कहानी एक मुहब्बत की ख़ुर्शीद अकरम |
फ़र्ज़ करो यह इन्सानों की दुनिया की कहानी है. इन्सानों की. एक लड़का और लड़की की मुहब्बत की. ताज़ा-ताज़ा जवान हुए लड़के और लड़की की कोरी और पहली-पहली मुहब्बत की जब माहौल पूरी तरह अनुकूल हो. आसमान का रंग नीला हो, या कम से कम उन्हें नीला ही लग रहा हो, हालाँकि उन्होंने उस वक़्त जबकि वे अपने प्यार के लम्हों को जीने में लगे हों, आसमान की तरफ़ देखा भी न हो. ज़मीन हमवार थी. नरम थी और उससे एक सोंधी ख़ुशबू आ रही थी. हवा भी बस इस रफ़्तार से बह रही थी कि चौकड़ियां भरते जोड़े के बदन गर्मी से तप रहे हों लेकिन खाल पर पसीना न आए. लड़की की चमड़ी ताज़ा पके हुए फल की तरह चमक रही थी. ऐसी तेज़ चमक नहीं कि आँखें चुन्धियाँ जाएं या अंधेरे में ले जाओ तो सब कुछ जग-मग जग-मग हो जाए. बस ऐसी चमक जो चमड़ी के अंदर से निकल कर बाहरी हिस्से पर एक लेप की तरह चढ़ जाती है. ऐसी चमक जिसको देख कर जी चाहता है, छू दें, सहला दें, बुरी नीयत से नहीं, बस पुलकित हो कर, बस तारीफ़ के तौर पर, बस ईर्ष्या के भाव में.
लड़की की आँख! ओह, वे तो प्यार के इस खेल में, जिसमें वे आनंद की एक बहुत ऊंची उड़ान पर थे, हीरे की तरह चमक रही थीं. नहीं इसे यूं कहना पूरी तरह ठीक नहीं है. हीरा एक बे-जान चीज़ है. आँख बे-जान चीज तो नहीं. यूं कहा जाये कि वे उस तितली की तरह थीं, जो भर्रा मारकर पहली बार उड़ रही हो. और उसके बदन का लोच, जैसे यूक्लेप्टस के पेड़ झूमते हैं. पेड़ तो एक ही जगह खड़े-खड़े झूमते हैं. वो बदन प्यार की फ़ुहार में झूमते हुए जैसे पूरी धरती पर घूम रहे थे.
ज़मीन का जो छोटा सा टुकड़ा उन्हें हासिल था वो उस वक़्त पूरी पृथ्वी के बराबर था. लड़का भी अभी-अभी जवान हुआ था. उस के अंग-अंग फड़क रहे थे. उसकी ललक शेर की सी थी, और लड़की की चौकड़ियाँ हिरनी जैसी. वह हिरनी जो अपने शेर को ख़ुद रिझाती और ख़ुद ही उसे जुल दे जाती. कभी जो जुल देने में नाकाम हो जाती और लड़का उसे दबोच लेता तो वो सुपुर्दगी के साथ उस से लिपट जाती और उस पर अथाह प्रेम के चुंबन न्योछावर करती.
प्यार और ज़्यादा दिलकश हो जाता और ज़्यादा मतवाला हो जाता. प्यार का ये खेल जारी है और इस खेल को अब ज़रा कुछ आगे भी बढ़ना चाहिये. कैसे? ये लीजिए लड़का, अपनी पौरुष प्रकृति के मुताबिक़ कुछ पा लेने के लिए आगे बढ़ा है. उसने दस्त-दराज़ी की है, लड़की के गुप्तांग की तरफ़. काम ही तो प्यार का शेष है. भोग विलास का अपार आनंद ही तो उस का चरम है. लेकिन लड़की छिटक कर दूर हो जाती है. उस की आँख से साफ़ प्रतीत है, ‘ना… ना… ना… हद से आगे मत बढ़ना’. मर्द पाता है, हर वक़्त पाने और हर वक़्त जीतने के झोंके में रहता है. औरत सहेजती है. उस वक़्त तक जब तक कि उस का दिल अपनी सहेजी हुई अमानत को ख़ुद निछावर करने पर न आ जाए.
