के. मंजरी श्रीवास्तव की कविताएँ |
बोबो के नाम एक ख़त
सुनो बोबो,
इन दिनों मैं बिलकुल तुम्हारी तरह ‘ला गिओईया’ (आनंद) की तलाश में भटक रही हूँ.
अपनी इस तलाश में मैं एक अजब-सी यात्रा पर हूँ
इस क्रम में बार-बार मेरी आँखें भर आती हैं
और मैं नम आँखों से ही मुसलसल सफ़र में हूँ
एक दिन क्या देखती हूँ कि तुम्हारी ही तरह मैं
चारों ओर खुशियों से घिरी
अपने जन्मदिन पर गुलाबों से महकता एक लिफाफा खोलती हूँ
और मौन होकर अपना जन्मदिन संभाषण पढ़ती हूँ
मेर जन्मदिन पर आए लोग मेरे साथ खुशियाँ मना रहे हैं,
मेरा मौन जन्मदिन भाषण सुनकर तालियाँ बजा रहे हैं
पर उन सबकी ख़ुशी, उन सबका साथ भी मुझे कुछ क्षणों से ज्यादा की ख़ुशी नहीं दे पाता
मैं बहुत बहुत बहुत खुश हूँ कि क्या देखती हूँ कि
अचानक गुलाब के पत्ते सूखने लगते हैं और
गुलाबों से महकते उस लिफ़ाफे ने इख्तियार कर ली है नाव की शक्ल और
तुम्हारी ही तरह मैं काग़ज़ की असंख्य नावों से घिर गई हूँ.
ख़ाली नावों के खालीपन ने मुझे एक तारीपन से भर दिया है.
खुशियों से लगातार घिरी होकर भी मैं हरपल महसूसती हूँ इस उदासी को, इस ख़ालीपन को, इस तारीपन को
उसी एक लम्हे में मैं पूरी तरह भरी हुई भी हूँ और बिलकुल खाली भी
मेरे भीतर बहुत कुछ है जो छलकने को बेताब है और इसी लम्हे में मैं बिलकुल तनहा भी हूँ
मेरे तनहा मन की यह बेताबी और उसका यह खालीपन
उसी एक लम्हे में तुम और सिर्फ तुम ही
महसूस कर सकते हो
बिलकुल वैसे ही और उतना ही
जितना कि खुद मैं.
जीवन के लगभग इस अंतिम दृश्य में मैं भी बिलकुल तुम्हारी ही तरह ज़िन्दगी के पार्क में एक बेंच पर बैठी हूँ
जो चारों ओर, फूलों से भरी, खुशियों से घिरी है
पहले ज़िन्दगी के एक कोने में फूल खिले थे
एकाध कोना फूलों की झालरों से भरा था
अब मेरी ज़िन्दगी की यह बेंच भी बिलकुल तुम्हारी ही बेंच की तरह चारों ओर फूलों से भर गई है
फूलों से सज गई है
पर ये फूल मेरे मन की उदासी को दूर नहीं कर पाते
मन के बैकग्राउंड में गीत उभरता है
“इठलाती हवा, नीलम सा गगन, कलियों पे ये बेहोशी की नमी
ऐसे में भी क्यों बेचैन है दिल जीवन में न जाने क्या है कमी….”
बेंच के निचले हिस्से पर नज़र डालती हूँ तो
वहां चारों ओर सूखे पत्तों और काग़ज़ की नावें बिखरी पडी हैं
पता चलता है कि दरअसल मैं ज़िन्दगी के पतझड़ की बेंच पर बैठी हूँ
और बहार मृग-मरीचिका सी मेरी आँखों के सामने है
इस बहार को आँखों में भरकर भी मेरा उदास रह जाना
या फिर भीतर से उदास होते हुए भी आँखों में फूल भरकर इस दुनिया का सामना करना ही तो दरअसल ‘ला गिओईया’ है
ये अब समझी हूँ बोबो
और इसीलिए इन दिनों तुम बेसाख्ता याद आते हो मेरे दोस्त.
