हैं. एक ओर सच बोलने का नैतिक दबाव, गहरा उद्वेलन और दूसरी तरफ रिश्तों के विखंडन का भय. यही कारण है कि कई बार वे चुप रहती हैं या कभी-कभी अनजाने में अपराधी के पक्ष में खड़ी हो जाती हैं; क्योंकि संबंधों को तोड़ने की पीड़ा उन्हें सच स्वीकारने की पीड़ा से भी बड़ी लगती है.
इस तरह की घटनाओं पर बहुत से लोग बहुत सी तरह के प्रश्न उठा रहे हैं. लेकिन हम जब इन घटनाओं के भीतर की तहों को खोलने लगते हैं तो पता चलता है कि बचपन से ही कोई स्त्री एक ऐसे पारिवारिक ढांचे में पली होती है जहाँ भावनाओं को दबाना, सहना और पुरुषों को श्रेष्ठ मानना सिखाया गया है तो वह बड़े होकर भी सत्ता और उत्पीड़न के सामने असहाय ही बनी रहती है. उनके लिए उत्पीड़क केवल एक पुरुष नहीं होता, वह पूरे उस स्ट्रक्चरल कंडिशनिंग का प्रतिनिधि होता है, जिसमें वे स्वयं भी दशकों से बंधी हुई रहती हैं. ऐसे में बोलना केवल अपराध के विरुद्ध बोलना नहीं होता, अपने समूचे अस्तित्व के ख़िलाफ़ खड़ा होना बन जाता है.
बहुत बार यह एजेक्शन का मामला होता है. वह स्थिति जब हम किसी चीज़ को अस्वीकार करते हैं, पर वह भीतर ही भीतर हमें परिभाषित करती रहती है. उत्पीड़क स्त्री का ‘अपना’ होता है. उसे वह नकारना चाहती है, पर उसका अस्तित्व इतना निकट है कि वह उसे ‘बाहर फेंक’ नहीं पाती. इसीलिए वह चुप रह जाती है; क्योंकि वह अपराधी को सिंबोलिक ऑर्डर से बाहर नहीं कर पाती और तब वह चुप्पी उसकी अपनी ‘आत्मा की रक्षा’ बन जाती है. और बहुत बार अपराध के बाद अपराधी की सबसे बड़ी राहत भरी शरणगाह यही होती है.
ऐसा कई बार देखा गया है या हमारे पास आने वाली ख़बरों से पता चलता है कि किसी स्त्री ने किसी तरह की वॉयलेंस को एक्सपोज़ किया तो उसे सबसे बड़ी आफ़त समझा जाता है. कोई स्त्री अपने ही परिवार, मित्र मंडली या संगठन के भीतर किसी पुरुष के यौन अपराध को उजागर करती है या उसका प्रतिरोध करती है तो उसे अक्सर डिस्टर्बर ऑव पीस कहा जाता है. इसलिए आस-पास की स्त्रियाँ अक्सर चुप रहती हैं, ताकि उन्हें “प्राॅब्लेमेटिक वूमन” का टैग न मिले. यह चुप्पी इसलिए भी होती है; क्योंकि समाज में सपॉर्टिंग दॅ सर्वाइवर की तुलना में प्रिज़र्विंग सोशल हार्मनी को कहीं अधिक महत्व मिलता है. ख़ासकर तब जब उत्पीड़क सामाजिक रूप से शक्तिशाली हो.
चुप्पियाँ केवल व्यक्तिगत डर या संबंधों का मोह नहीं होतीं, यह सामाजिक संरचना, भावनात्मक विरासत, पितृसत्ता की सीख और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा-तंत्र का सम्मिलित परिणाम हैं. अपराध से केवल अदालतों में नहीं लड़ा जाता, वह चेतना की नींव में होता है और वहीं से उसे चुनौती दी जानी चाहिए. और इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम जिस तरह के समाज में रहते हैं, उसमें कोई भी विचारधारा मनुष्य या नागरिक के रूप में स्त्री को संपत्ति, अलग घर या अलग पारिवारिक मुखिया की हैसियत नहीं मिलती तो वह प्राय: न केवल अपने ख़िलाफ़ होने वाले अपराध पर चुप रहती है, वह किसी अन्यायपूर्ण मसले में भी बोलने से न केवल दूरी बनाए रखती है, उसका कोई निकटतम बोले तो वह कोशिश करती है कि इस तरह के प्रकरणों से दूर रहा जाए.
चुप्पी भी एक प्रतिक्रिया है कभी भय की, कभी मोह की, कभी सामाजिक अस्वीकार के डर की. लेकिन जब स्त्रियाँ इस चुप्पी को चुनौती देती हैं तो वह केवल उत्पीड़क से नहीं, एक पूरे यथास्थितिवादी मनोबल से लड़ रही होती हैं.
24)
यह सही है कि पीड़िता की सभी निजताओं का सम्मान करते हुए किसी भी समाज में घटित हुए अपराध की ठोस जानकारी आवश्यक होती है. यह भी है कि यह एक ऐसा अपराध है, जिसकी पुष्टि और प्रामाणिकता पीड़ित का कथन ही रहता है. लेकिन यह हैरान कर देने वाली बात है कि समाज में ऐसा व्यवहार बार-बार अवांछित निकटता, अश्लील टिप्पणियों और मनोवैज्ञानिक रूप से शारीरिक अतिक्रमण के रूप में सामने आता है. ख़ासकर उन युवतियों और महिलाओं के प्रति जो अपनी प्रतिभा के बल पर चमकने की हिम्मत करती हैं. यह एक अनसोलिसिटेड प्रॉक्सिमिटी का पैटर्न है. शायद एक आवाज़ हमें सुनाई न दे; लेकिन वह प्रतिध्वनित तो होती ही है : हाउ डेयर्ड टु शाइन! एक औरत होकर! यहाँ आई है तो कुछ देकर जा. बचकर जाएगी कहाँ?
लेकिन इस बार की तरह कई बार ऐसा करने वालों के चारों ओर की छायाएँ बहुत घनी हो जाती हैं. और फिर भी मौन रह जाना पड़ता है. यह उस “नॉइज़” का क़माल है, जो सोशल मीडिया फ़ीड से उठता है. जैसे लड़की या महिला डरती है कि किस-किस को सफ़ाई दूंगी, यहाँ भी है कि जवाब तो दूँ; लेकिन किस-किस को. अब शैडोज़ बहुत डेंस हो चली हैं. और चुप्पियाँ दुबकी हुई हैं. बात नामों को उजागर करने या न करने की नहीं है. वह काम इंटरनेट ने कर दिया है. लेकिन बात है उन साइकोलॉजिकल आर्किटेक्चर की, जो ऐसे लोगों को जन्म देती हैं. यह उस कल्चरल सॉइल का विश्लेषण है, जो उन्हें तब तक जीवित रखती है, जब तक वे अंततः नैसर्गिक रूप से ढह न जाएँ.
आख़िर यह समस्या किसी एक व्यक्ति की नहीं, प्रवृत्ति की है. ह्यूमन साइकी के सबटेर्रेनियन कार्टोग्राफर मानते हैं कि यह एक गहरी समस्या है और जाने ऐसे कितने लोग हैं, जो हमारे बीच कैसी-कैसी छवियाँ गढ़े हैं और इस तरह के कामों को निर्विवाद रूप से और बिना किसी शोर के किए ही चले जा रहे हैं. हम अगर इसके मनोविज्ञान को समझें तो यह एक तरह से शैडो और प्रेडेटरी इंटेलेक्ट के बीच पनपने वाली विकृति है. “शैडो” या “छाया” अस्वीकार और गहरी दबी हुई मानसिकता है.
नैतिक रूप से हीन, आदिम और आक्रामक प्रवृत्तियों का हुजूम है, जिन्हें प्रायः हम स्वीकार नहीं करते. सफल महिलाओं के प्रति बार-बार शत्रुता, उनके पुरस्कारों या उनकी कामयाबियों को लेकर गंदी टिप्पणियाँ और अब एक क्लोज्ड स्पेस में एक युवा महिला पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास. डोमिनेट करने का यह प्रयास कैसा था, इस बारे में सब जानते हैं. इस मामले में किसी लेख में शिवानी ने लिखा है कि कोई महिला बहुत क़ामयाब होती है तो लोग उसकी प्रतिभा को नहीं स्वीकार करते, बल्कि कहते हैं, या तो बड़े बाप की बेटी या अफ़सर संग लेटी.

