महेश वर्मा की कविताएँ |
कन्हर नदी
यह एक नागरिकता की सीमा रेखा है
बारिश में मटमैली बह रही नदी
पुल के इस ओर से आते देखता हूँ
ढेर सारे लोग
जाते लोग
आने वालों से पुकारकर पूछना चाहता हूँ-
कौन है जो वापस नहीं जाने के लिये
पार कर रहा है यह पुल?
बिना पुल के दिनों में हाथी पर,
पालकी पर और सीने तक के पानी को धकेलते
इधर आये थे पूर्वज.
शाश्वत हथिया पत्थर को याद होंगे पितामह
याद है मेरे गुस्सैल बाबा की ?
पुकारकर पूछना चाहता हूँ
कन्हर के उस पार
पूर्वजों के गांव की एक धुंधली याद, बचपन की
अब भी रखी है भीतर के कमरे में,
हँसते हुए भाई बहन,
दीवार पर टंगी हुई बंदूक!
प्रारूप चार
एक बहुत पीछे की जगह से आती पुकार
और एक उदग्र यौनिक आवेग
की दो अवधारणाओं के बीच ही फड़फड़ाती रहूँगी क्या ?
तुम हर बार उस गीली सी
खानाबदोश जगह पर अपना गाल रख दोगे,
और विस्मरण !
मुझको ढांप लेगा क्या ?
इन दीवारों के तुरंत बाहर है उब का आकाश और
पुराने ढंग के वाक्य वहाँ सूखे बादलों की तरह उजाड़ घूम रहे हैं,
उन्हें बिना उम्मीद की आंखें देखती हैं और मुहब्बत में जुदाई
की नज़्म लिखती हैं अपनी कुंवारी छातियों पर
यह तुम्हारा स्वप्नफल मैंने कहा
तुम्हारे उस रोज़ के स्वप्न के लिये
जब तुम मुझसे कुछ पूछना चाहते थे.
यह सांकेतिक सवाल कितना आसान है पूछना तुम्हारे लिये
कि पहले चुंबन मुरझाते हैं या गुलदस्ते के फूल ?
इन्हीं सवालों की सूखी पंखुरियाँ
समेटती रहूँगी क्या ?
नवनीता देवसेन*
जब एक बेचैन भाषा
रक्त की तरह दौड़ती हो भीतर
प्यार का वह शब्द कहो
या सिर्फ गुलाब कहो
और देखो
कैसे अपने आप सुर्ख हो जाता है आकाश
सिर्फ नहीं कह देने भर से
उतर आयेगा अंधकार,
एक पंख कहोगे
और उड़ान रच दोगे.
ऐसे ही प्यास के शब्द से बनाओगे रेगिस्तान
बनाओगे बारिश,
दिशाएँ मत लिखोः सिर्फ धूल लिखो
आंख लिखते ही आकाश पर रख दोगे प्रकाश,
सबके लिये प्यार की सदइच्छा लिखने भर
शब्द नहीं है न ?
एक चुंबन लिखो
(*वरिष्ठ बांग्ला कवयित्री)
संजय साईकल स्टोर्स
लगभग तेरह सौ वर्षों से दो कारीगर
ज़मीन पर उँकड़ू बैठकर शतरंज खेल रहे हैं
उनकी नींद एक फर्श है तो उस पर
शतरंज की गोटियां उग आई हैं
ये अमर गोटियाँ हैं,
सुबह मारा गया वज़ीर,
दोहपर में मुस्कुरा रहा है सफेद फर्श पर
दूर से तिर्यक चला आ रहा है
बेदर्दी से मारा गया ऊँट
किसी को कोई औलिया सपने में चाल बताते हैं
किसी से बाद करते हैं प्यादे और शहंशाह
किसी की कोई चाल सही पड़ नहीं रही
घर वाले दोनों की चालों से हार गये
हारते दोनों है, झगड़ते हैं, चाय साथ पीते हैं
सपने में घोड़े की टाप का ढाई घर
किसी सिपाही की मौत पर ख़त्म होता हो
तो यह वही सिपाही है जिसने
साईकिल सुधारने में देरी को लेकर
लात से बिखेर दी थी गोटियाँ !