पुल्लिंग मियां समझ गए. उन्होंने अपनी वासना को जो विलासिता की बिलकुल पहली ही सीढ़ी पर थी, क़ाबू में किया. और स्त्री जिसे इस बात की ख़ुशी थी कि पुरुष ने बेबाकी दिखाई, पहल की, लेकिन ज़ोर-जबरदस्ती नहीं किया. पिल नहीं पड़ा. जहां रोका, वहीं ठहर गया. तो उसे पहले से ज़्यादा अपने पुरुष पर प्यार आया और वह पहले से ज़्यादा प्यार ले कर अपने पुरुष की तरफ़ बढ़ी. पल-भर के वक़फ़े के बाद जैसे अंधेरे कमरे में बल्ब बुझ कर फिर जल जाता है, उनके ख़ून में मुहब्बत का गुलाबी रंग तेज़-तेज़ दौड़ने लगा. खेल फिर चलने लगा. भरे हुए प्याले की तरह छलक-छलक जाने लगा.
कोई खेल, प्यार का कोई खेल, बे-रोक-टोक नहीं चल सकता. रुकावट डालने के लिए कभी दुनिया बीच में आ जाती है कभी रक़ीब.
लीजिये ! रक़ीब आ गया. रैम्बो. रैम्बो हाथ पाँव से बड़ा था, बदन से तगड़ा था, आवाज़ से भारी था. और चूंकि वह रैम्बो था, इसलिए हर रैम्बो की तरह यही समझता था कि उसके होते कोई स्त्री किसी दूसरे पुरुष की कैसे हो सकती है. हर स्त्री उस की मिल्कियत है. और कोई दूसरा पुरुष अगर वह ख़ुद रैम्बो नहीं है, तो उस की मौजूदगी में किसी स्त्री से प्यार नहीं कर सकता. हमारी कहानी का पुरुष रैम्बो नहीं था. सेहतमंद था, जवान था, मगर रैम्बो नहीं. रैम्बो आते ही गुर्राया, जैसे कोई भारी भरकम कुत्ता गुर्राता है.
फ़र्ज़ कीजिए वह इनसान नहीं था, कुत्ता ही था. एक बड़ा सा मोटा तगड़ा कुत्ता. जिसका चेहरा ग़ुस्से से कर्कश हो रहा था. और यह भी मान लीजिए कि हमारी कहानी के ये स्त्री-पुरुष लड़का लड़की नहीं थे. इन्सान नहीं थे. कुत्ता और कुतिया ही थे, जिनके नाम, (ये भी फ़र्ज़ कर लीजिए कि) हीरा और मोती थे. रैम्बो हीरा की तरफ़ बढ़ कर, ज़ोर से गुर्राया. हीरा भी गुर्राया. रैम्बो ने दाँत निकाले, हीरा ने भी. मगर उसके दाँत रैम्बो से छोटे और कम नुकीले थे. अभी हीरा के दाँतों में प्यार की वो नर्मी बची हुई थी जो कुछ पल पहले तक अपनी मादा की गर्दन में प्यार से गड़ा कर, उसके पाँव खेंच कर, उस के कान पकड़ कर उस के प्यार को भड़का रहे थे, संतुष्ट कर रहे थे. हीरा के दाँत अभी, इस वक़्त तो हड्डी चबाने के काम के भी नहीं थे. लड़ाई के लिए तो वे इस वक़्त बिल्कुल ही तैयार नहीं थे.
