खिलाड़ियों का अंतर्मनयादवेन्द्र |
अभी हाल में संपूर्ण हुए टोकियो ओलंपिक वैसे तो कोरोना के विश्वव्यापी प्रकोप के चलते भयंकर अनिश्चितता के माहौल में एक साल बाद संपन्न हुआ जिसमें दर्शकों की प्रत्यक्ष भागीदारी न के बराबर रही. जैसा हर बार होता है खिलाड़ियों को उनकी उपलब्धियों और मेडल के आधार पर ही देखा, दिखाया और आँका गया. लेकिन इस प्रतियोगिता ने खिलाड़ियों के बीच पाँव जमाए लेकिन आमतौर पर नकारे जाने वाले मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को बहुत प्रमुखता के साथ उठाया, यह नई और महत्वपूर्ण बात है.
यह भी एक संयोग है कि इन मुद्दों को बहुत मुखरता और निर्भीकता के साथ जिन खिलाड़ियों ने उठाया उनमें प्रमुख रहीं दो युवा लेकिन खेल और उससे इतर सामाजिक मुद्दों पर मुखर होकर अपनी बात रखने वाली अश्वेत मूल की स्त्रियाँ- शीर्ष टेनिस खिलाड़ी नाओमी ओसाका (स्त्रियों की वर्ल्ड रैंकिंग में नं 1 रही खिलाड़ी,अब नं 3) और पिछले ओलंपिक में 4 स्वर्ण पदक जीतने वाली और जिम्नास्टिक्स में अब तक के सबसे ज्यादा स्वर्ण पदक जीतने वाली अमेरिकी जिमनास्ट सिमोन बाइल्स (इस बार रजत पदक टीम की सदस्य).
डच साइक्लिस्ट टॉम डुमौलिन ने अपनी मानसिक परेशानियों के चलते ओलंपिक की ट्रेनिंग बीच में छोड़ दी थी लेकिन कुछ महीनों के विश्राम के बाद फिर से न सिर्फ ओलंपिक में शामिल हुए बल्कि रजत पदक जीत लिया. उन्होंने खुल कर अपनी मानसिक दशा की बातें सबके सामने उजागर कीं. भारत की संभावनाशील पहलवान विनेश फोगाट कोरोना के बाद पैदा हुई शारीरिक मुश्किलों और मानसिक तनाव से इस कदर घिर गईं कि पदक की आस तो जाती ही रही उन पर अनुशासनहीनता के तरह-तरह के आरोप भी लगाए जाने लगे. भारत लौटने के बाद विनेश ने एक बड़े अखबार में लेख लिख कर अपने मन का बड़ा ईमानदार और तरल विवरण लिखा जो अमानवीय दबावों और हिमालय जैसी उम्मीदों के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करते खिलाडियों के अंदर चल रही उथल-पुथल का रोंगटे खड़े कर देने वाला दस्तावेज़ है.
सिमोन बाइल्स ने टोकियो ओलंपिक के दौरान जब प्रतियोगिता में भाग न लेने का फैसला किया तो बहुत सनसनी फैली और गोरे अतिवादियों ने देश को धोखा देने तक के आरोप उनपर लगाए पर उनका मत एकदम स्पष्ट था कि मेरे लिए मेरी मानसिक सेहत सबसे महत्वपूर्ण है और मैं अपने कंधों पर पूरी दुनिया का बोझ महसूस कर रही थी. मैं दुनिया की खुशी के लिए कुछ भी बदलने को तैयार नहीं हूँ.
मैंने आगे बढ़ कर खिलाड़ियों के लिए अपने मानसिक स्वास्थ्य और बेहतरी के लिए खुलकर बोलने में पहल की है. उन्हें यह सीखना होगा कि वे खिलाड़ी से पहले एक इंसान हैं. हमें अपना मन और अपना शरीर दोनों बचा के रखना है. ऐसा नहीं कि हम बाहर निकलें और दुनिया जैसा चाहती है वैसा काम कर के दिखाने लगें.