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महान मनोवैज्ञानिक कार्ल युंग ने बहुत सही कहा है, नोइंग योर ओन डार्कनेस इज़ द बेस्ट मेथड फॉर डीलिंग विद द डार्कनेस ऑफ़ अदर पीपल. इसका अर्थ साफ़ है कि जब एक के बाद एक कई घटनाएँ एक ही व्यक्ति करता है या कुछ और लोग इससे भी अधिक बुरा करके भी विश्वविद्यालयों की नौकरियों से इस्तीफ़े देकर और मुकदमों से बचकर या कुछ दूसरी तरह से बचे हुए लोग विश्वविद्यालयों या सत्ता प्रतिष्ठानों में बने रहते हैं तो इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया फ़ीड का “नॉइज़” कोई बहुत मानीख़ेज़ नहीं है.
इसका मतलब साफ़ सा यह है कि नई कवयित्रियों या अनुसंधानकर्ताओं या किसी के सब्ऑर्डिनेट के रूप में काम करने वाली युवतर महिला प्रतिभाओं को अब अपनी भाषा में केवल काव्य–सौंदर्य नहीं, नैतिक साहस भी भरना होगा. उन्हें यह जानना होगा कि स्त्री की गरिमा की रक्षा कोई कवि, कोई मंच, कोई संस्था, कोई कानून नहीं कर सकते, उन्हें स्वयं ही अपने भीतर एक जाग्रत ‘अभिभावक आत्मा’ को जगाना होगा. युंग ने कितना सही और सटीक कहा था कि “वन डज़ नॉट बिकम इनलाइटन्ड बाय इमैजिनिंग फिगर्स ऑफ लाइट, बट बाय मेकिंग द डार्कनेस कॉन्शस.”
यह कोई अकेली घटना नहीं, बल्कि एक आर्केटाइपल पज़ेशन का अधिपत्य है. साफ़-साफ़ कहें तो बुद्धि का पतन, जिसे अनइंटीग्रेटेड शैडो ने पूरी तरह आइसोलेट कर दिया है. यानी कवि, जो सिम्बॉलिक पावर की स्थिति में है, अपने फेडिंग इन्फ्लुएँस की उपस्थिति को नई पीढ़ी की वाइब्रंट ऑटोनॉमी के साथ जोड़ नहीं पा रहा है. प्रतिभा की जितनी अधिक द्युति और दीप्ति युवती में होती है, उतना ही तीव्र और तीखा हमला उसकी शैडो से आता है. शैडो उस जीवन्तता से घृणा करती है, जो उसे बुढ़ाते जाने या मृत्यु के क़रीब जाने की याद दिलाती है. ऐसे में मौन को अपराध की स्वीकार्यता मान लेना ग़लत है. यह रिमॉर्स भी नहीं है. यह गहरी रणनीति भी है. नार्सिसिस्ट्स कोल्ड कैलक्युलस.
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तो क्या यह खंडित एनीमा और इरोटिक प्रोजेक्शन का मामला नहीं है? यह इनर फेमिनाइन से जुड़ी समस्या है. अपरिपक्व पुरुष अहंकार अक्सर एनीमा को बाहर प्रक्षिप्त करता है और वास्तविक स्त्रियों को आदर्श रूपों यानी प्रेयसी, पत्नी या मोहिनी मित्र में बाँध देता है. जब एनीमा दमित या विकृत होती है तो पुरुष या तो स्त्रियों की पूजा करता है या उनसे घृणा करता है. धर्मशास्त्रों में इस रूप को देखा जा सकता है कि किस तरह पूजा करने वाले समाजों में कितनी स्त्रियाँ सती की जाती रहीं, कितनी कितने ही कारणों से सताई जाती रहीं और कितनी बलात्कारों का शिकार होती रहीं. इस तरह की प्रवृत्ति वाले लोग स्त्रियों को नहीं देखते, वे केवल प्रोजेक्शन देखते हैं. वह कवयित्री, युवती या स्त्री एक व्यक्ति नहीं, एक प्रतीक थी जिसे या तो जीतना था, पा लेना था या मिटाना था.
हमारे इर्दगिर्द यही तो हो रहा है. इसीलिए स्त्री साहित्यकारों को मिलने वाले पुरस्कार मर्दवादी अहंकारी मानसिकता वाले पुरुषों के लिए साहित्यिक उपलब्धियाँ नहीं होते. उनकी मर्दानगी पर हमला होते हैं. मनोविज्ञान की भाषा में यह आर्केटाइपल इन्फ्लेशन है. यह मानसिकता इस बात का प्रमाण है कि ह्युमन स्पेस में जब अहंकार अपने को दिव्य रूप में प्रस्तुत करने लगता है तो वह स्त्रियों के लिए ख़तरनाक़ हो उठता है. यह सब हमने “मी टू” के समय भी देखा था. उस समय भी एक-एक कर बहुत से चेहरों से नक़ाब उतरे थे.
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कई बार मुझे लगता है कि सुशिक्षित समाजों के बजाय निरक्षर, ग्रामीण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों या अपेक्षतया कम सुसंस्कृत समझे जाने वाले समाजों में स्त्रियों के साथ होने वाले अत्याचारों पर आवाज़ें अधिक प्रखरता से उठती हैं. इस तरह के प्रश्न हमें अक्सर समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और स्त्रीवादी विमर्श की त्रिवेणी पर खड़ा कर देते हैं. और इसकी गहराई में उतरते हैं तो साफ़ आभास होता है कि संस्कार और सांस्कृतिक “सभ्यता” की मान्यताएँ कई बार प्रतिरोध की वास्तविकता को कितनी चालाकी या सफ़ाई से ढ़क देती हैं. वे स्कूली दिन थे, जब हमारी एक सहपाठी लड़की को किसी शिक्षक ने आपत्तिजनक ढंग से छुआ और उसने घर आकर माँ को बताया तो उस ग्रामीण माँ ने न केवल अपनी बेटी की अस्मिता की रक्षा की, बल्कि उसे तत्काल न्यायपूर्ण प्रतिरोध की शिक्षा दी और कहा कि अभी दो और सहेलियों के साथ जाओ और उस शिक्षक को सबक सिखाकर आओ. और वे ऐसा करके आईं.
यह घटना बताती है कि ट्रॉमा केवल हिंसा का अनुभव नहीं होता, वह सामाजिक प्रतिक्रिया की अनुपस्थिति भी होता है. अगर सामाजिक प्रतिक्रिया उपस्थित हो तो कोई ऐसा साहस नहीं कर सकता. तथाकथित सुसंस्कृत समाज जब किसी लड़की के साथ हुई हिंसा को “चुप रहो, पढ़ाई पर ध्यान दो” या “बात मत फैलाओ” जैसे वाक्य कहकर दबा देता है तो वह लड़की दोहरा ट्रॉमा झेलती है. पहला उत्पीड़न से, दूसरा उस पर चुप्पी थोपने वाले समाज से. और बहुत सारे लोग इस पर कानूनी कार्रवाइयों को लेकर केंद्रित हो जाते हैं. कानूनी कार्रवाई की मांग पर ही सारा विमर्श केंद्रित कर देना भी एक ट्रॉमा है. ख़ासकर यौन उत्पीड़न या लैंगिक अपराधों के मामलों में. यह एक सेकंडरी ट्रॉमा है या कहें तो यह एक संस्थागत मानसिक हिंसा है तो अचरज़ नहीं.
