मलय का काव्य-संसार
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मलय जी से पहली बार मिला था सन 2005 की शुरुआत में. कलकत्ता में पहल सम्मान समारोह था. इस बार यह सम्मान आलोकधन्वा को दिया जाना था. भारतीय भाषा परिषद में आयोजन था. और हम सब ठहरे थे महाराष्ट्र हाउस में. तब मैं धनबाद में था. एक-दो दिन मलय जी के साथ समय बिताने का सुयोग मिला. हम कलकत्ता में एक-दो जगह जैसे कालीघाट, निर्मल हृदय वगैरह साथ ही घूमने गए थे. वह वरिष्ठ कवि हैं, बड़े कवि हैं, यह जानता तो था. पर उनके साथ रहकर जाना कि वे बड़े सरल-सहज व्यक्ति भी हैं. सीधे-सीधे अपनी बात कहने वाला एक संजीदा आदमी.
इसके बाद फिर उनसे कभी मिलना न हुआ. उनसे दुबारा मिला सन 2019 के आखिर में. ‘समालोचन’ के आँगन में. उनकी कुछ ताजा कविताएँ छपी थीं. उन्हीं कविताओं पर मैंने टिप्पणी की थी. टिप्पणी कुछ यूँ थी-
“मलय जी हिंदी के एक ऐसे विरल और महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनकी लगातार उपेक्षा की गई और हिंदी आलोचना ने उनके साथ भी कभी समुचित न्याय नहीं किया. लेकिन चूँकि वे इन सबसे मुक्त होकर स्वयं की साधना में निमग्न रहते आए हैं, इसलिए उनको यह सब कुछ प्रभावित नहीं कर पाता और इसलिए उनकी कविताओं में नैसर्गिक प्रभाव कायम रहता आया है. अन्यथा लोग तो पचास के पार पहुँचते, न पहुँचते चूक जाते हैं और बस चर्चा में बने रहने और मंचों पर जमे रहने के लोभ में खुद को दुहराते रहते हैं! मलय जी हर बार नवीनता और अनुभव की उच्चतर सघनता के साथ नई कविताएँ लेकर आते हैं, यह बहुत सुखद है. उनकी ये नई कविताएँ इसका प्रमाण हैं.”
मलय जी ने जब यह टिप्पणी पढ़ी तो अरुण देव जी से मेरा मोबाइल नंबर लिया और मुझे फोन किया. मुझे भी बरसों बाद उनसे बतियाकर अच्छा लगा! बातों-बातों में उन्होंने बताया कि अभी-अभी शिल्पायन से मलय रचनावली छपकर आयी है. कुल छह खंडों में. तीन खंडों में उनकी कविताएँ हैं. और तीन खंडों में उनका गद्य. मुझे यह सुनकर खुशी हुई कि इस बहाने उनपर एक बड़ा काम हुआ. पर उन्होंने मुझे यह कहकर अचंभे में डाल दिया कि इस रचनावली पर तुम विस्तार से लिखो! नब्बे की उम्र छूते एक वरिष्ठ कवि का मुझ अदना-से कवि पर यह भरोसा! मुझे कुछ कहते न बना! कहता भी क्या? कुछ कहने को ही न सूझा! मैं बस इतना ही कह पाया- जी, जरूर कोशिश करूँगा. इतना तो अवश्य ही कि कम से कम कविता वाले तीन खंडों पर कुछ लिख पाऊँ.
अब प्रायः फोन पर हमारी बातचीत होने लगी थी. वे बार-बार दुहराते- मैं वामपंथ से अब भी निराश नहीं हूँ, पर वामपंथियों ने मुझे बहुत निराश किया है! खैर, कोरोना महामारी के कारण सख्त लॉकडाउन चल रहा था. इसलिए डाक का आना-जाना भी बंद था. मैंने उन्हें कहा था कि स्थिति सामान्य होते ही मैं रचनावली मँगवा लूँगा. आप आश्वत रहें. उनके दो-तीन संग्रह तो थे ही मेरे पास. और उनको छिटपुट पढ़ता ही रहा था. इसलिए इस बीच उन संग्रहों को दुबारा निकालकर सिरहाने रख लिया. एक दिन उनका फोन आया कि शिल्पायन से रचनावली मंगवाकर मुझे भेज रहे हैं. मेरे लाख मना करने पर भी उन्होंने खुद रचनावली भेज दी! साथ में, ओम भारती द्वारा संपादित एक और किताब भी!
अब तो मुझे हर हाल में लिखना ही था! मैंने उनसे कहा, मुझे कम से कम पाँच-छह महीने का समय दें. जब मेरा मन तैयार हो जाएगा कि हाँ, अब लिखना चाहिए तो मैं लिख लूँगा! किसी वरिष्ठ कवि पर लिखना कोई हँसी-ठट्ठा तो नहीं! खैर, मैंने खुद को तैयार किया. पर यही नहीं समझ में आ रहा था कहाँ से शुरू करूँ? बस इतना समझ में आ रहा था कि हिंदी के तथाकथित प्रगतिशील आलोचकों ने मलय की बहुत उपेक्षा की है! तो लगा कि बात यहीं से शुरू की जाए!