अपने फैसले की पृष्ठभूमि बताते हुए वे कहती हैं कि न सिर्फ एक ओलंपिक साल रहा है बल्कि एक अतिरिक्त वर्ष भी रहा है- हमें चार नहीं बल्कि पाँच वर्षों तक ट्रेनिंग करनी पड़ी है जिसके लिए हम कतई तैयार नहीं थे. लेकिन ऐसा करने से आपके शरीर पर असर तो पड़ता ही है.. इसलिए मैं अभी उस दबाव से मुक्त होने की कोशिश कर रही हूँ. मैं रिलैक्स कर रही हूँ, अपने आप को फिर से तैयार कर रही हूँ और अपने नए प्रोजेक्ट पर काम कर रही हूँ. कभी यहाँ कभी वहाँ थोड़ी देर के लिए जिम में ट्रेनिंग के लिए चली जाती हूँ लेकिन ज्यादा नहीं. मैं इन दिनों खेल से अपना ध्यान हटाकर अवकाश का आनंद ले रही हूँ , जीवन का सुख ले रही हूँ.
बाइल्स बताती हैं कि जब ओलंपिक के लिए टोकियो आईं तो ऐसा एहसास हुआ जैसे एक बार फिर अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों की खुशी के लिए आई हैं. इस अनुभूति के बाद दिल दुखता है, और मुझसे कहता है कि
“जो काम करने से मुझे खुशी मिलती है मुझे उससे दूर कर दिया गया है, सिर्फ इसलिए कि दूसरों को खुशी मिले दूसरों को आनंद मिले.”
ओलंपिक से कई महीने पहले से नाओमी ओसाका भावनात्मक परेशानी से गुजर रही थीं और कई बड़े टूर्नामेंट से उन्होंने या तो नाम वापस ले लिया या बीच में छोड़ कर बाहर आ गईं. बड़े टेनिस टूर्नामेंट ने विजेता खिलाड़ियों के प्रेस कॉन्फ्रेंस को अनिवार्य किया हुआ है और हाल के महीनों में कई बार ऐसे मौके आए जब ओसाका पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब देते-देते कातर हो गईं. ऐसा कई बार होने के बाद उन्होंने सीधे तौर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से इंकार कर दिया. उनका कहना था कि पत्रकार कई बार बहुत निजी प्रश्न पूछते हैं और एक ही तरह के सवाल अनेक पत्रकार बार-बार पूछते हैं. उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि आमने-सामने बैठकर प्रश्न पूछने की अनिवार्यता खत्म की जाए, ई-मेल जैसे दूसरे साधन भी हैं जिनसे सवाल जवाब किए जा सकते हैं. लेकिन इंटरव्यू के लिए उपलब्ध न होने पर कई बड़े टूर्नामेंट आयोजकों ने उन्हें मिलने वाली पुरस्कार राशि काट लेने की धमकी दी.
हर किसी का स्वभाव अलग-अलग होता है. अपने स्वभाव के बारे में ओसाका का कहना है कि मैं पिछले दिनों की घटनाओं पर नजर डालती हूँ और यह जानने की कोशिश करती हूँ कि मैंने जो किया वह क्यों किया? बड़ी से बड़ी उपलब्धि के बाद भी मैं अपने आपसे यह नहीं कह पाई कि मैंने श्रेष्ठ मुकाम हासिल किया है… बल्कि मैं अपने आप को इस बात के लिए कोसती रहती हूँ कि मैं इससे बढ़िया कर सकती थी पर किया नहीं.
“मैं अपने कंधे पर लोगों की उम्मीदों का बोझ लाद कर और नहीं चल सकती”, एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा …. “आपकी जिंदगी आपकी है और उसको दूसरों के पैमाने से मत परखिए, अपने पैमाने से परखिए. मैं जानती हूँ मैं जो भी करती हूँ उसके लिए पूरा जी जान लगा देती हूँ लेकिन उस पर भी यदि कुछ लोगों को मैं संतुष्ट नहीं कर पाती, उनके पैमानों पर खरा नहीं साबित होती तो उनसे मैं माफी माँगती हूँ … लेकिन एक बात मेरे मन में बिल्कुल स्पष्ट है कि अब से मैं किसी की उम्मीदों का बोझ अपने कंधों पर लेकर नहीं चलूंगी.
