मीर तक़ी मीर : तशरीह
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(1)
“मत सहल हमें जानो, फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक़ के पर्दे से इंसान निकलते हैं”
मीर का ये मेरा पसंदीदा शेर दिखने में कितना आमफ़हम सा लगता है . कोई भी लफ़्ज़ ऐसा नहीं जिसका म’आनी हमें लुग़त (शब्दकोश) में देखना पड़े. आइए देखते हैं क्या म’आनी और मफ़हूम (अर्थ) निकलते हैं इस सादा से शेर के-
मत सहल हमें जानो का म’आनी निकला हमें आसान मत समझो. फिर शायर कह रहा”फिरता है फ़लक बरसों” यानि आसमान सालहाँ साल चक्कर काटता है. मफ़हूम ये हुआ कि इक तवील (लम्बा) अरसा गुज़रता है.
अब अगली सतर देखें”तब ख़ाक़ के पर्दे से इंसान निकलते हैं” मतलब तब कहीं जाकर ज़मीन से इंसान वुजूद (अस्तित्व) पाते हैं.
शेर में ‘हमें’ यानि कौन? ये सवाल सबसे अहम है. यहाँ हम ‘हमें’ का पहला म’आनी ख़ुद मीर से ले सकते हैं क्यूँकि शायरों की इक ख़ुसूसियत (विशिष्टता) ये होती है कि वो अपनी तारीफ़ में भी तख़लीक (रचना) करते हैं. हो सकता है ये तख़लीक उन्होंने अपनी ही तारीफ़ में की हो.
यहाँ वह कह रहे कि चूँकि मेरे अल्फ़ाज़ आमफ़हम हैं,आसान हैं इसलिए हमें सहल (आसान) तसलीम मत कर लो. ‘मीर’ जैसे इंसान का इस कायनात में वुजूद पाना आसान नहीं हैं. आसमान सालहाँ साल घूमता है तब कहीं जाकर ज़मीन ‘मीर’ से शायर को जनम देती है. ये थी इसकी पहली तशरीह (व्याख्या) जो कि बहुत वाज़ेह (स्पष्ट) है.
दूसरी तशरीह में ‘हमें’ का म’आनी शायरों से भी लिया जा सकता है. यहाँ मीर कह रहे कि हम शायरों की जमात को आसान मत समझो. इस कायनात में शायर आसानी से वुजूद (अस्तित्व) में नहीं आते हैं. ख़ुदा को शायरों को तख़लीक करने में इक तवील (लम्बा) अरसा (वक़्त) लगता है.
अब देखते हैं इसकी तीसरी तशरीह जो कि इस शेर के म’आनी और मफ़हूम (अर्थ) के मद्देनज़र इसे अज़ीम (महान) बनाती है. ‘हमें’ का म’आनी इंसान से भी तो ले सकते हैं. यानि शायर कह रहा है कि हमको यानि इंसान को वुजूद पाने में सालहाँ साल लगते हैं. आसमान कई बरस गर्दिश (घूमता) करता है तब जाकर ज़मीन अपना परदा हटाती है और इंसानी वुजूद (मनुष्य का अस्तित्व) ज़ाहिर में आता है.
साइंसदानों (वैज्ञानिकों) की मानें तो भी कायनात (सृष्टि) के वुजूद में आने के बाद भी इंसान को बनने में करोड़ों साल लग गए. अब अगर हिंदू माइथोलॉजी की बात की जाए तो इतनी सारी योनियों में इंसान का जनम बहुत मुश्किलों से मिलता है. मीर इंसानों से ये कह रहे कि कभी भी वो अपने वुजूद (अस्तित्व) को कमतर न समझें. ये जिस्म-ए-ख़ाक़ी (मिट्टी का बदन) उन्हें आसानी से नहीं मिला है. इब्न-ए-आदम (आदम का बेटा) फ़रिश्तों से बरतर (श्रेष्ठ) है तभी तो मीर ख़ुद कहतें है कि-
“मीर जी तुम फ़रिश्ता हो तो हो ,
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ”
इसी बात की तस्दीक़ अल्ताफ़ हुसैन हाली भी अपने इस शेर में करते हैं-
“फ़रिश्ते से बढ़कर है इंसान बनना
मगर इसमें लगती है मेहनत ज़ियादा”
वैसे भी इस्लामिक माइथोलॉजी में भी ख़ुदा ने ख़ाक़ (मिट्टी) से आदम की तख़लीक के फ़ौरन बाद फ़रिश्तों को आदम के सजदे का हुक्म दिया. इससे भी ज़ाहिर है कि इंसान फ़रिश्तों से बरतर (श्रेष्ठ) है क्यूँकि सजदा तो हमेशा अपने से बरतर (श्रेष्ठ) का किया जाता है. इसीलिए मीर यूं भी कहते हैं-
“मेरे मालिक ने, मिरे हक़ में, यह अहसान किया
ख़ाक़-ए-नाचीज़ था मैं, सो मुझे इंसान किया”
उधर ग़ालिब कहते हैं”आदमी को भी मयससर नहीं इन्साँ होना” यानि हर इंसान के रंग रूप में पैदा होने वाला इंसान नहीं होता है. इंसान होने की कुछ शरायत (शर्तें) होती हैं. हो सकता है मीर उन इंसानों की बात कर रहे हों जो सिर्फ़ ज़ाहिर ही नहीं अपने बातिन (अन्तःकरण) में भी इंसान हों.
मीर के इस शेर को पढ़ कर ख़ुशबाश हो जाइए कि आपको ये वुजूद-ए-इंसानी मिला है और जिस्म-ए-ख़ाकी (मिट्टी का बदन) मिला है लेकिन ग़ुरूर करने के साथ इंसान बनने का शऊर भी सीखिए. अपनी वक़त (अहमियत) पहचानिए तब ही तो हम भी इक़बाल की तरह कह सकेंगे-
“उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
कहीं ये टूटा हुआ तारा महे कामिल ना बन जाए”
(2)
“ज़िंदान में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की
अब संग मदावा है इस आशुफ़्ता सरी का “
मीर साहेब इस शेर में ज़माने को ललकारते नज़र आ रहे हैं, “आओ मुझे पत्थर मारो कि मेरी आशुफ़्ता सरी (दीवानगी) की यही सज़ा है “. आइए मीर के इस दिलचस्प से शेर की तशरीह करते हैं. यहाँ मीर पहली सतर (पंक्ति) में कह रहे हैं कि मुझे क़ैद कर देने पर भी मेरा जुनून ख़त्म न हुआ. इसका मफ़हूम ये हुआ कि दीवानगी (जुनून) ख़त्म करने के लिए उनके साथ इसके पहले भी बहुत कुछ किया गया. पहले लोगों ने उनकी नसीहत की, फिर धमकी दी और आख़िर में तंग आकर उन्होंने उन्हें ज़िन्दान (जेल) में डाल दिया लेकिन तब भी उनकी दीवानगी ख़त्म न हुई. वो जुनून ही क्या जो किसी तदबीर (युक्ति) से ख़त्म हो जाए. इसी बात को ग़ालिब भी यूं कहते हैं –
“गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जाएँगे क्या?”
मजरूह सुल्तानपुरी भी तो यही कह रहे हैं कि मुसीबतों का ज़िन्दान भी उनकी दीवानगी को ख़त्म नहीं कर पाएगा-
“रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या ‘मजरूह’
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं”
आइए फिर मीर के शेर की जानिब लौटते हैं. शेर की दूसरी सतर (पंक्ति ) में मीर कहते हैं कि अब इस जुनून को ख़त्म करने का एक ही तरीक़ा बचा है कि शहर भर के लोग मुझे पत्थर मारें.
क्या मीर सच में ये चाहते हैं कि उन्हें संगसार (पत्थरों से मार-मार कर मार देना) किया जाये?
आख़िरश मीर कहना क्या चाहते हैं?
तो जवाब होगा ‘नहीं’. मीर हमारे अहसास को बेदार (जगाना) करना चाहते हैं. मीर साहब खुद को संगसार (पत्थरों से मार-मार कर मार देना) करने की बात करते हैं क्यूँकि वे जानते हैं कि इस जहान में किसी ज़हीन आदमी के जुनूं की सजा संगसारी ही है. आज के ज़माने में संगसारी से मुराद तौहीन करना (बेइज़्ज़ती करना), बे-बुनियाद तनक़ीद करना (बेवजह आलोचना करना), तरह-तरह से ईज़ा (तकलीफ़) पहुँचाना और पागल साबित करना है. इसी बात को तनवीर अहमद अल्वी ने बड़ी खूबसूरती से लिखा है-
“मेरे जुनूँ की सज़ा संगसार होना है
लहू लहू ये क़बा क्यूँ निगार-ए-फ़न की है”
जुनून का आला तरीं (उचित) मतलब इश्क़ है. जुनून या दीवानगी इश्क़ का ही तो दूसरा नाम है. जुनून या दीवानगी या इश्क़ बहुत ज़रूरी शय है. जुनून के बिना कोई बड़ा काम मुमकिन नहीं है. कोई बड़ी तख़लीक़ (रचना) मुमकिन नहीं है. हमारा जुनून या इश्क़ ही हमसे हमारी वक़त (औक़ात) से बढ़ कर काम करवा ले जाता है. लेकिन हमारा जुनून अक़्ल से आरी (ख़ाली) नहीं होना चाहिए. आज हम उन्हीं को याद करते हैं जिन्होंने अपने काम से इश्क़ किया और दीवानगी के साथ अपने काम को अंजाम दिया. वो फ़ैज़ कहते हैं ना-
“उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है
जो गाह गाह जुनूँ इख़्तियार करते रहे”
इक फ़ारसी कहावत भी है-
“बा हर कमाल अंदके आशुफ़्तगी ख़ुश अस्त
हर चंद अक़्ले कुल शुदह, बे जुनूँ मबाश”
“हर कमाल (फ़न) के साथ थोड़ी आशुफ़्तगी (इश्क़ और दीवानगी) भी ज़रूरी है, चाहे तुम मुजस्सम अक़्ल क्यूँ न हो जाओ, जुनूँ के बग़ैर मत रहो. “
(3)
“आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामत
असबाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का”
मीर और दूसरे क़दीमी (पुराने) शोअरा (शायर का बहुवचन) ने तसव्वुफ़ (दर्शन) को इक ज़रूरी मज़मून के तौर पर बरता है. तसव्वुफ़ की ये रिवायत उर्दू शायरी में ईरान की तहज़ीबी और व अदबी तक़लीद (अनुकरण) की वजह से दाख़िल होती है. मीर का ये शेर तसव्वुफ़ के मौज़ू (विषय) पर मीर के मेरे पसंदीदा अशआर में से एक है. मीर ने इस शेर में हमें इंसानी ज़िंदगी की सच्चाई से रूबरू कराया है. आइए गहरा तसव्वुफ़ समेटे इस दिलचस्प से शेर की तशरीह करते हैं-
पहली सतर में मीर सवाल पूछ रहे कि इस दुनिया से आख़िर कौन सही व सालिम रुख़सत हुआ?
जिसका जवाब भी वो ख़ुद ही दे रहे वो भी इसी शेर में कि कोई भी इस दुनिया से सही व सालिम रूख़सत नहीं हुआ.
क्यूँ सही व सालिम रुख़सत नहीं हुआ?
इसका जवाब वो अगली सतर में दे रहे हैं. इस ज़िंदगी के सफ़र में हर राही का सामान लुट गया, यानि कोई भी राही कोई भी असबाब (माल और संपत्ति) लेकर इस फ़ानी दुनिया से रूख़सत नहीं हुआ. अब ये असबाब क्या हैं?
दो तरह के असबाब होते हैं-
– ज़ाहिरी असबाब जिसमें माल-ओ-ज़र शामिल है
– बातिनी असबाब रिश्ते-नाते, ग़ुस्सा,नाराज़गी,मुहब्बत
और हमें दोनों तरह के असबाब इसी दुनिया में छोड़ कर यहाँ से कूच करना है. ये नियम और ये क़ायदा हर ख़ास-ओ-आम के लिए है. ऐसा नहीं कि कोई बादशाह है तो उसे कुछ असबाब साथ ले जाने का मौक़ा मिल जाएगा या कोई अच्छा इंसान है तो उसे कुछ माल ओ ज़र (संपत्ति) साथ ले जाने का मौक़ा मिल जाएगा. तभी तो मीर यूँ भी कहते हैं-
“आख़िर-ए-कार जब जहाँ से गया
हाथ ख़ाली कफ़न के बाहर था”
इसी बात को नज़ीर अकबराबादी भी अपनी मशहूर-ओ-मारूफ़ (प्रसिद्ध) नज़्म “बंजारा-नामा” में यूँ कहते हैं-
“घर-बार अटारी चौपारी क्या ख़ासा नैन-सुख और मलमल
चलवन पर्दे फ़र्श नए क्या लाल पलंग और रंग-महल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा “
जब सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है तो हमें दुनियावी चीज़ों से इस क़दर मुहब्बत नहीं करनी चाहिए और ऐसा असबाब (सामान) जमा करने की कोशिश करनी चाहिए जिसे हम दुनिया से कूच के बाद भी साथ रख सकें.
आख़िरश ये असबाब (सामान) कौन से हैं?
(4)
“लज्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना
कब खिज़्र-ओ-मसीहा ने जीने का मज़ा जाना”
मीर का ये शेर मेरे पसंदीदा अशआर में से एक है. आइए सबसे पहले जानते हैं कि जनाब खिज़्र और जनाब मसीहा कौन हैं?
जनाब खिज़्र और जनाब मसीहा दोनों मुसलमानों के पैग़म्बर माने जाते हैं. कहा जाता है कि दोनों ही पैग़म्बरों की मौत नहीं हुई है और वो क़यामत तक ज़िंदा रहेंगे. जनाब मसीह, ईसा मसीह यानी जीसस क्राइस्ट ही हैं. आइए इस दिलचस्प से शेर की तशरीह करते हैं.
यहाँ पहली सतर में मीर कहते हैं कि मौत में भी अजब लुत्फ़ है. दूसरी सतर में वो कहते हैं कि जनाब खिज़्र और जनाब मसीह इस लुत्फ़ को क्या जानें ? वो पैग़म्बर होते हुए भी ऐसे लुत्फ़ से महरूम हैं जो इक हक़ीरतरीन (सबसे तुच्छ) इंसान को भी हासिल है.