रैम्बो के मुक़ाबले हीरा ने जो अपने दाँत निकाले थे तो वह तो सिर्फ इसलिए कि अपने बचाव में कम से कम यह तो करना ज़रूरी था. गुर्राते हुए रैम्बो के जवाब में गुर्राता हुआ हीरा एक दूसरे से हाथ भर दूर खड़े थे. कौन से हाथ, कुत्ते के हाथ तो होते नहीं. वह इन्सान की तरह सीधा खड़ा हो जाएगा तो भी उस के इन्सान की तरह दो हाथ और दो पाँव नहीं हो जाएंगे. कुत्ते तो चौपाया ही रहेंगे. आख़िर को इन्सान और जानवर में फ़र्क़ है. इन्सान फ़र्लांग भर दूरी से भी हमला कर सकता है. मार सकता है. इन्सान को भी और जानवर को भी. उसके हाथ में पत्थर है, तीर-कमान है, ग़ुलेल है, बंदूक़ है, बमबार है और रीमोट का बटन है. जानवर के पास कुछ नहीं. उस के हाथ में कोई हथियार नहीं. वो जन्मजात अपने उन्हीं हथियारों से लड़ रहा है और आत्म-रक्षा कर रहा है जो उसके उदय के साथ-साथ उसके वजूद से ही फूटे हैं.
कुत्ते का सबसे बड़ा हथियार उसके दाँत हैं. और इस वक़्त रैम्बो और हीरा एक दूसरे पर दाँत निकाले एक दूसरे से जस्त भर के फ़ासले पर खड़े हैं. दोनों गुर्रा रहे हैं, फ़र्क़ सिर्फ ये है कि रैम्बो की गुर्राहट में ग़ुस्सा है, नफ़रत है, हीरा की गुर्राहट में आत्मरक्षा का भाव है, विनती है कि भाई तुमने हमारे खेल में विघ्न क्यों डाला. हमने आख़िर तुम्हारा क्या बिगाड़ा. लेकिन रैम्बो को यह सब सुनना ही नहीं. उसके अंदर दुनिया भर की नफ़रत है. ग़ुस्सा है. जिसकी वजह चाहे कुछ भी न हो लेकिन जो है, जिसका वजूद है. जहां प्यार है, वहां नफ़रत अपने वजूद को मनवाने के लिए ज़्यादा ज़ोर लगाती है. नफ़रत ने जस्त भरी. अपने दाँत प्यार की गर्दन में गड़ा देने, उस का ख़ून पी जाने, उसे ख़त्म कर देने के लिए. रैम्बो की जस्त से हीरा सहम गया है, मगर अभी उसने मैदान नहीं छोड़ा है. उसकी स्त्री अभी वहीं पर है और बेबसी से हैरान-परेशान आस-पास भाग रही है, कूद रही है. रैम्बो हमलावर हो गया है और हीरा दुम दबाए बस बच रहा है, इधर से उधर भागता हुआ. अब इस ख़ूनी खेल में मोती का भी कोई रोल है? इधर से उधर भागती, हलकान होती
मोती को अपना रोल समझ में आ गया है. अब वह हल्के-हल्के दुम हिलाती, जैसे सुलह के लिए तैयार, जैसे ख़ुद को सपुर्द करने वाली हो, रैम्बो की तरफ़ बढ़ती है. रैम्बो का ग़ुस्सा जैसे कम हो गया, एक तरह के फ़तह के नशे में बदलने लगा. हीरा एक तरफ़ खड़ा हो गया, पैंतरे बदलते हुए, दाँत निकोसते हुए. मगर मोती यह क्या कर रही है. रैम्बो को देखकर पिघल गई, बेवफ़ा हो गई. इन्सानी दुनिया में इन्सानों की कहानी में ऐसे मौक़ों पर ऐसे मंज़र पर जो स्त्री है, वह बेवफ़ा हो जाती है. सचमुच. रैम्बो की पनाह में आ जाती है, अपने हीरा को एक दिल तोड़ देने वाला ख़त लिखकर या उसके सामने से अंजानेपन से गुज़र कर. या यह न हो तो विपरीत होता है, यानी महबूब उसे बेवफ़ा समझ कर, ग़ुस्सा से भरा चल देता है, महबूबा को अपनी तनहाई से लिपट कर रोते हुए, अपने तकिये को आंसुओं से भिगोते हुए छोड़कर.
