दवातदार ताजुल मलिक और इल्तुतमिश का आख़िरी फ़रमानतरुण भटनागर |
हमारे यहाँ गुलामी की प्रथा प्राचीन काल में और मध्यकाल में रही है. प्राचीनकाल में वे लोग जिन्हें दास कहा गया और मध्यकाल में जो लोग मम्लूक या गुलामों के नाम से जाने गये, वे तमाम लोग उस पुराने दौर में थे. इसी दौर में हमारे यहाँ इन गुलामों की तादाद इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि उस वक़्त के बादशाह ने गुलामों के मामलों की देखभाल करने के लिए एक महकमा बनाया जो कि दीवाने-बंदगान कहलाया. हमारे यहाँ एक राजवंश हुआ जिसे गुलाम या दास या मम्लूकों का राजवंश कहा जाता है. उनमें से कुछ ध्वजहृत थे अर्थात युद्ध में हारने के बाद बंदी बनाये गये थे या दण्डप्रणीत थे यानी किसी राजा या अमात्य ने उन्हें दण्ड दिया था कि वे दास होंगे या वे मम्लूक थे, बंदगान थे और अबीसीनिया से लेकर तुर्किस्तान तक या बाइजैण्टाइन से लेकर चीन तक कहीं खरीदे गये और इस तरह हमारे यहाँ लाकर बेचे गये या वे उदागृहित थे यानी किसी दासी की संतान और इस तरह वे इस धरती पर जन्म से ही दास थे, गुलाम थे.
तरुण भटनागर
लकड़ी की तबक़
कहते हैं दवातदार ताजुल मलिक उस दौर के सबसे क़ाबिल दवातदारों में से एक था. सफेद रंग के बुर्राक कपड़ों में वह सिर उठाकर चलता था. उसके पीछे उसका एक कारिंदा लकड़ी की नक्काशीदार तबक़ लेकर चलता. तबक़ एक तरह की तश्तरी जैसी चीज होती थी जिसमें लिखने के काम आने वाले तमाम सामान रखे जाते थे. ताजुल मलिक ने अपने काम के लिए खास तरह की तबक़ बनवाई थी. सल्तनत के शाही खजाने में काम करने वाले हुक़्मरानों में से एक ने जो कि एक नेक दिल इंसान भी था, उसके लिए चाँदी की तबक़ बनवा देने की बात कही थी, पर ताजुल मलिक ने इंकार कर दिया था. उसको लगता था कि उसके काम के लिए लकड़ी की तबक़ ही सही रहेगी.
जरूरत के मुताबिक वह लकड़ी को कटवाकर और छिलवाकर तबक़ में तबदीलियाँ कर सकता था. यह सहूलियत चाँदी की तबक़ में न थी. इस तरह लकड़ी की यह तबक़ उसने बनवा ली थी. ताजुल मलिक को काम में आने वाली चीजों का ज्यादा ख़याल रहता था. वह चीज़ों के इस्तेमाल हो सकने की खासियत, जिंदगी में उनकी जरूरत और रोजमर्रा में दिल खोलकर उनसे काम ले लेने की सहूलियत से बड़ा मुतअस्सिर रहता था.
जो चीज जितने काम की होती, उसे उस चीज में उतनी ही ख़ूबसूरत नज़र आती. वह दवातदार है. वह जानता है कि चीजों की अहमियत उन चीजों की बनावट से और जिस तरह से वे चीजें दिखती हैं उससे नहीं होती है. चीजों के बेहतर होने का उनके दिखने से कोई खास ताल्लुक नहीं होता है. अब नरकट की बनी उस क़लम को ही लो जो तमाम बार स्याही में डूबने की वजह से बदरंग सी हो गई है, पर फिर भी यही है जिसे देखकर ताजुल मलिक का दिल खुश हो जाता है. भले वह नरकट की बनी एक बदरंग सी चीज हो, एक ऐसी चीज जो किसी और को फालतू की चीज लग सकती है या यह भी हो सकता है कि किसी के लिए वह इतनी फालतू हो कि उसकी उस पर नज़र ही न पड़े, पर उसके लिए वह एक ऐसी चीज है जिसे थामते ही उसका जी खुशी से भर उठता है.
उसके पास एक चाँदी की तश्तरी है जिसमें वह खाना खाता है और जो खुद सुल्तान ने उसे दी थी, उसके काम से खुश होकर ज़री वाली एक खूबसूरत ख़िल्लत के साथ और जिसमें महंगे पत्थर जड़े हैं, पर यह भी है कि उससे उसे कोई खास लगाव नहीं हो पाता है और कभी-कभार कुछ खाते-पीते वक़्त उसे यह ख़याल आता रहता है कि वह जिस तश्तरी में खा रहा है वह चाँदी की बनी है या कभी कोई रिश्तेदार उससे कहता है कि वह कितनी किस्मत वाला है कि वह चाँदी की तश्तरी में खा रहा है, तब उसका ध्यान उस तश्तरी पर चला जाता है और वह पल भर को चाँदी की उस तश्तरी को देखता है. उसे यह भी लगता है कि चाँदी की तश्तरी देखकर लोग बहुत कुछ भूल जाते हैं, इस तरह से चुप हो जाते हैं कि लगता है मानो यही भूल गये हों कि खाने का स्वाद कैसा है, लोग उसकी बात नहीं करते, वे तुलना भी नहीं करते, ये बात भी नहीं करते कि मिट्टी के बर्तनों में खाना खाते हुए जो सौंधेपन की खुशबू आती है, खाने का स्वाद बढ़ाती हुई वह तो चाँदी की तश्तरी में नहीं आती.