यह ट्रॉमा इसलिए है; क्योंकि न्याय प्रणाली “मानव” नहीं होती, वह सांस्थानिक होती है. अदालतों में एक पूरा सिस्टम होता है, जो पीड़िताओं को रीरेप्ड करता है. इन कोर्ट्स में पीड़िता को फिर से उसी अनुभव से गुज़ारा जाता है जिससे वह निकलने की कोशिश कर रही होती हैं. सवाल, गवाही, क्रॉस एग्ज़ामिनेशन, चरित्र हनन, मेडिकल टेस्ट और न्याय मिलने की अनिश्चित-अंतहीन प्रतीक्षा, यह सब एक नए ट्रॉमा को जन्म देता है, जिसके लिए हम एक बहुत सही शब्द सुनते रहे हैं लीगल रेट्रूमैटाइज़ेशन.
न्यायिक प्रक्रियाएँ अक्सर महिला से ‘पवित्रता’ और ‘निसंदेहता’ की उम्मीद करती हैं. दुनिया के सभी कानून निर्वाचित पुरुषों ने सत्ता के केंद्रीय कक्षों में बैठकर बनाए हैं और इसीलिए वे कानून स्त्री को नहीं, सत्ता या पावर को प्रोटेक्ट करते हैं. यानी जब कोई स्त्री न्याय माँगती है तो उसे एकदम साफ, निर्दोष, पवित्र पीड़िता बनकर दिखाना पड़ता है. अगर उसने विरोध नहीं किया, अगर उसने चुप रहकर सहा या उसने अपने उत्पीड़क को पहले जान-पहचान रखा था तो उसका मामला कमज़ोर माना जाता है. यह न्याय प्रणाली नहीं, चरित्र परीक्षण प्रणाली बन जाती है.
ऐसा बहुत से लोग सोचते हैं कि सिर्फ़ एफआईआर, कोर्ट और जेल ही ‘न्याय’ हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. हमारी न्याय प्रक्रिया अपराधी को सज़ा तो देती है; लेकिन पीड़िता को विश्वास, सहानुभूति, सामाजिक समर्थन और आत्मसम्मान की बहाली की भी उतनी ही ज़रूरत होती है, जो न्याय प्रक्रिया से मिलती नहीं, अपितु अधिक छिन जाती है. जब समाज, मीडिया या कुछ ख़ास तरह के लोग प्रश्न करते हैं, “एफआईआर क्यों नहीं की?”, “सज़ा कब मिली?”, “कोर्ट में केस क्या हुआ?” तो वे इसके मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक पहलुओं को अनदेखा कर देते हैं, जिसमें पीड़िता पहले से ही झकझोरी जा चुकी होती है.
अदालतों की भाषा और संरचना एक औसत महिला के लिए बहुत डरावनी है. यह भारतीय अवधारणा ही नहीं, उन पश्चिमी या योरोपीय देशों का भी सच है, जहाँ स्त्री संवेदना और न्याय की बातें बहुत बढ़–चढ़कर की जाती हैं. पूरी दुनिया के कानूनी संस्थान एविंडेंस बेस्ड ट्रुथ की तलाश करते हैं, जबकि ट्रॉमा फ्रैग्मेंटिड मेमोरी की एक बहुत ही अवसाद भरी महागाथा है. इसलिए एक लड़की जिसकी स्मृति खुद टूटे हुए टुकड़ों में है, जब अदालत में टाइम लाइन, एग्ज़ैक्ट वर्ड्ज़ क्लोदिंग, कलर, फेस, हाथ, उंगलियाँ जैसे डिटेल्स वाले प्रश्नों की बौछार होती है तो वह अपराध के बजाय अपनी मेमोरीज़ पर खड़ा एक मुक़दमा लड़ रही होती है. और आप जानते हैं कि स्मृतियाँ तर्क के सामने नहीं ठहरतीं.
कानूनी प्रक्रिया ज़रूरी है; लेकिन इसे ही न्याय का एकमात्र मार्ग मान लेना, एक और प्रकार का अत्याचार है. यह ट्रॉमा के भीतर ट्रॉमा है, जहाँ पीड़िता को साबित करना होता है कि वह पीड़िता है. इसलिए ज़रूरी है कि हम कानूनी कार्रवाई की बात करें, लेकिन उतनी ही गहराई से सांस्कृतिक, भावनात्मक और नैतिक न्याय की बात भी करें. वरना हम पीड़िता से बार-बार कह रहे होते हैं: हमें तुम्हारे दर्द से कोई सरोकार नहीं; हमें बस तुम्हारा केस नंबर चाहिए.

28)
लेकिन कई बार हम जिन समाजों को ‘कम सुसंस्कृत’ या ‘ग्रामीण’ कह देते हैं, वहाँ प्रतिक्रिया अधिक प्रत्यक्ष और सटीक होती है. जैसे उस ग्रामीण माँ ने किया. वह जानती थी कि “जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाईड.” यही तो रेस्टोरेशन ऑव एजेंसी है. जब पीड़िता को उसके स्वयं के प्रतिरोध का अधिकार दिया जाता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि स्त्रियों का संसार बहुत दुविधा का संसार है. मामला भले प्रेम का हो या हिंसा का. हमें मन्नू भंडारी की कहानी “यही सच है” कितना कुछ बताती है. स्त्रियाँ निर्णय नैतिक सिद्धांतों से अधिक संबंधों और केयर एथिक्स के आधार पर लेती हैं.
शहरी पढ़ी-लिखी स्त्रियों के संबंध अधिक जटिल और सामाजिक नेटवर्क से बंधे होते हैं. वे सोचती हैं: अगर बोली तो मेरी रेप्युटेशन, मेरी जॉब, मेरे पेरेंट्स की इज्ज़त.. का क्या होगा? जबकि ग्रामीण या सीमांत समुदायों में रिश्तों की यह केयर ‘प्रतिरोध’ के माध्यम से अभिव्यक्त होती है. बेटी को सिखाना कि तुम चुप मत रहो, तुम्हारी गरिमा कोई छीन नहीं सकता.
दरअसल, एजुकेशन और सिविलाइज़ेशन के नाम पर कई बार कम्पलायंस सिखाया जाता है, विवेक या प्रतिरोध नहीं. हमारी मुख्यधारा पूरी शिक्षा प्रणाली इस बिंदु पर टिकी है कि हम अपने पैट्रियार्कल सिस्टम के प्रति सदैव आज्ञाकारी बने रहें. हम अपने शैक्षिक सिस्टम से एक पूर्ण “आपका आज्ञाकारी” या “आपकी आज्ञाकारिणी” नागरिक निकालते हैं, स्वतंत्र चेता नागरिक नहीं. इसलिए यह संभव है कि एक अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ी लड़की अपने उत्पीड़न पर चुप्पी साधे, जबकि खेतों में काम करने वाली उसकी समवयस्क बहन तुरंत बोल उठे: “ये ग़लत है!” ग्रामीण स्त्रियों के पास लॉस का डर कम होता है; क्योंकि उन्होंने कभी प्रेस्टीज़ इंस्टीट्यूशन में “फिट” होने की चिंता सीखी ही नहीं.
हम अपने पालन-पोषण को भी देखें तो यही सब है. बचपन में बच्चे को बार-बार यह सिखाया जाता है कि तुम अच्छे तभी हो जब चुप रहो या आज्ञा का पालन करो. और इस तरह हम आत्म-संवेदनशीलता के विरुद्ध एक्स्टर्नल वैलिडेशन की शिकार पीढ़ियों का निर्माण करते हैं. शहरी और शिक्षित घरों में बच्चे अक्सर पर्फेक्ट इमेज का बोझ ढोते हैं. पढ़ने दो, स्कॉलरशिप आएगी, बोलने से बदनाम हो जाओगी, ये कथन आत्मविश्वास को छुरी की तरह छीलते हैं. परंतु, ग्रामीण पृष्ठभूमियों में लड़की को यह सिखाया जाता है कि
“तुम किसी से कम नहीं हो, और तुम्हारा सम्मान तुम्हारे व्यवहार से नहीं, तुम्हारे प्रतिरोध से तय होगा.”
इसलिए वहाँ हम देख सकते हैं कि माँ ख़ुद बेटी को वापस भेजती है. यह रिवेंज नहीं है. यह रिक्लैमेशन ऑव वॉइस है.
