गांधी और तत्कालीन हिंदी पत्रिकाएँ(सन्दर्भ: ‘स्त्री-दर्पण’ और ‘ब्राह्मणसर्वस्व’) सुजीत कुमार सिंह |
महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन का शताब्दी वर्ष बग़ैर किसी आयोजन के ही बीत गया. हिन्दी साहित्य में जिस गांधी-युग की बात की जाती है, उसका आरम्भ इसी आन्दोलन से होता है. हिन्दी समाज किसी रचनाकार की शताब्दी वर्ष को धूमधाम से तो मना रहा है लेकिन आन्दोलनों की बात करें तो वह चुप्पी साध लेता है. इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन ने बुनकरों, स्त्रियों और दलितों के जीवन को बदलकर रख दिया था. पिंजरे में क़ैद स्त्रियाँ गांधी के कथनों पर अमल करतीं, चरखे और खादी के महत्त्व को समझने का प्रयास करते हुये उनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करतीं. हिन्दी समाज की महिलाओं को जागरित करने का एक बहुत बड़ा प्रयास ‘स्त्री दर्पण’ की लेखिकाओं ने किया था. गांधी यह देख रहे थे कि तथाकथित कुलीन हिन्दुओं ने स्त्री व दलित समाज को हाशिए पर धकेल रक्खा है. हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी मनमुटाव को भी वे महसूस कर रहे थे. गांधी जी का मानना था कि इन्हें मुख्यधारा में लाए बिना स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ना मुश्किल है.
बीसवीं सदी के आरम्भिक दो दशकों की पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करते हुए मैंने देखा कि गांधी जी द्वारा अफ्रीका में किए जा रहे कार्यों-आन्दोलनों की नोटिस हिन्दी संपादक ले रहे थे. अपने आरम्भिक अंकों में ही ‘स्त्री दर्पण’ ने गांधी दम्पति का चित्र छापा था. भारत आने पर गांधी के विचारों का प्रभाव हिन्दी संपादकों और लेखकों पर पड़ा. लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हिन्दी के वर्णवादी व रूढ़िवादी संपादकों ने गांधी का जबरदस्त विरोध भी किया.
अपने इस लेख में हिन्दी की दो प्रमुख पत्रिकाओं ‘स्त्री दर्पण’ तथा ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ के माध्यम से यह दिखलाने का एक नम्र प्रयास करूँगा कि इनके संपादकों ने गांधी के असहयोग आन्दोलन और उनके रचनात्मक कार्यों को किस रूप में लिया!
स्त्री-दर्पण
इलाहाबाद ला जरनल प्रेस से प्रकाशित तथा रामेश्वरी नेहरू संपादित ‘स्त्री दर्पण’ हिन्दी की एक प्रमुख पत्रिका थी. अगस्त 1921 के ‘स्त्री दर्पण’ (भाग 25 : अंक 2) में जयरानी रोहतगी का लेख ‘असहयोग और स्त्रियाँ’ प्रकाशित है. इसमें बताया गया है कि देश के समस्त स्त्री-पुरुष गांधी के असहयोग आन्दोलन को जानने लगे हैं किन्तु स्त्रियाँ गांधी के कथनों का समर्थन नहीं करतीं. जयरानी रोहतगी इस बात पर बल देती हैं कि प्रत्येक स्त्री ‘गांधी जी के वाक्यों का यथार्थ रीति’ से समर्थन करें. वह लिखती हैं :
“गांधी जी का कथन है कि असहयोग के समय में स्त्रियों का मुख्य कर्तव्य चर्ख़ा चलाना और सूत कातना है जिससे भारतवर्ष में स्वदेशी कपड़ों का प्रचार हो. हर स्त्री को उनके वचनानुसार चर्ख़ा चलाना चाहिए. बहुत सी स्त्रियाँ इसको निन्दास्पद और घृणित कार्य समझती हैं, वह यह नहीं समझतीं कि विदेशी वस्तु ख़रीदने से भारत का रुपया अन्य देशों को चला जाता है, और तब ही भारत की यह दुर्दशा है.’’