यहाँ मीर आम मौत की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि वो इश्क़ में होने वाली अज़ीम (महान) मौत की बात कर रहे हैं. वो इश्क़ हक़ीक़ी (ईश्वरीय प्रेम) भी हो सकता है और मज़ाज़ी (मानव प्रेम) भी. इक तरह से मीर मजनूँ, फ़रहाद जैसे आशिकों और मंसूर जैसे दीवानों को पैग़म्बर से बरतर (उच्च) साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. बहादुर शाह ज़फ़र भी तो यही बात इक अलग ज़ाविए से कह रहे –
“होवे इक क़तरा जो ज़हराब-ए-मोहब्बत का नसीब
ख़िज़्र फिर तो चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा क्या चीज़ है”
मफ़हूम ये हुआ कि इश्क़ में पिये जाने वाले ज़हर के प्याले के सामने आबे हयात के चश्मे के पानी (अमरत्व का पानी) की भी कोई वक़त (औक़ात)नहीं है. कहते हैं जनाब खिज़्र ने आब-ए-हयात के चश्मे का पानी पिया था इसलिए वो ज़िंदा-ओ-जावेद (अमर) हैं.
यानी मीर कहना चाहते हैं कि इंसान को ये हक़ हासिल है कि वो अगर चाहे तो किसी अज़ीमतरीन (सबसे महान) काम के लिए अपनी जान दे सकता है जबकि ये हक़ जनाब खिज़्र और जनाब मसीहा को नहीं हासिल है. इंसान किसी अज़ीम काम जैसे मुल्क के लिए या इंसानियत के लिए शहीद हो सकता है. इसी बात को दाग़ साहेब यूँ कहते हैं-
“हज़रत-ए-ख़िज़्र जब शहीद न हों
लुत्फ़-ए-उम्र-ए-दराज़ क्या जानें”
मफ़हूम ये हुआ कि जनाब खिज़्र लम्बी उम्र जीने का मज़ा क्या जानें जब शहादत ही उनके नसीब में नहीं है. इक तरह से शायर कहना चाहते हैं कि शहादत की मौत इंसान को असल म’आनी में जावेदाँ उम्र (अमरत्व) अता करती है. जावेदाँ उम्र पाने के लिए आब-ए-हयात पीने की जरूरत नहीं है.
आइए अब जानते हैं कि इसी मौजू पर ग़ालिब साहब क्या फ़रमा रहे-
“हवस को है निशाते कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या है”
यहाँ ग़ालिब कहते हैं इस दुनिया में जो भी चहल पहल है, काम करने की उमंग है वो इसलिए है क्यूँकि यहाँ रहने का वक़्फ़ा थोड़ा है. वैसे भी इस दुनिया में तवील (लम्बी) उम्र लेकर क्या करना है क्यूँकि ये इंसानी ख़सलत है कि जब किसी काम के लिए उसे तवील वक़्फ़ा मिल जाता है तो वो काम में ताख़ीर (देर) करता है, सहलअंगारी करता है.
ग़ालिब का कहना है कि ख़्वाब ज़िंदगी का पीछा करते हैं और ज़िंदगी मौत का पीछा करती है, इसलिए काम की सरगर्मी बनी रहती है. इंसान मरने के पहले सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है, इसलिए वो जान तोड़ कर ज़िंदगी के कामों में मसरूफ़ रहता है.
इन सब अशआर को पढ़ने के बाद भी मीर के शेर का हुस्न देखते ही बनता है. लफ़्ज़ “लज्ज़त”और “खपा जाना” इस शेर को दायमी (चिरस्थायी) ख़ूबसूरती अता कर रहे है. कितनी ख़ूबसूरती से उन्होंने इक सादा और सहल शेर के ज़रिये आम और अदना इंसान को भी पैग़म्बर से बरतर साबित कर दिया और जनाब ख़िज़्र और जनाब मसीह की उम्र-ए-जावेदाँ (अमरता) को बे-सर्फ़ा (निरर्थक) क़रार दे दिया है.
मीर के इस अन्दाज़ पर हम मीर की तारीफ़ मीर के ही अन्दाज़ में करेंगे-
“किसने सुन शेर-ए-मीर ये न कहा
कहियो फिर हाए क्या कहा साहेब”
(5)
“क़ैस ओ फ़रहाद पर नहीं मौक़ूफ़
इश्क़ लाता है मर्द-ए-कार हनोज़”
आइए देखें मीर साहेब इस शेर में क्या कहना चाहते हैं. मीर साहेब का कहना है कि आशिक़ी क़ैस यानि मजनू या फ़रहाद पर मुनहसर (निर्भर) नहीं है. इश्क़ वो रूहानी (आत्मा संबंधी) शय है जो आदमी को काम का (हिम्मतवर, रूहानी तौर पर मज़बूत) बनाती है और उसमें इलाही सिफ़ात (ईश्वरीय गुण) पैदा करती है. इश्क़ जिसमें चाहे ये सिफ़ात पैदा कर दे यानि इश्क़ इक अदना से, आम से इंसान को भी फ़र्श से उठा कर अर्श पर बिठा सकता है. उसे आशिक़ का आला मर्तबा अता कर सकता है. उसकी मुलाक़ात ख़ुदा से करवा सकता है. उसके बाज़ू में वो ताक़त अता कर देता है कि फ़रहाद जैसा कोहकन (पहाड़ काटने वाला) पहाड़ काट कर दूध की नहर बहा देता है.
आशिक़ को वो जिस्मानी ताक़त ही नहीं वो दीवानगी या रूहानी ताक़त भी अता कर देता है कि मजनू जैसा आशिक़ अपनी माशूक़ लैला में उस ख़ुदाई नूर को देख लेता है जिस नूर की ताब मूसा जैसा पैग़म्बर (ख़ुदा का नुमाइंदा) भी नहीं ला सका था और ग़श खा कर गिर गया था.
मीर साहब इस शेर में ये कहना चाह रहे कि इश्क़ की वजह से क़ैस-ओ- फ़रहाद हैं, क़ैस-ओ-फ़रहाद की वजह से इश्क़ नहीं है. इश्क़ वो शय है जो आशिक़ में वो हिम्मत वो दीवानगी पैदा कर देती है कि आदमी कुछ भी कर गुज़रता है. इश्क़ जब चाहे यानी आज भी क़ैस ओ फ़रहाद जैसे आशिक़ पैदा कर सकता है.
मीर इक शेर में इसी बात को यूँ भी कहते हैं-
“बेसुतूँ क्या है, कोहकन कैसा
इश्क़ की ज़ोर आज़माई है”
बेसुतूँ उस पहाड़ का नाम है जिस पर फ़रहाद नहर काटने गया था. कोहकन का अर्थ होता है पहाड़ काटने वाला यानि फ़रहाद. इस शेर में भी मीर वही बात कह रहे हैं कि इश्क़ के बिना फ़रहाद का कोई वुजूद नहीं है. फ़रहाद जैसे अदना से पहाड़ काटने वाले को जो नाम और आशिक़ का आला मर्तबा मिला है वो सब इश्क़ की मेहरबानी है.
मीर यही बात मजनू के मुतअल्लिक़ (बारे में) भी कहते हैं-
“शोहरा-ए-आलम इसी युम्न-ए-मुहब्बत ने किया
वरना मजनू इक ख़ाक उफ़तादा-ए-वीराना था”
इश्क़ ने मजनूँ को ख़ाक (ज़मीन) से उठाकर सरे अर्श (आसमान पर) बिठा दिया. वो तो वीराने से सहरा (रेगिस्तान) की धूल में पड़ा हुआ लैला लैला चिल्लाया करता था लेकिन इश्क़ की बरकत ने उसे सारे ज़माने में सितारे की
मानिंद रौशन कर दिया. आज लोग उसे आशिक़ी का ख़ुदा मानते हैं, आशिक़ उसके नाम की क़समें खाते हैं. ये आला मर्तबा उसे इश्क़ ने ही तो अता किया है ना?
वो अल्लामा इक़बाल कहते हैं ना, जब इश्क़ दरस देता (पाठ पढ़ाता) है तो ग़ुलाम भी शहंशाह बन जाता है-
“जब इश्क सिखाता है आदाब-ए-खुद आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही”
(6)
“नहीं सितारे ये सुराख़ पड़ गये हैं तमाम
फ़लक हरीफ़ हुआ था हमारी आहों का”
मीर हसास दिल के मालिक थे इसलिए उन्होंने उर्दू शायरी को दर्द-ओ-सोज़ (ग़म) से मालामाल किया है. उन्होंने ग़म को महसूस किया, ग़म को बरता और उसको अपनी शायरी के कैनवास पर निशानज़द (अंकित) किया. ज़ियादातर जगह उनकी शायरी उनकी शिकस्ता (टूटी हुई) ज़िंदगी का मातम नज़र आती है. ये उनका बेहद हसीन शेर है. इससे उनके तख़अय्युल (कल्पना) की बुलंदी और उनके ग़म के मेयार का पता चलता है. आइए इस पुरदर्द शेर की तशरीह करते हैं.
शेर की पहली सतर में वो कह रहे कि ये जो आसमान पर सितारे नज़र आ रहे हैं वो दरअस्ल सितारे नहीं हैं सुराख़ (छेद) हैं. अब सवाल उठता है आख़िरश आसमान में सुराख़ हुआ कैसे??
इसका जवाब वो अगली सतर में कुछ यूँ देते हैं. हमने महबूब की फ़ुरक़त (जुदाई) में जो आहें भरीं वो आसमान चीर कर अर्शे बरीं (सबसे ऊँचा आसमान) तक जा पहुँचीं. मेरी आहें इतनी पुरसोज़ (दर्द भरी) इतनी पुरअसर थीं कि आसमान ने हमारी आहों को रोकने की कोशिश की तो उसमें वक्फ़े-वक़्फ़े पर (जगह जगह पर) सुराख़ हो गये.
इस्लाम में ऐसा माना जाता है कि इस आसमान से भी ऊपर सात आसमान हैं जिनमें नूर ही नूर हैं, नूर की तजल्लीयात (रौशनियाँ) हैं. जब इस आसमान में सुराख़ (छेद) हो गया तो उन सुराख़ों से छन कर इलाही नूर यानि इलाही तजल्ली (ईश्वरीय नूर) ज़मीन तक आने लगी. जिस वजह से ये सुराख़ (छेद) ज़मीन से सितारों की मानिंद टिमटिमाते नज़र आने लगे.
मीर साहेब कहना चाहते हैं कि उनकी ज़िंदगी में ग़म ही ग़म थे इसलिए उन्होंने बेशुमार आहें भरीं हैं. नतीजतन आसमान में सितारे भी बेशुमार (अनगिनत) हैं.
मीर की पुरसोज़ आहों का असर हमने देख लिया आइए अब देखते हैं ग़ालिब साहेब की आहों ने पाये अर्श (आसमान के पैरों) को किस तरह हिलाया.
“मैं अदम से भी परे हूँ यानि ग़ाफ़िल बारहा
मेरी आहे आतिशीं से बाल-ए-अनका जल गया”
आइए पहले जानते हैं अनक़ा क्या है?
अनक़ा ऐसा पुरअसरार ( रहस्यों से भरा हुआ) परिंदा (पक्षी) है जो पैग़म्बर मूसा के वक़्त में पाया जाता था और अब नहीं पाया जाता है. इसका ज़िक्र अरब के अफ़सानों ( कहानियों) में कसरत (बहुतायत) से होता था. आइए अब शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं.
शेर की पहली सतर (पंक्ति) में शायर कहता है कि इश्क़ ने उनकी हस्ती (अस्तित्व) को जला कर फ़ना (नष्ट) कर दिया है और फ़ना होकर वो मुल्के अदम (परलोक) में पहुँच गये हैं.
दूसरी सतर में वो कहते हैं लेकिन अदम (परलोक) में भी इश्क़ ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. वहाँ भी वो इश्क़ में गिरफ़्तार ही रहे. नतीजतन उनकी आहे आतिशी (आग जैसी आह) की हरारत (गर्मी) से जाने कितनी दफ़ा मुल्के अदम (परलोक) के परिंदे अनक़ा के बाल-ओ-पर (बाज़ू और पर) जल गये.
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि ग़ालिब साहेब की आह की गर्मी से मौजूद तो दूर की बात माअदूम (जो मौजूद न हो) पर भी असर हो गया. वो फ़ना होकर अदम पहुँच गये और उन्होंने कई दफ़ा अनका के पर जला दिये और उस मासूम को नज़र-ए-आतिश (आग के हवाले) करके रवाना हो गये.
तो देखी आपने ग़ालिब साहेब के तख़अय्युल (कल्पना) की परवाज़ (उड़ान)?
दोनों शायरों में आह के असर को लेकर आपस में कैसा मुक़ाबला है. एक की आहों ने फ़लक में सुराख़ (छेद) कर दिया तो दूसरे साहेब ने अदम (परलोक) में पहुँच कर परिंदे अनक़ा के बाल ओ पर जला दिये. अब आप ही फ़ैसला करें किसकी आह में हरारत (गर्मी) ज़ियादा है? किसकी आह ज़ियादा पुरअसर और पुरसोज़ है?
(7)
“सब्ज़ा-ए-नौरुस्ता रहगुज़ार का हूँ
सिर उठाते ही हो गया पामाल”
इस मज़मून में मैंने तशरीह के लिए मीर के जिन अशआर का इंतिख़ाब (चुनाव) किया हैं वो इंसानी ज़िंदगी के फ़ानी (नश्वर) होने की जानिब इशारा करते हैं. हम सब जानते हैं इस दुनिया में जो भी ज़िंदा शय है उसे इक रोज़ फ़ना (नष्ट) होना है. ये दो शेर इसी मौज़ू (विषय) पर उनके बेहद हसीन शेर हैं. ज़ियादातर लोग कहते हैं कि मीर के अशआर में सिर्फ़ आशिक़ी और रोना-धोना मिलता है. तसव्वुफ़ (दर्शन) तो न के बराबर है लेकिन मीर के इन अशआर की तशरीह पढ़ने के बाद आप मीर साहेब के तसव्वफ़ाना (दर्शन संबंधी) ख़यालात से भी शनासा (परिचित) हो जायेंगे. आइए अब पहले शेर की जानिब चलते हैं-
इस शेर की पहली सतर में शायर कह रहा कि मैं किसी रहगुज़र पर उगी हुई छोटी घास की मानिंद हूँ.
दूसरी सतर में शायर कह रहा है कि मैं अभी थोड़ा सा ही ज़मीन से ऊपर उगता हूँ कि उस रहगुज़ार पर चलने वाले लोग मुझे रौंद डालते हैं.
यहाँ पर भी शायर इंसानी ज़िंदगी के मुख़्तसर (छोटा) और फ़ानी होने की जानिब इशारा कर रहा है. इंसान का वुजूद (अस्तित्व) इतना भर ही है कि वो जैसे ही सिर उठाने के क़ाबिल होता है उसे क़ज़ा (मौत) आ जाती है. सिर उठाने के क़ाबिल होता हूँ का मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि जैसे ही वो किसी काम को अंजाम देने लायक़ होता है या फिर जैसे ही उसे अपनी ज़िंदगी का मक़सद समझ आता है.