(29अगस्त2021 को इंस्टाग्राम पर लिखा )
ओसाका मानती हैं कि खिलाड़ी भी इंसान हैं और हमेशा-हमेशा बहुत दृढ़ मनोदशा में नहीं रह सकते इसे स्वीकार करना चाहिए. इसीलिए उन्होंने खिलाड़ियों को भी बीमारी की छुट्टी (sick day) की सुविधा दिए जाने की वकालत की है. ओसाका के इस सुझाव के बाद यह निर्णय किया गया कि यू एस ओपन टूर्नामेंट में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के लिए प्रोफेशनल मनोवैज्ञानिकों का पैनल उनकी मदद के लिए उपलब्ध रहेगा और प्रतियोगिता स्थल पर ‘क्वाएट रूम’ की व्यवस्था भी की गई है जहां वे शांति से बगैर किसी बाहरी हस्तक्षेप के बैठकर अपने आप को बेहतर कर सकते हैं.
डच साइक्लिस्ट टॉम डुमौलिन ने ओलंपिक पूर्व अपना ट्रेनिंग कैंप बीच में ही छोड़ दिया क्योंकि वे मन से ठीक नहीं महसूस कर रहे थे. उनका कहना है कि हम भी इंसान हैं और कोई भी इंसान पूरी तरह से परिपूर्ण नहीं होता…. इसलिए आप यदि ठीक नहीं है तब भी कुछ गलत नहीं, यह भी ठीक है.(इट्स ओके नॉट टू बी ओके).
अपनी मानसिक दशा का वर्णन करते हुए एक इंटरव्यू में वे कहते हैं “मैं समझ नहीं पा रहा था कि साइकिलिस्ट टॉम डुमौलिन तक कैसे पहुँचूँ – यह मेरे लिए बेहद मुश्किल हो रहा था.” कितना विडंबनापूर्ण है कि एक इंसान खुद से ही मिलने को बेताब हो पर प्रोफेशनल दबावों के चलते ऐसा न कर पा रहा हो. यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने ट्रेनिंग कैंप फिर से ज्वाइन किया और रजत पदक भी जीता.
उन्हें लगने लगा था कि अब तक जो कुछ हासिल किया उतना बहुत है और आगे कुछ और हासिल न हो तब भी मन खुश रहेगा. लगा कुछ दिनों में मन से यह विचार निकल जाएगा लेकिन उन्होंने अपने को और बेहतर स्तर पर लाने की कोशिश नहीं छोड़ी, ट्रेनिंग करते रहे, बेहतर परिणाम प्राप्त करने की कोशिश ज्यादा से ज्यादा करते रहे . “लेकिन जनवरी आते आते मुझे अपना प्लग खींच कर बाहर निकालना पड़ा क्योंकि मेरा शरीर और मेरा मन दोनों इसकी कीमत चुकाने का हौसला खो चुके थे.”, टॉम बताते हैं.
ट्रेनिंग कैंप से बाहर आकर उन्होंने अपना ज्यादा समय सोने में, कुत्ते को लेकर घुमाने में और सैर सपाटे में बिताया. और पत्नी और निकट के दोस्तों के साथ खूब मन से रहने हँसने बतियाने का दुर्लभ अवसर निकाला जो महीनों से संभव नहीं हो पाया था.
“हमने खेल के बारे में नहीं बल्कि जीवन और अपनी ख्वाहिशों के बारे में बहुतेरी बातें की. अपने खेल करियर में अपने लक्ष्यों को लेकर मैं इतना आत्म केंद्रित हो गया था कि निकट के लोगों के साथ दोस्ती के संबंध निभा पाना मुश्किल हो गया था. ऐसा नहीं कि मेरे दोस्त मित्र नहीं थे लेकिन अपनी प्राथमिकताओं के कारण मैं उनकी रुचियों और उनके जीवन के ऊँच नीच के बारे में ज्यादा कुछ जान नहीं पाता था… और मुझे लगता था कि और लोग भी वैसे ही रहते हैं जैसे मैं. सालों साल तक मैं एक मुकाम हासिल करता और दूसरे की तरफ टूट पड़ता, मुझे यह फुर्सत ही नहीं होती कि मैं अपने दाएँ बाएँ क्या हो रहा है इसकी खोज खबर रखूँ . मैं मानता हूँ कि यह कुछ समय के लिए जरूरी भी था लेकिन हाल की घटनाओं ने मेरी आँखें खोल दीं – मैंने न सिर्फ अपना जीवन आनंद पूर्वक जिया बल्कि अपने आसपास के जीवन का भी भरपूर आनंद लिया.”