मिलना
कटी हुई पतंग के मिलने से पहले मिल चुका हो
अनायास इस शहर में आ गया शख़्स
कहीं से टूटने से पहले की उसकी एक कहानी भी हो.
जो कभी नहीं मिला था उसका ऐसा मिलना
कि इसी तय संयोजन में मिलना था
कि व्यर्थ हुआ इतना लंबा जीवन
अगर बहुत पहले मिल नहीं पाये
फिर कहाँ ऐसा मिलना होगा में मुड़मुड़ कर
देखना, जैसे वहीं रखा हो मिलने का दृश्य
विदा में हाथ हिलाते दूर जाते, मुड़ना
एक अनिवार्य ठोकर खाना
ताकी पाठक का विश्वास बना रहे नियति में
ठोकर का और खुद का
मज़ाक बनाते हँसना,
मिलने के प्रतिपक्ष में डूब जाने का सूर्यास्त होना.
मिलने पर मालूम पड़ता
कि कहाँ कहाँ से आ सकता है जीवन
कि यात्रा के सभी रूपक किसी आख्यान में ख़त्म हो जायें
और बार बार
जब एक ही तरह के लोग लगातार बुरे तर्कों के साथ,
मिलने लगें लगातार
तो दूसरी ओर लगातार देखते रहना
कि जैसे देख ही नहीं पाया
कमीज़
कहीं और जाते
जो वहाँ के बिल्कुल नज़दीक से
गुज़रती हो ट्रेन
थोड़ी देर को आँखे मूँद लो।
मूँद लो आँखें कि दिखाई न पड़ जाये
कोई ऐसा वृक्ष
जो उस जगह के बारे में
कुछ विनष्ट अनुमान तुममें रोप दे।
(व्यतीत जगहों पर विश्वास करते रहना चाहिये
लौटकर वहाँ जाना नहीं चाहिये.)
वे जगहें उसी तरह वहाँ हैं
उतनी ही युवा स्त्रियों
और उतने ही साफ आकाश के नीचे प्रकाशमान
जहाँ तीनों बुद्ध संशय कभी नहीं पहुँचेंगे
पुराने बेयरे जि़न्दा हैं, और लोग
उसी बेफिक्री की फुटबाल
देखकर लौट रहे हैं।
धुँएवाली सिगडि़याँ डर पैदा नहीं करतीं
ये मासूम ख़याल पैदा करती हैं
कि बादलों तक, सिगडि़यों का ये धुँआ कोई बात पहुँचा सकता है।
और तो और कभी उन जगहों के बारे में सोचा भी
जो बीत गई तो इस तरह
कि अपनी कल्पना भी उन्हीं कपड़ों और चप्पलों में की
जो तब पहनते थे जब वहाँ थे।
विषयांतर के लिये थोड़ी देर को रूकना
और सोचना कि वह प्रिय कमीज़ कहाँ गई
जिसका एक अफ़साना था.
आईना
इस घर में सबसे उदास है बाथरूम का आईना. अपने
आने के पांचवे ही दिन से उसे बोरियत ने घेरना
शुरू कर दिया था और उसकी आंखें धुंधलाने
लगी थीं.
या वे नींद से भरी थीं, आने वाली सैकड़ों ठंडी रातों
की अनिद्रा से बोझल ?
सुबह के वाहियात चेहरे और
मुंह के चारों ओर फैला झाग और
असंभव कोण से गरदन घुमाकर दाढ़ी छीलता आदमी उसे
सस्ते साबुन की गंध से ज़्यादा नापसंद है।
आप नहाकर अपना ताज़ा चेहरा
देखने के लिये साफ़ करते हैं आईने पर जमी भाप.
चिढ़कर वह मुंह बिचका देता है (अपने आप)
महेश वर्मा ३० अक्टूबर १९६९, अंबिकापुर (छ्त्तीसगढ) पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, लेख आदि, रेखांकन भी लगभग सभी पत्रिकाओं में परस्पर के लिए संपादन- सहयोग ई-पता : maheshverma1@gmail.com |