[2]
यह सच है कि हिंदी के नामवर आलोचकों ने मलय का समुचित संज्ञान नहीं लिया. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मलय पर कुछ लिखा ही नहीं गया है. हाँ, आलोचकों ने उन्हें नकारा, पर हिंदी के कवियों ने उन्हें स्वीकारा. उनको खूब मान दिया. मलय को हिंदी के कवियों का खूब प्यार मिला. एक लंबी सूची है ऐसे कवियों की, जिन्होंने उनकी कविताओं पर, संग्रहों पर बहुत सार्थक लिखा है. श्रीकांत वर्मा, प्रमोद त्रिवेदी, सुवास कुमार, रमेश कुंतल मेघ, नंदकिशोर नवल, श्याम कटारे, राजेश जोशी, विजय कुमार, ओम भारती, लीलाधर मंडलोई, नरेंद्र जैन, मंगलेश डबराल, ओम निश्चल, नरेश चंद्रकर, नवल शुक्ल आदि से लेकर कात्यायनी, एकांत श्रीवस्ताव, सुंदर चंद ठाकुर, हेमंत कुकरेती, प्रभात रंजन आदि जैसे युवतर कवि-लेखक तक! इन सारे आलेखों को कवि ओम भारती जी ने बतौर संपादक एक पुस्तक के रूप में सुरक्षित-संरक्षित कर बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण काम किया है. पुस्तक शिल्पायन से ही ‘जीता हूँ सूरज की तरह!’ शीर्षक से छपी है.
जब मलय पर इतने सारे और महत्वपूर्ण कवि पहले ही बहुत कुछ लिख चुके हों, ऐसे में मेरे लिए मलय पर कुछ लिखना दोहरी चुनौती थी! खैर, पढ़ते-लिखते मुझे यह तो बखूबी समझ में आ गया है कि हिंदी कविता और हिंदी आलोचना में किसी को चढ़ाने, किसी को गिराने, किसी को बढ़ाने, किसी को घटाने, किसी को जबरन बड़ा बताने और किसी को जबरन कमतर बताने का बड़ा सुनियोजित कारोबार चलता है! और यह सब बहुत संस्थागत और बहुत संगठित ढंग से किया जाता रहा है. मलय भी इसके शिकार हुए हैं और आरंभ से हुए हैं. आरंभ से ही उनके पीछे मुक्तिबोध का प्रेत छोड़ दिया गया! और यह प्रेत-बाधा आजीवन उनके रास्ते का रोड़ा बन गई! और हिंदी आलोचकों के लिए भी यह सबसे सुविधाजनक मार्ग सिद्ध हुआ, मलय को उनके इलाके में जगह बनाने से निषिद्ध करने का! पर वे भूल गए कि मलय मनुष्य हैं, प्रेत नहीं! मलय कर्मठ कवि हैं! वे अपनी राह बनाना जानते हैं! यह दीगर बात है पर महत्वपूर्ण बात है कि उन्होंने कविता की आसान राह नहीं, नई और कठिन राह चुनी!
अव्वल तो मलय को मुक्तिबोधी बताने की कोशिश ही बेहद मूर्खतापूर्ण है. पानी की कमजोर से कमजोर धार भी अपनी राह बना लेती है. मलय तो मजबूत और जीवट कवि थे. हैं. अब भी. मलय की कविताओं पर जटिलता-दुरूहता के जो आरोप लगते-लगाए जाते रहे, उन आरोपों से स्वयं मुक्तिबोध भी कहाँ मुक्त हो पाये? फिर क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध को इतना महान, इतना महत्वपूर्ण, इतना अलग बताने के पीछे क्या केवल उनके काव्य-तत्व ही कारण रहे? या कुछ काव्येतर कारण भी रहे? पहला तो यह कि मुक्तिबोध को ही इतना बड़ा बना दिया जाए कि उसके आसपास कोई और खड़ा ही न हो पाए! उनकी कविताओं में इतना मार्क्सवादी सौंदर्य और मार्क्सवादी लीलाएँ दिखा दी जाए कि और कुछ करने की जरूरत ही न पड़े! मुक्तिबोध का प्रेत हर किसी को काबू में कर लेगा! फिर अलग से क्यों कुछ करना पड़ेगा?
सच तो यह है कि इन संस्थागत आलोचकों से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि रघुवीर सहाय क्या श्रीकांत वर्मा से बड़े कवि थे? या रघुवीर सहाय को बड़ा कवि बताने में उनकी कविता से ज्यादा, काव्येतर कारण और कारक सक्रिय रहे? तो जब यह खुला खेल बहुत पहले से चल रहा था तो मलय इसके शिकार हो गए तो इसमें अचरज क्यों करना? इन मार्क्सवादी आलोचकों ने मुक्तिबोध की कविताओं की व्याख्या करने में ही अपने सारे औजार खत्म कर दिए थे तो उनके पास किसी अलग कवि के लिए नए आलोचकीय औजार बचे ही नहीं थे! और न ही वे नए औजार विकसित करने के इच्छुक थे क्योंकि वे थक गए थे. सच कहूँ तो चुक गए थे! इसलिए उनके लिए यह सबसे सुविधाजनक था कि अब हर कवि को मुक्तिबोधीय बरगद के नीचे ला खड़ा कर दो और उसे बौना सिद्ध कर दो!