आइए अब इसी मौज़ू पर मीर के ही दूसरे शेर की तरफ़ चलते हैं-
“कहा मैंने गुल का कितना है सबात
कली ने ये सुनकर तबस्सुम किया”
इस शेर में शायर कह रहा कि मैंने कली से पूछा कि फूल की ज़िंदगी कितनी होती है? ये सुन कर कली ने कोई जवाब नहीं दिया और तंज़ से हँस पड़ी.
इस शेर में भी मीर इंसानी ज़िंदगी की तशबीह (तुलना) फूल की ज़िंदगी से देकर ये साबित करने की कोशिश कर रहे कि इस फ़ानी दुनिया के सारे मख़लूक़ (प्राणी) फ़ानी हैं भले वो कितने ही दिलफ़रेब और हसीन क्यूँ न हों. उन्हें फूल की तरह ही इक दिन मुरझाना है और फ़ना हो जाना है. कली की मुस्कान इंसानी ज़िंदगी पर ख़ूबसूरततरीन तंज़ है. इसीलिए मीर इस ज़िंदगी को “चार दिन का मजहला है ये सब” कहकर मुखातिब करते हैं.
आइए देखें अब इसी मौज़ू पर ग़ालिब अपने मखसूस ( विशिष्ट) अन्दाज़ में क्या कहते हैं. ग़ालिब के तो तक़रीबन हर शेर में कुछ न कुछ तसव्वुफ़ (दर्शन) पाया जाता है. उनका ख़याल जाने कहाँ कहाँ पहुँचता है. उनके इसी शेर को देख लीजिए-
“यक नज़र बेश नहीं फ़ुरसत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है यक रक़्स-ए-शरर होने तक”
इस शेर में ग़ालिब कह रहे कि हमें लगता है कि हमारी ज़िंदगी तवील (लम्बी) है. हमारे पास बहुत वक़्त है. हम ताज़िंदगी इस बात से ग़ाफ़िल रहते हैं कि हमारा वुजूद पल भर से इक लहज़ा भी ज़्यादा नहीं है या शायद उससे भी कम है. ये जो बज़्म यानि ज़िंदगी की सरगर्मी है वो सिर्फ़ इक चिंगारी की उम्र जितनी है यानी हमारे और तुम्हारे होने की सिर्फ़ इतनी ही वक़त है. इतने ही वक्फ़े (समय) के लिए हम इस दुनिया में हैं. हमें ये ख़याल में रखकर अपनी ज़िंदगी बसर करनी चाहिये कि हमारे पास यहाँ रहने का वक़्फ़ा बहुत मुख़्तसर (कम) है.
आइए इसी मौज़ू पर ग़ालिब साहेब के इक और शेर की तशरीह करते हैं-
“मैं चश्म वा कुशादह गुलशन नज़रफ़रेब
लेकिन अबस के शबनम ख़ुर्शीद दीदा हूँ”
यहाँ ग़ालिब साहेब फ़रमा रहे कि मैं बड़ी बड़ी आँखें खोलकर इस ख़ूबसूरत से गुलशन यानि दुनिया को देख रहा हूँ. लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरी हस्ती उस शबनम (ओस) की बूँद की तरह है जिस पर सूरज की नज़र पड़ी हुई है. जिस तरह शबनम सूरज की तपिश से फ़ना हो जाती है वैसे ही मैं भी जल्द फ़ना हो जाऊँगा यानि मेरी ज़िंदगी भी शबनम की ज़िंदगी की मानिंद मुख़्तसर (छोटी) और फ़ानी (नश्वर) है.
तो देखा आपने मीर साहब और ग़ालिब साहेब दोनों ही हमें ख़बरदार कर रहे कि हमारे इस दुनिया में रहने का वक़्फ़ा बेहद मुख़्तसर है. शायद इसीलिए मीर हमें ग़फ़लत की नींद से बेदार करने (जगाने) के लिए कहते हैं –
“ये सरा सोने की जगह नहीं बेदार रहो
हमने कर दी है ख़बर तुमको ख़बरदार रहो”
(8)
“मीरजी राज़-ए-इश्क़ होगा फ़ाश
चश्म, हर लहज़ा, मत पुरआब करो”
इश्क़ के उसूलों में ये भी शुमार होता है कि इश्क़ के राज़ को अयाँ (ज़ाहिर) न किया जाए. उसे पर्दे में रखा जाए. अपने दर्द को दिल में ही महफ़ूज़ (सुरक्षित) रखा जाए. इस शेर में मीर इंतेहाई आसान अल्फ़ाज़ में ख़ुद को और कारी (पाठक) को ख़बरदार करते नज़र आ रहे. यहां मीर ख़ुद अपने आप से मुख़ातिब होकर कह रहे कि “ऐ मीर! तुम्हारे इश्क़ का राज़ दुनिया पर ज़ाहिर हो जाएगा. हर घड़ी अपनी आँखों को आंसुओं से पुरनम (गीला) मत करो वरना इश्क़ की रुसवाई होगी. रोना भी हो तो तन्हाई में अश्क़ बहा लिया करो. यूँ सबके सामने वक़्त बेवक़्त का रोना तो इश्क़ का दस्तूर नहीं है. इश्क़ रुसवा (बदनाम) हुआ तो महबूब भी रुसवा होगा. मीर के ही अल्फ़ाज़ में-
पास-ए-नामूस-ए-इश्क़ था वरना
कितने आँसू पलक तक आए थे”
मीर जानते हैं कि अश्क़ इश्क़ के राज़ को पोशीदा (छिपा) नहीं रहने देते हैं इसलिए वह ऐसा कह रहे हैं. इश्क़ में दिल पर भले ही क़ाबू ना हो लेकिन आँखों पर क़ाबू रखना चाहिए वरना ये दिल का हाल दुनिया को बताने से बाज़ नहीं आयेंगी. असग़र गोंडवी भी अपने इस शेर में कुछ ऐसा ही दरस (शिक्षा) देते नज़र आ रहे हैं-
“होता है राज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत इन्हीं से फ़ाश
आँखें ज़बाँ नहीं हैं मगर बे-ज़बाँ नहीं”
इसी से मिलती जुलती बात रहीम जी भी इक दोहे में यूँ कहते हैं-
“रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ I
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ II”
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि अपने अश्क़ों को दिल के अंदर संजो कर रखिये,
अगर वे आंखों से बाहर निकल आए तो आपके दर्द-ए-दिल को बयां कर देंगे. जिसे आप घर से बाहर निकाल देंगे, वह घर का भेद भला क्यों नहीं उजागर करेगा.
वैसे भी इश्क़ का दर्जा इतना बुलंद है कि इश्क़ के ग़म-ओ-अंदोह (पीड़ा) को भी आशिक़ ज़ेवर-ओ-असबाब (संपत्ति) की तरह सबकी नज़रों से बचाकर संजो कर रखना चाहता है. उसे मिस्ल-ए-अश्क़ (आँसू की तरह) आँखों से बहाना भी अपने इश्क़ की तौहीन लगता है.
आइए अब गली क़ासिमजान चलते हैं और जानते हैं ग़ालिब साहेब इस मौज़ू पर क्या कहना चाहते हैं-
“न कह किसी से, कि ग़ालिब नहीं ज़माने में
हरीफ़-ए-राज़-ए-महब्बत, मगर दर-ओ-दीवार”
यहाँ ग़ालिब साहेब भी यही कह रहे कि इश्क़ के राज़ को सिर्फ़ दर-ओ-दीवार ही राज़ रख सकते हैं, इसलिए इस राज़ को दर-ओ-दीवार के सिवाय किसी और से नहीं कहना चाहिए. वरना इश्क़ का राज़ राज़ नहीं रह जाएगा सब पर अयां हो जाएगा. अगर गिरियावज़ारी (रोना-पीटना) करनी ही है तो तन्हाई में दर-ओ-दीवार के बीच करनी चाहिए. आइए इसी मसले पर दाग़ साहेब की सलाह पर भी ग़ौर करते हैं-
“दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़
इसको हरगिज़ न बरमला कहिए”
वही बात दाग़ साहेब भी समझा रहे. इश्क़ के ग़म-ओ-अंदोह (पीड़ा) को दिल में ही पिन्हाँ (छिपा)कर लेना चाहिए. इसे कभी भी सरे आम ज़ाहिर नहीं करना चाहिए क्यूँकि इसे सरे आम ज़ाहिर करना इसके वक़ार (मान) को कम करता है. लोग इश्क़ जैसी अज़ीमतरीन ( सब से महान) शय का भी मज़ाक़ बनाते हैं. वो ख़्वाजा मीर दर्द कहते हैं ना-
“हर घड़ी कान में वो कहता है
कोई इस बात से आगाह न हो”
(9)
“कल सैर किया हमने समंदर को भी जाकर
था दस्त-ए-निगर पंजा-ए-मिज़गाँ की तरी का”
मीर साहेब इतनी सादगी से गहरी से गहरी बात कह जाते हैं कि हम शशदर (निरुपाय) रह जाते हैं. ये उन्हीं का इक बहुत ही ख़ूबसूरत सा शेर है जिसे पढ़कर आपको अपने अश्क़ों की क़ीमत का अहसास होगा.
यहाँ शायर कह रहा कि कल मैं समंदर की सैर को गया था. समंदर जो कि इतना वसीअ (बड़ा) है, जो न जाने कितनी ही नदियों को ख़ुद में समा लेता है, जिसकी कोई हद नहीं है, जिसकी लहरें चाहें तो शहर का शहर डुबा दें, वो भी पानी के लिए पलकों की नमी का मोहताज था. कितनी अजीब बात है कि वो पानी हमारी पलकों की क़तार से तलब करता था.
‘दस्त-ए-निगर’ मतलब ख़ैरात के लिए किसी के हाथ की तरफ़ देखने वाला. मफ़हूम हुआ कि किसी का मोहताज होना.
ऐसा नहीं है कि मैं सीधे समंदर की तरफ़ गया था. पहले मैं तालाब की तरफ़ गया फिर नदियों की तरफ़ उसके बाद झीलों की तरफ़ लेकिन सबको मैंने मोहताज ही पाया. आख़िरश मैं समंदर के पास गया. मैंने सोचा था शायद समंदर मोहताज नहीं होगा, लेकिन मैंने पाया कि तालाबों, नदियों और झीलों की ही तरह समंदर भी पानी के लिए हमारी पलकों की तरफ़ ही नज़र करता था. वहीं से तरी (नमी) हासिल करता था.
दरअसल मीर साहब अपने इस शेर में आंसू की वक़त (अहमियत) समझाना चाह रहे हैं. पलकों में अटकी अश्क़ की इक बूंद अपने में इतने गहरे और पाकीज़ा जज़बात जज़्ब किए रहती है कि उसके सामने समुंदर सा गहरा और वसीअ भी अपने आप को बहुत हक़ीर (तुच्छ) पाता है. समन्दर की इसी एहसास-ए-कमतरी को वसीम बरेलवी साहब ने भी बहुत खूबसूरती से बयां किया है-
“क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता”
मीर साहब ने अपनी इसी ग़ज़ल के दूसरे शेर में भी आंसू की अहमियत को बताया है-
इस रंग से झमके है पलक पर कि कहे तू
टुकड़ा है मिरा अश्क अक़ीक़-ए-जिगरी का.
तो देखा आपने जनाब! किस क़दर बेशक़ीमती हैं आपके आँसू! किस क़दर पाकीज़ा! इन्हें बेजा बहा कर ज़ाया न किया कीजिए. इधर आप अश्क़ बहाते हैं उधर समंदर का पानी बढ़ता है इसीलिए तो जोश मलसियानी साहेब कहते हैं-“मैं न मानूँगा आँसू हैं ज़रा सा पानी”
(10)
“मिला जो इश्क़ के जंगल में खिज़्र मैने कहा
कि ख़ौफ़-ए-शेर है मख़्दूम याँ किधर आया”
मीर को लोग रोने धोने वाला शायर कहते हैं लेकिन यहाँ उनकी ख़ुशबयानी देखिए. आइए पहले जानते हैं जनाब खिज़्र कौन हैं?
जनाब ख़िज़्र मुसलमानों के वो पैग़म्बर हैं जो क़यामत तक ज़िंदा रहेंगे. साथ ही कहते हैं कि वो बहुत दानिशमंद हैं और जंगलों में रास्ता भटकने वालों को राह भी दिखाते हैं. वो ज़ियादातर जंगल में ही रहते हैं. आइए अब इस दिलचस्प शेर की तशरीह करते हैं-
शेर का वाज़ेह (स्पष्ट) मफ़हूम (अर्थ) ये है कि इश्क़ के जंगल में जनाब खिज़्र मिले तो शायर बड़ी इज़्ज़त से उनसे मुख़ातिब हुआ कि जनाब इस जंगल में तो शेर जैसे ख़तरनाक जानवर का ख़ौफ़ हर सू (दिशा) है. आप जैसा ज़ईफ (बूढ़ा) इंसान यहाँ कैसे आ गया?
इक और तरह से तशरीह करें तो शायर कह रहा, इश्क़ के जंगल में मुझे खिज़्र जैसा पैग़मबर और दानिशमंद (अक़्लमंद) भी भटकता ही नज़र आया यानि वो हज़रत खिज़्र जो कि भूले-भटके लोगों को राह दिखाते हैं, जंगल ही उनका घर है, वो ही इश्क़ के जंगल में राह भूल गए. दरअसल मीर ख़ुद को जनाब खिज़्र जिनकी दानिशमंदी की मिसाल दी जाती है, उनसे भी ज्यादा समझदार और हिम्मतवर समझते हैं. तभी तो उन्हें हिदायत या नसीहत दे रहे हैं कि इश्क के जिस जंगल में आप भटक रहे हैं जनाब, वहां खतरनाक शेर रहते हैं. मीर को अपने भटकने को लेकर कोई ख़ौफ़ नहीं है जैसे कि यह उनका अपना ही इलाका है जिसके हर इक गोशे (कोने) से वो वाक़िफ़ हैं.
तो देखा आपने मीर साहेब ने किस ख़ूबसूरती से ख़ुद को जनाब खिज़्र से भी अक़्लमंद और हिम्मतवर साबित कर दिया. ख़िज़्र के बहाने वो दुनिया भर के आशिकों को आगाह कर रहे हैं कि इश्क के इलाक़े में किस तरह के खतरे हैं. मीर इश्क़ के रास्ते में दुनिया द्वारा दी जाने वाली तकलीफ़ों और खड़ी की जाने वाली दुश्वारियों को ही शेर बता रहे हैं.
आइए आगे देखें इसी मौज़ू पर मीर और क्या कह रहे-
“क्या कम है हौलनाकी सहरा-ए-आशिक़ी की
शेरों को इस जगह पर होता है कुशअरीरा”
मीर के इस शेर की खूबसूरती लाज़वाल (अनश्वर) है. आइए देखते हैं वो भला कैसे?