खिलाड़ियों के ऊपर मेडल जीतने का इतना दबाव होता है कि उनका शरीर ज्यादा से ज्यादा प्रैक्टिस कर के थक जाता है बल्कि मन भी अपनी लय खोने लगता है. ओलंपिक वर्ष में उपलब्धियों का दबाव मारक स्तर तक बढ़ जाता है- खुद की, देश की, स्पॉन्सरर की, प्रशंसकों की और भविष्य की सबकी उम्मीदें अपने चरम स्तर पर होती हैं. शक्ति पुंज माने जाने वाले बड़े-बड़े खिलाड़ी इस भावनात्मक दबाव के सामने लड़खड़ाने लगे हैं पर ओलंपिक जैसी प्रतियोगिताएँ इतना विकराल रूप ले चुकी हैं कि बड़े से बड़ा खिलाड़ी एक बाइनरी में देखा जाने लगा है – मेडल नहीं तो सिफ़र.
अपने इस तजुर्बे को टॉम इन शब्दों में व्यक्त करते हैं: यदि मुझे औरों को कोई एक सलाह देने को कहा जाए तो मैं यही कहूँगा कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे-आगे दौड़ते हुए थोड़ा ठहर कर पीछे भी देखो और इसका हिसाब किताब करो कि जीवन में क्या पाया क्या खोया.
हर बार की तरह ओलंपिक में जाने वाली स्त्री पहलवानों की भारतीय टीम में विनेश फोगाट से पदक की बड़ी उम्मीद लगाई गई थी पर दुर्भाग्य से आयोजकों और प्रशिक्षकों ने ऊपरी तौर पर स्वस्थ दिखने वाली इस खिलाड़ी के अंदर की उथल-पुथल और भावनात्मक दुर्बलता की अनदेखी की. टोकियो में अच्छा प्रदर्शन न कर पाने की और भारत लौटकर दंडित किए जाने की धमकी के बाद उन्होंने बताया कि पिछले 14 महीनों में वह दो बार कोरोना पॉजिटिव हुई थीं और ओलंपिक में आने से पहले टीम के सभी सदस्यों का सात दिनों तक रोज टेस्ट हुआ लेकिन उनका एक बार भी नहीं हुआ. कोरोना की आशंका पर फिर से बुरी तरह हावी थी.
विनेश ने बेहद कातर होकर कहा,
‘अब मुझे रोने में भी दिक्कत है. मेरी मेंटल स्ट्रेंथ जीरो है. उन्होंने मुझे मेरी हार पर दुख भी नहीं मनाने दिया. हर कोई हाथ में चाकू लेकर तैयार बैठा है.’
(नवभारत टाइम्स को दिए इंटरव्यू में)
विनेश फोगाट का यह कथन पर हम सबको गौर से विचार करना चाहिए:
“हम सिमोन बाइल्स के निर्णय का जश्न मनाते हैं क्योंकि उन्होंने कहा कि मैं ओलंपिक में प्रदर्शन करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ और उन्होंने खेलने से मना कर दिया. लेकिन क्या आप भारत में ऐसा कुछ कह सकते हैं? कुश्ती नहीं खेलना यह छोड़ो सिर्फ इतना बोलकर दिखाओ कि तुम तैयार नहीं हो.”
बाद की घटनाएँ विनेश की आशंकाओं को बिल्कुल सच साबित करती हैं.
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखे एक लेख में उन्होंने अपनी हालत के बारे में कहा:
“मुझे ऐसा लगता है कि मैं सपने में सो रही हूँ और अभी कुछ शुरू ही नहीं हुआ है. मैं ब्लैंक हो गई हूँ. मुझे नहीं पता कि मेरे जीवन में क्या हो रहा है. पिछले एक हफ्ते से मेरे अंदर इतना कुछ चल रहा है. मैंने कुश्ती को अपना सब कुछ दिया है लेकिन अब लगता है इसे छोड़ने का समय आ गया है. लेकिन फिर लगता है अगर मैंने उसे छोड़ दिया तो मैं कमजोर दिखूँगी और यह मेरे लिए एक बड़ी हार होगी. ….. अभी, मैं वास्तव में अपने परिवार पर ध्यान देना चाहती हूँ. लेकिन बाहर हर कोई मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसे मैं मरी हुई चीज हूँ . मैं जानती थी कि भारत में आप जितनी तेजी से उठते हैं, उतनी ही तेजी से गिरते भी हैं. एक पदक खोया और सब कुछ समाप्त हो गया.”