इन्सानों की दुनिया में प्यार है तो धोका भी है, वफ़ा है तो बेवफ़ाई भी. सुपुर्दगी भी है और भरम भी. कुत्तों की दुनिया में ये नहीं होता. यह कहानी सुनाने वाला इन्सानों की दुनिया का एक बाशिंदा है और इसलिए उसने इन्सानी आँख से हीरा की आँखों को देखकर ये फ़र्ज़ कर लिया कि मोती पिघल रही है, बेवफ़ा हो रही है. यह कहानीकार सभ्य इन्सान न होता, कुत्तों की दुनिया का वासी होता, कुत्ता होता तो वह देख लेता कि मोती ख़ुद को उस के सुपुर्द नहीं कर रही, उसे रिझा नहीं रही. वह जो रैम्बो की तरफ़ बढ़ी है तो वह दिखावे का दुलार है. रैम्बो के अंग मगर अब भी ग़ुस्से से फड़क रहे हैं और वह अब भी रह-रह कर हीरा की तरफ़ देख कर ग़ुर्रा रहा है.
अब उसके बाद का मंज़र इस कहानीकार के लिए, जो इन्सान है और इसलिए सिर्फ इन्सानों की सी मामूली आँख रखता है, हैरान कर देने वाला बल्कि दिल डुबो देने वाला है. मोती रैम्बो के सामने लेट गई है. उसके लिए बिछ गई है. ऐसे जैसे कोई औरत हार मान कर बिछ जाती है और मर्द उस के ऊपर आकर उसे अपनी क्रूर वासना भर जीत लेता है और शेर की तरह अपने जबड़ों पर लगे ख़ून चाटता, एक फ़ातिहाना डकार के साथ आगे बढ़ जाता है. रैम्बो को ठंडा करने के लिए, अपने प्यार को बचाने के लिए वह चित्त लेटी अपने हाथ-पाँव चला रही है. अजीब-अजीब सी मद्धम-मद्धम आवाज़ें निकाल रही है. लेकिन यह वह मीठी नरम आवाज़ नहीं जो अब से कुछ देर पहले प्यार के लम्हों में उसके मुँह से रह-रह कर निकल रही थी, प्यार के खेल को बढ़ा रही थी. अब इन सिसकारियों में, हाथ-पाँव की इन कोमल हरकतों में, बदन के इस लोच, लचक में, थिरकन में, प्यार नहीं था. विनती थी, प्रार्थना थी, अनुरोध था, इल्तिजा थी. रैम्बो उसके बहुत क़रीब आकर ठहर गया है. उसको देख रहा है जो लगातार वही सब किए जा रही है.
रैम्बो अब बिलकुल शांत हो गया. जैसे उसने मोती की इल्तिजा क़बूल कर ली. मोती उठ कर खड़ी हो गई. रैम्बो के मुँह से मुँह लगाकर ज़रा की ज़रा उसे चूमती हुई उसके दाएं बाएं हो रही है. रैम्बो कुछ देर खड़ा रहा, उसने सिर ऊपर की तरफ़ कर लिया, इस तरह कि अब वह मोती को नहीं, दूर किसी शून्य को देख रहा हो. रैम्बो ने अपनी दुम धीर-धीरे हिलाना शुरू किया, ऐसे जैसे उसे भूख तो न थी लेकिन दो एक बिस्कुट उसकी तरफ़ भी आ गए थे और उसके दाँतों और ज़बान को मजा दे गए थे. तो अब रैम्बो अपने भारी डील-डौल के बावजूद एक मामूली कुत्ता बन गया था. वह जो कृतज्ञता में दुम हिला सकता है और भूख के वक़्त में चिचोड़ी हुई हड्डियों के लिए गलियों-गलियों भटक सकता है.