पहली सतर का म’आनी ओ मफ़हूम (अर्थ) तो वाज़ेह (स्पष्ट) है शायर कहता है इश्क़ के सहरा (रेगिस्तान) को कम ख़तरनाक या डरावना मत समझो. दूसरी सतर में शायर बता रहा क्यूँ ? क्यूँकि यहाँ तो शेरों के भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लाइए कोई शायर जो इतने दिलकश अल्फ़ाज़ के ज़रिए इश्क़ से डर पैदा करे इसीलिए मैंने कहा कि ये शेर लाफ़ानी (अमर) है.
इस शेर की इक तशरीह यूँ हो सकती है कि आशिक़ी का सेहरा इतना ख़तरनाक है कि इसने इश्क़ के ख़ुदा समझे जाने वाले आशिकों तक की जान ले ली है. तभी तो मीर कहते हैं-
“मौत मजनूँ को भी यहीं आई
कोहकन कल ही मर गया है याँ”
इसी बात को वो यूं भी कहते हैं –
“जवां कैसे कैसे मुए इश्क़ में
बहुत ख़राबे हुए इश्क़ में”
यहाँ देखिए मीर हमें बिल्कुल वाज़ेह (स्पष्ट) अल्फ़ाज़ में ख़बरदार कर रहे हैं-
“क़दम दश्त-ए-मुहब्बत में न रख मीर
कि सर जाता है गाम-ए-अव्वलीं पर”
मफ़हूम ये हुआ कि इश्क़ के मैदान में मत उतरो क्यूँकि यहाँ पहले ही मरहले पर अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है.
आख़िरश मीर अपनी मिसाल देते हुए हमें दरस (शिक्षा) देते हैं कि भले आशिक़ी ने उनकी जान नहीं ली लेकिन उनका ये जो बुरा हाल है वो आशिक़ी की ही बदौलत है-
“लगा न दिल को कहीं, क्या सुना नहीं तूने
जो कुछ कि मीर का इस आशिक़ी ने हाल किया”
मीर जी सही फ़रमा रहे राह-ए-इश्क इस क़दर सहल (आसान) नहीं है. कहते हैं इश्क़ में हमारे ज़ाहिर और बातिन (अंतःकरण) को कई तरह के इम्तिहानों और आज़माइशों से गुज़रना पड़ता है. तो जनाब अगर आप चाहते हैं कि इश्क़ जैसी अज़ीम शय आपके दिल में मक़ाम (जगह) बनाये तो पहले अपनी रूह और दिल को इस क़ाबिल बनाइए. उन्हें ज़िंदा रखिए,पाक- ओ- पाकीज़ा बनाइए. इक़बाल यूँ ही नहीं कह गए-
“निगाह-ए-इश्क़ दिल-ए-ज़िंदा की तलाश में है
शिकार-ए-मुर्दा सज़ावार-ए-शाहबाज़ नहीं”
(11)
“ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का”
मीर का ये शेर उनके दीवान के सबसे ख़ूबसूरत और दिल झिंझोड़ कर रख देने वाले अशआर में से एक है. इसकी तशरीह पढ़ने के बाद आपका ज़मीर (आत्मा) आपसे कई सवाल करेगा.
इस शेर में शायर इंसान को तमबीह (ताकीद) कर रहा है कि उसे साँस भी आहिस्ता लेनी चाहिए क्यूँकि इस दुनिया के कारख़ाने का भी काम शीशे के कारख़ाने के काम की तरह नाज़ुक है. यहाँ की चीज़ें शीशे की चीज़ों सी नाज़ुकी लिए हुए हैं. उन्होंने दुनिया की तशबीह (तुलना) शीशासाज़ी के कारख़ाने से दी है.
अब आप सोच रहे होंगे शीशे के कारख़ाने से साँस का क्या रिश्ता है. जिस तरह कुम्हार अपने हाथों की थपक से चाक पर बर्तन गढ़ता है ठीक उसी तरह मीर के ज़माने में शीशे के कारख़ाने में शीशे की चीज़ें बनाने के लिए इक फूँकनी से माहरीन (कारीगर) पिघले हुए सीसे को अलग-अलग तरीक़े से फूँकते थे. उससे शीशे की अलग-अलग चीज़ें बन जाया करती थीं यानि फूँक का या साँस का उसमें अहम किरदार होता था.
पहली सतर में शायर साँस भी आहिस्ता लेने को कह रहा है. इस सतर में लफ़्ज़ ‘भी’ ये इशारा कर रहा कि कुछ और भी आहिस्ता करना चाहिए यानि चलना भी आहिस्ता चाहिए, बैठना भी आहिस्ता चाहिए.
आहिस्ता के क्या म’आनी है यहाँ?
इस तरह की किसी को ईज़ा यानि तकलीफ़ ना पहुँचे. किसी का नुक़सान न हो. कहते हैं इस कायनात में हर शय के पास दिल है और दिल शीशे से भी ज़ियादा नाज़ुक शय है, इसलिए हमें इस तरह ज़िंदगी गुज़ारनी चाहिए कि हमारे अज़ीज़- ओ-अक़रबा (दोस्त और जानने वाले) का ही नहीं हमारी वजह से किसी भी इंसान का दिल न टूटे. मौलाना रूमी भी तो कहते हैं –
“आख़िरश हम सभी को इस फ़ानी दुनिया से कूच कर जाना है लेकिन इस सफ़र के दौरान हमें ये ख़याल रखना चाहिए कि हमारी वजह से किसी भी इंसान का दिल न टूटे”.
या कह लें इंसानों का ही नहीं बल्कि कायनात की किसी शय के दिल को चोट न पहुँचे, चाहे वो पौधे हों, दरख़्त हों या कि जानवर हों यहाँ तक कि फ़ितरत के निज़ाम (क़ुदरत) को भी चोट न पहुँचे.
देखने में शेर कितना सादा है लेकिन इसे पढ़ने के बाद हम दुनिया में अपने रहने के तरीक़े पर ग़ौर करने पर मजबूर हो जाते हैं. दुनिया की तशबीह (तुलना) शीशासाज़ी के कारख़ाने से दे कर मीर ने इतने ख़ूबसूरत तरीक़े से हमें दरस (शिक्षा) दिया है कि दिल को यक़ीन हो जाता है कि वाक़ई वो ख़ुदा-ए-सुख़न हैं. मीर ख़ुद भी तो अपने दीवान के बारे में यही कहते हैं ना-
“जाने का नहीं शोर, सुख़न का मिरे हरगिज़
ता हश्र, जहाँ में मिरा दीवान रहेगा”
(12)
“काफ़िर मुस्लिम दोनों हुए, पर निस्बत उससे कुछ न हुई
बहुत लिए तसबीह फिरे हम, पहना है जुननार बहुत”
मीर मज़हबी थे लेकिन उनका मज़हब का तसव्वुर बिल्कुल अलग था वो कई जगह मज़हब के रिवायती तरीक़ों से बग़ावत करते नज़र आते हैं. यहाँ वो मज़हब के रिवायती तरीक़ों से मुख़ालिफ़त (विरोध) करते हुए ये कह रहे हैं कि अगर ख़ुदा की क़ुर्बत चाहते हो तो इन रिवायती तरीक़ों (माला फेरना या जनेऊ पहनना) को छोड़ दो, इनसे कुछ नहीं होने वाला है.
मीर की शख़्सियत में इक एक्स्प्लोरर नज़र आता है जो ख़ुदा की तलाश में अगर काबे जाता है तो वह उसी की तलाश में मंदिर में भी जाकर बैठने से भी इनकार नहीं करता है. तभी तो वो यूँ कहते हैं-
“हरम को जाइये या दैर में बसर करिए
तिरी तलाश में इक दिल किधर किधर करिए”
यहाँ देखिए वो इसी बात को और भी ख़ूबसूरत तरीक़े से कह रहे-
“कभू तो दैर में हूँ मैं, कभू हूँ मैं काबे में
कहाँ कहाँ लिए फिरता है शौक़ उस दर का”
शहर दिल्ली के लुटने को इतने क़रीब से देखने के बाद उनका ख़ुदा पर यक़ीन डगमगाने लगा था. तब उन्होंने ये शेर कहा था-
“‘मीर’ के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया”
इस शेर में इक तरह से वो ये भी कहना चाह रहे कि तिलक लगा कर मंदिर में बैठने से अगर वह इस्लाम से ख़ारिज समझे जाते हैं तो ऐसा ही सही. मीर साहेब का मानना था कि न कोई मुसलमान है, ना कोई हिंदू है, ना कोई मोमिन है और ना कोई काफ़िर. इंसान बस इंसान है और इंसानी वजूद ख़ुदावंद की परछाईं.
शायद इसीलिए मीर अपने मज़हब के बारे में पूछने पर चिढ़कर यूँ जवाब देते थे-
“मज़हब से मेरे क्या तुझे मेरा दयार और
मैं और यार और मिरा कारोबार और”
मीर की ख़ुशबयानी का भी जवाब नहीं था इसीलिए कहीं कहीं वो मज़हब या हक़ीक़ी महबूब (ख़ुदा) के बारे में पूछने पर लोगों को गुमराह करते हुए यूँ भी जवाब देते नज़र आते हैं-
“बता के काबे का रस्ता उसे भुलाऊँ राह
पता जो पूछे कोई मुझसे यार के घर का”
मीर की आवारगी जो उन्हें कभी मस्जिद लेकर जाती थी और कभी मंदिर उसका नतीजा वो यूँ लिखते हैं-
“दैर-ओ-हरम से गुज़रे अब दिल है घर हमारा
है ख़त्म इस आबले पर सैर-ओ-सफ़र हमारा”
यहाँ मीर कह रहे कि ख़ुदा की तलाश में वो गाह (कभी) मस्जिद गाह मंदिर जाया करते थे. वो मंदिर या मस्जिद को ही ख़ुदा का घर समझते थे लेकिन आख़िरश उन्होंने पाया कि ख़ुदा मंदिर या मस्जिद में नहीं हमारे दिल में रहता है. हमारा दिल ही उसका घर है इसीलिए वो हमें कहीं बाहर नहीं मिलता. मीर के मज़हब के तसव्वुर के बारे में बताने के लिए हम मजरूह सुल्तानपुरी के अल्फ़ाज़ का सहारा लेंगे-
“मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है”
(13)
“उसके फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सबमें नूर
शम्मे हरम हो याकि दिया सोमनात का”
मीर का ये शेर भी उनकी ख़ूबसूरत बयानी की इक बेहतरीन मिसाल है. वैसे तो शेर की ज़बान सादा और सहल है लेकिन फिर भी इक दफ़ा इसकी तशरीह कर ही लेते हैं.
यहाँ शायर कह रहा है कि एक ही ख़ुदा के हुस्न की रौशनी या चमक से सब रौशन हैं यानि सब उसी के नूर से ताबिंदा (चमकना) है चाहे वह सोमनाथ के मंदिर का दिया हो या फिर काबे की शमा (मोमबत्ती) हो.
इस ज़मीन पर जहाँ-जहाँ भी रौशनी है, नूर है उसमें उसी ख़ुदा का नूर शामिल है. उस ख़ुदा की नज़र में सोमनाथ के मंदिर के दिए और काबे की शमा में कोई तफ़रक़ा नहीं है.
इसी बात को मीर और भी ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में यूँ भी कहते हैं-
“गोश को होश के, टुक खोल के सुन, शोर-ए-जहाँ
सबकी आवाज़ के पर्दे में, सुख़न साज़ है एक”
मीर इस शेर में सबको इबरत (सीख) फ़राहम करते नज़र आ रहे हैं. यहाँ मीर कह रहे कि ऐ इंसान तू होश के कान खोल ले, अपने होश की दवा कर ले. अगर तू अपने होश के कान खोल कर सुनने की कोशिश करे तो पाएगा कि हर आवाज़ के पीछे एक ही बात बनाने वाला है. मफ़हूम ये हुआ कि हम सबका ख़ालिक़ (बनाने वाला) एक ही है.
आइए अब उपनिषद की इक सतर (पंक्ति) को देखते हैं-
“एको देवः सर्वभूतेशू गूढ़ सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा. “
मफ़हूम (अर्थ) हुआ कि एक ही देव या परमात्मा सब में छिपा है. सब जगह मौजूद है. सबकी रूह है.
तो देखा आपने ? बात तो वही है बस सब ज़रा अपने अपने ढंग से कहते हैं. वो नूर है और हम सबमें रौशन है. वो वाहिद ख़ुदा एक ही है जो इस कायनात के पर्दे में छिपा बैठा है. वो बुल्लेशाह कहते हैं ना-
“उसका मुख एक जोत है, घूँघट है संसार.
घूँघट में वो छुप गया, मुख पर आँचर डार. “
(14)
“सरसरी तुम जहान से गुज़रे
वरना हर जा जहान-ए-दीगर था”
मीर की सादगी ख़ुद इक हुस्न (ख़ूबसूरती) है जो आराईश-ओ-ज़ेबाइश (बनाव सिंगार) से बेनियाज़ (लापरवाह) है. मीर का ये शेर भी ज़ाहिरी तौर पर बेहद सादा और सहल है लेकिन तशरीह करने पर मालूम होता है कि ये अपने अंदर समन्दर सी वुसअत (फैलाव) और गहराई समेटे हुए है. इस शेर में गहरा तसव्वुफ़ (दर्शन) निहाँ (छिपा) है. आइए इसकी तशरीह करते हैं.
इस शेर में मीर कह रहे हैं कि हम इस दुनिया से सरसरी तौर पर गुज़र जाते हैं और इस जहान के पोशीदा राज़ को समझ नहीं पाते हैं. जबकि हमने ढूंढने की कोशिश ही नहीं की, वरना इस दुनिया के हर ज़र्रे में इक जहान छिपा हुआ है. इस कायनात में जितनी चीज़ें पोशीदा हैं उससे कहीं ज़ियादा चीज़ें अयाँ हैं, फिर भी इंसान उनकी तरफ़ नज़र नहीं करता और अपनी उम्र ज़ाया कर देता है. वो इस दुनिया पर इक उचटती सी निगाह डाल कर इस दुनिया से अहमक़ाना (बेवकूफ़ाना) तरीक़े से गुज़र जाता है.
