मीरां : विमर्श के नए दौर में
रेणु व्यास
सदियों तक भारत समेत एशियाई देशों पर औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि हावी रही. भारत में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय इतिहास दृष्टि विकसित हुई. आज़ादी के बाद भी औपनिवेशिक अतीत वाले देशों में यूरोप-केंद्रित इतिहास-दृष्टि को लगातार चुनौती मिलती रही. इस विमर्श का परिणाम यह निकला कि यूरोपीय आधुनिकता आज आधुनिकता का एकमात्र रूप नहीं नहीं मानी जाती. आज कुछ लोग आधुनिकता को बहुवचन में ‘आधुनिकताएं’ कहकर अभिव्यक्त करते हैं. हालांकि हमारे मत में ये सब आधुनिकता की एक ही प्रवृत्ति के विभिन्न रूप हैं. भारत में ‘देशज आधुनिकता’ का संदर्भ भक्ति-सूफ़ी आंदोलन से गहरे जुड़ा हुआ है. अतः कबीर, सूरदास, तुलसीदास, जायसी के साथ ही मीरां के काव्य की नए संदर्भ में व्याख्या अपेक्षित ही थी.
प्रसिद्ध इतिहासकार ई. एच. कार ने अपनी पुस्तक ‘व्हाट इज़ हिस्ट्री’ में इतिहास को इतिहासकार के दृष्टिकोण और उसके तथ्यों के बीच सतत अन्तर्क्रिया तथा अतीत और वर्तमान के मध्य अंतहीन संवाद माना है. मीरां के जीवन और उसके समय के समाज के संबंध में दृष्टिकोण और तथ्यों के पुनरीक्षण को बाध्य करती माधव हाड़ा की शोधपरक पुस्तक पचरंग चोला पहर सखी री (मीरां का जीवन और समाज) साहित्य और इतिहास के गंभीर पाठकों में चर्चित रही है. इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद वाणी बुक कंपनी से ‘मीरा वर्सेज़ मीरा’ शीर्षक से हाल ही में प्रकाशित हुआ है. यह तथ्य अपने आप में पुस्तक के महत्त्व को रेखांकित करता है क्योंकि आज भी विमर्श की किसी पुस्तक का हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रकाशित होना अपने आप में एक दुर्लभ घटना है.
यह पुस्तक मीरां के जीवन और उसके समकालीन समाज के विषय में अब तक अनुत्तरित प्रश्नों के, नए उपलब्ध तथ्यों के आलोक में जवाब ढूंढने की कोशिश करती है और साथ ही कुछ नए सवाल भी खड़े करती है. इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता इसकी गहन ऐतिहासिक गवेषणा युक्त प्रविधि है, जो कम से कम साहित्य के क्षेत्र में तो विरल ही है. इस पुस्तक में प्रयुक्त स्रोतों और सन्दर्भों की विविधता और बहुलता आश्चर्यचकित करने वाली है. हर अध्याय के अन्त में सैंकड़ों सन्दर्भ व टिप्पणियाँ अंकित हैं, जिनमें लेखक की प्रामाणिकता की आकांक्षा अभिव्यक्त होती है. इन स्रोतों में मीरां के काव्य के अन्तर्साक्ष्य तो शामिल हैं ही, साथ ही उनमें टॉड के ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ राजस्थान’, अन्य इतिहास पुस्तकें, पट्टे-परवाने, विगत, ख्यात आदि मेवाड़-मारवाड़ के सारे पारंपरिक और दरबारी ऐतिहासिक स्रोत, भक्तमाल और वार्ताओं जैसे धर्माख्यान, मीरां के जीवन से संबंधित जनश्रुतियाँ, राणीमंगा भाटों की बहियों से लेकर मीरां के जीवन और काव्य पर अब तक लिखी गई पुस्तकें, मीरां पर अब तक बनाई गई फिल्में, संग्रहीत भजनों की ऑडियो कैसेट, सी.डी. के कवर-फ्लेप का विवरण, गीता प्रेस और पाकेट बुक्स के मीरां जीवनचरित, मीरां पर आधारित चित्रकथाएँ- इस पुस्तक में माधव हाड़ा के विस्तृत तथ्य फलक में कुछ भी छूटा नहीं है. मीरां के संबंध में यह संदर्भ बहुलता ‘यन्न भारते तन्न भारते’ की याद दिलाती है. संभवतः लेखक निर्मूल कुछ भी नहीं लिखना चाहता और अपने लिखे हर शब्द को प्रामाणिकता देना चाहता है.