आगे वे बताती हैं कि अपना वजन कम करने के लिए उन्हें साल्ट कैप्सूल लेना पड़ता था जिसकी उन्हें की आदत हो गई . लेकिन टोक्यो में उनसे मदद नहीं मिली. वहाँ वे अकेली थीं –
” मैं खुद फिजियो थी और खुद पहलवान भी. मुझे शूटिंग टीम से एक फिजियो सौंपा गया था पर वह मेरे शरीर को नहीं समझता था.”
विनेश बताती कि अंतिम मुकाबले के दिन उन्हें कुछ फील नहीं हो रहा था क्योंकि एक दिन पहले से उन्होंने खाना छोड़ दिया था. उन्होंने कुछ न्यूट्रीशन सप्लीमेंट पिए थे लेकिन उन्हें इससे कोई मदद मिली. … बल्कि उल्टियाँ हने लगीं. स्टेडियम जाते वक़्त उन्हें बस में भी उल्टियाँ हुई. दूसरे दौर में उन्हें लगने लगा कि उनके लिए जीतना संभव है . वे लक्ष्य को दूर जाते देख रही थीं लेकिन कुछ कर नहीं पा रही थीं.
“मेरा दिमाग उस स्तर तक अवरुद्ध हो गया था कि मुझे नहीं पता था कि टेकडाउन कैसे पूरा किया जाए. मुझे आश्चर्य हुआ कि मैं एकदम ब्लैंक थी.”,विनेश ने लिखा.
जाहिर है विनेश की मेंटल हेल्थ ठीक नहीं थी. उन्होंने अपनी मर्जी से कुश्ती शुरू की थी और इसके लिए उन्हों ने बहुत मेहनत की है. इस बारे में वे कहती हैं :
‘मैं मानसिक रूप से ठीक नहीं हुआ हूँ . घर पहुँचने के बाद से मैं एक बार ढंग से सोई नहीं हूँ . फ्लाइट में मुश्किल से दो घंटे सो पाई . अब गाँव मैं अकेली रहूँगी और कॉफी पीऊँगी. जब सूरज उगता है तो मुझे नींद आती है. मैं नहीं जानती कि मैट पर कब वापस लौटूँगी. यह भी हो सकता है कि कभी न लौटूं. मुझे लगता है कि मैं उस टूटे पैर के साथ बेहतर थी. अब मेरा शरीर टूटा नहीं है, लेकिन मैं सचमुच टूट गई हूँ .”
अंत में विनेश ने कहा कि उनके दिमाग में फिलहाल दो तरीके के ख्याल चल रहे हैं. एक ख्याल कहता है कि उन्हें अब कुश्ती से दूर हो जाना चाहिए तो वहीं दूसरा ख्याल कहता है कि बिना लड़े दूर होना उनकी सबसे बड़ी हार होगी.
खेलों का या मनोविज्ञान का विशेषज्ञ होना जरूरी नहीं है, ताकत के खेल में एक छोटे से गाँव से उठकर देश का प्रतिनिधित्व करने ओलंपिक के मैदान में पहुँच जाने वाले किसी पहलवान का यह सब सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करना किसी भी विवेकशील इंसान को उद्वेलित करेगा- खिलाड़ियों के शरीर पर इतराने वाले आयोजकों और नीति निर्धारकों को उनके मन की थाह भी लेनी होगी …. वे बेजान पत्थर नहीं हैं, उनके अंदर भी एक संवेदनशील दिल धड़कता है. उन घायल और थके दिलों की न सिर्फ आवाज़ सुनने की दरकार है बल्कि उन्हें सहलाने, सम्मान देने और जरूरत हो तो उपचार करने की जरूरत है.