वह अपने रिश्तेदारों की बातों पर मुसकुराता है और चाँदी की तश्तरी पर उनकी ही तरह से खुश होने की कोशिश करता है. उसे स्याही की ख़ुशबू बड़ी दिलकश लगती है. यह खुशबू वक्त के साथ धीरे-धीरे उसके जेहन में अपनी जगह बनाती रही है. उन दिनों से जब वह नया-नया आया था और यह जानने पर कि वह पढ़ा लिखा है, उस दौर के सुल्तान के सरे-दवातदार यानी सबसे बड़े दवातदार ने सुल्तान से कह कर उसे अपने पास ख़तनवीसी के काम में लगा लिया था.
उसके कमरे में यह ख़ुशबू हर वक़्त होती है और वह इस खुशबू से अपना जी बहलाता रहता है. नरकट की बदरंग क़लम से और स्याही से भरी लकड़ी और काँच की शीशियों में से यह खुशबू कुछ इस तरह से आती रहती है मानो इन सबमें वह ताजिंदगी के लिए रमी हुई हो. कमरे के एक कोने में उसने स्याही की खाली शीशियों को रख छोड़ा है. बरसों पहले खाली हुई कुछ शीशियों में अब भी उनके रंगों की पपडियाँ जमी हैं और बदरंग होकर धूसर होते पुराने वक़्त के रंगों की ये पपड़ियाँ उन पर रच-बस सी गई हैं, कुछ इस तरह कि रगड़कर साफ भी करो तो वे हटती नहीं. एक बार उसके साथ काम करने वाले एक नौकर ने उससे कहा था कि अगर उसकी इजाजत हो तो वह इन खाली शीशियों में से कुछ को ले जाये, लकड़ी वाली खाली शीशियाँ तो वह दे ही सकता है, पर उसने उसे उन्हें देने से मना कर दिया था.
लिखने में भी और कहने में भी, वह सीधे-सादे अल्फ़ाज़ का हिमायती है. ऐसे अल्फ़ाज़ भले जिनकी लकीरें घुमावदार हों और जिन्हें बड़ा मन लगाकर, एहतियात के साथ, आँखें गड़ाकर बनाने का सुख हो, पर जो कहने सुनने में उतने ही सरल हों और कुछ इस तरह से हों कि जब किसी ख़त या फ़रमान में वह उन्हें लिख दे और कभी सुल्तान के हुक़्म पर भरे दरबार में उसे उन्हें पढ़ने का मौका आ जाये तो उन्हें सुनकर लोग वाह-वाह कर उठें, इस तरह के अल्फ़ाज़ चुन-चुन कर वह लिखता जाता है.
उसकी तबक़ में तरह-तरह की स्याहियों से भरी दवातें और दवातों में डूबे सुरख़ाब के मोटे और नुकीली नोंक वाले पंख एक ओर रखे होते हैं. नरकट की क़लम पर सुरख़ाब के पंख इस तरह से लगाये जाते हैं जिससे उंगलियों के बीच दबाये जाते वक़्त सुरख़ाब के पंखों की डंडी उंगलियों के बीच ना आ जाये.
तबक़ में एक ओर वरक़ों को लपेटने के लिए रेशमी कपडे की कतरनें, वरक़ पर ताजी गीली स्याही को सुखाने के लिए खडिया के बेलनाकार टुकड़े, तरह-तरह के लकड़ी के भर्रु, सल्तनत की मुहर, लाख और मोमबत्ती, वरक़ के नीचे चिपकाई जाने वाली रेशमी झालर, वरक़ के ऊपरी किनारे में चिपका कर पिरोने के लिए खास तौर से बनाये गये लकड़ी के चिकने बेलन, वरक़ पर चिपकाये जानी वाली सुंदर आकारों में कटी सुनहरी कतरनें,…..और भी तमाम चीजें रखी होतीं.
शाही खजाने में काम करने वाले जिस हुक़्मरान ने यह तबक़ उसके लिए बनवाई थी उससे उसने कहा था कि वह तबक़ में स्याही रखने वाली जगह पर शीशियों को रखने के गड्ढेनुमा खाँचे बनवा दे जिससे तबक़ को लेकर चलते वक़्त या उसे उठाकर इधर-उधर रखने से शीशियाँ हिले डुलें नहीं. एक बार तबक़ को ले जाते वक़्त नौकर का पैर सीढ़ियों पर लटपटा गया था और शीशियाँ इतनी जोर से हिल-डुल गई थीं कि स्याही छलक कर तमाम दूसरे सामानों पर बिखर गई थी. तभी से ताजुल मलिक ऐसी तबक़ बनवाना चाहता था जिसमें शीशियों को रखने के लिए गड्ढेनुमा खाँचे हों.
