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समालोचन

Home » मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं : संतोष अर्श

मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं : संतोष अर्श

युवा आलोचक संतोष अर्श का मोनिका कुमार के कवि कर्म पर यह आलेख गहराई से न केवल मोनिका की कविताओं को देखता है बल्कि विमर्शों के बीच २१ वीं सदी की कविताओं की विशेषताओं की भी व्याख्या करता चलता है. 

by arun dev
September 3, 2020
in आलेख
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मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं : संतोष अर्श
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मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं                                

संतोष अर्श



हिन्दी कविता के इस समय का यह रुपहला पक्ष है कि इसे पर्याप्त स्त्री कवियों ने परवान चढ़ाया है. यद्यपि स्त्री कवियों को ईमानदारी से पढ़ने और उनके काव्य पर निष्ठा से बात करने में हिन्दी का मर्दवादी इदारा अभी संकुचनशीलता की जीर्ण चादर ओढ़े हुए है। ‘स्त्री-स्वर’, ‘हाशिए की आवाज़’, ‘आधी आबादी’ इत्यादि के वरक़ में लपेट कर उसे मूल्यांकन की समानान्तर पटरी से धकेला जाता रहा है. साथ ही ‘स्त्री-रचित’ होने की रियायत दे कर दोयम दर्ज़ा या अगंभीरता प्रदान करने का एक आसान रास्ता और तैयार किया गया है. इससे आगे बढ़ भी गए तो ‘आलोचना के अभाव’ का विलाप है. और आगे बढ़ेंगे तब पायेंगे कि स्त्री कविता पर मध्यकालीन शब्दावली के साथ पेश आती हुई मर्दवादी नई-समीक्षा की लाचारी है या दिल्लीनशीन फटाफट समीक्षकों के ‘किफ़ायती पैकेज’, जिनमें एक साथ कई स्त्री कवियों की समीक्षा के पैकेट हैं. कभी-कभी केवल नामोल्लेख करके ही उनकी कविता के साथ ‘न्याय’ कर दिया जाता है. इन परिस्थितियों में भी हमारे समय की स्त्री कवियों की एक पीढ़ी है, जिसकी रचनात्मकता हिंदी कविता को समृद्ध कर रही है.   
मोनिका कुमार 2012 से हिन्दी कविता के क्षेत्र में सक्रिय हैं. कई जनमाध्यमों के साथ-साथ समावर्तन और पाखी जैसी पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ पढ़ी और सराही गईं. 2018 में उनका संग्रह ‘आश्चर्यवत्’ रज़ा फ़ाउंडेशन के सहयोग से वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है. इसकी ‘समाज से आक्रांत’ (देखें भूमिका), भूमिका में वागीश शुक्ल लिखते हैं,

“हिन्दी साहित्य-सर्जना का बहुलांश इस समय कुछ बेहद उथली विचार-खाइयों में लोटते हुए उनमें उतरा रहे कुछ मृत शब्द सहेज लेने तक सीमित रह गया है.” जबकि हिन्दी कविता इसी छिछलेपन और उथलेपन से खुद-खुद गहरी होती रही है. उनके अनुसार कविता में राजनीति और समाज के अतिरिक्त भी ‘बहुत कुछ’ होता है और “राजनीतिक होने का चुनाव अनिवार्यतः औद्धत्य की प्रसूति करता है. औद्धत्य के चलते संसार में बुराई का प्रवेश होता है और ख़राब कविता लिखी जाती है.”

ग़ज़ब है कि समाज,राजनीति और विमर्श का प्रभाव इतना प्रचण्ड है. रामभक्त कवियों के “रामराज” और कृष्ण भक्त कवियों की “युगल सरकार” में भी समाज और राजनीति है. और औद्धत्य वहाँ ढूँढना पड़ता है. अपने समय और संसार को सुंदर देखने की लिप्सा के साथ अपनी रचनात्मकता में राजनीति का चुनाव कवि की विवशता है. यह प्रत्येक युग के उदात्त भावभूमि वाले कवियों और उनकी रचनाओं में भव्यता के साथ प्रस्तुत है. चाहे वह समाज हो या राजनीति. सुविज्ञ और साहित्य के प्रति उदार मन को केवल वर्तमान की कविता से आहत नहीं होना चाहिए. सभ्य समाज में अराजनीतिक होने का चुनाव वस्तुतः नामुमकिन है. राजनीति से अप्रभावित रहना भी अंततः राजनीतिक प्रभाव ही है.     

हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य में मोनिका कुमार की कविताएँ अपने प्रभाव, अर्थ और वैचारिक संवेदन में ज़ुदा इसलिए दिखायी देती हैं क्योंकि इनका अधिकतम भाग उत्तर-आधुनिक प्रपंचों से मुक्त है. और यह पोलिश कविता का प्रभाव है, जिसने अपनी इस प्रवृत्ति से स्वयं को विश्व-काव्य में अलगाया है. समकालीनता से निस्पृह और उदासीन रहने, शोर में चुप रहने और ख़राबे में शांतचित्तता का अर्जन दुष्कर है. और इसे भावाभिव्यक्ति में बचाये रखना, रचना तक न पहुँचने देना और भी कठिन है. पोलिश कवि ज़िबिग्निव हर्बर्ट ने अपनी भाषा की महान कविता के इस गुण पर कहा है, 

‘फ्रेंच और जर्मन कविता वाकपटुताहीन और उपदेशपरक हो सकती है,अंग्रेज़ी कविता संकुचित और क्षेत्रीय, अमरीकी कविता आत्म-केन्द्रित और अनुभूतिहीन. पोलिश कवि उत्तर-आधुनिक झकमारी और सनक में नहीं फँसे, जिसके साथ हर जगह के समकालीन लेखक बह गये : उन्होंने साहित्य के उद्देश्य को बरकरार रखने के लिए संघर्ष किया.’ 


चेज़स्लो मिलोस्ज़ से लेकर तादेऊश रोज़ेविच और विस्लावा शिम्बोर्स्का तक पोलिश कविता ने अपनी शानदार बौद्धिकता, सुविज्ञता, दार्शनिक सत्यपरकता, तत्त्व-मीमांसक दृष्टिकोण और समय की गवाह रहने की अपनी प्रवृत्तियों से संसार भर की कविता में अपना उच्च स्थान बनाये रखा है. 

जैसा कि प्रचलित रहा है, मोनिका की कविताओं में सहजता,विनम्रता, धीमेपन और धैर्य को देख कर उनकी प्राथमिक पहचान निर्धारित की गयी है. बेहद आम अनुभवों से रची गयी ये कविताएँ चेतना को सामयिक शोरगुल से परे हटाती हैं. इनमें हमारे समय की दौड़, हाँफ और तेज़ी नहीं है. आक्रांत करने वाला कोई आगामी ख़तरा नहीं है. आवेगमयता नहीं है. उपदेश नहीं हैं. बहुत कुछ कह डालने की बकवादी कोशिशें नहीं हैं. एक मंथर जीवन-राग है जो साधारण अनुभूतियों से रचा गया है. एक परिष्कृत स्त्री मन है जिसके पास गृहस्थी,अध्यापन, साग-सब्ज़ी, घर-परिवार, रसोई आदि की बातें हैं और जिसे ख़ुश रहने के लिए बहुत कम चाहिए. उपेक्षा की घनीभूत पीड़ा है. अननुमानित प्रेम की थाती है. ट्यूलिप के फूल, अनानास फल और कुछ पेड़-पत्तियाँ भी हैं. इन सबसे यह पता चलता है कि अनुभूति के स्तर पर कविता में बेहद ईमानदारी है. एक मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन की अनुभूतियाँ. अपने जीवन से बाहर का कुछ भी नहीं. जितना जीवन है उसी के भीतर से. यह कहा जा चुका है कि अनुभूति की ईमानदारी अच्छी कविता रचती है.