इन मर्मस्पर्शी घटनाओं और अनुभवों के बारे में पढ़ते हुए मुझे हाल में पढ़ी अभिनव बिंद्रा (2008 बीजिंग ओलंपिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीतने वाले निशानेबाज ) की आत्मकथा “ए शॉट एट हिस्ट्री: माय ऑब्सेसिव जर्नी टु ओलंपिक गोल्ड” याद आ गई जो 2014 में उन्होंने स्पोर्ट्स पत्रकार बृजनाथ रोहित के साथ मिलकर लिखी है. कई बरसों के दौरान पढ़ा मेरा यह सबसे प्रिय कथेतर गद्य है जो एक बड़े खिलाड़ी की प्रोफेशनल उपलब्धियों पर बगैर आत्ममुग्धता के जिस ईमानदारी के साथ बात करता है उससे कहीं ज्यादा तरल और बेझिझक तन्मयता के साथ अभिनव बिंद्रा के मन अंदर पल पल रंग बदल रही दुनिया के जीवंत चित्र खींचता है. एक बड़े खिलाड़ी के मन संसार की खिड़की खोलने वाली इस लाजवाब किताब के कुछ उद्धरण पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ:
“मेरे माता पिता ने जिस तरह की कलात्मक दुनिया से मेरा परिचय कराया उसमें अब 29 साल का होने पर भी मैं कैनवस की तरफ खिंचा चला जाता हूँ – कभी पेंटर की तरह तो कभी दर्शक की तरह. यूरोप की अपने यात्राओं में अपनी तकनीकी दुनिया की एकरसता मैं कभी-कभी एंटीक्स की नीलामी में जाकर तोड़ता हूँ तो कभी म्यूजियम और गैलरी में घूमते हुए कलाकृतियों को देखते हुए. इस तरफ मुझे प्रवृत्त करने में मेरे कंसलटेंट कोच उवे रीस्टरर का बहुत योगदान है जिन्हें शूटिंग रेंज में लगातार प्रैक्टिस करते हुए मेरा कैद रहना नहीं भाता था- वे अक्सर मुझे पिंजरे में बंद एक बाघ के रूप में देखते थे जो पिंजरे में बंद-बंद एक दिन पीड़नोन्माद या पागलपन का शिकार बन सकता है. उनका कहना था कि बौद्धिक चुनौतियाँ स्वीकार करो… नई-नई चीजें पढ़ो… म्यूजियम देखने जाओ…तरह-तरह का संगीत सुनो.”
इन उवे रीस्टरर के बारे में अभिनव का कहना है कि वे मेरे सबसे बड़े शिक्षक हैं जिनसे मैं बेपनाह नफ़रत करता था पर बीस साल तक चिपका भी रहा. वे हमेशा वे बातें मुझसे कहते थे जिन्हें मैं कतई सुनना नहीं चाहता था. अपनी किताब में वे उवे रीस्टरर की एक बेवाक चिट्ठी का उद्धरण देते हैं जो बीजिंग ओलंपिक की चकाचौंध के बाद उन्होंने अभिनव बिंद्रा को लिखी थी :
“अब तुम दूसरी दुनिया में प्रवेश करोगे और यह दुनिया तुमसे अपार उम्मीदें लगाए बैठी होगी. वैश्विक इंडियन सर्कस में तुम इकलौते बचे हुए सफेद बंगाल टाइगर हो. अवसाद- दरअसल इसे ‘विजय के बाद उत्पन्न होने वाला अवसाद’ कहना ज्यादा सही होगा और इसके अधिकांश लक्षण युद्ध के बाद उत्पन्न होने वाले अवसाद (पोस्ट वार सिंड्रोम) से बहुत मिलने जुलने वाले होते हैं. तुम्हारा युद्ध खत्म हुआ, अब तुम्हारे सामने लड़ कर हासिल करने को कुछ शेष नहीं है. तुमने जो शक्ति संचय किया था उसका भरपूर उपयोग कर लिया, तुम्हारा मस्तिष्क भी एकदम खाली है, तुम अन्य प्रतिभागियों के झुंड से अलग एकदम अकेले हो गए हो और तुम्हारे अंदर का खालीपन बहुत मुखर हो गया है- यह सब कुछ ऐसा है जैसे तुम किसी सिनेमा हॉल में बैठे हो और खुद अपनी फिल्म देख रहे हो…और तुम्हें उसकी स्क्रिप्ट के बारे में कुछ भी नहीं पता. लेकिन तुम्हें अच्छा लगे या बुरा, तुम्हारी नई जिंदगी की सच्चाई इसी तरह की है. यदि तुम सुकून और शांति से भरी कुछ रिलैक्स करने वाले शारीरिक व्यायाम करो तो उससे अवसाद ग्रस्त मन को थोड़ा काबू करने में मदद मिलेगी- फिर भी यदि तुम्हें लगता है कि मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर और लंबा खिंच गया तो तुम्हें छुट्टी या विश्राम के बारे में सोचना पड़ेगा. मेरा मानना है कि भारतीय समाज की उम्मीदों और अपेक्षाओं पर बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है- वह तुम्हें जिंदा निगल जाएंगी … और मैं ऐसे एक दो नहीं बल्कि कई लोगों को जानता हूँ जो इन घातक अनुभवों से जीवन में कभी उबर नहीं पाए.” |
किसी मुकाबले में पराजित हो जाने के बाद की अपनी मनोदशा के बारे में अभिनव कितनी साफगोई से यह कहते हैं :
“विजेता के चेहरे पर दमक रहती है और आप उसे देख कर हैरत में होते हैं कि कहीं वह आपसे हमदर्दी का नाटक तो नहीं कर रहा. मुझे लगता है कि वैसा नहीं करता होगा… लेकिन उससे हाथ मिलाते हुए जब आप चेहरे पर हल्की सी मुस्कान ले आते हैं तो क्या वास्तव में उसके लिए उसकी जीत के लिए खुश होते हैं? कटु सत्य यह है कि उस पल आप अपना असली रूप नहीं दिखाना चाहते और इस तरह का कुशल अभिनय करते हैं जिससे आपकी चमड़ी हटाकर कोई आपको नंगे रूप में न देख ले, उसे आप की सच्चाई का पता न चल जाए.”