‘ला गिओईया’ इन दिनों मुझे भयभीत करने लगा है बोबो.
(बोबो एक मूक-बधिर इतालवी रंगमंच कलाकार हैं और अब मेरे मित्र भी जिनका अभिनय मैं इस जन्म में तो कभी भूल ही नहीं सकती. थिएटर ओलंपिक्स में इतालवी निर्देशक पिपो देल्बोनो के नाटक ‘ला गिओईया में बोबो के काम ने मुझे स्तब्ध कर दिया था. बोबो एक मिनट के लिए भी दिलोदिमाग से, ज़ेहन से नहीं उतर पाए और आज उन्होंने अपने नाम मुझसे यह ख़त लिखवा ही लिया.)
(13 दिसंबर २०२०)
उमई के गीतों का तिलिस्म
(कुछ बरस पहले भारत रंग महोत्सव में फ्रांसीसी नाटक ‘ले चैन्त्स दे ई उमई’ से गुज़रते हुए)
एक स्त्री सबसे पहले होती है एक कबीलाई स्त्री
तमाम अस्त्र-शस्त्रों से लैस और समय आने पर कर सकती है उन शस्त्रों का इस्तेमाल बखूबी
कभी कभी वह बन जाती है ड्रैगन
और उगलने लगती है आग समाज के उन घटिया और वाहियात नियमों के प्रति जिन्हें मानने के लिए सदियों से उन्हें विवश किया जाता रहा है
कभी कभी वह बाज जैसी विशाल पंछी भी बन जाती है
और स्त्री मन की भीतरी तहों में बैठी स्त्री-दुनिया पर छा जाने की इच्छा प्रस्तुत करती हैं
फिर बन जाती है कभी वह भक्ति में डूबी कोई स्त्री
संगीत और नृत्य की रूहानी दुनिया की सैर पर निकली हुई
पर एक स्वप्न सरीखी काल्पनिक अवस्था में भीतर से हर स्त्री होती है ‘उमई’
जिससे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है और अंततः दुनिया उसी में समा भी जाएगी
उमई जीवन उत्पन करती है और इस पूरे ब्रह्माण्ड का नियंत्रण और संचालन भी करती है
उमई नृत्यरत रहती है सदा
नृत्य कुछ-कुछ पुरानी पांडुलिपियों के मन्त्र जैसी लम्बी आरोह-अवरोह की तरंगित होती पुनरावृति की गायकी से उभरता है
और एहसास करता है आपको किसी पुनर्कल्पित जगत का
स्त्रीत्व की इस गीति कविता में स्त्री
कई अद्भुत काल्पनिक देवताओं की पुनर्संरचित स्मृति को
विविध संगीत रचनाओं से मुक्तरूप से उद्भूत कई गीतों द्वारा अभिव्यक्त करती है.
स्त्रीत्व के यह विविध रूप
अतीत-युग की एक ऐसी महाकाव्यात्मक कविता को
सामने लाते हैं
जिससे कि शारीरिक और मानसिक तरंगों की स्मृति ही हमें संबद्ध कर सकती है.
स्त्रीत्व के यह विविध रूप
कुछ थोड़े पहले के अतीत की पुनः अन्वेषित या फिर इतिहासपूर्व की पौराणिकता की कथावस्तु को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं
जो नारीत्व के इर्द-गिर्द घूमती है.
उमई के गीत एक रहस्यमयी फुसफुसाहट भरी किसी सांकेतिक भाषा में हैं
जिनकी अबतक कोई लिपि इजाद नहीं
इन गीतों का कोई नोटेशन नहीं बना अबतक
जबकि ये गीत एक मननशील महाकाव्यीय गीत के ब्रह्मांडीय फलक पर विस्तार ही तो हैं
व्याख्या की महती स्वतंत्रता के साथ.