जैसे आज की तारीख में विनोद कुमार शुक्ल ‘ओवर-रेटेड राइटर’ हैं, खासकर एक उपन्यासकार के रूप में; वैसे ही मुक्तिबोध भी ‘ओवर-रेटेड पोएट’ थे अपने दौर में. थे नहीं, बना दिए गए थे. जैसे रघुवीर सहाय ‘ओवर-रेटेड’ बना दिए गए थे. और, जैसे अज्ञेय ‘अंडर-रेटेड’ बना दिए गए थे. जैसे भवानी प्रसाद मिश्र ‘अंडर-रेटेड’ बना दिये गए थे. जैसे श्रीकांत वर्मा ‘अंडर-रेटेड’ बना दिए गए थे. वैसे ही मलय ‘अंडर-रेटेड’ बना दिए गए थे! यह भी तो गौर कीजिये कि मलय कमोबेश जबलपुर में ही रहे, अब भी वहीं हैं, पर वहीं से प्रकाशित होने वाली नामचीन पत्रिका पहल ने उन्हें कभी पहल सम्मान के योग्य नहीं पाया! क्यों?
वैसे नरेंद्र जैन ने ‘जबलपुर में मलय’ शीर्षक कविता में बहुत वाजिब तंज़ कसा है-
“आलोचक दिल्ली में विराजे हैं
जबलपुर में मलय कविता लिख रहे हैंआलोचक द्वारा न पढ़े जाने से
क्या बना-बिगड़ा कविता का?
जबकि आलोचक
अपने औज़ार तेज करने से
हाथ धो बैठेयहाँ
भयावह मोर्चा लग चुका है आलोचना को
वहाँ
जबलपुर में मलय
कविता में डूबे हैं.”
[3]
मलय के पास एक नई भाषा थी, जो बाहर से कम, अंदर से कहीं ज्यादा फूटती थी. मन के अंदर से. पर वह किसी मनोवैज्ञानिक ग्रंथि या गुंफन की शिकार नहीं थी. मलय का शिल्प सीधा नहीं था. थोड़ा आड़ा-तिरछा था. पर वह सब उनका सचेत चयन था. उन्होंने कठिन और लंबी राह ही चुनी थी. उनकी कविता अपने घर से निकलकर हिमालय तक जाने वाली सड़क थी. जीवन की उबड़-खाबड़ को आँकने वाली कूची थी. इसलिए वह हमेशा गीली रहती थी. कविता का कैनवास गीला रहता था. कुछ रंग भर चुके होते थे. कुछ रंग भरने बाकी होते थे. इसलिए हर कविता एक अपूर्ण यात्रा लगती. अधूरापन, गीलापन, अनगढ़पन ही उनका सधा हुआ शिल्प था. उनका अर्जित सौंदर्य था.
डॉ. सुवास कुमार ने सही ही इंगित किया है-
“मलय की कविता में अनगढ़ता का सौंदर्य है; सरलता और सादगी का सौंदर्य है. इसमें काट-छाँट, तराश, करीनापन नहीं है, बल्कि ठेठ हिंदुस्तानी का जीवन सौंदर्य बोध यहाँ झलक मारता है. मलय की काव्य-संवेदनाओं में कहीं कोई दरार नहीं मिलेगी, जो उनकी सरल-सिधाई और ईमानदारी का प्रमाण भी है.”
मलय की काव्य यात्रा पर हम गौर करें तो हम पाएँगे कि उनकी पूरी काव्य यात्रा कभी पूरी न होने वाली एक कविता की ही अनवरत यात्रा है! और यह यात्रा यकीनन अँधेरे से उजाले की ओर अनवरत अग्रसर होने की यात्रा रही है. न कि सिर्फ अँधेरे में गड्ड-मड्ड होकर रह जाने की! उनकी यात्रा यकीनन अँधेरे से लड़कर, अँधेरे को चीरकर, प्रकाश की ओर आने की एक जिद्दी यात्रा है, जो सिर्फ शब्दों के पाँवों से नहीं वरन मनुष्य की जिजीविषा के बूते ही संभव हो सकती है. और वह जिजीविषा मलय के पास है. आरंभ से ही.
कहने की जरूरत नहीं, मलय लंबी कविताओं के कवि थे. हैं. उनकी कविता का रकबा बड़ा है. उनकी कविता की जोत बड़ी है. वह कविता में ही चलते रहना चाहते हैं. कविता में ही कथा कहते रहना चाहते हैं. मन की कथा भी. और जन की कथा भी. प्रकृति की कथा भी. और प्रगति की कथा भी. छोटी कविताएँ उनकी यात्राओं के पड़ाव जैसी हैं; आगे की यात्रा अभी बाकी है, बस इसका विनम्र संकेत देती हुईं. संभवतः उनकी यह सबसे छोटी कविता ‘एक किरण काफी है’ भी इतनी बड़ी तो है ही कि इस पर भी बहुत लंबी बात कही जा सके-
“इस तानाशाही से
निपटने का
इंतजार कीजिए
एक किरण काफी है!”