लेखक मानता है कि मीरां के जीवन की यह पुनर्रचना उसके असल जीवन के आसपास ही हो सकती है. उसके असल जीवन की थाह और पड़ताल अब बहुत मुश्किल काम है. मीरां का जीवन जो अब ज्ञात है वो दरअसल हमारे लोक की कामनाओं, इच्छाओं और सपनों का जीवन है. इसलिए पुस्तक का आरंभ ही इस हाइपोथीसिस से होता है कि मीरां का ज्ञात और प्रचारित जीवन गढ़ा हुआ है. इन गढ़ी गई छवियों में से मुख्य हैं- गीता प्रेस और अमर चित्रकथा की आदर्श हिन्दू पत्नी, टॉड की गढ़ी प्रेम-दीवानी संत-भक्त की आध्यात्मिक रहस्यात्मक छवि और वामबुद्धिजीवीयों व स्त्रीवादियों द्वारा गढ़ी असाधारण विद्रोही स्त्री. मीरां के संबंध में तो हालत यह है कि केवल दृष्टिकोण ही नहीं, तथ्य भी गढ़ लिए गए हैं. लेखक का प्रयास इन गढ़ी गई अनेक ‘मीरांओं’ में से मीरां की असलियत के सबसे क़रीब, उसकी प्रामाणिक छवि को तलाश करना है.
माधव हाड़ा |
माधव हाड़ा ने दृष्टिकोणों के विभिन्न चश्मों से देखी गई मीरां की इन ‘लार्जर देन लाइफ’ छवियों को ‘डिग्लेमराइज़’ करके उसे आधी सहस्राब्दी पहले एक सामंती परिवार में जन्मी, असामान्य परिस्थितियों में उनसे जूझती एक सामान्य स्त्री के रूप में देखने की कोशिश की है. प्रश्न यह भी है कि क्या बिना किसी दृष्टिकोण की सहायता के अतीत की कोई तथ्यपरक छवि, चाहे रूखी ही सही, खोजी जा सकती है? क्योंकि दृष्टिकोण शोधकर्ता को सन्दर्भबिन्दु प्रदान करता है और बिना इसके कोई ऐतिहासिक तथ्य व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. संदर्भों और तथ्यों की विविधता और बहुलता से एक सर्वथा प्रामाणिक सत्य की खोज के रास्ते में अन्तर्विरोध आने स्वाभाविक थे और इस पुस्तक में वे आए भी; पर पुस्तक में आए इन अंतर्विरोधों पर हम बाद में विचार करेंगे. पहले हम वस्तुनिष्ठ रूप से इस पुस्तक में प्रस्तुत उन तथ्यों और अवधारणाओं पर विचार करेंगे, जो मीरां के जीवन और तत्कालीन समाज पर नई रोशनी डालते हैं.
पुस्तक छह अध्यायों में बँटी है, जो क्रमशः मीरां के जीवन, समाज, धर्माख्यान, कविता, कैननाइजेशन और छवि निर्माण पर केन्द्रित हैं.
