आलवार संत परकाल रचनाओं का भाव रूपांतर माधव हाड़ा |
भारतीय भक्ति चेतना की व्याति का दायरा बहुत बड़ा है. यह केवल कबीर, सूर, तुलसी, मीरां और जायसी तक सीमित नहीं है. परकाल (तिरुमंगैयाळवार) बारह आलवार वैष्णव संत-भक्तों में अंतिम हैं. परकाल डाकू थे और बाद में भक्त हुए. उनकी लूटपाट की प्रवृत्ति के संबंध में एक रोचक जनश्रुति प्रचलित है.
कहते हैं कि एक बार लूटपाट के लिए परकाल अपने साथियों के साथ पेड़ों की आड़ में छिपे हुए थे कि उन्हें एक बारात आती हुई दिखी. बारात में वर-वधू रत्नजटित स्वर्णाभूषणों से लदे हुए थे. बारातियों के पास भी आभूषण और धन-संपदा थी. परकाल और उनके साथियों ने पहले बारातियों को लूटा और फिर उन्होंने वर-वधू को लूटना शुरू किया. परकाल ने वर के पाँव के आभूषण को नीचे झुककर अपने मुँह से तोड़ा. सब आभूषणों की गठरी बाँधकर जब वे उठाने लगे, तो यह नहीं उठी. वर, जो भगवान् विष्णु थे, उन्होंने परकाल को अपने पास बुलाकर मंत्रोपदेश दिया. ‘‘परकाल के हृदय से अज्ञानांधकार दूर हुआ और ज्ञान चमक उठा.” उन्होंने ध्यान से देखा, तो वर-वधू और कोई नहीं साक्षात् विष्णु और लक्ष्मी थे. डाकू और लुटेरा परकाल इस तरह संत परकाल हो गया.
वे इस घटना के बाद पूरी तरह प्रेम भक्ति में निमग्न हो गए. उन्होंने जगह-जगह घूमकर भगवान् की मूर्तियों के दर्शन किए. वे उत्तर भारत के श्रीबदरी, सालग्राम, नैमिशारण्य, अयोध्या, मथुरा और दक्षिण में बालाजी, श्रीरंग, मथुरा, गोष्ठीपुर, रामसेतु आदि स्थानों पर गए. तीर्थाटन के बाद वे श्रीरंग आए और फिर वहीं रहे. उन्होंने श्रीरंग के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और वहाँ उत्सवों का प्रबंध किया. यह भी कहा जाता है कि वे श्रीआदिनगर से संत शठकोप की मूर्ति वे श्रीरंग लेकर आए. उनकी समस्त जीवन यात्रा बहुत नाटकीय और घटनापूर्ण है. आलवार संतों की जीवन चरित्र से संबंधित कई जनश्रुतियाँ प्रचलित है, लेकिन परकाल के संबंध में ये सबसे अधिक हैं. उनका लगभग पूरा जीवन ही जीवन ही जनश्रुतियों पर ही निर्भर है. उनकी रचनाएँ उनके जीवनानुभव और ईश्वर नारायण से प्रेम और विरह पर आधारित हैं. पुरुष और स्त्री प्रेम की जितनी ऐहिक मनोदशाएँ हो सकती हैं, वे सब परकाल के नारायण प्रेम में आ गई हैं.
परकाल ने छ प्रबंधों में कुल 1253 पद्यों की रचना की. उनके प्रबंध पेरियतिरुमोलि में 1048, तिरुक्कुरूंताडकम् में 20, तिरुनेडुन्तांडकम् में 30, तिरुएळुकूर्रिरुक्कै में 1, शिरियमडल में 40 और पेरियमडल में 78 पद हैं. परकाल की भक्ति दास्य भक्ति है, लेकिन इसमें प्रेम, समर्पण, निष्ठा, वियोग, नाराज़गी, रोष आदि सब हैं. परकाल के अनुसार जीवात्मा का स्वरूप परमात्मा के अधीन इतना परतंत्र है जितना पतिव्रता स्त्री अपनी पति के अधीन परतंत्र है. संत परकाल अपनी रचनाओं में अपने पति श्रीमन्नारायण की नायिका हैं- वे नायिका, नायिका की माँ और नायिका की सखी होकर ईश्वर से अपने संबंध को व्यक्त करते हैं.
परकाल काव्यकला में निष्णात हैं- आशु कविता, मधुर कविता, चित्र कविता और विस्तार कविता में उन्हें महारत हासिल है. तमिल छंदों का उनका ज्ञान भी असाधारण है.
परकाल की चुनी हुई 11 रचनाओं का भाव रूपांतर प्रस्तुत है. रवींद्रनाथ ठाकुर की पहल पर परकाल सहित 12 आलवारों की रचनाओं के संकलन दिव्यप्रबंध का हिंदी अनुवाद हलवासिया शोध ग्रंथमाला (विश्वभारती,शांतिनिकेत) में पंडित श्रीनिवास राघवन ने किया. प्रस्तुत भाव रूपांतर इस अनुवाद पर आधारित है.
