मनोज कुमार झा की कविताएँ |
पदचाप
सीटी की आवाज
बिजली के पोल पर ठकठक
चिड़िया फड़फड़ाई
पीछे से उठा ट्रेन का घड़घड़
सब कुछ तो सुनाई पड़ रहा
पर रात के दो बजे जो कर रहा मुहल्ले की रखवाली
क्यों छुप गयी है उसके पैरों की आवाज.
नहीं बची करूणा
जय जय करते धरम की
इतनी जोर से कि रोने लगे दूध पीता बच्चा
मगर पूरे टोले में नहीं एक को भी साध
रामचरित के पारायण की
दसकोसी में नहीं कोई जिसकी आँखों
में बचा हो राम कथा का करूण जल.
कहते हैं योगानंद वैदिक को सब था याद
उनके शरीर में अक्षरों का विष था
पर जब करते रामायण का पारायण तो बन जाते गाय
मगर कोई नहीं बचा पाया उसको
कमौआ बेटा ने कुछ कहा अंग्रेजी में
जैसे किसी ने ताड़ पर चढ़ा कर नीचे कुल्हाड़ी
मार दी हो
वो सूखते गए जैसे सूख जाती गाय की छीमियाँ
और एक दिन पढ़ते पढ़ते अरण्य कांड
लुढ़क गए चैकी से
पंच आए घर के सामान बाँटने
गूँगे अक्षर-वंचित बेटे ने ताका रामचरित मानस को
और देखा उलट पलट कर
देखता रहा उस चित्र को
जिसमें राम के बगल में खड़ी हैं सीता
नीचे प्रांजल संस्कृत बोलने वाले कपीश
फिर तो कोई बचा ही नहीं राम की करूणा का सुमरैया
वो तो अपने नहीं लगते जो बचा रहे धरम.
कदाचित आमंत्रण
आस पास कहीं पानी का प्रदेश नहीं है
लेकिन इस कुहासों वाली रात में
ज्यों माथों पर जल का छींटा पड़ता है बार बार
लगता है कोई नाव चला रहा है.
बार बार खोलता हूँ किबाड़
बार बार खिड़की का पल्ला
कोई नाव चला रहा है
जैसे कोई नाव चला रहा है.
नहीं दिख रहा हरसिंगार का पेड़
नहीं दिख रहा गेंदा जिसे सुबह में छूआ था
इन अँधियालों में मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चल रहा है !
ऐसी ही रात थी
ऐसा ही गफ्फ कुहासा
रात नहीं जल पाई लाश हजारों लोगों के उस गाँव में
पोखर के किनारे मसान में छोड़ी गई लाश पुलिस के डर से
अंधेरा चढ़ते ही खाया था जहर
माँ बैठी रही भगाते सियार कुकुर
दो दिन चार दिन दिन में भी कुहासा
फिर शादी ब्याह ढ़ोल तमाशा
अंतिम तस्वीर उसी पोखर की करीब चार साल पहले के
वो तैरने में माहिर, मैं नवसिखुआ कमजोर.
ओह, यह नाव कौन चला रहा है
कुहासा रात को और कितना घेरेगा,
रजाई क्यों लग रही इतनी भारी लगती ज्यों पानी में
कुत्ते भी भौंककर थक गए, कुहासा जम रहा सीने में
तू ही कुछ कह ओ मेरी नींद कि
मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चला रहा है.
खिलौना भी डराता है
अभी अभी सोया है वह बच्चा
पाँच मिनट पहले तक वह मजदूर था
अभी उतरी है चेहरे पर बाल्य की आभा
कि तभी मालिक हुड़कता है
कि धोया नहीं तीन जूठे ग्लास
आँखें मलते हुआ वह मजदूर पुनः
और फिर सो गया थकान लपेटकर
भूख की किरचें गड़ती हैं ऐंठी हुई नींद में जगह जगह
हरी घास देखता है अधनींद में
सोचता है कि बेहतर था घोड़ा होना
कि तभी दिखा एक खिलौना जैसे-रंगों का गुच्छा
हुलसा कि तभी काँपा हिया कि खिलौने में मालिक का हाथ तो नहीं.
विवश
अब मैं तुझे क्या दूँ
क्या छोड़ जाऊँ तेरे साथ
मेरे पास कुछ किताबें थीं जैसे आइनों का गुच्छा
एक एक अक्षर शीशा था
वो सारे कहीं लुप्त हो गए
मैंने तो अपनी नीम-बेहोशी में अक्षरों को किताबों से छूटते देखा
कई बार तो कई पन्ने देखे बहुत दूर
कटी पतंग सी हवा में फरफराते
कोई साथ ही नहीं देता मेरी किताबों की दुगर्ति
का निगेटिव फोटो बनाने में
मैं एक सिरा सौंप सकता हूँ तुमको इस बेरौनक कथा का
कई संहतिया थे मेरे जो पोखर किनारे के पेड़ थे
तीन-चार तो तीस के भीतर ही रह गए
कई पचास से पहले
जैसे लहलहाते खेत को पाला मार गया
उजड़ गई बाँसों की बाड़ी
अब जो बचे हैं उसे दोस्त सँभलकर कहना पड़ता है
बड़े हुनरमंद थे सारे
पर सारे मशीन हो गए
दुनिया की नकल की मशीन
वो मशीन जो कुछ जोड़ती नहीं दुनिया में
अकाल मरे जो दोस्त
दोस्त जो हुए मशीन कुकाल
मैं इनकी कथाएं सुनाता
पर जाजिम फट गई है जहाँ तहाँ
जैसे पेड़ पर खड़े भुट्टे से ही किसी ने चुन लिया दाना
कुछ भी नहीं मेरा हासिल
धवल संघर्ष नहीं कोई
इन टेढ़ी उँगलियों बाले हाथों से कैसे सहलाउँ माथा, दूँ आशीष
पाँकी नदियों से घिरी मेरी रातें
सूखे पेड़ों के वन में गुजरे मेरे दिन
मैं तुझे खाने को कहता साथ-साथ
मगर चले जाओ बहुत सुन्दर बनाती है तेरी माँ बथुआ का साग
मुझे भी कल यहाँ से निकल जाना है.
उद्गम
कितने अधिक रंग हो गए इस दुनिया में
और कितने कम उसको थामने के धागे
अपने शरीर के रंग में मिलावट करती हैं तितलियाँ
और गुजारिश करता है अपने रंगों को
बचाने को व्याकुल थिर फूल
कि सखि रंग के भरम में मत डूबो
चलो मिलते हैं अपने पुराने गुइयों पानी से कि
करोड़ों बरसातों में पा-पाकर अमित प्रवाह
लाखों प्रदेशों में पा-पाकर बहुवर्णी निवास
कैसे बचा है अबतक अपने पुराने रंग में.