मीर इसी बात को अपने इक और शेर में यूँ कहते हैं-
“याँ बुलबुल और गुल प तू इबरत से आँख खोल
गुलगश्त सरसरी नहीं इस गुलसितान का”
यहाँ वो कह रहे कि दुनिया की हर शय से तू इबरत (सीख) हासिल करने की कोशिश कर क्यूँकि इस दुनिया से तुझे सरसरी तौर पर नहीं गुज़रना है. वो कहना चाहते है कि इस दुनिया में कोई भी चीज़ इतनी वाजेह (स्पष्ट) नहीं है कि सरसरी तौर पर देखने पर समझ आ जाए और जो वाज़ेह होती तो हुनर या फ़न वुजूद में नहीं आता. सीधी बात है कि इसीलिए कोई फ़नकार या तख़लीककार (रचनाकार) सिरिफ़ आँखों से ही दुनिया को नहीं देखता है. मफ़हूम क्या हुआ कि इस दुनिया को देखने के लिए बसीरत(अंतर्दृष्टि) की भी ज़रूरत होती है. बसारत (दृष्टि) के साथ बसीरत (अंतर्दृष्टि) पैदा करो. बसीरत (अंतर्दृष्टि) इल्म और शऊर की रौशनी से पैदा होती है. बसीरत (अंतर्दृष्टि) कोर हो तो बीनाई (नज़र) बेफ़ायदा ही है अगर सिर्फ़ आँखों से दुनिया देखोगे तो क्या ख़ाक़ दुनिया देखोगे? वो निदा साहेब कहते हैं ना-
“सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई बना कर देखो”
मफ़हूम क्या हुआ कि हमें सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया नहीं देखनी है बल्कि दिल की धड़कन से नज़र पैदा करनी है. अच्छा दिल किस चीज़ से मिलकर बना है?
अहसासात से ना ? यानि शायर कह रहा जो अहसासात दिल में छिपे बैठे हैं इन्हें ज़ाहिर में लाओ और उसकी तर्ज़ पर दुनिया को देखो. इसी बात को मख़मूर देहलवी यूँ कहते हैं-
“ज़िया-ए-शम्स भी मौजूद है नूर-ए-क़मर भी है
बसीरत ही न हो तो रौशनी से कुछ नहीं होता”
यानि की दुनिया में सूरज की रौशनी और चांद की चांदनी सब कुछ मौजूद है. ये कायनात दिन हो या रात रौशन ही रहती है लेकिन अगर आपके पास उन्हें देख पाने की बसीरत (अंतर्दृष्टि) ही नहीं है तो आपके लिए उसके रौशन होने का कोई मतलब नहीं है. मफ़हूम ये हुआ कि हम अगर इक गुल को भी देखें तो इस नज़र से देखें कि ये भी क़ुदरत के राज़ अयां कर सकता है. इसके रंग इसकी ख़ुशबू भी कायनात के असरार (राज़) को ज़ाहिर में लाना चाहती है.
ग़ालिब भी अपने अन्दाज़ में यही दरस यूँ देते हैं-
“महरम नहीं है तू ही नवाहाए राज़ का
याँ वरना जो हिजाब है परदा है साज़ का”
यहाँ ग़ालिब कहते हैं कि चूँकि तू ही कायनात के पोशीदा राज़ को नहीं जानता है इसलिए तुझे लगता है हक़ीक़त हमारी आँखों से ओझल है लेकिन दरअस्ल ऐसा है नहीं. कायनात के ये राज़ आँखों पर अयाँ (ज़ाहिर) न होने के बावजूद भी उरियाँ (नग्न )हैं.
ग़ालिब यहाँ कह रहे तू ख़ुद ही कायनात के असरार (राज़) से नाआशना है वरना कायनात में जितने भी हिजाबात (पर्दे) नज़र आ रहे हैं वो किसी साज़ (वाद्ययंत्र) के पर्दे की मानिंद बोल रहे हैं यानि वो असरार-ए-कायनात (कायनात के छिपे राज़) को छिपा नहीं रहे बल्कि ज़ाहिर कर रहे हैं. इक तू ही है जो इस पुरअसरार (रहस्यमय) मौसीक़ी (संगीत) को सुन नहीं पा रहा है वरना पूरी कायनात में ये साज़ बज रहा है. मीर की तरह ग़ालिब भी सारा इल्ज़ाम इंसान पर ही डाले दे रहे हैं.
इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि साज़ यानि ख़ुदा पर्दे में हैं लेकिन उस साज़ के नग़मे यानि उसकी क़ुदरत कायनात में यहाँ-वहाँ बिखरी हुई है और हमें उसके राज़ से अयाँ (परिचित) कराती रहती हैं. वो बेनियाज़ ग़ायब होकर भी हाज़िर है. वो तो हमारी नासमझी और कमअक़ली है कि हम उसे पहचान नहीं पाते हैं. हम आंखों देखी पर ही यक़ीन कर लेते हैं बसीरत (अंतर्दृष्टि) पैदा नहीं करते. हुई न वही मीर वाली बात!
मीर ने ग़ालिब वाली ही बात कितनी सादा और पुरकशिश ज़बान में कही है. चूँकि मीर के शेर में तहदारी होती है इसलिए मीर के दोनों अशआर की इक तशरीह ये मानकर भी हो सकती है कि मीर यहाँ अपने दीवान की बात कर रहे हों. वो कहना चाहते हों कि चूंकि उनके शेर आमफ़हम ज़बान में हैं इसलिए उनके अशआर को सहल (आसान) मत समझो, उनका हर शेर इक नये जहान का दरवाज़ा है. अगर आप उस नये जहान में नहीं पहुँच पा रहे हैं तो आप ज़रूर सरसरी तौर पर उनके दीवान को पढ़ गए होंगे. दूसरे शेर में भी वो कह रहे कि
उनके किसी भी शेर को यूँ ही पढ़कर आगे न बढ़ जाओ. उनके हर शेर पर वक़्त दो,उसे दिल की नज़र से देखो और उससे इबरत (सीख) हासिल करो. उनके दीवान के बाग़ीचे का सफ़र इतना सरसरी नहीं है. हम तो मीर के दीवान के बारे में कहने के लिए हम मीर से ही अल्फ़ाज़ उधार लेंगे-
“एक दो हों तो सेहर-ए-चश्म कहूँ
कारख़ाना है वाँ तो जादू का”
(15)
“चश्म हो तो आईनाख़ाना है दहर
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच”
मीर यहाँ पिछले शेर वाली बात को आगे बढ़ाते हुए नज़र आ रहे हैं वह कहते हैं अगर इंसान के पास बसीरत (अंतर्दृष्टि) हो तो ये दुनिया आईनाख़ाने यानि शीशमहल की मानिंद नज़र आती है. जिस तरह शीशमहल में खड़े होने पर हमें हर सिम्त (तरफ) हमारा ही सरापा नज़र आता हैं, उसी तरह इस कायनात में चारों सू (दिशा) हमें हमारा ही वजूद नज़र आता है. दीवारें चीज़ों को छिपाने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती हैं, उनसे चीज़ों पर पर्दा ढांका जाता है. लेकिन अगर बसीरत हो तो वही दीवार चीज़ें छिपाने के बजाय अयाँ करने लगती है और आइने की मानिंद हमें हमारा ही अक्स दिखाती है. यूँ महसूस होता है जैसे मैं ही ख़ुदा हूँ. मैं ही इस कायनात के हर ज़र्रे में मैं समाया हूँ. कायनात की हर शय में हमें अपना ही सरापा महसूस होता है. हम ख़ुद को इस कायनात से अलग रखकर देख ही नहीं पाते हैं.
इक तरह से कह सकते हैं कि जैसे हम होते हैं ये जहान भी हमें वैसा ही नज़र आता है. अगर हम चाहते हैं कि ये दुनिया बेहतर हो तो सबसे पहले हमें अपना आप बेहतर से बेहतरीन बनाना होगा.
मीर वाली ही बात को ग़ालिब यूँ कहते हैं-
“अज़ मेहर ताबा ज़र्रा दिल ओ दिल है आईना
तूती को शशजेहत से मुक़ाबिल है आईना”
ग़ालिब के इस शेर की तशरीह करने से पहले ये जानने की कोशिश करते हैं कि ये तूती क्या है?
तूती इक छोटा सा परिंदा है. कहते हैं वो इल्मे इरफ़ान रखता है यानि ख़ुदाई इल्म रखता है. यहाँ तक कि वो इंसानों की ज़बान में बातें करता है. पहली सतर में शायर कह रहा है सूरज से ले के ज़र्रे तक हर दिल आईना है यानि ज़मीन तांबा आसमान (ज़मीन से लेकर आसमान तक) दिल ही दिल है.
क्या म’आनी हुआ इसका??
इस कायनात में कोई शय मुर्दा (मृत) नहीं है और हर ज़िंदा शय दिल रखती है, हवा आग, बिजली, पानी, पौधे, दरख़्त, जानवर से लेकर सब कुछ. इसका मफ़हूम ये हुआ कि कायनात की हर शय के पास धड़कता हुआ दिल है और हर दिल इक आईने के मानिंद है.
दूसरी सतर (पंक्ति) में शायर कह रहा है कि तूती को क़ुदरत छह सिम्त (छह दिशाओं) से आईना दिखाती है और सिर्रे कायनात को ज़ाहिर करती है. कायनात के निहाँ (छिपे) राज़ को अयाँ (ज़ाहिर) करती है. नतीजतन दुनिया की हर शय में उसे ख़ुदा नज़र आता है. उसे लगता है इस कायनात के हर ज़र्रे (कण) में ख़ुदा है यानि वो ख़ुद हर ज़र्रे में अयाँ है. यहाँ तूती हर वो इंसान है जो इल्मे इरफ़ान (ख़ुदाई इल्म) रखता है या इल्म ए ग़ैब को जानने की जद्दोजहद में लगा रहता है.
हुई ना वही मीर वाली बात! जिस बात को समझाने के लिए ग़ालिब साहेब को तूती और मुश्किल अल्फ़ाज़ का सहारा लेना पड़ा उसी बात को मीर साहेब ने आसान ज़बान में सादा से शेर में समझा दिया. मीर साहेब अपने ख़यालात को बेहतरीन के साथ साथ आसान अल्फ़ाज़ में पेश करने का हुनर जानते हैं.
दोनों शेर क़दीमी (प्राचीन) हिंदुस्तानी अद्वैत दर्शन की जानिब इशारा करते हैं जो कहता है. ”अहम ब्रह्मास्मि” यानि”मैं ख़ुदा हूँ”. म’आनी ये हुआ कि ज़र्रे ज़र्रे में ख़ुदा है. सूफ़ी ख़यालीयत भी कहती है”अनलहक़” यानि”मैं ख़ुदा हूँ”. इसलिए हम कह सकते हैं मीर-ओ-ग़ालिब दोनों ही क़दीमी (प्राचीन) हिंदुस्तानी अद्वैत दर्शन और सूफ़ी ख़यालियत से मुतास्सिर (प्रभावित) थे. हज़रत शाह नियाज़ अहमद भी मीर-ओ-ग़ालिब वाली बात को यूँ कहते हैं-
“मामूर हो रहा है आलम में नूर उसका
अज़ माह ताबा माही सब है ज़हूर उसका”
मौलाना रूमी भी तो कहते हैं “कुल रूहें वाहिद हैं. तमाम वजूद फ़क़त माशूक़ (ख़ुदा ) का अक्कास है. “
(16)
“नाज़ाँ हो उसके सामने क्या गुल खिला हुआ
रखता है लुत्फ़-ए-नाज़ भी रू-ए-निकूँ के साथ”
मीर कमउम्री में ही किसी “परी चेहरा” की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गए थे. उनका इश्क़ रस्मी नहीं था इसलिए उनके अशआर में ख़ुलूस (निश्छलता), सदाक़त (सच्चाई) और वारफ़्तगी (बेख़ुदी) का अहसास होता है. महबूब की तारीफ़ ग़ज़ल का आम मज़मून है. बहुत सारे शोअरा ने इस मज़मून पर बहुत कुछ लिखा है लेकिन इस मज़मून पर लिखे मीर के अशआर की बात ही अलग है इसकी वजह उनके जज़्बे की सदाक़त (सच्चाई) ही है. उनका ये शेर भी मीर साहेब के मेरे पसंदीदा अशआर में से एक है. आइए इस हसीन से शेर की तशरीह करते हैं और इसके म’आनी से लुत्फ़अन्दोज़ (आनंदित) होते हैं.
फूल सा हुस्न दुनिया की किसी शय में नहीं पाया जाता है इसीलिए बहुत सारे शोअरा (शायर का बहुवचन) महबूब के चेहरे की तशबीह (उपमा) फूल से देते हैं, लेकिन यहाँ मीर कहते हैं कि मेरे महबूब के हुस्न के सामने फूल भी नाज़ (गर्व)से अपना सर नहीं उठा सकता है. मफ़हूम ये हुआ कि उनका महबूब फूलों से भी हसीन है.
दूसरी सतर में मीर महबूब को फूलों से भी हसीन कहने की वजह भी बता रहे हैं. वो कहते हैं कि मेरे महबूब का चेहरा भी ख़ूबसूरत है और साथ ही साथ उसको इस बात का नाज़ भी है और यही बात मेरे महबूब के हुस्न में चार चाँद लगा देती है. उसका हुस्न दोबाला (दुगुना) हो जाता है इसीलिए फूल का हुस्न भी उसके हुस्न के आगे बेमानी लगता है.
इक और मीर का शेर इसी मौजूँ पर मेरा दिलअज़ीज़ है-
“सौ रंग की जब ख़ूबी पाते हैं उसी गुल में
फिर उससे कोई उस बिन, कुछ चाहे तो क्या चाहे”
ज़ियादातर देखा जाता है फूल की सारी पंखुड़ियाँ एक ही रंग की होती हैं, लेकिन यहाँ मीर कहते हैं कि मेरा महबूब ऐसा फूल है जिसमें सभी रंग पाये जाते हैं. वो हसीन भी है और उसमें अदायें भी हैं यानि उसमें नाज़ है,नख़रा है साथ ही ग़ुस्सा भी है. उसकी बातें गुलों से भी रंगीन हैं. फिर शेर की दूसरी सतर में वो कहते हैं जब वो इतना दिलकश और दिलरुबा है तो मुझे उससे उसके साथ के सिवा क्या ही चाहिए होगा.
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मीर अपने एक शेर में ये भी कहते हैं-
“गुल क्या जिसे कहें कि गले का तू हार कर
हम फेंक दें उसे तिरे मुँह पर निसार कर”
मफ़हूम यह हुआ कि इस दुनिया में किसी फूल की वक़त (औक़ात) इतनी नहीं कि जो तुम्हारे गले का हार बन सके. सबसे खूबसूरत फूल की भी बस इतनी ही वक़त है कि उसे तुम्हारे चेहरे पर वार कर के फेंक दिया जाए.
तो देखा आपने माशूक़ से बातें बनाने में मीर का कोई सानी नहीं है. मीर ख़ुद भी यही कहते थे ये पढ़िए –
“बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा
सई-ओ-तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की
सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनियेगा”
(17)
“बुशरे की अपने रौनक़ ऐ मीर आरज़ी है
जब दिल को खूँ किया तो चेहरे प रंग आया”
मीर के इस शेर की तशरीह पढ़ने के बाद आपको उनके जज़्बे की सदाक़त का अहसास होगा. आइए इस ख़ूबसूरत से शेर की बतफ़सील तशरीह (विस्तृत व्याख्या) करते हैं.