ख़तनवीसी के काम के लिए चलने से पहले वह तबक़ पर नज़र मार लेता है और तसल्ली हो जाने पर कि हर चीज उसमें रखी है, तभी वह चलता है. कहते हैं उस दौर में चीन से आये कुछ लोगों ने उसे चीनी वरक़ की बातें उसे बताई थीं. बताया था कि बाँस और एक तरह की घास के मलीदे से बनाई गई ये वरक़ें कुछ इस तरह की होती हैं कि इन पर लिखते ही स्याही सूख जाती है. इस बात को सुनकर ताजुल मलिक हैरान हुआ था और खुश भी. अगर लिखते साथ ही स्याही सूख जाये तो वरक़ पर गीली स्याही को खड़िया से सुखाने के काम से फुरसत मिले- उसने चीन से आये उन लोगों से कहा था और उन्हें बताया था कि वरक़ पर गीली स्याही को खड़िया से सुखाने का काम बड़ी होशियारी से करना होता है ताकि कहीं स्याही खड़िया के बेलन पर लिपटकर वरक़ पर अपना कोई निशान या धब्बा ना बना दे.
खड़िया को भिगोकर उसके बेलन के आकार के सोख़्ते बनाये जाते थे और इन सोख़्तों को बड़ी ऐहतियात के साथ वर्क पर लिखी गीली इबारतों पर चलाया जाता था. कहते हैं उस दौर के वे चीनी लोग लिखने वाले लोगों की इस दिक़्क़त को जानते थे और इस नई वरक़ के बारे में उन्हें बहुत कुछ बताते थे- अगर गौर से देखो तो दिखता है कि कैसे पल भर में स्याही सूख गई- उन चीनियों में से एक ने ताजुल मलिक से कहा था. वह ताजुल मलिक से कहता- ये वरक़ थोडे खुरदुरे हैं, इतने खुरदुरे कि अगर इनको छू कर देखो तो इनका खुरदुरापन महसूस होता है, पर यह भी है कि वरक़ की सतह पर कटाव की छोटी-छोटी लकीरों और बुँदकियों से भरी सतह पर जब सुलतान की पादशाही लगाई जाती है और रेशमी कतरनों को चिपकाया जाता है तो पादशाही की सुर्ख़ लाल लाख और रेशमी कतरनों का चमकीलापन खिल उठता है- वह ताजुल मलिक को इस तरह से बताता था जैसे कोई बुज़ुर्ग किसी बच्चे को समझाता है- तुम यह जान लो दवातदार कि ये वरक़ बहुत मजबूत होते हैं और फटते नहीं….. इतने मजबूत कि गोलाई में लकड़ी के बेलन के गिर्द लपेटने से इनमें सल नहीं पड़ती….होता यह है कि ज्यादातर क़लमकार, दवातदार और खुशनवीस चिकने चमकदार वरक़ की तलाश में रहते हैं क्योंकि वे ख़ूबसूरत होते हैं, पर वे उसकी मजबूती, उसमें सल न पड़ने और स्याही को एकदम से सोख लेने जैसी खासियतों को नज़रंदाज करते रहते हैं…..
ताजुल मलिक ने चीन के इस वरक़ के बारे में उन लोगों से इतना कुछ सुन रखा था कि उसने सल्तनत के खजाने की देखरेख करने वाले उस हुक़्मरान से इस वरक़ की कुछ थान मंगवा लेने को कहा था. बाद में थोड़ी मशक्कत के बाद वह इस वरक़ पर लिखने और इसे शाही ख़त की तरह से तैयार करने में वह माहिर हो गया था.
वे चीनी लोग सही कहते थे कि भले ये वरक़ खुरदुरे हैं पर ये अपनी तरह से खूबसूरत दिखते हैं. कहते हैं नरकट के ड़ण्ठल से क़लम बनाने वाला एक ऐसा कारीगर उसके पास था जो बेहद बारीक नोक वाली क़लम से लेकर बीच से बंटी हुई और मोटी लिखाई के लिए सामने से गोल नोंक वाले क़लम बनाने में माहिर था. उसे नरकट के ड़ण्ठल की तासीर का अच्छे से पता होता था और किस तरह के ड़ण्ठल को कितना और कहाँ से छीला जाकर मन मुताबिक क़लम बनाई जा सकती है यह उसे बखूबी आता था. ताजुल मलिक ने उससे ऐसे क़लम बनाने को कहा था जिसमें स्याही देर तक टिकी रह सके. दरअसल होता यह था कि लिखते वक़्त लफ़्ज़ पूरा न हो पाता था और स्याही चुक जाती थी. किसी लकीर को बनाते वक़्त आधी लकीर तक पहुँचते-पहुँचते या पूरी लकीर के बनने से जरा सा पहले या यही कि लकीर का कोना छोड़ने से पल भर पहले क़लम की स्याही चुक जाती. ऐसे में क़लम को फिर से स्याही में डुबोकर उस जगह से फिर से चलाना होता था जहाँ स्याही चुक गई होती थी. चुकी हुई स्याही की जगह पर, अधूरे लफ़्ज़ की लकीर, फीकी होकर थोड़ी दूर तक घिसटी हुई बनी रहती, जिसमें रगड़ की लकीरें अपनी घिसटन के साथ स्याही छोड़ती हुई बनीं होतीं और फिर इसके ऊपर भरपूर स्याही में डूबी गीली क़लम को इस तरह से चलाना पड़ता था कि वह उस रगड़ खाई लकीर के निशानों को पूरी तरह से ढंक दे और इस तरह से रगड़ खाई लकीर के निशानों को स्याही के गाढ़े रंग में समाकर, छिपाकर गायब कर दे और पूरा लफ़्ज एक से रंग में बन जाये. यह एक दिक्क़त थी.