मलय ने अपनी काव्य यात्रा छंदबद्ध रचनाओं से आरंभ की. गीतों से आरंभ की. उनकी रचनावली के पहले खंड के आरंभ में ही उनके कुछ आरंभिक गीत और कविताएँ संकलित हैं. जैसा कि इस पहले खंड के अनुक्रम में इंगित किया गया है, ये सभी गीत अप्रकाशित रहे हैं और यहाँ पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं. इस खंड में उनकी कुछ आरंभिक कविताएँ भी हैं जो यहाँ पहली बार प्रकाशित हुई हैं. इस खंड के आरंभिक गीतों और कविताओं से गुजरते हुए भी यह सहज अनुमान हो जाता है कि मलय लंबे वितान के कवि हैं और आरंभ से ही लय और लंबाई उनकी रचनाओं के नैसर्गिक गुण हैं और यही उनका लगभग स्थायी शिल्प भी है. इससे इतर जो कुछ भी है, वह संभवतः उनके कवि-मिजाज और शिल्प का व्यतिक्रम ही है.
इस खंड में संकलित गीतों में ‘आज आदमी’, ‘मुसीबत का समय’, ‘भगवान आदमी बनकर मस्ती में झूमें’ जैसे गीत प्रायः लंबे वितान के हैं. ‘भगवान आदमी बनकर मस्ती में झूमें’ शीर्षक गीत तो बहुत ही लंबा है! इन सबमें लोक जीवन, जीवन के सामान्य दुख-दर्द और मन के व्यक्त-अव्यक्त ऊहापोह और अंतर्द्वंद्व बखूबी व्यक्त हुये हैं. ‘गाँव का गौरव’ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ मन को सहज बाँध लेती हैं-
“उनके हल पर ही सबके सपने हल होते
उनके हँसिया पर जीवन रसिया जीता है
उनके बैलों के बलबूते बरसें खुशियाँ
उनके गौरव गरजे रामायण गीता है!”
‘याद’ शीर्षक एक आरंभिक किन्तु छोटी कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए-
“उमस के लम्हों में
हरी यादें पीली हो
अब छटपटाती हैं,
यादों की चिड़ियाँ
प्यार का सूरज डूबने पर ही-
इकट्ठी होती हैं और तिलमिलाती हैं.”
‘बादल की चट्टानों पर’ शीर्षक कविता की ये आरंभिक पंक्तियाँ भी मन मोह लेती हैं-
“बादल की चट्टानों पर
बिजली का सर्प दिखा!”
या फिर, ‘दृष्टि के हाथों से छूकर’ शीर्षक कविता की इन शुरुआती पंक्तियों का आकर्षण ही हमारे मन का हाथ थाम लेता है-
“इन झाड़ों की लहराती चोई को
दृष्टि के हाथों से छूकर
बाजू में होकर
आकाश की नीली गहराई में
डूब डूब जाता हूँ.”
या फिर, ‘भूख यात्रा’ शीर्षक कविता की इन आरंभिक पंक्तियों का सघन बिंब-विन्यास देखिए-
“भूख
अंतर से स्तंभित हो
स्पर्शातुर लिप गई मुँह में
कौंध भर रेंगती
जिव्हा पर काटती है चक्कर भीउबलते मौसम की भाप
हवा खाती है
कुटुंब की परतों में
कलह रेख गाती है.”
यहाँ ऊपर मलय की इन काव्य-पंक्तियों को उदाहरण स्वरूप उद्धृत करने का विनम्र आशय बस यह है कि मलय की इन आरंभिक रचनाओं से गुजरते हुए पुनः स्पष्ट हो जाता है कि वे लय, अंतर्लय और लंबाई के कवि हैं. सघन, परतदार बिंबों और गत्यात्मक प्रतीकों के कवि हैं. और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उनकी रचनाओं में प्रकृति और आस-पड़ोस का प्राकृतिक भूगोल ही नहीं वरन सामाजिक और मानसिक भूगोल भी सहज ही चित्रित हो जाता है. इतना ही नहीं, मलय अपनी काव्य-यात्रा में इतने आवेगमय और गतिमान भी हैं कि वे पल में ही आकाश-पाताल नाप लेते हैं. अभी विंध्य तो अभी हिमालय पहुँच जाते हैं. वे अपने कहन और वर्णन में भी इतने विविधतापूर्ण हैं कि उनकी कविता कभी मलयगिरि का सौंदर्य साध लेती है तो कभी मालकौंस का सुर साध लेती है!
जहाँ तक उनके बिंब-विधान और बिंब-विन्यास की बात है तो सच कहें तो मलय बिंबों से खेलते हैं. उन्हें तोड़ते-मरोड़ते हैं, उलटते-पलटते हैं. कहने का मतलब यह कि वह गुलाब को सीधे गुलाब नहीं कहते. कुछ और कहते हैं. यह पाठक का दायित्व है कि वह उन बिंबों से अपनी कल्पना में गुलाब का सृजन करे. यानी मलय बिंबों को सीधे नहीं बल्कि कोडिकृत करके प्रस्तुत करते हैं. और इन कोडिकृत बिंबों को डिकोड करना होगा. निसंदेह, मलय की कविता में पाठकों के लिए सहज प्रवेश सुलभ नहीं है. और न ही प्रवेश के बाद सहज वापसी! मलय की कविता पाठकों से एक चौकन्नी दृष्टि और एक समृद्ध धैर्य की माँग करती है.
मलय की कविताओं के आस्वादन के लिए यह अपेक्षित तैयारी, पाठकीय पूर्वशर्त है. मलय जी ने स्वयं कहा है- “पढ़िए अगर पढ़ सकें; चढ़िए अगर चढ़ सकें.” तो यदि पाठक इन कोडिकृत बिंबों को डिकोड करने का काम कर लेगा तो कविता धड़ाक से उसके सामने खुल जाएगी! लेकिन कोड-डिकोड के इस खेल में मलय अकेले नहीं हैं, इस खेल में प्रकृति भी उनकी एक स्थायी सहचर है!