वह क्षण जब कोई स्त्री सामाजिक फ्रेमवर्क को तोड़ती है और कहती है: बस अब और नहीं. वास्तव में यही फेमिनिस्ट स्नैप है. सुसंस्कृत समाज इस तरह लड़कियों या महिलाओं को हिस्टेरिकल, इमोशनल या ट्रबलमेकर कहकर चुप कराना चाहता है. लेकिन वह ग्रामीण माँ, जो अपनी बेटी को ईंट-पत्थर देने भेजती है, स्नैप करती है और साथ ही वह अपने समय, समाज और शक्ति-संरचना को तोड़ती है. यह फेमिनिज़्म का रॉ फॉर्म है, जो किताबों से नहीं, जीवन से उपजता है.
इसलिए, यह भ्रम छोड़ देना चाहिए कि साक्षरता, अंग्रेज़ी बोलना और शहरी शिष्टाचार ही स्त्री सशक्तिकरण के उपकरण हैं. कई बार असली शक्ति उन स्त्रियों में होती है जो आत्म-गौरव, साहस और सीधा न्याय पहचानती हैं. बिना इस डर के कि दुनिया क्या कहेगी. मेरी स्मृतियों की वह माँ अक्सर मुझे सिर्फ़ अपनी बेटी की नहीं, हर चुप कराई गई लड़की की आवाज़ प्रतीत होती है.
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संस्कृत कहावत है, अर्थातुराणां न सुहृन्न बन्धुः कामातुराणां न भयं न लज्जा. लेकिन मनोविश्लेषकों का कथन है कि शैडो मस्ट बी नेम्ड. कवि की सराहना करते हुए उसके अपराध को अनदेखा करना एक बीमारी का महिमामंडन है. युंग ने कहा था कि छाया का एकीकरण ही मानसिक संपूर्णता की ओर ले जाता है, न कि उसका इनकार या महिमा मंडन. यह एकीकरण तभी शुरू होता है जब हम उजागर करते हैं, भाषा का प्रयोग करते हैं, और टकराते हैं.
आप अवचेतन को जब तक सुचेतन नहीं करते, वह आपके जीवन को नियंत्रित करता है और आप उसे ‘भाग्य’ या ‘परिस्थिति’ कहते हैं. यदि साहित्यिक समुदाय आँखें मूंदता रहा तो वह भी संक्रमित हो जाएगा. उसका नैतिक दिशा सूचक यंत्र सुविधा से विकृत हो जाएगा. और तब जो हम ‘भाग्य’ कहेंगे, वह वास्तव में हमारी सहभागिता होगी. यह एक और दबा हुआ प्रकरण न बने. झाड़ू की तरह कलम भी उठे.
कवयित्री केवल काव्य के छंद या बंद ही नहीं, फ़ैसला भी लिखे; क्योंकि जब तक शिकारी का नाम उन गलियारों में गूंजता नहीं, जिनमें वह कभी पूज्य था, तब तक कोई कविता सुरक्षित नहीं, कोई शब्द पवित्र नहीं और कोई स्त्री स्वतंत्र नहीं. इसलिए लिहाज से नाम के साथ जो आवाज़ आई, वह एक सही है. छाया केवल वह नहीं है, जिसे हम छुपाते हैं; वह भी है, जिसे हम बर्दाश्त करते हैं; क्योंकि उसे नाम देना स्वयं को बदल देना होता है. तानाशाही सिर्फ़ गोलियों से नहीं बनती, वह स्मृति को मिटाने से भी बनती है. वह टाइरनी ऑफ़ फॉरगेटिंग ही तो होती है.
साहित्यिक समुदाय जब अपराध को महज़ “प्रसंग” कहकर बर्दाश्त करता है, जब कवि के अपराध को उसकी “कला” में छुपा दिया जाता है, तब दरअसल वह चुप्पी ख़ुद एक व्यवस्था बन जाती है. एक बदसूरत व्यवस्था, जिसमें क़लम स्याही से नहीं, संकोच से लिखती है.
दरअसल, हम तब सबसे अधिक ख़तरनाक होते हैं जब हम नैतिकता का बोझ दूसरों पर डालते हैं. मॉरल एजेंसी इज़ नॉट सस्पेंडेड; इट इज़ ट्रांस्फ़र्ड. जब हम यह मान लेते हैं कि “यह साहित्य है, यहाँ न्याय की कोई ज़िम्मेदारी नहीं,” तब हम दरअसल एक नैतिक द्वंद्व को स्थगित कर रहे होते हैं, जो हमारे ही भीतर पलता है, सड़ता है और फिर एक दिन हमारी भाषा में बोलने और बतियाने लगता है. वह भाषा जो अब मुक्त नहीं, पराजित होती है.
हम जब तक छाया को अवचेतन से निकालकर चेतना में नहीं लाते, वह जीवन को नियंत्रित करती है और हम उसे “भाग्य” कहकर स्वीकार कर लेते हैं. लेकिन यह भाग्य नहीं, हमारी सहमति है. यह साहित्य नहीं, आत्म-वंचना है.
यह शायद पाब्लो नेरूदा की ही कविता है कि आइ क्राईड फ़ॉर थिंग्स दैट हैड नो नेम. तो नाम देना होगा, शिकारी को, उसकी हवस को, उस चुप्पी को जिसने उसे अनुमति दी. संवेदना जीवन के सबसे ज़रूरी हिस्से का जीवंत ज़ुग़राफ़िया है. अर्थ ऑफ़ वूण्डेड साइलेन्सेस, फ़ॉरेस्ट्स ऑफ़ वैनिश्ड वॉइसेज़. वह जानता था कि कविता को ख़ामोशी से नहीं, टकराहट से जीवन मिलता है. और वह टकराहट तब तक सार्थक नहीं जब तक वह अन्याय से हो.
यदि कविता उस स्त्री की रक्षा नहीं कर सकती, जिसे उसने रचा है और रचयिता शील या संकोच से पीड़ित होती है तो वह कविता नहीं, गवाही से चुरा लिया गया एक अनलिखा या धुँधला कर दिया गया दस्तावेज़ है. और इस तरह के आयोजन के प्रबंधक अगर यह सब खुलकर नहीं कहते तो फिर इस तरह के आयोजनों का अर्थ क्या है?

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इस यौन दुर्व्यवहार प्रकरण में एक पहलू प्रतिभाशाली और उत्कृष्ट रचनाकार बनाम आपराधिक मानसिकता का भी चला हुआ है. इस प्रकरण में एक ध्वनि तो यह आती है कि यौन दुर्व्यवहार ने मानो श्रेष्ठता और उत्कृष्टता का प्रमाण पत्र सहज ही दे दिया. लेकिन यह बिंदु विचारणीय है अवश्य. इस मामले में सबसे बेहतर उदाहरण महान् वैज्ञानिक सर आइज़ैक न्यूटन का है. खगोलशास्त्री रॉयल जॉन फ्लेमस्टीड और दार्शनिक दार्शनिक गॉटफ्रीड लीबनिज के साथ गंभीर विवाद हुए. लीबनिज और न्यूटन दोनों ने स्वतंत्र रूप से गणित की एक शाखा विकसित की थी, जिसे कैलकुलस कहा जाता है, जो आधुनिक भौतिकी के अधिकांश भाग का आधार है. हालाँकि अब हम जानते हैं कि न्यूटन ने लीबनिज से कई साल पहले कैलकुलस की खोज की थी, लेकिन उन्होंने अपना काम बहुत बाद में प्रकाशित किया.
इस बात पर एक बड़ा विवाद हुआ कि पहले कौन था, वैज्ञानिकों ने दोनों दावेदारों का जोरदार बचाव किया. हालाँकि, यह उल्लेखनीय है कि न्यूटन के बचाव में आने वाले अधिकांश लेख मूल रूप से उनके अपने हाथ से लिखे गए थे और केवल दोस्तों के नाम पर प्रकाशित किए गए थे! न्यूटन ने प्रेजिडेंट के रूप में एक “निष्पक्ष” समिति नियुक्त करवाई, जिसमें न्यूटन के ख़ास दोस्त थे! समिति की रिपोर्ट भी ख़ुद न्यूटन ने लिखी और लीबनिज पर आधिकारिक रूप से साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया गया. फिर भी असंतुष्ट होने पर उन्होंने रॉयल सोसाइटी की अपनी पत्रिका में खुद ही गुमनाम समीक्षा लिखी.