निस्संदेह उमई के गीत जादू हैं
कोई रहस्य,
एक तिलिस्म जिसमें पूरी दुनिया इस जगत की उत्पत्ति के समय से खोती रही है और
एक दूसरी दुनिया में पहुँचती रही है
सारे बंधनों और तनावों से मुक्त एक काल्पनिक जगत में, सुकून देने वाले संसार में.
उमई के इन गीतों से गुज़रते हुए हम एक रूहानी और आध्यात्मिक यात्रा पर होते हैं
अपने भीतर की यात्रा पर
उमई के गीतों को, उसकी रूहानियत को सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है
जिया भर ही जा सकता है
दुनिया की कोई कविता उमई के गीतों को डिकोड नहीं कर सकती.
(मेरी यह कविता एक फ्रांसीसी नाटक ‘ले चैन्त्स दे ई उमई’ को देखने के बाद लिखी गई है. इन नाटक को कई बरस पहले मैंने भारत रंग महोत्सव में देखा था पर यह नाटक नहीं कोई जादू था, कोई तिलिस्म और इसका प्रभाव आजतक मेरे दिलोदिमाग, मेरे ज़ेहन पर बना हुआ है.
उमई शब्द मंगोलियाई भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है कोख और दरअसल उमई नामक वह काल्पनिक स्त्री चरित्र (जिसे निर्देशक और नर्तकी मर्सिया बार्सिलस ने मंच पर जिया है) कोख की प्रतीक है, ब्रह्माण्ड की प्रतीक जिससे दुनिया की उत्पत्ति भी हुई है और अंततः दुनिया उसी में समा भी जायेगी, इसीलिए इस प्रस्तुति का नाम उमई के गीत अर्थात कोख या ब्रह्माण्ड से उत्पन्न गीत (ले चैन्त्स दे ई उमई) रखा गया.)
(१४.१२.२०२०)
एक प्रेम कविता इतालवी नाटक ‘रैग्ज़ ऑफ़ मेमोरी’ को याद करते हुए.
यादों के टुकड़े हवा में तैरते हैं
इन यादों में रेशा-रेशा लहराती हैं
आदिम और जनजातीय संगीतात्मक धुनें प्रेम की, मौन संवाद की
मेरी और तुम्हारी देह के बीच की नृत्य-स्पर्धा की कुछ भंगिमाएं
जो जन्मों पहले मूर्तिवत हो गईं थीं एक कालातीत उद्यान में
जहाँ हम-तुम साथ-साथ विचर रहे थे
एक मौलिक और अनूठे रूप में किसी आध्यात्मिक और रहस्यात्मक आनुष्ठानिक क्रियाओं और गीतों की वीथिकाओं में
हमारी यह यात्रा कई जन्मों को पार करती हुई चली आई है यहाँ तक कई प्रतीकात्मक तत्वों और संकेतों सहित
हमारा यह जन्म कई जन्मों की शारीरिक और वाचिक क्रियाओं और जीवंत संगीत का मौलिक और प्रयोगवादी संयोजन है
हमारा यह जन्म कई जन्मों के जीवन चक्र का एक रूपक है
जहाँ जन्म, करुणा और मृत्यु एक चक्र और अनुष्ठान की चिरंतनता में स्थिर किये गए आवर्ती मार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं
इस जन्म में हमारे सामने तीन वृत्त हैं जिनमें एक प्रकाश से आवृत है
प्रकाशवृत्त उस गोले में कई प्रतीक तत्व हैं
चावल, मिट्टी, पत्थर, पानी और अग्नि
इस बार हम साथ-साथ उस अग्निवृत्त में प्रवेश करते हैं
आग पानी में तब्दील हो जाती है
और हम उसमें सराबोर हो जाते हैं
मैं तुम्हारे साथ इस जल में भीगती रहना चाहती हूँ
कई जन्मों से हमें इंतज़ार था न साथ-साथ भीगने का.