[4]
ऊपर के काव्य-उद्धरणों से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि मलय का कवि आरंभ से ही मुक्तिबोध के कवि से सर्वथा भिन्न था और है. उनकी कविताओं में एक सहज आवेश है, सहज आवेग है, सहज गति है, सहज त्वरा है. उनकी कविताओं में गति ही उनका गाड़ीवान है. और उनकी कविताओं में ‘अँधेरा’ और ‘उजेला’ स्थायी सहचर हैं. प्रकाश और किरनाभास स्थायी काव्य-छायाएँ हैं. वह ध्वनि में भी प्रकाश देख लेते हैं, इसलिए ‘ध्वनि का प्रकाश’, ‘पानी की रोशनी’ आदि जैसे पद का प्रयोग वह सहजता से कर लेते हैं. उनकी कविताओं में चमक, कौंध, दमक, दिनमय, किरनीला, सूर्य आदि जैसे अनेक शब्द सहज उग आते हैं जो उजेला का बोध कराते हैं और अँधेरे को खदेड़ भगाते हैं.
दरअसल, जहाँ कहीं भी अँधेरा है, मलय उसे उजेला से अपदस्थ कर देने की रचनात्मक कोशिश करते हैं. और इस कोशिश में उनकी कविता कभी गिरकर उठते हुए, कभी उठकर चल देते हुए, कभी दौड़ पड़ते हुए, कभी छपाक से कूदते हुए, कभी झट से छलांग लगाते हुए, कभी उड़ते हुए तो कभी डूबते हुए ही गति पकड़ लेती है. इस काव्य-गति में जो बिंब और प्रतीक प्रक्षेपित होते हैं, उन्हें जरा सायास पकड़ना होता है. क्योंकि जबतक हम एक बिंब को डिकोड करते हैं, उनकी काव्य-गति एक नए बिंब पर पहुँच जाती है. इसके कारण पाठक को प्रायः अर्थ-ग्रहण का अपेक्षित अवकाश नहीं मिल पाता है!
संभवतः यही कारण है कि मलय के पहले काव्य-संग्रह ‘हथेलियों का समुद्र’ पर लिखते हुए हीरालाल गुप्त जी ने मलय की कविताओं की इस समस्या की ओर इंगित किया था-
“साधारण पाठक को उनके पढ़ने से वह सहज रसानुभूति नहीं होती जैसी कि छायावादी कविताओं में सहज ही मिल जाती है. कविताओं में प्रस्तुत बिंब-विधान भले ही पूर्ण रूप से मौलिकता के निकट हो किन्तु जहाँ तक अर्थ की सुगमता का प्रश्न है, वह पूर्णतः संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता. बिंबों के क्रम और उनके संबंध की भी कुछ कमजोरियाँ इन कविताओं में हैं. बिंब अपने आप में पूर्ण होते हुए भी पूरी कविताओं में उनका परस्पर संबंध कहीं-कहीं टूट जाता है जिससे उलझाव पैदा होता है तथा अर्थबोध में कठिनाई होती है.”
दरअसल, मलय की कविताओं में उलझाव और दुरूहता की शिकायत कई कवियों/समीक्षकों ने उनकी कविताओं पर लिखते हुए की हैं. लेकिन मेरी समझ से यह शिकायत स्वमेव दूर हो जाएगी अगर पाठक मलय की कविताओं को सावधान, सजग, सचेत और धैर्यवान होकर डिकोड करने की पूर्वशर्त के साथ पढ़ने-गुनने-खोलने की कोशिश करेंगे. इस पूर्वशर्त की ओर मैंने ऊपर ही भरपूर इशारा किया है.
लेकिन इस संदर्भ में मैं यहाँ उस पत्र-प्रकरण का भी उल्लेख अवश्य ही करना चाहता हूँ, जिससे लोगों की इस शिकायत को एक तरह की ‘वैधता’ यानी ‘लेजीटीमेसी’ मिल गयी और अधिकतर लोगों का ध्यान इस शिकायत को दुहराने में ही लग गया! जबकि बेहतर तो यही होता कि वे सब इस शिकायत या समस्या के सहज समाधान की तरफ इशारा करने की ईमानदार कोशिश करते, जिस तरफ मैंने इशारा किया है!
मलय को श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई और गजानन माधव मुक्तिबोध का लंबा सानिध्य प्राप्त हुआ है. इससे लोग सहज ही यह धारणा बना लेते हैं कि मलय पर मुक्तिबोध का पुरजोर प्रभाव है! इसलिए लोग मलय की कविताओं की तुलना सीधे मुक्तिबोध की कविताओं से करने की भूल कर बैठते हैं! जबकि कोई भी सजग और ईमानदार कवि किसी दूसरे कवि से प्रभाव ग्रहण करने से भरसक बचेगा. उसके शिल्प में ढलने से भरसक बचेगा. मलय ने भी ऐसा ही किया है. मलय की कविता की बनावट और बुनावट में और मुक्तिबोध की कविता की बनावट और बुनावट में बुनियादी फर्क है! मलय की कविता गद्य और बयान होने से भरसक बचती है. वह अपना क्षैतिज विस्तार और प्रसार करने से बचती है. बल्कि वह अपना निरंतर ऊर्ध्वाधर और लम्बवत प्रसार और विस्तार करती है. छोटी-छोटी पंक्तियों के साथ क्रमशः नीचे उतरती है. और इस विस्तार और प्रसार में वह अपनी लय और अपनी गति कहीं नहीं खोती! कहने का आशय यह कि मुक्तिबोध और मलय की कविताओं की काया और माया दोनों अलग-अलग हैं. और सर्वथा स्वतंत्र हैं.