औपनिवेशिक भारत के शिक्षित स्त्री-पुरुष योरप की सभ्यता और संस्कृति से चकाचौंध थे. भारतीय परंपरा और संस्कृति उनके लिए अनाकर्षक होता जा रहा था. वे योरप के पहनावे की नक़ल करते. रोहतगी इसका विरोध करती हैं. उनका कहना है कि भारत का दुःख चर्ख़ा चलाने से ही दूर होगा :
“बहिनों यह याद रक्खो कि जो पैसा तुम विलायती कपड़ा ख़रीदने में ख़र्च करती हो वह तुम्हारे मुल्क के बाहर जाता है और तुम्हारे देश की ग़रीबी बढ़ती जाती है. क्या तुम चाहती हो कि तुम अपने देश की ग़रीबी को बढ़ाओ जिसमें तुम और तुम्हारे भाई भूखे मरें? यह कैसा पाप है. इस बात का ध्यान रख प्रतिज्ञा करो कि हम विदेशी कपड़ा कभी न ख़रीदेंगे.’’
जयरानी रोहतगी के इस लेख का असर रामेश्वरी नेहरू पर यह पड़ता है कि गांधी जी का ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख ‘स्त्रियों का स्थान’ को सितम्बर 1921 (भाग 25: अंक 3) में ‘महात्मा जी का कथन’ शीर्षक से प्रकाशित करती हैं. महात्मा जी ने अपने कथन में जिन स्त्री समस्याओं को उठाया था, वही समस्याएँ हिन्दी पत्रों में भी छप रही थीं. ‘स्त्री दर्पण’ के उक्त अंक में गांधी जी का कथन यों प्रकाशित है :
“म.गांधी जी कहते हैं: मैं स्त्रियों की पूर्ण स्वतंत्रता दिल से चाहता हूं. मैं बाल विवाह के नाम से घृणा करता हूं. मुझे बाल विधवा को देखकर दिल में तकलीफ़ होती है, और जब यह देखता हूं कि हाल की मरी हुई स्त्री को बेपरवाही से भुलाकर कोई पुरुष दूसरी शादी करता है तो मुझे गुस्से की चिन्गारियां बल उठती हैं. मुझे यह देखकर रंज होता है कि भारतीय माता-पिता अपनी पुत्रियों को अशिक्षित रखकर केवल अपना एक धर्म समझते हैं कि जहां बड़ी हुईं उनकी शादी कर देनी चाहिए यह उनकी भूल है. मेरी राय में स्त्रियों को वोट का पूर्ण अधिकार होना चाहिए और हर तरह से पुरुषों से बराबरी का दावा होना चाहिए. मगर यह उनके कर्तव्य का अन्त नहीं है. यह तो शुरू ही है. यहां से राजनीतिक क्षेत्र में उनका काम शुरू होगा और वह देश के कामों में भाग लेंगी.’’
महात्मा गांधी जी का उपर्युक्त कथन सरलादेवी के एक पत्र का जवाब है. सरलादेवी ने अपने पत्र में लिखा था:
“आजकल स्त्रियों की दशा बहुत बुरी हो गयी है. पुरुष उनको केवल अपने आराम की वस्तु समझते हैं. जब तक ऐसा रहेगा कभी स्वराज पाने में कामयाबी न होगी.’’
‘स्त्री दर्पण’ का संपादकीय पृष्ठ किसी एक विषय-वस्तु पर केन्द्रित न होकर अनेक ज्वलंत मुद्दों पर छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ होती थीं. सितम्बर 1921 के ‘स्त्री दर्पण’ में कुल आठ टिप्पणियाँ हैं जिसमें एक टिप्पणी ‘स्त्रियों का स्थान’ उपशीर्षक से है. इसमें गांधी जी के कथनों का पूर्ण समर्थन किया गया है. उक्त संपादकीय की कुछ पंक्तियाँ देखिए:
“अब वह समय नहीं रहा कि पति ही को देवता मानकर पूजो और वही अपना कर्तव्य समझो, और किसी बात से तुम्हें मतलब नहीं. यदि कोई कहे कि शारीरिक बल में कम हैं तो उसका उत्तर यह है कि हज़ारों वर्षों से जो वह बन्द रक्खी गयी हैं और रक्खी जाती हैं, कोई कसरत से उन्हें मतलब नहीं होता, तो शारीरिक बल में आप से आप कम होंगी. यह बात भी दो एक पुश्त के बाद बदल जाएगी और फिर स्त्रियां बिलकुल किसी तरह पुरुषों से कम न रहेंगी…. समय बदलता है साथ-साथ रिवाज बदलते हैं और अधिकतर देशों में स्त्रियों ने आन्दोलन कर कर के बराबरी पा ली. हमारा ही अभागा देश अभी बचा हुआ है. आप लोग जब तक ख़ुद अपने आप अपने तईं दासत्व से न उठाने का यत्न करेंगी आपकी यही दशा रहेगी, आप पर अत्याचार होते रहेंगे…. अपनी जाति को शिक्षित बनाइए. अपनी कन्याओं को अच्छी तरह तालीम दीजिए. शादी कर देने की जल्दी न कीजिए. जब तक वह अशिक्षित रहेंगी अपने हक़ नहीं जान सकेंगी और हमारी दशा कभी न सुधरेगी. शिक्षित होने पर वह अपना कर्तव्य, देश के साथ जाति के साथ और अपने हक़ समझने लगेंगी और फिर पुरुषों से बराबरी पाने में देर न लगेगी.’’