लीबनिज की मृत्यु के बाद न्यूटन ने घोषणा की कि उन्हें “लीबनिज का दिल तोड़ने” में बहुत संतुष्टि मिली है. न्यूटन कैंब्रिज में कैथोलिक विरोधी राजनीति में सक्रिय हो गए और रॉयल मिंट के वार्डन के आकर्षक पद से पुरस्कृत किए गए. यहाँ उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग कुटिलता और कटुता के लिए अधिक सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीके से किया और जालसाज़ी के ख़िलाफ़ अभियान के नाम पर जाने अपने कितने ही प्रतिद्वंद्वियों को फांसी तक पर चढ़वा दिया. यह सब महान् वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑव टाइम : फ्रॉम बिग बैंग टु ब्लैक हाॅल्स” में लिखा है.
लेकिन प्रश्न पैदा होता है कि आइज़ैक न्यूटन इतना बुरा और दुष्ट आदमी था तो क्या हम उसके गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को नहीं पढ़ाएँगे? लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हर दुष्ट अपने आपको सर आइज़ैक न्यूटन मानने लगे. हालांकि आज के सोशल मीडिया के युग में ऐसा करने से किसी दुष्ट को कोई रोक तो नहीं ही सकता.
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लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती; क्योंकि छाया सिर्फ़ अपराध में नहीं, उसके आवरण में भी पलती है. कुछ जगहों पर एक शब्द गूंज रहा है आपसी सहमति. कुछ प्रतिष्ठान, संस्थाएँ और व्यक्ति अपने पास मौजूद अकूत धन, सत्ता और संसाधनों के बल पर इस अपराध को “सहमति” का वस्त्र पहनाते हैं. शक्ति और अधिकार जब ‘प्रोजेक्टिव आइडेंटिफिकेशन’ के ज़रिए दूसरे के अनुभव को विस्थापित करते हैं, तब पीड़िता अपराध की नहीं, अपराधी की भाषा में बोलने लगती है. उसे लगता है, “इसे मैंने चुना है.” यह “विल टू पावर” का ही एक सांस्कृतिक विस्तार है, जिसमें सत्ता अपने अधीनस्थ को इतना छोटा, तुच्छ और नगण्य बना देती है कि उसकी सहमति, वास्तव में आत्म-सुरक्षा का व्यवहार बन जाती है, न कि स्वतंत्र इच्छा का संकेत.
कुछ लोग इतने ऐयार होते हैं कि वे पहले से ही अपना सुनियोजित डिफ़ेन्स मैकेनिज़्म तैयार करके रखते हैं और मैन्युफैक्चर्ड कंसेंट भी. यही मैकेनिज़्म यहाँ “रैशनलाइज़ेशन” बनकर आता है और एक युवती या महिला यह मान लेती है कि जो हुआ, वह उसकी मर्ज़ी थी; क्योंकि उससे विरोध की कीमत नहीं चुकाई जा सकती.
इस सच को कौन नहीं जानता कि प्राय: समाज में जब अपराधी का नाम, प्रतिष्ठा और हैसियत इतने ऊँचे स्तर पर हो कि उसका आरोप लगाना ही आत्म-नाश हो, तब नैतिकता व्यक्तिगत नहीं, स्ट्रक्चरल क्वेश्चन बन जाती है. लेकिन यही वह बिंदु है, जहाँ कुछ सजग और सचेतन जन भी प्रश्न उठाते हैं, “आख़िर यह स्त्री-पुरुष का आपसी खेल ही तो है. अगर सहमति से हो रहा है तो यह अपराध कैसे है?” यह सब राजनीति में हम आए दिन देखते हैं. किस तरह किसानों की मैन्युफैक्चर्ड कंसेंट ली जाती है और किस तरह उनकी सहमतियों से कॉर्पोरेट कॉर्पोरेशंस के लिए ज़मीनों का अधिग्रहण करवाया जाता है.
दरअसल, यह दिखाता है कि हमारी संस्कृति में ‘सहमति’ को हम केवल ‘न कहने’ के साहस से आँकते हैं; लेकिन हम ‘हाँ कहने’ की विवशता को कभी समझ ही नहीं पाते. जाने ऐसे कितने अपराधी हैं, जो ‘हाँ कहने’ के पीछे के विवश संसार के अँधियारों को अपने आनंदलोक में बदले हुए हैं और वर्षों वर्ष से इसे अद्वितीय निडरता से कर रहे हैं. सहमति अक्सर सिर्फ़ एक शब्द नहीं होती, वह परिस्थितियों का दबाव, असमानता की स्वीकृति और आत्म-संरक्षण की मुद्रा भी होती है. जब कोई युवती अपने भविष्य, अपने पेशे या अपनी गरिमा की रक्षा के लिए ‘हाँ’ कहती है तो यह सहमति नहीं, छुपी हुई शिकारगाथा है. और हिन्दी साहित्य के सब सजग स्त्री-पुरुष जानते हैं कि इन शिकारगाथाओं की लाइव लोकेशंस कहाँ-कहाँ हैं.
पैसे, प्रतिष्ठा और पावर के प्रभामंडल में एक छद्म कन्सेन्ट कल्चर को जन्म ही नहीं दिया गया, इसे विकसित, संवर्धित और सुपोषित भी किया गया है, जिसमें सहमति एक झूठा बंध-पत्र बन जाती है. उस स्थिति का, जो पहले ही असमान है, भयभीत है और घुटन भरी है. इसलिए जब तक साहित्य उन नामों को उजागर नहीं करता जो “सहमति” के मुखौटे में छिपे शिकारी हैं, तब तक कोई कविता सुरक्षित नहीं, कोई स्त्री स्वतंत्र नहीं और कोई भाषा निर्दोष नहीं.
छाया को नाम देना केवल साहस नहीं, वह सृजन का पूर्वकथन है. हम जब तक अपराध को भाषा नहीं देते, वह मन के तहख़ानों में कवच पहनकर बैठा रहता है. साफ़-सुथरे काव्य में, शंसाओं, प्रशंसाओं और अनुशंसाओं में. संपादकीय टिप्पणियों में और आलोचना की ख़ामोशियाँ में. आप जब अन्याय को उजागर करने की जिम्मेदारी से बचते हैं तो वे अपराध की सेवा में लग जाते हैं. आर्किटेक्टचर ऑव फॉर्गेटिंग क्या है? मॉरल डिस्ऐंगेज़मेंट और क्या है? हम अपराधी कवि को “प्रतिभाशाली” कहकर उसकी नैतिक विफलता से मुँह मोड़ लेते हैं, तब हम दरअसल उस अपराध के सह-निर्माता बन जाते हैं.
छाया को सिर्फ़ नकारने से वह लुप्त नहीं होती; वह दृश्य बदल लेती है. मन की संपूर्णता छाया के एकीकरण से आती है. साहित्यिक समुदाय अब भी चुप रहा तो उसकी चुप्पी ही उसकी नैतिक संरचना का क्षय बन जाएगी. और कविता? वह तब तक सुरक्षित नहीं जब तक वह अपने भीतर खून के छींटों को पहचान न ले. नई कवयित्रियों को इस तरह रोक देने से कुछ नहीं होगा. लेकिन यह वसंत तभी आएगा जब कलम में फूल के साथ काँटा भी हो. तो आइए, कलम झाड़ू नहीं, हथियार बने. विचार का, भाषा का, प्रतिरोध का. याद रखना होगा कि इतिहास की सबसे गहरी ग़लतियाँ अक्सर सबसे मौन गलियों में जन्म लेती हैं. अब वह मौन टूटे. और अगर कविता न्याय नहीं मांग सकती तो शायद वह कविता नहीं, सिर्फ़ कलात्मक कूटभाषा है. कूटभाषाएँ ही अपराधों के अक्षयवट सींचती हैं.