अब आते हैं उस पत्र-प्रकरण पर. मलय और मुक्तिबोध दोनों मित्र थे तो दोनों के बीच पत्राचार भी होता था. मुक्तिबोध रचनावली में एक ऐसा ही पत्र संकलित है, जिसे मुक्तिबोध ने मलय को लिखा था. इस पत्र के प्रकाशन में हुई प्रूफ की एक भीमकाय भूल ने मलय को उलझाव के आरोप के स्थायी कटघरे में खड़ा कर दिया! और मलय इस आरोप से कभी बरी नहीं हो पाये! जबकि उन्होंने इस पत्र की मूल प्रति सबको दिखाई! ओह, इस देश में न्याय पाना कितना मुश्किल है! और हिंदी कविता की निर्मम दुनिया में तो और भी मुश्किल! यह तो भला हो ओम भारती जी का, कि उन्होंने अपनी संपादित पुस्तक ‘जीता हूँ सूरज की तरह!’ के आरंभ में ही इस रहस्य से पर्दा उठा दिया और इससे मलय के साथ हुआ चला आ रहा वह सनातन आलोचकीय अन्याय भी बेपर्दा हो गया! इस संदर्भ में इस पुस्तक की 15 पृष्ठ लंबी भूमिका भी बहुत कुछ कहती है, जिसे ओम भारती जी ने बहुत श्रम और मनोयोग से लिखा है.
मुक्तिबोध रचनावली में यथाप्रकाशित उस पत्र का वह विवादित अंश पहले यहाँ उद्धृत करता हूँ. मुक्तिबोध ने राजनन्दगाँव से यह पत्र युवा मलय को लिखा था. इसमें वह लिखते हैं-
“आप की कविता उलझी परिस्थितियों की ओर या उसके भीतर पाई जाने वाली ग्रंथिल मनःस्थितियों की कविता है. इसलिए, शायद उसमें से उलझाव हटाना होगा. जैसी साफ सड़क होती है, वैसी वह हो. चक्करदार गलियों में चलने वाले को भी चक्कर नहीं आने चाहिए और मकान मिल जाना चाहिए.”
अब प्रूफ की उस भूल पर आता हूँ, जो आकार में तो बिलकुल छोटी-सी थी क्योंकि वह सिर्फ एक शब्द की भूल थी; पर अपने असर में वह भूल बेहद भीमकाय सिद्ध हुई! ओम भारती जी अपनी संपादित पुस्तक की लंबी भूमिका में इस संबंध में स्थिति बिलकुल साफ कर देते हैं और लिखते हैं-
“(उस) पत्र का एक शब्द ‘आज’ छपकर ‘आप’ हो गया है. इस कारण उस वक्त के ‘आज’ की संपूर्ण कविताओं पर की गई टिप्पणी मात्र मलय के खाते में चली गई है. जो कथन उस दौर के समूचे से सम्बद्ध था, वह केवल मलय की कविता पर लद गया है. जिन्होंने मलय की कविताओं को पढ़ा है, तथा जिन्होंने कभी नहीं पढ़ा था, सरसरी तौर पर पढ़ा था, उन्होंने भी मलय के रचे को जटिल और उलझा हुआ मान लिया!”
इसी क्रम में ओम भारती जी और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं- “मुक्तिबोध के शब्दों की ‘कॉमन स्पिरिट’ सबकी कविता के लिए समझी जानी चाहिए थी, उसे ‘मिसप्रिंट’ के प्रेत ने इस तरह भटका दी कि वह टिप्पणी मलय जी की कविताई को ‘धोने’ के लिए, किनारे कर देने के लिए इस्तेमाल की जाती रही. सभी एक यांत्रिक विचारणा में फँसते रहे और परिणामस्वरूप अनजाने ही मलय के साथ अन्याय होता रहा! इतना ही अन्याय तो हमने मुक्तिबोध के साथ भी तो किया है क्योंकि हम उनके लिखे को लगातार गलत बाँचते रहे!”
[5]
मलय के दर्जन भर काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वे नब्बे की उम्र में भी उतनी ही ऊर्जा और त्वरा से रचनारत हैं. उनके पहले संग्रह ‘हथेलियों का समुद्र’ से लेकर हाल-हाल में समालोचन में छपी कविताओं तक में यह साफ-साफ दिखता है कि उनका उत्तरोत्तर विकास हुआ है और उनकी कविताएँ देश-काल की नब्ज पहचानने में अब भी पर्याप्त समर्थ हैं. समालोचन की कविताओं को पढ़कर तो मुझे कहीं नहीं लगा कि उनकी बात पाठक तक पहुँचने में विफल हो जा रही हैं. फिर उनकी कविताओं पर यह आरोप सर्वथा बेमानी है कि वे संप्रेषित नहीं हो पातीं.