“हारना नर्क जैसा होता है और हर हार आपको एक परफॉर्मेंस आर्टिस्ट में बदल देती है. जब आप विजेता के साथ हाथ मिलाते हैं या उसकी ओर मुखातिब होकर कुछ शब्द बुदबुदाते हैं सब कुछ दिखावे के लिए करते हैं. भाव भंगिमाओं की अहमियत होती है लेकिन तह में जा कर देखें तो यह एक छद्म युद्ध है हालाँकि दर्शकों के लिए यह सब एक लुभावने नाटक से ज्यादा कुछ और नहीं है.”
“लोगों को लगता है कि मैं बेहद शांत प्रवृत्ति का, खुद पर पूरा नियंत्रण रखने वाला और आसानी से विचलित न होने वाला इंसान हूँ, लेकिन उन्हें मेरी वास्तविक शख्सियत का अंदाजा नहीं है- मेरा चेहरा दरअसल एक झूठ है.”
“शूटिंग में शुरू से आखिर तक अपने सर्वश्रेष्ठ हुनर को साबित करना होता है. मैं जानता हूँ मैं अपना हर मैच जीतता जाऊँ यह संभव नहीं… मैं क्या कोई भी नहीं जीत सकता. इसलिए जब जब मैं हारता हूँ उसमें से कुछ न कुछ सकारात्मक ढूँढ़ता हूँ . हाँ, मेरा संतुलन बैलेंस मज़बूत था …. हाँ, मेरी साँस टूटी फूटी खंडित नहीं थी …. हाँ, मेरी ट्रिगरिंग निशाने पर और अचूक थी. एथलीट को अपने अंदर खुद को आश्वस्त करते रहना जरूरी है क्योंकि बाहरी तौर पर- खास तौर पर भारत में खेल को इसके बुनियादी इकहरे रूप में देखने की परिपाटी है…मेडल जीता या नहीं? विजेता हुए तब तो ठीक, नहीं तो कोई नहीं पूछेगा. जब आप एक बार जीतते हैं तो हर बार जीतना होगा …. आप ऐसा नहीं करते तो आपको कचरे के ढेर पर फेंक दिया जाएगा – कहा जाएगा वह जीत तो तुक्के से मिल गई थी. आलोचना हम पहनते ओढ़ते, साथ लेकर चलते और झटक कर फेंक देते हैं- यह हमारे हर दिन की खुराक है. मैं अपनी परफॉर्मेंस पर किसी स्वीकृति का आकांक्षी नहीं हूँ, अपने में सिमट कर अलग-थलग रहना मेरा सुरक्षा कवच है.”