शेर की पहली सतर में मीर कहते हैं कि मेरे चेहरे की ये जो चमक है, रौनक़ है, ये लाफ़ानी (अनश्वर) नहीं है. फिर दूसरी सतर में वो कहते हैं, ये जो मेरे चेहरे पे नूर है वो यूँ ही नहीं आया है; जब दिल दर्द से पुरख़ूँ हुआ है मतलब जब मेरी आँखें ख़ून रोयीं हैं तब जाकर मेरा चेहरा पुरनूर हुआ है.
दिल ख़ून खून कब होता है ?
आँखें ख़ून कब रोती हैं?
जब कोई इश्क़ में होता है. इश्क़ का दूसरा नाम ही दर्द है. देखिए इस बात की तस्दीक़ ग़ालिब यूँ करते हैं-
“हर बन-ए-मू से दमे ज़िक्र न टपके खूँनाब
हमज़ा का क़िस्सा हुआ इश्क़ का चर्चा न हुआ”
ये शेर ग़ालिब साहेब का बेहद दिलचस्प शेर है. इस शेर की तशरीह करने पर शायद मालूम हो कि इश्क़ और दर्द का रिश्ता कितना गहरा है. आइए इसकी तशरीह करने के क़िब्ल (पूर्व) जानते हैं कि ये हमज़ा का क़िस्सा क्या है?
उर्दू में लंबी कहानियाँ सुनाने का फ़न होता है जिसे”दास्तानगोई” कहते हैं. इसमें अलिफ़ लैला और हातिमताई की दास्तानें सुनाई जाती हैं लेकिन दास्तानगोई में सबसे ज़्यादा मशहूर है “दास्तान-ए-अमीर हमज़ा”. अमीर हमज़ा मुहम्मद साहेब के चाचा थे. इन दास्तानों के नायक वही हैं. इन दास्तानों में तिलिस्म और अय्यारी का ख़ूब ज़िक्र है. कहते हैं बादशाह अकबर भी इन दास्तानों का आशिक़ था. इसे”हम्ज़ानामा” के नाम से जाना जाता है. आइए अब शेर की जानिब चलते हैं.
यहाँ शायर कह रहा कि इश्क़ की दास्तान इतनी पुरदर्द होती है कि सुनने वाले के रोयें-रोयें से ख़ून टपकने लगता है. अगर किसी सच्चे आशिक़ की दास्तान सुनने के बाद दिल दर्द से पुर न हो और आँखों से लहू (ख़ून) जारी न हो तो वो इश्क़ की दास्तान ही नहीं है. इश्क़ की दास्तान कोई अमीर हमज़ा का क़िस्सा नहीं है जिसे लज्ज़त लेकर सुना जाए और जिसका दिल पर कोई असर भी न हो.
मफ़हूम ये हुआ कि इश्क़ दर्द का दूसरा नाम है. इश्क़ इक आज़माइश है, इम्तिहान है. आप चाहें कि आप इश्क़ भी करें और आपको तकलीफ़ भी न हो तो ये नामुमकिन है. इश्क़ में शिकम-ए-दिल (दिल की कोख) से दर्द ही पैदा होते हैं. तभी कहते हैं कि सारे जहान के दर्द को जमा करके ही उसे इश्क़ का नाम दिया गया है.
तो समझे जनाब! अगर अपनी शक्ल पर नूर चाहिए लाफ़ानी (अनश्वर) चमक चाहिए तो इश्क़ कीजिए चाहे वो हक़ीक़ी हो (ईश्वरीय प्रेम) या मजाज़ी (मानव प्रेम). तभी तो मीर साहेब के पेदर (पिता) ने उनको दरस दिया था ”बेटा इश्क़ करना”. बाबा फ़रीद भी जब शादमाँ (ख़ुश) होते और किसी को दुआ देते तो कहते”जा तुझे इश्क़ हो”. मीर साहेब ख़ुद भी हमें दरस देते हुए यूं कहते हैं-
“लाग अगर दिल को नहीं लुत्फ़ नहीं जीने का
उलझे सुलझे किसी काकुल के गिरफ़्तार रहो”
इसीलिए मीर को ख़ुदा-ए- सुखन मानने वाले तमाम शायर ‘वाली आसी’ के साथ इक ज़बान होकर कहते हैं –
“इश्क़ बिन जीने के आदाब नहीं आते हैं
‘मीर’ साहेब ने कहा है कि मियां इश्क़ करो”
(18)
“इक निगह, एक चश्मक, एक सुख़न
इसमें भी तुमको है तअम्मुल सा”
दुनियावी मुआमलात को सादा अल्फ़ाज़ में बयान करना मीर की ख़ुसूसियत है. उनकी शायरी में जो चीज़ हमें सबसे ज़ियादा मुतास्सिर करती है वो उनके जज़्बे की सदाक़त (सच्चाई) और सादगी है. किस सादगी से वह महबूब से शिकायतगो हैं! आइए इस पुरलुत्फ़ (लज्ज़त से भरे) शेर की तशरीह करते हैं.
यहाँ मीर महबूब से मुख़ातिब हैं और कह रहे कि मैंने तुमसे कब कहा कि तुम इश्क़ का इक़रार खुलेआम करो. मैं तो चाहता था कि तुम बस इक निगाह ही मुझ पर डाल लो. अगर वो भी नहीं तो कोई इशारा ही कर दो और अगर वो भी मंज़ूर नहीं तो इक दफ़ा मुझे अपनी ज़बान से पुकार भर लो, लेकिन तुम तो इसमें भी झिझक रही हो.
इक वाज़ेह मफ़हूम (स्पष्ट अर्थ) ये हुआ कि महबूब इतना अनापरस्त है कि वो मीर साहेब को ज़रा सा भी तवज्जोह नहीं देना चाहता है जिससे वो कोई ख़ुशफ़हमी ना दिल में पाल बैठें या फिर वो इस क़दर शर्मीला है कि उसे किसी भी तरह से मीर साहेब को मुख़ातिब करने में शर्म आ रही है.
वजह चाहे जो भी हो मीर साहेब ने इस शेर में अपनी बात इतने दिलकश अन्दाज़ में कही है कि अब तक उसने भले ही तवज्जोह न दी हो लेकिन इस शेर को सुनने के बाद वो भी मीर के असीरों (क़ैदियों) में शामिल हो जाएगा. मीर ख़ुद कहते हैं ना-
“हम हुए, तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए”
उसी तर्ज़ पर हम कहेंगे-
“मीर के शेरों के सब असीर हुए”
(19)
“गरचे तू ही है सब जगह लेकिन
हमको तेरी नहीं है जा मालूम”
मीर की शायरी में मज़ाज़ी मुहब्बत (मानव प्रेम) के साथ हक़ीक़ी मुहब्बत (ईश्वरीय प्रेम) के जलवे भी नज़र आते हैं. मीर साहेब का ये शेर उनके फ़लसफ़ियाना शऊर (दर्शन संबंधी योग्यता) को ज़ाहिर में लाता है. आख़िरश यहाँ किसकी तलाश का ज़िक्र हो रहा है?
यहाँ उसी की तलाश का ज़िक्र हो रहा है जिसकी खोज में इक दफ़ा गौतम बुद्ध निकल गये थे और फिर लौट न सके थे. आइए हम इस पुर म’आनी (अर्थपूर्ण) शेर की तशरीह करते हैं.
यहाँ मीर पहली सतर में कहते हैं कि हमें पता है कि ज़र्रै ज़र्रे में तू ही समाया हुआ है. कायनात की हर शय में तेरा ही हुस्न नुमायाँ हो रहा है.
फिर अगली सतर में वह कहते हैं कि ये सब जानते हुए भी हमें तेरे रहने की जगह नहीं मालूम है. हमें नहीं पता कि तू हमें कहाँ मिलेगा. शायद ही कोई ऐसा दानिशमंद (बुद्धिमान) होगा जिसे तेरी फ़िक्र न हो या जो तुझे तलाश न कर रहा हो. किसी को तेरा पता ही नहीं मिलता तो हम बेचारे क्या करें? तुझे कहाँ तलाश करें? रूमी, सादी, गौतम जैसों ने जंगल, पर्वत, सेहरा, दरिया, मैदान सब छान डाले लेकिन उन्हें भी तेरे वुजूद का कोई निशाँ तक न मिल सका.
वो ग़ालिब अपने ख़ुसूसी (विशिष्ट) अन्दाज़ में कहते हैं ना –
“थक थक के हर मक़ाम पर दो चार रह गये
तेरा पता न पाएँ तो नाचार क्या करें”
यहाँ पहली सतर में शायर ख़ुदा का ज़िक्र करते हुए कह रहा है कि जो भी उस ख़ुदा की तलाश में निकला वो रास्ते में अलग अलग मक़ाम पर थक कर बैठता चला गया. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि उसका पता न पाकर कोई बहुत जल्दी थक कर उदास और मायूस होकर बैठ गया, कोई उसके बहुत क़रीब पहुँचने के बावजूद रास्ते की थकन से निढाल होकर बैठ गया.
मीर इक दूसरे शेर में इसी बात को यूँ भी कहते हैं-
“इल्म सबको है ये कि सब तू है
फिर है अल्लाह कैसा ना-मालूम”
ये जानते हुए भी कि हर शय में उसी का ज़हूर (प्रकटीकरण) है हम उसके मुतअल्लिक़ (संबंध में) कुछ भी नहीं जानते हैं.
मीर-ओ-ग़ालिब दोनों ख़ुदा को मुख़ातिब करते हुए यही कहना चाह रहे हैं कि हम तो तुझे ढूँढते-ढूँढते बेहाल हो गए, लेकिन तेरी वुसअत का इक सिरा भी न पा सके. अब तू ख़ुद ही हमें अपना पता दे. हमें महरूम (वंचित) न रख. हमें इंतेज़ार की आतिश (आग) में न जला. हमारी तिशनाकाम (प्यासी) आँखों को अपने जलवे से जल्द-अज़-जल्द सेराब (पानी पिलाना) कर.
देखिए मीर अपने इसी सवाल का जवाब ख़ुद अपने ही इक शेर में दे रहे है –
“था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में ‘मीर’
समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़ुसूर था”
“रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती” का म’आनी हुआ “जिससे जन्नत की हूरों को भी रश्क़ हो” यानी महबूब या ख़ुदा.
कबीरदास जी भी इस बात को यूँ कहते हैं-
“मैं जानू हरि दूर है, हरि हृदय भरपूर I
मानुस ढुढंहै बाहिरा, नियरै होकर दूर II
मफ़हूम हुआ कि हम ख़ुदा को बहुत दूर तसलीम करते हैं लेकिन वो तो हमारे दिल में समाया हुआ है. हम उसे ख़ुद से बाहर तलाश करते रहते हैं इसीलिए वो हमारे बहुत क़रीब होने पर भी हमें दूर ही नज़र आता है. तभी मौलाना जलालुद्दीन रूमी यूं कहते हैं-
“अगर तुमने मुझे ख़ुद के अंदर पैदा नहीं किया
तो तुम मुझे हरगिज़ नहीं पा सकोगे”
(20)
“ये जो मोहलत है जिसे कहे हैं उम्र
देखो तो इंतेज़ार का सा है कुछ”
मीर के इश्क़ ने मज़ाज़ी ( मानव प्रेम ) सरहदों को पार करके हक़ीक़ी (ईश्वरीय) सरहदों में क़दम रख दिया था. उनका ये शेर जितना सादा है उतने ही गहरे म’आनी-ओ- मफ़हूम (अर्थ) फ़राहम करने वाला है. इतनी सादी ज़बान में भी क्या इतनी गहरी बात कही जा सकती है? मीर के शेर की ख़ास बात ये है कि आप इसमें कोई भी लफ़्ज यहाँ से वहाँ नहीं कर सकते हैं. आइए मीर की गली चलते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि
किस मोहलत की बात कर रहे हैं मीर?
और किसने दी है हमें ये मोहलत?
मोहलत मतलब फ़ुरसत यानि हम इसके पहले बहुत मसरूफ़ थे और इसके बाद भी बहुत मसरूफ़ रहने वाले हैं . वाज़ेह (स्पष्ट) बात ये है कि ये मोहलत जिसे ज़िंदगी कहते हैं ख़ुदा ने अता की है. वही बात हो गयी फ़िराक़ साहेब वाली कि ”इक फ़ुरसत ए गुनाह मिली वो भी चार दिन”.
अगर ये फ़ुरसत गुनाह के लिए मिली है तो फिर इश्क़ से अज़ीम (बड़ा) गुनाह कौन सा हो सकता है?
तो समझे जनाब! ये मोहलत इश्क़ के लिए मिली है. यहाँ मीर कह रहे हैं कि ये मोहलत जिसे उम्र या ज़िंदगानी कहते हैं वो तो महबूब के इंतेज़ार में ही ख़त्म हुई जाती है. फिर वही फ़िराक़ साहेब वाली बात हुई कि ”इक उम्र कट गयी है तेरे इंतेज़ार में” लेकिन ये इंतेज़ार चूँकि इश्क़ में किया जा रहा इस लिए लुत्फ़ (मज़ा) भी फ़राहम करता है. ताम्बा अब्दुल हई को पढ़ें-
“किस किस तरह की दिल में गुजरती हैं हसरतें
है वस्ल से (मिलन) ज़ियादा मज़ा इंतेज़ार का”
लेकिन किसी किसी के लिए ये इंतेज़ार जानलेवा अज़ाब जैसा भी है. देखिए मीर क्या कह रहे –
“आँखें पथराई छाती पत्थर है
वो ही जाने जो इंतेज़ार करे”
ये तो एक तशरीह हुई मीर साहेब के शेर की. आइए अब दूसरी तरह से शेर की शरह करते हैं. ये जो उम्र की मोहलत या वक़्फ़ा या फ़ुरसत ख़ुदा ने हमें फ़राहम की है या कह लें ये जो हिज्र (विरह) हमें अता किया गया है, ये वक़्फ़ा (समयांतराल) भी तो उसी ख़ुदा के विसाल (मिलन) के इंतेज़ार में गुज़र जाता है. मीर वाली बात को ही वसीम बरेलवी साहेब यूँ कहते हैं-
“जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है सदियों से
कहीं हयात उसी फ़ासले का नाम न हो”
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि यहाँ शायर इश्क़-ए-हक़ीक़ी (ईश्वरीय प्रेम) की बात कर रहा है और हम समझ नहीं पाते हैं कि ये किसके इंतेज़ार की ख़लिश है,बेचैनी है जो हमें ताउम्र बेचैन रखती है. देखिए शेख़ ज़हीरुद्दीन हातिम क्या फ़रमा रहे-
“मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
हैरत में हूँ ये किसका मुझे इंतेज़ार है”
हमारी रूह की ख़लिश, बेचैनी, इज़तेराब सब उसी ख़ुदा के हिज्र की देन है. इक तरह से मीर कहना चाहते हैं कि इंसानी ज़िंदगी सरापा (शुरू से आख़िर तक) इंतेज़ार है और इंतेज़ार भी किसका? उस महबूब-ए-हक़ीकी (ख़ुदा) का. सूफ़ी ख़यालियत (दर्शन) भी हमारी ज़िंदगी के इस वक्फ़े (समय) को हिज्र ही मानती है. ये हिज्र ख़ुदा ने हमें अपनेआप से जुदा करके अता किया है और आख़िरश उसी में हमें फ़ना हो जाना है. कबीर दास जी भी तो कहते हैं-
“जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद I
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥”
जिस मरने से दुनिया डरती है, वह मेरे लिए ख़ुशी का बाईस है. मैं तो सोचता हूँ कब मरूँगा और ख़ुदा को देखूँगा. उसके नूर में मेरा नूर फ़ना हो जाएगा और ये हिज्र (विरह) ये इंतेज़ार ख़त्म हो जाएगा.