II रचनाओं का भाव रूपांतर II |
॥1॥
मैंने म्लान अनुभव किया
म्लान होकर रमण में दुःखी रहा
दुःखमय संसार में जन्म लेकर
उसी का हो गया
सुंदरियों के पीछे
उनसे संयोग की कामना में भटकता रहा
भागते-भागते ही ईश कृपा से हुआ बोध
विवेचन किया, देखा-समझा
नए जीवन के लिए
श्रेष्ठ है नारायण का नाम
॥2॥
छींके के समान निकल जाती हैं नसें
मांस पड़ जाता है ढीला
मन रहता है भयभीत
रास्ता देखकर आँखें खाती हैं चक्कर
काँपते हैं खड़े होकर
ऐसा हो, इससे पहले
हे मन, यदि हो विवेकवान हो
तो आओ, हम करें
भगवान् के सहस्र नाम का कीर्तन
करें वंदना बदरी की
जहाँ मधुमत्त भ्रमर करते हैं गान
॥3॥
गेरुए वस्त्र धारण कर
रावण ने पंचवटी में
जाकर किया सीता का अपहरण
उस कामुक की लंका को
प्रभु ने कर दिया ध्वस्त
उसी प्रभु को देखकर
बाँस जैसी भुजाओंवाली सुंदर ललनाएँ
कर रही है उपहास
“इसने की है माखन चोरी”
वे प्रभु शोभित-विराजित हैं एव्वळु में
॥4॥
हे छींके में रखे घी को
अमृत मानकर खाने वाले!
हे वामन बनकर पृथ्वी को
दो पगों नाप लेने वाले!
हे गगनचुंबी शिखरवाले
श्रीवेंकट पर्वत पर विराजित देव!
मुझ सेवक पर करो कृपा
॥5॥
जिनके हाथों में सुशोभित है
चमकता चक्र
जिनके वक्ष में निवास है
हिरण्यवर्णा लक्ष्मी का
जो चार वेदों से उपदिष्ट हैं
असंख्य पदार्थ रूप
उनका निवास है अहींद्रपुर
जिसके पहाड़ी ढालों के घने माधवी मंडपों में
भ्रमर करते हैं निरंतर
‘तेनन’ की गुंजार
निमंत्रित करते हैं अपनी प्रियाओं को
॥6॥
मेरे हाथों में
उसके कारण नहीं टिकते हैं कंगन
सोचती हूँ तो मन हो जाता है उसी का
देखा तो कटि में पड़ गया बल
लता की तरह
कहा कुछ बहुत धीरे से
बहुत तीखी हैं उसकी निगाहें
मुझे नहीं आता समझ में
लगता है भय
“न जाने वे हैं कौन?”
तो वे बोले, “मैं अष्टभजाधारी!”
॥7॥
हे काकपोत!
तुम करो काँव-काँव
जो हैं कृष्णवर्ण मेघ के समान
जो हैं शब्दों में गेय
जो हैं शाश्वत और सनातन
उनके शुभागमन लिए
हे काकपोत! तुम करो काँव-काँव
॥8॥
हे सुंदर कोयल!
कूको उनके शुभागमन लिए
वे जो भीषण वर्षा को रोककर
हुए आह्लादित
वे जिन्होंने चीर दिया अश्वमुख
उनके शुभागमन लिए
हे सुंदर कोयल! कूको
॥9॥
मछली की तरह तड़फती
मेरी आँखों में तभी आएगी नींद
तभी आएगा मेरा रंग
अपने पूर्व रूप में
जब कोई भ्रमर
कई गुणों से युक्त
भक्तों की प्रिय, उनको समर्पित
तुलसी की गंध लाकर
फूँकेगा मुझ पर
(तिरुक्कुरुंतांडकम्)
॥10॥
मैंने प्रार्थना की
विशालकाय पर्वत से समुद्र का मंथन कर
उससे निकले अमृत को बाँटकर
उपकृत करनेवाले मेरे स्वामी को देखकर
मैंने प्रार्थना की
जहाँ नहीं पहुँचती सूर्य की किरणें
ऐसे वेणुवनों से घिरे तिरुमालिरुंचोले में
सानंद निवास करते युवक को देखकर
(शिरिय तिरुमडल्)
॥11॥
“मुझे भी समझो सीता”
कहा शूर्पणखा ने
तलवार से काट दी उसकी लंबी नाक
फिर भगा दिया
खर को मार दिया धनुष खींचकर
यहीं पर पहुँचा दिया नरक में
रक्ताधर, कंचुकबद्ध पीन पयोधरा सीता के लिए
रावण के दस सिर काटकर
प्रभु हुए प्रसन्न
माधव हाड़ा
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आलवार डाकू था । एक घटना ने उनका जीवन बदल दिया । लुटने वाले विष्णु और लक्ष्मी थे । इनका प्रकटीकरण क्या हुआ कि ईसवाल डाकू से संत गये । नया जीवन आरंभ हुआ । सभी रचनाओं का भाव रूपांतरण पढ़ा । श्री रंग मंदिर वृंदावन में है । एक बार गया था । संध्या के समय मंदिर की परिक्रमा करते हुए रंग नाथ की पालकी निकलती है । पुजारियों का समर्पण भाव देखने का मौक़ा अश्रुओं में बह गया । जहाँ तक मुझे स्मरण है, मंदिर में धातु का बना ऊँचा स्तम्भ है । उल्लेख नहीं पढ़ सका कितने सौ वर्ष पूर्व बनाया गया ।
भावातिरेक में बह रहा हूँ । फिर भी कहीं टंकण में त्रुटि है-अष्टभुजा में स्वर उ रह गया ।
आलवार संत परकाल के ये ईश विनय पद एक भक्त के खुले हृदय के उद्गार हैं।जिनमें प्रभु का गुणगान है तो अपने उद्धार के लिए याचना भी।माधव हाड़ा ने इधर मध्यकाल के कवियों को लेकर महत्वपूर्ण काम किया है।