प्रेम का वृत्तान्त कितनी सादगी से भरा है. प्रेम बहुत है, आडंबर नहीं. उपेक्षा की तमाम पीड़ा के बावजूद प्रेम के लिए उल्लास भरा तैयार हृदय है. उपेक्षा से संकुचित ही सही:

 

मैं अंदाज़न कह पाती हूँ
कितना प्यार है तुमसे
हाथ भर,
समुद्र के जल जितना
या ज़रा भी नहीं.
मैंने झूठ कहा,
कि अंदाज़न कह पाती हूँ
कितना प्यार है तुमसे.
(तरबूज़ देखना)  

प्रणय प्रस्ताव के प्रत्युत्तर में
तुम्हें देने के लिए
मेरे पास राई के दाने जितना दिल है,
यह तुम देखो
इतना छोटा दिल अगर ठीक होगा
प्रेम के लिए.
(राई का दाना)

 

राई का दाना कविता का प्रेम, प्रेम से विरक्ति है. किन्तु आगंतुक प्रेम के सम्मान में राई के दाने जैसा दिल भी प्रस्तुत है. और ज़ाहिर है कि छोटे दिल के साथ बड़ा प्रेम नहीं किया जा सकता. उपेक्षा के दु:ख और अरहर की दाल के स्वाद के मध्य एक संकुचित हृदय है जो उपेक्षा के आघातों से ही संकुचित हुआ है. राई के दाने जितना. जिससे तड़का लगाया जाता रहा है. वह उपेक्षाबोध जिसे चाचियों ने बहुत पहले सीख लिया था. यह सच्चे प्रेमी का प्रेम है जो प्रेम के भ्रम का निवारण कर दे. शिम्बोर्स्का की कविताओं में जिसे एडवर्ड हिर्श ने ‘भ्रमनिवारक प्रेमी की आँख’ (Eye of disabused Lover) के रूप में देखा है. उपेक्षा का यह आघात स्त्री की सार्वभौमिक उपेक्षा से स्त्री-हृदय तक पहुँचता है. बिना शिकायत के अपनी उपेक्षा की पीड़ा को प्रस्तुत करते हुए स्त्री जीवन को बहुत महत्त्व न देने वाले पुरुष-वर्चस्व पर व्यंग्य है. 


यह तुम देखो
इतना छोटा दिल अगर ठीक होगा
प्रेम के लिए- 

पंक्ति इस व्यंग्य की ठोस अर्थ-ध्वनि है. इसे हम थोड़े गुस्से के रूप में भी देख सकते हैं. कविता के अर्थ की अंतिम तहों में यह थोड़ा सा गुस्सा आहत स्त्री अहं (ego) के साथ देर तक ध्वनित होता है. यह कलात्मक भी है. राई के दाने जितना यह दिल कितना विशाल है.

जीवन की अत्यंत निजी अनुभूतियों के साथ रची गयी मोनिका की कविताओं में एक गहरी उदासी,अनिच्छा और उदासीनता व्याप्त है. बेनियाज़ी (निस्पृहता) का एक लहजा,जिसमें उम्मीद की कोई सतही लहर नहीं है. परंतु निरीह निराशा भी ऐसा क्या कर देगी जो आशा नहीं कर सकती ? विरक्ति और विराग की घनीभूत अवस्थाओं को ठीक-ठीक अभिव्यक्त करने के प्रयास में जाना पड़ता है पत्तियों, फूलों और पेड़ों के पास. रसोई के दैनंदिन जीवन-व्यापार में दर्शन तलाशने. या अनानास के फल के बहाने कोई गहरी चुभती बात कहने. ‘चम्पा का पेड़’ कविता में जीवन पर तारी निस्पृहता देखते ही बनती है:

चम्पा के पेड़ पर कुछ भी उलझा हुआ नहीं है,
पत्तियाँ मुश्किल से एक-दूसरे को स्पर्श करतीं
फूल खिले हुए टहनियों पर विरक्त,
ऐसी निस्पृहता !
जीवन है तो ऐसी निस्पृहता क्यों मेरे पेड़ !
कौन है तुम्हारे प्रेम का अधिकारी,
सर्वत्र तो दिखते हो,
मन में किसके बसते हो.
उत्तर मिला धीरे-से,
निस्पृहता मेरा ढब है.
(चम्पा का पेड़)
निस्पृहता का यह ढब चम्पा के पेड़ का नहीं, कवि के मन की विरक्ति है. यही निस्पृहता दैनिक क्रिया-व्यापार से दर्शन उत्पन्न करती है. जीवन की निस्संगता और निस्सारता को भारतीय स्त्री-जीवन के सीमित किन्तु सच्चे अनुभवों से उत्पादित दर्शन में निहारना मोनिका की कविताओं का उत्स है. उचाट अकेलेपन से जो संशयवाद (Skepticism)उत्पन्न हुआ है, वह कहाँ नहीं है ? या वह कविता में नहीं है ? ‘मैं और मेरे विद्यार्थी’ कविता जो कवि के अध्यापकीय पेशे के अनुभवजनित यथार्थ से रची गयी है, कविता पर भी संशय प्रकट करती है:
ज़्यादातर विद्यार्थी सोचते हैं जीवन बस जीवन है,
कोई कला नहीं,
जब तक मैं नहीं बताऊँ कविता क्या कर सकती है,
उन्हें नहीं लगता कविता कुछ कर सकती है…
कविता के सारांश पर बात करते हुए,
मेरी आवाज़ धीमी हो जाती है,
और अंततः मैं किताब बंद कर देती हूँ.
(मैं और मेरे विद्यार्थी) 
अब कविता क्या कर सकती है ? कवि से लेकर आलोचक तक इस प्रश्न से टकराते हैं. इस प्रश्न पर कवि के बयान को अधिक प्रामाणिक माना जाना चाहिए. शिम्बोर्स्का कहती हैं, ‘कविता इंसानियत और लोगों को नहीं बचाती है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि कविता संसार को नहीं बचा सकती. यह एक पाठक व्यक्तित्व को विचारशील बनाने में मदद कर सकती है. उसकी चैतन्यता को संवृद्ध कर सकती है. इसे पढ़कर संभवतः कोई कम एकाकी महसूस करे.’ यह इसलिए क्योंकि कविता तात्कालिक नहीं है. मनुष्य जीवन तात्कालिकता से बहुत ग्रस्त होता है. जो इस समय में और अधिक है. जीवन की इसी तात्कालिकता को समझ कर कविता की ‘मोज़ार्ट’शिम्बोर्स्का लिखती हैं:
“Nothing can happen twice.
In consequence, the sorry fact is that we arrive here improvised and leave without the chance to practice.”
शिम्बोर्स्का की इस बात के अर्क को हमारे उर्दू के एक शायर ख़लील किदवई ने अपनी ज़बान में कैसे फ़न्नी (कलात्मक) असर के साथ कहा है:
इक ज़िंदगी अमल के लिए भी नसीब हो
ये ज़िंदगी तो नेक इरादों में कट गयी.
मोनिका की कविताओं में अभिव्यक्त जीवन अत्यंत नज़दीक का जीवन है. आमतौर पर या बहुधा ही माना जाता रहा है कि वह काव्य उत्कृष्ट होता है जिसमें अपनी कल्पना से कवि दूर की कौड़ी लाता है. इस समय के विश्व-साहित्य में यह आख्यान (Fiction) की प्रवृत्ति हो गयी है. नज़दीक की कौड़ी से कविता रच कर उसमें प्रत्यय की नवीन उद्भावना करना निःसंदेह असाधारण काव्य-प्रतिभा है. बड़ी बात कहते हुए ‘साइलेंस’ को बचाए रखना, कठोर जीवन में मुलायमियत को सिरजे जाना,चकाचौंध में सादगी को बरकरार रखना, बड़ी-बड़ी उपलब्धियों के मध्य अपनी क्षुद्रताओं के साथ मामूली प्रसन्नताओं को बने रहने देना, ये सभी मोनिका की कविताओं की मूल अर्थ ध्वनियाँ हैं. सादगी इन कविताओं का अलंकार है जो सफ़ेदी की तरह पसरी हुई है, बल्कि कविता की भीतरी संरचना की अर्थान्विति है.