मीरां के जीवन पर केन्द्रित पहले अध्याय में माधव हाड़ा मीरां की रूढ़, पारंपरिक और गढ़ी गई छवियों को सप्रमाण तोड़ते हैं. मीरां के जन्म-समय, जन्म-स्थान, विवाह, मृत्यु आदि के बारे में वे मान्य इतिहासकारों के अद्यतन शोध-निष्कर्षों का सहारा लेते हैं. मीरां के पितृकुल और श्वसुरकुल से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों के अंबार और प्रचलित जनश्रुतियों में से निकले तथ्यों से उस ज़माने की मेवाड़ की युवराज-वधू के जीवन को तटस्थता से अंकित करते हैं. इस प्रकार पहले अध्याय में माधव हाड़ा मीरां को उसके समय में, उसके समाज में, उस काल की अवधारणाओं के बीच देखने का प्रयास करते हैं. इस अध्याय में लेखक मीरां की कृष्ण भक्ति को उसके पितृकुल की परंपरा से जोड़कर देखते हैं और इस धारणा को गलत मानते हैं कि विवाह से पूर्व मीरां भावुकतापूर्ण ईश्वर-भक्ति में लीन युवती थी. लेखक यह भी कहते हैं कि मीरां का वैवाहिक जीवन सामान्य था, यद्यपि उसकी अवधि छोटी थी. मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई / जाके सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई और ऐसे ही अन्य अन्तर्साक्ष्यों और जनश्रुतियों से निर्मित मीरां की छवि के यह विपरीत है. पर प्रश्न यह भी है कि लेखक द्वारा अंकित मीरां की यह छवि कहीं उसे आदर्श हिन्दू पतिव्रता सिद्ध करने वाले आग्रहों से प्रभावित तो नहीं हो गई है? साथ ही लेखक विवाह के बाद श्वसुर राणा सांगा से मीरां को ‘पुर’ और ‘मांडल’ के परगनों के मिलने का सप्रमाण ज़िक्र कर यह सिद्ध करते हैं कि मीरां दान-पुण्य, साधु-संतों के आतिथ्य और तीर्थाटन समेत अपने दैनिक जीवन के खर्चों के लिए आर्थिक रूप से स्वावलंबी थी. इस अवधारणा की और गहन परीक्षा होनी चाहिए कि मीरां समेत सामंत स्त्रियों का यह आर्थिक स्वावलंबन वास्तव में किस हद तक था और सत्तासीन राणा की मृत्यु या उसके अपदस्थ होने पर पहले दी गई इन जागीरों को बहाल रखा जाता था या नहीं? पहले अध्याय में मीरां पर हुए सभी अत्याचारों के लिए लेखक द्वारा केवल अयोग्य और मूर्ख राणा विक्रमादित्य को ज़िम्मेदार ठहराना और इन सबसे तत्कालीन पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था को लगभग बरी करना तर्क से परे है; पर इस बिन्दु पर हम बाद में विचार करेंगे.
पहले अध्याय में मीरां के जीवन से संबंधित लेखक की मूल स्थापना यह है कि मीरां जीवन से विरत संत-भक्त और जोगन नहीं थी, वह प्रेम दीवानी और पगली नहीं थी और वह वंचित-पीड़ित, उपेक्षित और असहाय स्त्री भी नहीं थी. वह एक आत्मसचेत, स्वावलंबी और स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली सामंत स्त्री थी. उसकी भक्ति, साहस और स्वेच्छाचार असामान्य नहीं थे. और वह जिस समाज में पली-बढ़ी उसमें इनके लिए पर्याप्त गुंजाइश और आजादी भी थी और कुछ हद तक इनकी स्वीकार्यता और सम्मान भी था.