तो क्या नतीजा निकाला जाये इन बातों से?
चाहे इश्क़ मज़ाज़ी (मानव प्रेम) हो या हक़ीक़ी (ईश्वरीय प्रेम) इश्क़ की कहानी में सबसे अहम किरदार इंतेज़ार का होता है. इसी बात को मुनअव्वर राना यूँ कहते हैं –
“तमाम जिस्म को आँखें बना कर राह तको
तमाम खेल मुहब्बत में इंतेज़ार का है”
(21)
“हैं मुश्त-ए-ख़ाक़ लेकिन जो कुछ हैं मीर हम हैं
मक़दूर से ज़ियादा मक़दूर है हमारा”
मीर ने अपने कई अशआर में इंसान की अज़मत (गौरव) साबित की है. उनका ये शेर भी हमें इक अजब ग़ुरूर (गर्व) से भर देता है. इस बात का ग़ुरूर कि हम इंसान हैं यानि अशरफ़ुल मख़लूक़ात (प्राणियों में सबसे अफ़ज़ल) हैं. आइए इस शेर की तशरीह (व्याख्या) करके देखते हैं कि आख़िरश मीर कहना क्या चाहते हैं?
पहली सतर में मीर कहते हैं माना कि हमारी वक़त (हैसियत) इक मुट्ठी मिट्टी भर ही है (चूँकि इस्लाम में ऐसा मानते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को मिट्टी से बनाया है) लेकिन इस पूरी कायनात में हम ही सब कुछ हैं. हमारे जैसी कोई दूसरी मख़लूक़ (प्राणी) नहीं है और हमें इस बात का ग़ुरूर भी है. मीर ये भी मान रहे कि इंसानी वुजूद फ़ानी (नश्वर) है उसे कल तक की कोई ख़बर नहीं है लेकिन फिर भी वो कहते हैं इस आलम (दुनिया) में जितनी कारगुज़ारियाँ हैं वो हमारी ही की हुईं हैं. ये मीर का ख़ुसूसी (विशिष्ट) अन्दाज़ है. अपनी वक़त मुट्ठी भर मिट्टी मानते हुए भी वो ग़ुरूर से भरे हुए हैं क्यूँकि वो अपने जैसे वाहिद (अकेले) हैं. इस पूरी कायनात में कोई भी उनके जैसा नहीं है.
दूसरी सतर में वो कहते हैं ख़ुद हौसले से बढ़कर हमारा हौसला है यानि हमारे हौसले का कोई सानी नहीं. हम ख़ुद अपनी अक़्ल और ताक़त से अपना मुक़द्दर लिखते हैं.
मीर इंसान के हौसले, उसकी ताक़त में, उसके वुजूद की अज़मत में पुख़्ता यक़ीन रखते हैं. वो मुज़फ़्फ़र वारती साहेब कहते हैं ना-
“माना कि मुश्त-ए-ख़ाक़ से बढ़कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं”
अब मीर का ये हसीन सा शेर देखिए. पहले शेर वाली ही बात को और भी ख़ूबसूरती से कह रहे-
“आदम-ए-ख़ाक़ी से आलम को जिला है वरना
आईना था ये वले क़ाबिल-ए-दीदार न था”
इस शेर में मीर इस कायनात (ब्रह्मांड) की मिसाल आईने से देते हुए कहते हैं कि ख़ाक़ यानि मिट्टी से बने इंसान से ही इस कायनात के आईने में चमक है,नूर (रौशनी) है, वरना ये कायनात देखने लायक़ नहीं थी.
इसकी इक तशरीह यूँ भी की जा सकती है कि जब तक आईने के इक जानिब पॉलिश नहीं की जाती है तब तक वो क़ाबिल-ए-दीदार नहीं होता है यानि तब तक उसमें कोई अक्स (तस्वीर) नज़र नहीं आता है. वो पॉलिश इंसान अपनी ख़ाक़ (मिट्टी) से ही करता है. जब तक इस कायनात में इंसान का वुजूद नहीं आया था तब तक ये कायनात आईना तो थी लेकिन इसमें किसी का अक्स नज़र नहीं आता था. इंसान ने इस आईने के इक जानिब अपनी ख़ाक़ से पॉलिश की है.
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि इस कायनात की सारी सरगर्मी,सारी चहल-पहल,सारी रौनकें ख़ाक़ (मिट्टी) के पुतले इंसान के ही दम से है. कायनात को देखने लायक़ इंसान ने ही बनाया है वरना इस कायनात में कुछ भी देखने लायक़ नहीं था.
इक और शेर में मीर इंसान की अज़मत को यूँ बयाँ करते हैं-
“मरते हैं हम तो, आदम-ए-ख़ाक़ी की शान पर
अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर”
यहाँ मीर कह रहे कि ख़ाक़ का पुतला होने के बावजूद इंसान का दिमाग़ अर्श (आसमान) पर रहता है और इंसान के इस हौसले पर वह फ़िदा हैं.
जिगर मुरादाबादी भी अपने इक शेर में इंसान की अज़मत की बुलंदी पर यूँ लिखते हैं-
“कभी कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुए हफ़्त आसमाँ गुज़रे”
यानि इस मुट्ठी भर ख़ाक़ (इंसान) का सातों आसमान चक्कर लगाते हैं.
तो जनाब अब आपको अपने इंसान होने पर नाज़ हो रहा या नहीं? इस ख़ाक़ के पुतले की क्या वक़त (हैसियत) है आपको पता चली? इस बात का यक़ीन रखिए कि आप जैसा इस कायनात में कोई नहीं है, आप लासानी (अद्वितीय) हैं. लिहाज़ा अब इस मौक़े को बिल्कुल भी गँवाइये मत. यहाँ ऐसा कुछ कर जाइए कि मीर साहेब की बात सही साबित हो जाए. वो मीर कहते हैं ना-
“बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो”
(22)
“आब-ए-हयात वही ना, जिसपे खिज़्र ओ सिकंदर मरते रहे
ख़ाक़ से हमने भरा वो चश्मा, ये भी हमारी हिम्मत थी”
मीर का ये शेर भी आदम-ए-ख़ाकी यानि इंसान की अज़मत का शेर है. आइए इस शेर के म’आनी ओ मफ़हूम तलाश करते हैं. इस शेर से कई दिलचस्प रिवायती दास्तानें मनसूब हैं.
आइए पहले जानते हैं कि ये आब-ए-हयात क्या है?
आब-ए-हयात मतलब ज़िंदगी देने वाला पानी यानि वॉटर आफ़ लाइफ़. अलग अलग मज़हबों की रिवायतों में आब-ए-हयात के चश्मे (सोते) का ज़िक्र है. ये पानी का रिवायती चश्मा है. इसके बारे में कहा जाता है इस चश्मे का पानी पी लेने से इंसान ताअबद (क़यामत तक) तक की ज़िंदगी पा जाता है. लाफ़ानी हो जाता है. अमर हो जाता है. इसका ज़िक्र क़दीमी (पुरानी) दास्तानों और किताबों में बड़े ही दिलचस्प तरीक़े से मिलता है.
अब ये खिज़्र कौन हैं ?
हज़रत खिज़्र मुसलमानों के पैग़मबर माने जाते हैं. कुछ रिवायतों में इनको फ़रिश्ता भी तसलीम किया गया है. कहा जाता है हज़रत खिज़्र इस ज़मीन पर १००० साल से मौजूद हैं और ज़िंदा-ओ-आबाद हैं. इनके बारे में ये भी मशहूर है कि ये जहां बैठते थे वहाँ हरियाली उग आती थी इसीलिए इन्हें खिज़्र पुकारा जाने लगा जिसके म’आनी हैं”सब्ज़ चीज़”.
अब सवाल ये है कि हज़रत खिज़्र ज़िन्दा ओ जावेद कैसे हो गए? कुछ रिवायतें कहती हैं कि उन्होंने ज़मीन पर आब-ए-हयात के चश्मे का पानी पी लाया था इसलिए उनको उम्र-ए-जावेदानी मिल गयी. ये भी कहा जाता है कि ये पूरी ज़मीन उन्हीं की है और वो ज़ियादातर जंगलों में रहते हैं साथ ही मुश्किल में फँसे और भूले भटके इंसानों की मदद भी करते हैं. वो बहुत दानिशमंद हैं उन्हें ख़ुदा ने रूहानी इल्म अता किया है इसलिए उन्होंने कई पैग़म्बरों और सूफ़ियों के मुश्किल वक़्त में उनकी मदद की है. ऐसा कहा जाता है कि वो क़यामत तक ज़िन्दा रहेंगे और आम लोगों की नज़रों से पोशीदा (छिपे) रहेंगे और बाद क़यामत ज़ाहिर हो जाएँगे.
सिकंदर को हम सभी जानते हैं. मकदूनिया का रहने वाला बादशाह जिसने दुनिया जीतने की पुरज़ोर कोशिश की और काफ़ी हद तक जीत भी ली. कहते हैं वो भी बेहद बेचैनी के आलम में आब-ए-हयात का चश्मा खोजने हज़रत खिज़्र के साथ निकला था लेकिन आब-ए-हयात के चश्मे को ना पा सका.
तो आइए अब फिर से शेर की पहली सतर पर चलते हैं ऐसा लगता है शायर यहाँ ख़ुदा से हमकलाम है. वो कह रहा है कि आब-ए-हयात वही चश्मा (पानी का सोता) है ना जिसको खोजने के लिए खिज़्र जैसा पैग़म्बर या कह लें फ़रिश्ता और सिकंदर जैसा दुनिया जीतने वाला बादशाह भी बेचैन-ओ- मुज़तरिब रहा. तुम उसी आब-ए-हयात (ज़िंदगी के पानी) के चश्मे की बात कर रहे ना?
फिर अगली सतर में शायर कह रहा हमने हिम्मत करके उसी चश्मे को मिट्टी से भर दिया यानि उसका नाम-ओ-निशान मिटा दिया.
अगर दोनों सतरों का मिलाकर मफ़हूम देखें तो मफ़हूम इस तरह वाज़ेह (स्पष्ट) होता है कि अगर खिज़्र और सिकंदर जैसे इंसान जिंदा-ओ-जावेद (अमर) होने के लिए सारी ज़िंदगी आब-ए-हयात (ज़िंदगी के पानी) का चश्मा (झरना) खोजते रहे तो वहीं इसी ज़मीन पर ऐसे भी इंसान थे जिन्होंने जावेदाँ ज़िंदगी (अमर ज़िंदगी) को ठोकर मारते हुए उस चश्मे के वुजूद को ही मिटा दिया. बिलाशुबह ये इंसान की अज़मत साबित करने वाला शेर है. ये जानते हुए भी कि वो लाफ़ानी हो सकता है फिर भी इंसान ने जावेदाँ उम्र (अमरत्व) को ठोकर मार दी.
देखिए शेख़ ज़हीरुद्दीन हातिम इसी बात को अलग ज़ाविए से कह रहे-
“आब-ए-हयात जा के किसी ने पिया तो क्या
मानिंद-ए-खिज़्र जग में अकेला जिया तो क्या”
आख़िर में चलते चलते सय्यद अहमद हुसैन शफ़ीक़ साहेब के इस शेर पर भी इक शरारत भारी निगाह डाल लेते हैं-
“खिज़्र से कह दो कि आकर देख लें आब-ए-हयात
धोये जाते हैं निचोड़े जाएँगे गेसू-ए-दोस्त”
“गेसू-ए-दोस्त” का म’आनी है “महबूब के बाल”.
(23)
“हम आप ही को अपना मक़सूद जानते हैं
अपने सिवाय किसको मौजूद जानते हैं”
मीर साहेब का ये शेर उनकी ख़ुदबीनी या ख़ुदपसंदी और उनके फ़लसफ़ियाना शऊर को ज़ाहिर में लाता है. इतने सादा लफ़्ज़ों में भी वो ऐसे सहरअंगेज़ (जादुई) शेर कह देते हैं कि हम साकित (ठगे से) से पढ़ते रह जाते हैं. आइए
इस पुरलुत्फ़ शेर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं.
यहाँ मीर कहते हैं कि हम ख़ुद को ही अपना महबूब मानते हैं. आगे वो कहते हैं कि मुझे इस जहान में अपने सिवा कोई नज़र नहीं आता है. जो कुछ हूँ वो सिर्फ़ मैं ही हूँ. मैं जिधर भी निगाह करता हूँ उधर ख़ुद को ही जलवागर पाता हूँ.
इसी ग़ज़ल में वो आगे कहते हैं-
“इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मस्जूद जानते हैं”
यहाँ मीर कहते हैं कि मैं झुकता तो हूँ लेकिन सिर्फ़ अपनी तरफ़. मैं ख़ुद से गिड़गिड़ाता हूँ. मैं किसी और के बजाय ख़ुद से ही अपनी कमज़ोरी और बेबसी ज़ाहिर करता हूँ. आगे वो कहते हैं कि मैं जिस मुट्ठी भर ख़ाक़ से बना हूँ उसी को सजदा करने लायक़ मानता हूँ. मैं अपना सजदा आप करता हूँ.
इन दोनों अशआर को देखें तो इक तरह से मीर “अहम ब्रह्मास्मि” या “अनलहक़” के फ़लसफ़े पर यक़ीन रखते नज़र आ रहे हैं. यानि यहाँ भी मीर हिंदुस्तानी अद्वैत दर्शन से मुतास्सिर नज़र आते हैं.
मीर के इतने रंग है कि समझ नहीं आता किसे हम उनका असली रंग समझें. यही मीर मायूसी और बेज़ारी से ये भी तो कहते हैं-
“अब जान जिस्म-ए-ख़ाकी में तंग आ गई है बहुत
कब तक इस एक टोकरी मिट्टी को ढोइए”
(24)
“मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है या उस्ताद”
उर्दू शायरों में ख़ुद को बेहतर शायर के साथ-साथ बेहतर आशिक़ साबित करने की भी इक अज़ब होड़ सी रहती है. आइए मीर साहेब की गली चलते हैं और देखते हैं कि वो इस मौज़ू पर क्या कहते हैं?