आँख गडाकर एक से गहरे रंग के लफ़्ज़ को बनाने में यह परेशानी होती थी. रगड़ खाये लफ़्ज़ के अधूरे हिस्से को उतने ही गहरे रंग का, ठीक उसी रंग जितना रंगीन बनाना होता था जितना कि वह लफ़्ज़ होता था. होता यह था कि लफ़्ज़ के रगड़ खाये अधूरे छूटे हिस्से पर जब स्याही का नया फेरा करते हुए उसे फिर से बनाया जाता तो नीचे के रगड़ खाये अधूरे हिस्से में बनी लकीरें और बुँदकियाँ नई स्याही के संग मिलकर ज्यादा गहरे रंग की हो जाती थीं और उन्हें छुपाने की तमाम कोशिशों के बावज़़ूद गौर से देखने पर दिख जाती थीं.
फिर यह भी था कि लफ़्ज़ के रगड़ खाये अधूरे छूटे हिस्से को स्याही से इस तरह से पूरा करना होता था जिससे लफ़्ज़ की किनारियाँ एकदम सही अपनी लकीर की गोलाईयों में, उनके लहरदार बलों में और उनकी सिधाई में जैसी की तैसी बनी रहें. इस तरह यह आसान काम न हुआ करता था. ताजुल मलिक को सबसे ज्यादा दिक़्क़त तब होती थी जब ऐसा करते वक़्त हो जाने वाली जरा सी गफ़लत की वजह से स्याही लफ़्ज़ की लकीरों के दायरों से बाहर हो जाती थी और फिर उसे पूरा वर्क ही बदलना पड़े. यद्यपि ऐसा बहुत कम होता था, पर यह था ही कि अधबीच में क़लम की स्याही चुक जाने से और फिर स्याही लेकर उसे पूरा करने से अल्फाज़ पर एकसार रंग की बजाय कहीं हल्का और कहीं गहरा रंग होता जाता था जिसे देख ताजुल मलिक खुद पर झुँझला जाता था.
आख़िरी फ़रमान
इल्तुतमिश ने दवातदार ताजुल मलिक को बिस्तर पर लेटे-लेटे रात के अंधियारे में भी दूर से आता देख लिया था.
जलती मशालों की मद्धिम रौशनी में भी उसने उसे पहचान लिया था. उसकी छाया को, उसकी चाल और उसके पीछे तबक़ लिये चलते आदमी के कदमों की आवाज़ सुन उसने उसी ओर अपनी आँखें घुमाई थीं. दवातदार ताजुल मलिक को आता देख बीमार इल्तुतमिश के चेहरे पर रौनक सी आ गई थी. मानो वह उसका ही इंतज़ार कर रहा हो. इंतज़ार से थोड़ा ज्यादा जैसे उसकी कोई मन माँगी मुराद पूरी हुई हो जबकि इसमें मन की किसी मुराद के पूरा होने जैसा कुछ भी न था. जब दवातदार ताजुल मलिक बीमार इल्तुतमिश के कमरे में दाखिल हुआ तो इल्तुतमिश ने उससे कुछ कहने की कोशिश की. बिस्तर में पड़े हुए थोड़ी गर्दन उठाने की कोशिश करते हुए उसके मुँह से आवाज़ निकली, अस्फुट सी, कहने की कोशिश सी. उसके बिस्तर के पास नीचे चौकी पर बैठे गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक ने उसके मुँह के पास अपने कान किये. इल्तुतमिश कहता था कि ताजुल मलिक बैठ जाये और जो वह कहता है उसे लिखे. गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक ने यह बात ताजुल मलिक को बताई. ताजुल मलिक थोड़ा उलझन में था.