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त्रिभुवन लेखक और वरिष्ठ पत्रकार |
बेमिसाल और अबतक के महत्वपूर्ण विवेचनों में से एक, हार्दिक बधाई और अभिनंदन
अक़्ल की कमानों में तीर जोड़ कर उल्टे
हम शिकार की धुन में ख़ुद-कुशी पे माइल हैं
— हयात वारसी
ख़ुद के अंधेरों से अनभिज्ञ रहकर कुछ लोग अनजाने ही में पिछले कुछ दिनों में अपने अन्तस के अंधेरों की झलक दिखला गये हैं। अगर उन प्रतिक्रियाओं को एकत्रित किया जाए जो पिछले दिनों इस प्रकरण के संदर्भ में आभासी मंच पर हुई हैं तो उत्पीड़क की श्रेणी में खड़े कई चेहरे साफ स्पष्ट उभर कर आएंगे। और मज़े के बात है कि उन्हें खुद इस बात की कोई ख़बर नहीं। (***वह अभी तक पटना में क्या कर रही है?*** बोलती क्यों नहीं साफ साफ? *यह तो बताए कि हुआ क्या है*) जो भी यह सवाल पूछ रहा है वो कमोबेश वही सवाल है जो कांड के समय सात साल की बच्ची से कई वर्ष बाद पूछा गया, * पहले क्यों नहीं बोली?* क्या कुछ कुछ ऐसे है सवाल और लांछन इस प्रसंग से जुड़ीं एक अन्य प्रतिष्ठित लेखक से नहीं पूछे जा रहे, जिनकी lynching करने वालों की संख्या भी कम नहीं। महिलाएं भी उन्हें प्रश्नांकित कर रही हैं…क्या उन भले लोगों को उत्पीड़क कहा जा सकता है जो उन वरिष्ठ और सम्मानित लेखक को हर्ट करने पर तुले हैं?
इस आलेख में सबसे माक़ूल उद्धरण jung का है। स्वयं के अँधेरों के रूबरू हुए बिना कोई दूसरे के अँधेरों को कैसे समझ सकेगा?
और करुणा का शब्द भी आया है। हालाँकि उसे और अधिक विस्तार देना चाहिए था… उत्पीड़क क्या करुणा का सुपात्र हो सकता है? उसपर करुणा करने की शर्तें और डेडलाइन क्या हों? क्या किसी को लग सकता है कि भारत के किसी भी कोर्ट में ऐसी सज़ा नहीं सुनाई जा सकती जो पिछले कुछ दिनों से उत्पीड़क और उसके परिजन भुगत रहे हैं? क्या हम उस सीमा तक पहुंच नहीं चुके कि तीर उल्टे हमीं को लग रहे हैं? हमारे अँधेरों को सार्वजनिक कर रहे हैं?
पीड़िता शब्द भी कवयित्री जैसा शब्द है, इस आलेख में संकेत भी है। यह शब्दावली भी बदलनी चाहिए। मानसिक आघात को गहरा करने कभी कभी ऐसे शब्द भी ज़िम्मेदार होते हैं। अपने अनुभव से कह रही हूँ। नाम सार्वजनिक हो जाने के बाद भी बार बार नहीं लेना चाहिए। *पीड़िता* को अपने नाम की पुनरावृत्ति से भी चोट पहुंचती है। यह भी अपने अनुभव से कह रही हूँ।
कुछ माह पहले इसी पत्रिका में मेरा आत्म गल्प छपा था। कोई गल्प शब्द को इस्तेमाल करने के पीछे लेखक की मंशा नहीं समझ पाए। मेरा नाम लेकर टिप्पणी करने लगे कि उन्हें बहुत बुरा लगा तेजी के साथ इतना बुरा हुआ है। मैंने उनसे इल्तजा कर नाम हटवाया।
उत्पीड़क की क़रीबी महिलाओं की दुविधाओं पर सुविचार करना ज़रूरी था, जो इस आलेख में अच्छे से हुआ है।
लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन इस आलेख में काफ़ी कुछ अच्छे से आ गया है। कुछ जगह थोड़ी गफ़लत होती है क्योंकि विचार का सूत्र बीच में टूट गया
पिछले डेढ़ घण्टे से खुद से लड़ने की प्रक्रिया में केवल इतना ही लिख पायी हूँ
त्रिभुवन के इस लेख से गुजरना एक कंपा देने वाला अनुभव रहा। गहरे अन्वेषण के बाद आये इस लेख के लिए समालोचन का आभार। इस प्रसंग पर जब इतनी बहसें और विचार आ रहे हैं, पहली बार इतना तार्किक , संवेदनशील, मनोवैज्ञानिक विवेचना पढ़ने को मिली।
“सबसे भयावह यह नहीं कि वह हो गया, यह है कि वह हुआ और तुम चुप रहो. एक बहुत बड़ा कवि अवसाद में आ जाएगा. वह आत्महत्या भी कर सकता है. और इस मानसिकता से गुजर रही पीड़िता के बजाय जब लोग उत्पीड़क की मन:स्थिति की चिंता करने लगें तो यह पत्थर के भी बोल उठने की ज़रूरत वाला क्षण है.
यौन हिंसा के प्रश्न पर प्रायः सभी पहलुओं का संज्ञान लेकर लिखा गया ज़रूरी विनिबंध।
इस तरह के लेख हमारे विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा होने चाहिए।
अंतर्जाल पर आसानी से उपलब्ध अपार पोर्न सामग्री पहले से ही विकृत समाज को जाने किस निचाई तक ले जाने की ताकत रखती है।
चुप्पी समाधान नहीं है। यह अपराध और अपराधी के बचाव में सहायक बन जाती है। त्रिभुवन का यह निबंध हमें कई तरह से सेंसिटाइज़ करता है।
प्रकाशित करने के लिए समालोचन का बहुत धन्यवाद।
धैर्य की परीक्षा लेता हुआ बेहद लंबा, मगर बहुत जरूरी, समझ को बढ़ाने वाला और लगभग सभी संबन्धित पहलू और बिन्दु छूता हुआ आलेख है।
संस्था पर उचित ही प्रश्न उठाया गया है, कम से कम जब इतनी देर के बाद तक कोई खास बात संस्था से शायद नहीं आई है।
यदि, पीड़ित का कोई निर्णय उन्हें सार्वजनिक बयान से रोक रहा हो तो अलग बात है। एक माह का समय संस्था को मिलना चाहिए।
इस आलेख में यह महत्वपूर्ण बात निकल कर आती है कि न्याय प्रणाली अपराधी को सजा भले दे दे मगर पीड़ित के साथ पूरा न्याय नहीं हो पाता। इस बाबत कानूनी और सामाजिक सुधारों पर सामाजिक चर्चा की आवश्यकता है।
न्याय प्रणाली में कई कमियाँ है – मैं विवाह के भीतर होने वाले यौन शोषण या बलात्कार की कानूनी स्थिति पर चिंतित रहा हूँ। एक बेहद गंभीर विडंबना है, पीड़ित को अदालत द्वारा आदतन या वैश्या कह देना। मैं कभी नहीं समझ पता कि जो आरोपी एक वैश्या से भी यदि सहमति नहीं ले पाया तो उसे दोषमुक्ति कैसे दी जा सकती है। कहा जा सकता है, मैं अनावश्यक असंबंधित बात कह रहा हूँ, मगर अदालत में किसी भी स्त्री को सबसे पहले “मैं वैश्या नहीं हूँ” सिद्ध करना ही होता है। शोचनीय स्थिति है।
बहुत अच्छा और प्रभावी लेख । बधाई!