(कुछ बरस पहले भारत रंग महोत्सव में एक इतालवी नाटक देखा था ‘रैग्ज़ ऑफ़ मेमोरी’ जो पूर्वजन्म की कथाओं पर आधारित था. यह नाटक याद रह गया. मेरी यह कविता बहुत प्यार के साथ समर्पित है इसके निर्देशकद्वय और परफ़ॉर्मर एना दोरा दोर्नो और निकोला पियान्जोला को जो अब मेरे बेहद प्यारे मित्र भी हैं.)
(१४.१२.२०२०)
इतालवी नाटक ‘द सस्पेंडेड थ्रेड’ के तिलिस्म को याद करते हुए
तुम प्यार नहीं कोई जादू हो
कोई तिलिस्म, कोई रहस्य, कोई सम्मोहन
तुम मुझे आगोश में भरते हो तो लगता है कि तुम कोई पेंटिंग बना रहे हो
तुम जब चूमते हो मुझे तो मुझे एहसास होता है कि तुम समय के पार जाकर
कोई तिलिस्मी, कोई जादुई, कोई रहस्यमयी कविता लिख रहे हो
निस्संदेह वह पेंटर, वह कवि, वह जादूगर, वह नाटककार तुम्हीं तो हो
जिसका इंतज़ार था मुझे सदियों से.
तुम काव्य, प्रेम और यहाँ तक कि मृत्यु को भी इस कोमलता के साथ मेरे साथ जीते चले आए हो कि
समय के पार की वह कविता बरबस मेरे पूरे वजूद में रेंगने लगी है इन दिनों
जिसे हम सदियों से जीते चले आ रहे हैं
दरअसल हमारा यह प्रेम समय से बाहर की कथा है
यह काव्य, प्रेम, मृत्यु और आकाश से बेहद कोमलता के साथ गिरते हुए एक मृदु और कोमल हिमकण की कथा है और
एक कलात्मक भिडंत है हम दोनों के बीच
हमारा प्रेम उत्तरी और दक्षिणी संस्कृतियों के मिलन की एक ऐसी महागाथा है
जो कि ज्ञान, वेशभूषा और भाषाओं को पारस्परिक अंतर्गुन्थित करती हुई समय में स्थगित हैं.
हमारा प्रेम गाथा है तुम्हारे जैसे एक युवा कवि की
और मेरे जैसी एक रज्जुनर्तकी की.
हम प्रेम में बावरे हो गए है
और साथ मिलकर
दो पहाड़ों के सिरों से बांधते हैं एक रस्सी
और उस रस्सी पर चलती हुई यह रज्जुनर्तकी प्रेम के विविध करतब दिखाती है
करतब दिखाते-दिखाते नर्तकी उस युवा कवि को भी उस रस्सी पर खींच लेती है और अपने साथ चलने को मजबूर करती है.
अपने प्रेम में हम एक रस्सी के दो छोरों की तरफ से किसी नट और नटी की तरह चलते हुए एक-दूसरे की ओर हरपल बढ़ रहे हैं और करीब होते जा रहे हैं
हम अपने प्रेम द्वारा अपने समय की त्रासदी को हर क्षण रेखांकित करते हैं
हम किसी जापानी समुराई की तरह प्रेम की शक्ति और सत्ता को हर पल बेनक़ाब कर रहे हैं
चाहे उसका अंत त्रासद ही क्यों न हो.
दोनों मिलकर असंभव को कार्यान्वित करने की कोशिश में हैं
हमारी देहभाषा एक युग-युगांतर तक बांचे जाने वाले आख्यान
और एक अवर्णनीय कविता की उत्पत्ति कर रही है.
(मेरी यह कविता मशहूर इतालवी निर्देशक पीनो द बुदुओ के नाटक ‘द सस्पेंडेड थ्रेड’ पर आधारित है जो नाटक के तीन कलाकारों के बीच प्रेम त्रिकोण और उसके त्रासद अंत की कहानी है. यह नाटक मैंने भारत में हुए थिएटर ओलंपिक्स में देखा था. कविता समर्पित है नाटक के निर्देशक और मेरे दोस्त पीनो द बुदुओ को, नाटक की अभिनेत्रियों नथाली मेंथा और कीइन योशिमुरा को और इस नाटक के प्रकाश परिकल्पक गुस्ताव को.)