इस तरह लिखने में एक दिक़्क़त है. दरअसल होता यह है कि इल्तुतमिश जब कोई ख़त या फ़रमान लिखवाता है तो उस कमरे में कोई और नहीं होता है. सिर्फ दवातदार ताजुल मलिक और उसका यह मददगार नौकर भर रह सकते हैं, कोई और नहीं. एक तरह का कायदा सा है कि कोई और नहीं हो सकता है, किसी और को नहीं होना चाहिए, ख़त में लिखी जा रही बात किसी को पता न चल जाये इस वजह से भी और इसलिए भी कि लोगों के होने से लिखने के काम में कोई ख़लल न पड़े. इस तरह उसने वहाँ खड़े तमाम लोगों को चले जाने को कहा. लोग एक-एक कर जाने लगे. पर इल्तुतमिश ने अपनी डूबती ज़बान में उन सबको वहीं रहने को कहा. अबकी बार ताजुल मलिक ने अपने कान इल्तुतमिश के मुँह के पास किये थे.
‘सब यहीं रहें. हर कोई. किसी को जाने की जरूरत नहीं’- उसने कमज़ोर और साफ़ आवाज में कहा. ताजुल मलिक अचरज में पड़ गया. उसके चेहरे पर अचरज को देखकर अपनी बुझती सी आँखों से इल्तुतमिश ने फिर कहा – ‘ये सब लोग…..ये सब इस बात के गवाह हों…..गवाह हों कि यह लिखत मैंने लिखवाई खुद सुल्तान ने और ये सब उस वक़्त वहाँ मौजूद रहे.’
ताजुल मलिक ने हैरानी से चारों ओर देखा. फिर उसने उन सबको रुक जाने को कहा. कहा कि सब कमरे में ही रहें. हर कोई जाते-जाते रुक गया, वापस अपनी जगह पर आकर खड़ा हो गया या बैठ गया. यह बेहद अजीब बात थी कि ऐसा क्या लिखवाना चाहता था देहली का सुल्तान कि सब उसे सुनें और उसके लिखे के गवाह हों. खुद सुल्तान के लिखे के गवाह, किसी लिखत को तसदीक करने वाले किसी गवाह की तरह से. भला सुल्तान को अपने लिखे के लिए गवाही की जरूरत क्यों आन पड़ी?
ताजुल मलिक लिखने के लिए बैठ गया. उसने तबक़ को अपने पास सरका लिया. एक साफ सुथरी चौकी पर वरक़ फैला लिया. उसके मददगार नौकर ने उसके पास एक चिराग़ सरका दिया और दूसरा एक चिराग़ लेकर उसके पास खड़ा हो गया ताकि चिराग़ की सारी रौशनी उस वरक़ पर पड़ती रहे. इस तरह इल्तुतमिश अपनी कमज़ोर और उखड़ती साँसों में गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक को बताता जाता था और गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक उसके कहे को जोर से बोलता था और ताजुल मलिक उसे लिखता जाता था – ‘यह वसीयत इस बात को तय करती है कि मेरे बाद देहली के तख़्त पर कौन बैठेगा. यह इस बात को मुकम्मल तौर पर दर्ज़ करती है कि देहली के सुल्तान की औलादों में से वह कौन है जो उसके बाद देहली के इस तख़्त पर बैठेगा……’
चारों ओर अजीब सी ख़ामोशी थी. ऐसी लिखत जो इल्तुतमिश के मरने के बाद देहली के सुल्तान को तय करेगी वह लिखवाई जा रही थी. खुद सुल्तान इल्तुतमिश उसे लिखवा रहा था और तमाम लोग सुन रहे थे. हर कोई इस बात को जानता जा रहा था कि वह क्या लिखवा रहा है. कहीं कोई बात छिपी हुई न थी. दूर कोने पर खड़ा गुलाम इज-अल-दीन उयुगहान खान बिहार से आया है. वह बिहार का सूबेदार है. हमेशा सफेद कपडे पहनने वाला उयुगहान आज भी उसी तरह से एकदम सफेद कपड़ों में है. जब वह आया था तो गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक ने उसे बैठने को कहा था पर वह नहीं बैठा. इल्तुतमिश के पास आकर उसने उसके कमज़ोर, सूजे हुए और जार-जार होते हाथों को अपने हाथों में लिया और उसे होंठों से चूमकर दस्तबोस किया, फिर चुपचाप उस कोने में जाकर खड़ा हो गया. वह बहुत देर से उसी कोने में खड़ा है.