‘हथेलियों का समुद्र’ संग्रह की कविता ‘उपलब्धि-बोध’ को ही ले लीजिए-
“दौड़ती हुई सड़क
नदी में गिर पड़ी;
डूब गईकिन्तु गति-
(जिसने उसे
इस किनारे से धकेला था
उस किनारे पर खड़ी थी)
नदी में उतरी
और-
झुकी कमर सड़क को
अंगुली पकड़ाकर
ले गई उस पार.”
इस कविता में मलय ने एक दृश्य रचा है. इसे दृश्य के रूप में ही देखा जाना चाहिए. लेकिन यदि आप सड़क की जगह लड़की रख दें और गति की जगह सहेली रख दें तो यह कविता कितनी सपाट हो जाएगी! और फिर क्या यह कविता भी रह जाएगी?
वहीं जब वह ‘गहरे ताप में’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
“क्या यह
आग पीकर
जीने का
जलता हुआ
समय है?”
तब उनकी कविता में समय का यथार्थ बहुत नंगा होकर हमारे सामने उपस्थित हो जाता है! यही यथार्थ एक ज्यादा बिम्बात्मक रूप में ‘टेढ़े चाँद की नोकें’ शीर्षक कविता में कुछ इस तरह चमक उठता है-
“विषमता की बर्बरता
इतनी विकराल है
देह के समुद्र में
कष्ट के टेढ़े चाँद की नोकें
चुभती हैं
हड्डियों में कीलों-सी गड़ती हैं.”
अब तक उद्धृत्त की गई काव्य-पंक्तियाँ और यहाँ ठीक ऊपर उद्धृत की गई काव्य-पंक्तियाँ पर्याप्त हैं यह सिद्ध करने के लिए कि मलय की कविताओं में बहुत विविधता है. बहुत बड़ा रेंज है मलय की कविताओं का, जिसमें मनुष्य की, समय की, युग की हर धड़कन दर्ज हो रही है. एक नई भाषा में. एक नए अंदाज में. इसलिए मैं श्रीकांत वर्मा द्वारा दी गई उस संकीर्ण स्थापना से भी इत्तेफाक नहीं रखता कि मलय की कविता हिंदुस्तानी निम्न मध्यवर्ग की कविता है! कविता में यह निम्न वर्ग, मध्य वर्ग और उच्च वर्ग क्या होता है? मलय की कविता मनुष्य मात्र के धड़कते जीवन की कविता है. वह किसी निम्न या मध्य वर्ग की नहीं, बल्कि जीते जागते सम्पूर्ण लोक की कविता है. मलय जैसे बड़े कवि को किसी संकीर्ण खाँचे में कैद कर देना भी उनके साथ नाइंसाफी ही है!
मलय की कविताओं पर मैंने यहाँ जो कुछ भी लिखा है, वह किसी आलोचकीय भंगिमा से नहीं वरन अपनी पाठकीय दृष्टि और अपने व्यक्तिगत काव्य-विवेक से लिखा है. मैं तो बस यही आशा और उम्मीद करता हूँ कि मेरी बातों से असहमति भी मलय की कविताओं के समग्र मूल्यांकन का मार्ग खोल दे! अंत में, मलय की इन काव्य-पंक्तियों के साथ विदा लेता हूँ-
“बुरे वक्त की रात में भी
जीता हूँ
सूरज की तरह
सामना करने से
भागकर
डूब नहीं जाताअँधेरे में
बैठता नहीं
बढ़ता हूँ
अपनी ही हड्डियों की रगड़ से
उजेरा करता हूँ!”
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संपर्क:-
राहुल राजेश, जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगांव (पूर्व), मुंबई-400063.
मो. 09429608159.
मलय जी के काव्य संसार पर बातचीत जरूरी है , उन्हें भी हमने आलोचना के हाशिए पर डाल रखा है। ’समालोचन ’और राहुल राजेश को बधाई।
बहुत अच्छा लेख। कम-अज़-कम मलय जी याद तो किए गए। समालोचन की यही खूबसूरत बात है, कई चीज़ों को दोबारा हाफ़िज़े में लाना। हो सकता है कई बार शायद हम आप की राय या नज़रिए से मुत्तफ़िक़ न भी हों…
मलय जी के रचना संसार पर राहुल राजेश जी की समीक्षात्मक टिप्पणी हिन्दी आलोचना संस्कृति पर भी एक टिप्पणी है।वैसे आलोचना के विचारधरात्मक पूर्वाग्रहों को लेकर उनके आरोप निराधार नहीं हैं।उठापटक और खेमेबंदी ने अच्छे-अच्छों की अनदेखी की पर देर-सबेर उन्हें किसी-न-किसी जमीन से उगते हुए भी हम सबने देखा। संभव है वह जमीन भी किसी मठ की ही रही हो।यहाँ तक तो सही है लेकिन इन अप्रिय प्रसंगों के बहाने पूरी मार्क्सवादी आलोचना को लांक्षित करना भी एक पूर्वाग्रही दृष्टि है। हिन्दी नहीं पूरी दुनिया के साहित्य में मार्क्सवादी आलोचना का साहित्य में जो अवदान रहा है उसे गैर मार्क्सवादी भी अस्वीकार नहीं कर सकते ।एक खास संदर्भ में यह मान लेना कि मुक्तिबोध अगर मार्क्सवादी नहीं होते तो साहित्य में उनका कद इतना बड़ा नहीं होता,गलत है। वैसे मलय जी की समकालीन उपेक्षा एक दुखद प्रकरण है। आनेवाला समय कभी जरूर मूल्यांकन करेगा जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य में घोर उपेक्षित कबीर का किया।सभी को साधुवाद !