रोज़मर्रा के क्रिया-व्यापारों से दर्शन उत्पन्न करने की भाषिक कुशलता काव्य-कला का एक परम्परागत अंग है. कबीर के ताने-बाने और उनके सेमल के फूल से लेकर ‘काचे कुम्भ’ से प्रतिपादित व्यावहारिक दर्शन का कौन क़ायल नहीं है. चेतना की निर्मिति में प्राकृतिक पदार्थों की भूमिका ही ऐतिहासिक पदार्थवादी दर्शन बन गयी. भारतीय स्त्री के घरेलू काम-काज (Household chores) से उत्पादित दर्शन और काव्यार्थ मोनिका की कविताओं में बेहद नया और मुतास्सिर करने वाला पक्ष है. अनुभूति से अर्जित पदार्थवादी ज्ञान और उससे उत्पादित दर्शन को स्पष्ट करने का सफल प्रयास मोनिका की कई कविताओं में दिखायी देता है. ‘ज़ंग लगना’ कविता इस प्रसंग में विशिष्ट है:

ज़ंग लगना लोहे से लोहे की विरक्ति है.
जैसे रेशम का शॉल पड़े-पड़े घिस जाना,
सभी कुछ जो नाज़ुक या कड़क है
टूटना चाहता है.
फिर भी ज़ंग लगना टूटने का सुंदर ढंग है
पीस डालो ख़ुद को
बीच से रंग उतर आये,
धैर्य इतना कि दिल में छेद हो जाये
लोहे को सिर्फ़ लोहा नहीं काटता
उसका अपना लोहा भी काटता है.
(ज़ंग लगना) 

लोहे का अपना लोहा भी लोहा ही है. चेतना से ही देह मनुष्य है. चेतना के लुप्त होते ही देह भी पदार्थ में बदल जाती है. पदार्थ में चेतना नहीं होती. चेतना से पदार्थ को सिरजा जा सकता है. उसमें चैतन्य या मनुष्य की उपस्थिति दर्ज़ की जा सकती है. मोनिका की कविता ज़ंग लगने को लोहे से लोहे की विरक्ति कह रही है, जबकि नरेश सक्सेना की एक कविता ‘लोहे की रेलिंग’ ने बताया की ज़ंग लगना लोहे की ‘घर लौटने की एक मासूम इच्छा है.’ उसकी धरती की ओर वापसी, जहाँ से वह चला था. वहाँ शुद्ध पदार्थवाद है. यहाँ पदार्थ के आईने में अपनी चेतना का बिम्ब देखने की कोशिश है. विरक्ति मनुष्य का फ़लसफ़ाई मस’ला है पदार्थ का नहीं ! तो क्या मोनिका की कविताओं में हमें बौद्ध आध्यात्मिक पदार्थवाद (spiritual materialism) को देखना चाहिए ? ज़ंग लगना टूटने का बहुत सुंदर ढंग है. यह टूटने का ढंग भारतीय दर्शन में नश्वरता के गहन सिद्धांत से उद्दीप्त है. ज़ंग लगना यदि टूटने का सुंदर ढंग है,वाष्पित होना सूखने का. धुआँना, अंगार होना और राख हो जाना जलने का. अपने व्यामोह, आग्रहों, ज्ञान के अहं और शरीर के भार को शनै: शनै: त्यागते हुए मरने का भी एक सुंदर ढंग है. यह सुंदर कविता और आगे यही कहती है:

रेशम के कीड़े शॉल में छुपे रह कर
धैर्य से टूटते रहते हैं.
गेहूँ के अंदर ही है घुन
मटर की आज्ञा है सुंडियाँ उसे खा जायें
गुड़ चाहता है उड़ती हुई मक्खियाँ रातोंरात उसे छक जायें…
मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं
जहाँ बाल गिरता है,
श्रमिक पौधा लगा देता है.
(वही)    