पल भर को उयुगहान को वह पल याद आया जब गुलामों का एक बहुत बेरहम सौदागर उसका सौदा करने इल्तुतमिश के पास आया था. जिस दिन उसकी खरीद का काम पूरा हुआ था उससे पहले ही वह सौदागर सारी रक़म लेकर और उसे छोड़कर चला गया था. खूब तेज पानी गिर रहा था और वह बारिश से बचने अस्तबल के भीतर आ गया था. वह भूखा था और इस अजनबी मुल्क में एकदम अकेला. वह डरा हुआ था और अपने मुल्क और अपने परिवार के लोगों को याद कर सुबुकता था. तभी उसे अस्तबल के बाहर अंधेरे में एक हाजिब दिखा था, जो दूर कहीं खड़ा था और उसका नाम लेकर पुकार रहा था. दरबान वाले उसके कपड़े देखकर वह जान गया था कि यह देहली के सुल्तान के दरबार का हाजिब ही है. चोगे की बाहों से उसने अपनी आँखें पोंछी थीं और तीसरी बार फिर से अपना नाम सुनकर वह बाहर आ गया था. दूर एक कमरे के दरवाजे के नीचे वह हाजिब खड़ा था और उसे देखकर उसे वहीं रुके रहने को कह रहा था. हाजिब के हाथ में एक चोगा था और लगता था कि वह उस चोगे को बारिश से बचाना चाहता था. जब बारिश थोड़ी कम हुई तो वह उसके पास आया और वह चोगा उसे दे गया था. वह उसके लिए एक हाण्डी में उबले चावल और गोश्त भी लाया था और उसे महल से दूर लश्करग़ाह के पास एक कमरे पर ले गया था. उस कमरे के सामने एक मशाल जल रही थी जो इतनी तेज बारिश और हवा में भी न बुझी थी. उसने उसे बताया था कि अब से उसके रहने की जगह यही है. ‘तुम सोचते होगे कि इतनी रात को यह मेहरबानी कैसी …..तो यह जान लो कि यह सुल्तान इल्तुतमिश का हुक़्म था कि तुम्हें यह सब दे दिया जाये और रहने की जगह बता दी जाये’ – उस हाजिब ने वहाँ से चलते हुए कहा था – उसने पल भर को बीमार इल्तुतमिश के बिस्तर पर नज़र डाली थी, उसके कमज़ोर और सूजे हुए हाथों को देखकर उसका गला भर आया था.
देहली के तख़्त के लिए वह शहजादे रुकनुद्दीन को ही सही मानता है. शहज़ादी रज़िया अगर औरत न होती तो वह उसका साथ देता. उसे पता है कि सुल्तान इल्तुतमिश भी शहज़ादी रज़िया को ही चाहता है. पर वह नहीं चाह सकता. इल्तुतमिश के तमाम अहसान उस पर होने के बाद भी वह रज़िया को सुल्तान बनाये जाने की तरफ़दारी नहीं कर सकता. उसका दिल गवारा नहीं देता. वह किसी औरत की सरपरस्ती में चलने वाली सल्तनत को सही नहीं मानता. दूसरे तमाम लोगों की तरह से उसे भी लगता है यह रवायत और उसूलों के ख़िलाफ है. इस बात को जानने के लिए वह तमाम उलेमाओं से मिला है. जामी मस्ज़िद के इमाम से उसने देर तक बातें की थीं. इस तरह वह भी मानता है कि रज़िया का सुल्तान बनना गलत है. सुल्तान की तरह से किसी औरत की ताजपोशी किया जाना गैरकानूनी है, ऐसा उसका मानना है. उसने और भी तमाम लोगों से बातें की हैं. तमाम पढ़े-लिखे लोग. सल्तनतों के कायदे जानने वाले लोग. कानून के सबसे बड़े जानकार. बड़े और अक्ली लोग. सलाह देने वाले सबसे क़ाबिल मुंसिफ. मस्ज़िदों के वाइस, इमाम…. मदरसों में पढ़ाने वाले लोग. सल्तनतों की तहज़ीब और रवायतों को जानने वाले पढ़े-लिखे लोग. हर कोई यही कहता है कि औरत का सुल्तान बनना गलत होगा, एकदम गलत, गैरकानूनी. वह लोगों की बातों में यकीन रखता है. वह पढ़े लिखों की बातों को सही मानता है. वह खुद कुछ भी नहीं सोचता. इस मामले में वह पढ़े लिखे लोगों की बातों में इस तरह से यकीन करता है कि अपनी तरह से सोचने का उसका मन ही नहीं करता.
“यहाँ मौजू़द सभी लोग इस बात के गवाह हैं कि यह लिखत मैंने लिखवाई और बतौर सुल्तान यह मेरी आखिरी लिखत है. आखिरी हुक़्म भी.”
ताजुल मलिक को ऐसा कहते हुए गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक का गला भर आता है.
कबीर खान देर से आया था. वह चहलगानी के कुछ बेहद तेज-तर्रार लोगों में से एक है. जैसा कि हुआ ही था कि वह पहले मुल्तान का सूबेदार था और बाद में एक जंग में शानदार फ़तह हासिल कर लेने के बाद बतौर ईनाम इल्तुतमिश ने उसे पलवल का सूबेदार बना दिया था. देहली के बहुत पास के इलाके पलवल का सूबेदार होने की वजह से उसकी खासी अहमियत थी. कहते हैं वह कई बार मैदाने-जंग में मरते-मरते बचा था. वह बड़ी बेतरतीबी से जोर-जोर से चिल्लाता तलवार चलाता था और इतना उत्साही था कि बिना दूसरों को साथ लिये अकेला ही दुश्मनों के बीच कूद जाता था. पलवल में उसके पास एक ताक़तवर फौज थी. यह भी बताया जाता है कि फारस के इलाके में किसी जंग के दौरान मंगोलों ने उसे पकड़ा था और उसके बाद उसे ग़ुलामों के एक सौदागर को बेच दिया था. इसी सौदागर ने उसे इल्तुतमिश को बेचा था. उसे बेचने वाला यह सौदागर बड़ी जल्दी में था. उसे लौटकर जल्द ही अपने मुल्क वापस जाना था. इस तरह से बेहद कम दाम में वह उसे बेच गया था. अपनी काबिलीयत के दम पर वह देहली की शाही फौज में सिपहसालार बना था और बाद में सूबेदार. वह और बिहार का सूबेदार उयुगहान दोनों इस बात पर रज़ामंद हैं कि दोनों शहजादे रुकनुद्दीन का साथ देंगे, अगर तख़्त के लिए जंग होती है तो वे दोनों शहजादे रुकनुद्दीन का साथ देंगे न कि रज़िया का. रज़िया का साथ वे किसी भी हाल में नहीं दे सकते.