BY KANU DESAI |
पुस्तक के दूसरे अध्याय, जो मीरां के समकालीन समाज पर केन्द्रित है, में भी इसी अवधारणा का विस्तार है. भारत के मध्यकाल की औपनिवेशिक रूढ़ व्याख्या के बरक्स लेखक मानते हैं कि मीरां के समय का मध्यकालीन समाज जड़ नहीं था, उसमें गतिशीलता के पर्याप्त चिह्न मिलते हैं. यह स्थापना डॉ. रामविलास शर्मा की भक्तिकाल को हिन्दी नवजागरण मानने संबंधी स्थापनाओं और ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की देशज आधुनिकता की अवधारणाओं से समानता रखती है. यह सच है कि यूरोप केन्द्रित इस सोच को बदलने की ज़रूरत है कि भारत में भी मध्यकाल अंधकार का युग था. मीरां के समय में राजस्थान के मध्यकालीन समाज की गतिशीलता के लेखक ने कई उदाहरण दिए हैं; जैसे- वर्णव्यवस्था का ब्राह्मणीय आदर्श उस समाज की शाश्वत सच्चाई नहीं था (वस्तुतः ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के मिथक को उपनिवेशवाद द्वारा मज़बूती दी गई), शासक पूरी तरह स्वेच्छाचारी नहीं थे, कई बार निर्णय सामंतों के बहुमत से होते थे, लगभग 80 प्रतिशत समाजों में विधवा का पुनर्विवाह होता था, बहुविवाह प्रायः शासकों में ही होते थे, बच्चियों का वध आम-प्रचलन में नहीं था, सतीप्रथा ऐच्छिक थी, बाल विवाह नहीं होते थे, पराजित पक्ष की स्त्रियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार होता था, जातियों में भी गतिशीलता थी आदि. जातियों में गतिशीलता प्रायः ऊपर से नीचे की ओर थी और किसी संत या संप्रदाय से जुड़े लोगों को अलग जाति के रूप में मान्यता मिलने के उदाहरण लेखक ने दिए हैं. भक्ति आंदोलन की आधार-भूमि भी यही गतिशील समाज बना, जिसमें स्त्रियों के प्रति नज़रिया पर्याप्त गतिशील और द्वंद्वात्मक था.
माधव हाड़ा दूसरे अध्याय के निष्कर्ष में मानते हैं कि मीरां का समय और समाज उपनिवेशकालीन इतिहासकारों और कुछ स्त्री विमर्शकारों द्वारा गढ़ी गई धारणाओं से एकदम अलग था. यह न तो ठहरा हुआ था और न ही गतानुगतिक. यह वह समाज था जिसने सदियों तक मीरां को स्वीकृति और सम्मान दिया. यह सम्मान और स्वीकृति इतनी व्यापक और गहरी थी कि इस समाज में मीरां का नाम जेनेरिक संज्ञा में बदल गया. अपनी शर्तों पर अपना जीवन गढ़ने वाली मीरां को इस तरह सिर-आंखों पर उठा कर चलने वाला समाज ठहरा हुआ और ठंडा कैसे हो सकता है? यह पर्याप्त गतिशील और द्वंद्वात्मक समाज था, जिसकी निर्भरता केवल धर्म और शास्त्र के बजाय सदियों के अनुभव से बनती-बिगड़ती परंपराओं और मर्यादाओं पर थी.
पर प्रश्न यह है कि क्या इस गतिशील समाज में भी पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था की जकड़न स्त्रियों के लिए कम हो गई थी, और वह भी सामंती कुल की मर्यादा को चुनौती देने वाली विधवा स्त्री के लिए? क्या मीरां के भक्तिमूलक विद्रोह को उस समय के मेवाड़ के सामंती समाज में भी वैसी ही स्वीकार्यता मिल पायी जैसी लोक में मिली? मीरां की भक्ति और विद्रोह की स्वीकार्यता लोक में तो व्यापक रूप से हुई, इसकी ओर लेखक ने यह कह कर इशारा किया है कि मीरां के विद्रोह में लोक अपनी कामनाओं को फलित होते देखता था. पर सामंती पितृसत्ता द्वारा उसे व्यापक स्वीकार्यता मिली यह ऐतिहासिक सत्य प्रतीत नहीं होता.