उपर्युक्त संपादकीय में हम पाते हैं कि रामेश्वरी नेहरू की क़लम से जैसे गांधी जी ही बोल रहे हैं.
इसी अंक की संपादकीय में एक टिप्पणी ‘स्त्री जाति और देश की स्वाधीनता’ शीर्षक से है. इसमें देशबंधु के एक लेख का जवाब दिया गया है. देशबंधु जी का विचार था कि
“स्त्री और पुरुष बराबर नहीं हैं. स्त्रियों को पवित्रता, लज्जा, पतिव्रत का ध्यान रखना चाहिए; पुरुषों की तरह निर्लज्ज और उद्दन्ड हो जाने से उन्हें दुख पहुंचेगा. राष्ट्रीय कामों में स्त्रियों को भाग न लेना चाहिए क्योंकि समाज और देश को हानि पहुंचेगा. स्त्रियां घर में बैठकर बालकों और पुरुषों को राष्ट्रीय काम के लिए उत्साहित करें.’’
इस पर रामेश्वरी नेहरू संतुलित एवं तार्किक जवाब देशबंधु को देते हुए लिखती हैं:
“लज्जा तो मनुष्य मात्र में ही होनी चाहिए चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. पवित्रता एक अमूल्य रत्न है. अपवित्र पुरुष उतना ही निन्दनीय है जितना अपवित्र स्त्री. जैसे स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करती हैं, उसी तरह पुरुषों को भी पत्नीव्रत धारण करना चाहिए.’’
गांधी जी के चरखे और खादी का बहुत बड़ा लाभ दलित व स्त्रियों को मिला. जयरानी रोहतगी के लेख से स्पष्ट है कि उच्च घरों की औरतें खादी से घृणा करती थीं. लेकिन धीर-धीरे इसका असर भी हुआ. सरलादेवी चौधराइन खादी को अपनाने वाली पहली कुलीन महिलाओं में से एक थीं. चरखे और खादी ने हाशिए के समाज को कैसे बदल दिया – इसका एक रोचक अध्ययन पीटर गोंसाल्विस ने किया है. दरअसल गांधी जी चरखे के माध्यम से एक क्रान्तिकारी बदलाव का स्वप्न देख रहे थे. उनका सपना साकार हो भी रहा था. सितम्बर 1921 के संपादकीय में ही एक टिप्पणी ‘ग़रीबी कैसे दूर हो’ शीर्षक से है. यहाँ उसे पढ़ना अपने ज्ञान में इजाफा करना है कि गांधी के चरखे को हाशिए के समाज ने कैसे अपनाया! ‘स्त्री दर्पण’ की संपादक लिखती हैं :
“हमारे पास मुलतान से एक पत्र आया है जिसमें एक लछया नामी लड़की ने महात्मा गांधी से चर्ख़े की प्रार्थना की है. वह अपने बहुत ग़रीब बताती है और कहती है कि वह इतनी ग़रीब है कि उसके पास चर्ख़ा मोल लेने की सामर्थ नहीं. हमारा भारत ऐसे लोगों से भरा हुआ है जिनके पास चर्ख़ा ख़रीदने को क्या खाने और कपड़े पहनने तक के पैसा नहीं. उन लोगों के वास्ते महात्मा जी कह चुके हैं कि चर्ख़े बिना मूल्य दे दिए जावें. हमें मालूम है कि कुछ कांग्रेस कमेटियां इस शर्त पर चर्ख़ा दे देती हैं कि थोड़ा थोड़ा उसका मूल्य अदा करते जावें और जब तक अदा न हो सूत उन्हीं के हाथ बेचा जावे. ग़रीबी भी जब दूर हो सकती है जब हमारे पैसे वाले भाई यह प्रतिज्ञा कर लेंगे कि वह अपने देश का पैसा विदेशी कपड़ों द्वारा विदेश में न जाने देंगे पर अपने देश के कपड़े ही मोल लिया करेंगे और स्वयं अपने हाथ से सूत कातकर कपड़ा बनाकर पहिनेंगे. हमने उस लड़की का पत्र कांग्रेस कमेटी के पास भेज दिया है और आशा करती हैं कि वह यदि उचित समझें उस कन्या को चर्ख़ा भेजकर उसकी इच्छा पूरी करें.’’