लेख लंबा अवश्य है पर घटना विशेष को प्रत्येक एंगल से जाँचा-परखा गया है। संतुलित विश्लेषण है। बार-बार उंगली अपनी ही ओर उठती है कि एक समाज के रूप में हम इतने रुग्ण, इतने हृदयहीन ही नहीं, बुद्धि-विवेक से हीन भी कैसे हो गए हैं। Tribhuvan जी का यह लेख एकांत में पढ़ने के लिए ही नहीं है, मित्रों और तर्क समझने वाले साथियों को पढ़ाया भी जाना चाहिए। धन्यवाद आप दोनों को।
खासा प्रॉब्लमेटिक लेख है। “स्वच्छताकर्मी” स्त्री बनाम
” सवर्ण / ब्राह्मणवादी ” परिवार की स्त्री का विरोधाभास खड़ा करते हुए घुमा फिरा कर उत्पीड़न की जिम्मेदारी एक हद तक उत्पीड़ित के ऊपर ही डाल दी गई है। दलित और कमजोर वर्ग की स्त्रियों के साथ होनेवाली भयानक यौन हिंसा के इतिहास को बिलकुल भुला दिया गया है।
दूसरी तरफ यह भी बताया जा रहा है : “अपराध केवल सामाजिक दुर्घटना नहीं है. यह आत्मा और चेतना की शैडो से उपजा एक नकारात्मक; लेकिन बहुत गूढ़ दुरनुभव भी है!”
इस तरह सामाजिक संरचना के शक्ति समीकरण से उपजे अपराध को पता नहीं क्यों मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक रूप देते हुए अपराधी के लिए करुणा की सिफारिश करने की गुंजाइश बना ली गई है।
यौन हिंसा की सामाजिक संरचना पर कम ध्यान दिया गया लगता है।
लेख की तमाम स्थापनाओं पर गंभीरता से बहस होनी चाहिए।
आपने क्या किसी ऐसी स्त्री से सीधे बात की है या उसके सर्वाइवल की व्यथा गाथा को गहराई से पढ़ा है जिसका जीवन पटरी से उतरता उतरता फिर लगभग आजीवन ही सम्भल नहीं सका? आत्मा जो भी शै है या नहीं है, स्व भी कुछ है या नहीं है, मनोरोग कई बार धड़ल्ले से बिना सर्वाइवर से पूछे उसे गिरिफ्त में ले लेता है। custodial torture में कोई ग़रीब आदमी जिस तरह बेदर्दी से पीटा जाता है कौन कह सकता है यदि वह सर्वाइव करता भी है तो वह किस हाल में जियेगा।
मैं बहुत साल तक अपने अनुभव को लिख नहीं पाई। आज जब उस हैबतनाक हादसे को पेश आये 55 साल होने को आ रहे हैं मैं देखती हूँ कि अब जाकर कुछ हद तक हीलिंग हो पाई है
अपने स्त्री जीवन को मैंने इतना निडर जिया है, इतना खुला, इतना उन्मुक्त कि कम स्त्रियां ही ऐसा जी पाती होगी। सामाजिक दबाव को मैंने कभी एक पल के लिए भी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। बहुत अभावग्रस्त दिनों में भी ख़ुद के लिए कई शानदार पगडंडियों को शिल्पित किया।
इस सबके बावजूद भी वह दुस्स्वप्न और उससे उत्पन्न मानसिक रुग्णता मेरा साथ छोड़ने को राज़ी नहीं है। पितृसत्तात्मक किसी भी ढांचे में मैं कभी नहीं रही। रही भी तो उसे धूल फाँकने पर मजबूर किया , उसे अपने जीवन से त्वरित गति से निकाल फेंका।
वह पता नहीं आत्मा का घाव है, या अगर आत्मा नहीं है तो पता नहीं किस शै का घाव है जो मुझे पूरी तरह छोड़ कर कभी नहीं गया
इस टिप्पणी पर दूसरी जगह जो कहा था, यहां भी लिख देता हूं।
… आप ठीक कह रही हैं। मुझे दुख है कि इस पोस्ट से आपको वैसी तकलीफदेह यादों से गुजरना पड़ा। मुझे भी कुछ बहादुर सर्वाइवर स्त्रियों के संघर्ष को जानने समझने के अवसर मिले हैं। मैं उस यातना को कुछ कुछ पहचानता हूं। मैं भी यही कह रहा हूं कि अंततः अपने स्व पर उनका भरोसा ही उन्हें अपने जीवन को पुनर्निर्मित करने की हिम्मत देता है। अगर हम ये मान लें कि एक अपराध से वह स्थायी रूप से खंडित हो गया तो फिर लड़ेंगे कैसे! निश्चित ही यौन उत्पीड़न शारीरिक से अधिक मानसिक चोट है, लेकिन वह सर्वाइवर के स्व या आत्मा का स्थायी विखंडन न है, न उसे होना चाहिए।
सादर
अरुण जी, मैं आपकी बहुत आभारी हूं।इस लेख का एक एक शब्द सच है, स्त्री मन की इससे सच्ची एम आर आई नहीं हो सकती।इन बातों का तो अधिकांश महिलाओं को पता ही नहीं है। मुझे लग रहा है कि अंदर वाले इंसान को जगाने का इससे अच्छा उपक्रम नहीं हो सकता। हर रोज समालोचन की आतुरता से प्रतीक्षा रहती है।आपके सार्थक प्रयासों को नमन।
विषय को गहराई से खोलता अनेक प्रश्नों से जूझता और नए प्रश्न उठता एक जरूरी हस्तक्षेप । पत्रिका परिवार और लेखक दोनों दिली आभार। बहुत समय बाद इतनी तैयारी से सधा आलेख। मुबारक।
त्रिभुवन भाई, अनादि काल से ढोयी जाने वाली कुत्सित परम्परा पर शोधपरक और बहुत ज़रूरी आलेख.
त्रिभुवन का यह लेख सच में घटना को परिघटना और गंभीर विमर्श के परिक्षेत्र तक विस्तारित करते हुए उसका लगभग सभी संभव कोणों से विश्लेषण करता है। इसकी दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जेंडर, स्त्रीवाद, सामाजिकी, मनोविश्लेषण, सौंदर्यशास्त्र और दर्शन जैसे अनुशासनों से जरूरी मदद लेते हुए भी पूरे लेख में सृजनात्मक संवेदना और नैतिक हस्तक्षेप की उदात्त जबावदेही अन्तर्व्याप्त है। त्रिभुवन को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए और समालोचन को सामयिक प्रस्तुति के लिए आभार !