फ़र्ज़ कीजिए कि वह रैम्बो न था, गली-मुहल्ले में भटकने वाला आवारा कुत्ता था, जिसे हम दुत्कार देते हैं और वह किसी तरह का प्रतिरोध किये बगैर चल देता है. और वे हीरा-मोती भी ऐसे ही मुहल्ले के कुत्ते थे, जिनकी परवरिश किसी की जिम्मेवारी नहीं होती और इसीलिए जो नाम अब तक फ़र्ज़ कर लिए गए थे, वो उनकी हैसियत से बहुत ज़्यादा थे. वो इतने हक़ीर थे कि उनके नाम भी न थे. तो वह बेनाम मोटा तगड़ा कुत्ता, प्यार के लम्हों में मगन जोड़े को, छोड़ कर धीरे-धीरे दुम हिलाता और दुलकी चाल चलता हुआ आगे बढ़ गया.
ज़मीन के इस टुकड़े पर जो हवा ठहर गई थी, गर्म हो गई थी, फिर बह निकली, फिर नरम हो गई. ज़मीन से सोंधी महक एक-बार फिर उठने लगी. ज़रा दूरी पर खड़े दरख़्त पर गिलहरियों का फुदकना दिखाई देने लगा और चिड़ियों का चहचहाना फिर सुनाई देने लगा.
पुल्लिंग-स्त्रीलिंग नहीं, लड़का और लड़की नहीं, हीरा और मोती नहीं, वो बेनाम कुत्ता और कुतिया, एक बार फिर आँखों में प्यार लिए अंगड़ाइयों भरे बदन के साथ एक दूसरे की तरफ़ बढ़े.
..और यह कहानी इस मामूली दृश्य पर ख़त्म हुई. आख़िर को कुत्तों की ही तो कहानी थी, कोई इन्सानों की तो थी नहीं, कि किसी भयानक घटना पर ही ख़त्म होती.
(मूल रूप से उर्दू में लिखी इस कहानी का हिंदी में अनुवाद ख़ुद कथाकार ने किया है.)
ख़ुर्शीद अकरम मूल रूप से उर्दू में लिखते हैं. दो कहानी संग्रह, कविता और आलोचना के एक-एक संग्रह और अनुवाद सहित लगभग दस किताबें प्रकाशित. संपर्क: |
सुबह एक अच्छी कहानी पढ़कर आसमान में टंगा ही रह गया। गोया यह कहानी न हुई अजूबा है गया। खुर्शीद अकरम साहब की कहानी नसों में लावे की तरह फ़ैल गई। उर्दू कहानी कहते हैं जिसे वह अपने दांव-पेंच में हिन्दी कहानी से भारी पड़ती है। लड़की -लड़का का प्रेम अजनबी नहीं है , मगर उनके प्रेम के उठान की हलचल को कहानीकार ने जो शब्द दिए हैं वह हृदय को चीर देनेवाले हैं। जैसे संपूर्ण ब्रह्मांड का सौन्दर्य और उसकी जिजीविषा सिमट आयी
हो उनके भीतर। जैसे ही लड़की का प्रेम समर्पित होने को आगे बढ़ता है एक भूचाल सा आता है और उसके सामने रकीब यानी रैम्बों आ खड़ा होता है। जैसा कि हर प्रेमकथा में खलनायक आ खड़ा होता है। खलनायक न हुआ कुत्ता हो गया-खूंखार और रक्त-पिपासु। दरअसल, कुत्ते को चाहिए क्या गोस्त। मांस-हड्डी। कुत्ता तो कुत्ता है, वह कब माननेवाला था। हीरा कोई फिल्मी नायक होता कुत्ते की हड्डी-पसली एक कर देता। मगर वह हिन्दी-उर्दू कहानी का प्रेम में पागल या प्रेमिका के देह को लालायित नायक हैं, जो ऐसे अवसरों पर पिद्दी साबित होता है। लड़की जो मोती बन चुकी है, प्रेमचन्द की कहानी ‘हीरा-मोती’ की मोती बन जाती और हीरा के साथ दीवार फांद सकती। पर उर्दू कहानी की नायिका हैं – वह। कुर्बानी दे सकती थी वह , मगर उसने समर्पण का रास्ता ही अख्तियार किया। और सचमुच वह खूनी पंजावाला कुत्ता दुम हिलाने लगा। कुत्ते को चाहिए थी एक अदद हड्डी। गोस्त के कुछ टुकड़े। कहानी का अंत त्रासद है। कहानी का अंत चौंकाता नहीं, लेकिन कहानी की पूरी बुनावट उसकी सिसकती भाषा बांध लेती है। कहानीकार के कहन में जादूगरी तो है ही, ऊपर से उर्दू का तिलिस्म सिर चढ़कर बोलता है।
Heera Lal Nager sahab ne naya comment karney ke saarey raastey hi bannd kar diye, kahney/likhney ki space hi nhien chhodi.