साधारण बातों से गहन-गंभीर दर्शन की ओर देखने या इंगित करने का सलीक़ा काव्य-पंक्तियों में निरंतर विन्यस्त है. रेशम के कीड़े और शॉल, गेहूं और घुन, मटर और सुंडियाँ, गुड़ और मक्खियाँ पहुंचाती हैं मार्क्स के मूँछ के बालों तक. यह भी एक विरक्ति है. मोहभंग है. एक निष्ठा जो मार्क्स की मूँछ के बालों के साथ झर रही है. उत्तर-आधुनिक पूँजीवाद ने सबसे तगड़ा हमला मनुष्य की निष्ठा पर किया है. परंतु ऐसा भी नहीं है कि मार्क्सवाद से यह मोहभंग कोई बहुत नई बात है. सार्त्र को अब से बहुत पहले ‘तीसरे विकल्प’ की तलाश थी. और पोलिश भाषा ? जो नाज़ी होलोकास्ट, स्तालिनवादी अधिनायकत्त्व और मार्शल लॉ की चश्मदीद गवाह है, उसकी कवि शिम्बोर्स्का समाजवाद से मोहभंग पर क्या कहती हैं : 

‘जब मैं युवती थी तब कुछ समय ऐसा था कि मैं समाजवादी विचारधारा में निष्ठा रखती थी. मैं कम्युनिज़्म से ही संसार को बचाना चाहती थी. अतिशीघ्र मैं समझ गयी कि इससे काम नहीं चलने वाला. किन्तु मैंने ऐसा ढोंग भी नहीं किया कि ऐसा नहीं हुआ है. अपनी रचनात्मकता की बहुत शुरुआत में ही मैंने इंसानियत से प्यार किया. मैं इसीलिए मानवता के लिए कुछ करना चाहती थी. जल्दी ही मैं यह भी समझ गई कि यह संभव नहीं कि मानवता को बचाया जा सके. लेकिन लोगों को पसंद करने की ज़रूरत है. प्रेम करने की नहीं, केवल पसंद करने की. अपने यौवन के मुश्किल अनुभवों से मैंने ये सबक़ सीखे.’


मोनिका की कविता में भी यह विरक्ति अनुभवों से प्रेरित होगी. लेकिन कविता का उम्मीदबर हिस्सा यह भी है कि ज़रूर मार्क्स की मूँछ से बाल झड़ रहे हैं. लेकिन जहाँ बाल गिरता है, वहाँ श्रमिक पौधा भी लगा रहा है. सभी पौधे पेड़ नहीं बनेंगे. कुछ बनेंगे भी.

विरक्ति और नैराश्य का यह भाव प्रेम में भी है. दो दृश्य कविता में सब्ज़ी वाले के व्यापार के साथ प्रेम की असफलता का क़िस्सा है. करुणा से भी विरक्ति है. गली की औरतें सब्ज़ी वाले से परेशान हैं कि यह बहुत महँगी सब्ज़ी देता है, लेकिन गृहिणी उसी से सब्ज़ी ख़रीदती है. प्रेमिका को लगता है कि उसने बहुत प्यार किया है,प्रेमी सोचता है कि हर बार उसी का दिल क्यों टूटता है. सब्ज़ीवाला बनाम गृहिणी का एक दृश्य है और प्रेमी-प्रेमिका की विच्छेद-घड़ी का एक दृश्य. एक ही में गूँथे हुए. यह कविता का विट है. जहाँ सब्ज़ी वाले की करुणा को लेकर संशय है और प्रेम के व्यापार होने का संशय. काव्य-पंक्तियों के साथ यह बात और स्पष्ट होती है :
गृहिणी की टोकरी में उचक रही हैं
मुट्ठी भर हरी मिर्च और धनिये की चार टहनियाँ
जो शायद सब्ज़ी वाले की करुणा है…
(दो दृश्य)