( १५.१२.२०२०)
वा नो कोकोरो
(अपनी जापानी दोस्त और कमिगातामेई शैली की मशहूर नर्तकी और अभिनेत्री कीइन योशिमुरा के लिए)
इन दिनों अक्सर मैं जापान के किसी उद्यान में होती हूँ सपने में
वह सकुरा का उद्यान है
चारों ओर बिखरे हैं सकुरा के हलके सफ़ेद-गुलाबी फूल
हाथ में उठाती हूँ सकुरा की कुछ पंखुड़ियां
अपने दिल में उन पंखुड़ियों को स्थापित करते हुए
शांत मन और बंद आँखों से सकुरा के बाग़ के किसी कोने में बैठकर मन ही मन मैं बुदबुदाती हूँ
‘वा नो कोकोरो
वा नो कोकोरो ….’
हिरोशिमा और नागासाकी के बाद की वीरानी से उद्भूत होती शांति में
उतरता है मेरा मन धीरे-धीरे
और फिर फिर बुदबुदाता है
‘वा नो कोकोरो
वा नो कोकोरो ….’
युगों से मेरे मन-मस्तिष्क की शक्ति प्रकृति की संगति में जी रही है
जो कि मेरे जीवन की हर मौसम की बानगी है.
मेरे लिए प्रकृति ईश्वर का जन्म है.
ब्रह्मांड के सर्वस्व शुद्धिकरण के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ
और हमारी पारंपरिक संस्कृति, जो कि हमारे जीवन का मर्म है,
प्रकृति को ‘वा नो कोकोरो’ के रूप में प्रतिबिंबित करती है
अपने इस मन्त्र ‘वा नो कोकोरो’
के साथ मैं विश्व भर में सौन्दर्य, सद्भाव और शान्ति की आधारशिलाओं में से एक होने की आशा करती हूँ.
फिर सपने में मुझे नज़र आती है मेरी जापानी सखी कीइन योशिमुरा
कीइन के साथ उस उद्यान में मैं विचरण करने लगती हूँ
सपने में कीइन के साथ चलते हुए बिलकुल वैसा ही महसूस कर रही हूँ मैं जैसे कलिंग विजय के बाद चक्रवर्ती सम्राट अशोक युद्ध से विरक्त हुआ हो और उसके चारों ओर शांति का प्रभामंडल बन रहा हो
और वह अपने साथ-साथ पूरी दुनिया को भी उसी अपूर्व शान्ति में लपेटे युद्धभूमि से निकल रहा हो
और पार्श्व से ‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के साथ बहुत शांत सी एक बुदबुदाहट भरी आवाज़ आ रही हो
वा नो कोकोरो
वा नो कोकोरो
वा नो कोकोरो….
(मेरी यह कविता जापानी नाटक ‘सकुरा’ पर आधारित है और उस नाटक की निर्देशक और अभिनेत्री और जापानी कमिगातामेई शैली की मशहूर नर्तकी कीइन योशिमुरा को समर्पित है जिन्होंने सकुरा नाटक बनाया ही है विश्व शांति की स्थापना के लिए. वह इस नाटक को लेकर विश्व-भ्रमण पर हैं. मैंने यह नाटक भारत में हुए थिएटर ओलंपिक्स में देखा था. जापानी भाषा में सकुरा चेरी ब्लॉसम के फूल को कहते हैं और और वा नो कोकोरो का अर्थ होता है सद्भाव की आत्मा अर्थात सद्भाव के लिए प्रार्थना.)
(१६.१२.२०२०)
के. मंजरी श्रीवास्तव नाटकों पर नियमित लेखन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़ाव, प्रसिद्ध नाटककार रतन थियम पर शोध कार्य. सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख आदि प्रकाशित. manj.sriv@gmail.com |