लेखक का यह निष्कर्ष तो और भी विवादास्पद है कि मीरां के जीवन और कविता में जो सघन अवसाद है, वह उसके वंचित-पीड़ित होने के कारण नहीं है. यह मीरां की सुरक्षा और स्थायित्व की तलाश में भटकने और परिजनों के निधन के दुःख से पैदा हुआ है. क्या यह निष्कर्ष मीरां की पारम्परिक छवियों को नकारते-नकारते मीरां से ही दूर हो जाना नहीं है?
जिस गतिशील और मीरां की स्वीकार्यता वाले समाज का ज़िक्र लेखक करते हैं, उस धारणा को वह, कम से कम पहले और दूसरे अध्याय में तो, तत्कालीन व्यापक लोक के साथ-साथ पितृसत्तात्मक सामंती समाज पर भी चस्पा कर देते हैं. और यही इस पुस्तक की सबसे बड़ी कमज़ोरी है.
तीसरे अध्याय में पहले दो अध्यायों से अलग हटकर लेखक भक्ति के सांप्रदायिक और सांस्थानिक रूपों की मीरां की स्वीकार्यता के संबंध में दुविधा का वर्णन करते हुए मीरां का असाधारण विद्रोही स्त्री सामंत चरित्र और उसकी खास किस्म की लोकभक्ति को रेखांकित करते हैं. लेखक यह महत्त्वपूर्ण स्थापना देते हैं कि नाभादास के भक्तमाल में मीरां का निरंकुश और निडर स्त्री रूप उसके निर्मित भक्त रूप के नीचे पूरी तरह दबता नहीं है. परवर्ती भक्तमालों में यह धीरे-धीरे नीचे दब गया है. ओर यह कि आज की मीरां की छवि ‘प्रियादास’ की बनाई हुई है. लेखक यह भी सजग स्थापना देते हैं कि धर्माख्यान मीरां के भक्तरूप की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में उसकी स्त्री अस्मिता-साहस स्वेच्छाचार आदि की धार की कमजोर करते हैं और मीरां का साहसी निडर स्त्री रूप, परवर्ती भक्तमालों में वर्णित उसके भक्तरूप के नीचे दब सा गया है. परन्तु यही अपेक्षित सजगता लेखक सामंती परंपरा से प्राप्त स्रोतों की मूल मंशा के परीक्षण में नहीं बरतते.
चौथे अध्याय में माधव हाड़ा मीरां की कविता के बारे में बात करते हैं और कुछ नयी और महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ देते हैं. मीरां की दो प्रचलित छवियाँ उसकी रहस्यवादी संत-भक्त और रूमानी कवयित्री की पारंपरिक छवि और वंचित-उत्पीड़ित हाशिए की विद्रोही स्त्री की छवि, जो लेखक के मत में कुछ वामपंथी समालोचकों और स्त्रीविमर्शकारों की देन है; का खंडन करते हुए वे मीरां के स्वर को ‘हाशिए का स्वर’ नहीं मानते. उनके अनुसार मीरां संत-भक्त से पहले एक स्त्री है, जो अन्याय और दमन के प्रतिरोध में खड़ी है. उसका यह प्रतिरोध असाधारण और हाशिए का प्रतिरोध नहीं है. यह भारतीय समाज की निरंतर गतिशीलता का एक रूप है. इसकी पुष्टि धार्मिक-संप्रदायिक आख्यानों, मध्यकालीन भारतीय इतिहास भी करता है और मीरां की कविता मे भी इससे संबंधित पर्याप्त अंतर्साक्ष्य हैं.
‘हाशिए’ को प्रायः राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वर्चस्व से वंचित वर्गों से जोड़ा जाता है, जिसमें ‘स्त्री’ भी एक है. लेखक की ‘हाशिए’ की इस परिभाषा समझना मुश्किल है. शायद इसका अर्थ वे समाज की बहुसंख्यक जनता से भिन्न स्वर से लेते है.