सितम्बर 1921 के ‘स्त्री दर्पण’ में अनूप सुन्दरी रोहतगी की एक कविता ‘असहयोग तरंग’ नाम से छपा है. इस कविता से पता चलता है कि हिन्दी क्षेत्र की महिलाएँ गांधी जी के जीवन से परिचित हो गयी थीं. तेरह पंक्ति की कविता में महात्मा जी का चित्रण इस प्रकार है :
श्री गांधीजी महराज,रक्षा हम सब की करते हैं.
मारी धन सम्पत्ति पर लात,भ्रमण करते हैं दिन औ रात;
पतिव्रता हैं सेवा की साथ,इससे ज़रा नहीं थकते हैं..श्रीगांधीजी..
ट्रान्सवाल नेटाल गये थे,भारी भारी कष्ट सहे थे;
प्रवासी भारतवासियों के दुख गहे,उपकार बड़ा करते हैं..श्रीगांधीजी..
चम्पारन केरा के भाई,इनके भी यह हुये सहाई;
शिक्षा उन्हें ऐसी समझाई,ध्यान सब इन्हीं का करते हैं..श्रीगांधीजी..
पहिले सत्याग्रह फ़रमाया,पीछे असहयोग बतलाया;
इससे कायर है थर्राया,पर यह ज़रा नहीं डरते हैं..श्रीगांधीजी..
आप ने असहयोग तरंग,जारी कर दी एक ही संग;
इनकी आज्ञा होय न भंग,ऐसा सब सज्जन कहते हैं..श्रीगांधीजी..
कहती “अनूपी’’ “लल्लो’’ बहना,मानकर गांधी जी का कहना,
सदा अब चरख़ा कातती रहना,कहो अब प्रण यही करते हैं..श्रीगांधीजी..
ब्राह्मण सर्वस्व
महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के लिए भी जाना जाता है. इस रचनात्मक कार्यक्रम में अछूतोद्धार भी था. साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी वर्ण-व्यवस्था पर अब तक किसी ने इस तरह प्रहार नहीं किया था. इस कार्यक्रम से रूढ़िवादी हिन्दू बौखला गये थे. भद्र हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा तबका गांधी जी के विरोध में उतर आया था. भारतीय भाषाओं के प्रेस ने गांधी की मुखर निन्दा की. इस पर गांधी ने समाचारपत्र वालों को ‘चलती फिरती महामारी’ बताया जो ‘झूठी बातों और दोषारोपणों के विषाणु फैलाती हैं.’ ब्रह्म प्रेस, इटावा से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ ने गांधी जी के अछूतोद्धार का जमकर विरोध किया. हिन्दी भाषा में निकलने वाली इस पत्रिका के संस्थापक संपादक पण्डित भीमसेन शर्मा थे. 1921 ई. के अंकों में इसके संपादक का नाम ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री मिलता है. यहाँ ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ की संपादकीय टिप्पणियों और कुछ लेखों के माध्यम से यह देखेंगे कि इसने गांधी जी की किस तरह आलोचना की!
जून 1921 के ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ (भाग 18 : अंक 6) में ‘असहयोग सम्बन्धी चित्र’ तथा ‘महात्मा गांधी और अछूत जाति’ शीर्षक संपादकीय टिप्पणी प्रकाशित है.