दूसरे दृश्य में प्रेमी विच्छेद के समय प्रेमिका को चूम रहा है. यह उसकी प्रेम की असफलता को सहने की युक्ति है. सब्ज़ी वाले की करुणा निश्चय ही उसकी सफल व्यापार की युक्ति है. लेकिन प्रेम में कोई सफलता या असफलता नहीं होनी चाहिए. संभवतः होती भी नहीं है. प्रेम करके कोई सफल या असफल नहीं होता, वह केवल प्रेम करता है. यह इन दोनों से ऊपर की बात है. जहाँ तक करुणा के प्रति तिरस्कारपूर्ण (Sardonic) भाव की बात है तो वह अन्य कविताओं में भी है :
छिपकलियाँ एकांत के पार्षद की तरह घर में रहतीं
और मैं व्याकुलता की बंदी की तरह.
निश्चित ही आसान नहीं था
छिपकलियों से प्रार्थना करना
इनके वरदान पर भरोसा करना
पर इससे कहीं अधिक मुश्किल काम मैं कर चुकी थी,
जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना.
(एकांत के अरण्य में)
मनुष्य से करुणा की उम्मीद न रहने का व्यंग्य-भाव अंतिम अर्थों में उससे करुणा की आत्यंतिक आशा है. करुणा की उम्मीद मनुष्य से न की जाय फिर किस से ? करुणा अंततः मानवीय अवधारणा है. असमानता, अन्याय और उपेक्षा के सभी आघातों को सह कर भी करुणा की आशा मनुष्य से ही की जा सकती है. मानवीय करुणा के प्रति यह भाव उत्तर-आधुनिक उत्तर-मानवतावाद (post-humanism) या एंटीह्यूमनिज़्म से उत्प्रेरित हो सकता है. या फिर शिम्बोर्स्का के उपर्युक्त अनुभवों से उपजी मानसिक दशा.

मोनिका की कविताओं का स्त्रीवाद उतना मुखर नहीं है जितना कि हम उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखते-सुनते हैं. यह कविताओं में विपर्यस्त है. बराबर चलती हुई चुप्पी के साथ. स्त्री की उपेक्षा की ट्रेजडी सार्वभौमिक है. एक ऊर्ध्व अक्ष पर आते ही स्त्रीवाद की तमाम बातें एक जैसी लगने लगती हैं. यह डिस्कोर्स का कमज़ोर पक्ष है. मोनिका बहुत स्थिर हो कर स्त्री की बात कहती हैं, इसलिए वह अपने पूरे सौंदर्य के साथ प्रभाव डालती है:

मैंने कभी नहीं देखा वह लड़की कौन है
जिसे माँ ने इतना प्रेम किया 
कुछ विद्यार्थी लड़कियाँ होती हैं
जो स्मृति में तो रहती हैं
लेकिन दसवीं के बाद आँखों से ओझल हो जाती हैं.
(नाम और लाड़ के नाम)  

स्त्री को लेकर मुखरता के स्थान पर जो विनम्रता हमें मिलती है वह व्यंजित होने लगती है. यदि स्त्री के लिए हमारे हृदय में करुणा और समानता का भाव है, उसके ऐतिहासिक दलन के प्रति किसी तरह की प्रतिरोधी चेतना है तो यह विनम्रता हमें व्यंग्य जैसी महसूस होगी. आग पानी कविता की अतिशय विनम्र स्त्री व्यंग्य करती हुई जान पड़ती है. विनम्रता की वटी पद का प्रयोग प्रत्यक्ष व्यंग्य है. इस तरह हम एक स्लो बर्न जो कि एक विज़ुअल कलात्मक ढंग का गुस्सा या नाराज़गी है,स्त्री संदर्भों में काव्यात्मक युक्तियों के साथ देख सकते हैं. स्त्री के सार्वभौमिक दु:ख कविता में पहुँच कर समान भी हो जाते हैं. नींद की बात कुछ ऐसी ही है. शहरज़ाद उनींदी पड़ी है कविता में नींद की चाह सारी दुनिया की औरतों की नींद की चाह बन कर अभिव्यक्त हुई है:

ख़ुद को ज़िंदा रखने के लिए
इतने रतजगों के बाद,
उसे प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.
(शहरज़ाद उनींदी पड़ी है) 
ऐसे में मोनिका की विनम्रता स्त्रीवादी संदर्भों में बहुत माक़ूल नहीं जान पड़ती है. स्त्रियों के बुनियादी सरोकारों को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए इस विनम्रता की प्रशंसा से बचना होगा. लिहाज़ा जब मोनिका की कविताओं की व्यंजनाओं पर विनम्र उपस्थिति इत्यादि कह कर सतही टिप्पणियाँ की जाती हैं तो मेरी वोल्टसनक्राफ़्ट की वह बात चरितार्थ हो जाती है जिसमें वे कहती हैं-