( अभिनव बिंद्रा की किताब के उद्धरणों का अंग्रेजी से हिंदी भाषांतरण मेरा है)
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यादवेन्द्र का जन्म 1957 आरा, बिहार में हुआ, बनारस, आरा और भागलपुर में बचपन और युवावस्था बीती और बाद में नौकरी के लगभग चालीस साल रुड़की में बीते. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले 1974 के छात्र आंदोलन में सक्रिय भागीदारी. नुक्कड़ नाटकों और पत्रकारिता से सामाजिक सक्रियता की शुरुआत. 1980 से लेकर जून 2017 तक रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक से निदेशक तक का सफर पूरा किया. कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान सहित विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन. विदेशी समाजों की कविता, कहानियों और फिल्मों में विशेष रुचि-अंग्रेजी से कई महत्वपूर्ण अनुवाद. २०१९ में संभावना से ‘स्याही की गमक’(अनुवाद) प्रकाशित. साहित्य के अलावा यायावरी, सिनेमा और फोटोग्राफी का शौक. |
बहुत उम्दा आलेख है। खिलाड़ियों की मन:स्थिति को समझना भी जरूरी है। मैंने पूरा ओलंपिक देखा। मुझे सबसे ज्यादा कष्ट तब हुआ था, जब रवि दइया गोल्ड मेडल से चूक गया था। नीरज चोपड़ा के प्रति मैं आश्वस्त था। मैं उसे पिछले एशियन गेम में देख चुका। वह जिस स्टाइल से भाला फेंकता है, वह अद् भुत है। पाकिस्तान का नदीम उसका फालोवर है।
विनेश ने एशियन गेम स्वर्ण जीता था। ओलंपिक गेम वह कुछ नहीं कर पाई। उसकी मन:स्थिति को सभलना चाहिए। खिलाड़ी देश की धरोहर हैं, गुलाम नहीं। रह समझना जरूरी है।
बहुत सुंदर ! समसामयिक उदाहरण से भरपूर यह लेख बहुत ख़ास। .. मैं भी एक दौड़ में हूँ इन दिनों और दबाव-तनाव के मज़े ले रहा।
विनेश फोगाट और अभिनव बिंद्रा सफलता और असफलता के दो अलग- अलग ध्रुवों पर खड़े होकर भी लगभग एक जैसे खालीपन व युद्धोपरांत अवसाद जैसी मनःस्थिति से जूझते हैं, भारतीय समाज की अपेक्षाएँ उनके प्रति एक सी निर्मम व हिंसक हैं यह सब पढ़ना और जानना मेरे लिए एक नई दुनिया के द्वार खुलने जैसा है। अब तक हम यह मानते आये थे कि शारीरिक रूप से सक्रिय व स्वस्थ लोगों का मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा होता है, ख़ासतौर पर खिलाड़ियों का लेकिन वह विश्वास भी एक मिथक साबित हुआ। यादवेंद्र जी से हमेशा ऐसे ही अभिनव कामों की उम्मीद रहती है। इस बार भी वे अपने कृतज्ञ पाठकों की उम्मीद पर पूरे उतरे हैं। उम्दा आलेख। समालोचन को बधाई।
यादवेन्द्र जी का अनूठे विषय पर बेहद परिश्रम के साथ लिखा गया लेख न जाने क्यों मुझसे पढ़ने से छूट गया। खिलाड़ियों की मनोदशा और पदक पाने की होड़ में स्नायु तंत्र पर पड़ने वाले दबावों का इस आलेख में बहुत अच्छे और मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है यादवेंद्र जी ने।
बेहद संवेदनशील लेकिन उपेक्षित रह गए मुद्दे पर यादवेन्द्र जी का यह आलेख एक अनचीन्हे संसार की और ले जाता है .शारीरिक बल ,तकनीक ,ऊर्जा का सौन्दर्य ,पृष्ठभूमि में बजते राष्ट्रगान की धुन ,मैदान में दौड़ते ,झंडे लहराते खिलाड़ियों को जिस मानसिक तनाव और दबाव का सामना करना पड़ता है वह तो हमारी आँख से ओझल ही रहता है ,क्योंकि जिस भारत में हम रहते हैं वहां ‘खेलोगे कूदोगे तो होगे ख़राब और पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब’ -का अंतरवर्ती सुर बचपन से अवचेतन को आच्छादित किये रहता है .इधर के वर्षों में स्थिति बदली है थोड़ी ,स्पोर्ट्स कोटा के कारण.इसके बावजूद खिलाड़ियों के मानसिक तनाव से हम नावाकिफ ही रहते हैं ,क्योंकि हर जगह विजयी का गुणगान होता है ,पराजित के बारे में कोई सोचता तक नहीं .प्रस्तुत लेख इस दिशा में गहराई से सोचने के लिए दिशा -निर्देश देता है .समालोचन और यादवेन्द्र जी को बहुत बधाई .