बहुत सुंदर आलेख है भाई। हर बात को खोलकर रखा है। बेबाकी से कही गयी बात। वैसे यही आपका स्वभाव भी है।
इतने सांद्र, गंभीर लेख का प्रकाश में आना स्वागतेय है। विचार के मोर्चे पर सजग, समाजविज्ञान, आधुनिकता और सभ्यता की असभ्यताओं को विमर्श में समेटता यह निबंध रेखांकन योग्य है। एकाधिक मायनों में यह विवेक को जाग्रत करने का आव्हान करता है। दबी-छिपी कुंठाओं, वर्जनाओं और जड़ संस्कारों की चिकित्सा की पहचान और किंचित उपाय भी प्रस्तावित करता है। नैतिकता की बहुआयामिता, उसके संबंधित संकटों को नये सिरे से स्मरण दिलाता है। उनकी नियत परिभाषाओं को गतिशील करना चाहता है।
हमारे प्रस्तुत समाज में व्याप्त अनेक विडंबनाओं को समक्ष करते हुए नेपथ्य में पड़ी मुश्किल रूढ़ियों को मंच पर समक्ष करने की यह ध्यातव्य कोशिश है। इस आईने में हमारे चेहरों को देखकर जैसे हम अचरज में आकर पूछ सकते हैं कि क्या ये वाकई हमारा अक्स है। भाषा विचार-संपन्नता से बेधक और वेधक हो गई है। न्यायालय परिसर या संस्थाओं की सीमाओं से परे जाकर न्याय को विस्तृत करने का आग्रह हमेशा ही एक आवश्यकता रही है। यह निबंध उसकी माँग को केंद्रीय बनाता है। पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शिक्षण और संवेदनशील समाज की निर्मिति इसमें महती, आधारभूत सहायता है। साहित्य, अन्य कलाओं और मनोविज्ञान की असंदिग्ध भूमिकाएँ हैं। यौन अपराध भी समाज की प्रगति-अवनति का एक सूचकांक है। इससे संबंधित अनेक पदों पर ऐतिहासिक ढंग से विचार ने इसे प्रखर बना दिया है।
इसमें वर्गीय दृष्टि से किंचित विचार है लेकिन वह उतना स्पष्ट नहीं हो सका है। इसे पढ़ते हुए ‘रचना और रचनाकार के अनिवार्य द्वैत’, ‘स्त्री पर एक मनुष्य और नागरिक के रूप में विचार’, ‘लैंगिकता से परे मनुष्य के रूप में शक्ति संरचनाओं में अमानवीय, क्रूर व्यवहार आदि गतिविधियाँ’ (जिनमें उनका केवल स्त्री या पुरुष होना निर्णायक नहीं होता है,) ‘सोशल मीडिया ट्रॉयल’, ‘स्त्री पक्षधर कानूनों का दुरुपयोग’ और ‘पितृसत्तात्मकता के विरोध में समान समाज या स्त्री सत्तात्मक समाज’, जैसे कुछ इन विषयों पर भी संलग्न विमर्श की आवश्यकता प्रतीत होती है।
लेकिन अपने समूचे प्रभाव में यह एक विरल आलेख है। यह समृद्ध करता है। अभी तक की समझ को प्रश्नांकित करते हुए, तर्कपूर्ण औचित्य की कसौटी पर कसता है। अनेक उक्तियों, मुहावरों और दृष्टांतों से सज्जित इस लेख को पढ़ना किसी लंबी, आवेगमयी कविता से गुज़रने जैसा है। जिसमें कुछ अँधेरी सुरंगों को भी हम पार करते हैं। यदि व्यक्तिपरक संकेतों को छोड़ दिया जाए तो यह एक व्यापक और सर्वकालीन महत्व का आलेख है। अस्मिता विमर्श पर अनिवार्य लिखत और पढ़त। इसे सहज ही श्रेष्ठ लेखन का दर्जा दिया जा सकता है। त्रिभुवन के इस विस्तृत आलेख ने मुझे न केवल प्रभावित किया बल्कि विवश किया है कि उनके लेखन को अधिक उत्सुकता और आशा से देखा जाए। विस्तृत प्रसार के लिए यह पुस्तिका के रूप में यथाशीघ्र आ सके तो बेहतर हो। त्रिभुवन जी को बधाई और धन्यवाद। ‘समालोचन’ ने इसे पेश करते हुए इतने सुंदर और मानीखेज चित्र लगाए हैं कि वे लेख के प्रवाह में शामिल हो गए हैं, उसे और अधिक दृष्टव्य बनाते हुए। इसलिए अरुण को भी विशेष बधाई।
वाह!
अनगिनत अंधेरों को प्रकाशित करता सुचिंतित आलेख। त्रिभुवन जी को बधाई । समालोचन का आभार।
अगर इस लेख को सूचनाओं के अतिरेक,गरिष्ठ विद्वता और समाज-विज्ञान की अकादमिक शुष्कता से मुक्त किया जा सके, तो यह हिंदी की एक शानदार और स्मरणीय कविता है।
यौन उत्पीड़न कई बार जानने वाले या उसके ही परिवार के सदस्य के द्वारा किया जाता है
बाद में घर की महिलाओ के द्वारा ही कहा जाता है कि चुप रहो तुम्हारी ही गलती होगी ऐसा समाज है हमारा जहा पर अपनी बेटी अपनी बहन को घर से बहार जाने के लिए रोक दिया जाता है उसके दर्द को चार दिवारी के अंदर दबा दिया जाता है यदि कोई लड़की खुलकर इसका विरोध करना चाहती है तो मार दी जाती है ऐसी ही घटना मेरी साथी दोस्त के साथ उसके पिता के द्वारा की गई थी जबरदस्ती यौन संबंध बनाना डरा धमका कर रखना विरोध करने पर बेल्ट से उसके शरीर पर अनगिनत जख्म कर देना और अंत में गला घोट कर खुद की ही बेटी को खुद के हाथों से मार देना
ऐसे ही अनगिनत अंधेरों से प्रकाशित *त्रिभुवन सर* आपका आलेख स्त्री को खुलकर बोलने और ऐसे अत्याचार , यौन उत्पीड़न , का सामना करने के लिए प्रेरित करता है यह बहुत ही शानदार और स्मरणीय लेख है शुभकामनाएं सर
इतनी गंभीरता और विषय की गहराई अद्भूत है… हमारे जैसों के लिए अकल्पनीय. विश्वविद्यालयों में इसका पारायण होना चाहिए…
वाह । आज की शाम यादगार बन गई।
फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि इस आलेख को एक संपादन की बहुत जरूरत है। किंचित अकादमिक रूखेपन को दुरुस्त करने के लिए और बोझिलता को सहजता में रूपांतरित करने की खातिर। फिर इसे पर्चा / पुस्तिका / पोस्टर बनाकर नगर – नगर / गली-गली बाँटा जाय।
बधाई लेखक को बहुत-बहुत और ‘समालोचन’ के संपादक को और भी बहुत ।
आज दोपहर बाद कुछ और सोचना था, पढ़ना था, लिखना था और कहीं जाना भी था. सब कुछ भूल गया. अभी थोड़ी देर पहले पता चला मैं तो इस दौरान ‘समालोचना’ में प्रकाशित त्रिभुवन जी का लेख ‘साहित्य का नैतिक दिशा सूचक’ को पढ़ते पढ़ते स्त्री-पुरुष के संबंधों के इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, साहित्य इत्यादि के गहन समुद्री-मंथन में वैचारिक अवधारणाओं की सापेक्षिता में उलझा हुआ हूँ. स्त्री-पुरुष के संबंध अधिकांश आदिम व कामगार तबकों में जितने सहज-सरल होते हैं, कथित सभ्य-सुसंस्कृत-शिक्षित-समृद्ध वर्ग में उतने ही मकड़जाली-जटिल होते हैं. त्रिभुवन जी का लेख लंबा है. पूरा पढ़ना चाहिए. अगर संभव नहीं तो कम से कम निम्न दो पैराग्राफ़ तो दूर तक सोचने के लिए विवश कर ही देंगे.
2.3
‘अब समय आ गया है कि ये महिलाएँ प्रेरणा कविता से नहीं, सड़क की उन आत्मजयी विद्रोही स्त्रियों से लें, जो सुबह-सुबह झाड़ू उठाकर कचरा साफ़ करती हैं. कचरा बहुत तरह का है और उसे साफ़ करने की ज़रूरत है. अब एनीमा को इवॉल्व करने की ज़रूरत है. वह उग्र हो, निर्लज्ज हो और प्रतिशोधी भी हो. साहित्य केवल कायरता को छिपाने का बहाना नहीं होना चाहिए, बल्कि साहस को गढ़ने की धधकती भट्टी होना चाहिए.’
28.2
‘शहरी पढ़ी-लिखी स्त्रियों के संबंध अधिक जटिल और सामाजिक नेटवर्क से बंधे होते हैं. वे सोचती हैं: अगर बोली तो मेरी रेप्युटेशन, मेरी जॉब, मेरे पेरेंट्स की इज्ज़त का क्या होगा? जबकि ग्रामीण या सीमांत समुदायों में रिश्तों की यह केयर ‘प्रतिरोध’ के माध्यम से अभिव्यक्त होती है. बेटी को सिखाना कि तुम चुप मत रहो, तुम्हारी गरिमा कोई छीन नहीं सकता.’
बहस का मुद्दा है-महिला अत्याचार बनाम महिला सशक्तिकरण!
बहुत खरा और गहरा लिखा है। यही त्रिभुवन जी के लिखे की निशानी है। यह लेख न सिर्फ सोचने को मजबूर करता है बल्कि इस विमर्श को नया आयाम भी देता है। “साहित्य केवल कायरता को छिपाने का बहाना नहीं होना चाहिए, बल्कि साहस को गढ़ने की धधकती भट्टी होना चाहिए” यह लाइन याद रहेगी। और यह लेख भी।