नई कविता की यदि कोई मुख्तलिफ धारा समझी ही जाय, तब भी मलय ऐसे कवि ठहरते हैं जो इस धारा में मठाधीशी को नकारते हुए हिंदी कविता के इस दौर को प्रोग्रेसिव किए जाने के यत्न में देखे जा सकते हैं. मलय जी की चाहे छोटी कविताएं हों या लंबी, उन्होंने रचनाशीलता में हमेशा कठिन रास्ते अख्तियार किए पर पाठकों को उनका सुफल बड़ा सहल सा लगा.
“शामिल होता हूं” कविता में उनका यह कहना : मैं शामिल होता हूं तुम सब में/ डूब कर चलता हूं/ रचता हूं/ उगता हूं/ भाषा की सुबह में.
उपर्युक्त बात को प्रमाणित करता है.
राहुल राजेश ने काफ़ी बढ़िया लिखा है – सर्वांग, सम्पूर्ण.
सबसे पहले आपको साधुवाद राहुल भाई , मलय जी से परिचित कराने के लिए ।
एक सम्यक आलेख । हालांकि जिस तीखे अंदाज में आपने शुरुआत की अपने लेख की , कइयों को आपत्ति हो सकती है ( जबकि वह यह जानते हैं कि आपका लिखा शायद गलत नहीं है )। आपके साहस को सलाम ।
मलय जी के कुछ और प्रतिनिधि कविताओं को इस लेख में सम्मिलित किया जाता तो और बेहतर होता । फिर भी आपके इस प्रयास को साधुवाद साथ ही समालोचन को भी , जो इस तरह के विचारोत्तेजक लेख को प्रकाशित कर अपनी उपादेयता हमेशा सिद्ध करता है।
बहुत गंभीरता से लिखा है राजेश जी। कवि को पाठक स्थापित करता है और यह स्थापना लंबी चलती है। बधाई आपको इस ललित समीक्षा के लिए।
मलय जी पर बहुत अच्छा आलेख लिखा है राहुल तुमने। इसे पढ़ने का वक़्त कल से ही निकालने का प्रयास कर रहा था। व्यक्ति, भाषा और भाव तीनों के स्तर पर उनके कविता-संसार का व्यापक विश्लेषण किया है। निश्चित रूप से मलय हिंदी के उन कुछ शीर्ष नामों में शुमार हैं, जो आजीवन अनसेलिब्रेटेड और अंडर नोटिस्ड रहे। हिंदी की स्थापित मठाधीशी से बेपरवाह रहने का दंड कदाचित उन्हें भी चुकाना पड़ा शायद। किंतु उन सबके लिए मलय या उनके जैसे रचनाकार सदैव महत्वपूर्ण हैं जिनके दिलों में काव्य-मौलिकता आज भी धड़कती है। सुंदर और सार्थक आलेख।
अच्छा लिखा है राहुल। अस्सी के दशक की कविता की जिस डिज़ाइन का स्वाद आलोचना के मुँह लगा, उसने मलय जैसे कवियों के लिए कठिनाई पैदा कर दी। सत्तर के बाद ही इस तरह की लंबे वितान और बुनाव की कविता की धारा क्षीण होती गई और छोटी, कुछ चमकदार पंक्तियों पर आश्रित कविता का बोलबाला हो गया। यहाँ तक कि साठ और सत्तर में खासे सक्रिय रहे कवियों ने भी माहौल देख कर गेअर चेंज कर लिया, मगर हठीले मलय अपनी टेक पर बने रहे।
जो मलय कल तक अबूझ और दुरुह माने जाते थे राहुल राजेश ने उन्हें सहज, सरल और पारदर्शी साबित कर दिया। अब सवाल यह पैदा होता है कि आलोचना की जिस ताकत का इस्तेमाल राहुल ने मलय को समझाने में किया है, उसका इस्तेमाल और आलोचकों ने अभी तक क्यों नहीं किया? आखिरकार आलोचना का काम क्या है? क्या आलोचना का काम सिर्फ भेदभाव करना है जिसकी और राहुल राजेश ने इशारा किया है? मैंने गौर किया है कि राहुल की प्रतिभा का अधिकांश हिंदी की उस विशेष आलोचना दृष्टि पर गुस्सा करने में जाया हो जाता है जो आपादमस्तक भेदभाव से आच्छादित है। राहुल के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना पद्धति बहुत ही शातिर है और वह मलय को नष्ट करने के लिए उन पर तो मुक्तिबोध का प्रभाव दिखा देता है लेकिन वहीं दूसरी और मुक्तिबोध को हिंदी कविता का सिरमौर साबित करने में आसमान से भी तारे तोड़ लाता है। जबकि मुक्तिबोध और मलय के बुनियादी अंतर को भी राहुल चिन्हित करने में कामयाब होते हैं। इसी अंधबिन्दु के वशीभूत होकर फणीश्वर नाथ रेणु का भी मूल्यांकन मार्क्सवादी आचार्यों ने नहीं किया। मलय को समझने के लिए यह आलेख एक दृष्टि प्रदान करता है।