Jitni ucchy pae ki aala kahani aur usi naap ka Nager sahab ka comment.
Jisey kahtey hain kahani , apney kahani pan se lbrez, saarey gun liey huey hai ” Kahani ek Mohabbat ki” rooh khush ho gyee. Bdhai patr hain
Jnaab Khursheed Akram saah aur prof. Arun Dev.
हीरालाल नागर जी की टिप्पणी के बाद एक बार फिर से कहानी पढ़ी। दूसरे एंगल से देखें तो नायिका इसमें नायक को बचाती है और फिर उसके साथ साथ चल देती है।नायक तो पराजित हो ही चुका है।कह सकते हैं कि एक पराजित योद्धा के प्रति वफादारी की यह कहानी थोड़ी अलग सी है।यह कुत्तों और मनुष्यों पर समान रूप से फिट बैठती है। स्त्री की यहां अपरिमित उदारता है। फिर यह भी तो देखें कि इस पूरे घटनाक्रम के बाद पुरुष उसके साथ है।वह क्रोध कर भी नहीं सकता।इस कहानी से और कहानियां निकलती हैं।अब लेखक इसे मुहब्बत की कहानी कह रहे हैं तो यह स्त्री का प्रेम है। पराजित पुरुष तो आत्मदया का शिकार है,वह मृतप्राय है।
व्यावहारिक जीवन में इससे भी विद्रूप और भयानक कहानियां हैं।इस पर लंबी बात की जा सकती है। पहली नज़र में कहानी जैसी लगी,उसी के संबंध में यह विनम्र टिप्पणी है।
बेहतरीन कहानी पढ़कर आज की शाम बन गई। कहानी में गुपचुप पिरोया हुआ व्यंग बहुत मारक रहा और आज की सबसे तीव्र आलोचना/गाली रही – “सभ्य इंसान”
सुबह की चाय के साथ इस कहानी का लिंक उत्सुकतावश खोला और यह उत्सुकता कहानी के अंत तक बनी रही। कहानी के माध्यम से आत्मविश्लेषण का अवसर भी मिला ।जीवन की व्यस्तता में कहानियां कहीं पीछे छूटती जा रही है। बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से मानवीय संबंधों को उकेरा गया है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता यह स्त्री का प्रेम है , मानव जीवन में पराजित पुरुष किस तरह से बाद में प्रतिक्रिया देता है यह शोध का विषय है। कहानी में शब्दों का चुनाव बहुत ही सुंदर ढंग से किया गया है।बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा पढ़ा कि मन सोचने को विवश हो गया।
अद्भुत कहानी है। कविता की तरह करवटें लेती और परवान चढ़ती है। अंत की एक पंक्ति अनेक भयावह संभावनाएँ उकेर जाती है। ख़ुर्शीद अकरम को तबसे जानता हूँ जबसे उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू किया होगा। अपनी कहानी और कविताओं में शायद ही कोई ऐसा मौक़ा आया हो जब उन्होंने प्रभाव न छोड़ा। उर्दू मैं यह कहानी तो मिसाल होगी ही हिन्दी के पाठकों के लिए भी इसका प्रभाव आंदोलित करने वाला है। प्रिय ख़ुर्शीद को बहुत बधाई!