अवधेय है कि असहयोग प्रेमियों ने महात्मा गांधी, कस्तूरबाई और मौलाना शौकत अली को हिन्दू देवी-देवताओं के रूप में देखा. गांधी को भगवान् कृष्ण के रूप में, कस्तूरबाई को लक्ष्मी और शौकत अली को पाण्डव भीम के रूप चित्रित किया गया. इस तरह के अनेक चित्र निकाले गये और ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ के अनुसार ‘इन चित्रों की बहुत बिक्री भी होती है.’ ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री को यह सब अच्छा न लगा. अमृतसर की ‘सनातन धर्म सभा’ ने एक विशेष अधिवेशन बुलाकर इस कृत्य की निन्दा की. हालाँकि महात्मा गांधी इस प्रकार के चित्रों से विक्षुब्ध थे. इन चित्रों को अनुचित बताते हुए गांधी जी ने एक लेख भी लिखा जिसे ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ ने अपनी संपादकीय पृष्ठ पर अविकल प्रस्तुत किया.
ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री की दूसरी टिप्पणी ‘महात्मा गांधी और अछूत जाति’ पढ़ने से पता चलता है कि वे अछूतों को नागरिक अधिकार देने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे. वे लिखते हैं:
“यह प्रश्न वैसा नहीं है कि जिस पर सनातनधर्मी चुपचाप मौनव्रत धारण किए बैठे रहें. असली बात यह है कि देश के सभी वर्तमान प्रश्नों पर सनातनधर्मियों को पूर्ण भाग लेना चाहिए. यदि कांग्रेस में सनातनधर्मियों की संख्या अधिक होती तो इस प्रकार के प्रश्न उपस्थित भी नहीं होते और हो भी जाते तो सनातनधर्मियों के संख्याधिक्य से उनका वहीं निराकरण भी हो जाता. अब भी समय है. सनातनधर्मी चाहें तो अब भी इस तरह के धर्म विरूद्ध प्रस्तावों का होना रोक सकते हैं. अछूत जातियों का स्पर्श करना सनातनधर्मी द्विजों को निषिद्ध है. यह शास्त्राज्ञा है. किसी भी राजनैतिक नेता को इस शास्त्राज्ञा के विरूद्ध सनातनधर्मियों को चलाने को कोई अधिकार नहीं है. भारतवर्ष के प्राचीन ऋषियों मुनियों ने अपनी दूरदर्शिता और उग्र तपस्या के प्रभाव से जैसा 2 विधिनिषेध सर्वसाधारण के लिए कर दिया है उसका यथावत् मानना ही द्विजों का कर्तव्य है…. शास्त्रों का मान करने वाली हिन्दू जाति ‘तस्माच्छास्त्रं कार्याकार्यव्यस्थितौ’ इस भगवद्वाक्य को नहीं भूल सकती. अतः महात्मा गांधी की इस बात को कार्य रूप में परिणत करने की आवश्यकता नहीं.’’
जून 1922 के ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ में ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री का ‘महर्षि पाणिनि और सनातन धर्म’ नामक लेख छपा है. इसमें ‘अष्टाध्यायी’ के आधार पर छुआछूत, पर्दाप्रणाली, वर्णव्यवस्था, मूर्तिपूजा आदि को उचित ठहराया गया है. अपने रचनात्मक कार्यक्रम के आधार पर गांधी जी चाहते थे कि देश से अस्पृश्यता का सदैव के लिए खात्मा कर दिया जाए. शास्त्री जी को इस खात्मे पर विशेष आपत्ति थी :
“सनातनधर्मी स्पृश्यास्पृश्य का विचार नहीं छोड़ सकते और न सभी को छू सकते हैं. जिस सनातन धर्म के मानने वाले रजस्वला स्त्री तक को चार दिनों तक स्पर्श नहीं करते और स्नान करने के बाद पूजा समाप्त न होने तक बिना नहाये हुए अपने प्यारे बच्चों का भी स्पर्श नहीं करते उनसे यह आशा करना कि वे अन्त्यजों का स्पर्श कर लेंगे एक असम्भव बात है.’’
ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री छह माह के लिए जेल भी हो आए थे. वहाँ उन्होंने अनुभव किया कि ‘असहयोग के कारण लोगों के आचार्य विचार बहुत ही भ्रष्ट हो गये हैं.’ वे बताते हैं :
“हमने जेल में रहकर एक दिन भी जेल का भोजन नहीं किया और अपने आप भोजन बनाते रहे पर हमारे साथी बहुत से असहयोगी जिनमें सभी प्रकार के द्विजाति थे मुसलमानों के हाथ की बनाई रोटी दाल मजे में खाते थे. आज मालाबार में मोपलों द्वारा धर्म भ्रष्ट किए हुए हिन्दुओं की शुद्धि का प्रश्न बहुत से सहयोगी उठा रहे हैं पर जेलों में जाकर अपनी इच्छा से मुसलमानों का बनाया भोजन करने वाले इन हिन्दू नामधारी असहयोगियों को कौन शुद्ध करेगा.’’