इस अध्याय में पूर्व के अध्यायों के विपरीत स्थापनाएँ देते हुए माधव हाड़ा लिखते हैं कि मीरां पारंपरिक अर्थ में संत-भक्त नहीं थी, उसने राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध अपने विद्रोह को भक्ति के आवरण में व्यक्त किया, जिसके पर्याप्त साक्ष्य उसकी कविता में है. इसके विपरीत औपनिवेशिक प्राच्यवाद और वामपंथियों और स्त्रीवादियों द्वारा गढ़ी गई मीरां की छवि के खंडन के अति उत्साह में लेखक पहले अध्याय में लिखते हैं कि मीरां की कविता में जो सघन अवसाद और दुःख है उसका कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न नहीं था. यह खास प्रकार की घटना संकुल ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण था जिनमें मीरां को एक के बाद एक अपने लगभग सभी परिजनों की मृत्य देखनी पड़ी और निराश्रित होकर निरंतर एक से दूसरी जगह भटकना पड़ा.
आश्चर्यजनक यह भी है कि पहले अध्याय में लेखक मीरां के उत्पीड़न के लिए या तो तत्कालीन परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं, या फिर अयोग्य और मूर्ख राणा विक्रमादित्य को. अपने मत को सिद्ध करने के लिए लेखक यह भी तर्क देते हैं कि मीरां की सास और ननद का व्यवहार उसके प्रति उत्पीड़क था और ससुर और पति उसके प्रति सदय थे. लेखक का यह तर्क समझ नहीं आता कि कैसे वे विक्रमादित्य को एक व्यक्ति मात्र मान लेते हैं, सामंती सत्ता का प्रतीक क्यों नहीं मानते? सास-ननद क्या मात्र स्त्री होने से क्या पितृसत्तात्मक सोच से अलग की जा सकती हैं? जिन जनश्रुतियों को माधव हाड़ा खुद ‘‘समाज की सांस्कृतिक भाषा’’ मानते हैं, वे भी सामंती पितृसत्ता के अन्याय की सत्यता की पुष्टि करती हैं. सबसे प्रामाणिक रूप से मीरां का अपना काव्य भी माधव हाड़ा के इस अतिरंजित निष्कर्ष का खंडन करता है.
चौथे अध्याय में ही मीरां की कविता की विवेचना करते हुए माधव हाड़ा एक महत्त्वपूर्ण किन्तु विवादास्पद स्थापना रखते हैं कि मीरां एक संसारी स्त्री थी और उसके जागतिक सरोकार बहुत व्यापक, मूर्त और सघन थे…..उसकी कविता में जीवन और जगत् का निषेध नहीं था. … मीरां की कविता में वस्तु जगत बहुत सघन और व्यापक रूप में मौजूद है. …..उसकी कविता में इंद्रिय संवेदनाओं और कामनाओं की अकुंठ और निर्बाध अभिव्यक्ति है. यह कहीं प्रत्यक्ष है, तो कहीं परोक्ष. खास बात यह है कि इस संबंध में अन्य संत-भक्तों की तरह उसमें किसी तरह की अंतर्बाधा या अपराध बोध नहीं है. कृष्ण से संयोग की उसकी तीव्र और सघन ऐन्द्रिक कामना उसकी कविता में कई तरह से आती है. परन्तु ऐन्द्रिकता समेत ये सभी विशेषताएँ माधुर्य भावोपासक कृष्ण भक्तों में आम तौर पर मिलती हैं. माधव हाड़ा मीरां की भाषा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता को लक्षित करते हैं कि मीरां की अभिव्यक्ति और भाषा भी जैसी लोकसंपृक्त और स्त्री लैंगिक है, वैसी लोक-विरत संत-भक्तों के यहां नहीं मिलती.
पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘कैननाइजेशन’ में टॉड और अन्य इतिहासकारों की राजपूतों और विशेषतः मीरां की छवि को रूमानी, रहस्यमय प्रेमाख्यान में बदलने का रहस्य खोलते हुए माधव हाड़ा लिखते हैं कि इसके द्वारा टॉड ने मीरां को मेवाड़ और मारवाड़ के राजकुलों के लिए सुविधाजनक बनाया. पुस्तक के छठे अध्याय ‘छवि निर्माण’ में लेखक गीता प्रेस, डायमंड पाकेट बुक्स, अमर चित्रकथा, फिल्मों, भजन-संग्रहों के फ्लेप तक पर अंकित मीरां की विभिन्न छवियों की पड़ताल करते हैं. सुखद बात यह है कि पुस्तक के आरंभ से ही वामपंथियों और स्त्रीवादियों के साथ चस्पा कर मीरां के जिस विद्रोही स्त्री रूप का खंडन लेखक करना चाहते हैं, पुस्तक के अंत तक पहुँचते-पहुँचते वे स्वयं ही मीरां के विद्रोही रूप के प्रतिपादक बन जाते हैं.
पुस्तक के पहले दो अध्यायों में माधव हाड़ा द्वारा मध्यकाल के सामंती समाज में स्त्री के पितृसत्तात्मक दमन को नकारना क्या लेखक का वैचारिक विचलन है? पर यही लेखक इसी पुस्तक के बाद के अध्यायों में इसके विपरीत निष्कर्ष देते हैं. तीसरे अध्याय ‘धर्माख्यान’ में माधव हाड़ा लिखते हैं कि मीरां की भक्ति सामान्य लोक भक्ति थी, यह उसके लिए राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध विद्रोह का एक ढंग था. ऐसे ही कई और अंतर्विरोध माधव हाड़ा की इस पुस्तक के पूर्वार्ध और उत्तरार्द्ध में देखे जा सकते हैं. पहले अध्याय में एक जगह वे लिखते हैं कि मीरां का आरंभिक वैवाहिक जीवन कुछ मामूली प्रतिरोधों और दैनंदिन ईर्ष्या-द्वेषों के अलावा कमोबेश सुखी था. उसके अपने पति भोजराज से संबंध सामान्य थे. और यही लेखक आखिरी छठे अध्याय में लिखते हैं कि मीरां के अपने पति भोजराज से संबंधों के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन गीता प्रेस के पोद्दार ने मीरां को आदर्श हिन्दू पत्नी का रूप देते हुए अपनी तरफ से जोड़ा कि उसने अपने लौकिक पति कुमार भोजराज को कभी नाराज नहीं होने दिया.
माधव हाड़ा ने मध्यकालीन सामंत स्त्री, (खासकर ऐसी विधवा स्त्री, जो सामंती राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध विद्रोही रही हो) के आर्थिक स्वावलंबन को बढ़ा-चढ़ा कर देखा है और इस सबके लिए उनकी प्रामाणिकता इतिहासकार गोपालसिंह मेड़तिया के उद्धरणों पर निर्भर है. मेड़तिया के वर्णन की प्रामाणिकता का आधार लेखक उनके मीरां के पितृपक्ष से जुड़े होने से जोड़ते हैं.
माधव हाड़ा स्वयं इसी पुस्तक में एक जगह लिखते हैं पति के मरने पर इन सामंत स्त्रियों की जागीर खालसा कर ली जाती थी और उन पर सती होने के लिए दबाव भी डाला जाता था, ताकि वे पति की संपत्ति पर दावा न कर सकें. सती होने के लिए दबाव मीरां पर भी डाला गया था. मीरां के शाप से आशंकित राणा उदय सिंह द्वारा द्वारिका से मीरां को वापस बुलाने का प्रयत्न के रूप में क्या इस सामंती पितृसत्ता का प्रायश्चित पर्याप्त था? यदि पर्याप्त होता तो मीरां चित्तौड़ वापस लौट क्यों न आईं ? मीरां की गढ़ी गई संत-भक्त की छवि के बरक्स लेखक मीरां को बहुधा ‘स्त्री’ की जगह ‘रानी’ या ‘सामंत स्त्री’ की तरह देखते हैं जो पुस्तक के कवर पेज पर पर अंकित ‘divoted saint–poet or determined queen?’ से भी संकेतित होता है. यह स्त्रीवादियों के सार्वभौम स्त्रीत्व के बरक्स प्रयुक्त किया गया है या मीरां की तत्कालीन समाज में विशिष्टता दिखाने के लिए?