“आचरण की विनम्रता, सहिष्णुता एवं वेदना इस प्रकार के सौम्य देवोपम गुण हैं कि उदात्त काव्यात्मक कृतियों में देव इनसे आभूषित होते हैं और कदाचित्, उनकी साधुता का कोई चित्र मनुष्य को इतनी प्रबलता के साथ आकर्षित नहीं करता जितना कि वह जिनमें वह दयालुता व क्षमाशीलता को बहुलता से प्रदर्शित करती हैं.”    

(स्त्री-अधिकारों का औचित्य साधन)
सो ऐसी शब्दावलियाँ भी स्त्री सरोकारों के लिए, उसके रचे गये साहित्य के लिये एक मर्दवादी कुचक्र ही रचती हैं.
यदि हम मोनिका की कविताओं के शिल्प की ओर दृष्टि डालें तो सपाट और स्थूल नज़र आने वाली गद्यात्मकता में अर्थ के स्तर पर इतना सूक्ष्म भावबोध है जो कि स्तब्धकारी है और कविता में इसके प्रभावी गुण से भावक मन देर तक गूँजता रहता है. भाषा,हिन्दी के लिरिकल गुणों से हीन है. कविता का शिल्प गद्य की परिभाषाओं को यथावत रखता है. सूक्तिपरकता की भी अधिकता है. सूक्तिपरकता के बाहुल्य से कविताओं का संग्रह सुभाषित-संग्रह बन जाता है. अलबत्ता सूक्तिपरकता इक्कीसवीं सदी की कविता की एक प्रवृत्ति बन चुकी है. शायद इसलिए क्योंकि अपना सत्य स्थापित करने के लिए कवि अधिक कहना चाहता है. फिर भी ‘विलंब बूढ़े लोगों का गुण है’, ‘मरना कोई बीमारी नहीं है’, हमारे मरने की मामूली कहानी, हमें मरने तक ज़िंदा रखती है’जैसी सूक्तियाँ कविता को अर्थ ग्राह्य बनाती हैं. स्वयं को अधिकतम अभिव्यक्त करने की काव्यात्मक आकांक्षा और उसमें व्याप्त असमर्थता का बोध कविताओं के सौंदर्य को द्विगुणित करता है. मैं अंदाज़न कह पाती हूँ कितना प्यार है तुमसे… में प्रेम का अंतहीन चाव बना हुआ है. हमारी संकट में पड़ी ऊब और ख़रगोश में बचा हुआ नरम-नरम बचाने में ये कवितायें बहुत सफल हैं. स्मरण हो शिम्बोर्स्का की पंक्ति :
‘मैं बोलती हूँ शब्द मौन और इसे नष्ट कर देती हूँ’
और मोनिका कहती हैं-
‘सभी अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं’
दोनों पंक्तियों का वज़न बराबर सा लगता है. मोनिका की कवितायें हमें जिस विश्रांति से भर देती हैं वह अलभ्य है. बात कहने का एक बहुत संयत और शालीन सलीक़ा. बस मोनिका की कविताओं में सामूहिक चेतना (collective thinking) का अभाव अखरता है, क्योंकि ये व्यक्तिगत विषयनिष्ठता (Individual subjectivity) की कविताएँ हैं. नवीन सुचेष्टाओं से रचा गया यह काव्य हिंदी कविता हेतु आश्वस्ति है. 
_____________
संदर्भ: पोलिश कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का के सभी कथन एडवर्ड हिर्श के लेख ‘कविता जो मायने रखती है’ से उद्धृत हैं. जो कवयित्री से उनकी मुलाक़ात पर आधारित है .  
 

 
 (चित्र द्वारा अशोक मौर्य)

 

 

संतोष अर्श

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित.
poetarshbbk@gmail.com
Tags: मोनिकासंतोष अर्शस्त्रीवाद
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