आगे लिखते हैं :
“यह बात नहीं थी कि इन्हें विवश होकर ऐसा करना पड़ा हो. जेल में राजनैतिक क़ैदियों विशेषतः स्पेशल ट्रीटमेंट वालों को अपनी धर्म रक्षा की पूरी सुविधा थी. यद्यपि मामूली क़ैदियों में से भी ब्राह्मण रसोइया उन को भोजन बनाने के लिए दिए गये थे तथापि प्रत्येक को अपना भोजन स्वयं बना सकने की भी इजाजत थी पर फिर भी हमारे असहयोगी हिन्दू भाई स्वयं जा 2 कर मुसलमानों का बनाया प्रसाद खाते थे और इसमें अपना अहोभाग्य समझते थे. इन हिन्दू नामधारियों में कितने ही कान्यकुब्जादि ब्राह्मण थे कितने ही क्षत्रिय थे कितने ही वैश्य थे और शूद्रों का तो कहना ही क्या. जब वे स्वयं पतित हैं तब द्विजातियों से अधिक आचार की संभावना उन से नहीं की जा सकती.’’
ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री की चिन्ता में सर्वप्रथम सनातनधर्म की रक्षा है. उनका मानना था कि अपने धर्म के नियमों का पालन करके ही हम अपने प्यारे हिन्दू धर्म को बचा सकते हैं.
अगस्त 1921 के ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ (भाग 18 : अंक 8) में किन्हीं विशालसिंहदेव वर्मा का एक सुदीर्घ लेख ‘श्रीमान् महात्मा गांधी जी की भूल’ शीर्षक से छपा है. इसमें दहोद (पंचमहल) में गांधी जी द्वारा दिए गये व्याख्यान का ज़िक्र है. दहोद में कुछ ‘भंगियों को अलग-थलग पड़े देखकर’ दर्शकों से गांधी जी ने कहा था कि
“मुझे इन भाइयों को अलग-थलग खड़े हुए देखकर बड़ा दुःख हुआ है मैंने हिन्दू धर्म का अध्ययन किया है और मैं तो उसकी बातों का यथाशक्ति पालन करता हूं. मैं यह नहीं मानता कि संसार में कोई ऐसी जाति भी है जिसे छूना पाप है किसी व्यक्ति को छूने में पाप समझना बुरा रवाज़ है…. हमें भंगियों के आगे भी सिर झुकाना चाहिए. मेरे लिए ईश्वर की सृष्टि में किसी को अछूत मानना पाप है. मैं चाहता हूं कि दहोद के हिन्दू इस पाप से मुक्त रहें.’’
विशालसिंहदेव वर्मा ने अपने लेख में गांधी जी के खिलाफ़ काफी अनाप-शनाप लिखा है. गांधी जी का यह कहना कि ‘मैंने हिन्दू धर्म का अध्ययन किया है’ इसी एक पंक्ति पर वर्मा जी ने महात्मा गांधी को घेरने का प्रयास किया है. वर्मा जी डंके की चोट पर कहते हैं कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में अछूतों को स्पर्श करने का कहीं उल्लेख नहीं है. विशालसिंहदेव वर्मा सनातनियों को सचेत करते हुए कहते हैं कि महात्मा गांधी ने भोले भाले हिन्दुओं को भुलाकर अपने मन्तव्य में फंसाने के लिए चालाकी और चतुराई से काम लिया है. वे यहाँ तक कहते हैं कि ‘महात्मा गांधी ने हिन्दू धर्म का अणुमात्र भी अध्ययन नहीं किया है.’ वे गांधी से उन धर्म ग्रंथों का प्रमाण माँगते हैं जिसमें यह लिखा है कि भंगियों को स्पर्श करना चाहिए. वर्मा जी की दृष्टि में गांधी जी झूठ बोलकर संसार को धोखा दे रहे हैं. इस लेख में वर्मा जी ने धर्मग्रंथों से उदाहरण देकर दिखलाया है कि अछूतों को स्पर्श नहीं किया जा सकता.