दरअसल, पुस्तक के ये अंतर्विरोध वास्तव में लेखक के अपने अंतर्विरोध न होकर उन विभिन्न स्रोतों के अंतर्विरोध हैं; जिन्हें लेखक ने अपनी पुस्तक में प्रयुक्त किया है. हर तरह की विचारधारा या दृष्टिकोण से अपने को अलग करके केवल तथ्यों पर अंधनिर्भरता आसानी से इस तरह के अंतर्विरोधों तक पहुँचा देती है; और तथ्यों की जब ऐसी विपुल और विविधतापूर्ण राशि एकत्रित हो तो यह ख़तरा और बढ़ जाता है. यह सच है कि मीरां के काव्य में ‘स्त्रीवाद’ का प्रतिपादन नहीं है, चूंकि यह एक आधुनिक अवधारणा है. परन्तु इसी कारण मीरां के काव्य में सामंतवाद और पितृसत्ता के प्रति विद्रोह को अनदेखा करना, दूसरी तरह का अतिवाद होगा. इसी प्रकार मध्यकालीन भारतीय समाज में गतिशीलता के चिह्नों को स्वीकार करते हुए भी उस समाज में उपस्थित सामंती, पितृसत्तात्मक, जातिवादी उत्पीड़न और दमन को नकारना भी ऐतिहासिक भूल होगी. ‘देशज आधुनिकता’ का अर्थ देशज बुराइयों के प्रति आँख मूंदना नहीं हो सकता. संतोष की बात यह है कि पुस्तक में बाद के अध्यायों में माधव हाड़ा अपनी इसी प्रतिबद्धता पर पहुँच जाते हैं.
पुस्तक का अनुवाद प्रदीप त्रिखा ने किया है. ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ का अनुवाद एक बड़ी चुनौती थी. यह पुस्तक अनुवाद में दोहरा परिश्रम मांगती है. विमर्श के समय वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता और बीच-बीच में संकलित मीरां की कविता में साहित्यिक अनुवाद की रचनात्मकता. मोटे तौर पर प्रदीप त्रिखा ने वस्तुनिष्ठता को चुना है. मीरां के पदों के लिए भी उन्होंने पंक्ति दर पंक्ति, शब्द दर शब्द अनुवाद को प्राथमिकता दी है. मीरां के काव्य में आए देशज शब्दों का अनुवाद आसान कतई नहीं था. और इस प्रयास में कुछ जगह वे चूके भी हैं. प्रदीप त्रिखा ने स्पष्टता के लिए इस पुस्तक में मीरां के पदों/पंक्तियों के अनुवाद के साथ उन पदों/पंक्तियों को लिप्यंतरण कर भी प्रस्तुत किया है. सदियों से मौखिक परंपरा से चले आए मीरां के ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा के पदों का रोमन में लिप्यंतरण अपने आप में बड़ी चुनौती था. इसे अगले संस्करण में और सुधारा जा सकता है. इस अनुवाद से वे पाठक भी लाभान्वित होंगे जिनके पठन-पाठन-विमर्श की भाषा प्रधानतः अंग्रेज़ी है. शुरू के अध्यायों की वैचारिक शिथिलता के बावज़ूद इस पुस्तक में ऐसा बहुत कुछ है जो मीरां के जीवन और उसके समय के समाज को समझने के लिए एक नया प्रस्थान बन सकता है. यह पुस्तक विभिन्न दृष्टि कोणों से गढ़ी गई अनेक मीरांओं में से सबसे प्रामाणिक छवि वाली मीरां की तलाश में एक नए विमर्श की शुरुआत है.
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