कहते हैं जब इल्तुतमिश ने कबीर खान को खरीदा था वह बहुत कमज़ोर हो चुका था. इल्तुतमिश के सिपसालारों और मलिकों में से कुछ ने उसे सलाह दी थी कि वह इस कबीर खान नाम के गुलाम को न खरीदे. यह एक बीमार और कमज़ोर गु़लाम है. पर जाने क्या था कि इल्तुतमिश ने उसे खरीदा और इस क़ाबिल बनाया कि आज वह पलवल का सूबेदार बन पाया है. वह जानता है कि इल्तुतमिश शहजादे रुकनुद्दीन को जरा भी पसंद नहीं करता है, पर वह शाह तुर्कान से मिल आया है और तख़्त के जंग में उसका साथ देने का वादा भी उसने किया है. वह इल्तुतमिश के बिस्तर के पास ही खड़ा है. वह इस इंतज़ार में है कि कब यह मरे और देहली के तख़्त की जंग शुरु हो. वह तैय्यार है.
गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक अचरज से इल्तुतमिश के चेहरे को देखता है. इल्तुतमिश ने जो कहा है वह बात वैसी की वैसी उसे ताजुल मलिक को बतानी है. बताना है कि वह लिखे, ठीक वही जो इल्तुतमिश कह रहा है. उस बात को जोर से कहना है, जिससे ताजुल मलिक उस बात को साफ-साफ सुन ले. जब वह कहेगा तो हर कोई सुन लेगा कि वह बात क्या है. वह चारों ओर देखता है. कमरे में खड़े तमाम मलिकों, गुलामों, अमीरों, उलेमाओं और शाही महल में काम करने वाले कारिंदों, नौकर-चाकरों को वह पल भर को देखता है, एक पल को वह वजीर के चेहरे को देखता है, फिर दूर खडे हाथियों वाली फौज के सबसे बड़े हुक्मरान शाहना-ए-पील की नज़रों से उसकी नज़र मिलती है, फौज के काजी जिसे काजी-ए-लश्कर कहा जाता है और उसके पास खड़े शाही खजान्ची पर वह उड़ती सी नज़र डालता है और शाही हकीम की ओर पल भर को देखता है, ताजुल मलिक के पीछे खड़े शाही महल के दो नौकरों को जिनमें से एक फर्राश है और दूसरा आबदार वह एक पल को देखता है और फिर इस अहसास पर कि हर किसी ने उसके असमंजस को भाँप लिया है वह सबसे नज़रें चुराता हुआ उस बात को कहने की कोशिश करता है. वह बोलने से कतराता है. इल्तुतमिश उसके असमंजस को जान जाता है. अपनी कमज़ोर आवाज में वह उससे कहता है–
‘कहो….कहो ताजुद्दीन…’ इल्तुतमिश ने इस बात को एक बार और पहले कहा था और तमाम लोगों के इंकार के बाद अब फिर से उस बात को कह रहा है और तमाम लोगों की नाराज़गी के बाद भी वह अब इसे एक हुक़्म की तरह से जारी कर रहा है. वह खुद भी सुनना चाहता है कि गुलाम ताजुद्दीन संजरे-किकलुक के मुँह से यह बात कैसी लगती है. लिखत पर एक हुक़्म की तरह से यह बात कैसी दिखती है. वह कुछ औलादों का बाप भर नहीं है, वह हिंदोस्तान की इस अजीमोशान सल्तनत का सुल्तान है, सबसे पहले सुल्तान ही है.
‘मेरे बाद मेरे बेटों में से कोई भी देहली सल्तनत के तख़्त पर न बैठेगा. मेरे बाद यह तख़्त मेरी सबसे बड़ी और सबसे क़ाबिल औलाद को याने शहजादी रज़िया अल-दुनिया वल-दीन को हासिल होगी. सुल्तान की यह लिखत तय करती है कि शहज़ादी रज़िया ही वली-अहद-ए- सल्तनत है. सुल्तान की मौत के बाद सल्तनत के तख़्त पर उसकी ही ताजपोशी हो.’
लिखते-लिखते ताजुल मलिक पल भर को रुक जाता है.