विशालसिंहदेव वर्मा को इस बात का भी दुःख है कि महात्मा गांधी मुसलमानों के हाथ का जल ग्रहण करते हैं, रोटी-दाल खाते हैं. वे ब्राह्मणों से मल-मूत्र साफ़ करवाते हैं. मुसलमानों को लेकर वर्मा जी की दृष्टि बेहद संकीर्ण है. वे साम्प्रदायिकता पर उतर आते हैं :
“हिन्दुओं की पुत्रियों और स्त्रियों को भुला भ्रमाकर मुसलमानादि भगा ले जायें. और हिन्दु स्त्री विलाप करती रहे, तथा हिन्दू समुदाय करुणा और क्रोध से न्याय की अथवा अपनी वस्तु पाने की प्रार्थना भी करता रहे, परन्तु गान्धी महाशय के श्रवणों के समीप हिन्दुओं के शब्द नहीं पहुंचते और न इस विषय में वह मुसलमानों से कुछ कह सकते हैं…. यदि यही क्रम चालू रहा और एक एक करके हिन्दू स्त्री पुरुष मुसलमानादिकों में मिलते चले गये तो एक दिन शीघ्र ही आने वाला है जबकि संसार में हिन्दू शेष ही न रहेंगे…. जब जगती तल से हिन्दू अथवा हिन्दुत्त्व मिट गया और स्वराज्य मिला तो उससे आनन्द और उन्नति किस की होगी. आत्मा से स्पष्ट उत्तर मिलता है कि उन्नति और आनन्द प्राप्त होगा अहिन्दू अनार्यों को, जिस हिन्दू धर्म का मुख्य मन्तव्य है कि ब्राह्मण चारों वर्णों में श्रेष्ठ सम्मान्य है.’’
अछूतों और मुसलमानों की आड़ में विशालसिंहदेव वर्मा यह सिद्ध करना चाहते हैं कि महात्मा गांधी हिन्दू नहीं हैं. इस लेख में स्त्री, मुसलमान और दलितों के विरुद्ध ज़हर उगला गया है.
फिर भी देर-सबेर गांधी जी के अछूतोद्धार का व्यापक प्रभाव पड़ा. जनवरी 1924 के ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ में ‘हिन्दू महासभा के विचार’ शीर्षक संपादकीय टिप्पणी गांधी जी के चिन्तन और विचारों को कुछ हद तक तो स्वीकार करता ही है.
इलाहाबाद में पण्डितों की एक बैठक हुई थी. इसमें यह विचार किया गया कि अछूतों को किस प्रकार के अधिकार दिए जाएँ? विद्वत्परिषद् ने अस्पृश्यता दूर करने का विरोध किया और यह निश्चय किया कि किसी भी दशा में अस्पृश्यता दूर नहीं की जा सकती. हिन्दू महासभा के विशेष अधिवेशन में दो पीठों के शंकराचार्य के अतिरिक्त सनातन धर्म के कई उपदेशक भी उपस्थित थे. दूसरे दिन मदनमोहन मालवीय दिल्ली से आए और उनकी उपस्थिति में कई प्रस्ताव पास किए गये. संपादक ने प्रस्ताव नम्बर तीन और आठ को विशेष रूप से उद्धृत करने के बाद अपना मन्तव्य दिया है.
प्रस्ताव नम्बर तीन में कहा गया कि अन्त्यज भाइयों को उचित शिक्षा व कल्याण का प्रबन्ध किया जाय. पाठशालाओं में अन्त्यज बालकों को भरती करने के साथ ही जहाँ आवश्यक हो उनके लिए विशेष शिक्षालयों का प्रबंध किया जाय. मन्दिरों में देवदर्शन की सुविधा दी जाय. उन्हें कुएं से पानी लेने दिया जाय और जहाँ आवश्यक हो अलग से कुएं बनवाएं जाएं. इस तीसरे प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि
“महासभा की सम्मति में अन्त्यजों को जनेऊ देना और वेद पढ़ाना और उनके साथ सहभोज करना सनातन धर्मानुसार शास्त्र और लोकमर्यादा के विरूद्ध है, इसलिए हिन्दू महासभा ऐसे प्रयत्न का अनुमोदन नहीं करती है, और इस बात की घोषणा करती है कि हिन्दू महासभा के नाम या अधिकार से कोई सज्जन ऐसे प्रयत्न न करें.’’