यहाँ मीर साहेब ने अपना मुक़ाबला फ़रहाद से किया है. इस शेर का वाज़ेह (स्पष्ट) मफ़हूम ये हुआ कि आशिकी की मिसाल माना जाने वाला फ़रहाद भी मीर साहब को ख़ुद से बड़ा आशिक मानता है. उसने मीर की कब्र पर हथियार डालकर उन्हें उस्ताद कबूल कर लिया है. जिस तरह फ़रहाद संगतराशी का काम करता है यानि पत्थर तराशता है बिल्कुल उसी तर्ज़ पर मीर साहेब अल्फ़ाज़ तराशते हैं. दोनों ही अपने आप में आला दर्जे के आशिक़ भी हैं.
ऐसा भी हो सकता है कि यहाँ वो कह रहे हों कि फ़रहाद अपना काम करते करते इतना बेज़ार हो गया है कि उसने थक हार कर अपना तेशा (औज़ार जिससे पत्थर तराशते हैं) मीर के मज़ार के पत्थर पर रख दिया है.
इक तशरीह इसकी यूँ भी हो सकती है कि फ़रहाद का काम इतना लम्बा और मुश्किल है कि वो अपना काम आगे नहीं बढ़ा पा रहा है और चूँकि वो मीर को कारीगरी में भी और इश्क़ में भी अपना उस्ताद मानता है इसलिए वो मीर से इस्लाह लेने आया है.
इक और तशरीह इस शेर की यूँ भी हो सकती है कि चूँकि फ़रहाद मीर को अपना रक़ीब मानता है इसलिए वो मीर की क़ब्र का नाम-ओ-निशान तक मिटा देना चाहता है इसी वास्ते वो तेशा लेकर मीर की क़ब्र पर आया है.
इक तरह से इस शेर से मीर साहेब ये साबित करना चाहते हैं कि कारीगरी और आशिक़ी में फ़रहाद जैसा कारीगर और आशिक़ भी उनका सानी नहीं है. वो भी उन्हें उस्ताद मानता है.
सिर्फ़ फ़रहाद ही नहीं ग़ालिब समेत उर्दू के तमाम शायर मीर को अपना उस्ताद मानते हैं. देखिए रासिख साहेब भी यही फ़रमा रहे-
“शागिर्द हैं हम ‘मीर’ से उस्ताद के ‘रासिख़’
उस्तादों का उस्ताद है उस्ताद हमारा”
आइए अब गली क़ासिमजान चलते हैं देखते हैं ग़ालिब साहेब इस मौज़ू पर क्या फ़रमाते हैं?
“आशिक़ हूँ प माशूक़ फ़रेबी है मेरा काम
मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे”
ग़ालिब का ये शेर ग़ालिब के उन अशआर में से है जिसमें उन्होंने ख़ुद को बेहतर से बेहतरीन आशिक़ साबित करने की कोशिश की है. ये ग़ालिब साहेब का बेहद शोख़ शेर है.
इस शेर में ग़ालिब कह रहे कि मैं आशिक़ हूँ लेकिन मैं माशूक़ के लिए दीवाना हो जाने वाला या उस पर मर मिटने वाला आशिक़ नहीं हूँ. मेरा काम माशूक़ को धोखा देना है. मैं उसे अपनी बात के दाम (जाल) में इस क़दर उलझाता हूँ कि लैला जैसी माशूक़ भी अपने सच्चे और जूनूनी आशिक़ मजनू की बुराई मुझसे करने लगती है. उस मजनू की जो आशिक़ी में सबसे ऊँचे मक़ाम पर फ़ायज़ है. मैं इक अय्यार और शातिर आशिक़ हूँ जो माशूक़ का ऐतबार हासिल कर लेता है.
इस शेर की दूसरी सतर की इक तशरीह यूँ भी हो सकती है कि मैं ऐसा आशिक़ हूँ जिसके सामने लैला जैसी माशूक़ को भी मजनू जैसे आशिक़ में बुराइयाँ नज़र आने लगती हैं. उस लैला को जिस लैला की मजनू से मुहब्बत की मिसालें दी जाती हैं. बस इतना भर ही नहीं, लैला ग़ालिब साहेब से मजनू की शिकायतें करने लगती है यानि आशिक़ी में ग़ालिब साहेब का दर्जा मजनू से बालातर है. उन्हें लैला की नज़र में वो मक़ाम हासिल है जो ख़ुद मजनू का भी नहीं था.
हमें तो मीर साहेब और ग़ालिब साहेब का अंदाज़े गुफ़्तगू देखकर मीर साहेब का वो शेर याद आ रहा-
“बुलबुल ग़ज़ल-सराई आगे हमारे मत कर
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का”
अब आप ही इन दोनों शेरों से ये नतीजा निकालिए कि ग़ालिब और मीर में से कौन बेहतर आशिक़ है?
(25)
‘मीर’ दरिया है सुने शेर ज़बानी उसकी
अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उसकी”
मीर अपने अशआर में तशबीहों (उपमाओं) की मदद से ऐसे पैकर तराशते हैं जिनमें ज़िंदगी की हरारत (गर्मी) होती है. मीर का ये शेर उसी की मिसाल है. इसके साथ ही मीर अपने कई अशआर में ख़ुद अपनी तारीफ़ किया करते हैं. इसलिए उनके अशआर में ख़ुदबीनी और नर्गिसियत (आत्ममुग्धता) की भी झलक मिलती है. आइए उनके इस मशहूर-ए-ज़माना शेर की तशरीह करते हैं-
यहाँ मीर ख़ुद कहते हैं क्या तुमने मीर की ज़बानी शेर सुने हैं?
मीर तो दरिया है यानि मीर के कलाम में समंदर की सी वुसअत (फैलाव) है. समंदर की सी गहराई है. समंदर का सा तरन्नुम (लय) है. समंदर का सा बहाव है यानि रवानी है. समंदर की सी ज़िंदादिली है. चूँकि बहता पानी पाकीज़ा होता है इसलिए समंदर की सी पाकीज़गी भी है. अगली सतर में वो ख़ुद अपने लहजे की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि क्या रवानी है मीर के लहजे में!
मीर के और भी कई ऐसे अशआर हैं जिनमें ग़ालिब ही की तरह वो अपनी ख़ुदबीनी या ख़ुदपसंदी (आत्ममुग्धता) को ज़ाहिर करते हैं. यहां देखिए मीर किस मुहब्बत से हमें अपनी महफ़िल (सभा) में आने की दावत दे रहे हैं-
“न रक्खो कान नज़्मे शाइरान-ए-हाल पर इतने
चलो टुक मीर को सुनने कि मोती से पिरोता है”
कितना प्यारा सा शेर है ना! कितने नर्म और सादा अल्फ़ाज़ में वो हमें दूसरों के अशआर सुनने से मना कर रहे! ख़ुद ही अपनी तारीफ़ करते हुए वो कहते हैं कि मीर तो अल्फ़ाज़ को इस आहिस्तगी और मुहब्बत से शेर में संजोता है गोया धागे में मोती पिरोए जा रहे हों. वो अपने दीवान के बारे में यूँ भी कहते हैं-
“ग़ुलचीं समझ के चुनियो कि गुलशन में मीर के
लखते जिगर पड़े हैं नहीं बर्गहा-ए-गुल”
यहां मीर अपने पढ़ने वालों को होशियार कर रहे कि उनके अशआर उनके जिगर के टुकड़े हैं न कि फूल की पंखुड़ियां.
मीर जितने सहलपसन्द थे उतनी ही उनके शेर में पेचीदगी और तहदारी होती है. शेर में पेचीदगी या तहदारी का मआनी ये होता है कि उसमें वाज़ेह (स्पष्ट) म’आनी के सिवा भी कई म’आनी पिनहाँ (छिपे) होते हैं इसलिए मीर अपने अशआर के बारे में ख़ुद ये कहकर गए-
“ज़ुल्फ़ सा पेंचदार है हर शेर
है सुख़न मीर का अजब ढब का”
मीर के लहजे में नरमी,आहिस्तगी,सादगी और मुहब्बत के साथ मौसिक़ियत भी पाई जाती है. उनके ज़ियादातर कलाम में इक पोशीदा (अदृश्य) लहन (धुन) गूंजती है. कहते हैं ग़ालिब साहब ने किसी फ़क़ीर को मीर का कलाम गाते हुए सुन कर उसके कलाम से मुतास्सिर होकर उससे शायर के मुतअल्लिक़ सवाल किया था और कहा था-
“रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था”
मीर के कलाम को पढ़ने के बाद ये बात पूरे तौर पर वाज़ेह (स्पष्ट) हो जाती है कि मीर ग़ैर मामूली ज़ेहनी क़ाबीलियत रखते थे, सादा अल्फ़ाज़ में कहें तो मीर इक जीनियस थे साथ ही वो इस बात से पूरी तौर पर वाक़िफ़ थे. यही वजह है कि मीर को यक़ीन था कि उनके वक़्त के लोग ही नहीं बल्कि आगे आने वाली नस्लें भी उनके कलाम को भुला नहीं पाएंगी, तभी तो वो पुरऐतमादी के साथ कहते हैं-
“पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद यह बातें हमारियाँ”
इस मज़मून को पढ़ने के बाद आप भी हसरत मोहानी साहब के साथ हमआवाज़ होकर कहेंगे-
“गुज़रे बहुत उस्ताद मगर रंग- ए- असर में
बेमिस्ल है हसरत सुख़न-ए-मीर अभी तक”
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नरगिस फ़ातिमा बनारस शिक्षाशास्त्र में पीएच. डी. उर्दू, फ़ारसी और अरबी की शिक्षा घर में ही प्राप्त की बनारस हिंदू विश्विद्यालय के रणवीर संस्कृत विद्यालय में गणित का अध्यापन. कुछ कविताएँ भी प्रकाशित. fatima. huma1320@gmail. com |
मीर पर इतनी अद्भुत सामग्री देने के लिए अरुण जी शुक्रिया।नरगिस फातिमा को पढ़ना जैसे बहुत सारे खूबसूरत रंगों और खुशबुओं की दुनिया से गुजरना है।ग़ालिब भी अब पढ़ना होगा।
मीर पर बेहतरीन लेख, एक एक शेर के कितने अर्थ हैं और हो सकते हैं सब का विश्लेषण, सच है मीर से बड़ा शायर अभी तक पैदा नहीं हुआ
शानदार विवेचन है। मीर को समझने के लिए जिस शायराना बसीरत की ज़रूरत होती है, वह यहां साफ नज़र आती है। एक-एक शेर की रूह से रूबरू कराने के लिए लेखिका ने विभिन्न कोणों से रोशनी डालने का प्रयास किया है। 25 अशआर की मुकम्मल तशरीह के लिए लेखिका ने मीर, ग़ालिब सहित विभिन्न शायरों के तकरीबन 100 अशआर इक़्तिबास के तौर पर तोहफ़े में पेश किए हैं।
इससे पहले समालोचन पर ही ग़ालिब पर नरगिस फ़ातिमा की सुंदर तशरीह पढ़ी थी।
नए रिसर्च स्कालर्स से मेरी मुलाक़ात होती रहती है, उनकी पी एच डी के टापिक पर बात करता हूँ पी एच डी के अलावा वह क्या लिख पढ़़ रहे हैं? इस पर भी बात होती है, अगर कोई शाइरी पर काम कर रहा है, तो उससे कहता हूँ कि तुम कैफ़ी आज़मी पर या शहरयार पर लिख रहे हो, या इसी तरह के दूसरे टापिक पर लिख रहे हो, यह अच्छी बात है, लेकिन इन सब पर तुम कितना भी अच्छा लिख लोगे, इससे तुम बड़े स्कालर नहीं बन सकते, अगर तुम्हें बड़ा स्कालर बनना है तो मीर ओ ग़ालिब पर लिखकर ही बड़े स्कालर बन सकते हो। नरगिस फ़ातिमा ने बड़े स्कालर बनने की पहली शर्त पूरी कर ली है। पहले ग़ालिब पर और अब मीर पर उन्होंने लिखकर बता दिया है कि उनके इरादे क्या हैं, अगरचे उन्होंने कोई दावा नहीं किया है। रही बात यह कि नरगिस फ़ातिमा ने मीर ओ ग़ालिब पर कैसा लिखा है? तो जिसने शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी की ग़ालिब पर ‘तफ़हीम ए ग़ालिब’ पढ़ ली और मीर पर ‘शेर ए शोर अंगेज़’़ को आत्मसात कर लिया हो, उसके लिए बहुत मुश्किल है, कि कोई दूसरा स्कालर उसके मेयार पर खरा उतरे, लेकिन उन्होंने बहर हाल कुछ बाते पैदा की हैं। मीर शनासी पर कुछ दिलचस्प पहलू निकाले हैं, और मीर को समझने की यह एक अच्छी कोशिश है।
मीर पर बढ़िया लिखा जाना अभी बाक़ी है. तशरीह का अर्थ महज़ मफ़हूम बयान करना है तब तो यह लेख ठीक है. लेकिन उस से ज़ियादः कुछ है तो फिर… मीर का जादू तो, ख़ैर, फ़ारूक़ी साहब भी सीमित तौर से ही पकड़ पाए हैं. मसलन, मिसरा है कि अब संग मुदावा है इस आशुफ़्तासरी का.
कौन सी आशुफ़्ता-सरी? कैसी आशुफ़्तगी? और, लफ़्ज़ देखिये मदावा. किस को ज़रूरत है इस मदावे की? मीर को या ज़िन्दाँ के दूसरे बाशिन्दों को? और, एकदम आम लफ़्ज़ है अब. लेकिन उसमें जो इक आख़िरत है, जो गहरी साँस है…
अर्ज़ है कि मीर और ग़ालिब पर क़लम चलाने से पहले, ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम……
क्यों कि,
तरफ़ें रखे है एक सुख़न चार-चार ‘मीर’
क्या क्या कहा करे हैं ज़बाने-क़लम से हम
बेह्तरीन मजमून है. बेहद दिलचस्प और उम्दा
मीर के चुनिंदा अशार की बेहद दिलचस्प तशरीह।इससे पहले ग़ालिब वाली अद्भुत प्रस्तुति पढ़ चुका था।अतः उसी शिद्दत से ख़ुदा-ए-सुख़न मीर को भी पढ़ा।इस तशरीह में मेरी पसंद के भी कई शेर शामिल हैं।इब्दिता ही ‘मत सहल हमे जानों…जैसे मक़बूल और मौतबिर शेर से होती है।मीर के मर्म के संदर्भ में ग़ालिब और दीगर शायरों के क़लाम का विवेचन इस तशरीह को ऊँचाई बख्शता है।नरगिस फ़ातिमा इसके लिए बधाई की पात्र हैं।
अच्छा आलेख है।