एक के बाद एक हर कोई उस कमरे से बाहर होता चला जाता है – ‘यह हरगिज नहीं होगा’ – एक आवाज़ आती है- ‘खून का दरिया बहेगा, खून का दरिया’ – एक धमक भरी आवाज़ जिसे चुपचाप सुनता है इल्तुतमिश, मरने में अभी थोडा वक़्त है उसे- ‘एक औरत और सुल्तान….हरगिज़ नहीं’- उसके सबसे चहेते लोगों में से एक की आवाज़ तमाम आवाज़ों के बीच उसे सुनाई देती है-
‘हम किसी भी हाल में किसी औरत की सरपरस्ती को कबूल न करेंगे….चाहे जो हो जाये’ –
यह एक ऐसे शख़्स की आवाज़ है जिससे इल्तुतमिश को सबसे ज्यादा उम्मीदें थीं, कभी इल्तुतमिश ने उसे इस मसले को इस तरह से समझाने की कोशिश की थी- तुम यह ख़याल न पालो कि वह औरत है, तुम इस बात को इस तरह से सोचो कि तुम एक गुलाम हो…. उसने अजीब सी नजरों से इल्तुतमिश को देखा था, जो दूसरी ओर देखता हुआ उससे कहता जा रहा था- एक गुलाम की तरह से इस बात को देखो, एक गुलाम की तरह से इस बात को जानने की कोशिश करो तुम…… यकीनन तुम पाओगे कि दरअसल आदमी और औरत हमारे अपने दायरे हैं, इससे कुछ होता जाता नहीं है… क़ाबिलीयत की कद्र न हो और इंसाफ़ न हो, तो कितनी तकलीफ़ होती है, इस बात को एक गुलाम से, एक मम्लूक से बेहतर कौन जान सकता है- पर उस वक़्त वह गुस्से में था, रज़िया के औरत होने से उसे इतनी दिक्क़त थी कि उसे मरते हुए इल्तुतमिश का भी जरा सा भी ख़याल न आया.
चारों तरफ सनाका खिंच जाता है. चुप्पी एकदम से गहरी हो जाती है.
तरुण भटनागर तीन कहानी संग्रह, तीन उपन्यास प्रकाशित. कई सम्मानों से सम्मानित. इधर इतिहास को लेकर भी लेखन कार्य सामने आ रहा है.भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत tarun.bhatnagar1996@gamil.com |
दिलचस्प आख्यान। मध्यकालीन भारत का सल्तनत काल और उसमें भी गुलाम वंश का इतिहास जिसमें रजिया सुल्तान की ताजपोशी।इसे पढ़कर लगा कि हम उस इतिहास को कितना कम जानते हैं।
पढ़ रही हूं।सूचना ,जानकारी,इतिहास बोध और भाषा की रवानगी …उपन्यास को पढ़वा ले जाने की कूवत से भरपूर गद्य
उफ़्! रोंगटे खड़े कर देने वाला विस्तार है इस दास्तान में। चमत्कृत हूँ।
—‘यह हरगिज नहीं होगा’ – एक आवाज़ आती है- ‘खून का दरिया बहेगा, खून का दरिया’ – एक धमक भरी आवाज़ जिसे चुपचाप सुनता है इल्तुतमिश, मरने में अभी थोडा वक़्त है उसे- ‘एक औरत और सुल्तान….हरगिज़ नहीं’- उसके सबसे चहेते लोगों में से एक की आवाज़ तमाम आवाज़ों के बीच उसे सुनाई देती है-
‘हम किसी भी हाल में किसी औरत की सरपरस्ती को कबूल न करेंगे….चाहे जो हो जाये’ –
बेहद दिलचस्प। उत्तेजक, सनसनीखेज़ और पठनीय
माफ़ करना कि कई दिनों के बाद समालोचन पढ़ा । उस ज़माने में रज़िया सुलतान की ताजपोशी तंगदिल ख़याल नहीं है । तर्क दिया गया है कि क़ाबलियत की क़द्र होनी चाहिये । उस ज़माने का प्यरोग्हरे ख़याल । जेंडर इक्वेलिटि है ।
तरुण भटनागर को बधाई देता हूँ कि इन्होंने क़लम 🖊️ की नफ़ीसी पर तफ़सील से लिखा । मैं भी इस दौर से गुज़रा हुआ पुरुष हूँ । हमारे नगर में पहले एक नहर बहती थी । उसके दूसरे किनारे पर खेती करने की ज़मीन । उस ज़मीन के किनारे नरकट उग आते थे । हमारे ज़माने में पाँचवीं जमात तक तख़्ती लिखना ज़रूरी था । हम मुलतानी मिट्टी से पोंछते और लाइनें खींचकर उस पर नरकट की क़लम से लिखते । पहली जमात में मेरे लाल जी (पिता जी) ने क़लमें बनाकर दीं और सिखायी । हमारे एक अध्यापक अपनी क़मीज़ की जेब में अलीगढ़ का चाक़ू रखते थे । उसकी तेज़धार से क़लम बनाते । स्याही सोखने के सोखते बाज़ार में मिलते थे । आठवीं कक्षा के इम्तिहान में मिलते थे ।
लाजवाब कथा-प्रवाह! इतने रोचक तरीक़े से ऐतिहासिक तथ्यों से रू-ब-रू करवाने के लिए तरुण जी को साधुवाद।