आठवाँ प्रस्ताव यह था :
“यह महासभा सनातन धर्म परिषद् के इस निर्णय को स्वीकार करती है कि जिस किसी अन्य धर्मावलम्बी भाई को हिन्दू धर्म के पवित्र सिद्धान्तों में श्रद्धा और विश्वास हो जाय और वह हिन्दू होना चाहे तो हिन्दू हो सकता है यद्यपि उसका किसी वर्त्तमान वर्ण या जाति में समावेश न हो सकेगा.’’
ब्रह्मदेव मिश्र शास्त्री इलाहाबाद के उस सभा में उपस्थित थे. जब वे विरोध करने के लिए उठे तो मदनमोहन मालवीय ने उन्हें रोक दिया. शास्त्री जी नहीं चाहते थे कि अस्पृश्य देवदर्शन करें, वे कुएं से पानी भरें व ब्राह्मण बालकों के साथ बैठकर शिक्षा ग्रहण करें. शास्त्री जी उक्त प्रस्तावों का अनुमोदन करने वाले पंडित गिरिधर शर्मा तथा पंडित हरिहरस्वरूप शर्मा से भी प्रश्न करते हैं कि किस शास्त्र प्रमाण के आधार पर आपने प्रस्तावों का समर्थन किया?
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अंधेरी कोठरियों में बन्द महिलाओं ने यह पहचान लिया था कि गांधी जी के सुझाए मार्ग से ही हमें मुक्ति मिल सकती है. सबसे बड़ी बात यह है कि स्त्रियों ने तालीम के महत्त्व को समझा. भारतीय सुधारक यह भी देख रहे थे कि अन्त्यजों की एक बड़ी संख्या अभिजातों के अत्याचार से ऊबकर धर्म परिवर्तन कर रहा है. दरअसल अभिजात हिन्दुओं का दलितों के प्रति कठोर होना धर्म परिवर्तन एक बड़ा कारण था. ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ की संपादकीय टिप्पणियों और लेखों को पढ़ने से पता चलता है कि रूढ़िवादी हिन्दू अस्पृश्यों को कतई अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे. यह महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने सम्पूर्ण भारतीय सामाजिक व्यवस्था को बदलकर रख दिया.
हिन्दी विभाग, |
समृद्ध आलेख विशेष जानकारी देता हुआ
कितनी अद्भुत है विषय संबंधी जानकारी । यह शोध बहुत आकर्षित करता है कि स्त्रियां गांधी के चरखा आंदोलन को किस तरह समझती थीं, उनके प्रतिरोध के क्या कारण थे ! शोध का यह श्रम बेहद सराहनीय है । समीचीन सामग्री उपलब्ध करा के जिस तरह “समालोचन” शिक्षित कर रहा है , वह प्रशंसनीय है ।
बहुत मेहनत से लिखा हुआ पढ़ कर अच्छा लगा।
यह चौथी कड़ी साहित्यिक पत्रकारिता को समृद्ध करती है। अलग अलग विषयों पर केंद्रित होने के कारण समूची श्रृंखला अपना महत्व स्थापित करती है।
अभी तक यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था चल रही है।इसका वर्चस्व थोड़ा कमा है।इसलिए गाँधी अभी भी प्रासंगिक बने हुए हैं और तब तक बने रहेंगे जब तक मनुष्य को सारे बंधनों और वर्जनाओ से मुक्ति नहीं मिल जाती।बहुत अच्छा आलेख। लाओत्से का वचन है-भविष्य को जानने के लिए अतीत को जानना जरूरी है।सुजीत जी को साधुवाद!
गहन अन्वेषण का प्रतिफल है यह आलेख!
बधाई भैया!💐
वंचित समूह होने के नाते स्त्री दर्पण की स्त्रियों में गांधी के लिए आदर और स्नेह है। वर्चस्व की संस्कृति के पैरोकार गांधी की निन्दा करेंगे ही। गांधी निन्दा, गांधी विरोध और गांधी हत्या आधुनिक भारत के इतिहास के सबसे काले पन्ने हैं।
ब्राह्मण सर्वस्व नाम ही बहुत कुछ कह देता है।
धन्यवाद सुजीत।
गांधी जी और महिलाओं के बारे में अनोखी जानकारी देने वाला है यह आलेख.
पूरा लेख बहुत ही महत्वपूर्ण.ब्राह्मण सर्वस्व की अच्छी खबर ली गई है. गांधी जी के इन विचारों का व्यापक प्रचार , प्रसार होना चाहिए.
गांधीजी के बारे में कितना कुछ जानना बाकी है.
शुक्रिया सुजीत जी,
शुक्रिया समालोचन.